________________
अनोंके तत्त्व ।
प्रमोद भावना-गुणवानोंको, सज्जनोंको, धर्मात्माओंको देखकर मनमें प्रसन्न होजाना।
करुणा भाव-दुःखितोंको देखकर व जानकर द्रयामांव रखना, उनके कष्टोंको दूर करने का यथाशक्ति उद्यम करना ।
मध्यस्थ भाव-जो अपनी सम्मतिसे विरुद्ध हैं उनपर न रागन द्वेष रखना, उनपर उदासीन भाव (indifference ) रखना। ' ' सम्यग्ज्ञानी जीवके शुभ मन, वचन, कायोंका वर्तन ऊपर प्रमाण होता है ।
मिप्य-मिथ्याज्ञानीके भी जगतमें शुभ मन, वचन, कायका वर्तन देखा जाता है वो कैसे?
भिक्षक-मिथ्य ज्ञानी भी जीव दया पालते हैं, सत्य बोलते हैं, चोरी नहीं करते हैं, अपनी स्त्रीमें संतोप रखते हैं, लाभमें संतोष रखते हैं, परोपकार करते हैं, दान देते है परन्तु उनका भीतरी आशय आत्मशुद्धि व सुख शंति लाभ नहीं होता है किंतु कुछ
और ही होता है । जैसे हमें पुण्य कर्म बन्धेगा तो संसारका सुख होगा अथवा हमारा जगतमें यश होगा । अथवा समाजमें हम प्रतिठित माने जावेंगे। इस तरह किसी भीतरी लौकिक आशयसे बड़े २ पुण्यके कर्म करते हैं।
आपको हमने संक्षेपसे यह बता दिया है कि हम अपने ही भावोंसे कर्मपिंडको खींचते है, यही आस्रव तत्त्व है। - शिष्य-अच्छा ! अब कृपा करके बंध तत्त्वको समझाइये।
शिक्षक-जैसे नावमें पानी आकर नावमें भर जाता है तब नाव पानीसे भारी होजाती है, उसी तरह जो कर्मपिंड आता है वह