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जीव तल।
[९७ है। हरएक प्राणीके पास जितने प्राण है वे उसके लिये बड़े कामकी, चीजें है। इन हीके द्वारा वे प्राणी इस स्थल उरी में रहते हए अपना अपना काम करते है। यदि हम उनको मार डालेंगे, हमने उनके प्राणोंको नाशकर उनके काममें विघ्न डाला यही अराध किया।
जितने अधिक व जितने मूल्यवान प्राणोंका घात किया जायगा व उनके विगाड़से प्राणीको कष्ट दिया जायगा उतना ही अधिक अपगध होगा। जितने कम व कम मूल्यवान प्राणोंका घात किया जायगा व उनके विगाड़से प्राणीको कष्ट दिया जायगा उतना ही कम अपराध होगा। सबसे कम अपराध स्थावरोंके घातका है, उससे बहुत अधिक द्वेन्द्रियोंके घातका, उससे बहुत अधिक नेन्द्रियों के घातका, उसमे बहुत अधिक चौन्द्रियोंके घातका, उससे बहुत अधिक पंचेंद्रिय असैनीके घातका, उससे बहुत अधिक पंवेन्द्रियसैनीके घातका, उनमें पशुके घातसे मानवके घतका अधिक पाप, मानवोंमें भी साधुके घातका. परोपकारीके घातका साधारण मानवकी अपेक्षा अधिक दोष है। पशुओंमें भी इसी तरह उपयोगिताके विचारसे कम व अधिक अपराध है। इसीलिये यह उपदेश है कि दयावान प्राणीको दया तो सबपर रखना चाहिये। अपने जरूरी कामोंके लिये जितनी कम हिसासे काम चले वैसा बर्ताव करना चाहिये । स्थावरोंके भीतर दो प्रकारके भेद हैं-सूक्ष्म तथा बादर । त्रस सब बादर होते है ।
जो किसी भी इन्द्रियसे न मालूम पडे व जो इतने महीन हों कि बादरोंसे उनका घात न हो न वे परस्पर घात कर सके उनको सूक्ष्म स्थावर कहते हैं। ऐसे पांचों तरहके स्थावर सर्व लोकमे भरे