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विधार्थी जैनधर्म शिक्षा। आठ कोमेसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतरायका सदा ही क्षयोपशम रहता है, कभी इनमे बिलकुल उपशम नहीं होता है न कभी इनका सर्वथा उदय होता है। इनका क्षय होकर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनत बल प्रगट होता है । क्षयोपगम होते हुए जितना उदय है वह उदय भी होता है । अर्थात् क्षय, उपशमके साथ उदय होता है, अकेला उदय नहीं होता है। इसलिये इन तीन काँके सम्बन्धसे क्षयोपशयिक और क्षायिक दो ही प्रकारके जीवके भाव होते है। उदयकी अपेक्षा औदयिक भी लेसक्ते है परन्तु औपगमिक भाव इनमे न होगा।
मोहनीय कर्ममे उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक व औदयिक चारों भाव होंगे। ___आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय इन चार अघातीय कोमे दो ही भाव होंगे-औदयिक और क्षायिक । इनमे औपशमिक और क्षयोपशिक भाव नहीं होते है । ये कर्म उदय होकर फल देते है या नाश कर दिये जाते है।
चार अघातीय कर्मोके उदयको दैव कहते है। इसी तरह चार घातीय कर्मोका जितना उदय है उसको भी दैव कहते है । जितना घातीय कर्मोके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे आत्माका गण 'प्रगट होगा उसको पुरुषार्थ कहते है। यह पुरुषार्थ प्राणीमात्रमे कम
या अधिक पाया जाता है। इसीके सहारेसे सर्व प्राणी अपने कामके लिये उद्यम किया करते है। वृक्ष भी इसी पुरुषार्थसे पानी व मिट्टी खींचता है। प्राणियोंकी उन्नति व अवनतिके जिम्मेदार प्राणी होते है। उनको अपने ज्ञान दर्शन व आत्मबलसे विचार करके हरएक