________________
जैन और बौद्ध धर्म ।
[२३५ (१) दिग्धनिकाय आगन्ना सुनंत २७ ।
" खत्तियोपि खोवासेठ, कायेन दुच्चरितं चरित्वा, वाचाय दुच्चरितं चरित्वा, मनसा दुचरितं चरित्वा मिच्छादिष्टिको।"
मिच्छा दिठिकमा समादान हेतु कायस्सभेडा परं मरणा अपाय दुग्गति निरयं उप्पज्जति। .
मा०-हे वशिष्ट ! क्षत्री भी यदि मिश्यादृष्टि हो व मन वचन कायसे दुष्ट आचरण करें तो मिथ्याष्टि कर्मको लिये हुए शरीर छूटनेपर मरणके पीछे दुर्गतिमें जाता है, नर्कमे उपजता है !
(२) दिग्बनिकाय ३ संगीत सुतंत
जैसे जैन शास्त्रोंमें दर्शनमाहकर्मके तीन भेद है वैसे वौद्धोंमें भी तीन ऐसे नाम मिलते है " तयोरासि-मिच्छत्त नियती रासि, सम्मत्त नियतो रासि, अनियतो रासि-यहां रासि शब्द प्रगट करता है कि कोई समूह है-जिसे कर्म समूह ही मानना उपयुक्त होगा। अर्थात् मिथ्यादर्शन कर्मराशि, सम्यक्त कर्मराशि, मिश्र कर्मराशि ।
(३) मंस्कृतमें अयरिमितायु सूत्र है-“य इदम् सत्रं लिखिष्यति तस्य पञ्चान्तरायाणि कर्मावरणानि परिक्षयं गच्छन्ति।"(पृ०२८९ Manuscript remaios of Budhist literature in East Turkastan by Hoernle 1916) अर्थात् जो इस सूत्रको लिखेगा उसके पाच अंतराय कर्मावरण नाश होजायगे। उन वाक्योंसे जैनोंके समान पाच अंतराय कर्मोके ही संबंधका कथन है ।
(५) अहिंसा-जैसे जैनियोंमें कहा है कि स्थावर व त्रसकी रक्षा करो ऐसा ही बौद्ध पाली ग्रंथोंमें है।