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मेरा कर्तव्यं । थोड़ी देरमें दिल घबड़ा जाता है । परन्तु मूर्ति द्वारा भक्ति घंटा दो घंटा होसक्ती है क्योंकि उसमें कमी मूर्तिका दर्शन है कभी पाठ पढ़ना है, कभी गुण विचारना है, कभी चढ़ानेकी सामग्री उठाना व धरना है। नाना प्रकार के आलम्बन होनेसे मन परमात्माके गुणोकी तरफ लगातार लगता जाता है। सबेरे या शामको मात्र आत्मध्यानमें मन बहुत कम देर लगता है। मूर्ति द्वारा भक्ति,हमारे आत्मध्यान में माधक हैबाधक नहीं है । तथापि यदि किसीको ऐसा सम्बन्ध न मिले तौभी गुरुके उपदेगसे व शास्त्रकी सहायतासे आत्मध्यानकी सिद्ध होसक्ती है। जैसे कोई-चित्रकारको किसी ऐसे चित्रको खींचने के लिये कहा जाये जिसका पहलेका चित्र नहीं है तो वह चित्रकार कहनेवालेके मुखसे उस मानवके शरीरका सब हाल सुनेगा जिसका चित्र खींचना है और मुनकर पहले एक चित्र उस कथनके अनुसार दिलमे बना
F लेगा, फिर पैसा चिन्न खा न सकेगा। इसमे एक बात यह होगी कि टीक वैसा ही चित्र न. आसकेगा जैसा रस मानवका खास मुख भारमा कुच कटिरता होगी। 4. नि स मागा तो चित्रकारका चित्र खींचनमे बड़ी सुगमता होगी। इसी तरह मर्तिके द्वारा भक्ति बिना भी आत्मध्यान होमकेगा,, परन्तु कुछ देर में व कुछ कठिनतासे होगा।
शिव्य-हमने सुना है कि जैनोंमें एक ऐसा फिरका है जो 'मूर्तिको स्थापन नहीं करता है, तो क्या उस फिरकेवाले ध्यान नहीं कर सक्ते ? - "
शिक्षक-यदि गुरू बतावें तो इस फिरकेवाले भी आत्मध्यान कर सक्ते हैं । परन्तु एक साधन जो ध्यान में सहायक होता उसको
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