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त्रैवर्णिकाधार। .
आर्तध्यानके भेद । आर्तध्यानं चतुर्भेदमिष्टवस्तुवियोगजम् । अनिष्टवस्तुयोगोत्थं किश्चिदृष्ट्वा निदानजम् ॥ २९ ॥ किश्चित्पीडादिके आते चिन्तां कुर्वान्त चेज्जडाः।
तस्मात्याज्यं तु पापस्य मूलमार्त सुदूरतः ॥ ३०॥ अपने पुत्र, स्त्री आदि इष्ट वस्तुओंका वियोग हो जाने पर ऐसा चिन्तवन करना कि ये मुझे किस तरह प्राप्त हों, यह पहला इष्टवियोगआर्तध्यान है । विष, कण्टक, शत्रु आदि अनिष्ट वस्तुओंका संयोग होने पर उनके वियोग होनेका चिन्तवन करना यह दूसरा अनिष्टसंयोगआर्तध्यान है। आगामी भोगोंका चिन्तवन करना यह तीसरा निदानजन्य आर्तध्यान है । शारीरिक पीड़ाके हो जाने पर उसका चिन्तवन करना चौथा वेदनाजन्य आर्तध्यान है । यह आर्तध्यान पापके कारण हैं और इनसे तिग्गति होती है, अत: इनका दूरसे ही त्याग करना अच्छा है ॥ २९-३० ॥
रौद्रध्यानके भेद । प्राणिनां रोदनाद्रौद्रः क्रूरः सत्त्वेषु निघृणः । - पुमाँस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ॥ ३१ ॥
जो पुरुष संसारके दुःखोंसे खेदखिन्न हुए जीवोंको देखकर उनपर दया भाव न कर प्रत्युत क्रूरता धारण करता है उसे प्राणियोंको पीड़ा पहुँचानेके कारण रुद्र कहते हैं । इस रुद्र-क्रूर-मनुष्यके ध्यानको रौद्रध्यान कहते हैं । वह चार प्रकारका है ॥ ३१॥
हिंसानन्दान्मृषानन्दात्स्तेयानन्दात्प्रजायते ।
परिग्रहापामानन्दात्याज्यं रौद्रं च दूरतः ॥ ३२॥ हिंसामें आनंद माननेसे, झूठमें आनंद माननेसे, चौरी करनेमें आनंद माननसे और परिग्रहकी रक्षामें आनन्द माननेसे चार प्रकारका रौद्रध्यान होता है, अतः यह ध्यान दूरसे ही त्यागने योग्य है ॥ ३२॥
धर्मध्यानके भेद। आज्ञापायविपाकसंस्थानादिविचयान्तकाः।
धर्मध्यानस्य भेदाः स्युश्चत्वारः शुभदायकाः ॥३३॥ ___ आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार धर्मध्यानके भेद हैं । ये चारों ही ध्यान शुभ हैं और प्राणियोंका भला करनेवाले हैं ॥ ३३॥
यत्प्रोक्तं जिनदेवेन सत्यं तदिति निश्चयः।
मिथ्यामतपरित्यक्तं तदाज्ञाविचयं मतम् ॥ ३४ ॥ ओ पदार्थका स्वरूप जिनभगवान द्वारा कहा गया है वह सत्य है ऐसा निश्चय करना वह मिथ्या वासनाओंसे रहित आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान है । भावार्थ-इस कलियुगमें उपदेश करने