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श्रावकोंका आचार। डेंगे। तथापि जिसने दूसरोको कष्ट टनेका विचार किया व यत्न किया वह नो हिसाका अपराधी होगया चाहे दुसरा कष्ट पावे या न पावे ।
जितना अधिक कपायभाव होगा, उतना अधिक वह प्राणी हिंसाका अपराधी होगा। जितना अधिक प्राणधारी जीव होता है; उतना अधिक उसके घात करनेमें व कष्ट देने में कषाय करना पड़ता है । साधारण नियम यही है जैसे एक मानवको मारनेके लिये एक बकरेके मारनेकी अपेक्षा अधिक कार्य हो आता है।इसीसे मानव घातका पाप बकरके घातके पापसे अधिक है। एकेंद्रिय जीवोंके घातमें वेंद्रियादिके घातकी अपेक्षा कम कषाय होनेमे कम पाप है। वन्ध 'कपायकी मात्राके अनुसार अधिक' या कम पड़ेगा। जो सर्व रागादि भावोंका त्यागी होगा वह भावमें अहिंसाका पालनेवाला होगा | उससे द्रव्य प्राणोंकी भी हिंसा न होमी । अतएव वहीं पूर्ण अहिंसक होगा । हिसासे बचनेके लिये हमें रागादि भावोंको दूर करनेकी चेष्टा करनी चाहिये । भाव हिंसा ही द्रव्यहिंसाकी कारण है । कषाय सहित होकरके प्राणियोंको पीडाकारी अशुभ बचनोंको कहना असत्य है । असत्यका त्याग मत्य व्रत है।
कपाय सहित होकरके विना दी हुई वस्तुका लेना चोरी है । चारीका त्याग अचौर्य व्रत है । कपाय सहित होकरके राग भावसे म्री व पुरुषका स्पर्श सो मैथुन है । मैथुनका त्याग ब्रह्मचर्य है। जगतके चेतन व अचेतन पदार्थोंमें मूर्छा या ममत्व भाव रखना पग्ग्रिह है । परिग्रहसे वचनेके लिये परिग्रहके निमित्तभूत बाहरी क्षेत्र मकान स्त्री पुत्रादिका त्याग करना अपरिग्रह व्रत है । इन पांच व्रतोंको साधुगण पूर्णपने पालते है ।