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नोके तत्व। तीव्रता या मन्दता अनुभाग वन्ध है । कर्मोकी प्रकृति यह आठ तरहकी होती है जानावरण आदि, यह हम आपको बता चुके है। कर्म बंधनेके पीछे उसी तरह पकते रहते है जैसे खेतमे वीज बोनेपर वृक्ष पकता है। वे ही कर्म अपनी मर्यादाके भीतर फल देकर झड़ते भी जाते है। जैसे हम इस दिखनेवाले शरीरमें हवा, पानी, भोजन खाते है वे ही हमारे भीतर स्वभावसे पककर खून आदि बन जाते है उन हीका वीर्य बनता है, वीर्यसे ही हम चलते फिरते व काम करते है, हमारे अंग उपंगमें शक्ति रहती है, वैसे ही हम इस सूक्ष्म शरीरमें आप ही पुण्य व पाप कर्म बांधते है व आप ही उसका अच्छा या बुरा फल भोगते है । आस्रव और बंध तत्त्वोंसे हमें यह ज्ञान होता है कि हम किस तरह हर समय कर्मोको बांधकर अशुद्ध होते रहते हैं। आप समझ गए होगे कि वे दोनों तत्त्व कितने जरूरी है।
शिष्य-वास्तवमें बहुत जरूरी हैं। अच्छा कृपाकर आफ पांचवें संवर तत्त्वको बताइये ।
शिक्षक-आस्रवका विरोधी संबर है। कर्मपिंडके आनेका रुक जाना सो संवर है। जिन भावोंसे कर्म रुकते हैं उनको भावसंवर कहते हैं, कर्मोके रुक जानेको द्रव्य संवर कहते है ।+
हम पहले बता चुके है कि मन, वचन, कायकी क्रियाओंसे कर्म पिडोंका आस्रव होता है। अशुभ मन, वचन, कायसे पापकर्म
x सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः । प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशास्तद्विधयः ॥ २,३1८ त. स.
+ आश्रवनिरोधः संवरः ॥ ११९ त. सू.
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