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मेरा कर्तव्य।
[२५ दूसरा अध्याय।
मेरा कर्तव्य। शिक्षक-आपने कल प्रश्न किया था कि मेरा कर्तव्य क्या है, मैं आपको बतानेकी कोशिस करूंगा। आप भीतरसे क्या चाहते हैं।
शिष्य-हम यही चाहते हैं कि सुखशांतिसे जीवन वितावें व जगतकी कुछ सेवा बने तो कर जावे। मैं समझता हूं कि हरएक बुद्धिमान मानव ऐसा ही चाहता है। कोई भी दुःख व अशांतिको नहीं चाहता है।
शिक्षक-आपका विचार बहुत ही ठीक है। मानव जीवनके दो ही मुख्य उद्देश्य हैं-एक सुग्वशांतिका लाभ, दूसरा परोपकार । मानव सबसे बड़ा प्राणी है ऐसा यह आनेको समझता भी है। इसलिये जो बड़ा होता है उसका काम यही होता है कि अपनेसे छोटोंकी रक्षा करे व सेवा करे । उनका उपकार करे। बराबरवालोंका भी भला करे व उनसे प्रेम सखे । इसलिये मानवका कर्तव्य है कि यदि त्यागी हो तो जगतका उपकार करे, सबको समानभावसे देखकर उत्तम उपदेश देवे, मार्ग बतावे। यदि गृहस्थ हो तो अपने मुख्य सम्बंधी स्त्री पुत्रादिका सच्चा उपकार करे, आने वुटुम्बियोंकी सच्ची भलाई करे, अपनी जातिकी सेवा करे, धर्मकी सेवा करे, नगर व प्र.मकी सेवा करे, स्वदेशकी सेवा करे, जगतके मानवोंकी सेवा करे, पशु समाजकी सेवा करे, वृक्षादि क्षुद्रसे क्षुद्र प्रारियोंकी सेवा करे, जितना अधिक व जितना विस्तारसे हो सके करे । परोपकारसे ही मानवका मनुष्यपना सफल होता है।