Book Title: Traivarnikachar
Author(s): Somsen Bhattarak, Pannalal Soni
Publisher: Jain Sahitya Prasarak Karyalay
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृत्ति १००० ] श्रीवीतरागाय नमः । श्रीसोमसेनभट्टारक-विरचित त्रैवर्णिकाचार । - श्रीयुक्त पं० पन्नालालजी सोनी कृत हिन्दी - अनुवाद-सहित । प्रकाशक जैनसाहित्य - प्रसारक कार्यालय, हीराबाग, गिरगाव - बम्बई । कार्तिक शुक्ला वीर नि० सं० २४५१ [ Comment मूल्यछह रुपया । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक बिहारीलाल कठनेरा जैन, मालिक जैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय, हीराबाग, गिरगांव - बम्बई । 粥 मुद्रक, फॉर्म १ से २७ रा. विनायक बाळकृष्ण परांजपे, नेटिव ओपिनियन प्रेस, अंग्रेवाडी, गिरगांव, मुंबई. फॉर्म २८ से ५० रामचंद्र नारायण मंडलीक, लोकमान्य प्रेस, गिरगांवरोड, मुंबई. और शेष रा. चिंतामण सखाराम देवळे, मुंबईवैभव प्रेस, सँडर्स्ट रोड, गिरगांव-मुंबई । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे खुदके छपाये हुए जैन ग्रन्थ । पाण्डवपुराण-श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत संस्कृत ग्रन्थकापंडित घनश्यामदासजीकृत नवीन हिन्दी अनुवाद । इसमें कौरव और पांडवोंका संसार-प्रसिद्ध प्राचीन इतिहास है । पाण्डवोंके देश-निकाले, द्रौपदीके चीरहरण, कौरव और पांडवोंके प्रसिद्ध युद्ध, दुःशासनकी कूटनीति आदि विषयोंका इसमें विस्तृत वर्णन है । इसे ही 'जैन महाभारत' कहते हैं । मूल्य कपड़ेकी सुन्दर पक्की जिल्दयुक्त ५॥) रत्नकरंडश्रावकाचार-पं० सदासुखजीकृत भाषाटीका-सहित । यह श्रावकाचार सम्बन्धी सबसे ज्यादा बड़ा और प्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसमें विस्तारके साथ श्रावकाचारका वर्णन है। प्रसंगानुसार इसमें बारह-भावना, दशलक्षणधर्म, षोड़शकारण-भावना आदिका भी खूब विस्तारके साथ और सरल वर्णन है । इसकी बहुत ही कम प्रतियां शिलक रही हैं । मूल्य ६) त्रिलोकसार-स्वर्गीय पं० टोडरमल्लजीकृत भाषा-बचनिका-सहित । यह ग्रन्थ बड़े महत्वका है। जैनसमाजमें जैसा 'गोम्मटसार' सिद्धान्त ग्रंथका आदर है वैसा ही इस महान ग्रंथका भी आदर है । इस महान ग्रंथमें जैनधर्मके अनुसार त्रिलोककी रचनाका खुलासा और बड़े विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। इसका स्वाध्याय करनेवाले सहजहीमें इन बातोंको जान सकेंगे कि जैनधर्मके अनुसार पृथ्वी घूमती है या स्थिर है; सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्र घूमते हैं या स्थिर हैं; उनकी गति किस तरह होती है, ग्रहण क्यों पड़ता है, स्वर्ग-नरक क्या है-उनकी रचना कैसी है, आदि । सुन्दर कपड़ेकी जिल्द बंधी हुई । मूल्य ५॥) रु. क्रियाकोश-स्वर्गीय पं० दौलतरामजीकृत । इस ग्रंथमें विस्तारके साथ इन बातोंका वर्णन किया गया है कि हमें खान-पान कैसा रखना चाहिए, भले या बुरे खान-पानका मन पर क्या प्रभाव पड़ता है, कौन वस्तु कब तक खाने योग्य रहती है और कब वह अभक्ष्य हो जाती है, अपने ग्रहोंकी चीज-वस्तुओंको हमें किस सिलसिलेसे उठानी-धरनी चाहिए, जिससे किसी जीवको कष्ट न हो; श्रावकोंको व्रत वगैरहका किस प्रकार पालन करना चाहिए आदि । इस ग्रंथको गृहस्थधर्मका 'दर्पण' कहना चाहिए। कपड़ेकी सुन्दर जिल्द-युक्तका मूल्य अढाई रुपया। पुण्यास्रव-इसमें मनोरंजक और धार्मिक भावोंसे परिपूर्ण कोई ५६ छोटी मोटी कथायें हैं । जिन जिन भव्य पुरुषोंने जिन भगवानकी पूजा, पंचनमस्कार मंत्रकी आराधना, शीलधर्मका पालन, उपवास, दान आदि द्वारा फल प्राप्त कर स्वर्गधाम प्राप्त किया है उन्हींकी कथायें इसमें लिखी गई हैं । खुले पत्र । मूल्य चार रुपया। भक्तामरकथा-मंत्र-यंत्र-साहित । ब्रह्मचारी रायमल्ल रचित संस्कृत भक्तामरकथाके आधार पर बड़ी सीधी-साधी हिन्दी भाषामें स्व० पंडित उदयलालजी काशलीवाल द्वारा लिखित । इसमें पहले Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामरके मूल श्लोक, फिर पं० गिरिधर शर्माकृत सुन्दर हिन्दी-पद्यानुवाद, बाद मूलका खुलासा भावार्थ, फिर भक्तामरके मंत्रोंको सिद्ध करनेवालोंकी तेंतीस सुन्दर और अद्भुत कथाएं, और अन्तमें मंत्र, ऋद्धि और उनकी साधन-विधि तथा अड़तालीस ही श्लोकोंके अड़तालीस यंत्र दिये गये हैं । मूल्य कपड़ेकी जिल्दका १॥=) सादी जिल्दका ११) चन्द्रप्रभचरित-महाकवि श्रीवीरनन्दि आचार्यकृत संस्कृत काव्यका सरल हिन्दी अनुवाद । इसमें आठवें तीर्थकर श्रीचंद्रप्रभ भगवानका पवित्र चरित वर्णन किया गया है । इसकी कथा बड़ी सुन्दर और मनको मोहित करनेवाली है । प्रसंगानुसार इसमें श्रृंगार, वैराग्य, वीर, करुणा आदि सभी रसोंका विस्तृत वर्णन है । मूल्य कपड़ेकी जिल्द युक्तका १॥) सादी जिल्द ११) नेमिपुराण-ब्रह्मचारी नेमिदत्तके संस्कृत ग्रंथका स्व०५० उदयलालजी काशलीवाल कृत नया हिंदी अनुवाद । इसमें बावीसवें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथभगवानका पवित्र चरित और राजकुमारी राजीमतीकी करुण कथा बड़ी सुन्दरतासे लिखी गई है । इसमें प्रसंगानुसार कंस और कृष्णके सम्बन्धकी अनेक अद्भुत घटनायें, कृष्णके द्वारा चाणूरमल्लकी मृत्यु, द्वारिका-निर्माण, कृष्ण तथा बलदेवकी दिग्विजययात्रा, नेमिप्रभुके गर्भ-जन्म-दीक्षा-केवल-निर्वाण कल्याण, देवकी, बलदेव और कृष्णके पूर्व भव, कृष्णकी पट्टरानियोंके भवान्तर, प्रद्यम्नका हरण और विद्यालाभ-सहित वापिस आगमन, कृष्णकी मत्य और पांडवोंका निर्वाणलाभ आदि विषयोंका विस्तृत वर्णन है । मूल्य कपड़ेकी जिल्द ३) सादी जिल्द २॥) सुदर्शनचरित-भट्टारक सकलकीर्तिके संस्कृत ग्रंथका स्व. पं० उदयलालजी काशलीवाल कृत नया हिन्दी अनुवाद । सुदर्शन बड़े दृढ़ निश्चयी थे । शीलवतके पालनेवालोंमें सुदर्शनका नाम विशेष उल्लेख योग्य है । कामी स्त्रियोंने उनपर घोरसे घोर उपसर्ग किये, उनके साथ अनेक प्रकारकी बुरी चेष्टायें कीं, उन्हें शीलधर्मसे गिरानेका खूब ही प्रयत्न किया, परन्तु सुदर्शनका दृढ़ हृदय उनसे बिल्कुल चलायमान नहीं हुआ, वे अपने शीलधर्मपर सुमेरुसे अचल-अडिग बने रहे। यह उन्हीं महात्माका चरित है । मूल्य बारह आना। पवनदूत काव्य--श्रीवादिचंद्रसूरिकृत संस्कृत काव्य और स्व० पं० उदयलाल काशली-- वाल कृत नया हिन्दी अनुवाद । कीमत चार आना। श्रेणिकचरितसार--ब्रह्मचारी नेमिदत्तके संस्कृत श्रेणिक कथासारका स्व. पं० उदयलाल काशलीवालकृत हिन्दी अनुवाद ! मूल्य चार आने । पंचास्तिकाय-समयसा -भगवान कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्राकृतग्रंथकी स्व० पं० हीरानन्दजीने दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया आदिमें यह छन्दोबद्ध टीका लिखी है। यह आध्यात्मिक विषयका ग्रन्थ है । इसमें पहले पञ्चास्तिकाय और षद्रव्यका वर्णन कर बाद व्यवहार और निश्चयमोक्ष-मार्गका वर्णन किया गया है । संसार-भ्रमणके कारण राग-द्वेषादिक दोषोंके छुड़ानेका इसमें बड़ा अच्छा उपदेश दिया गया है । मृ० १) रु० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) छहढाला सार्थ-स्व० पं० दौलतरामजी रचित । श्रीयुत ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकृत सरल अर्थ सहित । इस छोटेसे ग्रन्थमें जैनधर्मका मर्म कूट-कूट कर भर दिया गया है । इसे पढ़ कर थोड़ेमें जैनधर्मकी वहुतसी बातें जानी जा सकती हैं। विद्यार्थियों के लिए तो यह अत्यन्त उपयोगी है । यह प्रत्येक पाठशालामें पढ़ाया जाता है । मूल्य सिर्फ चार आने। छहढाला मूल-स्व. पं० दौलतरामजी रचित । मूल्य एक आना । नियमपोथी--इसे ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने संग्रह किया है। श्रावकोंक जो प्रतिदिन करनेके सत्रह नियम हैं, उनका इसमें खुलासा है । मूल्य एक आना। हिन्दी-कल्याण-मन्दिर-संस्कृत कल्याणमंदिरस्तोत्रका खड़ी बोलीकी कवितामें हिन्दीके प्रसिद्ध कविरत्न पं० गिरिधरशर्माकृत बड़ा ही सुन्दर अनुवाद है । मूल्य - ) चौसठऋद्धिपूजा-यति श्रीरूपचंदजी विरचित । इसीको बृहतगुर्वावली पूजा कहते हैं । मल्य बारह आना। सुखसागर-भजनावली-ब्रह्मचारी शीतलप्रशादजी रचित २५१ आध्यात्मिक पद, भजन, गजल, होली, लावनी, बारहभावना, दोहावली और अष्टान्हिक पूजन तथा सजोतक्षेत्र . स्थित श्रीशीतलनाथ जिनपूजनका संग्रह । दूसरी बार छपाई गई है । मूल्य ११) हितैषी-गायन-अर्थात् बालक-भजन-संग्रह पंचम भाग । पं० भूरामलजी मुशरफ रचित सामाजिक उपदेशी भजनोंका संग्रह ! आधुनिक कुरीतियां और फुजूलखर्चीके कार्योंको बंद करानेकी शिक्षाके कई भजन इसमें हैं। मूल्य ) चौवीसठाणाचर्चा-गोम्मटसारके आधारपर लिखित । इसमें गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि चौबीस स्थानोंको इनके उत्तर भेद चार गति, पांच इन्द्रिय, छह काय, पन्द्रह योग आदिमें पृथक् २ घटाया है । इसमें भाषा चौवीस-ठाणा और चौवीसदंडक भी शामिल कर दिये हैं। आरंभमें चर्चा वार्ता सीखने के लिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी है । इसलिये विद्यार्थियों के बड़े कामकी है। दो बार छपकर बिक चुकी है । इसलिये फिरसे तीसरी बार छप रही है । मूल्य॥=) हिन्दी-भक्तामर और मरी-भावना-संस्कृत भक्तामर-स्तोत्रका खड़ी बोलीकी कवितामें हिन्दीके प्रसिद्ध कविरत्न पं० गिरिधर शर्माकृत सुन्दर अनुवाद । जिस छन्दमें मूल भक्तामर है उसी छन्दमें यह भी है । इसलिये पढ़नेमें बड़ा आनन्द आता है । यह एक बार छप कर बिक चुका है। इसलिये पं० जुगलकिशोर मुख्तारकृत मेरी-भावनासहित फिरसे बढ़िया एंटिक कागज पर छपाया है । मूल्य डेढ़ आना । नागकुमारचरित-षट्-भाषा-कवि-चक्रवर्ती मल्लिषेणसूरिके संस्कृत ग्रंथका हिन्दीअनुवाद । खतम । सम्यक्त्वकौमुदी-इसमें सम्यक्त्वको प्राप्त करने वाले राजा उदितोदय आदिकी पाठ सुन्दर कथाएं हैं । इसमें जगह २ नीतिके श्लोक उद्धृत किये हैं । खतम । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) यशोधरचरित - महाकवि वादिराज सूरिके संस्कृत काव्यका सरल हिन्दी अनुवाद | खतम अकलंक - चरित – अकलंक -स्तोत्र और उसका भावार्थ तथा हिन्दी पद्यानुवादसहित । खतम । सुकुमालचरित - सार - ब्रह्मचारी नेमिदत्त के संस्कृत ग्रन्थका सरल हिन्दी अनुवाद | खतम । बनवासिनी – विवाहका क्या उद्देश्य है, पति-पत्नीका आदर्श प्रेम कैसा होना चाहिये, उच्चप्रेम किसे कहते हैं, आदि बातों का इसमें बहुत अच्छा वर्णन है। बहुत थोड़ी प्रतियां रही हैं । मू० /-) कर्मदहन - विधान - इसमें कर्मदहन पूजा, कर्मदहनके उपवासोंकी विधि, जाप्य देने की विधि तथा जाप्यके मंत्र आदि सब छपे हैं। मूल्य 13 ) त्रैवर्णिकाचार- - यह आपके हाथमें है । मूल्य ६ ) इनके सिवाय और सब जगह के छपे हुए सब तरहके जैन ग्रंथ, स्वदेशी पवित्र केशर, दशांग धूप, सूतकी जाप-मालाएं और फोटो नकशे भी विक्रयार्थ हमारे यहां हर समय तैयार रहते हैं । पता - बिहारीलाल कठनेरा जैन, मालिक - जैन-साहित्यप्रसारकं कार्यालय, हीराबाग, गिरगांव - बम्बई । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। इस त्रिवर्णाचार ग्रंथके कर्ता श्रीसोमसेन सूरि हैं । इस ग्रथमें मुख्यतासे तीन वर्गों के आचारका वर्णन है । प्रसंगवश यतिधर्मका वर्णन भी इस ग्रंथमें किया गया है । बीच बीचमें शूद्रोंकी चर्याका उल्लेखभी इसमें पाया जाता है । शय्योत्थानसे लेकर शय्याशयन तककी प्रतिदिनकी क्रियाओंका समावेश भी बड़ी योग्यता और खूबीके साथ किया गया है । मूल ग्रन्थ संस्कृत भाषामें है । उसीका यह हिंदी अनुवाद मूल-सहित पाठकोंकी सेवामें उपस्थित किया जाता है । आशा है कमसे कम धर्मप्रेमी सज्जन इससे थोड़ा-बहुत लाभ उठावेंगे। ग्रन्थ प्रकाशक बाबू बिहारीलालजी कठनेराकी प्रेरणासे मैंने इस ग्रन्थका अनुवाद किया है । यद्यपि ग्रन्थका अनुवाद कई वर्षों में पूर्ण हुआ है तोभी इसके शुरू के १० अध्यायोंके अनु. वादमें प्रकाशक महोदयकी शीघ्रताके कारण अत्यन्त ही शीघ्रता करनी पड़ी है । बाद बीचके वर्षों में धीरे धीरे जितना अंश अनुवादित हो चुका था वह मुद्रित होता रहा । जब वह खतम हो गया तब पुनः प्रकाशक महोदयका तकाजा प्रारंभ हुआ अतः शेष भागमेंभी शीघ्रता करनी पड़ी । अत एव एक तो शीघ्रतावश ग्रन्थके अनुवादमें कहीं कहीं त्रुटियां हो गई हैं तथा कुछ त्रुटियां अज्ञानवशभी हो गई हैं। मैं चाहता था कि उन त्रुटियों का मार्जन परिशष्ट भागमें पूर्णतः करदूं पर फिरभी समयाभावके कारण पूर्णतया नहीं करसका हूं। अतः पाठकोंसे क्षमा प्रार्थना करता हूं कि वे त्रुटियोंके स्थलोंको जैनागमके अनुसार समझनेकी कोशिश करें। इस ग्रन्थका अनुवाद मुद्रित प्रतिपरसे किया गया है जो कि मराठी अनुवादसहित कई वर्षों पहले मुद्रित हो चुकी है और कई स्थलोंमें अशुद्धभी मुद्रित हुई है । एकवार मुझे एक लिखित प्रति भी कितना ही अनुवाद हो चुकनेके बाद मिली थी, सो भी बहुत कम समयके लिए मेरे पास रह सकी थी जो प्रायः अशुद्ध है पर फिरभी उससे सरसरी तौर पर कई स्थल शुद्ध किये गये हैं और कई स्थल ग्रन्थान्तरोंसे शुद्ध किये गये हैं तो भी कितने ही स्थल ज्यों के त्यों अशुद्ध रह गये हैं । इसके लिए भी पाठकोंसे क्षमा प्रार्थना है । .. ग्रन्थ-संशोधनके विषयमें भी मैं क्षमा प्रार्थना करना चाहता हूं। ग्रन्थका संशोधन कहीं किसीने और कहीं किसीने मन चाहा किया है । संशोधकोनें ग्रन्थके संस्कृत मूल अवतरणोंको कहीं रहने दिया है और कहीं निकाल दिया है। इसतरह और भी इधर उधरका पाठ छोड़ दिया है कोई कोई वाक्य और श्लोक जो नीचे रखने चाहिए थे वे ऊपर और जो ऊपर रखने चाहिए थे वे नीचे रख दिये हैं। मुझे जहां तक खयाल है संशोधकोंने कई स्थलोंमें अनुवाद परिवर्तन भी कर डाला है । अस्तु, एक हाथसे संशोधन होता तो अच्छा रहता। . __ यद्यपि संहिता ग्रन्थोंपर मेरी पहलेसेही आस्था थी, ज्यों ज्यों इन ग्रन्थोंकी कूटता उड़ाना प्रारंभ किया त्यों त्यों मैं उनका विशेष विशेष आलोडन करने लगा।मुझे लोगोंकी छल-कपटके सिवा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) उन ग्रन्थोंमें कोई अतथ्य विषय नहीं मिला । मुझे अफसोस हुआ और नमूना मिला कि लोग जिस विषयको नहीं चाहते हैं वे किस ढंगसे उन ग्रन्थोंकी कूटता उड़ाते हैं । खैर, कैसा भी हो उनकी कूटताने मेरी आस्थाको जैनागमपर औरभी दृढ़ बना दिया । मेरी रुचि वृद्धिमें खंडेलकुलभूषण पंडित धन्नालालजी काशलीवाल भी कारणीभूत हैं उनकी दयासे मुझे इस विषयका बहुतसा सद्बोध प्राप्त हुआ है अतः मैं इस कृतिको उन्हीं के करकमलों में सादर समर्पण करता हूँ । ग्रन्थकर्ताका परिचय | इस ग्रन्थ के कर्ता पट्टाचार्य सोमसेन महाराज मूलसंघ के अन्तर्गत पुष्करगच्छके अधिपति थे । उनके गुरुका नाम गुणभद्रसूरि था । उन्होंने अपने जन्मसे किस स्थानको सुशोभित किया था और वे कहांकी गद्दी के अधिपति थे इस विषयका उन्होंने कोई परिचय नहीं दिया है । सिर्फ इसके कि उन्होंने वि. स. १६६७ में इसग्रन्थ को लिखकर पूर्ण किया है । अतः सोमसेन सूरिका समय विक्रमकी १७ वीं शताब्दी समझना चाहिए । इसके अलावा हम उनका विशेष परिचय देने में असमर्थ हैं। ग्रन्थकर्ताका ज्ञान और आचरण । ग्रन्थ परिशीलनसे पता चलता है कि ग्रन्थकर्ता जैन शास्त्रोंके अच्छे ज्ञाता थे । मंत्रशास्त्र, ज्योतिःशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, निमित्तशास्त्र और शकुनशास्त्रों के भी वे अच्छे ज्ञाता प्रतीत होते हैं । उनकी वर्णीचारमें भी असाधारण गति थी, वे वर्णाचारके आचरण करनेवालोंको ऊंची दृष्टि से देखते थे । इस विषयमें इस ग्रन्थके कई अध्यायोंके अन्तके श्लोक ही साक्षीभूत हैं । वे अद्वितीय थे । उन्होंने स्थान स्थान में संयम पालनेकी खूबही प्रेरणा की है । यद्यपि वे भट्टारक थे पर आजकल जैसे भट्टारक नहीं थे वे अच्छे विद्वान् थे और संयमी थे । जो लोग भट्टारक नाम सुनते ही चिड़ जाते हैं वे भारी भूल करते हैं । 1 1 ग्रन्थ - कर्ताकी धार्मिक श्रद्धा । बहुतसे विषय ऐसे हैं जिनकी परंपरा उठ गई है, आज वे ग्रन्थोंके परिशीलन के अभाव से लोगों को ऐसे मालूम पड़ने लगे हैं कि मानों वे जैनमत के हैं ही नहीं । अत एव लोग चट कह बैठते हैं कि यह बात तो जैनमत की प्रतीत नहीं होती । यह तो ग्रन्थकर्तीने परमतसे लेली है इत्यादि । इस विषयमें हमें इतना ही कहना है कि वे अभी अगाध जैन साहित्यसे अनभिज्ञ हैं ऋषिप्रणीत जैनसाहित्य में ऐसी ऐसी बातें हैं जो उन्होंने न सुनी हैं और न देखी हैं । महापुराण जिसमें कि संस्कारों का कथन है उसके विषय में भी वे ऐसा कह देते हैं कि जिनसेनस्वामीने यह संस्कारका विषय ब्राह्मण-संप्रदायसे ले लिया है। जब उन पूज्य ऋषियों के विषय में भी ऐसी ऐसी कल्पनाएं उठ खड़ी हुई हैं तब सोमसे के विषय में ऐसी कल्पनाएँ करलेना तो आसान बात है । परमतसे वही उन बातोंको ग्रहण करेगा जो परमत से रुचि रखता होगा और जैनियोंको परमतावलंबी बनाना चाहता होगा । पर हम देखते हैं कि सोमसेनसूरिकी न परमतसे रुचि ही थी और न वे जैनों को परमतावलंबी ही बनाना चाहते थे वे तो एकदम परमतावलंबियोंसे मौन रहने तकका उपदेश देते हैं । ऐसी दशामें जैनोंको परमतकी शिक्षा ही कैसे दे सकते हैं। यथा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) मूरखान मूढांश्च गर्विष्ठान् जिनधर्मविवर्जितान् । कुवादिवादिनोऽत्यर्थे त्यजेन्मौनपरायणः ॥ ग्रन्थ कर्ताने अनक स्थानोंमें देव, गुरु, शास्त्र, चैत्यालय आदि की भक्तिपूर्ण स्तुतिएं की हैं । इससे उनकी जैनधर्म पर असाधारण भक्ति प्रकट होती है। जैनोंका उनके हृदयमें बे हद्द आदर था । यथा रोगिणो दुःखितान् जीवान् जैनधर्मसमाश्रितान् । संभाष्य वचनैर्मृष्टेः समाधानं समाचरेत् ॥ जब कि ग्रन्थकर्ता अन्यधर्मों से अप्रीति और जैनधर्मसे प्रीति दिखला रहे हैं तब मालूम नहीं पड़ता कि कौनसे स्वार्थवश उन पर उक्त लांछन लगाया जाता है। इससे तो यही साबित होता कि यह ग्रन्थ उन लोगोंकी स्वार्थवासनाओंमें रोड़े अटकाता है अतः अपना मार्ग साफ करने के लिए पहले वे इन छलों द्वारा अपना मार्ग साफ करना चाहते हैं । हमें तो ग्रन्थ परिशीलन से यही मालूम हुआ कि ग्रन्थकर्ताकी जैन धर्मपर असीम भक्ति थी, अजैन विषयोंसे वे परहेज करते थे। लोग खामुखां अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उन पर अवर्गवाद लगाते हैं । ग्रन्थकी प्रमाणता । ग्रन्थी प्रमाणत में भी हमें कुछ संदेह नहीं होता । प्रतिपादित विषय जैनमतके न हों और उनसे विपरीत शिक्षा मिलती हो तो प्रमाणता में संदेह हो सकता है । ग्रन्थकी मूल भित्ति आदि पुराण परसे खड़ी हुई है । जिनका आधार उन्होंने लिया है उनके ग्रन्थोंमें भी वे विषय पाये जाते हैं। किंबहुना इस ग्रन्थके विषय ऋषिप्रणीत आगममें कहीं संक्षेपसे और कहीं विस्तार से पाये जाते हैं । अत एव हमें तो इस ग्रन्थमें न अप्रमाणता ही प्रतीत होती है और न आगम विरुद्धता ही । परंतु जो लोग वर्णीचार जैसे विषयों से अनभिज्ञ हैं, उनके पालनमें असमर्थ हैं, उनकी परंपराका जिनमें लेशभी नहीं रहा है वे इसके विषयोंको देख कर एक वार अवश्य चौंकेंगे । जो वर्णाचारको निरा ढकौसला समझते हैं वे अवश्य इसे धूर्त और ढौंगी प्रणीत कहेंगे। जिनके मगज में भट्टारक और त्रिवणीचार नाम ही शल्यवत् चुभते हैं वे अवश्य ही इसे अप्रमाणता और आगमविरुद्धताकी और खसीटेंगे । इसमें जरा भी संदेह नहीं। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, महापुराण, यशस्तिलकचंपू जैसे पुराण और चरित ग्रन्थोंको, विद्यानुवाद, विद्यानुशासन, भैरवपद्मावतीकल्प, ज्वालामलिनीकल्प जैसे मंत्रशास्त्रोंको, इन्द्रनंदिप्रतिष्ठापाठ, वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ, आशाधरप्रतिष्ठापाठ, नेमिचंद्रप्रतिष्ठापाठ, अकलंकप्रतिष्ठापाठ जैसे पूजा शास्त्रोंको, रत्नकरंडक, मूलाचार, आचारसार धर्मामृत जैसे आचार ग्रन्थों को, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार जैसे लोकव्यवस्थापक शास्त्रोंको एवं एक एक कर जैनमतके सभी विषयोंको अप्रमाण और अलीक (झूठा ) मानते हैं वे इसग्रन्थको अप्रमाण और ढौंगी प्रणीत मानें इसमें आश्चर्य ही क्या है । जब कि जैनधर्म जैसे कल्याणकारी धर्मकोभी झूठा कहनेवाले अजैन ही नहीं जैननामधारीभी संसारमें मौजूद हैं तब इस सामान्य ग्रन्थ की अवहे - लना करनेवाले इस संसार में न पाये जांय यह हो नहीं सकता ? १-२ इनका अर्थ पृष्ट १७४ में श्लोकनं ९१-९२ में देखो । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) जैनागममें परंपरा को बहुतही ऊंचा स्थान दिया है, जो वचन परंपरा के अनुकूल हैं वे बाह्य और प्रामाणिक माने जाते है। जिन वचनों में परंपराकी अवहेलना की जाती है वे उच्छृंखल वचन होने से कभी भी ग्राह्य नहीं होते और न प्रमाणही माने जाते हैं। सोमसेन महाराजने परंपराके सामने अपना सिर झुकाया है । यथा -- येत्प्रोक्तं जिनसेनयोग्यगणिभिः सामन्तभदैस्तथा सिद्धान्ते गुणभद्रनाथमुनिभिर्भट्टाकलंकैः परैः । श्री सुरिद्विज नामधेयविबुधैराशा धरैर्वाग्वरैस्तदृष्ट्रा रचयामि धर्मरसिकं शास्त्रं त्रिवर्णात्मकं ॥ यह ग्रन्थ एक संग्रह ग्रंथ हैं । ग्रन्थान्तरोंके प्राचीन श्लोक इसमें उद्धृत किये गये हैं । विषय प्रतिपादक सभी श्लोक ग्रन्थान्तरोंके कहे जांय तो अत्युक्ति न होगी । जैनमत से समता रखने वाले मृत्तिका शुद्धि जैसे व्यावहारिक श्लोकों का संग्रह भी इसमें किया गया है । इस तक ग्रंथकर्ता स्वयं स्वीकार करते हैं । यथा श्लोका ये पुरातना विलिखिता अस्माभिरन्वर्थतस्ते दीपा इव सत्सु काव्यरचनामुद्दीपयन्ते परं । नानाशास्त्रमतान्तर यदि नवं प्रायोऽकरिष्यं त्वहं कशाऽमाऽस्य महो तदेति सुधियः केचित्प्रयोगंवदाः ॥ जब कि इसमें ऐसे श्लोकों का भी संग्रह है तब संभव है कि उन्होंने कोई विषय जैन धर्म के प्रतिकूल भी लिख दिये हों ऐसी आशंका करना भी निर्मूल है । क्योंकि वे भी स्वयं जैन थे, जैसा खयाल पद पद पर हम करते हैं वैसा वे भी करते थे, जैसी हमारी ( वर्तमान समय के पुरुषों की ) जैनमत के साथ हमदर्दी है वैसी उनकी भी थी, ऐसा नहीं है कि हमही जैनमतकी अनुकूलता - प्रतिकूलताका खयाल करते हों और उन्होंने न किया हो । केवल हमही ( वर्तमान के पुरुहीने) जैनत्वका ठेका ले लिया हो और वे इस ठेके से पराङ्मुख हो । सारांश, अपने मतका पक्ष जैसा हमें है वैसा उन्हें भी था। अत एव ऊपरकी आशंका किसी कामकी नहीं है । कथन और आक्षेप । इस ग्रन्थमें मुख्यतः पाक्षिक त्रैवर्णिक के आचार का कथन है। नैष्ठिक श्रावक और मुनिके आचारकथनभी संक्षेपतः इसमें पाया जाता है। कितने ही विषय ऐसे होते हैं जो अपने अपने स्थानमें ही पालन करने योग्य होते हैं कितने ही ऐसे भी हैं जो हैं तो नियमरूपसे ऊपर के दर्जे में ही पालन करने योग्य परंतु अभ्यास रूपसे नीचेके दर्जेमें भी पालन किये जाते हैं और कितनेही विषय ऐसे भी हैं जो ऊपर और नीचे दोनोंही दर्जोंमें पालन किये जाते हैं पर स्वस्थानके मूलाचरणका त्याग नहीं किया जाता । कितनेही लोग जो विधि-निषेध मुनिके लिए है उसको नैष्ठिक और पाक्षिक के लिए और जो नैष्ठिक के लिए है उसको पाक्षिक के लिए भी समझ लेते हैं । वे इस खयालको बिलकुल भूल जाते हैं कि यह विधि - निषेध किसके लिए तो है और किसके लिए नहीं है अथवा यह अमुक के लिए है मैं अमुक के लिए इसकी योजना कैसे करता हूं । ऐसे लोग मनःकल्पित एक पक्षमें उतर १ इसका अर्थ पृष्ठ ३ श्लोक नं. ९ में देखो । