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जीव तला
. [१२१ लौकिक या पारलौकिक काम करना चाहिये । कमोंका उदय कैसा होनेवाला है, उसे हम नहीं जान सक्ते है अतएव हमें अपने पुरुषार्थसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंका साधन करना चाहिये। विन्न होनेपर अपने दैवको दोप देना चाहिये । दैवके मेटनेका भी पुरुषार्थ हमें धर्म सेवन द्वारा करना चाहिये। इससे हम भविष्यमे उदय आनेवाले पापोंको घटा सत्ते है व पुण्यको बढ़ा सक्ते है। गांतिमय व ज्ञानमय भावोंसे आत्मवल लगाकर यदि हम धर्मको पाले-आत्मध्यानादि करें तो पापको घटा करके पुण्यको बढ़ा सक्ते है।
इन आठ कर्मोमेसे सबसे प्रबल कर्म मोहनीय है जिसकी अट्ठाईस प्रकृतियोंको हम बता चुके है। हमें उचित है कि हम अपने ज्ञान व आत्मबलके पुरुषार्थसे इस कर्मको जीतनेका सदा उद्यम करें। इसको जितना जितना जीतेंगे उतना उतना माग भाव निर्मल होता जायगा व हमारा गुणस्थान (दर्जा) बढ़ता चला जायगा । सारे कर्मोको बांधनेवाला मोह है, मोहके क्षय होते ही सर्व कर्म क्षय हो जाते है।
शिष्य- यह तो मैं समझ गया, कुछ और भी जरूरी बात जाननेकी है।
शिक्षक--अब मैं यह आपको बताता हूं कि संसारी प्राणियोंके मूल गरीर कितने प्रकारके होते है।
गरीर पांच तरहके होते है- (१) औदारिक, (२) वैक्रियक, (३) आहारक, (४) तैजस, (५) कार्मण। इनमें से तैजस शरीर सर्व संसारी जीवोंके सदा पाए जाने है। जब कोई मरता है तब ये दो शरीर साथ२ जाने है ये बहुत ही सूक्ष्म हैं, इन्द्रियोंसे जाननेमें नहीं आते। कार्मण शरीर तो आठ कर्मरूप है। यह शरीर कार्मण वर्गणाओंसे