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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। (४) कर्म बंध
जैसे जैनियोंमे कर्मोके आम्रव अर्थात् आनेके भावोंका वर्णन है वैसे बौद्धोंके पाली सूत्रोंमे है। मज्झिमनिकायका पहला मूत्र ही आस्रव सूत्र है। जिसमे यह वर्णन है कि काम भाव और अविद्याके भाव आस्रव है । मिथ्यादृष्टि आस्रव है, अर्थात अपनेको निर्वाणरूप न मानकर और रूप मानना, पाच इन्द्रियोमे आसक्तपना, क्रोधादि भाव आस्रव है । आमवको रोकने के लिये जैसे संवर शब्द जैन शास्त्रोंमे आता है वैसे इसी आस्रव सत्रमे सवरका वैसा ही कथन है । नमूना-" इध भिक्खवे भिक्खु परिसखा योनिसो चघुद्रिय सवर सज्जतो विहरति । यं हिस्स भिखवे चकावुदिय संवर असंवृत्तस्स विहरतो उप्पजेय्युं आसवा विघात परिलाहा चक्खुन्दिय संवरं संयुतम्स विहरतो एवं सने आसवा विधात परिलाहा न होति ।"
भावार्थ-हे भिक्षुओ । जो भिक्षु आश्रवके कारणोंको ध्यानमें लेता हुआ चक्षु इन्द्रियको रोककर विहार करता है उस साधुके चक्षुइन्द्रियको न रोककर विहार करनेसे जो घातक आश्रव होते वे नहीं होते है उनका संवर होजाता है । भावोकी अपेक्षा कोके आस्रव व बंधका कथन बिलकुल मिलता है । कर्मोंके पिड है या कर्म वर्गणाएं है जो आकर बन्धती है, वे रूक जाती है । इनका यद्यपि क्रमवार साफ २ कथन अभीतक नहीं देखनेमे आया तथापि कुछ वाक्य ऐसे मिले है जिनसे सिद्ध होता है कि कर्मोंका बन्ध भी जैनकी तरह बौद्धमतमें स्वीकार था। उसका पीछे विपाक होना, पकना यह सब स्वीकार था। नीचे लिखे शब्दोंसे प्रगट होगा।