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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२४७ गीताके नीचे लिखे श्लोकोंसे जैनधर्मके रहस्यसे साम्यता. झलकती है:---
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६-२॥
भा०-असत् वस्तुका तो अस्तित्व नहीं है । सत्का अभाव नहीं होता है । तत्वज्ञानियोंने इन दोनोका ही सार जाना है।
नोट-इससे सिद्ध है कि इस जगतमे जो कुछ है वह सत् रूप है, कभी अभाव नहीं था, न कभी होगा। इससे अनादि अनंत जगत सिद्ध होता है। न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२०१२
भा०-ग्रह आत्मा न कभी जन्मा है, न कभी मरा है, न यह आत्मा होकरके फिर होनेवाला है । क्योंकि यह अजन्मा है, नित्यः है, शाश्चत् है, पुरातन है । शरीरके नाश होनेपर भी वह नाश, नहीं होता है।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयकोधः स्थितधीर्मनिरुच्यते ॥५६॥२॥ यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७।२ ।। यदा संहरते चाय कूर्मोऽगानीव सर्वशः। इन्द्रियाणींद्रियार्थभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८.२ ॥
भा०--जिसका मन दुःखोके पड़नेपर घबड़ाता नहीं; सुखोंकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं करता है, जिसने राग, भय व क्रोधको नष्ट कर