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त्रैवर्णिकाचार |
शेषभूषानिवृत्तिश्च वस्त्रखण्डान्तरीयकम् । उत्तरीयेण वस्त्रेण मस्तकाच्छादनं तथा ॥ २०० ॥ खट्वाशय्याञ्जनालेपहारिद्रप्लववर्जनम् । शोकाक्रन्दनिवृत्तिश्व विकथानां विवर्जनम् || २०१ ॥ प्रातः स्नानं तथा नित्यं जोषमाचमनं तथा । प्राणायाम स्तर्पणार्घप्रदानं च यथोचितम् ॥ २०२ ॥ त्रिसन्ध्यं देवतास्तोत्रं जपः शास्त्रश्रुतिः स्मृतिः । भावना चानुप्रेक्षाणां तथात्मप्रतिभावना ॥ २०३॥ पात्रदानं यथाशक्ति चैकभक्तमगृद्धितः । ताम्बूलवर्जनं चैव सर्वमेतद्विधीयते ॥ २०४ ॥ यदि वर्तते श्राद्धं तद्दिने तर्पण जपः पूर्वोक्तविधिना सर्व कार्य मन्त्रादिसंयुतम् ॥ २०५ ॥
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उस वैधव्यदीक्षा में वह स्त्री देशव्रत ग्रहण करे, गलेमें पहननेके मंगल-सूत्रका त्याग करे, कानोंमें कोई तरह के आभूषण न पहने, बाकीके और और गहने भी न पहने, शरीरपर प और ओढ़ने के दो वस्त्र रक्खे, पलंगपर न सोवे, आंखों में काजल न आंजे, हल्दी वगैरहका उबटनकर स्नान न करे, शोकपूर्ण रुदन न करे, विकथाओंका त्याग करे, निरंतर प्रातःकाल स्मान कैरे, आचमन, प्राणायाम, और तर्पण करे, अर्ध्य चढ़ावे, सुबह, दोपहर और शामको स्तोत्रोंका पाठ करे, जाप दे, शास्त्र सुने, उनका चितवन करे, बारह भावना भावे, आत्मभावना भावे, यथाशक्ति पात्रदान दे, लोलुपता-रहित एक वार भोजन करे, तांबूल-पान बीड़ा न चात्रे तथा जिस दिन श्राद्ध हो उस दिन पूर्वोक्तविधि के अनुसार मंत्रपूर्वक तर्पण करे और जाप दे ॥ १९९ - २०५॥
उपसंहार | इत्येवं कथितं चतुर्विधियुतं सागारिणां सूतकं
पातः स्राव इतः प्रसुतिमरणे शौचाय मुक्त्यर्थिनाम् । श्राद्धपूर्वकमन्नदानकरणं श्राद्धं तथा निर्मलं
कुर्वन्ति नरास्त एव गुणिनः श्रीसोमसेनैः स्तुताः ॥ २०६ ॥
एवं मुक्ति चाहनेवाले गृहस्थोंकी शुद्धि के निमित्त पात, स्राव, प्रसूति और मरण ऐसे चार 'प्रकारके सूतकका कथन किया, तथा प्रसंग पाकर साथ साथमें श्रद्धापूर्वक आहारदान देनारूप निर्मल श्राद्धका भी कथन किया । जो भव्य पुरुष इन चारों तरहके सूतकों का पालन करते हैं और श्राद्ध करते हैं वे बड़े सद्गुणी हैं और श्रीसोमसेन के द्वारा प्रशंसा किये जानेके पात्र हैं ॥ २०६ ॥