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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । अप्पाणं जरहि अप्पाणं जहा जुन्नाई क्हार्ड हव्ववाहो पमराह एवं अत्तममाहिए अणिहे विगिंच कोहं अविकंपमाणो" स. १३५ पृ.१९०
भावार्थ--आज्ञाकारी, पंडित. नेहरहित अपनेको अकेला एक रूप देख करके अपनेको कृप करे, अपनेको नपसे जीर्ण कर। जैसे पुराने काठको आग जला देती हे वैसे म्नेहरहित होकर क्रोधको तज निष्कंप हो आत्माका ध्यान करनेमे कर्म गल जान है । टीकाकारने वहीं लिखा है कि ऐसी भावना करे
सदैकोहं न मे कश्चित् नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं नासौ भावी तियो मम ||
भावार्थ-मै सदा एक हं, मेरा कोई नहीं है मैं किसी अन्यका नहीं हूं। न मैं किसीको देखता हू जिसका मै हू. न भावी कालमे मेरा कोई होगा। और भी कहा है
जह खलु सुसिर कटं सुचिरं मुकं लहुं डहइ अगी। तह खलु खवंति कम्म सम्मचरणे ठिया साहू ॥ २३४ ॥
भावार्थ -जैसे गीला काठ जब दीर्घ कालमे सूख जाता है तब उसे अग्नि शीघ्र जला देती है वैसे ही जो साधु भले प्रकार स्वरूपाचरण चारित्रमे स्थित होते हे वे कर्मोको क्षय कर डालने है। प्रयोजन यह है कि सर्व जैनोको समताभाव रखकर अतरंग चरित्रपर लक्ष्य देना चाहिये । उस चारित्रका बाहरी साधन व्यवहार चारित्र है। उसके लिये दिगम्बरोंको अपनी श्रद्धाके अनुकूल व श्वेताम्बरोंको अपनी श्रद्धाके अनुकूल चलना चाहिये । माध्यस्थमाव रखना ही जिनेन्द्रकी आज्ञा है । परस्पर द्वेष न रखना चाहिये । जिसकी