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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। वियोंग करना. प्राण लेलेना, (६) परिदेवन-संक्लेश भावसे ऐसा रुदन करना जिससे दूसरोंके दिलमे दया पैदा होजावे ।
इन छ बातोको स्वय करनेसे व दूसरोंके भीतर पैदा करदेनेसे व आप व दूसरोंमे दोनोंके भीतर पैदा करा देनेसे असाता वेदनीयका विशेष बन्ध होता है।
शिष्य--यदि कोई वैराग्यवान होकर घर छोड कर साधु होजावे और इस कारणसे उसके घरवाले कष्ट पावें तो घर छोडनेवालेको असाता वेदनीयका बन्ध होगा या नहीं ।
शिक्षक-क्योंकि घर छोडनेवालोंके परिणाम घरवालोको कष्ट देनेके नहीं है कितु आत्म कल्याण करनेके है। घरवाले अपने स्वार्थवश मोहसे दुखी होते है । इस लिये उसे असाता वेदनीयका बन्ध न होगा। जहा भीतरसे परिणाम दुखित करनेके होंगे व अपना ऐसा स्वार्थ साधन करनेके होंगे जिससे दूसरोंको कष्ट पहुच जावे तो असाता वेदनीयके बंधका वह भागी होगा।
(३) साता वेदनीय कर्मके विशेष वंधके भाव ।
(१) भूतानुकम्पा--सर्व प्राणी मात्रपर करुणाभाव (२) वृत्यनुकम्पा-व्रती श्रावक व मुनियोके लिये विशेष दयाभाव कि वे किसी तरह कष्ट न पावें (३) दान- उपकार विचार कर आहार,
औषधि, अभय व विद्यादानका देना धर्मके पात्रोंको भक्तिपूर्वक देना दु खित प्राणियोंको दयाभावसे देना । (४) सराग संयम--धर्मके अनुराग सहित मुनिका चारित्र पालना (५) संयमासंयम--श्रावकका चारित्र धर्मप्रेससे पालना (६) अकाम निर्जरा-समताभावसे कर्मोके फलको भोग लेना (७) बाल तप--आत्मज्ञान रहित मंद कषा