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जैन और बौद्ध धर्म ।
[२४१ जो आदत पड़ जायगी तो उसे पशुघातसे लाया हुआ भी मास स्वीकार करना पड़ेगा। तथा बाजारमें खरीदते हुए व भिक्षामें लेते हुए यह जानना कठिन है कि यह मांस स्वयं मरे हुए प्राणीका है । शंका अवश्य रहेगी। जिसमें शंका रहे उसको नहीं ही स्वीकार करना चाहिये । जैसे मदिराको किसी भी तरहसे मिले स्वीकार न करना चाहिये क्योंकि मदिराकी आदत अच्छी नहीं है उसी तरह मांसको किसी भी तरहसे मिले स्वीकार न करना चाहिये, क्योंकि मासाहारकी आदत हिसाकी उत्तेजनाका कारण होनेसे अच्छी नहीं है। स्वयं मरे हुए प्राणीके मांससे कभी दुर्गव नहीं जाती है। इसका कारण यह है कि उसमे सडान पैदा होजाती है, जिससे बहुतसे कीड उसमे पैदा होते है। जो मांस खाएगा वह उन कीड़ोंकी हिंसासे वच नहीं सक्ता है। जैनाचार्य श्री अमृतचंद्रने पुरावार्थ सिद्धयुपायमें मासाहार निधार नीचे प्रकार लिखा है-- न विना प्राणविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यामात । मां भजनस्तस्मान प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥६५॥ यपि किल भवाते मां स्वयमेव मृतस्य महिपटपभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितानिगादनिर्मथनात ॥६६॥ आमास्त्राप पक्यापि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ॥ आमां वा पकां वा खादति यः राति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचित पिंड बहुजीवकोटीनाम् ॥ ६८॥
भ.याथ-पयोंकि पशुवातके विना मासकी उत्सत्ति देखनेमे