Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Somsen Bhattarak, Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 374
________________ त्रैवर्णिकाचार ३३३ समय आकाशमें कुछ कुछ लालिमा छा जाय तब वहीं मंडप वर और वधूके स्नान के लिए चूर्णके दो आसन खँचे, उन आसनोंपर दो पट्टे बिछावें । उनपर वधू और वरको बैठाकर क्रिया करें। प्रथम नाई - तैल मर्दन करे । पश्चात् जल स्नान करावे । अनंतर वस्त्र, आभूषण, माला आदिसे दोनों को अलंकृत करें । स्नान के समय सुहासिनियाँ मंगल गीत गावें और बाजे बजानेवाले बाजे बजावें !.. ॥ १५४ - १६० ॥ अथ मंत्र:- गंध अक्षत देनेका मंत्र । ॐ सद्दिव्यगात्रस्य गन्धधारादिक्चक्रं सुगन्धं बोभवीति सुगन्धोऽपि निजेन गन्धेन सुरादयः सर्वे भृशं जायन्ते गन्धिलाः यस्य पुनस्तंतन्यते ह्यनन्तं ज्ञानं दर्शनं वीर्यं सुखं च सोऽयं जिनेन्द्रो भगवान् सर्वज्ञो वीतरागः परा देवता तत्पदोरर्चितप्रार्चितप्रतिलब्धा अमी गन्धा भाले भुजयोः कण्ठे हृत्प्रदेशे त्रिपुण्ड्रादिरूपेण भाक्तिकैः प्रश्रयेण सन्धायन्ते ते भवन्तु सर्वस्मा अपि श्रेयसे लाभे ( भाले ) सन्धारिता अक्षता अप्येवं भवन्तु । इति गन्धाक्षतप्रदानमत्रः । 1 यह गंध अक्षत देनेका मंत्र है । इसे पढ़कर सबको गंध-अक्षत देना चाहिए। गंधको ललाट पर, दोनों भुजाओं पर, गलेपर और हृदय पर लगावें तथा अक्षतको सिरपर धारण करें । ताली बांधने की विधि । रात्रौ ध्रुवतारादर्शनानन्तरे विद्वद्विशिष्टबन्धुजनैश्च सभापूजा । चतुर्थदिने वधूवरयोरपि महास्नानानि च स्त्रपनार्चनाहोमादिकं कृत्वा तालीबन्धनं कुर्यात् । तद्यथा रात्रिको ध्रुवतारा देखनेके बाद विद्वानों और विशिष्ट बंधुजनों के साथ अन्य उपस्थित मंडलीका सत्कार करे | विवाह के चोथे दिन वर और वधूको महास्नान कराकर और जिनाभिषेक, पूजा होम आदि करके तालीबंधन नामका कृत्य करे । वह इस प्रकार है वरेण दत्ता सौवर्णी हरिद्रासूत्रग्रन्थिता । ताली करोतु जायाया अवतंसश्रियं सदा ॥ १६१ ॥ मंत्र: ॐ एतस्याः पाणिगृहीत्यास्तालीं बध्नामि इयं नित्यमवतं लक्ष्मी विदध्यात् । इति कन्याकण्ठे तालीबन्धमन्त्रः । वरके द्वारा दी गई और हलदीसे रंगे हुए धागे में गुंथी- पिरोई गई सोनेकी ताली, इस वधूके मुख्य अलंकारकी शोभा बढ़ावे । “ ॐ एतस्या: पाणिगृहीत्याः " इत्यादि मंत्रको पूर्ण पढ़कर कन्याके गलेमें ताली बांधे । तथा यह क्रिया विवाह के चौथे दिन करे । अनन्तर नीचे लिखा मंत्र पढ़कर आशीर्वाद दे ॥ १६१ ॥ ततः— इन्द्रस्य शच्या सम्बन्धो यथा रत्या स्मरस्य च । सम्बन्धमाला सम्बन्धं दम्पत्योस्तनुतात्तथा ।। १६२ ।।

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