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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। या कायसे अच्छा या बुरा काम करते है तब हमारे भीतर हरकत पैदा होती है उसी समय ये कर्मके स्कंध खिंचकर आजाते है और हमारे. कार्मण शरीरमें बन्ध जाते है। जैसे गर्मीका निमित्त पाकर पानी स्वयं भाफरूप होनाता है, वैसे हमारे अच्छे या बुरे भावोके निमितसे वे स्कंध स्वयं आकर मिल जाते है तब इन्हीको पुण्य पापकर्म कहते है, भाग्य कहते है, किस्मत कहते है, फेट (fate) कहते है, अदृष्ट कहते है प्रकृति कहते है, माया कहते है।
शिष्य-पुण्य पापमे क्या भेद है ?
शिक्षक-जब हमारे भाव अच्छे कार्योंकी तरफ होते है तक हम जिन कौको बाधते है उनको पुण्य कर्म कहते है। जब भाव बुरे कार्योंकी तरफ होते है तब हम जिन कर्मोको बाधते है उनको पाप कर्म कहते है।
शिष्य-कृपा कर अच्छे या बुरे भावोंके नमूने बताइये ।।
शिक्षक-जब हम जीवदया, परोपकार, दान, सत्य वचन, सत्य व्यवहार, ईमानदारी, संतोष, ब्रह्मचर्य पालन, क्षमा, विनय, सरलता, शुचिता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, वैराग्य, परमात्मभक्ति, उत्तम शास्त्र पढ़न, सच्चे गुरूकी सेवा, आदि प्रसन्नताके भाव करते है तब पुण्यकर्म बंधते है। जब हम हिसा, परपीडा, असत्य वचन, चोरी, कुशील, अति लोलुपता, इंद्रिय लम्पटता, क्रोध, मान, माया, लोभ, काम विकार, कुटिलता, अविनय, ईर्षा, घृणा, हंसी, शोक, चुगली, परका बुरा, जुआ खेलना, मांस खाना, शराब पीना, शिकार खेलना, वेश्या प्रसंग, परस्त्री प्रसंग आदि खोटे भाव करते है तब पापकर्म बंधते है। ये पुण्य वा पापकर्म बंधनके पीछे जब काल पाकर .