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जैनोंके भेद ।
[२१३ श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैंसम्यक्तज्ञानसम्पन्नो जैनभक्त जितेन्द्रियः । लोभमोहमदैस्त्यक्तो मोक्षभागी न संशयः ॥ २५ ॥
भावार्थ-जो सम्यकदर्शन व सम्यक्ज्ञान सहित है, जिनेन्द्रके मार्गका भक्त है, इन्द्रियोंको विजय करनेवाला है, लोभ, मोह, मदसे रहित है वह मंशय रहित मोक्षका भागी है। वहीं कहा है
समता सर्वभूतेषु यः करोति सुमानसः । ममत्वभावनिर्मुक्तो यात्यसौ पदमव्ययं ॥ २१३ ॥
भा०-जो बुद्धिमान सर्व प्राणियोंमे समता भाव करता है तथा ममताभाव त्यागता है, वही अविनाशी पदको पाता है ।
निर्ममत्वं परं तत्वं निर्ममत्वं परं सुखं । निर्ममत्वं परं वीज मोक्षस्य कथितं बुधैः ॥३४॥ निर्ममत्वे सदा सौख्य, संसारस्थितिच्छेदनम् । जायते परमोत्कृष्टमात्मनः, संस्थिते सति ॥२३५॥
भा०-ममता गहतपना परम तत्व है। यही परम सुख है। यही मोक्षका परम वीज है, ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है। संसारकी स्थितिको छेदनेवाला परमोत्कृष्ट सुरव परसे ममता त्यागनेपर तथा आत्माके भीतर स्थिति करनेसे उत्पन्न होता है।
यः सन्तोषामृतं पीतं तृष्णातृट्प्रणाशनं । तैश्च निर्वाणसौख्यस्य, कारणं समुपार्जितं ॥२४७॥
भा०-जिन्होंने तृष्णाकी प्यास बुझानेके लिये संतोषामृतका पान किया है उन्होंने निर्वाणके सुखका मार्ग पालिया है ।