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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा +
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नहीं रहता है तब वह किसी दिन ग्रामकी हद्दमरको ही रख लेता है. बाकीका त्याग कर लेता है । कभी एक मुहल्ले व एक बाजारका ही नियम कर लेता है । कभी एक घरमे ही विश्राम करनेका नियम कर लेता है । इच्छाओके रोकनेका यह बढ़िया साधन हैं ।
(३) अनर्थदण्ड विरति - मर्यादा के भीतर भी प्रयोजनभृत आरम्भ करना वे मतलब आरम्भका त्याग देना अनर्थदण्ड विरति है । इससे तक मूल्य और बढ़ जाता है । वह बेमतलब पापोसे बच जाता है । अनर्थदण्डके पाच भेद है
(१) अपध्यान - दूसरोंकी हार जीत. वध, बन्धन, अंगछेद, घन हरण आदि विचारना, (२) पापोपदेश - जिससे पशुओं को दुख हो ऐसे व्यापारका व हिंसाकारी आरम्भका दूसरेको उपदेश देना कि जिससे वह पापमे लग जावे । (३) प्रमादचर्या - प्रयोजन विना आलस्यसे वृक्ष छेदना. पत्ते तोडना फल फूल नोचना, जमीन खोटना, पानी फेंकना. आग जलाना. हवा करना. व अन्य कोई काम करना । ( ४ ) हिसा दान - हिसाकारी विष, खड़ग, रस्सी. लकड़ी, अग्नि आदि मागे देना, (५) दु:श्रुति - हिसामे प्रवर्तानेवाली., रागभाव बढ़ानेवाली कथाओको सुनना पढ़ना बनाना । इन पाचोंसे-कुछ अपना मतलब नहीं होता है किन्तु वृथा ही संकल्प किये हुए भावोंमे व वचन व कायकी प्रवृत्तिसे पाप कर्मोका बन्ध होजाना है । एक श्रावक इन वृथाके पापोंको त्याग देता है क्योंकि वह ऐसा धर्म व्यापारी है जिससे अपनी वृथा हानि न उठाकर वह पुण्य कर्मोका संचय किया करता है ।
. (३) चार शिक्षाव्रत - इन बर्तोके पालनेसे मुनि धर्मकी शिक्ष