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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२५३ या दुःख होता है उसमे समान भाव रखता है। क्षणिक सुखके होनेपर उन्मत्त नहीं होता है। दुःखोंके पड़नेपर घबराता नहीं। वह लौकिक व पारलौकिक कार्योको विना इच्छाके विना बदलेमें उसका फल चाहे हुए करता है। इससे वह तीव्र कोंमे नहीं वन्धता है। उसको मंगारके भ्रमण करानेवाले कर्मोंका बंध नहीं होता है। जितना अंश रागादिका अंश होता है उतना कर्मका बन्ध होता है। गाढ चिकना बन्ध नहीं पड़ता है क्योंकि वह संसारमे अलिप्त है। एने तत्वज्ञानी सम्यक्तीकी क्रियाको निष्काम कर्म कहते है। क्योंकि वह फलको नहीं चाहता है। वह भीतरसे सर्व कामनाओका त्यागी है।
यदि ऐसे सम्यक्तीके पूर्वमे बाधा हुआ मोह कर्म न हो तब नो यह दो घड़ी ही आत्मध्यानमें परिग्रह रहित व मनको सर्व आरम्भासे रोक करके जोड दे तो देवलज्ञानको प्राप्त करके जीवन्मुक्त या अरहंत होजावे । परन्तु पूर्वबद्ध मोहके विपाकसे यह पूर्ण वैराग्यवान जबतक नहीं पाता है गृहस्थावस्थामें जलमे कमलवत् रहता है। जब आत्मानुभवके अभ्याससे मोह घट जाता है तब स्वयं माधु होजाता है। साधु मदमें वह अकर्मण्य नहीं होता है । जिस समय या जितनी देरतक आत्मव्यानमें उपयोग लगता है, ध्यान करता है । जैन शास्त्रानुसार कोई भी ध्याता एक ध्येयपर ४८ मिनिटमे अधिक नहीं जमसक्ता हैं। ध्यान अति सूक्ष्म तत्व है। यदि कोई साधु ४८ मिनिट के अनुमान जमा रहे तो उसे केवलजान होकावे । शक्तिके अभावसे नहीं जमा सक्ता है। इसलिये रात दिनमे बहुतसा समय साधुको आत्मानुभवसे बाहर मन, वचन, कायकी क्रियामें विताना पडता है। तब ज्ञानी साधुको उचित है