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जैनोंके भेद ।
[१९७ रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसम्पत्तो। एसो जिणोवदेसो तह्मा कम्मेसु मा रज ॥ १५० ॥
भावार्थ-रागी जीव कर्मोको बांधता है परन्तु विरागी जीव कर्मोंसे मुक्त होता है, ऐमाश्री जिनेन्द्र भगवानका उपदेश है। इसलिये शुभ अशुभ कर्मोमें रंजायमान मत हो।
अप्पाणं झायंतो सणणाणमओ अणण्णमओ। लहइ अचिरेण अप्याणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।। १८९॥
भावार्थ-जो कोई एकाग्र मनसे दर्शनज्ञानमई आत्माको व्याता है वह शीघ्रही कर्मोसे छूटकर मात्र आत्माको ही पाता है।
एदिमि रदो णिचं संतुहो होहि णिचमेटलि। एदेण होहि तित्तो तो होहदि उत्तम सोक्ख ॥२०६॥
भावार्थ -इसी आत्माके स्वरूपमें नित्य रत हो, इसी संतोषमान, इनीमे ही तृप्त रहो तो तुझे उत्तम सुख होगा। जैनियोंका एक मुख्य सिद्वांत आत्मोन्नति है व उसका उपाय आत्माका ध्यान है, इसमें कोई जैनी भिन्न सम्मति नहीं रखता है।
दसरा जैनोंका तत्व अहिंसा है। इसमें भी सब जैनोंका एक मत है । अहिंसाका एवरूप ऐसा ही सव मानते हैं जैसा श्री पुरुपार्थसिद्धयुपायमें श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते है
यहवतु कपाययोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यवरोपणस्यकरणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥४३॥ .
भावार्थ-जो क्रोधादि कयायोंके वश होकर भाव प्राण और अन्य प्राणोंका घात करना सो निश्चयसे हिसा है । भाव प्राण आ