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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। पडेगा। सब एकम्प दीख पडेंगे। आत्मध्यानके समय इसी निश्रयनयसे देखनेका अभ्यास करना चाहिये । व्यवहारनयको बंद कर देना चाहिये । जब आत्मध्यान न हो और व्यवहार में चलना हो तब व्यवहारनयसे देखकर यथायोग्य परस्पर काम करना चाहिये । यद्यपि व्यवहारनयसे देखने हुए रागहेप होगा तथापि भीतरसे मोहरूप न होगा। प्रयोजन मात्र ही होगा, क्योंकि वह जानता है कि ये सब जीव मेरेसे भिन्न है, अपनेर कोको बाधकर यहां आए है और कर्मोको वाधकर अपनी२ भिन्न गतिमे चले जायंग, इनसे मेरा नाता कुछ नहीं है । व्यवहारनयमे जब भेषोंका ज्ञान होता है तब निश्राय नयसे मूल पदार्थोका ज्ञान होता है।
भेप बढलते रहते हे टसीमे इनको पर्याय या अवस्था करने है। मूल द्रव्य कभी विगडता नहीं उसीमे उसको नित्य कहते है* इन दोनों नयोंके द्वारा जबतक तत्वोंको न समझा जायगा तबतक सच्चा जान नहीं होगा। और जिनवाणीके उपदेगका फल प्राप्त न होगा। कितु उनको समझनेसे पूरा फल प्राप्त होसकेगा।
शिष्य-मैं इन दो नयोंको तो समझ गया। क्या कोई और भी उपाय है? शिक्षक-एक उपाय यह है कि हम पर्यायोंके सम्बन्धमे नीचे
*निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहार वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोपि ससारः ॥५॥ व्यवहारनिश्चयो यः प्रबुध्य तत्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥६॥ पु.सि.