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाते हैं और इधर-उधरका दशरा-मसरा करके मार्गको कंटकाकीर्ण बना देते हैं। कितनेही विषय ऐसे हैं जिनका विधान पाक्षिकके लिए है और नैष्ठिक के लिए उनका निषेध है फिरभी वे बेसमझीके कारण नैष्ठिकके निषेधका उपयोग पाक्षिकके लिए भी करने लगते हैं । दृष्टान्तके लिए शासनदेवोंकी सेवा-सुश्रूषाको लीजिये । नैष्ठिक आपत्तिके समय शासन देवोंकी सेवा-सुश्रूषा नहीं करता यह निषेध नैष्ठिकके लिए है न कि पाक्षिकके लिए क्योंकि पाक्षिक आपत्ति के समय शासन देवोंकी सेवा-सुश्रूषा करभी सकता है। ऐसा होते हुए भी वे लोग नैष्ठिकके इस कथनको पाक्षिकके साथ भी लगा लेते हैं। दूसरी बात यह है कि नैष्ठिकके लिए जो यह निषेध है वह आपत्तिके समय है न कि जिनेन्द्र देव की पूजा करते समय, फिर भी उसका उपयोग हर समय सभीके लिए कर दिया जाता है। यदि ऐसा करने वाले अपेक्षाओंके साथ साथ विधि-निषेध करें तो बड़ा अच्छा हो । अत एव पाठकोंसे निवेदन है कि वे ग्रन्थमें वर्णन किये गये विषयोंको समझनेमें यह खयाल रक्खें कि अन्यत्र इस बात का निषेध किसके लिए है और यहां पर उसका विधान किसके लिए है। अगर वे अपेक्षाओं को छोड़ देंगे तो वही गटाला तदवस्थ बना रहेगा, बिना अपेक्षाके निश्चयनयसे सारा व्यावहारिक क्रियाकांडभी मिथ्या कहा जा सकता है । अत एव प्रत्येक व्यक्तिको ग्रन्थ पढ़ते समय अपेक्षा ओंको ध्यानमें रखना चाहिए । ___ इस ग्रन्थके कितनेही विषय आक्षेप्य बना दिये हैं जिन पर अत्यधिक आक्षेप किये जाते हैं । यदि जैनसिद्धान्तका गहरा आलोडन किया जाय और उस पर विश्वास रक्खा जाय तो वे सब आक्षेप सुलझ सकते हैं। जितने भरभी आक्षेप किये जाते हैं वे सब अपना पक्ष बढ़ानेके लिए बिनाही समझे किये जाते हैं उनका यहां उत्तर देना व्यर्थ होगा। विशेष-विवेचन। यह शास्त्र-प्रसिद्ध है कि परस्पराविरोधेन त्रिवर्गो यदि सेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यमपवर्गोऽप्यनुक्रमात् ॥ एक दूसरे वर्गको बाधा न पहुंचाते हुए यदि धर्म, अर्थ और कामका सेवन किया जाय तो उससे अनर्गल सुख और अनुक्रमसे मोक्षभी प्राप्त होता है । जब तीनोंके सेवनसे अनर्गल सुख और अनुक्रमसे मोक्ष बताया गया है तब तीनोंका स्वरूप और उनके सेवनका उपायभी अवश्य बताया जाना चाहिए । अत एव दुनियांमें धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और कामशास्त्र स्वतंत्र प्रसिद्ध हैं। कोई शास्त्र धर्मोपदेश देनेवाले हैं, कोई अर्थोपार्जनका उपाय बताते हैं और कोई काम सेवनकी विधि बताते हैं । कोई ऐसे भी हैं जिनमें धर्मका उपदेश मुख्य रहता है और अर्थ और कामका उपदेश गौण रहता है । यह त्रिवर्णाचार एक ऐसा ग्रन्थ है जो तीनों वर्गों की सुबहसे शाम तककी सारी क्रियाओंको बताता है । अत एव इन क्रियाओं अर्थोपार्जन और काम सेवनकी विधिभी आजाती है । यही कारण है कि इस ग्रन्थमें बीजरूपसे धनकमानेकी और कामसेवनकी विधिभी बताई गई है। उसे देख कर बहुतसे लोग चिड़ जाते हैं कि धर्म शास्त्रोंमें कामका वर्णन क्यों ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि यह ग्रन्थ केवल धर्मका उपदेश करनेवालाही Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है किन्तु धर्माविरोधसे अर्थकमानेकी और कामसेवनकी विधिभी बीजरूपसे बताता है। क्योंकि यह त्रिवर्णाचार ग्रन्थ है। त्रिवर्णका आचार धर्म, अर्थ और काम तीनों है । इस लिए बीज रूपसे अर्थ और कामका वर्णन करना अनुचित नहीं है। उसका विशेष वर्णन उस विषयके शास्त्रोंमें जानना चाहिए । पर इतना खयाल अवश्य रखना चाहिए कि अर्थका उपार्जन और कामका सेवन धर्म-पूर्वक होना चाहिए । धर्मपूर्वक उपार्जन किया हुआ अर्थ और कामही अनर्गल सुखके कारण हो सकते हैं अन्यथा वे घोर नरकके कारण हैं । इस ग्रंथके प्रकाशक महोदयने काम शास्त्र संबंधी श्लाकोंको अश्लील समझकर उनपर अपनी तरफसे टिप्पणी जोड़ दी है वह ठीक नहीं है अश्लील बात और है और काम शास्त्रका वर्णन और बात है। इस शास्त्रमें वैयक, ज्योतिष, शकुन, निमित्त, स्वास्थ्य रक्षा आदिकाभी थोड़ा थोड़ा कथन किया गया है। केवल सुपारी खाने, बुरे नामवाली कन्याके न विवाहने आदिके विषयमें जो भयानक कथन किया गया है वह उस उस विषयके शास्त्रोंसे अविरुद्ध है ऐसी बातों परसे जो लोग तुमुल युद्ध छेड़ देते हैं वे एकतो उस विषयके शास्त्रोंसे अनभिज्ञ हैं, दूसरे आज कल वे उन शास्त्रोंकी परतंत्रताभी नहीं चाहते । अत एव वे येन केन प्रकारेण अपना मार्ग साफ करना चाहते हैं । मुझे तो इस ग्रन्थका प्रायः कोई भी विषय शास्त्र विरुद्ध नहीं जान पड़ा । इस शास्त्रमें जो जो विषय बताये हैं उनका बीज ऋषिप्रणीत शास्त्रोंमें मिलता है । अत एव साहस नहीं होता कि साधारण समाजके कल्याणकारी इस ग्रन्थकी अवहेलना की जाय । इस बातका भी विश्वास है कि कितने ही सज्जन इस अनुवादको देखकर फड़केंगे, कुढ़ेंगे, कोसेंगे बिजली की तरह टूटेंगे और अनेक जलीभुनी भी सुनावेंगे । परन्तु रुसउ तूसउ लोओ सच्चं अक्खंतयस्स साहुस्स । किं जूयभए साडी विवज्जियव्वा गरिदेण ॥ . -दर्शनसार। अन्तमें पाठकोंसे निवेदन है कि ग्रन्थ के अनुवाद में जहां कहीं त्रुटि रही हो उसे सुधार कर ठीक करेंगे और मुझे क्षमा प्रदान करेंगे । क्योंकि गच्छतः स्खलनं चापि भवत्येव प्रमाक्तः। -अनुवादक । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___(७) विषय-सूची । .ocm पहला अध्याय। विषय. विषय. . पृष्ठ. शान्तिकरण आदि मंत्र आप्तमंगल १ मंत्र जपने योग्य स्थान सरस्वतीमंगल २ वशीकरणादि मंत्रोंका फल गुरुमंगल ३ जिनदर्शन और स्तुति ग्रन्थ-नाम ३ सामायिक व जप करनेवाले की प्रशंसा २६ तीनों वर्गों के लक्षणसहित नाम सज्जनदुर्जनवर्णन दूसरा अध्याय । वक्ताका लक्षण ६ शौचाचारक्रिया-कथन-प्रतिज्ञा; ग्रन्थका लक्षण ६ शौचाचारमें हेतु तथा शरीरश्रोताका लक्षण ६ संस्कारकी आवश्यकता श्रोताओंके भेद ७ बाह्यशुद्धियां श्रोताओंके नाम ७ दैनिककार्यों का चिंतवन ग्रन्थके मूलविषय ८ बहिर्दिशा गमन विधान ध्यानके भेद ८ मलमूत्रोत्सर्गके योग्य स्थान आर्तध्यानके भेद और स्वरूप ९ मलमूत्रोत्सर्ग न करने योग्य स्थान रौद्रध्यानके भेद और स्वरूप ९ मलमत्रोत्सर्ग करने और न करने योग्य धर्मध्यानके भेद और स्वरूप . ९ अवस्था शुक्लध्यानके भेद और स्वरूप १० मलमूत्रोत्सर्ग करते समय यज्ञोपवीतकी पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और व्यवस्था रूपातीत ध्यानोंके लक्षण १२ मलमूत्रोत्सर्ग करनेको बैठने की विधि शय्यासे उठते समय चितवन १२ सात प्रकारके मौन सामायिक कर्म १५ गुद परिमार्जन षडावश्यक और जपकरनेका उपदेश _१६ क्षेत्रपालक्षमामंत्र ३२ मंत्राराधनोपदेश १६ मलोत्सर्ग करते समय मुख करनेकी दिशाएं ३३ मंत्रोंके नाम और मंत्र ....... १६ जलाशयको गमन मंत्राराधनफल १९ गुदप्रक्षालनको बैठनेकी विधि हिंसादि पंच पापोंके भेद २० जलाशयमें गुदप्रक्षालन निषेध वशीकरण आदि मत्रोंकी जपविधि २१ शौच विधि उनके जपने योग्य उंगलियां और मालाएं २३ दो प्रकारका शौच आराधन और होममंत्र ___ २४ वर्गों के योग्य मिट्टी १२ ३३ سہ لس CWWWW لس له Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. निषिद्ध मिट्टी ग्राह्य मिट्टी मिट्टीका प्रमाण पुनः मृत्तिका शुद्धि रात्रि आदिके समय शुद्धि आदिकी शुद्धि शौच के अभाव में क्रियाओंकी निष्फलता शौच के विषय में विशेष पुनः मृत्तिका शुद्ध पैर धोनेका क्रम मुख प्रक्षालन शौच संबंधी मंत्र आचमन तैलमर्दन तैलमर्दन करने न करने योग्य दिन तैलमर्दनका फल तैलमर्दन के विषय में विशेष स्नान योग्य जल ( ८ ) मिथ्यातीर्थों में स्नाननिषेध मिथ्यातीर्थोंमें स्नानका प्रसंग आनेपर विशेषविधि तैलमर्दन निषेध रविवार को स्नान त्याग 28. face. ३४ प्रातः स्नानमें हेतु ३५ अशक्त अवस्थामें स्नान ३५ शूद्रों के हाथसे स्नान निषेध ... ३५ ३५ ३६ ३६ ३७ मूत्रोत्सर्ग आदि के अनन्तर कुरलोंका प्रमाण ३७ कुरला थूकने योग्य स्थान दन्तधावन ग्राह्य दतौन अग्राह्य दतौन तौन न करने योग्य दिन aaौन के विषय में विशेष कोयला आदिसे दांत घिसनेका निषेध के अभाव में मुखशुद्धिका विधान नेत्रादिकी शुद्धि जलाशय में दंतधावन निषेध ३६ ३६ ३६ ३६ स्नान समयकी क्रिया स्नानके पांच अंग स्नान के समय मुख करनेकी दिशाएं स्नान के खास खास अवसर तीसरा अध्याय. जलनिर्गमन आदि छहाक्रियाओंके नाम ३७ जलनिर्गमनानन्तर अर्हत्स्नान ३७ जयादि देवतों का तर्पण ३८ गौतमादि महर्षियों का तर्पण ३८ ऋषभादि पितृतर्पण ३८ देवोंका तर्पण ३९ ३९ ३९ ३९ ३९ ३९ ४०. ४० ४० ४१ ४२ ४२ स्नान समय के मंत्र स्नान के अनन्तर जलतर्पण वस्त्र-संप्रोक्षण शरीर - परिमार्जन वस्त्र परिधारण वस्त्र परिधारणके अनन्तर शरीरपरिमार्जन निषेध निषेध में हेतु केशस्थ जलबिंदु के विषय में केशस्थ जलबिंदुओं के गिरनेपर पुनः स्नान-शुद्धि दश तरह के नम न पहनने योग्य वस्त्र निषिद्ध वस्त्रों से आजीविका करनेसे अपवित्रता ४२ ४२ नीले वस्त्रोंमें दोष ४३ रशमी वस्त्रोंमें नीलेपनका दोषाभाव. पृष्ठ. ४३ ४३ ४३ ४३ ४४ ४४ - ४४ ४५ ४७ ४८ ४८ ४९ "" ≈≈28 " ५२ ५३ ५४ ५४ ५४ ५५ ५५ ५६ ५६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. पृष्ठ.. विषय. अधौत आदि तीन प्रकारके वस्त्रोंका . आचमन करनेकी विधि सब क्रियाओंमें निषेध ५६ आचमनके बारह अंग और अधौत सदृश वस्त्र पंद्रह क्रियाएं जलमें वस्त्र निचोड़ने और खाटपर आचमनमें हेतु सुखाने का निषेध . - ५७ प्राणायाम. वस्त्र सुखानेके स्थान ... ५७ प्रणव और ओंकारमुद्रा वस्त्र न निचोड़ने और क्षारमें न देने --. प्राणायाम आदिके लिए स्थान. योग्य दिन : ५७ रजःस्वला नदियां और शुद्ध नदियां गीलावस्त्र उतारनेकी विधि ५७ रजोदोष का अभाव. एक वस्त्र पहनकर भोजनादि करनेका निषेध ५७ नदी-लक्षण, वस्त्र पहननका क्रम और वस्त्रोंका प्रमाण ५८ दश दर्भ. पहनने और न पहनने योग्य वस्त्र . ५८ दर्भ लानेकी तिथि. अधोवस्त्र ( धोती) पहननेकी विधि ५८ पूजाके योग्य दर्भ. वर्णक्रमसे वस्त्र परिधारण नियम ५९ कुशोंके आभावमें अन्यदर्भ. पहनेके वस्त्रको ओढ़ने और ओढ़ने सम्पूर्ण धर्म कृत्योंमें कुशोंका के वस्त्रको पहननेका निषेध । ५९ उपयोग, उनके अभावमें दूब दो वस्त्र पहन-ओढ़कर धर्मकार्य निषिद्ध कर्म करनेकी विधि ५९ शूद्रोंसे दर्भखरीदनेका निषेध निर्धनोंके लिए विधि ५९ ग्रहण का निषेध, वस्त्र निचोड़नेकी विधि ६० पवित्रकका लक्षण सात स्नान ६० पवित्रकके विषयमें विशेष प्रातः स्नान करनेमें असमर्थ हो पवित्रकके भेद. तो विशेष विधि ६० पवित्रक पहननेकी उंगलियां गर्म जलकी प्रशंसा ६० आभूषण पहननेका विधान शीत जलसे स्नान न करनेके प्रसंग ६० और निषेध. उष्ण और गर्मजलको परस्पर मिलानेका संध्याचमन संबंधी मंत्र निषेध ६० प्राणायाम मंत्र घरपर पांच क्रिया करनेका निषेध ६१ अर्थोपासनविधि अंत्यज्यों द्वारा खोदे हुए कुए आदिसे बैठने न बैठने योग्य आसन जलभरनेका निषेध ६१ जप और उसकी विधि.... जलनिर्गमन, वस्त्र प्रोक्षण और जपमालाके भेद वस्त्र धारण करनेके मंत्र . ६१ प्रत्येक जपके लक्षण और आचमन करनेकी आवश्यकता ६२ उनका फल आचमनके विषयमें विशेषकथन ... ६२ जपके विषयमें विशेष कथन ७३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) स्थापन ... विषय. पृष्ठ. विषय. जप करने योग्य स्थान ७४ तिलकोंके पदार्थ जपत्यागके अवसर ..... ७४ अक्षत-धारण संध्यावंदन कर्म ७५ गंधनलेपनका माहात्म्य आचमन करनेके अवसर ७५ गंधलगानेकी उंगलियोंका फल .... संध्याकरनेका समय ७५ तिलक लगाये बिना निषिद्ध कार्य संध्याके तीन भेद ७६ वस्त्राभूषणपर चंदनलेप संध्या का लक्षण ७६ पवित्रक-धारण संध्या न करने का फल ७७ अपनेमें इन्द्रकी स्थापना कालातिक्रम होने पर विशेष विधि .. ७७ श्रीपीठ स्थापन संध्यावंदनविच्छित्तिके अवसर ७७ प्रतिमास्थापन और सिद्धादि संध्योपासनासंबंधी मंत्र यंत्रस्थापन ऋषितर्पण मंत्र जिनचरणप्रक्षालन, जिनाव्हानपितृतपण मंत्र .. . ८२ स्थापन,-सन्निधिकरण, देवतातर्पण मंत्र पंचगुरुमुद्रानिवर्तन, पायविधि, जिनाचमन और आरती चौथा-अध्याय। कलशस्थापन और कलशपूजन गृहागमन अस्पये वस्तुएं दशदिक्पाल-पूजन कलशोद्धरण और जलाभिषेक गृहनिर्माण भोजन शाला आदिका निर्माण चैत्यालयगमन, ईर्यापथ शोधन उद्वर्तन और कोणकलशस्नपन मुखवस्त्रोद्घाटन और जिनमुखा गंधोदक-ग्रहण वलोकन अष्टद्रव्यार्चन दर्शन-स्तवन ९० सिद्धादियंत्रपूजन जिन पूजाक्रम ९३ शेषाधारण गर्भगृहमें जिन पूजन और मंडप होमशालामें गमन मध्य आगमन ९३ बृहद्वेदिका और उसके चौसठ भाग मंडप की सजावट आदि .९३ जिनप्रतिमास्थापनवेदिका - वास्तु आदि देवोंका सत्कार , ९५ छत्रत्रयादिस्थापन वेदिका - सरस्वती आदिकी पूजा ९५ कुंड बनानेका स्थान और विधि चन्दनलेप और आभूषण धारण ९५ कुंडोंका प्रमाण और अंतर तिलकोंके भेद ९५ आठदिक्पालपीठ तिलकोंके स्थान और आकार . ९६ तीन प्रकारकी अग्नियां और चारों वर्णोके जुदे जुदे तिलक - ९७ उनके नाम ८८ पंचामृताभिषेक १०३ १०३ १०३ १०४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ सान विषय. पृष्ठ. विषय. पृष्ठ. अग्निहोम प्रारंभ १०५ समिधाओंके विषयमें विशेष क्षेत्रपालबलि, भूमिसंमार्जन, भूमिसेचन, वैश्वदेवकर्ममें वर्ण्य पदार्थ ११३ दर्भाग्निज्वालन, नागतर्पण, भूमिपूजा आदि१०५ होमके भेद उपवेशनभमिशोधन, पश्चिमाभिमुख जलहोम ११३ उपवेशन, पूजाद्रव्यस्थापन आदि और बालुकाहोम' ११५ परमात्मध्यान होमके अवसर ११५ अर्ध्यप्रदान, होमकुंडार्चन, होमका फल ११६ आग्नस्थापन और अग्निसंधुक्षण यजमान ११६ आग्निसंज्वालनविधि आचमन, होमकरनेका समय प्राणायाम, अग्निआव्हान, आनिहोत्रीकी प्रशंसा और कुंडोंमें अग्निज्वालनक्रम अग्निहोत्रीका फल ११७ तिथिदेवतार्चन, ग्रहार्चन और जिनप्रतिमा आदिको स्वस्थानमें इन्द्रार्चन स्थापन और देवोंका विसर्जन ११८ स्रुक् और सुवा १०७ चैत्यालयस्थ क्षेत्रपाल आदि ११८ आज्याहूति १०८ सुक्-सुवाका आकार और प्रमाण गृहबलि और विशेषोपदेश । ११८ १०८ स्त्रियोंका कर्तव्य ११९ स्रुक्-सुवा तापन, मार्जन जलसेचन १०८ चारप्रकारके देव . ११९ अग्निज्वाला बढ़ जानेपर शमनविधि १०८ सत्यदेवता, क्रियादेवता, तीनों कुडोंमें बराबर होम १०८ कुलदेवता और गृहदेवता १२० तर्पण १०८ चारों प्रकारके देवतोंकी समिधा और वटिका १०९ पूजाका फल और हेतु होम-अन्न ११० उपसंहार और कृतज्ञताप्रकाशन अन्नके अभावम अन्यविधि होम करनेकी विधि पांचवां अध्याय । दिक्पालकोरान्नाहूति कपाटोद्धाटन, द्वारपालानुज्ञापन और . नवग्रहहोम ११० ईर्यापथशोधन मंत्र नवग्रहसंबंधी समिधा १११ मुखवस्त्रोद्घाटन, जिनमुखावलोकन. .. समिधाका फल १११ और यागभूमिप्रवेशन मंत्र १२५ वस्त्राच्छादन १११ पुष्पांजलि, वायघोष ' भूमिशोप्रत्येक कुंडमें एक सौ आठ आहूतियां १११ धन और जलसेचन मंत्र १२६ एकही कुंडमें सब आहूतियां . १११ भूमिज्वालन, नागतर्पण, क्षेत्रपालार्चन, पूर्णाहूति वगैरह ११२ भूमिपूजा और यंत्रोद्धारमंत्र . . . . १२७ १२४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. पृष्ठ. . विषय. दर्भासन-स्थापन, दर्भासन उपवेशन, आकर्षण, स्तंभन और उच्चाटन मंत्र. १४१ मौनधारण, अंगशोधन और हस्त विद्वेषकर्म और अभिचारकर्म मंत्र - १४२ प्रक्षालनमंत्र १२८ होमसंबंधी मंत्र और पुष्पांजलि मंत्र १४२ पूजापात्रशाद्ध, पूजाद्रव्यशुद्धि, क्षेत्रपालबलि, भूमिसम्मार्जन, .. वियागुरुपूजन, सिद्धार्चन और भूमिसेचन, दीग्निज्वालन, नाग-. सकलीकरण (शोषण ) मंत्र १२९ तर्पण, भूमिपूजा, पीठस्थापन, कर्मेन्धनदग्ध, भस्मविधूनन और श्रीपीठार्चन मंत्र और प्लावनमंत्र १३०. प्रतिमास्थापन, प्रतिमार्चन, चक्रकरन्यास, द्वितीयन्यास और त्रयार्चन, छत्रत्रयार्चन, सरस्वतीतृतीयन्यासमंत्र १३१ पूजा और रुपादुका पूजा मंत्र . १४४ दशदिशाबंध और शिखाबंध मंत्र १३२ शान शासनदेवतार्चन. उपवेशनपरमात्मध्यान और जिनश्रुतसूरि भूमिशोधन, उपवेशन, पुण्याहपूजामंत्र १३३ कलशस्थापन और जलपवित्रीकलशस्थापन, कलशार्चन, पीठारोपण, करण मंत्र पीठस्थापन, पीठप्रक्षालन, पीठदर्भ, पीठार्चन, कलशार्चन, होमद्रव्यस्थापन, श्रीकारलेखन, यंत्रार्चन, प्रतिमानयन और परमात्मध्यान, अय॑प्रदान और प्रतिमास्थापन मंत्र १३४. होमकुंडार्चन मंत्र । अर्व्यप्रदान, पाय, आव्हान-स्था अग्निस्थापन, अग्निसंधुक्षण, पना-सन्निधिकरण, पंचगुरुमुद्रा आचमन, प्राणायाम, परिबंधन धारण, पुनः पाय और जिनाचमन । १३५ और अग्निकुमारदेवपूजा मंत्र । नीराजनार्चन, दिक्पालार्चन, कल- तिथिदेवतार्चन, ग्रहपूजा, इन्द्राशोद्धरण, जलस्नपन, पंचामृतामि र्चन, दशदिक्पालपूजा, स्थालीषेक, उद्वर्तन और कोणकुंभजल पाकग्रहण, होमद्रव्याधान और स्नपन मंत्र १३६ आज्यपात्रस्थापन मंत्र १४८ गंधोदकग्रहण, अष्टद्रव्यार्चन और स्रुच् तापन-मार्जन-जलसेचन, स्रुवस्थापन जयादिदेवतार्चन मंत्र १३७ घृतोद्वासन, उत्पाचन, अवेक्षण, होमद्रव्यवियादेवतार्चन, शासनदेवतार्चन और प्रोक्षण, सर्वद्रव्यस्पर्शन, पवित्रधारण, यज्ञो इन्द्रार्चन मंत्र १३८ पवीतधारण और अग्निपर्युक्षण मंत्र १४९ यक्ष, दिक्पाल, नवग्रह और आज्याहूति, अवांतरतर्पण, क्षीरसे अग्निअनावृतदेवपूजा मंत्र १३९ पर्युक्षण और समिधाहूति मंत्र मूलमंत्र, शान्तिकर्म, पौष्टिककर्म लवंगादि-आहूति और पीठिका मंत्र १५१ और वशीकरण मंत्र १४० पूर्णाहूति मंत्र १५२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. क्षेत्रपालाचैन और वास्तुदेवतार्चन मंत्र तिथिदेवतार्चन और वारदेवतार्चन मंत्र गृहदेवतार्चन विधान छठा - अध्याय । जिनमंदिर निर्माण - प्रारंभ कर्णपिशाचिनी यंत्र मंत्र और होम वास्तुशास्त्रानुसार जिनमंदिर निर्माण जिनमंदिर के योग्य भूमि भूमि - परीक्षा शुभाशुभनिर्णय अस्त्रमंत्र और अनादिमंत्र पातालवास्तु-पूजन पायाभरने का क्रम मंदिररचनाक्रम और शिलानयन जिनप्रतिमालक्षण सिद्धादिप्रतिबिंबविधि यक्ष - यक्षी आदि की प्रतिमा प्रतिमा की दृष्टि और हीनाधिक अंगोपांगका फल प्रतिष्ठोपदेश घरमें रखने योग्य प्रतिमा . मंदिर वन्दना आदिका क्रम पंचायती मंदिर गमन विधि जिनमंदिर को नमस्कार जिनमंदिर का अवलोकन जिनमंदिर की स्तुति मंदिर प्रवेश जिन स्तुति द्वारपालानुज्ञा मंत्र चैत्यालयप्रवेश और गंधोदकग्रहण मंत्र ( १३ ) पृष्ठ. १५३ १५४ १५४ विषय. नमस्कारविधि नमस्कारके आठ अंग नमस्कारके पांच अंग पश्वर्धशयन नमस्कार अष्टांग नमस्कारविधि १५६ जिनपूजा, श्रुतपूजा, गुरुपूजा और सिद्धपूजाका उपदेश १५६ १५७ श्रुतपूजा और गुरूपास्तिकथन १५७ पूजाके पांच भेद नित्यमह पूजा आष्टान्हिक और इन्द्रध्वजपूजा १५७ १५८ चतुर्मुख पूजा १५८ १५८ कल्पद्रुम पूजा - १५९ १६१ १३१ १५९ अष्ट द्रव्यार्चन फल १६० क्षेत्रपाल आदिका सत्कार श्रुतपूजा और गुरुपूजा नित्यव्रतग्रहण नित्य नैमित्तिक पूजा व्रत- माहात्म्य १६१ गुरु आदिको नमस्कार १६२ आशीर्वाद प्रदान १६२ व्यावहारिक पद्धति १६३ शास्त्र सुनना - सुनाना १६३ घरपर आगमन १६३ पुनः स्नान जिनपूजा आदि १६४ दान-प्रदान १६४ पात्रों द १६५ धर्मपात्र के भेद प्रत्येक के लक्षण भोगपात्र और यशः पात्रका लक्षण सेवापात्र और दयादान १६५. १६६ पात्रदान - फल पृष्ठ. १६६ १३८ १६९ १६९ १६९ १७० १७० १७० १७१ १७१ १७१ १७२ १७२ १७२ १७२ १७३ १७३ १७३ १७३ १७४ १७४ १७५ १७६ १७६ १७६ १७६ १७६ १७७ १७८ १७८ १७९ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १९२ १९३ १९४ १९४ १९५ " १९६ १९६ १९६ १९७ १९७ १८९ विषय. पृष्ठ. विषय. दानके भेद और उनका फल १८० ठंडे और गर्म भोजनके गुण दशकुदान र भोजनके विषयमें विशेष नियम दश सुदान १८१ भोजनके अन्तराय.. दान न देने योग्य चीजें १८४ अष्टमूलगुण कुपात्रदान निषेध १८४ पंचोदुम्बरभक्षण-निषेध मिथ्याशास्त्रोक्तदान निषेध १८५ मद्यपान निषेध सात-क्षेत्र १८५ मद्यपायियोंकी अवस्था दानकी प्रशंसा या फल १८५ मांसभक्षण निषेध भोजनविधि और पंक्तिभेद १८६ मधु-भक्षण-निषेध भोजनके अयोग्य स्थान १८६ मक्खनभक्षण-निषेध पंक्तिमें सामिल होने योग्य मनुष्य १८७ रात्रिभोजन और अनछने पंक्तिमें सामिल न होने योग्य मनुष्य १८७ जलपानका निषेध भोजनसमय मुखकर बैठने योग्य दिशाएं १८८ रात्रिभोजन त्यागके दोष चौकेकी रचना १८९ अहिंसावतकी रक्षार्थ रात्रिमें चौकेके विना हानि चार प्रकारके आहारका त्याग सामिल भोजन करनेका निषेध १८९ रात्रिभोजनमें हानि कांसीके पात्रमें भोजन करनेका फल , जलगालनव्रतके दोष पात्रका वजन मद्यत्यागवतके दोष पांच अंगप्रक्षालन कर भोजन मांसत्याग, मुधुत्याग और भोजन करनेवालोंके पात्रोंका अंतर १९० पंच उदंबरत्यागवतके दोष कांसी आदिके वर्तनोंके अभावमें पत्तों .. अन्य त्याज्य वस्तुएं में भोजन १९० द्विदलत्याग भोजनके योग्य-अयोग्य पत्ते १९० भोजनके समय मौनोपदेश निषिद्ध पात्र १९० भोजनका प्रमाण भोजन परोसनेकी विधि १९० हस्तमुखप्रक्षालन अमृतीकरण, प्रोक्षण, परिषेचन, मंत्र, १९१ निषिद्ध भोजन आहूति मंत्र और ग्रासका प्रमाण १९१ पहले उठनेका निषेध शंखमुद्रासे जलपान और पंचप्राणाहूति पंक्तिदोष-निराकरण मंत्र. १९१ भोजनके समय परस्पर स्पर्श करने अन्नका लक्षण १९२ का निषेध पात्रस्पर्श और भोजनग्रहण १९२ मित्र आदिके निमित्त भोजन जलपान विधि और आदि मध्य भोजनपात्र खाली छोडनेका निषेध अन्तमें जल पीनेका फल १९२ कुरलेके विषयमें नियम १९८ م १९९ २०० २०० २०१ २०१ २०१ २०२ २०२ س २०२ س २०२ २०३ : Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ मा विषय. पृष्ठ. विषय. . भोजनके अनन्तर आचमन २०३ छने आदि जलकी मर्यादा भोजनवस्त्रत्याग और तांबूल जलको सुगंधित करना भक्षण २०३ जलकी एक बिंदुमें जीवोंका परिमाण पानखानेकी विधि २०३ जल छाननेमें यत्न केवल सुपारी खानेमें दोष २०४ अयोग्य छन्नेसे हानि पानके विषयमें विशेष नियम २०४ अनाज बीनना और पीसना तांबूलभक्षणमें तेरहगुण -२०४ न पीसने योग्य धान्य पान न खानेके अवसर २०४ धूप आदिमें न डालने योग्य धान्य तांबूलके साथ खाने योग्य अधिक दिन अनाज भरनेका निषेध अन्य पदार्थ २०५ चांवल आटा दाल आदिमें शीघ्र भोजनानन्तर शयन २०५ जीवोत्पत्ति दिनमें अधिक सोनेका निषेध स्नानकर और हाथपर धोकर रोगोत्पत्तिके छह कारण २०५ चौके में जाना भोजन कर सोनेमें विशेष २०५ चूल्हेकी राख निकालना, उपसंहार २०५ ईधन इकट्टा करना, अग्नि धार्मिक प्रशंसा २०६ जलाना और उत्तम उत्तम भोजन बनाना सातवां अध्याय। स्त्रियोंकी भोजन विधि अर्थोपार्जन २०७ पुरुषोंके कर्तव्य स्त्रियोंके पांच कर्तव्य २०७ ब्राह्मणोंका कर्तव्य झाडू लगानेकी तरकीब २०८ ब्राह्मणका लक्षण धूली-प्रक्षेपण क्षत्रियोंके कर्तव्य. भूमिलेपन राजाका कर्तव्य. गोबर थापना और धूपमें सुखाना राजाका स्वरूप. वर्तन मलना सात अंग और आठ भय. पानीके लिए जलाशय जाना अमात्य लक्षण और मंत्रिलक्षण छन्नेका परिमाण कोश और दुर्ग. न वर्तने योग्य छन्ना - - -- २०९ राष्ट्र और ग्रामादिका लक्षण. जल छाननेकी विधि . ... जीवानी प्रक्षेपण तथा घरपर - राजा के गुण आकर पुनः जल छानना तीन शक्तियां और तीन सिद्धियां 'दो घडी बाद पनः जल छानना और " षागण्य और राज्य रक्षाके उपाय. प्रातःकाल अवशिष्ट जलको छानकर मंत्र भेद जलाशयमें जीवानी डालना मुकुटबद्ध राजाका लक्षण २१२ २१३ २१४ २१४ २०९ चतुरंग सैन्य. