Book Title: Vidyarthi Jain Dharm Shiksha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Shitalprasad

View full book text
Previous | Next

Page 266
________________ २४६ ] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा | जितना अंश राग होता है उतना अंश कुछ कर्मबन्ध होता भी है परन्तु वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टी जीव उस कर्मबन्धसे भी आसक्त नहीं होता है । इसलिये जितना उसका योगाभ्यास या आत्मानुभव बढ़ता जाता है उतना अधिक झड़ता है व अल्प कर्म वन्धता है। जबतक गृहस्थ मे रहता है वह जलमे कमलवत् अनासक्त रहता हुआ गृहस्थ योग्य सर्व कार्य करता हुआ भी मोक्षमार्गपर ही बढ़ता चला जाता है, क्योंकि उसका प्रेम निज तत्वपर है-पर तत्वसे वैराग्यवान है । उस ज्ञानीका सर्व कर्म निष्काम कर्म कहलाता है । वह परोपकार दान धर्म करता हुआ उससे किसी लौकिक व पारलौकिक फलकी कामना नहीं रखता है । वह तो एक शुद्ध स्वभावका ही प्रेमी रहता है । वह केवल एक स्वतंत्रता या स्वाधीनताकी ही भावना रखता है । जब उसका राग बहुत क्षीण होजाता है, वह विरक्त साधु होजाता है और परिग्रह त्यागकर आत्मध्यानका विशेष अभ्यास करता है । जब ऐसा आत्मानुभव रूप समाधिभाव पुष्ट होजाता है कि दुर्वचनोंका सुनना द्वेष नहीं पैदा करता है | शरीरपर वध बन्धनादि व उपसर्ग पडते हुए भी क्रोधभाव नहीं आता है | शरीरके कुचलनेपर भी आत्मस्थ दृढ़ रहता है ऐसा समाधिभाव में स्थित मुनि बहुत अधिक कर्मोंको दूर करता है । वीतरागताका पूर्ण अंश होनेपर नवीन कर्म - बन्ध नहीं करता है । क्योंकि बन्धका कारण राग, द्वेप, मोह है तब यह जीवन्मुक्त परमात्मा या अर्हत् होजाता है । फिर शरीर की आयुप्रमाण रहकर आयु क्षयके पीछे शुद्ध सिद्ध परमात्मा मोक्षरूप हो जाता है । अपने से ही अपना उद्धार होजाता है, अपनेसे ही अपना विगाड़ होता है । यह जैन सिद्धांतका मर्म है । 1

Loading...

Page Navigation
1 ... 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317