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जैनांके तत्व।
[६७ शरीरका थोड़े दिनका साथी मानना चाहिये । आत्मा अकेला ही शरीरमें आता है व अकेला ही मरता है । अकेला अपने कर्मोका 'फल भोगता है। ऐसा समझकर मोहमें पडकर अपने आत्माको पापोंमें नहीं फंसाना चाहिये । धर्म व नीतिसे चलकर जगतके नेहमें अपनेको न उलझाना चाहिये । इन्द्रियोंको अपने आधीन रखना चाहिये। उनके वगमें पड़कर अनुचित काम नहीं करना चाहिये । क्रोध, मान, माया, लोभको अपने आधीन रखकर गांत भाव, कोमल भाव, सरल भाव तथा संतोष भाव रखना चाहिये ।
जीवोंके भाव तीन तरहके होते हे-अशुभ उपयोग, शुभ उपयोग, शुद्ध उपयोग | bad thought-activity, good thoughtactivity. pure thought-sctivity. अशुभ उपयोगसे पाप कम वंधता है, शुभ उपयोगसे पुण्य कमें बंधता है, शुद्ध उपयोगसे कर्माका नाश होता है।
पापकर्मसे बचनेके लिये हमें अशुभ उपयोग छोडना चाहिये। शुभ उपयोगमें वर्तना चाहिये । जब हमको शुद्ध उपयोगका लाभ होगा तब पुण्य कर्मका आना भी बंद हो जायगा । आत्माको सर्वे कर्मबंधसे बचानेका उपाय शुद्ध उपयोग है।
शिष्य-कृपाकर निर्जरातत्वको बताइये ।
शिक्षक-कर्म अपने समयपर फल दिखला करके झड़ते है। इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं। आत्मध्यानको लिए हुए- तपकरनेसे व इच्छाओंको निरोध करनेसे जब भावोंमे वीतरागता होती है तब बांधे हुए कर्म अपने पकनेके समयके पहले ही विना फल दिये