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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२५१ अव्यक्तोऽार इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥२१-८॥
भा०-जो अप्रगट अविनाशी कही गई है उसे ही परमगति (मोक्ष) कहने है। उसे पाकर कोई पीछे नहीं होते हैं, वही आत्माका परम धाम है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासान्जानाद्धयानं विशिष्यते। ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छांतिरनन्तरम ॥ १२-१२ ॥
भा०-वानशून्य अभ्याससे ज्ञान प्राप्त करना अच्छा है। ज्ञानसे आत्मध्यान श्रेष्ठ है, ध्यानसे कर्मों के फलका त्याग श्रेष्ठ हैत्यागसे तत्काल परमगाति होती है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मंत्र: करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः समःखसुखः क्षमी ॥ १३-१२ ॥
यस्मानोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः। हमर्पभयोवगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५-१६॥
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारंभपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१६-१२ ॥ यो न हप्यति न दृष्टि न शोचति न कांक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१७-१२१ समः शत्रौ च मित्रै च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः ॥ १८-१२॥
भा०-जो सर्व प्राणियोंपर उपरहित हो, सबसे मैत्रीभाव रक्खे, दयावान हो, ममता व अहंकारसे रहित हो, दुःख व सुखमै समान हो, क्षमावान हो, जिससे कोईको भय न हो च जो स्वयं भी भय