________________
५८]
विद्यार्थी जैन धर्म मिला। and Continnity) अवस्थाको बदलने हुए पुगनी अवस्थाका व्यय"या नाश होता है, नवी आस्थाकी उत्पत्ति या पैदाइश होती है तौभी मूल द्रव्य अपने गुणों के साथ बना रहता है । जैसे सोनेकी डलीकी अंगूठी बनाई गई तब डलीकी दशाका व्यय हुआ, अंगूठीकी दशाकी उत्पत्ति हुई, सुवर्ण द्रव्य बना हुआ है । चनेका दाना हमारे हाथमें है उसको उंगलीसे मल डाला तब चनेकी दशा विगड़ी। चूरेकी दशा प्रगट हुई तो भी जो कुछ चनेमें था, सो ही चूरेमें हैं। क्रोधभाव किसी जीवमें था, वह जब मिटा तब शांतभाव प्रगट हुआ तथापि जिसमें भाव पलटा वह जीव वही है। यह लक्षण यदि द्रव्यमें न हो तो द्रव्यसे कोई काम न हो। कोई वाजारसे चांदी खरीद करके लाता है, यदि चांदीका गहना न बने अवस्था नबदले तो चांदी खरीद करके न लावे तथा चांदी अपनी हरएक दशामे बनी न रहे-नाश हो जावे तो भी कोई चांदीको न खरीदे । द्रव्यका एक लक्षण गुण पर्यायवान पना है । जिसमें गुण तथा पर्याय सदा पाए जावे । गुण द्रव्य के साथ सदा रहता है-पर्याय बदलती रहती है। जैसे चादी पुद्गलमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुण है, उसकी हालत कुछ न कुछ बदलती रहती है, यही पर्याय है। कोई द्रव्य, गुण तथा पर्यायके विना नहीं मिल सकता है।
हम जीव है, चेतना आदि हमारे गुण है, हमारी अवस्था जो कुछ है, या होगी सो पर्याय है ।*
-
-
-
-सत् द्रव्यलक्षणम् ॥२९॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्॥३०॥ गुणपर्ययवत् द्रव्यम् ।। ३८१५ ॥ त० सू०।