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जैनोंके तत्व। ग्रह बढ़ानेका भाव, तीन क्रोध, तीव्र मान, ती माया, तीव्र लोभ, जिह्वा आदि इन्द्रियोंकी लम्पटता. शिकार खेलनेका भाव, मदिरा पीनेका भाव, अभक्ष्य भोजनकी लालसा, वेश्याप्रसंग व परस्त्री प्रसंगके भाव आदि।
शिष्य-इन अशुभ भावोंके होनेके मूल कारण क्या हैं ?
शिक्षक-मिथ्याज्ञान इन्द्रियोंकी इच्छाएं और क्रोधादि कषाय है। मिथ्याज्ञान उस ज्ञानको कहते है जो असत्यको सत्य समझे। मैं पहले बता चुका हूं कि हमारा आत्मा स्वभावसे पूर्ण ज्ञानमय, पूर्ण शांनिमय तथा पूर्णानन्दमय है। जो ऐसा न समझकर यह माने कि आत्मा रागी द्वेषी है, शरीरकी अपेक्षा आत्मा ही पशु. पक्षी, मानव. कीटादि है, जो शरीरको और आत्माको, पापपुण्यमई कर्मको
और आत्माको भिन्नर न जाने, जो संसारके क्षणभंगुर सुखको सच्चा मुख माने, जो आत्मीक आनंदको न जाने, जो संसारके नाशवंत धनादि व पुत्रादिको अपना ही जान मोह करे-उनके मोहमे अपने आत्माके गुणोंकों भुलादे, यह सब मिथ्या ज्ञान है। इसे अविद्या, अज्ञान, माह भी कहते हैं । संसारके जालमे फंसानेका यही मूल है । जिसके भीतर यह मिथ्याज्ञान रहता है वही अपनी स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु
और श्रोत्र इन्द्रियोंसे जिन जिन विषयोंको या पदार्थोंको जानता है उनमें रागद्वेष कर लेता है। यदि अच्छे मालम होते है तो राग करता है, बुरे मालूम होते है तो द्वेष कर लेता है। जिनको अच्छे जानते है, प्यारे जानते है उनके लेनेके लिये या पानेके लिये लोभ कषाय तथा माया कपाय करता है । जब वे मिल जाते हैं तब मान कषाय करके दूसरोंको छोटा बड़ा देखता है। जिनको बुरा समझता है