Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Somsen Bhattarak, Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prasarak Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 438
________________ त्रैवर्णिकाचार । ३९७ . संसारार्णवतारणाय सततं धर्मो जिनर्भाषितो धर्मो जीवसमूहरक्षणतया जायेत भव्यात्मनाम् । धर्माद्राज्यपदं परत्र लभते स्वर्गोऽपि धर्माद्भवे द्धर्म भो भन जीव मोक्षपददं जैनं सदा निर्मलम् ॥ २१२ ॥ हे जीव ! तू सदा मोक्षपदप्रदान करनेवाले निर्मल जैनधर्मको सेवन कर; क्योंकि जिन भगवान कर कहा हुआ धर्म संसार-समुद्रसे तारनेवाला है। जीवसमूहकी रक्षा करनेसे भव्य जीवोंको ही यह धर्म प्राप्त होता है ! धर्मसे इस भव में राज्यपद और परभव में स्वर्गमी प्राप्त होता है ।।२१२॥ ग्रन्थकारकी प्रशस्ति । श्रीमूलसङ्घ वरपुष्काराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः । तस्यात्र पट्टे मुनिसोमसेनो भट्टारकोऽभूद्विदुषां वरेण्यः॥ २१३ ॥ श्रीमूलसंघमें पुष्कर नामका गच्छ है । उसमें एक गुणभद्र नामके आचार्य हो गये हैं। उनके पट्टपर विद्वानोंमें श्रेष्ठ यह मुनि सोमसेन भट्टारक हुआ है ॥ २१३ ॥ धर्मार्थकामाय कृतं सुशास्त्रं श्रीसोमसेनेन शिवार्थिनापि । गृहस्थधर्मेषु सदा रता ये कुर्वन्तु तेऽभ्यासमहो सुभव्याः ॥ २१४ ॥ मोक्षप्राप्तिके अभिलाषी होते हुए भी मुझ सोमसेनने धर्म, अर्थ और काम-इन तीन पुरुषार्थोकी सिद्धि के निमित्त इस उत्तम शास्त्रकी रचना को है; इसलिए जो भव्य सदा गृहस्थ-धर्ममें अनुरक्त हैं वे इसका अभ्यास करें ॥ २१४ ॥ छन्दांसि जानामि न काव्यचातुरी शब्दार्थशास्त्राणि न नाटकादिकम् । तथापि शास्त्रं रचितं मया हि यद्धास्यं न कुयाद्विबुधोत्तमोऽत्र मे ॥ २१५॥ मैं न छंदशास्त्र जानता हूं, न मेरेमें काव्य करनेकी चतुरता है, व्याकरणशास्त्र, अर्थशास्त्र और नाटकशास्त्र भी मैं नहीं जानता, तो भी मैने इस शास्त्रकी रचना की है, इसलिए बुद्धिमान् मेरी हँसी न करें ॥ २१५ ।। यद्यस्ति शास्त्रे मम शब्दषणं भव्योत्तमाः शोधयतां ? सुबुद्धिकाः। कुर्वन्तु धर्माय कृता महीतले धात्रा सुबुद्ध्यात्र परोपकारिणः ॥ २१६॥ यदि मेरे इस शास्त्रमें व्याकरण संबंधी आदि दूषण हो तो उत्तम बुद्धि के धारक भव्योत्तम धर्मदृष्टिसे उसे शुद्ध करें। क्योंकि विधाता (कर्म) ने पृथिवी-तलपर परोपकारियों की रचना ही इसीलिए की है ( कि वे औरोंपर उपकार करें)। ॥ २१६ ॥ अब्दे तत्त्व (सर्तुचन्द्रकलिते श्रीविक्रमादित्यजे मासे कार्तिकनामनीह धवले पक्षे शरत्सम्भवे । वारे भास्वति सिद्धनामनि तथा योगे सुपूर्णातिथौ नक्षत्रेऽश्विनि नाम्नि धर्मरसिको ग्रन्थश्च पूर्णीकृतः ॥ २१७ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 436 437 438 439 440