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सोमसेनभट्टारकविरचितधर्मः सूर्यसमो दयादिनकरो मिथ्यातमोनाशको नानाजन्मसमूहदुःखनिचयस्यापां निधेः शोपकः । सद्व्याब्जविकासकः कुगलिकध्वाक्षादिविध्वंसकः
पायात्सर्वजनाँस्त्रिलोकमहितः श्रीवीतरागास्यगः ॥ २०७॥ धर्मरूपी सूर्य दयारूपी दिनको उत्पन्न करनेवाला है, मिथ्या-तमका विनाशक है, नाना जन्मोंमें उपार्जित पाप-समूहरूपी समुद्रका शोषण करनेवाला है, भव्य-कमलोंको प्रफुल्लित करने याला है, चारों गतिरूप कौओंका विध्वंस करनेवाला है-ऐसा तीन लोककर पूज्य और वीतराग सर्वज्ञके मुखकमलसे निकला हुआ धर्म-सूर्य सब प्राणियोंकी पापोंसे रक्षा करे ॥ २०७ ॥
देवेन्द्रवृन्दसुमुखैः परिसेव्यपादोमोक्षस्य सौख्यकथकः परमात्मरूपः । संसारवारिधितटोद्धतसौख्यभारो।
दद्यात्स वो जिनपतिः शिवसौख्यधाम ॥ २०८ ॥ देव और उनके स्वामी जिनके पैर पूजते हैं, जो मोक्षके सुखका उपाय बताते हैं, स्वयं परमात्मरूप हैं और संसाररूपी समुद्र के किनारेपर अभंतसुखको लादेनेवाले हैं-ऐसे श्रीजिनदेव आपको मोक्षसुखका स्थान देवें ॥ २०८॥ . .
धर्मप्रभावेण भवन्ति सम्पदो मोक्षस्य सौख्यानि भवन्ति धर्मतः। जीवन्ति धर्माद्रणमूर्ध्नि मानवास्तस्मात्सदा साधय धर्मसाधनम् ।। २०९॥
धर्मके प्रभावसे अनुपम संपत्तियां प्राप्त होती हैं, मोक्ष सुख मिलता है और रणाङ्गणमें मनुष्य जीवित रहते हैं । इसलिए हे भन्य-मनुष्यो ! सदा धर्म-साधन करो॥ २०९॥
विमलधर्मबलेन सुवस्तुकं सकलजीवहितं सुखदायकम् । परममोक्षपदं भवनाशनं भवति राज्यपदं सुरसेवितम् ॥ २१० ॥
धर्मके बलसे संपूर्णजीवोंका हित करनेवाली सुख-सामग्री प्राप्त होती है, देवसमूह कर सेवनीय राज्यपद प्राप्त होता है और 'संसारका नाश करनेवाला मोक्ष-पद मिलता है ॥ २१० ॥
धर्मः पाणिहितं करोति सततं धर्मो जनैगृह्यतां .. धर्मेण प्रभवन्ति राज्यविभवा धर्माय तस्मै नमः । धर्मान्नश्यति पापसन्ततिकुलं धर्मस्य सौख्यं फलं
धर्मे देहि मनः प्रभौ दृषकरे भो धर्म मां रक्षय ॥ २११ ।। धर्म सब प्राणियोंका हित करता है, भव्यजन प्रति-दिन धर्म सेवन करें । धर्मसे राज्य विभूलि प्रकट होती है, उस धर्मके लिए नमस्कार है। धर्मसे पापोंको संतति नष्ट होती है, धर्मका मुख्य फल सुख है, पुण्य संपादन कराने में समर्थ धर्म में मन लगाओ। हे धर्म ! मेरी रक्षा कर ॥ २११॥