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विद्यार्थी जन धर्म शिक्षा । तथा शुभ मन, वचन, कायसे पुण्य कर्म आता है। यदि हम चाहते है कि पाप कर्म न आने पावे तो हमे चाहिये कि हम अशुभ मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको बन्द करदें । जैसे हमको जुए खेलनेकी आदत हो तो जुएको त्यागर्ने । किसीको सतानेकी व किसीके प्राण घात करनेकी आदत हो तो हम मताना व प्राणघात करना छोडढे। झूठ वचन बोलनेकी आदत हो तो हम अट वचन बोलना छोडडे, चोरी करनेकी आदत हो तो हम चोरी करना छोडदें, मदिरा पीनेकी आदत हो तो हम मदिरा पीना छोडडे, भांग पीनेकी आदत हो तो हम भांग पीना छोडडे, वेश्या प्रसंग व परस्त्री प्रसंगकी आदत हो तो हम वेश्या या परस्त्री प्रसंग छोडढे । अपने मन, वचन, कायको पापके द्वारोंसे बचानेके लिये हमको सच्चे भावसे उनके त्यागकी प्रतिज्ञा लेलेनी चाहिये फिर उस प्रतिज्ञाको दृढ़तासे पालनी चाहिये । मानवोंकी बुरी आदतोंको सुधारनेके लिये प्रतिज्ञा वडी आवश्यक बात है। __ हम यह भी बता चुके है कि अशुभ भावों के मूलकारण मिथ्या ज्ञान, इन्द्रियोंकी इच्छाएं तथा क्रोधादि कपाय है। अशुभ भावोंसे बचनेके लिये हमें सम्यग्जान, इन्द्रियोंका निरोध (control of senses) व कपायोंका वश करना या शात रखना ( peacefulness ) आवश्यक है। हमको यह सच्चा ज्ञान रखना चाहिये कि हम आत्मा है। हमारा असली स्वभाव कर्मबन्ध, रागद्वेषादि व शरीरादिसे भिन्न है। सच्चा सुख व सच्ची शांति हमारे ही आत्मामे है । हमें दुःख पड़नेपर आकुलित व संसारके सुख होनेपर उन्मत्त न होना चाहिये । शरीरको एक दिन छूटनेवाला समझकर इस शरीरके रहते हुए आत्मोन्नति व परोपकार करलेना चाहिये । स्त्री, पुत्र, मित्रादिको मात्र