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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा |
श्वेतावर कहते है कि दिगम्बर संघ तत्र स्थापित हुआ । यह बात. प्रसिद्ध है कि जैनधर्मी महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य ( सन् ई० मे ३२० वर्ष पहले ) के समय में मन्य देशमे वारह वर्षका दुष्काल पड़ा उस समय श्री भद्रबाहु श्रुतकेबली २४००० मुनिमघ सहित बिगजित थे । श्रुतकेवलीन दुष्कालमे मुनिमंयम पलता हुआ कठिन जान कर सघको दक्षिणकी तरफ चलनेकी सम्मति दी । १२०००ने बात मानली । वे तो दक्षिण श्रवणबेलगोलाकी तरफ चलेगए। शिलालेखोंसे यह सिद्ध है कि भद्रबाहु दक्षिण गए, साथमे राजा चंद्रगुप्त भी मुनिरुपमे था । यहा जो १२००० नग्न मुनि रहे उनसे साधुका चारित्र न पल सका तत्र वे कंधेमे वन्त्र रखने लगे, अर्द्धफालक मत चला | दुष्कालके पीछे वे मुनि लौंट तत्र उनके उपदेश से बहुतोंने पुरानी चर्या धार ली । बहुतोंने वस्त्रका त्याग नहीं किया । यही होनेकी जड है ऐसा दिगम्बरोंके भद्रबाहुचरित्र लिखा है | शिष्य- क्या और कोई विशेष अंतर है? जिसे जानना
जरूरी है ?
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शिक्षक-दिगम्बरी लोग तीर्थकरों की मूर्तिया ध्यानाकार वस्त्र व अलंकार रहित स्थापित करने है । जबकि श्वेताम्बरी लोग मूर्ति तो ध्यानाकार बनाने हे परन्तु उसमे लंगोटका चिन्ह करते हैं. दिगम्बरी ऐसा नही करते है । तथा श्वेताम्बरी ऊपरसे नेत्र जडते हे. आभूषणादि पहनाके मूर्तिको सजाते है । श्वेताम्बरोमे एक स्थानक - वासी पंथ है जो मूर्तिको नहीं पूजने हे तथा उनके साधु श्वेताबरोंके समान वस्त्र रखते है व आहार लाते है परन्तु मुखपर पट्टी वाघते है । उनका ऐसा खयाल है कि कही कोई जंतु मुखमे न