Book Title: Vidyarthi Jain Dharm Shiksha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Shitalprasad

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Page 274
________________ २५४ ] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । कि जगतके उपकार में मन, वचन, कायको लगाकर सफल करता रहे। कभी भी आलसी न होवे, कर्मयोग व ज्ञानयोग साथ ही चलने है, निर्विकल्प समाधि ज्ञानयोग है, सविकल्प विचार व कार्य कर्मयोग है । एकके पीछे दूसरा हुआ करता है । अंतमे ज्ञान योगने मुक्ति होती है । सम्यग्दृष्टि तत्वज्ञानीके भोग कर्मोके छूटनेके लिये है ऐसा श्री कुंदकुंदार्य समप्रसारमे कहते है - 1 उवभोज मिंदियेहिय व्त्राणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्टी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥ २०२॥ भा० - सम्यक्दृष्टी सुमुक्षु तत्वज्ञानी जो कुछ इन्द्रियोंक द्वारा अचेतन तथा चेतन पदार्थों का भोग करता है वह सब कर्मों की निर्जराके लिये है । ( क्योंकि वह उनमे रंजायमान नहीं है । जैसेरोगी कडवी दवा खाने हुए उसमे रागी नहीं है | ) सेवतोवि ण सेवदि असेवमाणोवि सेवगो कोवि । पगरणचेहा कस्सवि णयपायरणोति सो होदि ॥ २०६ ॥ भा०—तत्वज्ञ नी भीतर से वैरागी भोगोको भोगता हुआ भी - भोगता नहीं है। अज्ञानी भोगासक्त भोगोको न भोगन हुए. भी भोगने वाला है । कोई किसीके यहा विवाहादि कामके लिये जाकर काम करता है परन्तु उस कामका स्वामी नहीं होता है जब कि न काम करनेवाला घरका स्वामी उसमे तीत्र रागी है । - श्री अमृतचन्द्राचार्य समयसार कलशमे कहते हैनाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विपयसेवनस्य ना । ज्ञानवैभव विरागता वलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥ ३-७ ॥

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