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संवर, निरा और मोक्ष।
[१६५ (५) अन्यत्व भावना-यह शरीर पुद्गलमय जड़ है, आत्मा मेरा चेतन है, उससे जब यह जुदा है तब शरीरके सम्बन्धी स्त्री पुत्रादिक धन राज्यादि मेरे कैसे होसक्ते है ? यह रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म भी अन्य है। इनका सदा ही परिवर्तन होता रहता है-मैं अन्य हूं।
(६) अशुचि भावना-यह मेरा मानव देह वीर्य व रुधिरसे उत्पन्न मल, मूत्र, कीट रुधिर, अस्थि मांसादिका पिंड महान अपवित्र है। गंधमाला वस्त्रादि सर्व पदार्थों को मलीन करनेवाला है, आयु कर्मके आधीन क्षणमात्रमें छूट जानेवाला है। इसको नौकरके समान रखकर धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थ साध लेना चाहिये। इसके मोहमें अंध हो पवित्रात्माको अपवित्र व कैदमें न रखना चाहिये।
(७) आस्रव भावना-मन वचन काय, विषय कषायोंके आधीन होकर जो क्रिया करने है उनसे कर्म आकर बंधते हैं, उन कर्मोके उढयसे जीव भव भवमें भटकता फिरता है। ये कर्मास्तव मिटाने लायक है।
(८) संवर भावना-जिन २ कारणोंसे कर्म आकर बंधने हैं उनको हमें रोक देना चाहिये । इसी उपायसे आत्मा अपनेको शुद्ध कर सकता है।
(९) निर्जरा भावना-सविपाक निर्जरा सर्व जीवोंके सदा हुआ करती है । उससे आत्मा शुद्ध नहीं होसक्ता । क्योंकि नवीन कर्म फिर बन्ध जाते है । संवर पूर्वक अविपाक निर्जरा करनेका उपाय वीतरागता सहित इच्छाको रोक कर तप साधन करना है सो मुझे करना चाहिये ।