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जैनोंके भेद ।
[२११ ज्ञानके विना सम्यक्चारित्र नहीं है । चारित्र रहितके कर्मोंसे मुक्ति नहीं होती है । कर्मरहित हुए विना निर्वाण नहीं होमक्ता । जहा पउमं जले जाय, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलितं कामहि, तं व्यं वूम माहणं ।। १७-७ ।।
भा०-जैसे कमल जलमें पैदा होता है तो भी जलसे लिप्त नहीं होता है, वैसे जो काम भोगोंसे लिप्त नहीं होता है उसे हम ब्राह्मग कहते है।
समयाए समणो होइ, वंभचेरेण वंभणो। नाणेणय मुणी होई, तवेण होइ तावणे ॥ १९-७ ।।
भा०-समतासे श्रमण साधु होता है, ब्रह्मचर्यमे ब्राह्मण होता है, ज्ञानसे मुनि होता है, तपसे तपस्त्री होता है।
कम्मुणा भणो होइ कम्मुणा होइ खित्तिो। कम्मुणा वइसो होइ सुदो होइ कम्मुणा ।। २०-७॥
भा०-कर्मसे या क्रिया आचरणसे ही ब्राह्मण होता है। क्षत्रियकी क्रियासे क्षत्रिय होता है। वैश्य कर्ममे वैश्य होता है। शुद्ग कर्मसे शूद्र होता है।
सचे जीवा वि इच्छति जीविउं न मरिज्ज। तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा बजयंति णं ॥ १-९ ॥
भा०-सर्व जीव जीना चाहते है मरना नहीं चाहते हैं। इसलिये निग्रंथ साधु प्राणीवधरूपी घोर कर्मको नहीं करते हैं। न कम्मणा कम्म ग्वति वाला अम्मणा कम्प ग्वति धीरो। मेधाविणो लोभमयावतीता संतोसिणोनोपकरेंति पावं ॥१८-१४