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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा /
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि । विकाराच गुणांचैव विद्धि प्रकृतिभवान् ॥ २०-१३ ॥ भावार्थ - प्रकृति और पुरुष दोनों को ही अनादि जान रागादि विकारोको व सत्व, रज, तम गुणोंके प्रकृतिमे ही उत्पन्न हुआ जान |
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।। २१-१३ ॥ भावार्थ - कार्य कारण उत्पन्न करनेमे हेतु प्रकृति कही गई है । जीव सुख दुखोके भागने मे हेतु कहा जाता है ।
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शिष्य - जैन दर्शन और साख्य दर्शनमे अंतर क्या है ? शिक्षक - सूक्ष्म अंतर यह है कि जैनदर्शनमे आत्माको परि गमनशील माना है । क्योंकि वह द्रव्य हे । जोर द्रव्य होना है वह उत्पाद व्यय धौव्य रूप होता है । उसमे पर्याय होती है । इसलिये परिणमनशील है । जब एक पर्याय उत्पन्न होती है पुरानी पर्यायका व्यय होता है तथापि आत्मद्रव्य वही है । मोहनीय कर्मके निमित्तसे आत्मा रागद्वेष भाव मे परिणमन कर जाता है उस समय उसमें "शात व वीतराग भाव नहीं होता है । जब रागद्वेष भाव नाग होता है तब वीतराग भाव पैदा होता है | साख्य सिद्धातमे पुरुष या आत्माको अपरिणामी तथा अकर्ता माना है । सर्व कार्यमे प्रवृत्ति ही कर्ता माना है । जैसे कहा है
पुरुपस्यापरिणामित्वात् " ( १८ पाठ ४ योगदर्शन पाताजल १९०७ मे छ ) अर्थात् आत्मा परिणमन रहित है' - रपि फलोपभोगी अन्नादिवत् " ( साख्य दर्शन छ सं० १० ५७ )
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