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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। वह अशुद्ध ही आत्माको पाता है। जैसे सुवर्णमे सुवर्णके कडे व लोहेसे लोहेके कडे बनते है।
अहमेव चित्स्वरूपश्चिद्रूपम्याश्रयो मम स एव । नान्यत् किमपि जडत्वात् प्रीतिः सदृशेषु कल्याणी ॥४१॥
मा०-मै ही चैतन्य स्वरूप ह, मुझ चैतन्य स्वरूपके वही एक आश्रय है और कोई उसके सिवाय आश्रय योग्य नहीं है। क्योंकि और सव जड है। चेतनको चेतन हीमे प्रीति करनी चाहिये । बराबरवालों हीमे प्रीति सुग्वदाई होती है।
शिष्य-क्या ये सब मतभेर दर नहीं होसक्ते? क्या एक प्रकारका जैन वर्म नहीं होसक्ता है।
शिक्षक -मै आपको बता चुका हूं कि दिगम्बर श्वेताम्बर सबका निश्चय मोक्ष मार्ग एकसा ही है। सर्व ही आत्मध्यानम व निर्विकल्प समाधिसे ही मोक्ष मानते है। सर्व ही अहिंसाको ही धर्म मानते है, व्यवहारमे बहुत थोडा मतभेद है। यदि दिगम्बर, मूर्तिपुजक व स्थानकवासी श्वेताम्बर तीनोंके विद्वान व माननीय गुरु पक्ष. आग्रह व परम्पराको त्यागकर साम्यभावसे सम्मति करे और यह विचारें कि निश्चय मोक्षमार्गका साधक कितना व्यवहार मार्ग रक्खा जावे तो यह तय होसक्ता है और एक ही प्रकारका व्यवहारमार्ग भी रह सक्ता है-बहुत शीघ्र निर्णय क्षेसक्ता है। निप्पक्ष विद्वानोंके सम्मेलनकी जरूरत है। परन्तु जबतक ऐसा न हो, हम सब पढ़े लिखे भाइयोंको निश्चयधर्म समझकर व्यवहार धर्म उसके साधनरूप जो अपना अंत करण गवाही दे उसे पालना चाहिये व जिस व्यवहार