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श्रावकोंका आचार। .
[ १८७. स्कार करना,६ वचन शुद्धि रखना, ७ काय शुद्धि रखना, ८ मनः शुद्धि मना, -आहार शुद्ध देना। . . .
मुनि उत्तम पत्र है । श्रावक मध्यम पात्र है । वन रहित श्रद्धावान जैनी जघन्य पात्र है । उनको भक्ति पूर्वक आहार, ओपधि. आश्रय व शास्त्र या विद्या दान देना पात्र दान है । दुःखित भुक्षित किसी भी मानव या पशुको दयाभावसे आहारादि देना करुणादान है । दान देकर फिर भोजन करना यह चौथा शिक्षात है।
श्रावकोको मच्चा श्रद्धान या सम्यकदर्शन रखते हुए पाच अणुव्रतोंको, ईन गुणव्रत और चार शिक्षाबत ऐसे सात शीलोंके माथ बारह व्रत पालने चाहिये ।
सल्लेखना-बारह व्रतोंक मित्राय यह भावना भानी चाहिये कि हमारा मरण शातिपूर्वक हो । जब मरणकी संभावना हो तब धीरे२ आहारपान छोड़े व ध्यान व तत्वविचारमें शांतभावसे रहकर प्राण छोडे । प्राणाकी जोखम जब कभी दिखती हो तब समाधिमरणके साथ प्राण त्याग, धर्मध्यानसे मरे, जिससे भविष्यकी गति अच्छी हो।
एक श्रावक सम्यग्दर्शनके साथ बारहवन और सल्लेखना व्रतको पालता है । इन चौदह बातोंमे पाच पाच अतीचार या दोष प्रमाद या कपायके उदयसे लग जाना संभव है। उन दोषांको जानकर उनसे बचनेका उद्यम करना चाहिये ।
(१) सम्यग्दर्शनके पांच अतीचार-(१) शंका-किमी तत्वमें कभी शंका होजावे, (२) कांक्षा-भोगोंकी इच्छा होजावे, (३) विचिकित्सा-दुःखी रोगी दलिद्रीको देखकर घृणा पैदा होजावे,