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मेरा कर्तव्य।
[३५ परसर ,एकता करना चाहे तो उनको एक दू-रेक शास्त्रोंको शांतिसे पढ़कर मनन करना चाहिये, तब विचारवानके दिलोंमें जो कुछ यथार्थ तत्व है सो स्वयं झलक जायगा। हमें बाहरी साधनों के संबंवमें परस्पर विवाद न करना चाहिये न एक दूसरेसे अप्रेम करना चाहिये, स्वयं अपनी बुद्धिसे विचारना चाहिये। असली सुख शांतिके साधनमें हम सबको एकमत रखना चाहिये। बाहरी साधनोंके सम्बन्धमें मतभेद होनेपर भी बुद्धिसे निर्णय कर लेना चाहिये ।
शिष्य-जब ध्यानमय मूर्ति वैराग्य दर्शानेवाली होती है तब ऐसी मूर्तिको जैनीके कोई फिरकेवाले आभूषणोंसे अलंकृत क्यों करते हैं ? मुकुटादि क्यों पहनाते हैं ?
शिक्षक-हमारी रायमें तो वीतरागताके भावको दिखलानेवाली मूर्तिको आभूषणोंसे शृंगारित न करना चाहिये। ऐसा करनेसे अवश्य वीतरागताके दृश्यमें अंतर पड़ेगा। परन्तु वे लोग भक्तिवश ऐसा करते है। यदि वे शांतिसे लाभ हानिपर विचार करें तो हमारी रायमें वे ऐसा न करें। हमने सीलोन तथा ब्रह्मदेशमें बौद्धोंकी ध्यानमय मूर्तियाँ बहुत देखी हैं। वे मूर्तियां शृंगारित नहीं की जाती, हां वस्त्रका चिह उनपर होता है । गौतम बुद्ध धोती या चादर पहनते थे उन्हींका चिह मूर्तिपर होता है । वीतरागता व शांति तो बहुत अच्छी तरह झलकती है।
शिष्य-जो जैनी मूर्तियोंको वस्त्र रहित बनाते हैं उनका क्या अभिप्राय है ?
शिक्षक-वे लोग ऐसा मानते है कि वस्त्रादिको त्यागे विना साधुपद नहीं होसक्ता, इसलिये वस्त्रादि रहित मूर्ति बनाते हैं। जो