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सोमसेनभट्टारकविरचिततत्पाकश्च बहिः कार्यस्तत्पात्रं च शिलापि च ।
कर्तुः संव्यानकं चापि बहिः स्थाप्यानि गोपिते ॥ १७८ ॥ पिंड देनेके पहले और पीछे स्नान करे । केंथकी बराबर, चावलोंका पिंड बनावे । चावलोंको घरसे बाहर पकावे, घरमें न पकावे । चांवल, पकानेका पात्र, पत्थर और अपने पहननेओढ़नेके दोनों वस्त्र, इन सबको वह पिंडदाता पहले ही घरसे बाहर किसी गुप्त स्थानमें रखदे, घरमेंसे न मंगवावे । भावार्थ--जिस समय पिंड बनानेके लिए पिंडदाता स्नान करे वह उसके पहले उक्त चीजोंको घरसे बाहर किसी गुप्तस्थानमें लेजाकर रखदे। अनन्तर स्नान कर उन चीजोंको वहांसे ले आवे किसीके हाथ न मंगवावे ।। १७७-१७८ ॥
प्रेतदीक्षा।
कर्तुः प्रेतादिपर्यन्तं न देवादिगृहाश्रमः । नाधीत्यध्यापनादीनि न ताम्बूलं न चन्दनम् ॥ १७९ ॥ न खट्वाशयनं चापि न सदस्युपवेशनम् । न क्षौरं न द्विभुक्तिश्च न क्षीरघृतसेवनम् ॥ १८० ॥ न देशान्तरयानं च नोत्सत्रागारभोजनम् । न योषासेवनं चापि नाभ्यङ्गस्नानमेव च ॥ १८१॥ न मृष्टभक्ष्यसेवा च नाक्षादिक्रीडनं तथा ।
नोष्णीषधारणं चैषा मेतदीक्षा भवेदिह ॥ १८२ ॥ मृतकक्रिया करनेवाला मरणदिनसे लेकर शुद्धिदिनपर्यंत देवपूजा आदि गृहस्थके षट्कर्म न करे, अध्ययन-अध्यापन न करे, तांबूल (पान-बीड़ा) न चाबे, तिलक न करे, पलंगपर न सोव, सभा-गोष्टीमें न बैठे, क्षौरकर्म न करावे, दो वार भोजन न करे, (एकवार भोजन करे )। दूध घी न खावे, अन्य देश-ग्रामको न जावे, ज्योनारमें न जीमें (फूटपार्टी आदिमें शामिल न होवे), स्त्रीसेवन न करे, तैलकी मालिश कर स्नान न करे, मिष्टान्न भक्षण न करे, पांसे आदिसे न खेले, चौपड़ सतरंज आदिके खेल न खेले और शिरपर पगड़ो साफा व टोपी वगैरह न हगावे । यह सब प्रेतदीक्षा है ॥ १७९-१८२ ॥
यावन्न क्रियते शेषक्रिया तावदिदं व्रतम् ।
आचार्य कर्तुरेकस्य ज्ञातीनां त्वादशाहतः॥ १८३ ॥ जब तक बारहवें दिनकी शेषक्रिया न करले तब तक दाहकर्ता उक्त व्रतों का पालन करे । तथा अन्य कुटुंबी जन दशवें दिन तक इन व्रतोंको पालें ॥ १८३ ॥
कर्ताका निर्णय । कता पुत्रश्च पौत्रश्च प्रपौत्रः सहजोथवा । तत्सन्तानः सपिण्डानां सन्तानो वा भवेदिह ॥ १८४ ॥