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. सेना के आठ भेद प्रत्येक का परिमाण और अक्षौ - हिणी सेनाका परिमाण मुकुटबद्धका दूसरा स्वरूप. श्रेणिके नाम अधिराजा-महाराजा आदि का लक्षण चक्रवर्ती की संपत्ति राजा के अन्य कर्तव्य वैश्यों के कर्तव्य. षिकर्म, लाँच न लेना आदि कृषिकर्म और उसका निषेध पशुपालन और तीन तरहका वाणिज्य माप वगैरह हीनाधिक न रखना कपड़ोंकी सफाई बेचने न बेचने योग्य वस्त्र: निष्कपट सोने आदि का व्यापार खोटा माल न वेचना और धूर्तता न करना चौरी आदिका माल न लेना किसीका द्रव्य न हड़पना तराजू वांट आदिके हीनाधिक रखनेका निषेध देन लेन न करने योग्य द्रव्य >> मनुष्य व्यापार करने योग्य मनुष्य स्पर्श्य शूद्र व्यापार के लिए दूरदेश जाना जहाज आदिमें धर्म की रक्षा करना शूद्रों का कर्म तृष्णा-निषेध ܕܕ आलस्य-त्याग जिनस्मरणके अवसर (१६) पृष्ठ. विषय. २१६ लौकिक- आचार २१७ २१७ " २१७ २१८ २१९ २२० २२१ " د निषिद्धयस्थान ऋतुमती होनेपर संभोगक्रिया " रात्रि में गर्भ बीजारोपण उस समयकी आवश्यक बातें गर्भ बीजारोपण संबंधी मंत्र. " २२२ २२२ दीपक जलाने के विषयमें नियम अंतिम वक्तव्य. " " करे तो दोष मोद या श्रावकोंकी तैंतीस क्रियाएं गर्भाधान क्रयाविधि शयनसमय शिर करनेकी विधि पुंसवन क्रिया " सीमंत क्रिया " आठवां अध्याय । · ऋतुस्नाता स्त्रीके पास गमन करने में दोष ऋतु स्नाता स्त्री पुरुष के समीप गमन न " " उक्त क्रियाओं के विषयमें विशेषकथन गर्भिणी स्त्री धर्म पति के धर्म २२२ २२३ प्रीति, सुप्रीति और प्रियोद्भव २२३ पुत्रोत्पत्तिके अनन्तर पिताके कर्तव्य और २२४ नालछेदन विधि उस समय प्रतिदिन के कर्तव्य जननाशौचकी मर्यादा प्रसूतिगृहमें मुनियोंको भोजननिषेध " २२५ प्रसूता दासी आदिका सूतक वर्तशुद्ध " " पुत्रमुख निरीक्षण मंत्र २२६ नामकर्म विधि पृष्ठ. २२६ -२२७ २२८ २३१ २३२ २३३ २३४ २३४ २३४ २३४ २३६ २३७ २३८ २३८ २३९ २४१ २४२ २४३ २४३ २४३ २४४ २४४ २४५ २४५ २४५ २४६ २४६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ विषय. पृष्ठ. विषय. नामकरण मंत्र, कर्णवेध मंत्र और आवेदन स्वीकार २६५ बालकको झूला झुलानेका मंत्र २४९ बोधिपूजन २६६ बहिर्यान क्रिया और मंत्र २४९ यज्ञोपवीतसंख्या २६८ उपवेशन क्रिया और मंत्र २५० यज्ञोपवीत टूट जानेपर कर्तव्य । २६९ अन्नप्राशन क्रिया और मंत्र २५१ वर्णक्रमसे यज्ञोपवीत और उसके विषयमें गमनविधि और मंत्र । २५१ विशेष नियम २७० व्युष्टि क्रिया २५२ वतचर्या २७० चौलकर्म २५२ कटिलिंग, ऊरुलिंग, उरोलिंग और माताके गर्भवती होनेपर चौल शिरोलिंग २७० कर्मका निषेध और विधि २५३ निषिद्ध-आचरण गर्भाधानसे लेकर चौलकर्म तककी व्रतावतरण २७१ क्रियाएं न हुई हों तो प्रायश्चित्त २५३ प्रायश्चित्त २७२ चौलकर्म संबधी मंत्र २५५ मद्यमांसमधुभक्षण-प्रायश्चित्त : २७२ लिपिसंख्यान क्रिया २५६ म्लेच्छादिकके घरपर भोजन करनेका . लिपिसंख्यान मुहूर्त २५६ प्रायश्चित्त ... २७२ अक्षर लिखानेकी विधि और मंत्र २५७ विजातिगृहभोजनप्रायाश्चत्त २७३ पुस्तक ग्रहण और उपसंहार २५८ अग्निपतनमरण-प्रायश्चित्त २७३ नौवां-अध्याय। गिरिपातादि-मरण-प्रायश्चित्त २७३ उपनयन-क्रियारंभ-समय चांडालादि-संसर्ग-प्रायश्चित्त २७३ उपनयन संस्कारके कर्ता २६० मालिकादि संसर्ग-प्रायश्चित्त २७३ पिताकी आज्ञा विना उपनयन सूतक-प्रायश्चित्त २७४ संस्कार करनेका निषेध २६० मुखमें हड्डी जानेपर प्रायश्चित्त २७४ सात प्रकारके पुत्र २६१ गर्भपातन-प्रायश्चित्त यज्ञोपवीत बनानेकी विधि २६१ द्वीन्द्रियादिवध-प्रायश्चित्त उपनयनादि संस्कारोंके प्रतिबंध २६१ अस्थिस्पर्श प्रायश्चित्त २७४ उपनयन विधि २६२ तृणचरघात-प्रायश्चित्त २७४ २६२ जलचर आदिके वधका प्रायश्चित्त २७४ यज्ञोपवीत-धारण २६३ गो आदिके बधका प्रायश्चित्त । २७५ शिरोलिंग-धारण २६३ मनुष्य घातका प्रायश्चित्त २७५ व्रत-ग्रहण २६३ अपने निमित्तसे मरे हुए जीवोंका प्रायश्चित्त २७५ दंडधारण आदि २६४ वर्तन-स्पर्श-शुद्धि २७५ भिक्षाटनविधि २६५ पात्रोंमें मयादि रख देने पर उनके ग्रहण भिक्षा मांगने और भिक्षा देनेकी विधि २६५ का निषेध २७६ बंधुवर्गका आवेदन २६५ चालनी आदिके स्पर्शकी शुद्धि २७६ मौंजी-धारण ३ . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) २८७ २८८ २९० २९० २९१ . सम्यक्चारित्र . २९१ २९१ २९१ " विषय. पृष्ठ. विषय. स्वममें खाई हुई वस्तुका त्याग २७६ क्षायोपशमिक और औपशमिक स्वममें ब्रह्मचर्यभंगका प्रायश्चित्त २७६ सम्यक्त्वका स्वरूप स्वप्नमें माता आदिके संसर्गका प्रायश्चित्त २७६ क्षायिक सम्यक्त्वका स्वरूप मिथ्यादृष्टियों और शूद्रोंके घरपर भोजन सम्यक्त्व-प्रशंसा करनेका प्रायश्चित्त २७६ सम्यग्ज्ञानका लक्षण ---- दशवां-अध्याय। प्रथमानुयोग, करणानुयोग व्रतग्रहण २७७ और चरणानुयोग जिनालय-गमन २७७ द्रव्यानुयोग गुरुके निकट जाना धर्मश्रवण-प्रार्थना चास्त्रिके भेद धर्मकथन गृहस्थका लक्षण मिथ्यादर्शन २७८ सम्यग्दृष्टिश्रावक मिथ्यात्वके तीन भेद २७८ आठ मूलगुण भद्र मिथ्यादृष्टिको देशना २७८ बारहवत मिथ्यादर्शनके भेदपूर्वक दृष्टांत २७९ पंच अणु व्रत सम्यक्स्वकी उत्पत्ति के कारण २७९ अहिंसाणुव्रत और अतीचार हिंसादि तत्वोंका अश्रद्धान २७९ सत्याणुव्रत और अतीचार आप्तका लक्षण , अचौर्याणुव्रत और अतीचार अठारह दोष , ब्रह्माणुव्रत और अतीचार . शास्त्रका लक्षण २८० परिग्रहत्यागवत और अतीचार गुरुका लक्षण " छह अणुव्रत सम्यक्त्वका स्वरूप , रात्रिभोजनत्याग अणुव्रत निःशंकितादि आठ अंगोंके लक्षण २८१-८२ अणुव्रत पालन करनेका फल सम्यक्त्वके पच्चीस मल २८२ तीन गुणवत लोकमूढ़ता २८२ दिग्वतका स्वरूप और अतीचार देवमूढ़ता २८३ अनर्थदंडवत पाषंडिमूढ़ता २८४ अनर्थदंडके पांच भेद आठमद, छह अनायतन और प्रत्येकके लक्षण शंकादि आठ दोष २८५ अनर्थदंडके अतीचार सम्यक्स्वके भेद २८६ भोगोपभोगपरिमाणवत उनकी उत्पत्ति भोग और उपभोगका लक्षण सम्यक्त्वके आठ गुण भोगोपभोगमें विशेष त्याग सम्यक्त्व उत्पत्तिके क्षेत्र अणुव्रतादि पंच उदुंबर त्यागका कारण ग्रहण और सम्यग्दष्टिका गमन २८६ फलभक्षण त्याग - २९४ २९४ " २९७ २९७ २९८ २९८ २९८ २९८ २९८ २९८ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृठ. ३०८ ३०८ ال ३०९ पृष्ठ. विषय. २९९ ग्यारहवां-अध्याय । विवाहविधि-कथन-प्रतिज्ञा कन्याका लक्षण वरका लक्षण वरके गुण आयुपरीक्षण ३०० शुभलक्षणवाली कन्याका वरण अशुभलक्षणवाली कन्याका फल । परीक्षा करने योग्य अंग ३०१ कन्याके शुभाशुभलक्षण विवाहयोग्य कन्या ३०१ विवाह अयोग्य कन्या ३०१ विवाहके पांच अंग ३०२ वाग्दान ३०२ प्रदान वरण ३०३ पाणिपीडन ३०३ सप्तपदी गृहयज्ञ और अंकुरारोपणविधि ३१२ ३१३ ३ विषय. जलकी मर्यादा तिलतंडुलोदकग्रहण-निषेध जलप्राशुक करनेकी विधि मांसवतके दोष शिक्षावतके भेद देशावकाशिककी सीमा सामायिक और प्रोषध वैयाव्रत और दानविधि नवधा भक्ति और सात गुण ग्यारह प्रतिमा दर्शन, व्रत, सामायिक और प्रोषध प्रतिमा सचित्तत्याग प्रतिमा प्रासुक द्रव्यका लक्षण रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा द्वितीय स्वरूप ब्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप ब्रह्मचारीके पांच भेद उपनयन ब्रह्मचारी अवलंब ब्रह्मचारी अदीक्षा ब्रह्मचारी गूढ ब्रह्मचारी नैष्ठिक ब्रह्मचारी सद्गृहस्थ वानप्रस्थ भिक्षकका स्वरूप आरंभत्याग प्रतिमा परिग्रहत्याग प्रतिमा बाह्याभ्यन्तर परिग्रहके भेद .....----- अनुमतित्याग प्रतिमा उद्दिष्टत्याग प्रतिमा देशविरतीका विशेष कर्तव्य बत सुनकर घरपर आना बंधु वर्गका सत्कार ३१४ ३१४ ३१५ ३१६ , वर कर्तव्य ३१७ ३१७ वरका वधूके घरपर गमन ३०४ विवाहके आठ भेद इ०४ ब्राह्मय विवाह दैवविवाह आर्ष-विवाह और प्राजापत्य-विवाह ___ आसुर विवाह और गांधर्व विवाह राक्षस विवाह और पैशाच विवाह . ३१९ ३०५ उपवासपूर्वक कन्यादान मतान्तर गांधर्व और आसुर विवाहमें विशेष विधि, " --- - --".-राक्षस है. कन्याके बांधव ३०६ कन्याका अधिकार ३०६ विवाह कर्म ३०५ वरपूजन और वधूपूजन ३२० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " (२०) विषय. पृष्ठ. विषय. अर्घ्यदान " पुनः भस्मप्रदान मंत्र ३३५ आचमन और मधुपर्क ३२१ सुवर्णप्रदान मंत्र वरको वस्त्रालंकार प्रदान ३२१ वधूको लेकर स्वगृह-गमन ३३५ कन्याको वस्त्रालंकार प्रदान , विशेष कथन ३३६ यज्ञोपवीत ग्रहण और वस्त्राभूषण स्वीकार ३२१ - परमतस्मृति वचन ३३६ विवाह वेदीके समीप वर कन्याको लाना ३२२ वधूका गृहप्रवेश मुहूर्त ३३८ वेदी बनानेका लक्षण " देवोत्थापन ३३९ द्वितीय लक्षण लग्न-प्रतिघात ३३९ उपनयनके समयकी वेदी विवाहके अनन्तरवर्ण्य कर्तव्य ३४० द्वितीय-मत पुत्र-पुत्रीके विवाह आदिके नियमोपनियम ३४० पीठका प्रमाण ३२३ परिवेदनके विषयमें ३४१ विवाह दिनमें होम " कन्याका रजोदोष सप्तपदीकी आवश्यकता " द्वितीय विवाह ३४१ कन्याके रजस्वला होजानेपर , स्त्रीके मरजानेपर विवाह काल ३४२ वेदीके समीप वर-कन्याको लानेकी विधि ३२४ मतान्तर उस समयका कर्तव्य ३२४ तृतीय-विवाह कन्यावरण विधि ३२५ अर्कविवाहविधि कन्यावरण मंत्र बारहवां अध्याय । कन्यादान मंत्र ३२६ वर्णलाभ क्रिया ३४४ कंकणबंधन और मंत्र " कुलचर्या वार्धापन मंत्र और विधि गृहीशिता ३४५ विवाहविधि और होमविधि प्रशान्ति क्रिया ३४६ पुण्याहवाचन-संकल्प-मंत्र ३२९ गृहत्याग क्रिया ३४६ सप्तपदी मंत्र , दीक्षाधारण ३४७ भस्मप्रदान मंत्र. ३३० तेरह प्रकारका चारित्र ३४७ आशीर्वाद मंत्र ३३० पंच महावत ३४७ अनन्तर वधूवरके कर्तव्य ३३१ - पंच समिति ३४८ प्रतिदिनके कर्तव्य , गुप्ति और तप ३४८ चौथे दिन नागतर्पण " बाईस परीषह ३४९ नागतर्पण विधि , अठाईस मूलवत गंधाक्षतप्रदान मंत्र ३३३ छह आवश्यक क्रियाएं तालीबंधनविधि ३३३ उत्तमक्षमादि दशधर्म ३४९ मालाबंधन मंत्र ३३४ पंचाचार ३५० पूर्णाहुति ३३५ आचार्यके छत्तीसगुण ३५० ३४९ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ विषय. पृष्ठ. विषय. यतिभोजनके अन्तराय ३५१ सूतकके भेद ३६६ दूसरे अन्तराय ३५२ आर्तवसूतकके भेद मूलाचारोक्त अन्तराय ३५२ प्रकृत और विकृत सूतकके लक्षण ३६७ चौदह मल ३५३ अकालका लक्षण ३६७ छयालीस अंतराय ३५३ आर्तवसूतकधारणप्रकार ३६७ अन्तराय पालनेका उपदेश ३५३ अठारह दिन पहले रजस्वला होने . मुनिके योग्य भोजन ३५४ पर शुद्धिविधि ३६८ चर्याविधि ३५४ द्वितीय मत ३६८ भिक्षा देनेकी विधि ३५४ अठारहवें, उन्नीसवें दिन तथा इनके बाद छयालीस दोष ३५५ रजस्वला हो तो शुद्धिविधि ३६८ औदेशिक दोष ३५५ दैवकर्म और पित्र्यकर्मकी योग्यता ३६८ साधिक, पूति, मिश्र और प्राभृतिक दोष ३५६ रजस्वला स्नान कर पुनः रजस्वला हो जाय . बलि, न्यस्त और प्रादुष्कार दोष ३५७ तो अशुचिताविधि ३६८ क्रीत, प्रामित्य परिवर्तन और निषिद्ध रजस्वलाका आचरण ३६८ दोष ३५८ रजस्वलाकी शुद्धि । अभिहित, उद्भिन्न, आछाय और मालारो- भोजन पान बनानेकी और देवसेवा हण दोष ३६९ धात्री, भृत्य और निमित्त दोष दो रजस्वलाओंके परस्पर संभाषणआदिका वनीपक, और जीवनक दोष प्रायश्चित्त ३६१ क्रोध और लोभ दोष विजाति रजस्वला स्त्रियोंके संभाषणादिक ३६२ पूर्वस्तुति और पश्चास्तुति दोष ३७० वैद्य, मान और माया दोष रजस्वला होते हुए जननाशौच आदि सूतक विद्या और मंत्र दोष ३६२ आजानेपर भोजन विधि चूर्ण और वशीकरण दोष 2 भोजन करते करते रजस्वला हो जाय शंका और पिहित दोष ३६२ २ या रजस्वला होनेकी शंका हो जाय तो संक्षिप्त दोष ३७१ निक्षिप्त, सावित, अपरिणत, साधारण . - प्रथम रजस्वला होने पर जननाशौच और दायक दोष ३६३ आदि सूतक आजानेपर शुद्धि ३७२ लिप्त, मिश्र और अंगार दोष ......- ३६३ ऋतुमतीद्वारा छुई हुई वस्तुओंके विषयमें ३७२ धूम और संयोजन दोष ३६३ रजस्वलाके हाथका भोजन करे तो अप्रमाण दोष ३६३ प्रायश्चित्त ३७२ उपसंहार ३६४ रजस्वलाकी संनिकटताका दोष ३७२ तेरहवां-अध्याय। रजस्वलाके भोजन शयन आदि सूतक-कथन-प्रतिज्ञा ३६६ स्थानोंकी शुद्धिविधि ३७२ ३५९ आदिकी योग्यता | ... ३६९ ३६१ का प्रायश्चित्त ३७१ दोष ३६२ भोजनविधि Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. ३७६ ३७७ ३७७ . .३७३ ३७७ ३७७ ३७७ ३७८ ३७८ ३७८ (२९) विषय. पृष्ठ. विषय. रजस्वलाके बालककी शुद्धि ३७३ माताको पुत्रोत्पत्तिका सूतक रजस्वलाके भोजन किये पात्रोंमें भोजन माताको पुत्रीकी उत्पत्तिका सूतक करने पर शुद्धि ३७३ प्रसूतिके साथ एक स्थानमें रहने आदि रजस्वलाके पात्र वस्त्र आदिसे स्पर्श हो का सूतक जाय तो शुद्धि ३७३- सूतकके अनन्तर सूतक आजानेपर जातक सूतकके भेद शुद्धिविधि स्राव, पात और प्रसूतिका समय ३७३ देशान्तरका लक्षण गर्भस्रावका सूतक ३७३ पुत्रको माता-पिताका सूतक - गर्भपातकासूतक ३७३ पति-पत्नीको परस्पर सूतक प्रसूति सूतक .. ३७४ पति-पत्नीको परस्पर सूतक पालने वर्णक्रमसे सूतक ३७४ का उपदेश नाभिनालछेदनसे पहले मरण हो जानपर पिताके दश दिनोंमें माताके मरण जन्म सूतक ३७४ की शुद्धिविधि मृत बालकके उत्पन्न होनेका या नालछेदन माताके दशदिनोंमें पिताके मरणबाद मरनेका जन्म सूतक . .. ३७४ की शुद्धिविधि दशदिनसे पहले मरने पर माता इस विषयमें विशेषोपदेश पिताको सूतक ३७४ दूरदेशनिवासी पुत्रको सूतक नियम दशवें दिन बाद मरे हुए का सूतक ३७४ दूर देश चले जानेपर समाचार नामकरण और व्रतबंधनसे पहले न मिले तो कर्तव्यविधि मरे तो क्रियाकर्म विधि ३७५ शुद्धिके दिन रोगीकी स्नानविधि नामकरणसे पहले, पीछे और अशनक्रिया ज्वर-ग्रसित रजस्वलाकी शुद्धि से पहले मरे तो शरीरसंस्कार विधि ३७५ रजस्वला-मरण निखनन ( गाढ़ने ) की विधि ३७५ प्रसूति-मरण दांत उग आने पर मरे तो शरीरसं अन्यविधि स्कारविधि ३७५ गर्भिणी-मरण दांत उग आने पर मरे तो माता पति मरनेपर दशवें दिन प्रसूति पिता आदिको सूतक ३७५ या रजस्वला हो जाय तो चूडाकर्म किये हुएके दुर्मरण और उसकी सूतक विधि · मरणका सूतक ३७६ कन्याके मरणका आशौच उपनयन संस्कारके बाद मरणका पक्षिणी आदिका लक्षण सूतक ३७६ पुत्री के लिए माता पिताका आशौच जननाशौच ३७६ बहन और भाईको परस्पर सूतक नालछेदनसे पहले पिताको सूतकका ननँद भावी और साले बहनोई अभाव और दानविधि ३७६ को सूतकनिषेध और स्नान ३७८ ३७९ ३७९ ३७९ ३७९ ३८० ३८० ३८० ३८० ३८१ ३८२ ३८२ ३८३ ३८३ ३८३ १८३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) विषय. मातामह (नाना ) आदिका सूतक सूतक - निषेध श्रोत्रिय आदिके मरने पर स्नानोपदेश सूतकका अभाव धार्मिक - पुरुष के देह संस्कार की विधि उसके शरीरसंस्कारके अर्थ अनि विशिष्ट पुरुष के शवसंस्कार के लिए अि कन्या, विधवा आदि के शवसंस्कारार्थ अग्नि सर्व सामान्यके शवसंस्कारार्थ अभि प्रत्येक अग्नियोंके लक्षण उखामें अग्नि- प्रज्वालन शव - वाहक पुरुषों की संख्या और भूषा आदिमें उन्हीं की नियुक्ति विमानमें सुलाकर ले जाने आदिकी विधि ३८६ ३८६ शवसंस्कार विधि चिता रचने आदिके मंत्र जलाशय गमन दुष्टतिथि आदिमें मरण प्रायश्चित्त अतिदुर्भिक्षादिके कारण मरण प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त दाता पृष्ठ. विषय. ३८४ क्षौरविधि ३८४ स्नानविधि ३८४ शिलास्थापन और ग्रामप्रवेश ३८४ ३८५ द्वितीय दिनसे लेकर दशवें दिन तक के कृत्य पिंड - प्रमाण " ३८५ पिंडपाकविधि प्रेतदीक्षा शेषक्रियापर्यंत प्रेतदीक्षा ३८५ ३८५ ३८५ ३८५ कर्ताका निर्णय शेष - क्रिया अस्थि-संचयन ग्यारहवें दिन की क्रिया बारहवें दिन की क्रिया ३८७ मृतबिंबकी स्थापना ३८८ वैधव्यदीक्षा वैधव्य अवस्थाके कृत्य ३८८ ३८८ उपसंहार ३८९ धर्मोपदेश ३८९ प्रशस्ति पृष्ठ. ३९० ३९० ३९० ३९१ ३९१ ३९२ ३९२ ३९२ ३९२ ३९३ ३९३ ३९३ ३९४ ३९४ ३९४ ३९४ ३९५ ३९६ ३९७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) शुद्धाशुद्धि। शुद्धियां। तदृष्ट्वा । गणधर पृष्ठ सं० पंक्ति सं० अशुद्धियां। अादियां। तदृष्ट्वा गणघर मोक्षमुख जो बकरेके समान अतिशय कामी हैं वे बकरेके जैसे हैं। मोक्षसुख जैसे बकरा अतिशय कामी होता है वैसेही जो शास्त्र सुननेमें अतिशय कामी हों वे बकरे जैसे हैं। ये चारों माननेसे यह माननसे ओ सँवार शैय्या शय्या गर्मा गर्मी कोटनवाला काटनेवाला शुद्ध राग वर्णश्च वर्णैश्च चांद जैसा चन्द्रकान्तमणि जैसा सैवार गुरूपदश गुरूपदेश अग्नि, सूरज, चांद, दीपक, अग्नि, सूरज, चाँद, गौ, सर्प, सूर्य, पानी और योगीश्वर- दीपक, संध्या, पानी और योगीइनको देखता हुआ श्वर-इनको देखता हुआ; तथा गर्दनके सहारेसे पीठ पीछे .. पीठकी तरफसे गलेमें पेशाबके समय अथवा पेशाबके समय सामायिक करते समय सामायिक, पूजा, जप आदि क्रियाएं करते समय . फल वगैरहसे फल और कोयलेसे शौच करे शौच करे एवं तीन बार शौच करे और तीन ही बार हाथ धोवे । कमरतक स्नान करके पैरोंको अवशिष्ट मिट्टीसे पैर धोकर कमरखूब अच्छी तरहसे घोवे ... तक स्नान करे गोलीसे भागसे ३२ २६ ३३ २७ २५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ २१ पृष्ठ सं० पंक्ति सं० अशुद्धियां । गोलिये पहली गोली ३५ दूसरी इससे आधी तीसरी इससे आधी खाशरश्च करिंजश्च शुद्धियां । भाग पहला भाग दूसरा इससे आधा तीसरा इससे आधा खादिरश्च करंजच २१ २२ शुद्ध ओर ४४ . २१ गुरुके गृहस्थाचार्य गुरुके माताको माताका नीरोरोता नीरोगता शुद्धि शुद्धि शूद्रों द्वारा धोबी कुम्हार आदि कारु शूद्रोंद्वारा यज्ञोपवनीतको यज्ञोपवीतको और अशौचान्ते आशौचान्ते २१ . दूरान्तमरणे दुरात्तन्मरणे ...... पत्र पात्र यंत्रे मंत्रे यंत्रमंत्रैः - टट्टी होकर आनेपर सूतक शुद्धिके दिन मशान घाटके ऊपर जानेपर मुर्दा जलानेको जानेपर किसीका मरण सुननेपर जातीय या गोत्रजका मरण सुननेपर अपने कुटुंबीकी दूरसे या पास देशान्तरवर्ती ऋषियोंका मरण सुनने से मरणकी सुनावनी आनेपर पर और जीमते समय पत्तल फट तथा उनके जूठे पात्रोंसे छू जानेपर जानेपर मुखकृत् . सुखकृत् शद्रोंको इस उपर्युक्त शौचाचार शूद्रोंको इस उपर्युक्त संपूर्ण शौचाविधिका करना सुखकर नहीं है चार विधिका करना सुखकर नहीं है अर्थात् वे उपर्युक्त सम्पूर्ण शौचाचार विधि न कर अपने योग्य ही करें। १७. २१ शूद्राका शुदाः ४९ ४९ ५ ययोपवीत १४ . दाहिने हाथमें • यज्ञोपवीत दाहिने कंधेपर : Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ पैरोंतक "पृष्ठ सं० पंक्ति सं० अशुद्धियां । शुद्धियां। ५० पुण्य-पापक पुण्यपापका ५० मुक्तिका होना मुक्तिका होना इत्यादि गौत गौत.. सहज यह जल कोई भी बात सत्य न ठहरेगी- ऐसे कितने ही विषय हैं जो समझमें नहीं आते हैं । ऐसी दशामें वे सब असत्य ही ठहरेंगे। पांछ पौंछ कछौटा लगानेवाला कछौटा लगाने वाला, कछौटा न लगाने वाला नीले रंगका या लाल रंगका नीले रंगका शूद्रों द्वारा कारु शूद्रों द्वारा शूद्रों द्वारा कारु शूद्रों द्वारा और मंत्रस्नान और मानसस्नान परातेंक या टेढ़ा-मेढ़ा होकर या झुककर आचमन करनेके बाद ( इतना पद नहीं होना चाहिए ) समग्र समुद्र विदी बदी चार्धमष्टाविंशतिक चार्धं सप्तविंशतिक शब्दके शब्दोंके विद्याके कारण विद्यासंबंधी ऊपरि उपरि यक्ष यक्ष यक्षी उनके तर्पण ॐ हीं अर्ह जयायष्ट इत्यादि उनके तर्पण यह उनको नमस्कार ॐ हीं अर्ह असि आ इत्यादि नमस्कार इन श्लोकोंमें ऊंच नीच इन श्लोकोंमें ऊंच जातिके मनुष्यों दोनों तरहके मनुष्योंको न को भी न ५ करना है। करना है तथा जो छूने योग्य नहीं हैं उन्हें किसी भी हालतमें न छूवे। १५ यक्षी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल ( २७ ) पृष्ठ सं० पंक्ति सं० अशुद्धियां । शुद्धियां। ८७ १४ आदि दुष्ट आदि उनके दुष्ट जिससे केशं जिससे उनके केश ८८ १ आते जाते हों ऐसे आते जाते हों अथवा जहाँका आने जानेका रास्ता तंग हो ऐसे ८८ १६ बहुत मजबूत मकान नीवको बहुत मजबूत भरे चिनवावे इस तरह गर्भमंदिरमें गर्भमंदिरमें पादकाएं पादुकाएं स्तंभाकार मानस्तंभाकार फाल २५ इसके बाद आह्वान स्थापना और इसके बाद जिनेन्द्रके चरणोंकी सन्निधिकरण कर उस जिनबिंब सुगंधित जलसे प्रक्षालकर आवाहन, की सुगंधित जलसे प्रक्षाल करे। स्थापना और सन्निधिकरण करे। क्रमसे जलसे भरे हुए सुगंधित जलसे, जलसे और इक्षु रस आदिसे भरे हुए कलशस्थापन कलशोद्धरण और अभिषेक चोद्धृत्य चोद्वत्य सर्वोषधिरससे भरे हुए कलशसे । सौषधि रससे जिनदेवका उद्दजिनदेवका अभिषेक करे । र्तन करे। बाई ओर जलमंत्रादिके बाई ओर बनी हुई होमशालामें जल मंत्र आदिके चारों कोनों पर ऊपर चौकोन देवभागोंपर छत्रत्रय देवभागोंपर बनी हुई छोटी वेदि कापर छत्रत्रय १०३ २४ उनसे पूर्ववर्ती जो माग है उनपर उनसे पूर्व में अर्थात् दोनों ब्रह्म भागोंके मध्यमें १०४ १३ कुंडकी कुंडोंकी १०७ गये थे जाते हैं व्रतोयापनके-समय -- यज्ञोपवीत संस्कारके समय तध्रुवं तद्धृवं ११७ ११.