________________
१००]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। नहीं है, क्योंकि यदि जीवके स्वभावका विचार करें तो ये भाव नहीं मिलेंगे।
व्यवहार नयसे यह जीव कर्मोको बाधनेवाले व घटपट मकानादिके करनेवाले है व कर्मोके फलको भोगनेवाले है। निश्चयसे जीव अपने भावोंके ही करनेवाले है। क्योंकि उन भावोंके निमित्तसे कर्म आप ही बंध जाते है या हाथ पैर आदि चलकर घटपट मकानादि बन जाते हैं इसलिये व्यवहारसे कर्ता कहलाते है । या जीव निश्चयसे अपने भावोंको ही भोगते है क्योंकि सुख या दुखरूप भाव कर्मोके फलसे या बाहरी कारणसे होता है। इसलिये व्यवहार नयसे ही जीव इनके भोक्ता है ऐसा कहनेमें आता है ।
जीवोंकी उन्नति करनेके लिये चौदह श्रेणियां है इनको गुणस्थान (epiritual stages) कहते है । इन श्रेणियोंको पार करके जीव परमात्मा होता है।
शिष्य--क्या आप इनको नहीं समझाएंगे ?
शिक्षक--यदि आप ध्यान देके सुनेंगे तो हम जरूर बताएंगे। क्योंकि इनका जानना बहुत जरूरी है, ये हमारी उन्नतिके मार्ग है।
शिष्य--मैं आपके वचनोंपर बहुत ध्यान देरहा हूं, आप अवश्य बतावें।
शिक्षक--पहले इनके नाम समझ लो व लिखलो--१--मिथ्यात्व गुणस्थान, २--सासादन गु०, ३--मिश्र गु०, ४--अविरत सम्यग्दृष्टि गु०, ५-देशविरत, ६-प्रमत्तविरत, ७--अप्रमत्तविरत, ८-- अपूर्वकरण, ९.-अनिवृत्तिकरण, १०--सूक्ष्मसापराय, ११--उपशात