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मेरा कर्तव्य।
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रुक्ता है । गृहस्थको घरवी चिन्ताएं बहुतसी रहती हैं। उसे समय भी कम मिलता है, तथापि यह आप स्वयं विचार सक्ते हैं कि आप कौनमा जीवन पालनेकी शक्ति रखते हैं। परोपकार दोनों में शेसका है, एक्में अधिक एक्में कम ।
शिष्य-पति त्याग जीवनमें रहकर परोपकार किया जावे तो परोपका की क्या गति होगी।
शिक्षक विवाह न करके त्याग जीवनको पालनेका वही अधिकारी है जो ब्रह्मचर्यको भले प्रकार पाल सक्ता हो। जिसने पांचो इन्द्रियोंर अपना पका स्वामित्व प्राप्त कर लिया हो. ो जबानका लोलुपी न हो. सुगंका आमक्त नो, सुन्दरताका प्रेमी न हो तथा ताल, स्वर गानका गगीन हो. जिसको सच्ची सुग्वशांतिकी गाढ़ रुचि हो. आत्मध्यानका अभ्यासी हो व परोपकारके लिये जीवनता अपंग करनमें कुछ भी संकोच न रखता हो । परोपकारी त्यागी नवयुवकों के लिये अभी तेरह प्रकार चारित्र लेकर साधु होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि साधुकी प्रतिज्ञाओंमें रहते हुए स्वदेश परदेश गम,में बहुत बाधाएं पड़ेंगी व खानपानकी बहुन कठिनताएं होंगी। यह साधुका पद उसीके लिये योग्य है जो बिलकुल विक्त हो। जिमका मुख्य ध्येय मात्र आत्मसाधन हो, परोपकारकी मुख्यता न हो. आत्मपाधन यथार्थ वरते हुए जितना परोपकार संभव हो उतनाही साधन किया नासक्ता है। आजकल जैन समाजमें ऐसे त्यागियोंकी जरूरत है जो मनमे विरक्त हों, वीर हों, धैर्यवान हों, विद्वान हों, परिश्रमी हों, दुःखोंके सहनेवाले हों, अपमान व मानको एक समान जानते हों, कष्टोंके पड़नेपर भी परोपकारको न त्यागनेवाले हों, सत्यके अनुयायी