------- स रह इस तरह ११८ श्रीजिनपूजन श्रीजिनस्थापन ११८ २० मध्य देशमें जिनदेवकी मध्य भागमें वास्तुदेवोंकी ११८ २३ . ब्रह्मदेवकी ब्रह्म नामके यक्षकी ११८ २५ ग्रहबलि गृहबलि mm 0 ४ ११६ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) "पृष्ठ सं० पंक्ति सं० अशुद्धियां। १३७ २१ स्थापनाकी थी १३७ २५ की थी १४२ २१ भद्रासन बैठे १९५ अण्ये-पान भी दूषित है २७ कायसे अन्न अग्निसे पकाये २०५ चैत २०८ धर्मे - २२१ भूखे रहने दे बात भी न करे १९७ १९७ १६ २२६ २३२ २३२ न्यायमाग ब्रह्मस्थानको छोड़ किसी दूसरे स्थानमें १७ . शुद्धियां। स्थापना की जाती है की जाती है भद्रासन पर बैठेअपेय-पान भी-रात्रम दूषित कायसे रात्रिमें अन्न अग्निसे न पकाये चैत्य धर्मे . . भूखे न रहने दे बात भी न करे अर्थात् इनके साथ लेन-देन व्योहार न करे न्यायमार्गे पहलेके ब्रह्मभागोंको छोड़ आगेके ब्रह्ममागोंकी पूर्व दिशावाले मनुष्यभाग और देवभागोंमें चतुर्थे . उन मंडलोपर बाई ओरके चूलाकर्म शुभेऽलि जयादि बायें पैरको मृत्योश्च ___घरपर अथवा रात्रिमें अथवा शूद्रके घरपर भोजन भत्ती योग्य उसके हाथमें अर्घ्य दे मधुपर्क घरके दरवाजेपर वरके आजानेपर कन्याका मामा उसका हाथ पकड़कर घरके भीतर ले जाय। चतुथ अग्निमंडलोंपर दाहिनी ओरके चूलाकम २३२ २३३ २५२ २५३ २५३ २५७ २६५ २७४ २७६ भेऽन्हि जमादि दाहिने पैरको मृत्योञ्च घरपर अथवा शूद्रके घर पर रात्रिमें भोजन भत्ता याग्य अर्घ्य चढ़ावे मधुपक कन्याका मामा वरको हाथ पकड़कर वेदीके पास लावे २८६ ३२० ३२२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ सं० पंक्ति सं० ३२४ १३ ३२४ ३२६ ३३९ ३३९ - ३३९ ३६१ ३७२ ३७४ ३८४ ३८४ १७ २० १२ १३. १४ ११ ३ २३ १ १ अशुद्धियां । वेद के दोनों तरफ ( २९ ) पूर्वोक्त दोनों धान्यके पन्त्रैः चेददृशम् विवाह में भी सोलह दिन के क कर मस्तकपर पुरोहितजी सूतक है दका और शुद्धियां । उक्त धान्यके दोनों पुंजोंकी आजू-बाजू उन दोनों धान्यों के मंत्र: च व्रते दशम् विवाह में दश दिनके कह कर * मस्तकपर अमृतमंत्रद्वारा पुरोहितजी जननाशौच है मरणाशौच कछ नहीं ननँदका और ननँद भावीका तथा सालेका और साला बहनोईका सालेका * * * * इनके सिवाय कुछ श्लोकोंका अर्थ अशुद्ध हो गया है । उनका शुद्ध भाषांतर तथा भावार्थ हम नीचे लिखते हैं । पाठक यथास्थान ठीक करके ग्रंथका स्वाध्याय करें । पृष्ठ ३३ में श्लोक नं० ३६: जलाशय में से किसी पात्रमें प्रासुक जल ले, दोनों जाँघों के बीचमें दोनों हाथ करके यथोचित बैठे और उस जलसे शौच करे | पृष्ठ ३३ में श्लोक नं० ३७: जलाशयक भीतर गुद-प्रक्षालन न करे, किन्तु किसी पात्रमें छना हुआ पवित्र जल जुदा लेकर उससे शौच करे । यदि किसी पात्रमें जदा जल न लेकर जलाशय में ही शौच करे तो वह भी जलसे करीब एक हाथ दूर बैठकर शौच करे। यहां ' गालितेन पवित्रेण ' के स्थान में " रत्निमात्रं जलं त्यक्त्वा ' ऐसा भी पाठ है । - पृष्ठ ३७ में श्लोक नं० ६०: भावार्थ - यह उद्धृत श्लोक है । इसका जैन सिद्धान्त के अनुसार तात्पर्य इतना ही है कि कुरला करनेवाला अपने मुखके कुरले अपनी बाई ओर फेंके सामने या पीठकी तरफ या दाहिनी ओर न फेंके। पृष्ठ ५२ में श्लोक नं० १३:-- भावार्थ- -यह प्रकरण तर्पणका है। आगे पृष्ठ नं० ८१, ८२ और ८३ में ऋषितर्पण, पितरतर्पण और जयादिदेवतोंके तर्पण मंत्र हैं । इनके अलावा वस्त्र निचोड़कर पितरोंको जल देनेका कोई मंत्र नहीं है । और श्लोक नं० १२ में मंत्र - पूर्वक वस्त्र निचोड़ना लिखा है तथा तर्पणके अनतर वस्त्र - संप्रोक्षण और वस्त्र परिधारण होता है। वस्त्र निचोड़नेका नंबर बादमें आता है । परंतु यहां बीचही में वस्त्र निचोड़ा हुआ जल देना लिखा हुआ है । इससे ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद श्लोक नं० ११, १२, १३, प्रकरण पाकर किसीने क्षेपक तो नहीं मिला दिये हैं या किसीने Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणी में लिखे हों और लेखकोंकी गलतीसे वे मूल ग्रन्थमें सामिल हो गये हों ! प्रायः इस ग्रन्थ की कोई कोई प्रतियोंमें विभिन्नता भी देखी जाती हैं । कितने ही श्लोक ऐसे हैं जो मुद्रित मराठी पुस्तकमें नहीं हैं और वे दूसरी प्रतियोंमें हैं। इसी तरह संभव है कि कोई ऐसी प्रति भी हो जिसमें ये श्लोक न भी हों। कदाचित् हों भी तो अपेक्षावश दोषाधायक नहीं हैं। पृष्ठ ५३ में श्लोक नं०१७: भावार्थ-इस श्लोकका तात्पर्य सिर्फ वस्त्र-परिधारणके अनंतर शरीरको न पोंछनेका है । अतएव साधारण जनताको इस युक्ति द्वारा न पोंछनेका उपदेश-मात्र दिया है । अथवा श्लोक नं. १७-१८-१९ उद्धृत जान पड़ते हैं । अथवा प्रकरणानुसार या तो क्षेपक रूपसे किसीने मिला दिये हों या टिप्पणी से मूलमें शामिल हो गये हों । संभव है ऐसा ही हुआ हो । क्योंकि प्रायः देखा गया है कि टिप्पणीका पाठ भी लेखकोंकी गलतियोंसे मूलमें आ जाता है । अस्तु, कुछ भी हो इन श्लोकोंका सिर्फ तात्पर्यार्थ ही ग्रहण करना चाहिए । तात्यार्थ इतना ही है कि स्नान कर वस्त्र पहन लेने के बाद शरीरको न पोंछे। पृष्ठ ५५ में श्लोक नं० २६: नीले रंगका कपड़ा दूरसे ही त्यागने योग्य है अर्थात् श्रावकोंको नीले रंगसे रंगा हुआ कपड़ा कभी नहीं पहनना चाहिए । परंतु सोते समय रतिकर्ममें स्त्रियां यदि नीला वस्त्र पहनें तो दोष नहीं है। पृष्ठ ५७ में श्लोक नं. ५७: सूखी हुई लकड़ीपर कपड़ा सुखा देने पर दो वार आचमन करनेसे शुद्ध होता है । अतः पूर्व दिशामें या उत्तर दिशामें धोया हुआ वस्त्र सुखावे । पृष्ठ ७२ में श्लोक नं०११३, ११४:-- अपनेको जैसा अवकाश हो उसके अनुसार पंचनमस्कार मंत्रके एकसौ आठ या चौपन या सत्तावीस जाप देवे। पंचनमस्कार मंत्रके दो दो और एक पदपर विश्राम लेते हुए नौ बार जपने पर सत्ताईस उच्छास होते हैं । भावार्थ-"अर्हद्भ्यो नमः सिद्धेभ्यो नमः इन दो पदोंको बोलकर थोड़ा विश्राम ले, फिर “आचार्येभ्यो नमः उपाध्यायेभ्यो नमः" इन दो पदोंका बोलकर थोड़ा विश्राम ले, बाद "साधुभ्यो नमः" इस एक पदको बोलकर विश्राम लेवे। एवं एक पंचनमस्कार मंत्रमें तीन उच्छास, और नौ पंचनमस्कारोंमें सत्ताईस उच्छास होते हैं । इस विधिके अनुसार पंचनमस्कार मंत्रके उपर्युक्त. जाप देनेपर सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। पृष्ठ १०३ में श्लोक नं० १०९-११०: पहलेके ब्रह्मभागोंको छोड़कर आगेवाले ब्रह्मभागोंकी पूर्वदिशावर्ती मानुषभाग और देवभागोंमें तीन कुंड बनवावे । उन तीनों कुंडोंके बीचमें एक अरनिप्रमाण लंबा, इतना ही चौड़ा. और इतना ही गहरा चौकोन-जिसके चारों ओर तीन मेखला (कटनी ) खिंची हुई हों ऐसा एक कुंड बनवावे । -अनवादक। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य । खास करके जबसे श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार लिखित श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रंथोंके समालोचना विषयक लेख प्रकाशित हुए हैं, तबसे दिगम्बर जैन समाजमें त्रिवर्णाचार ग्रंथके कई प्रसंगोंको लेकर बहुत वादानुवाद चल रहा है। लगभग चार वर्ष हुए हमारे इस कार्यालयके संचालक स्वर्गीय पं० उदयलालजी काशलीवालने यह विचार किया कि, “ संस्कृत न जानने वाले स्वाध्याय . प्रेमी भाई अवश्य ही इस बातके . इच्छुक होंगे कि यदि त्रिवर्णाचार ग्रंथका भाषानुवाद होता तो हम भी उसकी स्वाध्याय कर उन विषयोंको विचार सकते । " अतः स्वर्गीय पंडितजीने हमारे साथ विचार करके इस ग्रंथको हिंदीअनुवाद-सहित प्रकाशित करना निश्चय किया और अनुवादका कार्य श्रीयुक्त पंडित पन्नालालजी सोनीको सौंपा। इस ग्रंथका छपना प्रारंभ होनेके कुछ ही दिनों बाद हम वहीं रहने के विचारसे अपने देश हरदा चले गये और वहां खादी बनानेका कारखाना जारी कर दिया । पश्चात् ग्रंथके कुछ ही फार्म छपे थे कि मित्रवर्य पंडित उदयलालजी काशलीवालका स्वास्थ्य खराब हो चला और इसलिये हमने उन्हें वायुपरिवर्तनार्थ तया औषधोपचारार्थ हरदा बुला लिया। वे वहां एक माह रहे। वहांसे औषधोपचारार्थवर्धा और फिर नाशिक गये, पर आराम न हुआ। और दुःख है कि नाशिकमें ही उनका स्वर्गवास हो गया। उस महान साहित्य-सेवीके वियोगसे इस कार्यालयको जो क्षति पहुंची है वह इसके द्वारा उनके समयमें प्रकाशित अनेक ग्रंथोंके पाठकों से छिपी न होगी । खास आपके द्वारा अनुवादित श्रीनेमिपुराण, भक्तामरकथा ( मंत्र-यंत्र सहित ), नागकुमारचरित, यशोधरचरित, पवनदूत (काव्य), सुदर्शनचरित, श्रेणिकचरितसार, और सुकुमालचरितसार ग्रंथ इस कार्यालय द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं । श्रीपांडवपुराण, सम्यक्त्वकौमुदी और चन्द्रप्रभचरितके नवीन अनुवादोंका ऐसे अच्छे रूपमें प्रकाशित होना भी आपहीके उद्योगका फल है । इनके सिवाय उक्त स्वर्गीय पंडितजी द्वारा अनुवादित अथवा लिखित श्रीभद्रबाहुचरित, धन्यकुमारचरित धर्मसंग्रहश्रावकाचार, आराधनासारकथाकाष, नेमिचरित (काव्य), संशयतिमिरप्रदीप, बनवासिनी आदि कई जैन ग्रंथ भिन्न २ प्रकाशकों और व्यक्तियों द्वारा प्रकाशित हुए हैं। अवश्य ही मित्र. वर्य पं० उदयलालजी काशलीवालके उत्तर अवस्थाके विचारोंसे हम सहमत नहीं थे और उन विचारोंके परिणाम-स्वरूप उनकी उस कृतिसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं था, तथापि इस कार्यालय द्वारा उन्होंने दि० जैनसाहित्य एवं दि०. जैन समाजकी जो अमूल्य सेवा की है उसे हम कदापि नहीं भूल सकते और उसके लिये यह कार्यालय तथा दि० जैन समाज उनका सदैव ऋणी रहेगा। मित्रवर्य पं० उदयलालजीके स्वगवास होजाने और बादमें डेढवर्षतक हमारे यहां न रहने के सबब इस ग्रंथके प्रकाशित होनेमें इतना ज्यादा विलम्ब हो गया । इसके लिये हम पाठकों क्षमा प्रार्थी हैं। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त वक्तव्य से यह बात प्रगट प्रकाशित हो रहा है। अतः समय २ पर ( ३९ ). है कि लगभग चार वर्षके दीर्घ कॉलमें यह ग्रंथ छपक भिन्न २ महाशयों द्वारा इसका प्रूफ तथापि पूरा ग्रंथ छप जाने पर अनुवादक महाशयने इसका आदिसे, अंततः संशोधन है। कर जो २ अशुद्धियां थीं उनका शुद्धिपत्र तथा जिन श्लोकोंका अनुवाद ही गलत हुआ था बनेका शुद्ध-अनुवाद लिख दिया, जो साथमें प्रकाशित है । पाठक उसके अनुसार यथास्थान संशोधन करके फिर ग्रंथका स्वाध्याय करें । '' इस ग्रंथ के विषय और अनुवाद के सम्बन्धमें हम और तो कुछ कह नहीं सकते हैं, पर इतना जरूर कहेंगे कि अनुवादक महाशयने बड़े परिश्रम के साथ सरल भाषा में इसका अनुवाद किया है। इसमें जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत तीनों वर्णोंका आचरण और क्रियाओंका बहुत विस्तार के साथ खुलाशा वर्णन दिया है । अतः यदि विवादस्थ बातोंको, थोड़ी देर के लिये, हम एक तरफ रहने दें, तौभी यह ग्रंथ गृहस्थके लिये बहुत ही उपयोगी, एवं प्रत्येक जैनीके पढ़ने योग्य है 1 अंतमें हम अनुवादक महाशयको धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते, जिन्होंने हमारी प्रार्थना स्वीकार कर इस ग्रंथका अनुवाद कर दिया । बिना आपकी सहायता के हम इसे इस रूप में प्रकाशित करनेमें असमर्थ रहते । ता० २४-११-२४ ई० निवेदकबिहारीलाल कठनेरा जैन । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः । श्रीसोमसेनभट्टारक-विरचित त्रैवर्णिकाचार । पहला अध्याय । मङ्गलाचरण । श्रीचन्द्रप्रभदेवदेवचरणौ नत्वा सदा पावनौ, ___संसारार्णवतारको शिवकरौ धर्मार्थकामप्रदौ । वर्णाचारविकासकं वसुकरं वक्ष्ये सुशास्त्रं परं, यच्छ्रुत्वा सुचरान्त भव्यमनुजाः स्वर्गादिसौख्यार्थिनः ॥१॥ जो धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों की प्राप्तिके कारण हैं, सुख देनेवाले हैं और भव्यपुरुषोंको संसार-समुद्रसे तारनेवाले हैं उन श्रीचन्द्रप्रभदेवके कान्तिमान् पवित्र चरणोंको नमस्कार कर त्रिवर्णाचार नामके परम पवित्र शास्त्रको कहूँगा । यह शास्त्र पुण्यका करनेवाला है और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्गों के नित्य-नैमित्तिक आचरणोंको प्रकट करनेवाला है । जिसे सुनकर स्वर्गादि सुखोंको चाहनेवाले भव्य पुरुष उत्तम मार्गमें लगेंगे ॥१॥ या श्रीमद्धरिवंशवंशजलजाल्हादैकसूर्योपमो, ये के धर्मपरायणा गुणयुतास्तेषां सदा स्वाश्रयः। . ज्ञानध्यानविकासको मुनिजनैः सेव्यो मुदा धार्मिकैः, स श्रीमान्मुनिसुव्रतो जिनपतिर्दद्यान्मनोवाञ्छितम् ॥ २॥ . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www सोमसेनभट्टारकविरचितसूर्य जैसे कमलोंका विकास करनेवाला है वैसे ही जो हरिवंशरूपी कमलोंका विकास करनेको एक अद्वितीय सूर्य हैं, जो कोई गुणोंसे युक्त धर्मात्मा पुरुष हैं उनके वे सदा आश्रय-स्थान हैं-उनकी रक्षा करनेवाले हैं, ज्ञान-ध्यानको बढ़ानेवाले हैं और जिनकी मुनिजन सेवा करते हैं वे श्रीमुनिसुव्रतनाथ मेरे मनोवांच्छित कार्योंकी सिद्धि करें ॥२॥ वन्दे तं पार्श्वनाथं कमठमदहरं विश्वतत्त्वप्रदीपं, ___कर्मारिनं दयालु मुदितशतमखैः सेव्यपादारविन्दम् । शेषेशो यस्य पादौ शिरसि विधृतवानातपत्रं च मूर्भि, मुक्तिश्रीर्यस्य वाञ्च्छां प्रतिदिनमतुलां वाञ्च्छति प्रीतियुक्ता ॥३॥ मैं उन पार्श्वनाथ भगवानकी वन्दना करता हूँ जो कमठासुरके मदको चूरचूर करनेवाले हैं, सम्पूर्ण तत्त्वोंको प्रकाश करनेके लिए दीपक हैं, कर्म-शत्रुओंकों मारकर दूर फेंकनेवाले हैं, छोटे बड़े सब जीवों पर दया करनेवाले हैं, जिनके चरण-कमलोंकी बड़े बड़े इंद्र सेवा करते हैं, जिनके चरणोंको शेषनाग अपने शिरपर धारण करता है उनके सिरपर छत्र धारण किये खड़ा है और जिनकी मोक्ष-लक्ष्मी प्रीतिपूर्वक प्रतिदिन अनुपम चाह करती रहती है ॥ ३ ॥ नौमि श्रीवर्द्धमानं मुनिगणसहितं सप्तभङ्गप्रयोगै, निर्दिष्टं येन तत्त्वं नवपदसहितं सप्तधाऽऽचारयुक्त्या। सुज्ञानक्ष्माजबीजं नवनयकलितं मोक्षलक्ष्मप्रदाय, सुप्रामाण्यं परैकान्तमतविरहितं पश्चिमं तं जिनेन्द्रम् ॥ ४ ॥ जो मुनियोंके समूहसे युक्त हैं, जिन्होंने प्रखर युक्तियों के साथ साथ अस्ति, नास्ति आदि सप्तभंगोंके द्वारा नव पदार्थ और सात तत्त्वोंका उपदेश दिया है, जैसे बीज वृक्षकी उत्पत्तिका कारण है वैसे ही जो परमात्मा केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें कारणभूत हैं, नव प्रकारके नयोंसे युक्त हैं, प्रमाण रूप हैं, मोक्ष-लक्ष्मीके देनेवाले हैं और अनेकान्तरूप हैं उन श्रीवर्धमान अन्तिम तीर्थकरको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४॥ श्रीभारतीमखिललोकसुखावधारिणी, मानन्दकन्दजननी जनजाड्यनाशिनीम् । तत्त्वावकाशकरिणीं वरबुद्धिदायिनी, वन्दे हितार्थसुखसाधनकार्यकारिणीम् ॥ ५॥ मैं सरस्वती-देवीकी अपने हृदयमें उपासना करता हूँ जो सम्पूर्ण संसारी जनोंके सुखका निश्चय करानेवाली है, उनको आनन्द उत्पन्न करनेवाली है, उनके अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाली है, तत्त्वोंका प्रकाश करनेवाली है, सद्बुद्धि देनेवाली है और प्राणियोंके हितके अर्थ सुखका उपाय दिखानेवाली है ॥ ५॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । चारित्रोज्वलगन्धवासितजनं शिष्येषु कल्पद्रुमं, वन्देऽहं परलोकसारसुखदं सिद्धान्तपारप्रदम् । आचार्य जिनसेनमात्मचिदुदैर्भव्यौघसस्य घनं, संसेव्यं प्रगणैर्गरिष्ठपददं रत्नत्रयालङ्कृतम् ॥ ६ ॥ मैं उन आचार्य प्रवर जिनसेनको नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अपने चारित्रकी निर्मल सुगन्धसे सबको सुगन्धित किया है, जो अपने शिष्योंके मनोरथोंको पूर्ण करने कल्पवृक्ष हैं, परलोकमें सारभूत सुखका मार्ग दिखानेवाले हैं, सिद्धान्तके पार पहुँचे हुए हैं; और जैसे जल देनसे धान्य हराभरा हो जाता है वैसे ही उनके ज्ञान-जलसे भव्यसमूह आल्हादित होता है, अच्छे अच्छे गुणीजन जिनकी सेवा करते हैं, उत्तम स्थानके देनेवाले हैं और रत्नत्रयसे भूषित हैं ॥ ६ ॥ कलियुगकलिहन्ता कुन्दकुन्दो यतीन्द्रो, भवजलनिधिपोतः पूज्यपादो मुनीन्द्रः । गुणनिधिगुणभद्रो योगिनां यो गरिष्ठो, जयति नियमयुक्तः सिद्धसेनो विशुद्धः ॥७॥ कलिकाल-सम्बधी पापोंको नाश करनेवाले श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, भव-समुद्रसे पार ले जानेवाले और सम्पूर्ण मुनियोंमें श्रेष्ठ श्रीपूज्यपादाचार्य, गुणोंकी खान श्रीगुणभद्र आचार्य और चारित्रसे युक्त निर्मल श्रीसिद्धसेन आचार्य जयवन्त रहें ॥ ७ ॥ . महेन्द्रकीर्तेश्चरणद्वयं मे, स्वान्ते सदा तिष्ठतु सौख्यकारि । सिध्दान्तपाथोनिधिपारगस्य, शिष्यादिवर्गेषु दयान्वितस्य ॥८॥ जो सिद्धान्त-समुद्रका पार पा चुके हैं और अपने शिष्यवर्गोंपर दया रखनेवाले हैं उन श्री महेन्द्रकीर्ति भट्टारकके सुख उपजानेवाले दोनों चरण मेरे अन्तःकरणमें सदैव निवास करें ॥ ८॥ यत्प्रोक्तं जिनसेनयोग्यगणिभिः सामन्तभद्रैस्तथा, सिध्दान्ते गुणभद्रनाममुनिभिर्भट्टाकलककैः परैः । श्रीसूरिद्विजनामधेयविबुधैराशाधरैर्वाग्वरै, - स्तदृष्ट्वा रचयामि धर्मरसिकं शास्त्रं त्रिवर्णात्मकम् ॥९॥ जिनसेन, समन्तभद्र, भट्टाकलङ्क, ब्रह्मसूरि और पंडित आशाधर आदि प्रौढ़ विद्वानोंने अपने अपने रचे हुए ग्रन्थोंमें जो कहा है उसीको देखकर तीनों वर्गों के आचार-रूप इस धर्मरसिक शास्त्रकी रचना की जाती है ॥ ९ ॥ बह्मज्ञानविकासका व्रततपोयुक्ताश्च ते ब्राह्मणा, स्वायन्ते शरणच्युतानपि नराँस्ते क्षत्रियाः सम्मताः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ सोमसेनभट्टारकविरंचित धर्माधर्मविवेकचारचतुरा वैश्याः स्मृता भूतले, ज्ञानाचारमहं पृथक्पृथगतो वक्ष्यामि तेषां परम् ॥ १०॥ जो आत्म-ज्ञानका विकास करनेवाले हैं, व्रत और तप सहित हैं वे ब्राह्मण कहे जाते हैं । निराश्रय पुरुषोंकी भी जो रक्षा करते हैं वे क्षत्रिय माने गये हैं। और जो धर्म-अधर्मकी जाँच करने में प्रवीण हैं वे वैश्य होते हैं । अतः इनका ज्ञान और आचरण - जुदा जुदा कहा जाता है ॥ १० ॥ सज्जनदुर्जनवर्णन | दुर्जनों का यह स्वभाव है कि वे सन्तो जना न गणयन्ति सदा स्वभावात्, क्षुद्रैः प्रकल्पितमुपद्रवमल्पवत्कौं, दायं तृणाग्निशिखया भुवि तूलमेकं तापोऽपि नैव किल यत्पुरतोदकानाम् ॥ ११ ॥ पृथिवीपर सज्जनोंके ऊपर कुछ न कुछ उपद्रव करते ही रहते हैं, किन्तु सज्जनोंका भी स्वभाव है कि वे उनकी जरा भी पर्वाह नहीं करते; प्रत्युत दुर्जनोंको ही शर्मिंदा होना पड़ता है । सो ठीक ही है जो तृणोंकी अग्निकी ज्वाला रुईको जलाती है वही जलके सामने लापता हो जाती है । सारांश यह कि यदि कोई दुष्ट हमारी इस रचनामें दोष दे तो भी हमें कोई पर्वाह नहीं है। दुष्टोंके थोड़े भी उपद्रवसे क्षुद्र पुरुष ही ऊब कर अपने कर्तव्य - पथसे हाथ संकोच लेते हैं, पर महापुरुष तो अपने प्रारम्भ किये हुएको पूर्ण करके ही छोड़ते हैं, चाहे दुष्ट कितना ही उपद्रव क्यों न करें ॥ ११ ॥ गुणानुपादाय सदा परेषां सन्तोऽथ दोषानपि दुर्जनाश्च गुणैर्युतानां गुणिनो भवन्तु, सर्वे स्वदोषाः परिकल्पनीयाः ॥ १२ ॥ सज्जन पुरुष तो उन गुणी पुरुषोंके गुणोंको ग्रहण कर स्वयं गुणवान बन जाते हैं और दुर्जन पुरुष उनके दोषोंको ग्रहण कर दोषी ही बने रहते हैं ॥ १२ ॥ गृह्णातु दोषं स्वयमेव दुर्जनो, धनं स्वकीयं न निषिध्यते मया, गुणान्मदीयानपि याचितो मुहुः, सर्वत्र नाङ्गीकुरुताद्धठेन सः ॥ १३ ॥ वह दुर्जन मनुष्य मेरे दोषोंको स्वयं अपना ले। वे दोष उसका धन है, अतः मैं उसको अपने धनको अपनाते हुए मना नहीं करता; क्योंकि वह वार वार प्रार्थना करने पर भी मेरे गुणों को कभी स्वीकार ही नहीं करेगा ॥ १३ ॥ कविर्वेत्ति काव्यश्रमं सत्कवेर्हि, स्फुटं नाकविः काव्यकर्तृत्वहीनः; यथा बालकोत्पत्तिपीडां प्रसूतौ, न वन्ध्या विजानाति जानाति सूता ॥ १४ ॥ कवि ही सत्कविके काव्य के परिश्रमको पहचानता है । जो अकवि है— कविता करना ही नहीं जानता है— कविके श्रमको वह क्या पहचानेगा। जैसे प्रसूतिके समय बालककी उत्पत्तिसे होनेवाली पीड़ाका अनुभव बाँझ स्त्री नहीं कर सकती, किन्तु जो स्त्री पुत्र जनती है वही उस पीड़ाको जानती है ॥ १४ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । गुणेषु दोषेषु न यस्य चातुरी, निन्दा स्तुतिर्वा न हि तेन कीर्त्यते । जात्यन्धकस्येव हि धृष्टकस्य वै, रूपेत्र हसिाय परं विचारणा ॥ १५ ॥ जैसे जन्मान्ध पुरुषका रूपके विषयमें विचार जाहिर करना हास्यास्पद है वैसे ही जिस खल पुरुवमें गुण-दोर्षोंकी पहचान करनेकी चतुराई नहीं है, जो निन्दा और स्तुति करना भी नहीं जानता है फिर भी यदि वह उनके सम्बन्धमें बोले तो केवल उसकी हँसी ही होगी ॥ १५ ॥ काव्यं सूते कविरिह कलौ तद्गुणं सन्त एव, तन्वन्त्यारादुणगणतया स्व गुण ख्यापयन्तः । अम्भः सूते कमलवनकं सौरभं वायुरेव, देशं देशं गमयति यथा द्रव्यजोऽयं स्वभावः ॥ १६ ॥ लोकमें कवि तो केवल कविता करनेवाले होते हैं, किन्तु सज्जनगण उसके गुणोंको चारों ओर फैलाते हैं ऐसा करते हुए वे एक प्रकारसे अपने ही गुणोंकी प्रख्याति करते हैं । सो ठीक ही है, जो दूसरोंके गुणोंका बखान करते हैं उनके गुणोंका बखान पहले होता है । जैसे कि अल कमलोंको उत्पन्न करता है और उसकी सौरभको वायु देश देशमें ले जाता है; और वह वायु स्वयं उनकी सुगंधसे सुगन्धित होता है । द्रव्योंका स्वभाव ही प्रायः ऐसा होता है जो एक पुरुष किसी कार्यको कर देता है और उससे दूसरे पुरुष फायदा उठाते हैं ॥ १६ ॥ शुश्रूपये भव्यजना वदन्ते, जिनेश्वरैरुक्तमुपाश्रिताय ।। शब्दास्तदर्थाः सकलाः पुराणा, निन्दा न कार्या कविभिस्तु तेषाम् ॥ १७॥ जिस धर्मके स्वरूपको गणधरोंके लिए श्री जिनदेवन कहा था उसीको भव्यजन-गणघर, आचार्य--अपने भक्तोंको कहते हैं । सारे शब्द भी प्राचीन हैं और उनके वाच्य पदार्थ भी प्राचीन ही हैं। इस लिए जिन वाच्य अर्थोंके लिए जिन वाचक शब्दोंका प्रयोग जैसा जिनदेवने किया था वैसा ही आचार्य करते हैं। इस विषयमें कवियोंको उनकी निन्दा नहीं करना चाहिए ॥ १७॥ छन्दोविरुद्धं यदलक्षणं वा, काव्यं भवेच्चेन्निबिडं प्रमादात् । तदेव दूरीकुरुतात्र भव्यं, साध्वेव हि स्वीकुरुतात्र सन्तः ॥१८॥ यदि प्रमाद-वश कोई रचना छन्दशास्त्रसे विरुद्ध अथवा व्याकरणसे विरुद्ध हो तो उसे सज्जनगण छोड़ दें और जो भव्य-सुन्दर--हो, अच्छी हो उसे स्वीकार करें ।। १८ ॥ ___ परिहर्तव्यो दुर्जन इह लोके भूषितोऽपि गुणजालैः । मणिना भूषितमूर्धा फणी न किं भयङ्करो नृणाम् ॥ १९ ॥ दुर्जन यदि गुणोंसे अलंकृत भी हो तो भी उससे बचे रहना ही श्रेष्ठ है। क्या जिस सर्पके सिरपर मणि है वह डरावना नहीं होता। सारांश--माणिसे विभूषित सर्पकी तरह गुणयुक्त दुर्जनसे दूर ही रहना चाहिए ॥ १९ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांमसेनभट्टारकविरचित वक्ताका लक्षण | सर्वेषां दर्शनानां मनसि परिगतज्ञानवेत्ता भवेद्धि, वक्ता शास्त्रस्य धीमान्विमलशिवसुखार्थी सुतत्त्वावभासी । निर्लोभः शुद्धवाग्मी सकलजनहितं चिन्तकः क्रोधमुक्तो, गर्वोन्मुक्तो यमाढ्यो भवभयचकितो लौकिकाचारयुक्तः ॥ २० ॥ वह उत्तम वक्ता है जो सब दर्शनोंका जाननेवाला है, बुद्धिमान् है, माक्ष-सुखका चाहनेवाला है, तत्त्वोंके स्वरूपको स्पष्ट समझानेवाला है, लोभ-लालसा राहत है, जिसके वचन मिष्ट और स्पष्ट है, सभी श्रोताओंके हितकी कामना करता है, क्रोधसे रहित है, सब तरहके गर्वसे विनिर्मुक्त है— नम्र है, यम-नियमोंसे युक्त है, संसारके भयसे चकित – दुःखोंसे डरनेवाला है और लौकिक सदाचारसे परिपूर्ण है ॥ २० ॥ ग्रंथ-लक्षण | यस्मिन् ग्रन्थे पदार्थ नव दशविधको धर्म एकोऽप्यनेको, जीवाजीवादितत्त्वानि सुशुभविनयो दर्शनज्ञानचर्याः । ध्यानं वैराग्यवृद्धिः सुजिनपतिकथा चक्रिनारायणी वा, सोऽयं ग्रन्थस्ततोऽन्या जनमुखजनिता वैकथा हो भवेत्सा ॥ २१ ॥ सच्चा शास्त्र वही है जिसमें पुण्य-पाप आदि नौ पदार्थोंका, उत्तम क्षमादि दस धर्मोंका, जीवअजीव आदि सात तत्त्वोंका, शुभ विनयका, दर्शन - ज्ञान - चारित्रका और ध्यानका सांगोपांग कथन है, जो वैराग्यको बढ़ानेवाला है और तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण आदि तिरेसठ शलाकाके महापुरुषोंकी जिसमें जीवनी लिखी है । और इससे निराली, मनुष्योंके द्वारा कही गई केवल डागांरादि-युक्त कथाएँ हैं वे सब विकथाएँ हैं ॥ २१ ॥ श्रोताओंके लक्षण | धर्मी ध्यानी दयाढ्यो व्रतगुणमणिभिर्भूषितोऽहो भवेत्सः, श्रोता त्यागी च भोगी जिनवचनरतो ज्ञानविज्ञानयुक्तः । निन्दादोषादिमुक्तो गुरुपदकमले षट्पदः श्रीसमर्थः, सच्छास्त्रार्थावधारी शिवसुखमतिमान् पण्डितः सद्विवेकी ॥ २२ ॥ श्रोता- - शास्त्र सुननेका पात्र वही है जो धर्मात्मा है, प्रशस्त ध्यान करनेवाला है, दयालु है, अहिंसादि व्रत और सम्यक्त्वादि गुण अथवा अष्ट मूल गुणरूप महामणियोंसे विभूषित है, त्यागी -दान देनेवाला - है, भोगी — अपनी सम्पत्तिका योग्य उपभोग करनेवाला -- है, जिसकी जैन शास्त्रोंमें अच्छी रुचि है, ज्ञान-विज्ञानसे सहित है, किसीकी निन्दा आदि नहीं करता है, गुरुके चरण-कमलोंमें भौंरेके मानिंद लवलीन है, विभव-सम्पन्न है, शास्त्र के सदुपदेशकी धारणा रखनेवाला है, मोक्षमुखका अभिलाषी है, विद्वान है और उत्तम विचारवान् है ॥ २२ ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. त्रैवर्णिकाचार चतुर्दशात्र वै सन्ति श्रोतारः शास्त्रहेतवः। उत्तमा मध्यमा नीचास्त्रिविधा लोकवर्तिनः ॥ २३ ॥ संसारमें शास्त्र सुननेवाले श्रोतागण चौदह प्रकारके होते हैं। इनमें कोई उत्तम, कोई मध्यम और कोई जघन्य ऐसे तीन तरहके होते हैं ॥ २३ ॥ गोहंसमृच्छुकाजाहिमहिषाश्चालिनी शिला। कङ्कच्छिद्रघटौ दंशमार्जारसजलौकसः ॥२४॥ गाय, हंस, मृत्तिका, तोता, बकरी, सर्प, भैंस, चलनी, सिला, कंगी, सछिद्र घड़ा, डाँस, बिल्ली और जौंक ये ऊपर कहे गये चौदह प्रकारके श्रोताओंके चौदह नाम है ॥ २४ ॥ गोहंसमृच्छुकाः श्रेष्ठा मध्याश्चाजाशिलाघटाः। शेषा नीचाः परिप्रोक्ता धर्मशास्त्रविवर्जिताः ॥२५॥ गाय, हंस, मिट्टी और तोतेके जैसे येचार उत्तम श्रोता हैं । बकरी, सिला और कलशके जैसे ये तीन मध्यम श्रोता हैं और बाकी बचे हुए सात जघन्य श्रोता हैं, जो कि धर्मशास्त्रके ज्ञानसे निरे शून्य होते हैं। भावार्थ-इन चौदह वस्तुओंके स्वभावके जैसे चौदह तरहके श्रोतागण होते हैं। इनका खुलासा इस प्रकार है जैसे गायें जैसा मिला वैसा खाकर दूध देती हैं वैसे ही जो जैसा जैनवाक्य हो वैसा सुनकर अपना और दूसरेका भला करते हैं वे श्रोता गायके समान हैं । जो सारभूत वस्तुको ग्रहण करें वे हंसके समान हैं। जैसे मिट्टी पानीको अपना कर गीली हो जाती है वैसे ही जिनवाक्योंके सुननेसे जिनके परिणाम कोमल हो जाते हैं वे मिट्टीके जैसे हैं । जैसे तोतेको एक बार समझा देनेसे वह उसकी अच्छी तरह धारणा रखता है वैसे ही जो श्रोता एक बार जिनवाक्योंको सुनकर उसकी दृढ़ धारणा करते हैं वे तोतेके जैसे हैं । ये चार उत्तम श्रोता हैं। जो बकरेके समान अतिशय कामी हैं वे बकरेके जैसे हैं। जो श्रोता चपचाप बैठे रहें शास्त्र-श्रवणमें कुछ विघ्न न डालें वे सिला समान हैं । जैसे फटे घडेमें जल नहीं ठहरता वैसे ही जिनके हृदयमें जिनवाक्य तो ठहरते नहीं हैं, किन्तु शास्त्रमें कछ उपद्रव नहीं मचाते हैं वे फटे घड़ेके बराबर हैं। ये तीनों प्रकारके श्रोता मध्यम हैं । यद्यपि इनसे कछ होता जाता नहीं है तथापि ये शास्त्र, व्याख्यान आदिमें गड़बड़ नहीं मचाते हैं, इसलिए ये मध्यम श्रोता है । इनसे जो पहलेके उत्तम श्रोता हैं वे शास्त्र. व्याख्यान आदि सुनकर उसका उपयोग धारणा आदि करते हैं इसलिए उन्हें उत्तम कहा है । जैसे साँपको दूध पिलानेसे उल्टा वह जहर उलगता है वैसे ही जो हितकर जैनवाक्यको अहित कर समझते हैं, सारको असार समझते हैं और सीधेको उल्टा जानते हैं वे सर्पके जैसे श्रोता होते हैं । जैसे भैंसा सारे पानीको गंदला कर देता है वैसे ही जो शास्त्रसभामें बैठ कर शास्त्रोंमें गदला पन मचा दें वे श्रोता भैंसेके मानिंद होते हैं । जैसे चलनी सारभूत आटेको नीचे गिरा देती है, असारभूत तुओंको ग्रहण करती है वैसे ही जो श्रोता शास्त्र-संबंधी सार बातको छोड़कर असार ग्रहण करते हैं वे चलनीके जैसे हैं । जैसे कंघी सिरके केसोंको ग्रहण करती है वैसे ही जो वक्ताके दोषोंको उकेलता रहता है वह कंघीके मानिंद है । जैसे मच्छर जहाँ पानी देखता है वहीं रमण करता है वैसे ही जो वक्ताकी भूल हुई कि उसे चट पकड़कर आनंद मनावे वह Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेमभहारकाविरचित डाँसके बराबर है । जैसे बिल्ली अपने सजातीय द्वेष करती है वैसे ही जो दूसरे श्रोताओंसे जो द्वेष करें वे बिल्लीके जैसे श्रोता हैं। जैसे जौंकको खून ही अच्छा लगता है वैसे ही जिनको अच्छी बात तो न रुचे और खराब बातकी ओर ही जिनकी परणति हो वे जौंकके जैसे श्रोता हैं । ये सब जघन्य श्रोता हैं । सारांश उत्तम श्रोता तो शास्त्र सुनकर स्व और परका उपकार करते हैं; मध्यम श्रोता यद्यपि स्व-परका उपकार नहीं करते, परन्तु दूसरोंके धर्मसेक्नमें भी कुछ बाधा नहीं देते । और तीसरे जघन्य श्रोता उपकार तो दूर रहे प्रत्युत अपना और पुरका अपकार करते हैं । अतः ये जघन्य दर्जे के श्रोता शास्त्र पढ़ने, शास्त्र-व्याख्यान सुनने आदिके बिलकुल पात्र नहीं हैं ॥ २५ ॥ उपोद्घात । श्रीसामायिकशौचसान्ध्यविधिसत्पूजासुमन्त्राशनं, द्रव्योपार्जनगर्भधानभृतयस्त्रिंशत्क्रियाः सत्रिकाः । मौजीबन्धनसद्वतोपदिशनं पाणिग्रहर्षिनते, ग्रन्थे सूतककं त्रयोदशतयाध्यायान् विधास्याम्यहम् ॥ २६ ॥ सामायिक, शौच, सन्ध्याविधि, पूजा, मंत्र, भोजन, धन कमानेकी विधि, गर्भाधानादि तेंतीस क्रियाएँ, यज्ञोपवीत, ब्रतोंका उपदेश, बिवाह, मुनिव्रत और सूतक ये तेरह विषय जुदे जुदे तेरह अध्यायों द्वारा इस ग्रन्थमें कहे जावेंगे ॥ २६ ॥ गुणान् ग्रन्थस्य वक्तश्च श्रोतृणां क्रमशः स्फुटम् । विधायाध्यायकानेव कथयामोऽधुनाऽदृतान् ॥ २७॥ वक्ताके गुण, शास्त्रके गुण और श्रोताओंके गुण ये तो क्रमसे पीछे स्पष्ट कह चुके हैं। अब वे तेरह बिषय, जिनके कि ऊपरके श्लोकमें कहनेकी प्रतिज्ञा की है, क्रमसे कहे जाते हैं ॥ २७ ॥ सामायिक । ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मत, __मात रौद्रसधHशुक्लचरमं दुःखादिसौख्यप्रदम् । पिण्डस्थं च पदस्थरूपरहितं रूपस्थनामा परं, तेषां भिन्नचतुश्चतुर्विषयजा भेदाः परे सान्त वै ॥२८॥ ज्ञानार्णव शास्त्रमें जिस ध्यानका विस्तारसे कथन किया गया है उसीका यहाँ पर संक्षेपमें किया जाता है। वह ध्यान आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इस प्रकार चार तरहका है। इनमेंसे आर्तध्यान और रौद्रध्यान तो दुःखके करनेवाले हैं तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो ध्यान सुखके देनेवाले हैं। तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे भी ध्यानके चार भेद हैं ।तथा ऊपरके आर्तध्यान आदिमेंसे प्रत्येक ध्यानके चार-चार पदार्थ ध्येय हैं, अतः हर एकके अपने अपने विषयके अनुसार चार चार भेद होते हैं ॥ २८॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाधार। . आर्तध्यानके भेद । आर्तध्यानं चतुर्भेदमिष्टवस्तुवियोगजम् । अनिष्टवस्तुयोगोत्थं किश्चिदृष्ट्वा निदानजम् ॥ २९ ॥ किश्चित्पीडादिके आते चिन्तां कुर्वान्त चेज्जडाः। तस्मात्याज्यं तु पापस्य मूलमार्त सुदूरतः ॥ ३०॥ अपने पुत्र, स्त्री आदि इष्ट वस्तुओंका वियोग हो जाने पर ऐसा चिन्तवन करना कि ये मुझे किस तरह प्राप्त हों, यह पहला इष्टवियोगआर्तध्यान है । विष, कण्टक, शत्रु आदि अनिष्ट वस्तुओंका संयोग होने पर उनके वियोग होनेका चिन्तवन करना यह दूसरा अनिष्टसंयोगआर्तध्यान है। आगामी भोगोंका चिन्तवन करना यह तीसरा निदानजन्य आर्तध्यान है । शारीरिक पीड़ाके हो जाने पर उसका चिन्तवन करना चौथा वेदनाजन्य आर्तध्यान है । यह आर्तध्यान पापके कारण हैं और इनसे तिग्गति होती है, अत: इनका दूरसे ही त्याग करना अच्छा है ॥ २९-३० ॥ रौद्रध्यानके भेद । प्राणिनां रोदनाद्रौद्रः क्रूरः सत्त्वेषु निघृणः । - पुमाँस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ॥ ३१ ॥ जो पुरुष संसारके दुःखोंसे खेदखिन्न हुए जीवोंको देखकर उनपर दया भाव न कर प्रत्युत क्रूरता धारण करता है उसे प्राणियोंको पीड़ा पहुँचानेके कारण रुद्र कहते हैं । इस रुद्र-क्रूर-मनुष्यके ध्यानको रौद्रध्यान कहते हैं । वह चार प्रकारका है ॥ ३१॥ हिंसानन्दान्मृषानन्दात्स्तेयानन्दात्प्रजायते । परिग्रहापामानन्दात्याज्यं रौद्रं च दूरतः ॥ ३२॥ हिंसामें आनंद माननेसे, झूठमें आनंद माननेसे, चौरी करनेमें आनंद माननसे और परिग्रहकी रक्षामें आनन्द माननेसे चार प्रकारका रौद्रध्यान होता है, अतः यह ध्यान दूरसे ही त्यागने योग्य है ॥ ३२॥ धर्मध्यानके भेद। आज्ञापायविपाकसंस्थानादिविचयान्तकाः। धर्मध्यानस्य भेदाः स्युश्चत्वारः शुभदायकाः ॥३३॥ ___ आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार धर्मध्यानके भेद हैं । ये चारों ही ध्यान शुभ हैं और प्राणियोंका भला करनेवाले हैं ॥ ३३॥ यत्प्रोक्तं जिनदेवेन सत्यं तदिति निश्चयः। मिथ्यामतपरित्यक्तं तदाज्ञाविचयं मतम् ॥ ३४ ॥ ओ पदार्थका स्वरूप जिनभगवान द्वारा कहा गया है वह सत्य है ऐसा निश्चय करना वह मिथ्या वासनाओंसे रहित आज्ञाविचय नामका धर्मध्यान है । भावार्थ-इस कलियुगमें उपदेश करने Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचितवाले केवली, श्रुतकेवली तो हैं नहीं और पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म हैं । उनके जाननेको हमारे पास पूरे साधन भी नहीं हैं । बुद्धि भी अत्यन्त मन्द हैं । ऐसे समयमें सर्वज्ञकी आज्ञाको ही प्रमाण मानकर उन गहन पदार्थोका निश्चय करना आज्ञाविचयधर्मध्यान है ॥ ३४ ॥ येन केन प्रकारेण जैनो धर्मः प्रवर्धते । तदेव क्रियते पुम्भिरपायविचयं मतम् ॥ ३५ ॥ जिस किसी तरह जैनधर्म बढ़ता रहे ऐसा विचार करना अपायविचयधर्मध्यान है । भावार्थयह प्राणी मिथ्यादृष्टियोंके पंजेमें फँसकर इस भव-समुद्रमें अनेकों गोते खा रहा है; तथा कई लोग विषयोंकी वासनाओंसे लालायित होकर प्राणियोंको उल्टा समझा रहे हैं स्वयं सन्मार्गसे पिछड़े हुए हैं और साथ साथमें उन बेसमझ भोले जीवोंको भी अपने मोहजालमें जकड़कर हटा रहे हैं । इनको कब सुबुद्धि प्राप्त होगी और अपने भुज-पंजरमें फाँसकर दुःख-रूपी दहकती हुई अग्निमें लोगोंको डालनेवाले ये लोग कुमार्गसे कैसे हटेंगे; और कैसे परम शान्त और सुख देनेवाले सन्मार्गमें लगेंगे, ऐसा चिन्तवन करना अपायविचयधर्मध्यान है ॥ ३५॥ शुभाशुभं च यत्कार्य क्रियते कर्मशत्रुभिः । तदेव भुज्यते जीवर्विपाकविचयं मतम् ॥ ३६॥ ये कर्म-शत्रु बुरा-भला फल उत्पन्न करते रहते हैं और उसी फलको बिचारे ये जीव रातदिन भोगते रहते हैं, इस प्रकार कर्मोके शुभ-अशुभ फलका चिन्तवन करना विपाकविचयधर्मध्यान है ॥ ३६॥ श्वश्रे दुःखं सुखं स्वर्गे मध्यलोकेऽपि तद्वयम् । लोकोऽयं त्रिविधो ज्ञेयः संस्थानविचयं परम् ॥ ३७॥ लोकके तीन भेद हैं; अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । अधोलोकमें नारकियोंका निवास है। वहाँ पर उन जीवोंको बड़ा ही कष्ट है-पल भर भी उन्हें सुख नहीं है। सारांश यह कि उनको दिनरात दुःख ही दुःख सहन करना पड़ता है। ऊर्ध्वलोकमें देव रहते हैं । वहाँ पर उनको कई प्रकारकी सुख-सामग्री अपने अपने भाग्यके अनुसार मिली हुई है, जिसका वे यथेष्ट उपभोग करते रहते है। तात्पर्य यह कि उन स्वर्गीय जीवोंका जीवन एक तरहसे सुखमय ही है। और मध्यलोकमें सुखदुःख दोनों हैं । इस तरह लोकके आकारका चिन्तवन करना संस्थानविचयधर्मध्यान है ॥ ३७ ॥ शुक्लध्यानके भेद। शुक्लध्यानं चतुर्भेदं साक्षान्मोक्षपदप्रदम् । पृथक्त्वादिवितर्काख्यवीचारं प्रथमं मतम् ॥ ३८ ॥ एकत्वादिवितर्काख्यवीचारं च द्वितीयकम् । सूक्ष्मक्रियाप्रतीपाति तृतीयं शुक्लमुत्तमम् ॥ ३९ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। व्युपरतक्रियानिवृत्तिस्तुर्य शुक्लमुच्यते । एतेषां नामतोऽर्थश्च ज्ञायते गुणवत्तया ॥ ४०॥ शुक्लध्यानके चार भेद हैं और यह साक्षात् मोक्षके कारण हैं । पहला पृथक्त्ववितर्कवीचार, दूसरा एकत्ववितर्कअवीचार तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और चौथा व्युपरतिक्रियानिवृत्ति है। इनका अर्थ इनके नामसे ही भले प्रकार स्पष्ट है ॥ ३८-३९-४०॥ पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र तद्विदुः । सवितर्क सवीचारं पृथक्त्वादिपदाह्वयम् ॥ ४१ ॥ जिस ध्यानमें जुदा जुदा वितर्क--श्रुत का वीचार-संक्रमण होता रहता है उसे पृथक्त्वसावतर्कसवीचार ध्यान कहते हैं। भावार्थ-जिसमें जुदा जुदा श्रुतज्ञान बदलता रहे उसे सवितर्कसवीचार-सपृथक्त्वध्यान कहते हैं ॥ ४१॥ एकक्त्वेन वितर्कस्य स्याद्यत्राविचरिष्णुता । सवितर्कमवीचारमेकत्वादिपदाभिधम् ॥ ४२ ॥ जिस ध्यानमें श्रुतज्ञानका संक्रमण न होता हो और जो एक रूपसे स्थिर हो उसे सवितर्कअवीचारएकत्वध्यान कहते हैं ॥ ४२ ॥ मनोवचनकायाँश्च सूक्ष्मीकृत्य च सूक्ष्मिकाम् । क्रियां ध्यायेत्परं ध्यानं प्रतिपातपराङ्मुखम् ॥ ४३ ॥ जिसमें मन वचन और कायको सूक्ष्म करके सूक्ष्म क्रियाका ध्यान किया जाय उसे सूक्ष्माक्रियाप्रतिपाति ध्यान कहते हैं । भावार्थ-यह ध्यान तेरहवें गुणस्थानवर्ती परमात्माके होता है । जब उनकी आयु एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रह जाती है तब इस ध्यानके योग्य वे होते हैं । जिस समय आयुकर्मकी स्थिति तो कम रह जाय और नाम, गोत्र और वेदनीयकी स्थिति अधिक हो उस समय उनकी आयुकर्मके समान स्थिति करनेके लिए वे दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण ऐसे चार समयोंमें चार समुद्धात करते हैं । लोकपूरण समुद्धात उन कर्मोकी स्थितिको वे आयुकर्मके बराबर कर देते हैं । इसके पश्चात् वे पुन: चार ही समयमें अपने आत्म-प्रदेशोंको शरीर-प्रमाण करके वादरकाययोगमें स्थित होते हैं और वादरमनोयोग और वचनयोगको सूक्ष्म करते हैं, पुन: काययोगको छोड़कर मनोयोग और वचनयोगमें स्थिति करते हैं और वादरकाययोगको सूक्ष्म करते हैं । पश्चात् सूक्ष्मकामयोगमें स्थिति कर मनोयोग और वचनयोगका निरोध करते हैं । इसके बाद वे साक्षात् सूक्ष्माक्रियध्यानका ध्यान करनेके याग्य होते हैं । बस यही सूक्ष्मकाययोगमें स्थिर होना तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान है ॥ ४३ ॥ _____ ततो निरुद्धयोगः सन्नयोगी विगतास्रवः । - समुच्छिन्नक्रियाध्यानमनिवृत्ति तदा भवेत् ॥४४॥ इसके बाद सम्पूर्ण योगोंसे रहित होकर और सर्व कर्मोंके आस्रवसे रहित होकर अयोगकेवली परमात्मा समुच्छिन्नक्रियव्युपरतिध्यानको ध्याते हैं। भावार्थ-चौहदवें गुणस्थानमें यह ध्यान होता है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित इस गुणस्थानका काल अ ई उ ऋ लृ इन पाँच हस्व अक्षरोंके उच्चारणमें जितना समय लगता है उतना है । यहाँ पर उस सूक्ष्मकाययोगका निरोध हो जाता है, इस लिए ये निरुद्धयोग कहे जाते हैं; इनके किसी भी कर्मका आस्रव नहीं होता, अतः विगतास्रव कहे गये हैं । इस गुणस्थानके उपांत्य समय में --- चरम समयसे एक समय पहले -- ७२ कर्मोंका नाश होता है उसी क्षण में समुच्छिन्नक्रियध्यान होता है । इसके बाद चरम समयमें तेरह प्रकृतियोंका नाश कर वे परमात्मा मुक्ति-प्रासादमें पहुँच जाते हैं ॥ ४४ ॥ १२ आर्तरौद्रसुधर्माख्यशुक्लध्यानानि चागमे । ज्ञेयानि विस्तरेणैव कारणं सुखदुःखयोः ॥ ४५ ॥ यहाँ संक्षेपमें चारों ध्यानों का स्वरूप दिखाया गया है । इनका विशेष विस्तार आगमसे जानना चाहिए। इनमेंसे आर्त- रौद्र तो दुःखके कारण हैं और धर्म्य - शुक्लध्यान सुखके कारण हैं ॥ ४५ ॥ यत्किञ्चिद्विद्यते लोके तत्सर्वं देहमध्यगम् । इति चिन्तयते यस्तु पिण्डस्थं ध्यानमुच्यते ॥ ४६ ॥ इस लोकमें जो कुछ भी पदार्थ मोजूद हैं उन सबका अपने शरीरमें चिन्तवन करना पिण्डस्थ ध्यान है ॥ ४६ ॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चषडष्टौ षोडशादिकाः । अक्षरात्म्यपरा मन्त्राः शराग्निसंख्यकास्तथा ॥ ४७ ॥ एवं मन्त्रात्मकं ध्यानं पदस्थं परमं कलौ । शरीरजीवयोर्भेदो यत्र रूपस्थमस्तु तत् ॥ ४८ ॥ एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, आठ, सोलह और पेंतीस अक्षरोंके मंत्रोंका ध्यान करनेको पदस्थ ध्यान कहते हैं । और जिसमें शरीर और जीवका भेद चिन्तवन किया जाय उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । भावार्थ - विभूति-युक्त अर्हन्त देवके गुणोंका चिन्तवन करना रूपस्थ ध्यान है ॥ ४७-४८ ॥ अष्टकर्मविनिर्मुक्तमष्टाभिर्भूषितं गुणैः । यत्र चिन्तयते जीवो रूपातीतं तदुच्यते ॥ ४९ ॥ आठ कर्मोंसे रहित और आठ गुणोंकर सहित अमूर्त्तिक सिद्ध परमात्माके ध्यान करनेको रूपातीत ध्यान कहते हैं । यहाँ इन चारों ध्यानोंका केवल अक्षरार्थ लिखा गया है, विशेष कथन ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थोंसे समझना चाहिए ॥ ४९ ॥ प्रातः काल - संबंधी क्रियाएँ । प्रातश्चोत्थाय पुम्भिर्जिनचरणयुगे धार्यते चित्तवृत्ति, - रात रौद्रं विहाय प्रतिसमगमियं चिन्त्यते सप्ततत्त्वी । ध्यानं धर्म्य च शुक्लं विगतकलिमलं शुद्धसामायिकं च, कुत्रत्योऽयं मदात्मा विविधगुणमयः कर्मभारः कुतो मे ॥ ५० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णिकाचार | सबेरे ही शैय्यासे उठकर जिनेन्द्र देवके चरणोंमें अपनी लौ लमावे; आर्त-रौद्र ध्यानको छोड़कर हर समय सप्त तत्त्वोंका चिन्तवन करे; धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानका चिन्तवन करे और पापोंसे छुड़ानेवाले सामायिकको करे । तथा यह भी विचार करे कि यह नाना गुणोंका पुंज मेरा आत्मा कहाँसे आया और यह दुःखदेनेवाला कर्मभार मेरे कैसे लगा ॥ ५० ॥ संसारे बहुदुः खभारजटिले दुष्कर्मयोगात्परं, rasi नरजन्म पुण्यवशतः प्राप्तः कदाचित्कचित् । दुष्प्रापं जिनधर्ममूर्जितगुणं सम्प्राप्य सन्धीयते, नाना दुष्कृतनाशनं सुखकरं ध्येयं परं योमिभिः ॥ ५१ ॥ इन दुष्ट कर्मोंके कारण यह संसार अनेक प्रकारके दुःखभारसे जटिल है । इसमें किसी शुभकर्मके उदयसे इस जीवने मनुष्य जन्म पाया है। इसे जैनधर्म बड़ी कठिनतासे प्राप्त हुआ है। जैनधर्म अनेक पापोंको क्षणभर नाश कर देनेवाला है, अचिन्त्य सुखका करनेवाला है। बड़े बड़े योगीश्वर इसका ध्यान करते हैं । यह उत्कृष्ट गुणोंका भंडार है ॥ ५१ ॥ आहारसाध्वत्रपरिग्रहमैथुनाख्याः, सञ्ज्ञाश्चतस्र इति ताभिरुपद्रुतोऽङ्गी । कुत्रापि नो स लभते भुवनत्रयेऽस्मिन्, सौख्यस्य लेशमपि चिन्त्यमिति प्रभाते ॥ ५२ ॥ १३ आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार प्रकारकी अभिलाषाएँ इस जीवको खूब सता रही हैं । इसे तीनों भुवनोंमें कहीं पर भी सुखका लेश भी नहीं मिलता । इस तरह सुबह ही सुबह उठकर चिंतवन करे । तथा — ॥ ५२ ॥ दुःखं श्वभ्रेषु शीतं बहुलमतितरामुष्णमेव क्षुदादि-, च्छेदो भेदश्व घर्षः क्रकचविधितया पीलनं यन्त्रमध्ये | शारीरं चान्त्रनिश्कासनमपि बहुधा ताडनं मुद्गराद्यै-, रग्निज्वालानुषङ्गः प्रचुरदुरिततो वर्तते श्रूयमाणं ॥ ५३ ॥ नरकमें शीत-उष्णकी बड़ी ही बहुलता है । तीन लोकका अन्न और पानी पीने पर भी भूख-प्यास नहीं मिटती, परन्तु वहाँ एक कण भी अन्नका नहीं मिलता और न पानीकी एक बूँद ही मिलती है । वहाँ पर नारकी इसके हाथ-पैर - नाक-कान आदिको शस्त्रों द्वारा छेदते हैं, भेदते हैं, करोतसे चीरते हैं, यंत्रोंसे पेलते हैं, इसके शरीरकी आँते पकड़कर खींचते हैं, मुद्गरोंसे पीटते हैं, और दहकती हुई अग्निमें उठाकर फेंकते हैं। इस तरह यह जीव अपने किये हुए पापकर्मोंके कारण नरकोंमें खूब कष्ट उठाता है ॥ ५३ ॥ तिर्यक्ष्वातपशीतवर्षजनितं दुःखं भयं कानने, सिंहादेरतिभारकर्मवहनं सन्ताडनं छेदनम् । क्षुत्तृष्णादि च कीटनाममशकैर्दशस्तथा माक्षिकैः, स्वाधीनत्वपराङ्मुखं विधिवशाद्बन्धादिकं वर्तते ॥ ५४ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकावरचित कर्मयोगसे तिर्यग्गति में यदि यह जन्म धारण करता है तो वहाँ पर भी तीव्र गर्मी, ठंड और वर्षा निमित्तसे उत्पन्न हुए दुःखोंको भोगता है; जंगलोंमें सिंहादि क्रूर जानवरोंके भयसे दुःखी होता है; अपनी पीठ पर खूब भार लादता है; लकड़ी, कोड़े, चाबुक आदिसे पिटता है । वहाँ इसके नाककान छेदे जाते हैं; भूख-प्यासकी तीव्र वेदनाको सहता है; डाँस, मच्छर, मक्खिएँ अत्यन्त काटती रहती हैं; स्वाधीनताका जहाँ पर लेश भी नहीं है और रस्सी आदिसे एक जगह बन्धे हुए रहना पड़ता है । सारांश यह कि तिर्यग्गतिमें भी दुःख ही दुःख भरे हुए हैं; सुखका नामनिशान भी नहीं है ॥ ५४ ॥ १४ मर्त्येष्विष्टवियोगजं दुरिततो दुःखं तथा मानसं, शारीरं सहजं चतुर्विधमिदं चागन्तुकं श्रूयते । दारिद्यानुभवः प्रतापहरणं कीर्तिक्षयः सर्वथा, रौद्रार्तिप्रभवं तथा व्यसनजं बन्धादिकं चापरम् ॥ ५५ ॥ मनुष्य - गतिमें भी अपने हृदयके भूषण स्त्री, पुत्र आदिके वियोगसे अत्यन्त कष्ट होता है । मानसिक क्लेश, शारीरिक क्लेश, स्वाभाविक क्लेश और आगन्तुक क्लेश यह चार प्रकारका क्लेश भी इसी मनुष्य - गति में सुना जाता है । दरिद्रताका अनुभव करना पड़ता है, अपमानित होना पड़ता है, बदनामी उठानी पड़ती है, इस कारण इसे अत्यन्त घोर दुःख होता है । रौद्रध्यान, आर्तध्यानके करनेसे, व्यसनोंके सेवन से तथा और भी वध - वंधनादिके कारण अनेक दु:ख इस मनुष्य - गतिमें प्राप्त होते हैं ।। ५५ । देवेष्वेव च मानसं बहुतरं दुःखं सुखच्छेदकं, देवीनां विरहात्प्रजायत इति प्रायः स्वपुण्यच्युतेः । इन्द्रस्यैव सुवाहनादिभवनं दासत्वमङ्गीकृतं, नानैश्वर्यपराङ्मुखं मरणतो भीतिस्तस्था दुस्तरा ॥ ५६ ॥ देवगतिमें यद्यपि शारीरिक कष्ट नहीं है तो भी देवी आदिके वियोग हो जानेके कारण बड़ा भारी मानसिक कष्ट होता है, जो सुखकी जड़ कोटनवाला है । तथा पुण्यकर्म के अभाव से कितने ही देवगण इन्द्रके वाहन आदि बनकर रहते हैं । कितनोंको दासत्व स्वीकार करना पड़ता है। कितने ऐश्वर्यसे कोसों दूर हैं । ये बड़े बड़े ऋद्धि-सम्पन्न देवोंका ऐश्वर्य देख देखकर मन ही मनमें झुलसते रहते हैं । वे मरनेसे बड़े ही डरते रहते हैं । इस प्रकार वहाँ भी कई तरहके दुःख भरे पड़े हैं ॥ ५६ ॥ लोकोऽयं नाट्यशाला रचितसुरचना प्रेक्षको विश्वनाथो, tataisi नृत्यका विविधतनुधरो नाटकाचार्यकर्म । तस्माद्रक्तं च पीतं हरितसुधवलं कृष्णमेवात्र वर्ण, धृत्वा स्थूलं च सूक्ष्मं नटति सुनटवत् नीचको चैः कुलेषु ।। ५७ ।। यह संसार एक खूबसूरत बनी हुई नाट्यशाला ( थिएटर ) है; सिद्ध परमात्मा दर्शक हैं; अनेक प्रकार देहधारी यह जीव नर्तक है और ये कर्म नाटकाचार्य हैं। अतः यह जीव इस नाट्यशाला में Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | १५ लाल, पीले, हरे, श्वेत, काले और छोटे बड़े देहको धारण कर ऊँच नीच कुलोंमें, उत्तम नटके समान नृत्य करता है ॥ ५७ ॥ कचित्कान्ताश्लेषात्सुखमनुभवत्येषु मनुजः, कचिद्गीतं श्राव्यं विविधवररागैश्च श्रृणुयात् । कचिन्नृत्यं पश्यन्नखिलतनुयष्टीविलसितं, रतिं मन्येताहो उचितविषयो धर्मविमुखः ॥ ५८ ॥ यह जीव कहीं पर युवतियोंके गाढ़ आलिंगन करनेसे उत्पन्न हुए सुखका अनुभव करता है, कहीं पर नाना राग-रागिनियोंसे रसीले मधुर गीत सुनता है, कहीं पर सारे शरीरसे नाना प्रकारके विलासोंको करती हुई विलासानियोंके नृत्यको प्रेमभरी दृष्टिसे देखता हुआ उनके मोहफाँसमें फँसता है, और धर्मसे विमुख होकर विषय-वासनाओंमें सराबोर हो रहा है । यह बड़ा ही आश्चर्य है ॥ ५८ ॥ कचित्कांता कमलवदना हावभावं करोति, कचित् दुःखं नरककुहरे पंचधा प्राणघातात् । कचिच्छतं चमरसहितं दासपुम्भिः प्रयुक्तं, कचित्कीटो मृतभवितनौ प्राणिनां कर्मयोगात् ॥ ५९ ॥ कहीं पर कमलके सदृश मुखवाली कान्ताएँ अपना हाव-भाव दिखला रही हैं । कहीं पर कितने ही प्राणी पाँच प्रकारके प्राणोंके घातसे उत्पन्न हुए दुःखको नरकमें पड़े पड़े भोग रहे हैं । किन्हीं पर नौकर-चाकर छत्ते लगाए हुए खड़े हैं । कोई चमर ढौर रहे हैं । और कोई प्राणी अपने अपने कर्मके उदयसे मरे हुए प्राणियोंके मुर्दा शरीरके कीड़े बन रहे हैं। इस प्रकार सबेरे ही शैय्यासे उठकर संसारकी दशाका चिन्तवन करे ॥ ५९॥ सामायिक: महाव्रतं दुर्धरमेव लोके, धर्तुं न शक्तोऽहमपि क्षणं वा । संसारपाथोनिधिमत्र केनो, पायेन चापीह तरामि दीनः ॥ ६० ॥ इत्यादिकं चेतसि धार्यमाणः, पल्यङ्कदेशात्सुमुनीन्द्रबुध्धा । पवित्रवस्त्रः सुपवित्रदेशे, सामायिकं मौनयुतश्च कुर्यात् ॥ ६१ ॥ ये पंच महाव्रत इस लोकमें बड़े ही दुर्धर हैं। इनका धारण करना बड़ा ही कठिन है । मैं तो क्षणभर भी इन्हें धारण नहीं कर सकता। किस उपाय से इस संसार - समुद्रसे तैरकर मैं पार होऊँ इत्यादि बातोंका अपने चित्तमें शैय्यासे उठते ही चिन्तवन करे । इसके बाद शैय्याको छोड़कर मैं मुनिव्रत अङ्गीकार करूँ इस आशयसे, पवित्र स्थानमें बैठकर, साफ कपड़े पहन, मौन-पूर्वक, सामायिक करे ॥ ६०-६१॥ समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना । आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं मतम् ॥ ६२ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित - सब संसारी जीवोंमें समता भाव करना, संयमके पालन करनेमें हमेशा शुभ-भावना करना और आर्त्त-रौद्र ध्यानका त्याग करना सामायिक है ॥ ६२॥ योग्यकालासमस्थानमुद्राऽऽवर्तशिरोमतिः।। विनयेन यथाजातकृतिकर्मामलं भजेत् ।। ६३ ।। योग्य काल, आसन, स्थान, मुद्रा, आवर्त और शिरोनति करता हुआ विनय-पूर्वक मुनियोंकी तरह निर्मल कृतिकर्म-आवश्यक क्रिया को करे ॥ ६३॥ जीविते मरणे लाभेलामे योगे विपर्यये । बन्धावरौ सुखे दुःखे सर्वदा समता मम ॥ ६४ ॥ जीने-मरनेमें, लाभ-अलाभमें, संयोग-वियोगमें, शत्रु-मित्रमें और सुख-दुःखमें मेरे सर्वदा समता भाव है--किसीमें राग-द्वेष नहीं है ॥ ६४ ॥ पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना, रागद्वेषमलीमसेन मनसा दुष्कर्म यनिर्मितम् । त्रैलोक्याधिपते जिनेन्द्र भवतः श्रीपादमूलेऽधुना, निन्दापूर्वमहं जहामि सततं वर्वर्तिपुः सत्पथे ॥ ६५ ॥ पापी, दुरात्मा, जड़बुद्धि, मायावी, लोभी और राग-द्वेषसे मलीन इस दुष्ट मनने जिन खोटे कर्मोंका उपार्जन किया है उनको, हे तीन लोकके स्वामी जिनेन्द्र देव ! आपके चरणोंमें इस वक्त धिक्कारता हुआ त्यागता हूँ और सन्मार्गमें लगे रहनेकी कामना करता हूँ ॥६५॥ षडावश्यकसत्कर्म कुर्याद्विधिवदअसा, तदभावे जपः शुद्धः कत्तव्यः स्वात्मशुद्धये ॥ ६६ ॥ श्रावकोंको विविध-पूर्वक निरन्तर षठावश्यक क्रियाएँ करनी चाहिए; तथा इनके अभावमें अपनी आत्माको निर्मल बनानेके लिए शुद्ध जप करना चाहिए ॥ ६६ ॥ सिद्धचक्रप्रसादेन मन्त्राः सिद्धयन्ति साधवः । तस्मात्तदग्रतो मन्त्रान्समाराध्य ततोऽर्चयेत् ॥ ६७ ॥ सिद्धचक्रके प्रसादसे मंत्र भले प्रकार सिद्ध होते हैं, इस लिए सिद्धचक्रके सन्मुख मंत्रोंकी आराधना करे और उसके बाद अर्चन-पूजन करे ॥ ६७॥ ऊर्ध्वाधो रयुतं सबिन्दु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्टितं, ___ वर्गापूरितदिग्गताम्बुजदलं तत्सन्धितत्त्वान्वितम् । अन्तःपत्रतटेष्वनाहतयुतं हींकारसंवेष्टितं, देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभकण्ठीरवः ॥ ६८ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । १७ जिसके ऊपर-नीचे रेफ है और जो शून्य - सहित हकारसे युक्त ( हैं ) है, ब्रह्मस्वर ( ॐ ) से विशिष्ट है, जिस पर कमलके पत्तोंके सन्धिभागमें तत्त्वाक्षर लिखे हुए हैं, प्रत्येक पत्रके अन्तमें अनाहत मंत्र लिखा हुआ है और जो ह्रींकारसे वेष्टित है; तथा स्वर, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग और शवर्ग ये आठ वर्ग जिसके हर पत्ते पर लिखे हुए हैं ऐसे परम देव — सिद्धचक्र का जो पुरुष ध्यान करता है वह मुक्तिके प्यारका पात्र बन जाता है और वैरीरूपी हाथीको वश करनेके लिए सिंहके समान हो जाता है ॥ ६८ ॥ उर्ध्वाधो रेफसंयुक्तं सपर बिन्दुलाञ्च्छितम् । अनाहतयुतं तत्त्वं मन्त्रराजं प्रचक्षते ॥ ६९ ॥ हें ॥ ऊपर-नीचे जिसके रेफ है और जो शून्यसे युक्त है ऐसे अनाहत युक्त हकारको मंत्रराज कहते हैं ॥ ६९ ॥ कारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥ ७० ॥ ॐ नमः ॥ ओंकार अक्षर बिंदु से सहित है, जिसका मुनिगण ध्यान करते हैं उस सब मनोरथोंके पूरनेवाले और मोक्षको देनेवाले ॐको नमस्कार है ॥ ७० ॥ अवर्णस्य सहस्रार्ध जपन्नानन्दसम्भृतः । प्रत्येकोपवासस्य निर्जरां निर्जितास्रवः ॥ ७१ ॥ जो प्रीतिपूर्वक इस ओंकारके पाँचसौ जप करता है वह नवीन कर्मोंके आस्रवको रोकता है और एक उपवासकी निर्जरा करता है । भावार्थ - एक उपवासके करनेसे जो फल मिलता है वह इस ओंकारके पाँच सौ जप करनेसे प्राप्त हो जाता है ॥ ७१ ॥ हवर्णान्तः पार्श्वजिनोऽधो रेफस्तलगतः स धरेन्द्रः । तुर्यस्वरः सबिन्दुः स भवेत्पद्मावतीसञ्ज्ञः ।। ७२ ॥ ह्रीं इस मंत्र में जो हकार है वह पार्श्वजिनका वाचक है, नीचेकी तरफ जो रेफ है वह धरन्द्रका वाचक है और जो इसमें बिन्दु सहित ईकार है वह पद्मावती — शासन देवी--का वाचक है । भावार्थ - ह्रीं यह मंत्र पद्मावती, धरणेन्द्र सहित पार्श्वजिनका द्योतक है ॥ ७२ ॥ त्रिभुवनजनमोहकरी विधेयं प्रणवपूर्वनमनान्ता । ॐ ह्रीं नमः । एकाक्षरीति सञ्ज्ञा जपतः फलदायिनी नित्यम् ॥ ७३ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहारकविरचितं प्रणव---- जिसकी आदिमें है, नमः जिसके अन्तमें है ऐसी यह तीनों भुवनोंको मोहित attarai एकाक्षरी नामकी विद्या है। यह जप करनेवालेको हमेशा उत्तम उत्तम फल देती है । भावार्थ - " ओ हीं नमः " इस मंत्र को अपनेवालेके इष्टकी सिद्धि होती है ॥ ७३ ॥ १८ अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥ ७४ ॥ अहं ॥ अर्ह यह ब्रह्माक्षर है जो परमेष्ठीका वाचक हैं, और सिद्धचक्रका सुख्ख चीज है । उसको मन, वचन और कायसे नमस्कार करता हूँ ॥ ७४ ॥ चतुर्वर्णमयं मन्त्रं चतुर्वर्णफलप्रदम् । चतूरात्रं जपेद्योगी चतुर्थस्य फलं भवेत् ।। ७५ ।। अरिहंत ॥ “ अरिहन्त ” यह चार वर्णका मंत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों वर्गोंकी सिद्धि करनेवाला है । यदि योगीश्वर इस मंत्रका चार रात्रिपर्यन्त जप करे तो उन्हें मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ७५ ॥ विद्यां षड्वर्णसम्भूतामजय्यां पुण्यशालिनीम् । जपन् प्रागुक्तमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम् ।। ७६ ।। अरिहंत सिं ॥ जो ध्यान पुरुष, अजेय और पुण्यमय " अरिहन्त सिद्ध " इस छह अक्षरके मंत्रके तीन सौ जप करता है वह मुक्तिका स्वामी बनता है ॥ ७६ ॥ चतुर्दशाक्षरं मन्त्रं चतुर्दशसहस्रकम् । यो जपेदेकचित्तेन स रागी रागवर्जितः ।। ७७ ।। जो लोग एकाग्रचित्तसे, (( श्रीमद्वृषभादिवर्धमानान्तेभ्यो नमः चौदह हजार जप करते हैं वे रागी होते हुए भी राग रागरहित हैं ॥ ७७ ॥ " इस चौदह अक्षरवाले मंत्रके पञ्चत्रिंशद्भिरेवात्र वर्णश्च परमेष्ठिनाम् । मन्त्रैः प्राकृतरूपैश्च न कस्यापि कृतो व्ययः ॥ ७८ ॥ स्मर्तव्यः सानुरागेण विषयेष्वपरागिणा । वीरनाथप्रसादेन धर्म विद्धता परम् ।। ७९ ।। अपराजितमंत्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशमम् । मङ्गलेषु च सर्वेषु प्रथमं मङ्गलं मतः ॥ ८० ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्णिकामाद । १९ " णमोअरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियासं, पामो उव्रज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं" यह पंच परमेष्ठीका वाचक, प्राकृत भाषामें पैंतीस अक्षरोंका एक मत्रं है। इसके जपनेसे बड़े बड़े कार्योंकी सिद्धि होती है । इससे किसीका भी अनिष्ट नहीं होता। इस मंत्रका महात्म्य बड़ा ही अचिन्त्य है । अत: वीर भगवान्के प्रसादसे उनके बताये हुए धर्मका सेवन करते हुए, विषयोंसे ममत्व-भाव छोड़, भक्तिपूर्वक इस महामंत्रका सदैव स्मरण करना चाहिए । इस मंत्रराजका नाम अपराजित मंत्र है जो सर्व तरहके विघ्नोंको क्षणभरमें नाश कर देता है और सब प्रकारके मंगलोंमें यह सबसे पहला मंगल है ॥ ७८-७९-८०॥ स्मर मन्त्रपदोडूतां महाविद्यां जगत्सुताम् । गुरुपञ्चकनामोत्थां षोडशाक्षरराजिताम् ॥ ८१ ॥ __ जो सोलह अक्षरोंसे सुशोभित है, पंच गुरुओंके नामसे बनी हुई है, संसारका भला करनेवाली है और जिसका दूसरा नाम मंत्र है, ऐसी महाविद्याका निरन्तर स्मरण करना चाहिए । भावार्थ" अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः ” इस सोलह अक्षरोंके मंत्रका हमेशा ध्यान करना चाहिए ॥८१ ॥ ॐ नमः सिद्धमित्येतन्मन्त्रं सर्वसुखप्नदम् । जपतां फलतीहेष्टं स्वयं स्वगुणजृम्भितम् ॥ ८२॥ “ॐ नमः सिद्ध" यह पाँच अक्षरोंका मंत्र है जो सर्व तरहके सुखोंका देनेवाला है और जप करनेवालेको अपने नामके अनुसार ही फल देता है । इन उपर्युक्त मंत्रोंके सिवा और भी कई मंत्र हैं। जैसे-" णमो अरिहंताणं" यह सात अक्षरोंका, “अरिहंतसिद्धं नमः" यह आठ अक्षरोंका, “अरिहन्तसिद्धसाधुभ्यो नमः" यह ग्यारह अक्षरोंका, “अरिहंतसिद्धसर्वसाधुभ्यो नमः" यह तेरह अक्षरोंका और “ओं हाँ ही हूँ हें हैं हों हौं हः असि आ उ सा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः " यह सत्ताई अक्षरोंका इत्यादि ॥ ८२॥ इत्थं मन्वं स्मरति सुगुणं यो नरः सर्वकालं, ___ पापारिघ्नं सुगतिसुखदं सर्वकल्याणवीजम् । मार्गे दुर्गे जलगिरिगहने सङ्कटे दुर्घटे वा, सिंहव्याघ्रादिजाते भवभयकदते रक्षकं प्राणभाजाम् ॥ ८३॥ जो पुरुष उपर्युक्त रीतिसे किसी भी मंत्रका हमेशा स्मरण करता रहता है उसके सभी पापशत्रुओंको वह नाश करता है, उत्तम गतिके सुखोंको देता है, सभी कल्याणोंका कारण है, मार्ग में, दुर्गमें, जलमें, पर्वतमें, गुफाओंमें, वनोंमें, सिंह आदिके द्वारा उत्पन्न हुए कठिनसे कठिन संकटोंमें सहायक होता है और संसारके सभी भयोंसे प्राणियोंकी रक्षा करता है ॥ ८३ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचितअयं मन्त्रो महामन्त्रः सर्वपापविनाशकः । अष्टोत्तरशतं जप्तो धर्ने कार्याणि सर्वशः॥८४॥ इस अपराजित मंत्रको महामंत्र कहते हैं । यह सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला है और उसके एकसौ आठ जप करनेसे सब तरहके कार्य सिद्ध होते हैं ॥ ८४ ।। हिंसानृतान्यदारेच्छाचुराश्चातिपरिग्रहः । अमूनि पञ्च पापानि दुःखदायीनि संसृतौ ॥ ८५ ॥ अष्टोत्तरशतं भेदास्तेषां पृथगुदाहृताः। हिंसा तत्र कृता पूर्व करोति च करिष्यति ॥ ८६ ॥ मनोवचनकायैश्च ते तु त्रिगुणिता नव । पुनः स्वयं कृतकारितानुमादैर्गुणाहतिः ॥८७ ॥ सप्तविंशतिस्ते भेदाः कषायैर्गुणयेच्च तान् । अष्टोत्तरशतं ज्ञेयमसत्यादिषु तादृशम् ॥८८ ॥ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पाँच पाप हैं जो संसारमें अत्यन्त ही दुःखके देनेवाले हैं । इन पाँचों में से एक एकके एक सौ आठ आठ भेद होते हैं। जैसे-पहले हिंसा की; इस समय हिंसा करता है और आगे करेगा इस तरह हिंसाके तीन भेद हुए । पुनः इन तीनोंको मन, वचन, कायते गुगा करने पर नौ भेद, कृतकारित अनुमोदनासे गुणा करने पर सत्ताईस भेद और क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायोंसे गुणा करने पर एकसौ आठ भेद हिंसाके हो जाते हैं। इसी तरह झूठके एकसौ आठ, चौरके एकसौ आठ, कुशील सेवनके एकसौ आठ और परिग्रहके एकसौ आठ, एवं पाँच पापोंके उत्तर भेद पाँचसौ चालीस हो जाते हैं ॥ ८५-८६-८७-८८॥ उक्तंच तत्त्वार्थेसमरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिास्त्रस्त्रिश्चतुश्चैकशः । समरंभ, समारंभ और आरंभ इन तीनोंको मन, वचन और कायसे गुणने पर नव भेद; कृत, कारित और अनुमोदना इन तीनोंसे गुणने पर सत्ताईस भेद और फिर क्रोध, मान, माया लाभसे गुणने पर एकसौ आठ भेद हो जाते हैं । इन एकसौ आठको पंच पापोंसे गुणनेसे पाँचसौ चालीस भेद हो जाते हैं। दूसरी तरहसे एकसौ आठ भेद बताते हैं:पृथ्वीपानीयतेजःपवनसुतरवः स्थावराः पञ्चकायाः, नित्यानित्यौ निगोदी युगलशिखिचतुःसङ्ग्यसचित्रसाः स्युः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | एते प्रोक्ता जिनैर्द्वादश परिगुणिता वाचनः कायभेदै-, स्ते चान्यैः कारिताद्यैस्त्रिभिरपि गुणिताचाष्टशून्यैकसंख्याः ॥ ८९ ॥ पृथिवी, अपू, , तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, नित्यनिगोद, चतुर्गति निगोद, दो इन्द्री, ते इन्द्री, चौ इन्द्री, असंज्ञी और संज्ञी इन बारह भेदोंको मन, वचन और कायसे गुणा करने पर छत्तीस भेद और कृत, कारित, अनुमोदनासे गुणा करने पर एकसौ आठ भेद इस तरह भी हिंसाके एकसौ आठ भेद होते हैं ॥ ८९ ॥ वश्यकर्माणि पूर्वाह्नः कालश्च स्वतिकासनम् । उत्तरा दिक् सरोजाख्या मुद्रा विद्रुममालिका ॥ ९० ॥ जपाकुसुमवर्णा च वषट् पल्लव एव च । वशीकरण मंत्र जप करते समय पूर्वाह्न ( नौ बजेसे पहलेका ) काल होना चाहिए, उत्तर दिशामें मुँह करके स्वस्तिकासनसे बैठना चाहिए, कमल-मुद्रा, जपाकुसुमके रंग जैसा वर्ण, मँगोंकी माला और अन्तमै वषट् यह पल्लेव होना चाहिए ॥ ९० ॥ आकृष्टिकर्मणि ज्ञेयं दण्डासनमतः परम् ॥ ९१ ॥ अङ्कुशाख्या सदा मुद्रा पूर्वाह्नः काल एव च । दक्षिणा दिक् प्रवालानां माला वौषट् च पल्लवः ॥ ९२ ॥ उदयार्कनिभो वर्णः स्फुटमेतन्मतान्तरम् । २१. दण्ड आसन, अंकुश नामकी मुद्रा, पूर्वाह्न काल, दक्षिण दिशा, प्रवाल मणिकी माला, उगते हुए सूर्य के जैसा वर्ण और वौषट् पल्लव, ये आकर्षण करनेवाले मंत्रके जपते समय होना चाहिए ॥ ९१-९२॥ स्तम्भकर्मणि पूर्वा दिक् पूर्वाह्नः काल उच्यते ॥ ९३ ॥ शुम्भुमुद्रा च पीताभो वर्णो वज्रासनं मतम् । ठठेति पल्लवो नाम माला स्वर्णमणिश्रिता ।। ९४ ॥ स्तम्भन करनेवाले मंत्र जपते समय पूर्वदिशा, पूर्वाह्न काल, शुम्भु मुद्रा, पीत वर्ण, वज्रासन, सुवर्णमणियोंकी माला और ठठ यह पल्लव होना चाहिए ॥ ९३-९४ ॥ निषेधकर्मणीशानदिक् सन्ध्या समयोऽपि च । भद्रपीठासनं प्रोक्तं वज्रमुद्रा विशेषतः ।। ९५॥ १ मंत्रके अन्तमें उच्चारण किये जानेवाले शब्दको पल्लव कहते हैं । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमाहाकासिंचितकृष्णो वर्गक वैये के डीप पालन उच्यते । पुत्रजीवकृता माला विज्ञेया विविणः ९६॥ निषेधक मंत्रके जपते समय ईशान दिशा, संध्या समय, भद्रपीठासन, व्रज-मुद्रा, काला वर्ण, पुत्रजीव ( ? ) मणिकी माला और अन्तमें घे घे यह पल्लव होता है ॥ ९५-९६ ॥ विद्वेषकर्मणि प्रायो मध्याह्नः काल इष्यते । .......... अग्निदिक्चापि धूम्राभो वर्णो हमिति पल्लवः ॥ १७ ॥ प्रवालाख्या मता मुद्रा कुर्कुटासनमुत्तमम् । पुत्रजीवकृता माला जपने तत्र शस्यते ॥ ९८ ॥ विद्वेष-कर्म मंत्रके जपते समय मध्यान्ह काल, आग्नेय दिशा, धून वर्ण, प्रवाल-मुद्रा, कुर्कुटासन, पुत्रजीव मणिकी माला और अन्तमें “हूँ" यह पल्लव होता है ॥ ९७-९८ ।। उच्चाटकर्मणि प्रोक्तमासनं कुर्कुटाभिधम् । वायव्यदिक् चापराह्नः कालो मुद्रा प्रवालजा ॥ ९९ ॥ धूम्रवर्णो मतो वर्णो फनित्येव हि पल्लवः । उच्चाटनकर्म मंत्रकी सिद्धि करते समय कुर्कुटासन, वायव्य दिशा, अपराह्न (दोपहर बादका) काल, प्रवाल-मुद्रा, धूम्रवर्ण, और अन्तमें “ फट् ” यह पल्लव माना गया है ॥ ९९ ॥ शान्तिकर्मणि विज्ञेयं पङ्कजासनमुत्तमम् ॥ ११०॥ समयश्चार्धरात्रश्च वारुणी दिक्प्रशस्यते । ज्ञानमुद्रा मौक्तिकानां माला स्वाहेति पल्लवः ॥ १०१ ॥ चन्द्रकान्तसमो वणेः श्वेतवासोऽपि पुष्पकम् । शान्तिकर्म मंत्रको सिद्ध करते समय कमल-आसन, अर्धरात्रि काल, पश्चिम दिशा, ज्ञानमुद्रा, मोतियोंकी माला, चाँद जैसा रंग, श्वेतवस्त्र, श्वेत ही पुष्प और अन्तमें “ स्वाहा” यह पल्लव उत्तम माना है ॥ १००-१०१ ॥ पौष्टिके कर्मणि प्रातः कालो नैर्ऋत्यदिनता ॥ १०२॥ पङ्कजासनमेतद्धि ज्ञानमुद्रा विधानतः । स्वधेति पल्लवो वर्णश्चन्द्रकान्तसमो मतः ॥ १०३ ॥ मौक्तिकी नाममालेति पुष्पं श्वेतं च चीवरम् । द्वादशाङ्गुलपर्वाणि दक्षिणावर्ततो जपेत् ॥ १०४ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकारान्यतो माशः पापस्य प्रविजापते । पौष्टिक कमैमें प्रातःकालीन समय, नैर्ऋत्य दिशा, कमलासन, ज्ञानमुद्रा, चाँद जैसा वर्षे, मोतियोंकी माला, सफेद पुष्प, सफेद वस्त्र और अन्तमें “स्वधा " यह पल्लव होना चाहिए । हर एक मंत्रका जप दक्षिण आतसे एकसौ आठ वार करे । इस तरह मंत्रोंके नपनेसे पापका नाश होता है । भावार्थ-इन मंत्रोंमें जो जो समय बताया गया है उस उस समयमें मंत्रका जप करना चाहिए और जो दिशाएँ कही गई हैं उन दिशाओंमें मुख करना चाहिए, जो आसन लिखे गये हैं उन आसनोंसे बैठना चाहिए इत्यादि ॥ १०२-१०३-१०४ ॥ तर्जन्यङ्गुष्ठयोगेन विद्वेषोच्चाटने जपः॥ १०५॥ कनिष्ठङ्गुिष्ठकाभ्यां तु कर्म शत्रुविनाशने । अङ्गुष्ठानामिकाभ्यां तु जपेदुत्तमकर्मणि ॥ १०६ ॥ . अंगुष्टमध्यमाभ्यां तु जपेदाकृष्ठकर्मणि । विद्वेष-उच्चाटन करना हो तो तर्जनी और अँगूठेसे माला पकड़ कर जप करें । यदि शत्रुका विनाश करना हो तो कनिष्ठा और अँगूठेसे माला पकड़ कर जाप देवे । यदि उत्तम कार्य करना हो तो अनामिका और अंगुष्ठसे जाप करे । और आकर्षण कर्ममें अँगूठे और बीचकी उँगलीसे जाप करे ॥ १०५-१०६॥ माला सुपञ्चवर्णानां रत्नानां सर्वकार्यदा ॥ १०७ ।। स्तम्भने दुष्टसन्नाशे जपेत प्रस्तरकर्करान् । शत्रूचाटे च रुद्राक्षा विद्वेषेऽरिष्टबीजजा ॥ १०८ ॥ स्फाटिकी सूत्रजा माला मोक्षार्थिनां तु निर्मला । पाँच रंगके रत्नोंकी माला सभी तरहके कार्योंको सिद्ध करती है। कंकड़ोंकी माला स्तम्भनकर्म और शत्रुके वशीकरणमें काम देती हैं । रुद्राक्षकी मालासे शत्रुका उच्चाटन होता है । विद्वेष-कर्ममें अरीठेके बीजोंकी माला मानी गई है । तथा मोक्षार्थियोंके लिए स्फटिक मणियोंकी और सूतकी माला उत्तम कही है । भावार्थ-कोई कार्य करना हो तो उसमें जिस जिस प्रकारकी माला बताई गई है उसके द्वारा जप करे ।। १०७-१०८॥ धर्मार्थकाममीक्षार्थी जपेद्वै पुत्रजीवजाम् ॥ १०९ ॥ --शान्तये पुत्रलाभाय जपेदुत्पलमालिकाम् । पद् कर्माणि तु प्रोक्तानि पल्लवा अत उच्यते ॥ ११० ॥ १ अँगूठेके पासकी उँगली । २ अन्तको चिट्ठी उँगली । चिट्ठीके पासकी उँगली । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित यदि धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी चाहना हो तो पुत्रजीव मणियोंकी मालासे और यदि शान्ति या पुत्र-प्राप्तिकी वांच्छा हो तो कमल-गट्टोंकी मालासे जप करे । यहाँ तक षट्कर्म कहे । अब पल्लवोंका कथन करते हैं ॥ १०९-११०॥ ॐ हाँ अर्हद्भ्यो नमः । ॐ ही सिद्धेभ्यो नमः । ॐ हूँ आचार्येभ्यो नमः । ॐ हाँ पाठकेभ्यो नमः । ॐ हः सर्वसाधुभ्यो नमः । इति मुक्त्यर्थिनामाराधनमन्त्रः॥१॥ यह मुक्ति चाहनेवाले पुरुषोंके आराधन करनेका मंत्र है ॥ १ ॥ ॐ हाँ अर्हद्भ्यः स्वाहा । ॐ ही सिद्धेभ्यः स्वाहा । ॐ हूँ आचार्येभ्यः स्वाहा । इत्यादि.ममंत्रः ॥२॥ यह होम मंत्र है॥ २॥ ॐ हाँ अर्हद्भ्यः स्वधा । ॐ ही सिद्धेभ्यः स्वधा । इत्यादिः शान्तिकपौष्टिकमन्त्रः ॥३॥ • यह शान्ति और पौष्टिक मंत्र है ॥ ३ ॥ ॐ हाँ अहंदूभ्यो हूं फट् । ॐ हीं सिद्धेभ्यो हूं फट् । इत्यादिविद्वेषमंत्रः॥४॥ यह विद्वेष मंत्र है ॥ ४ ॥ ॐ हाँ अर्हद्भ्योहूँ वषट् । ॐ हीं सिद्धेभ्यो हूँ वषट् । इत्याद्याकर्षणमन्त्रः॥५॥ यह आकर्षण मंत्र है ॥ ५॥ ॐ हाँ अहंदूभ्यो वषट्। ॐ ही सिद्धेभ्यो वषट् । इत्यादिवशीकरणमंत्रः ॥६॥ यह वशीकरण मंत्र है ॥ ६॥ ॐ हाँ अभ्यः ठ ठ । इत्यादिः स्तम्भनमन्त्रः ॥७॥ यह स्तम्भन मंत्र है ॥ ७ ॥ ॐ हाँ अहंदूभ्यो घे घे । इति मारणमन्त्रः॥८॥ यह मारण मंत्र है ॥ ८॥ १ ॐ हों पाठकेभ्यः स्वाहा, ॐ हा सर्वसाधुभ्यः स्वाहा इत्यादि नांचे लिखे सभी मैत्रोंमें जोड़ लेना चाहिए। परंतु जिनके अंतमें स्वधा हो उनके अंतमें स्वधा और जिमके अन्समें हूं फट् हूं वषट् इत्यादि हो वे सय लगा लेने चाहिए। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ त्रैवर्णिकाचार। .. अब मंत्रोंके जपने योग्य स्थान बताये जाते हैंएकान्तस्थानके मन्त्रं मुक्त्यर्थं तु जपेच्छुचौ । स्मशाने दुष्टकार्यार्थ शान्त्याद्यर्थी जिनालये ॥ १११॥ मुक्तिके अर्थ पवित्र एकान्त स्थानमें, दुष्ट कार्योंके लिए स्मशानमें और शान्तिके लिए जिनालयमें बैठकर मंत्रोंका जप करे ॥ १११ ॥ श्रीसद्गुरूपदेशेन मंन्त्रोऽयं सत्फलप्रदः। तस्मात्सामायिक कार्य नोचेन्मन्त्रमिमं जपेत् ॥ ११२ ॥ श्रीसद्गुरुके परमोपदेशसे यह उत्तम फल देनेवाले मंत्र कहे गये हैं, इस लिए सामायिक करना चाहिए; नहीं तो पंच नमस्कार मंत्रका जाप देना चाहिए ॥ ११२ ॥ आकृष्टिं सुरसम्पदां विदधती मुक्तिश्रियो वश्यता-, मुच्चाटं विपदां चर्तुगतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् । स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रतिदिनं मोहस्य संमोहनं, पायात्पश्चनमस्क्रियाऽक्षरमयी साऽऽराधना देवता ॥ ११३ ॥ यह अक्षरात्मक पंच नमस्कार रूप आराधन देवता हमारी रक्षा करे; जो स्वर्गीय सम्पदाका आकर्षण करती है, मोक्षलक्ष्मीको वशमें करती है, चारों गतियोंमें होनेवाली विपत्तिका उच्चाटननाश करती है, पापोंका विनाश करनेवाली है, दुर्गतिसे रोकती है और प्रतिदिन मोहको जीतती है। भावार्थ-पंचनमस्कार मंत्रके जपनेसे उपर्युक्त फलोंकी प्राप्ति होती है । अतः हमेशा प्रात:काल उठकर इस मंत्रको जपना चाहिए ॥११३॥ ततः समुत्थाय जिनेन्द्रबिम्ब, पश्येत्परं मङ्गलदानदक्षम् । पापप्रणाशं परपुण्यहेतुं, सुरासुरैः सेवितपादपद्मम् ॥ ११४ ॥ जब प्रथम ही शय्यासे उठकर सामायिक या इस मंत्रका जप कर चुके, उसके बाद चैत्यालयमें जाकर सर्व तरहके मंगल करनेवाले, पापोंका क्षय करनेवाले, उत्तम पुण्यके करनेवाले और सुर, असुरों द्वारा वन्दनीय श्रीजिनबिंबका दर्शन करे ॥ ११४ ॥ सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमङ्गलाय, द्रष्टव्यमस्ति यदि मङलमेव वस्तु । अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वक्त्रं, त्रैलोक्यमंगलनिकेतनमीक्षणीयम्॥११५॥ और इस प्रकार स्तुति पढ़े कि हे नाथ, प्रातःकाल ही सोकर उठे हुए पुरुषको अपना सब दिन अमन-चैनसे बीतनेके लिए यदि कोई मंगल-वस्तु दृष्टव्य है तो इस लोकमें यह तीन लोकके मंगलोंका खजाना तुम्हारा मुख ही है। ऐसी हालतमें अन्य चीजोंके देखनेसे प्रयोजन ही क्या है ॥ ११५ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमारमानिधित श्रीलीलाबत महीलाई कीर्तिप्रमोदास्पदं, वाग्देवीरनिकेतनं जयरमाक्रीडानिधानं महत् । स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं यः प्रार्थितार्थप्रदं प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांघ्रिद्वयम् ॥ ११६ ॥ जो पुरुष प्रातःकाल उठकर मनचाहे फलोंको देनेवाले, कल्पवृक्षों के पत्तों जैसी लाल कांतिवाले जिनदेवके दोनों चरणोंका अवलोकन करता है वह पुरुष लक्ष्मीके कीड़ा करनेका स्थान, पृथिवी पर वंशपरम्पराके रहनेका घर, कीर्ति और आनन्दका स्थाब, सरस्वतीका क्रीड़ा-गृह, जयलक्ष्मीके रमण करनेका स्थान और सम्पूर्ण महोत्सवोंका भवन बन जाता है । भावार्थ जो जिनेन्द्रके चरणोंका प्रातःकाल उठकर दर्शन करता है उसे ये सब सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं, मनचाही लक्ष्मी मिलती है, उसे सभी जन प्यारकी दृष्टिसे देखते हैं, उसकी वंशपरम्परा इस. पृथवीका उपभोग करती धन्यः स एव पुरुषः समतायुतो यः, प्रातः प्रपश्यति जिनेन्द्रखारविन्दम् । पूजासुदानतपसि स्पृहमीप्रचिचा सेन्यः सदस्सु नृसुरैर्युनिसोमसेनैः ॥११७॥ जो पुरुष समताभात्रोंसे खोरे ही जिन भमवानके मुख-कालका दर्शन करता है और उत्तम दान-तप-पूजादिमें जिसका चित्त लगा हुआ है वह पुरुष धन्य है । वह सभामें मनुष्यों और देवों द्वारा सेवा किया जाता है । वह सोमसेनमुनि द्वारा भी सेवनीय है ॥ ११ ॥ प्रातःक्रियेति मिर्दिष्टा संक्षेपेण यथागमम् । .. श्रुता मया गुरोरास्यात्करणीया मनीषिभिः ॥११८ ॥ इस अध्यायमें मैने प्रातःकाल संबंधी क्रियाओंका आगमके अनुसार संक्षेपसे कथन किया है। यह क्रियाएँ मैंने अपने मुरुके मुखसे सुनी हैं । बुद्धिमानोंको प्रातःकाल उठ कर ये क्रियाएँ करनी चाहिए ॥ ११८॥ "ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय इति कर्तव्यतायां समाधिमुपेयात् ॥ अर्थात् सूर्योदयसे दो घड़ी प्रथम उठकर इति कर्तव्यतामें मन लगावे । श्रीसोमदेवविरचित नीतिवाक्यामृतकी यह नीति है । इसीका स्पष्टीकरण इस अध्यायमें किया गया है जो सर्वथा आईमार्गके अनुकूल है। इति श्रीधर्मरसिकशाले त्रिवर्णाचारनिरूपणे भद्वारकाधीसोमसेनविरचिते सामायिकाध्यायः प्रथमः ॥ पहला अध्याय। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय । शान्तिनाथं जिनं नस्वा पापशान्तिविधायकम् । वक्ष्येऽधुना त्रिवर्णानां शौचाचारक्रियाक्रमम् ॥१॥ अब पापोंको शान्त करनेवाले शान्तिनाथ तीर्थकरको नमस्कार कर तीनों वर्ण-सम्बन्धी शौचाचार क्रियाका क्रम कहा जाता है ॥ १॥ शौचेन संस्कृतो देहः संयमार्थ मवेत्परम् । पिना शौचं तपो नास्ति विशिष्टान्वयजे नरि ॥२॥ जिस शरीरकी शौच द्वारा शुद्धि की गई है, वही शरीर संयम, व्रत, तपश्चरणके योग्य होता है। विना शारीरिक शुद्धिके, उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ भी मनुष्य तपश्चरणके योग्य नहीं है ॥ २॥ संस्कृता शोभना भूमि/जानां सत्फलप्रदा । कारणे सति कार्य स्यात्कारणस्यानुसारतः॥३॥ __ हल वगैरह जोतकर साफ की हुई जमीन ही उत्तम फलोंको फलती है, सो ठीक ही है, क्योंकि कारणोंके मिलनेपर उनके अनुसार ही कार्य पैदा होता है ॥ ३॥ उप्तं बीजं शुभं भूमौ सहस्रगुणितं फलम् । ऊपरेऽसंस्कृते देशे वीजमुतं विनश्यति ॥४॥ जो बीज साफ की हुई जमीनमें बोया जाता है उसके हजारों फल लगते हैं। और यदि वही बीज विना साफ की गई ऊपर जमीनमें बोया जाता है तो फल होना तो दूर रहा वह स्वयं नष्ट हो जाता है। सारांश इन दोनों श्लोकोंका यह है कि यह शरीर मानिन्द जमीनके है, जैसे जिस जमीनमें अधिक खाद दिया जाता है; दो-चार वार हल चलाकर सैवार दी जाती है तो उसमें अनाज वगैरहकी उपज भी अच्छी होने लगती हैं । इसके अलाबा जो ऊपर जमीन होती है उसमें पैदा होना तो दूर रहा बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है । वैसे ही जिस शरीरका विधिपूर्वक संस्कार किया जाता है वह शरीर संयम, व्रत, नियम आदि अच्छे अच्छे आचरणोंके धारण करनेका पात्र बन जाता है । और जिसका संस्कार नहीं किया जाता वह कभी उन संयम, तप आदिके धारण करनेके योग्य नहीं होता। अतः शरीरका संस्कार करना बहुत जरूरी है ॥ ४ ॥ गुरूपदशतो लोके निर्ग्रन्थपदधारणम् । संयमः कथ्यते सद्भिः शरीरे सँस्कृतेऽस्ति सः॥५॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित गुरुके उपदेशानुसार निग्रंथ पदके धारण करनेको संयम कहते हैं। वह संयम संस्कारसे शुद्ध किये हुए शरीरके होने पर ही होता है ॥ ५ ॥ २८ पापवृक्षस्य मूलघ्नं संसारार्णवशोषणम् । शिवसौख्यकरं धर्म्य साधकः साधयेत्तपः ||६|| तपश्वरण के साधन करनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य उस तपकी अवश्य साधना करे, जो पाप - वृक्षको जड़मूल से उखाड़नेवाला है, संसार-समुद्रको सुखानेवाला है, मोक्ष- सुखको देनेवाला है और धर्मरूप है ॥ ६॥ सुखं वाञ्छन्ति सर्वेऽपि जीवा दुःखं न जातुचित् । तस्मात्सुखैषिणो जीवाः संस्कारायाभिसम्मताः ॥ ७॥ संसारके सब प्राणी सुखकी चाह करते हैं । कोई संसारमें ऐसा जीव नहीं जो दुःखकी चाह करता हो । इसलिए ये सुखके चाहनेवाले जीव संस्कारके योग्य माने गये हैं ॥ ७ ॥ कालादिलब्धितः पुंसामन्तः शुद्धिः प्रजायते । मुख्याsपेक्ष्या तु संस्कारो बाह्यशुद्धिमपेक्षते ॥ ८ ॥ मनुष्योंकी अन्तरंग शुद्धि तो यद्यपि काललब्धि, कर्मस्थिति काललब्धि, जातिस्मरण आदिके निमित्तसे होती है, तथापि यह मुख्य शुद्धि शरीर शुद्धिकी अपेक्षा रखती है । और शरीर-शुद्धि बाह्यसंस्कारों (शुद्धि ) की अपेक्षा रखती है ॥ ८ ॥ अङ्कुरशक्तिर्बीजस्य विद्यमाना तथापि च । वृष्टिः सुभूमिर्वातादिर्बाह्यकारणमिष्यते ॥ ९ ॥ इसीको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं । यद्यपि बीजमें उगनेकी शक्ति मौजूद है तो भी वह अपने उगनमें अच्छी वृष्टि, उपजाऊ जमीन, अनुकूल हवा, योग्य सूर्यका प्रकाश आदि बाह्य कारणों की अपेक्षा रखता है । भावार्थ - बीजमें उगनेकी शक्ति होते हुए भी वह इन बाह्य कारणों के बिना नहीं उगता । ऐसे ही जीवोंमें यद्यपि सम्यक्त्व आदिके उत्पन्न होनेकी शक्ति है तो भी वह शक्ति बिना बाह्य कारणोंके व्यक्त नहीं होती । वे बाह्य कारण अनेक हैं, उनमें यह शरीर - संस्कार भी एक कारण है ॥ ९ ॥ शुद्धि | स्नानाचमनवस्त्राणि देहशुध्दिकराणि वै । सूतकाद्यशुध्दिव बाह्यशुध्दिरिति स्मृता ॥ १० ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । निरन्तर स्वच्छ जलसे स्नान करना, आचमन करना और धुले हुए साफ कपड़े पहनना यह शरीरकी शुद्धि है । तथा सूतक आदि पापोंकी शुद्धि करना बाह्यशुद्धि है । सारांश स्नान, आचमन आदि शरीरकी बाह्यशुद्धि है ॥ १० ॥ आचारः प्रथमो धर्मः सर्वेषां धर्मिणां मते । गर्भाधानादिभेदैश्च बहुधा स समुच्यते ॥ ११ ॥ यदि देखा जाय तो सभी आस्तिक धर्मोंमें आचरण सबसे श्रेष्ठ धर्म माना गया है । वह धर्म गर्भाधान आदिके भेदसे अनेक प्रकारका कहा गया है ॥ ११ ॥ पूर्वोक्तविधिना कृत्वा सामायिकादिसत्क्रियाम् । गृहकार्यं तथा चित्ते चिन्तनीयं गृहस्थकैः ॥ १२ ॥ २९ पहले अध्यायमें जो सामायिक आदि प्रशस्त क्रियाएँ कही गई हैं, उनको पूर्वोक्त विधिके अनुसार करके, गृहस्थोंको घरके सब कामोंका मनमें विचार करना चाहिए कि आज हमें दिनभर में क्या क्या कार्य करने हैं ॥ १२ ॥ कालं देहं स्थितिं देशं शत्रुं मित्रं परिग्रहम् । आयं व्ययं धनं वृत्तिं धर्म दानादिकं स्मरेत् ॥ १३ ॥ कालका, शरीरका, स्थितिका, देशका, शत्रुका, मित्रका, कुटुम्बका, आमदका, खर्चका, धनका, आजीविकाका, धर्मका और दानका हृदयमें चिन्तवन करे । भावार्थ - यह समय अमुक कार्य करनेके योग्य है या नहीं । मैं इस शरीर के द्वारा यह कार्य कर सकूँगा या नहीं, इत्यादिका विचार भी उसी वक्त करे ॥ १३ ॥ तथाऽपराह्नपर्यन्तं प्राह्णादारभ्य तद्दिने । यत्कर्तव्यं विशेषेण तदधीत हृदि स्फुटम् ॥ १४ तथा उसी दिन सुबह से लेकर शाम तक के कर्तव्योंका हृदयमें और भी स्पष्ट रीतिसे विचार करे ॥ १४॥ - बहिर्दिशागमन | समतास्थानकं त्यक्त्वा गृहीत्वा पूर्ववस्त्रकम् । सर्ववस्त्रं विना वस्त्रे धातव्ये चाधरोत्तरे ।। १५ ॥ जब अपने हृदय पटल पर उपर्युक्त कर्तव्योंको भले प्रकार अंकित कर चुके उसके बाद उस सामायिककी जगहसे उठ खड़ा होवे और पहले जिन कपड़ोंको पहने था उनको पहन ले अथवा उन कपड़ोंको वहीं रहने देकर एक धोती पहन कर डुपट्टा ओढ़ ले ॥ १५ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेमभट्टारकविचित नमः सिद्धेभ्य इत्युक्त्वा नासास्वरानुसारतः। अग्रपादं पुरी दत्वा शनैर्गच्छेजिन स्मरन् ॥१६॥ इसके बाद “ नम: सिद्धेभ्य” ऐसा मुखसे उच्चारण कर नाकका जो सुर चलता हो उसी सुर तरफके पैरको पहले आगे बढ़ावे और जिनेन्द्रदेवका स्मरण करता हुआ धीरे धीरे मल-मूत्रके त्यागने योग्य स्थानकी ओर गमन करे ॥१६॥ ग्राहयित्वा गृहीत्वा वा कर्पूरं कुंकुमं तथा । उशीरं चन्दनं दूर्वादर्भाक्षततिलाँस्तथा ॥१७॥ पश्यत्रीयोपथ मार्ग बजेदेवाप्रमत्तकः । चाण्डालशूकरादीनी स्पर्शने परिवर्जयेत् ॥ १८॥ तथा कपूर, केसर, आसन, चन्दन, दूब, काँस, अक्षत और तिल इन चीजोंकी सार्थमें स्वयं ले लेवे या नौकर वगैरहके हाथमें देकर उसे साथमें ले चले । रास्तेमें चलते समय बड़ी ही सावधानीके साथ चार हाथ आगेकी जमीनको देखता हुआ चले । और भंगी, चमार, सूअर आदि अस्पर्श्य प्राणियों तथा अन्य चीजोंको रास्तेमें न छूवे ॥१७-१८॥ मलमूत्रोत्सर्गस्थान । दूरदेशे महागूढे जीवकीटविवर्जिते । प्रासुके चापि विस्तीर्णे लोकदर्शनदूरगे ॥१९॥ भूतप्रेतपिशाचादियक्षलौकिकदेवता-। पूजास्थानं परित्यज्य तूत्सृजेन्मलमूत्रकम् ॥ २० ॥ जो शहरसे दूर हो, गुप्त हो, जीव-जन्तुओंसे राहत हो,प्रांसुकं हों, खूब अच्छा लम्बाचौड़ा हो, जिसमें स्त्री-पुरुष गाय-भैंस आदिका आवागमन म हो और मूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, लौकिक देवता आदिका पूजास्थान न हो, ऐसे स्थानमें बैठकर मल-मूत्रका त्याग करे ॥ १९-२० ॥ दशहस्तं परित्यज्य मूत्रं कुर्याज्जलाशये । शतहस्तं पुरीष तु नदीतीरे चतुर्गुणम् ॥२१॥ जिस स्थानमें जलाशय, तालाब हो वहाँसे दस हाथ जमीन छोड़ कर तो पेशाब करनेको बैठना चाहिए और सो हाथ जमीन छोड़ कर टट्टी बैठना चाहिए । यदि नदी हो तो इससे चौगुनी जमीन छोड़ कर टट्टी-पैशाबके लिए बैठना चाहिए ॥ २१ ॥ १ चालीस हाथ और चारसो हाथ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौचनिषिद्धस्थान | फलकृष्टे जले चित्यां वल्मीके गिरिमस्तके | देवालये नदीतीरे दर्भपुष्पेषु शाद्वले ।। २२ ।। कूलच्छायासु वृक्षेषु मार्गे गोष्ठाम्बुभस्मसु । अग्नौ च गच्छन् तिष्ठश्व विष्ठां मूत्रं च नोत्सृजेत् ॥ २३॥ जो जमीन हल वगैरह जोतकर साफ की गई हो, जिसमें जल भरा हो, स्मशान हो, चूहे वगैरहके बिल हो, पहाड़की चोटी हो, देवस्थान हो, नदीका किनारा हो, जहाँपर कॉस पुष्प खड़े हो, घास वगैरह उगी हुई हो, नदी के किनारे पर या पास दरारोंमें छायादार स्थान हो, जहाँ वृक्षोंकी मूल जड़ वगैरह हो, आनेजानेका रास्ता हो, जहाँपर पशु-पक्षी वगैरह एक साथ रहते हों, जहाँपर भस्म (राख, कूड़ा, कचरा वगैरह ) फैली हुई हो और अग्नि रक्खी हो, तो ऐसे स्थानों में कभी टट्टी पेशाब के लिए न बैठे । तथा रास्ते में चलता या खड़ा टट्टी-पेशाब न करे ॥ २२-२३ ॥ अनुदके धतवस्त्रे अक्षरलिपिसन्निधौ । स्नात्वा कच्छान्वितो भुक्त्वा मलमूत्रे च नोत्सृजेत् ॥ २४ ॥ 变身 यदि आसपास कहीं पर जल न हो, धुले हुए साफ वस्त्र पहने हुए हो, पुस्तक वगैरह पासमें हो, स्नान करके धोती वगैरह पहन चुका हो तो टट्टी पेशाब न करे । तथा भोजन करनेके बाद भी इन कामोंको न करे ॥ २४॥ अग्न्यर्कविधुगोसर्पदीपसन्ध्याम्बुयोगिनः । पश्यन्नाभिमुखचैतान् पिट्टां मूत्रं च नोत्सृजेत् ॥ २५ ॥ अग्नि, सूरज, चाँद, दीपक, सूर्य, पानी और योगीश्वर इनको देखता हुआ इनके सामने मुँह करके टट्टी-पशाब करने के लिए न बैठे ॥ २५ ॥ अरण्येऽनुदके रात्रौ चोरव्याघ्राकुले पथि । सकृच्छ्रमूत्रपुरीषे द्रव्यहस्तो न दुष्यति ॥ २६ ॥ जिस जंगलमें पानी न हो वहाँ यद्यपि टट्टी पेशाब न करे, परन्तु राचिका समय हो, मार्ग चोर, सिंह आदि भयानक मनुष्य - पशुओंके आवागमनसे पूर्ण हो, और पेशाबकी बाधा खूब ही सता रही हो; ऐसी दशामें यदि टट्टी-पेशाबके लिए बैठ जाय तो हाथमें कुछ होते हुए भी वह दोषका भागी नहीं है ॥ २६ ॥ कृत्वा यज्ञोपवीतं च पृष्ठतः कण्ठलम्बितम् । विण्मूत्रे तु गृही कुर्याद्वामकर्णे व्रतान्वितः ॥ १७ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरत्तित ___ गृहस्थ जन अपने यज्ञोपवीत (जनेऊ) को गर्दनके सहारेसे पीठ पीछे लटकाकर टट्टी-पेशाब करे और वृती श्रावक बायें कानमें लगाकर टट्टी-पेशाब करे । दोनों ही उसे गलेसे न निकालें ॥२७॥ मूत्रे तु दक्षिणे कर्णे पुरीषे वामकर्णके । धारयेद्ब्रह्मसूत्रं तु मैथुने मस्तके तथा ॥२८॥ पेशाबके समय उस यज्ञोपवीतको दाहिने कानमें और टट्टीके समय बायें कानमें टाँगना चाहिए । तथा संभोग करते समय मस्तक पर टाँगना चाहिए ॥२८॥ अन्तर्धाय तृणैर्भूमिं शिरः प्रावृत्य वाससा । वाचं नियम्य यत्नेन ठीवनोच्छ्वासवर्जितः ॥२९॥ कृत्वा समौ पादपृष्ठौ मलमूत्रे समुत्सृजेत् । अन्यथा कुरुते यस्तु यमं यास्यति सद्गृही ॥३०॥ मल-मूत्र करते समय जिस जगह मल-मूत्र करना हो उस जगहको तृण (घास) से ढक दे, अपना सिर कपड़ेसे ढक ले, किसीसे बोले नहीं अर्थात् मौन रहे, थूके नहीं, जोर जोरसे साँस न ले, दोनों पैरोंको बराबर रक्खे, और पीठको न झुकावे । जो गृहस्थ इस तरहकी क्रिया न करके अपनी मनमानी करता है वह मरणको प्राप्त होता है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जमीन पर घास बिछाकर टट्टीपेशाब क्यों किया जाय । इसका समाधान यह है कि टट्टी और जमीनका संयोग मिलने पर जीवोंके आधिक उत्पन्न होनेकी संभावना है और वह जमीन पर जल्दी शुष्क भी नहीं होगी, घास पर वह जल्दी सूख जायगी और जीवोंकी उत्पत्ति भी अधिक न होगी ॥ २९-३०॥ प्रभाते मैथुने चैव प्रस्रावे दन्तधावने । स्नाने च भोजने वान्त्यां सप्त मौनं विधीयते ॥३१॥ समायिक करते समय, मैथुन करते समय, टट्टी-पेशाब करते समय, दतौन करते समय, स्नान करते समय, भोजन करते समय और उल्टीके समय इस प्रकार इन सात स्थानों पर मौन धारण करना चाहिए ॥ ३१ ॥ काष्ठादिनाऽप्यपानस्थममध्य निर्मजीत च । कन्दमूलफलाङ्गारैर्नामेध्यं निZजीत च ॥३२॥ टट्टी हो चुकनेके बाद, गुदस्थानको प्रथम लकड़ी के टुकड़ेसे या पत्थर वगैरहसे साफ कर ले। परन्तु कन्द-मूल, फल वगैरहसे साफ न करे ॥ ३२ ॥ शौच बैठते समय वहाँके क्षेत्रपात्रसे क्षमा करावे । उसका मंत्र यह है: ओं ही अत्रस्थ क्षेत्रपाल क्षमस्व, मां मनुजंजानीहि, स्थानादस्मात्प्रयाहि, अहं पुरीपोत्सर्ग करोमीति स्वाहा ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | यह मंत्र बोलकर टट्टी के लिए बैठे। इस मंत्रका भाव यह है कि हे इस क्षेत्रमें रहनेवाले क्षेत्र - पाल क्षमा कीजिये, मुझे अल्प शक्तिधारी मनुष्य समझिये, आप इस स्थानसे हट जाइए - मैं यहाँपर मल क्षेपण करता हूँ ॥ ३२ ॥ क्षेत्रपालाज्ञया क्षेत्रे पूर्वास्योवोत्तरामुखः । शिरः प्रदेशे कर्णे वा धृतयज्ञोपवीतकः ॥ ३३ ॥ . पूर्वादिदिक्षु निक्षिप्तदृष्टिरूर्ध्वमधोऽपि वा । मन्दतालोभतृष्णासु चित्संस्मरन्मलं सृजेत् ॥ ३४ ॥+ इस तरह क्षेत्रपालसे आज्ञा लेकर पूर्व दिशाकी ओर या उत्तर दिशाकी ओर मुँह करके टट्टी के लिए बैठै, यज्ञोपवीतको सिरपर अथवा कानमें टाँगले । टट्टी करते समय अपनी नजर चारों दिशाओंमें या ऊपरको या नीचेको रक्खे । तथा उस समय न तो अधिक देर करे, न शीघ्रता करे और न अपने चित्तको इधर उधर डुलावे ॥ ३३-३४॥ ततो वामकराङ्गुष्ठान्नङ्गुलिद्वितयेन वै । शिश्नस्याग्रं गृहीत्वैवं किञ्चद्दूर व्रजेद् गृही ॥ ३५ ॥ इसके बाद, बायें हाथके अँगूठे और अँगूठेके पासकी दो उँगलियोंसे लिंगके अग्रभागको ग्रहणकर जलाशय तक जावे ॥ ३५ ॥ प्रासुकं जलमादाय चोपविश्य यथोचितम् । जानुद्वयस्य मध्ये तु करौ न्यस्याचरेच्छुचिम् ।। ३६ ।। ३३ वहाँ, जलाशयके किनारे पर ठीक रीतिसे बैठकर, दोनों घुटनों के बीचमें दोनों हाथोंको रखकर प्रासुक जलसे गुदप्रक्षालन करे ॥ ३६ ॥ तीर्थे शौचं न कर्तव्यं कुर्वीतोऽधृतवारिणा । गालितेन पवित्रेण कुर्याच्छौचमनुद्धतः ॥ ३७ ॥ तीर्थस्थानके जलाशयोंमें गुद- प्रक्षालन न करे । लोटे वगैरह से निकाल कर छने हुए पवित्र जलसे शौच करे || ३७ ॥ जलपात्रं ज्येष्ठहस्ते बामस्हतेन शौचकम् । पुनः प्रक्षाल्य हस्तं तं पुनः शौचं विधीयते ॥ ३८ ॥ पानीके लौटेको दाहिने हाथमें पकड़े और बायें हाथसे शौच करे। एक बार ऐसा कर चुके इसके बाद हाथ धोवे और फिर दूसरी बार शौच करे ॥ ३८ ॥ -- - मन्दतामतिराभस्यमन्यचित्तत्वमुत्सृजेत् इति पाठः साधीयान् ॥ - 4 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनानिचितशौचं च विविध प्रोक्ता बासमाभ्यंतरं तथा। मृजलाभ्यां स्मृतं बाह्य भाषशुध्धा तथाऽन्तरम् ॥३९॥ शौच दो प्रकारका है। एक बाह्य और दूसरा आभ्यन्तर । मिट्टी और जलसे जो शौच किया जाता है वह बाह्य शौच है और अपने परिणामोंकी शुद्धि रखने आभ्यासर शौक होता है ।। ३९ ॥ अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुस्थितोऽपि वा ।. ध्यायेत्पश्चनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥४०॥ मनुष्य चाहे अपवित्र हो, चाहे पवित्र हो, चाहे अच्छी हालतमें हो, और चाहे खराब हालतमें हो वह पंचनमस्कारके ध्यान करनेसे सर्व तरहके पापोंसे निर्मुक्त हो जाता है ॥ ४० ॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः सरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरंः शुचिःः॥४१॥ तथा मनुष्य, अपवित्र हो या पवित्र हो अथवा किसी भी हालत में क्यों न हो, परन्तु जो पर स्माका स्मरण करता है वह अन्तरंबसे और बाहिरसे पवित्र है ॥ ४१.॥ चुलकं कारिणा पूर्ण मूत्स्नांशकैः सप्तभिः । हस्तेनैकेन हस्तस्यैकस्य शौचं पुनः पुनः॥४२॥ शौच (गुद-प्रक्षालन) कर चुकने के बाद, मिट्टीकी सात भाषा कर ले, और दाहिने हाथके चुल्लमें पानी लेकर बायें हाथाको बार बार तीन बार-धोबेत॥ ४२ ॥ निबारमेवमासोच्य द्वौ करो क्षालयेत्ततः । कटिस्नानं जलैः कृत्वा पादौ प्रक्षालयेत्ततः॥४३॥ इस तरह बायें हाथको धो लेनेपर तीन बार दोनों हाथोंको एक साथ धोवे। इसके बाद कमर तक स्नान करके पैरोंको खूब अच्छी तरहसे धोवे. ॥ ४३ ॥ मृच्छुभ्रवर्णा वित्रस्य क्षत्रिये रक्तमृत्तिका । वैश्यस्य पीतवर्णा तु शूद्रस्य कृष्णमृत्तिका ॥४४॥ ब्राह्मणोंको सफेद, और क्षत्रियोंको लाल मिट्टी लेनी चाहिए; तथा वैश्योंको पीली और शूद्रोंको काली मिट्टी शौचके समय काममें लेनी चाहिए ॥ ४४ ॥ निषिद्धमृत्तिका। अन्तगृहे देवगृहे वल्मीके मूषकस्थले । कृतशौचाविशेषे च न प्रायाः पञ्चमृत्तिकाः ॥ ४५ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णिकार । ३५ पर बीके आँगनकी, देवगृहकी, बिलोकी, मूहाके बिलाकी मिट्टी और शौच करने से बाकी बची हुई मिट्टी ऐसे पाँच स्थानोंकी मिट्टी न ले ॥ ४५ ॥ मलमूत्रसमीपे च वृक्षमूलस्थिता च या । वापीकूपतडागंस्था 'न ग्राह्याः पञ्च मृत्तिकाः ।। ४६ ।। तथा गिरस्तोंको मल-मूत्र करनेकी जगहकी, वृक्षोंकी जड़की, बावड़ी, कुआ और तालाबकी इन पाँच स्थानोंकी भी मिट्टी शौच के लिए काममें न लेनी चाहिए ॥ ४६ ॥ मार्गोषरस्मशानस्था पीसुला मतिमास्त्यजेत् । कोटाङ्गारास्थिसंयुक्ता 'नाहरेत्कर्कीरान्विताः ॥ ४७ ॥ तथा रास्तेकी मिट्टी, ऊपर जमीमकी मिट्टी, मशानकी मिट्टी तथा धूल मिट्टी, कीड़े, अंगार, ही और ककड़ आदि से मिली हुई मिट्टी भी न लेना चाहिए ॥ ४७ ॥ आहरेन्मृत्तिकां गेही स्थलीसरित्कूलयोः । शुध्दक्षेत्रस्य मध्यस्थां तथा प्रसुखानिजाम् ॥ ४८ ॥ किन्तु साफ की हुई जमीनकी, नदी किनारकी, जोते हुए खेतकी और प्रांसुक खानकी मिट्टी काममें लेवे ॥ ४८ ॥ अलाभे मृदस्तूक्ताया यस्मिन्देशे तु या भवेत् । तया शौचं प्रकुर्वीत गृही मृत्तिकयाऽपि च ।। ४९ । ऊपर चारों वर्णोंके योग्य जो मिट्टी बताई गई है यदि वह म मिल सके तो जिस देशमें जैसी मिट्टी मिलती हो उसीसे गृहस्थजन शौच कर सकते हैं ॥ ४९ ॥ अर्धबिल्वफलमात्रा प्रथमा मृत्तिका स्मृता । द्वितीया तु तृतीया तु तदर्थार्था प्रकीर्तिता ॥ ५० ॥ उस मिट्टीकी कई गोलियें बनावे | पहली गोली बिल्वफलके बराबर बनावे; दूसरी इससे आधी और तीसरी इससे आधी इस तरह आधी आधी बनावे ॥ ५० ॥ एका लिङ्गे करे तिस्र उभयं पादयुग्मके । पञ्चापाने नखे सप्त सर्वाने ह्येक एव च ।। ५१ ॥ एक गोलीसे लिंगकी, तीनसे हाथोंकी, दोसे दोनों पैरोंकी, पाँचसे गुदस्थानकी, सात नखोंकी और एकसे सारे शरीरकी शुद्धि करे ॥ ५१ ॥ यद्दिवा विहितं शौच तदर्धं निशि कीर्तितम् । तदर्धमातुरे श्रोत आतुरस्यामध्वनि ॥ ५२ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित दिनमें जो यह शौचका विधान बताया गया है उससे रात्रिमें आधा कहा गया है । रोगीके लिए इससे भी आधा समझना और मार्ग चलते हुए रोगी के लिए इससे भी आधा जानना ॥ ५२ ॥ स्त्रीशूद्रादेरशक्तानां बालानां चोपवीतिनाम् । गन्धलेपादिकं कार्यं शौचं प्रोक्तं महर्षिभिः ॥ ५३ ॥ ३६ स्त्रियोंकी, शूद्रोंकी, असमर्थ बालकोंकी और जिनका यज्ञोपवीत हो चुका ऐसे बालकोंकी शरीरशुद्धि चन्दनके लेप आदिके करनेसे ही हो जाती है ॥ ५३ ॥ शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो गृही स्मृतः । शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाः क्रियाः ॥ ५४ ॥ गृहस्थों को अपनी शारीरिक शुद्धिके करनेमें निरन्तर यत्नशील रहना चाहिए । शारीरिक शुद्धि ही उनकी सब क्रियाओंकी मूल जड़ है । जो गृहस्थी शारीरिक शुद्धि नहीं करता है उसकी सभी क्रियाएँ प्रायः निष्फल हैं ॥ ५४ ॥ द द्विगुणं मूत्रान्मैथुने त्रिगुणं भवेत् । निद्रायां वीर्यपाते च यथायोग्यं समाचरेत् ।। ५५ ।। पेशाब करने पर जो शारीरिक शुद्धि की जाती है उससे दूनी टट्टांके समय और तिगुनी मैथुन के समय करनी चाहिए । तथा सोते सोते वीर्यपात हो जाय तो यथायोग्य अपनी शुद्धि करे ॥ ५५ ॥ पादपृष्ठे पादतले तिस्रस्तिस्रश्च मृत्तिकाः । एकैकया मृदा पादौ हस्तौ प्रक्षालयेत्तदा ।। ५६ ।। पेशाब आदिके समय पैरोंके ऊपर और नीचे ( पगतली पर ) तीन तीन बार मिट्टी चुपड़े । इसके बाद एक एक मिट्टीकी गोलीसे हाथ पैर धोवे ॥ ५६ ॥ वामं प्रक्षालयेत्पादं शूद्रादेर्वा कथञ्चन । शौचाहते वामपादं पश्चाद्दक्षिणमेव च ।। ५७ ।। पैरो प्रथम धोवे, बाद दाहिने पैरको धोवे । शूद्र आदि जैसा चाहे वैसा करें; परंतु वे भी शौच के बिना काय में बायें पैर को पहले धोवे बाद दाहिने पैर को धोवे ॥ ५७ ॥ इति शौचविधिः । कियद्दूरं ततो गत्वा वसित्वा निर्मले स्थले । पाणिपादौ च प्रक्षाल्य मुखधावनमाचरेत् ।। ५८ ।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | ३७ शौचस्थानसे कुछ दूर चल कर, निर्मल साफ स्थानमें बैठ कर, हाथ पैरोंको धोकर छने हुए जलसे दन्तवन करना प्रारंभ करे ॥ ५८ ॥ ॐ नमोऽर्हते भगवते सुरेन्द्रमुकुटरत्नप्रभाप्रक्षालितपादपद्माय अहमेवं शुद्धोदकेन पादप्रक्षालनं करोमि स्वाहा ॥ १ ॥ अनेनावशिष्टेन मृदंशेन पादौ प्रक्षालयेत् ॥ यह मंत्र बोलकर बाकी बची हुई मिट्टीसे पैरोंका प्रक्षालन करना चाहिए ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं ह्यौं असुझुर असुर सुकुरु भव तथा हस्तशुद्धिं करोमि स्वाहा ||२|| अनेन जलेन हस्तप्रक्षालनम् ॥ इस मंत्र को पढ़कर हाथोंका प्रक्षालन करना चाहिए ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं क्ष्वीं स्वीं मुखप्रक्षालनं करोमि स्वाहा ॥ ३ ॥ अनेन मुखप्रक्षालनम् ॥ इस मंत्रको पढ़कर मुँह धोवे ॥ ३ ॥ ॐ परमपवित्राय दन्तधावनं करोमि स्वाहा ॥ ४ ॥ अनेन दन्तधावनं दन्तानां कुर्यात् ।। इस मंत्र को पढ़कर दाँतोंको जलसे साफ करे ॥ ४ ॥ कुरले करनाः चतुरष्टद्विषद्रद्व्यष्टगण्डूषैः शुध्यते क्रमात् । मूत्रे पुरीषे भुक्त्यन्ते मैथुने वान्तिसम्भवे ॥ ५९ ॥ पेशाब करनेके बाद चार कुरले करनेसे और टट्टीके बाद आठ कुरले करनेसे मुखकी शुद्धि होती है। भोजन के बाद दोसे, मैथुनके बाद छहसे और उल्टीके बाद सोलह कुरलोंसे मुख सफा होता है ॥ ५९ ॥ पुरतः सर्वदेवाश्च दक्षिणे व्यन्तराः स्थिताः । ऋषयः पृष्ठतः सर्वे वामे गण्डूषमुत्सृजेत् ॥ ६० ॥ पूर्वकी तरफ प्राय: सब देवोंका निवास रहता है, दक्षिण तरफ व्यंतरोका निवास हैं सब ऋषि प्रायः पश्चिमकी ओर निवास करते है, अत: इन तीन दिशाओंमें कुरला न फेंके, अपनी बाईं ओर फेंके ॥ ६० ॥ पुनः पुनश्च गण्डूषनिष्ठीवं दूरतस्त्यजेत् । प्राङ्मुखोदङ्मुखो वा हि द्विराचम्य ततः परम् ॥ ६१ ॥ मौनतः पुण्यकाष्ठेन दन्तधावनमाचरेत् । मुखे पर्युषिते यस्माद्भवेदशुचिभाङ्गनरः ॥ ६२ ॥ और किन्तु Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwvvv सोमसेनमारकीपरचितकुरलाको बारबार अपनी जगह से कुछ दूर फेक जिससे कि अपने उपर पुनः छीटेंग्न आवें । इसके बाद पूर्वको या उत्तरकी ओर मुँह करके दो बार आचमन केरे । पश्चात् मौनयूर्वक योग्य दतौनसे दन्तवन करे। जो इस तरह मुखाद्धि न कर वासी मुँह रहती है वह मनुष्य महा अशुद्ध होता है । ६१-६२ ॥ करने योग्य दत्तौन । खाशरश्च करिञ्जश्च कदम्बश्च वटस्तथा । तित्तिणी वेणुवृक्षश्च निम्ब आम्रस्तथैव च ॥६३ ॥ अपामार्गश्च बिल्वश्च हर्क आमलकस्तथा । एते प्रशस्ताः कथिता दन्तधावनक्रमेसु ॥६४ ॥ खदिर, करंज, कदंब, बड़, इमली, वेणुवृक्ष, नीम, आम, अपामार्ग, बिल्व, अर्क और आवलेकी दतौन दाँतोंके साफ करनेके लिए प्रशस्त कही गई है । ६३-६४ समिधा क्षीरवृक्षस्य प्रमाण द्वादशाङ्गुलम् । कनिष्ठियासमस्थूलं पूर्वार्द्धन त्रिरुक्षिते ( ? ) ॥ ६५ ।। क्षीर वृक्षोंकी दतौन बारह अंगुल लंबी और कनिष्ठा उँगलीके जितनी मोटी होनी चाहिए ॥६५ ।। न करने योग्य दतौन:गुवाकतालहिन्तालकेतक्यश्च महावटेः। खर्जूरी नालिकरश्च सप्तैते तृणराजकाः ॥६६॥ तृणराजसमोपेतो यः कुर्यादन्तधावनम् । निर्दयः पापभागी स्यादनन्तकायिकं त्यजेत् ।। ६७ ॥ सुपारी, ताड़, हिंताल, केतकी, महावट, खजूर, और नारियल ये सात वृक्ष तृणराज माने गये हैं । इन तृणराजोंकी दतौनसे जो पुरुष दतौन करता है यह निर्दयी और पापी होता है । क्योंकि इनकी दतौनके भीतर अनन्त जीव रहते हैं, अतः इनकी दत्तौनका त्याग करे ॥६६-६७ ॥ द्वितीया पञ्चमी चैव ह्यष्टम्येकादशी तथा । चतुर्दशी तथैतासु दन्तधावं च नाचरेत् ॥ ६८ ॥ अर्कवारे व्यतीपाते संक्रान्तौ जन्मवासरे । वर्जयेद्दन्तकाष्ठं तु व्रतादीनां दिनेषु च ।। ६९ ।। दौज, पंचमी, अष्टमी, ग्यारस और दस इन पाँचों पंवामें काष्ठकी दतौनसे दन्तवन न करे । तथा रविवार, अशुभ दिन, संक्रान्ति, अपना जन्मदिन और दर्शलक्षण, रत्नत्रय, अष्टान्हिका आदि व्रतोंके दिन भी न करे ॥ ६८-६९ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृणपणः सवा कुर्यादीचा नि . तस्यामपि चा कर्ता शुभकामनाविवार्चमे ॥ ७ ॥ एक चतुर्दशीको छोड़कना बाकीको समी दिनोंमतिनके और पत्तोंसे दाँत साफ करे । चतुदशीके दिन यदि जिन भगवानकी पूजा करनी हो तो सूखी हुई दतौनसे दाँझ साफ करे।॥७॥ सहस्रांशामकुवित्यः कुर्मान्तावावानम् । सा पापी मरफांयाति सर्वजीवदामानिगाः॥१॥ सूर्यके उगने के पहले जो दत्तौन करता है वह पापी है, जीवोंकी दयासे पसंमुख है और मरणको प्राप्त होता है । भावार्थ-यह भयप्रदर्शक वाक्य है, इसका सारांश इतना ही है। किं सूर्यो दयसे पहले दतौन करना हानिकारक हैं।.७१:॥ अङ्गारकालुकामिक भलादिनखरैस्तथा। इष्टकालोष्ठपाषाणैन कुर्याद्दन्तधावनम् ॥ ७२ ॥ कोयला, बालू, राख, नख, ईट, मिट्टीका ढेलन और पत्थरसें दाँत न घिसे.॥ ७२ ॥ अलामो दस्तकाछामानिषिछापां निपावर्षिः ।। अषां द्वादशगाहौसेखशुद्धि प्रजायते॥७३॥ यदि लकड़ीकी दतौन न मिले तो जलके बारह कुरले करनेसे ही मुखशुद्धि हो जाती है। और निषिद्ध तिथियोंमें भी ऐसा करनेसे।मालकिहोनछ है ॥ ७३ ॥ नेत्रयो सिकायाश्च कर्णयोंविवराणि च । नखान् स्कन्धौ च कक्षादि शोधयेदम्भसा नरः ॥७४ ॥ नेत्र, नाक, कान, नख, कन्धे और बगल आदिको भी जलसे शुद्ध करे ॥ ७४ ॥ जलाशये न कर्तव्यं निष्ठावं-मुखवावलम् । किञ्चिद्रेऽपि तीरस्य पुनर्नार्याक्ति तययाः॥७५ ॥ जलाशयके भीतर न तो यूँके और न मुँह धोवे । तीरसे कुछ हटकर कुरला वगैरह फेंके जिससे कि वह वापिस लौटकर जलाशयमें न आवे ॥ ७५ ॥ तोयेन देहद्वाराणि सर्वतः शोधयेत्पुनः । आचमनं ततः कार्य त्रिवार प्राणशुद्धये ॥ ७६ ॥ शरीरके सभी छिद्रोंको एक एक करके जलसे साफ करे । इसके बाद प्राणशुद्धि के लिए तीन बार आचमन करे ।। ७६ ॥' Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सोमसेनभंद्वारकाविरचित आचमनं सदा कार्य स्नानेन रहितेऽपि च । आचमनयुतो देही जिनेन शौचवान्मतः ॥ ७७ ॥ स्नान न करने पर भी आचमन अवश्य करे। क्योंकि आचमनयुक्त प्राणीको श्रीजिनदेवने शुद्ध माना है ॥ ७७ ॥ 1 सन्ध्याया लक्षणं मुद्रा आचमस्यापि लक्षणम् । कथयिष्यामि चाग्रेऽहं स्वानस्य विधिरुच्यते ॥ ७८ ॥ संध्या और आचमनका लक्षण तथा मुद्राओंको आगे चलकर कहेंगे । यहाँ अब स्नानकी विधि बताते हैं ॥ ७८ ॥ तैलस्य मर्दनं चादौ कर्तव्यमन्यहस्तकैः । यथा सर्वाङ्शुद्धिः स्यात्पुष्टिश्वापि विशेषतः ।। ७९ ।। स्नान के पहले दूसरेसे तैलका मालिश करावे । इससे सारे शरीरकी शुद्धि होती है तथा शरीर भी पुष्ट होता है ॥ ७९ ॥ पात्रदानं स्वहस्तेन परहस्तेन मर्दनम् । तिलकं गुरुहस्तेन मातृहस्तेन भोजनम् ॥ ८० ॥ पात्रों को दान हमेशा अपने हाथसे दे, दूसरेके हाथसे तैलकी मालिश करावे, गुरुके हाथसे तिलक करावे और माताको परोसा भोजन करे ॥ ८० ॥ तेलमर्दन विधि | अष्टम्यां च चतुर्दश्यां पञ्चम्यामर्कवासरे । व्रतादीनां दिनेष्वेव न कुर्यात्तैलमर्दनम् ॥ ८१ ॥ अष्टमी, चतुर्दशी, पंचमी, रविवार और व्रतके दिनोंमें तेलकी मालिश न करे ॥ ८१ ॥ चरे विल शशिजीवभौमे, रिक्तातिथौ स्यादुभये च पक्षे । तैलावलेपं तु मृदाविधृत्यं ( 2 ) स्नानं नराणां विरुजत्वकारि ॥ ८२ ॥ चरल, सोमवार, बृहस्पति वार, दोनों पक्षोंकी रिक्त तिथि इन दिनोंमें तेल मालिश करके स्नान करना नीरोरोताका कारण है ॥ ८२ ॥ हस्ते ऐन्द्रे च रेवत्यां सौम्ये चार्द्रापुनर्वसौ । स्नातो तान्वितो जीवो व्याधिना नैव बाध्यते ॥ ८३ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..त्रैवर्णिकाचार। ४१ m जोहस्त, धनिष्ठा, रेवती, मृग, आर्द्रा और पुनर्वसु इन नक्षत्रोंमें तेल मालिश करके स्नान करता है, व्रत पालता है उसे कभी रोग नहीं सताते ॥ ८३ ॥ सोमे कीर्तिः प्रसरति वरा रौहिणेये हिरण्यं, . देवाचार्ये तरणितनये वर्धते नित्यमायुः ।.. तैलाभ्यगात्तनुजमरणं दृश्यते सूर्यवारे, .. भौमे मृत्युर्भवति नितरां भार्गवे वित्तनाशः ॥ ८४ ॥ सोमवारके दिन तेल लगाकर स्नान करनेसे कीर्ति फैलती है, बुधवारके दिन सुवर्णकी प्राप्ति होती है, गुरुवार और शनिवारको आयु बढ़ती है, रविवारको पुत्रका मरण और मंगलवारको खुदका मरण होता है, तथा शुक्रवारके दिन तेल लगाकर स्नान करनेसे धन-क्षय होता है ॥ ८४ ॥ विवाहे यदि सम्पत्तौ सूतकान्ते महोत्सवे । रजसि मित्रकार्येषु स्नापयेत्सर्ववासरे ॥ ८५॥ विवाहमें, सूतकके आखिरी दिन होनेवाले उत्सवमें और मित्रके कार्योंमें जब चाहे तब तेल लगाकर स्नान करे । तथा रजस्वला स्त्री भी जब चाहे तब तेल लगाकर स्नान करे ॥ ८५ ॥ घृतं च सार्षपं तैलं यत्तैलं पुष्पवासितम् । न दोषः पकतैलेषु नाभ्यङ्गे नत्वनित्यशः ॥ ८६ ॥ __ घी, सरसोंका तेल और सुगंधित तेल मालिशके लिए योग्य है । तथा पकाया हुआ तेलका मालिश स्नानके दिवसोंमें योग्य है; अन्य दिनमें नहीं ॥ ८६ ॥ दश दिशासु सन्दद्यादलिं तैलस्य बिन्दुना । नखेषु लेपयेदादौ पूरयेत्कर्णचक्षुषी ॥ ८७ ॥ मालिश करनेके पेश्तर दशों दिशामें तेलके छींटे देवे और पहले नखों पर तेल चुपड़े, इसके बाद कानोंमें और नेत्रोंमें डाले ॥ ८७ ॥ अन्योच्छिष्टं च जन्तूनां मृतानां च कलेवरैः।। मिश्रितं चर्मपात्रस्थं वर्जयेत्तैलमर्दनम् ॥ ८८॥ . जो दूसरोंके लगाये हुए तेलमेंसे बचा हुआ हो, जिसमें जीव-जन्तु पड़कर मर गये हों और जो चमड़ेकी कुष्पी वगैरहमें रक्खा हुआ तो उस तेलका मालिश न करे ॥ ८८ ॥ मृत्तिकाभिस्त्यजेत्तैलं सुगन्धान्यैश्च वस्तुभिः । खलेनाम्रफलेनापि नान्यथा शुचितां व्रजेत् ॥ ८९ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमालामरावत w wwwwwwww .. मिट्टी मिले हुए, धान्य मिले हुए, खटाई बगैरहसें मिले हुए तेलसे मालिश करना चाहिए अन्यथा इससे अपवित्रता ही होगी ॥ ८९॥ स्नानविधि। उष्णोदकेन पश्चात प्रासुके निर्मल स्थल। स्नानं कुर्याद्यथा श्राद्धो जीववाया न जायते ॥ ९ ॥ तेल मालिसके बाद, जीव-जन्तु रहित साक शिला वगैरहपर बैठकर गर्म-जलसे स्नान करे । स्नान बड़ी सावधानीसे करे कि जिससे जीवोंको पीड़ा न पहुँचे ॥ ९० ॥ कषायद्रव्यमिश्रेण सुवस्त्रशोधितेन वा। नातिस्तोकेन नीरेण स्नायाद्वा नातिभूरिणा ॥ ९१॥ ऐसे जलसे स्नान करे जो म तो बहुत ही थोड़ा हो और न बहुत ही जियादा हो । वह छना हुआ हो या उसमें कुछ कसैला पदार्थ मिला हुआ हो ॥ ९१ ॥ पाषाणस्फालितं तोयं सन्तप्तं सूर्यरश्मिभिः। . पशुभिर्धातितं पादैः प्रासुकं निरागतम् ॥ ९२ ॥ रेणुकायन्त्रिभिर्जातं तथा गम्धकवासिंतम् । ... प्रासुकं स्नानशौचाल न तु पानाप शस्यते ।। ९३ ।। पत्थरोंसे टकराया हुआ, सूर्यकी धूपसे संतप्त हुआ, पशुओंके पैरोंसे मथा हुआ, मिर्झरोंका बहा हुआ, रेणु और यंत्रके द्वारा प्रासुक किया हुआ तथा सुगंधि आदिके द्वारा प्रासुक किया हुआ जल स्नान और शौचके लिए प्रासुक माना गया है । पीनेके लिए यह जल प्रासुक नहीं है ॥ ९२॥९३॥ मिथ्यादृष्टिभिरज्ञानैः कुततीर्थानि यानि वै। . तेषु स्नानं न कर्तव्यं भूरिजीवनिपातिषु ॥ ९४ ॥ अज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंने जिन्हें तीर्थस्थान बना रक्खे हैं बहुतसे जीवोंके नाशके कारण ऐसे तीर्थोंमें कभी स्नान न करे ॥ ९४ ॥ यदि तत्रैव गन्तव्यं कुसङ्गासदोषतः । तस्माद्धृत्वा जलैः स्नायाद्भिनदेशे सुशोधिते ॥ ९५ ॥ यदि कदाचित् खोटी संगतिमें फँसकर उन तीर्थस्थानोंमें स्नान करनेके लिए चला जाय तो वहाँसे किसी पात्रमें जल लेकर दूसरे जीव-जन्तु रहित पवित्र स्थानमें बैठकर स्नान करे ॥ ९५ ॥ पञ्चेन्द्रियशवस्पर्श विना तैलं न शुध्यति । ब्रह्मचारियतीनां तु न योग्य तैलमर्दनम् ॥ ९६ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचेंद्रिय जीवोंके मुर्दा शरीरके स्पर्श हो जानेपर बिना तेल लगाये झुद्धि नहीं होती परंतु ब्रह्मचारियों और यतिओंको तेल मर्दन करना योग्य नहीं है ! ९६ ॥ सप्ताहान्यम्भसास्नायी गृही शूद्रत्वमाप्नुयात् । तस्मात्स्नानं प्रकर्तव्यं रविवारे तु वर्जयेत् ॥ ९७ ॥ यदि गृहस्थ लगातार सात दिन तक स्नान न करे तो शूद्र तुल्य हो जाता है । इसलिए रविवारको छोड़कर स्नान अवश्य करना चाहिए ॥ ९७ ॥ अत्यन्तं मलिनः कायो नवच्छिद्रसमन्वितः । स्रवत्येव दिवा रात्रौ प्रातः स्नानं विशोधनम् ॥ ९८ ॥ यह शरीर अत्यन्त ही महा मलिन है, बड़े बड़े नौ छिद्रोंसे युक्त है जिनमेंसे रात-दिन घिनावने दुर्गन्ध युक्त मल, मूत्र, नाक, लार, खँखार आदि झरते रहते हैं । इस लिए प्रातः स्नानके द्वारा इसे शुद्ध करनेका उपदेश है ॥ ९८ ॥ प्रातः स्नातुमशक्तश्चेन्मध्यान्हे स्नानमाचरेत् । स्वयं त्रिपाऽथवा शिष्यैः पुत्रैरुद्धृतवारिभिः ॥ ९९ ॥ ४३ जो पुरुष प्रात:काल स्नान करनेमें असमर्थ है वह स्वयं अपने द्वारा, या अपनी स्त्री द्वारा, या अपने शिष्यों द्वारा, या अपने पुत्रों द्वारा लाये हुए जलसे मध्याह्नमें स्नान करे ॥ ९९ ॥ न स्नायाच्छूद्रहस्तेन नैकहस्तेन वा तथा । नागालितजलेनापि न दुर्गन्धेन वारिणा ॥ १०० ॥ शूद्रों द्वारा लाये हुए जलसे स्नान न करे, एक हाथसे भी न करे और अनछने तथा दुर्गन्धित जलसे भी स्नान न करे ॥ ९०० ॥ कराभ्यां धारयेद्दर्भ शिखाबन्धं विधाय च । प्राणायामं ततः कुर्यात्सङ्कल्पं च समुच्चरेत् ॥ १०१ ॥ अपनी चोटीके गाँठ लगा ले और दोनों हाथोंमें दूब पकड़ के, इसके बाद प्राणायाम और संकल्प करे ॥ १०१ ॥ द्विराचम्य निमज्याथ पुनरेवं द्विराचमेत् । मन्त्रेणैव शिखां बध्वा प्राणायामं च वे पुनः ॥ १०२ ॥ स्नात्वाऽथ देहं प्रक्षाल्य पुनः स्वात्वा दिराचयेत् । पंचपरमेपिदैर्नवनिर्मार्जच ॥ १०३ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहाकावचित साङ्गुष्ठयज्ञसूत्रेण त्रिः प्रदक्षिणमाचरेत् । याः प्रवर्तन्त इति जले इदं मेत्र प्रवर्तनम् (१)॥ १०४॥ दोवार आचमन करके स्नान करे, फिर दो वार आचमन करे, पुनः मंत्रोच्चारण पूर्वक चोटीके गाँठ लगाकर प्राणायाम करे । इसके बाद स्नान कर शरीरको पोंछे, पुनः स्नान कर दो वार आचमन करे । इसके बाद नो वार पंचपरमेष्ठी पदको उच्चारण कर मार्जन करे। और अँगूठेके साथ साथ पज्ञोपवनीतको तीन दक्षिणाकार फिरा ले ॥ १०२ ॥ १०३॥ १०४ ॥ सङ्कल्प सूत्रपठनं मार्जनं चाघमर्षणम् । देवादितर्पणं चैव पंचागं स्नानमाचरेत् ॥ १०५ ॥ संकल्प करना, मंत्र पढ़ना, मार्जन करना, अघमर्षण करना और देवोंका तर्पण करना ये पाँच स्नानके अंग हैं ॥ १०५ ॥ गृहस्याभिमुखं स्नायान्मार्जन चाघमर्षणम । अन्यत्रार्कमुखो रात्रौ प्रामुखोदङ्मुखोऽपि वा ॥ १०६ ।। यदि घरपर ही स्नान करना हो तो घरकी और मुँह करके स्तान, मार्जन और अघमर्षण करे । यदि और और ठौर स्नान करना हो तो पूर्वकी ओर मुख करके स्नानादि करे । तथा रात्रिके समय स्नान करनेका मौका आवे तो पूर्व या उत्तरको मुख करके स्नानादि क्रिया करे ॥ १०६ ॥ सन्ध्याकालेर्चनाकाले संक्रान्तौ ग्रहणे तथा । , वमने मद्यमांसास्थिचर्मस्पर्शेऽगनारतौ ॥ १०७ ॥ अशौचान्ते च रोगान्ते स्मशाने मरणश्रुतौ । दुःस्वप्ने च शवस्पर्शे स्पर्शनेऽन्त्यजनेऽपि वा ॥ १०८ ॥ स्पृष्टे विण्मूत्रकाकोलूकश्वानग्रामस्करे । ऋषीणां मरणे जाते दूरान्तमरणे श्रुते ॥ १०९॥ उच्छिष्टास्पृश्यवान्तादिरजस्वलादिसंश्रये । अस्पृश्यस्पृष्टवस्त्रानभुक्तपत्रविभाजने ॥ ११० ॥ शुद्धे वारिणि पूर्वोक्तं यन्त्र मन्त्रे ( १ ) सचेलकः । कुर्यात्स्नानत्रयं जिहादन्तधावनपूर्वकम् ॥ १११॥ अर्घ च तर्पणं मन्त्रजपदानार्चनं चरेत् । . बाहिरन्तर्गता शुद्धिरेवं स्याद्गृहमेधिनाम् ॥ ११२ ।। . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्ध्या के समय, पूजा के समय, संक्रान्तिके दिन, ग्रहणके दिन, उल्टी हो जानेपर, मदिरा, मांस हड्डी, चर्म, इनका स्पर्श हो जाने पर, मैथुन करनेपर, टट्टी होकर आने पर, बीमारी से उठने पर, मशान घाट के ऊपर जानेपर, किसीका मरण सुनने पर, खराब स्वप्न के आनेपर, मुर्दे से छू जानेपर, चांडालादिका स्पर्श हो जानेपर, विष्ठा मूत्र, कौआ, उलू, स्वान, ग्राम-शूकरोंसे छू जानेपर, ऋषि मृत्यु हो जानेपर, अपने कुटुंबी की दूरसे या पाससे मरणकी सुनावनी आनेपर, उच्छिष्ठ, अस्पर्श, वमन, रजस्वला आदिका संसर्ग हो जानेपर, अस्पर्श मनुष्योंके हुए हुए वस्त्र, अन्न, भोजन, आदिसे छू जाने पर और जीमते समय पत्तल फट जानेपर, दतौन के साथ साथ पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रे पूर्वक शुद्ध जलसे तीन वार स्नान करे, अपने पहने हुए सब कपड़ों को धोवे तथा अर्घ, तर्पण, मंत्र, जप, दान, पूजा वगैरह सब कार्य करे । इस तरह करनेसे गृहस्थियोंकी बाह्य अभ्यन्तर शुद्धि होती है ॥ १०७ ॥ ११२ ॥ इत्येवं गृहमेधिनां शुचिकरः स्वाचारधर्मो मया, प्रोक्तो जैनमतानुसारसकलं शास्त्रं समालोक्य वै, शौचाचारवृषं विना तनुभृतां नास्त्यत्र धर्मः कचित्, मन्त्राँस्तस्य विधानतो भवभिदः संक्षेपतः कथ्यते ॥ ११३ ॥ ४५ जैनमतके कितने ही शास्त्रोंका अवलोकन कर यह उपर्युक्त गृहस्थोंकी बाह्यशुद्धि करनेवाले आचरका कथन किया गया। क्योंकि गिरस्तोंका बिना शौचाचार के इस संसारमें कहीं पर और कोई धर्म नहीं है । अब संसार नाशके कारण शौचाचार सम्बन्धी मंत्रोंका विधिपूर्वक संक्षेपसे कथन किया जाता है ॥ ११३ ॥ ॐ ही क्ष्वी स्नानस्थानभूः शुद्धयतु स्वाहा । इति स्नानस्थानं शुचिजलेन सिञ्चयेत् । यह मंत्र पढ़कर स्नान करनेकी जगहको पवित्र जलसे सींचे । ॐ हाँ ही हूँ हाँ हः असि आ उ सा इदं समस्तं गंगासिंध्वादिनदीनदतीर्थजलं भवतु स्वाहा । इत्यनेन स्नानजलं हस्ताग्रेण स्पृशेत् । इस मंत्र को बोल कर अपने हाथसे स्नानके जलको छूवे । झं ठं स्वरावृतं योज्यं मण्डलद्वयवेष्टितम् । तोये न्यस्याग्रतर्जन्या तेनानुस्नानमावहेत् ॥ ११४ ॥ इत्युक्तं मंत्रं जलमध्ये लिखित्वा मंत्रयेत्ततः ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनानिचित manus ____एक गोल मण्डल सींचे, उसके बीच में सं और हम दो वीजाक्षरोंको लिखे और उसके बाहर चारों और अ आ आदि सोलह स्वर लिखे तथा उनके चारों और एक मंडल और खींचे। इस प्रकारका यंत्र अपने स्नान-जलमें तर्जनीके अग्रभागसे बनाने, पीछे उस जलसे स्नान करे । इस कहे हुए यंत्रको जलमें लिखकर इस नीचे लिखे मंत्रसे उसे मंत्रित करे ॥ ११४।। ततः वी वी है सः। इति बीजाक्षरप्रयुक्तसुरभिमुद्रां प्रदर्शयन्मन्त्रामिमं पठेत् ॥ ..इस तरह बीजासों से युक्त सुरभिमुद्राको दिखाता हुआ इस मंत्रको पड़े । ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लूं द्रां द्रां द्रीं द्री द्रावय द्रावय हे झंझ्वी क्ष्वी हंसः असि आ उ सा , सर्वमिदममृतं भवतु स्वाहा । इति मन्त्रेण स्नानजल ममृतकृत्य तत्र त्रिः पश्चकृत्वो वा-- - इस मंत्र द्वारा स्नानजलमें अमृतकी कल्पना कर तीन वार या पाँच वार ॐ ही अहे नमः मम सर्वकर्ममलं प्रक्षालय प्रक्षालय स्वाहा । इति मंत्रेण कुण्डलजलमध्ये प्लावनं कुर्यात् । इस मंत्रद्वारा उस जल में सुबकी लमाये । तत उत्थाय पूर्ववदाचम्य-ॐ ही श्रीं क्लीं ऐं अर्ह अ सि आ उ सा जलमार्जनं करोमि स्वाहा । मम समस्तदुरितसन्तापापनोदोऽस्तु स्वाहा । इति विरुवार्य हस्ताप्रेम मार्जनं कृत्वा तदन्ते चुलकोदकेन त्रिः परिक्षेचनं एकवार कुर्वात् । इसके बाद उठकर पहलेके मानिंद आचमन कर इस मंत्रका तीन वार उच्चारण करे और हाथोंसे अपने शरीरको मले । इसके मद बुल्लूमें जल लेकर अपने चारों और एकवार तीन परिषेचन करे। भूयः स्नाका आपया सब बलवर्याइ । मधवा-- Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | इसके बाद पुनः स्नान कर और आचमन कर वहीं पर वर्पण करे। सो ही दिखाते हैं । ॐ हां अर्हद्भयः स्वाहा ॥ १ ॥ ॐ नहीं सिद्धेभ्यः स्वाहा ॥ २ ॥ ॐ हूं सूरिभ्यः स्वाहा ॥ ३ ॥ ॐ हौं पाठकेभ्यः स्वाहा ॥ ४ ॥ ॐ हः सर्वसाधुभ्यः स्वाहा ॥ ५ ॥ ॐ ही जिनधर्मेभ्यः स्वाहा ।। ६ ।। ॐ ह्रीं जिनागमेभ्यः स्वाहा ॥ ७ ॥ ॐ व्हां जिनचैत्येभ्यः स्वाहा ॥ ८ ॥ ॐ हां जिनालयेभ्यः स्वाहा ॥ ९ ॥ ॐ हां सम्यग्दर्शनेभ्यः स्वाहा ॥ १० ॥ ॐ हां सम्यग्ज्ञानेभ्यः ः स्वाहा ॥ ११ ॥ ॐ हां सम्यक्चारित्रेभ्यः स्वाहा ।। १२ ।। ॐ हां सम्यक्तपोभ्यः स्वाहा ॥ १३ ॥ ॐ हां अस्मद्गुरुभ्यः स्वाहा ॥ १४ ॥ ॐ हां ॥ अस्मद्विद्यागुरुभ्यः स्वाहा ॥ १५ ॥ इति पञ्चदश तर्पणमंन्त्राः । एतैस्तर्पणं कुर्यात् ॥ ततो जलान्निर्गमनक्रिया अग्रे वक्ष्यते । ४७ ये पंद्रह तर्पण मंत्र हैं, इनसे तर्पण करे। इसके बाद जलसे निकल कर क्या क्या क्रिया करे इसका जिंकर आगे के अध्यायमें किया जायेगा । शौचाचारविधिः शुचित्वजनकः प्रोक्तो विधानागमे, पुंसां सद्व्रतधारिणी गुणवतां योग्यो युगेऽस्मिन्कलौ । श्रीभट्टारकसोमसेनमुनिभिः स्तोकोऽपि विस्तारतः, प्रायः क्षत्रियवैश्यविप्रमुखकृत् सर्वत्र शूद्रोऽप्रियः ।। ११५ ॥ क्रियाशास्त्रोंमें शरीरको पवित्र बनानेवाली यह शौचाचारविधि कही गई है जो इस कलियुगमें गुणी, व्रती गृहस्थों के योग्य है । यह विधि शास्त्रोंमें बहुत ही संक्षेपसे कही गई है । वही कुछ विस्तार लिए हुए सोमसेन भट्टारकके द्वारा यहाँ कहीं गई हैं। क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णोंको सुखी बनाने को कहीं है । शूद्रोंको इस करना सुखकर नहीं है ॥ ११५ ॥ यह विधि प्रायः ब्राह्मण, उपर्युक्त शौचाचारविधिका Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय। वीरनाथं प्रणम्यादौ सर्वपापविनाशकम् । जलाभिर्गमनं पश्चारिक कर्तव्यं तदुच्यते ॥ १॥ आरंभमें सम्पूर्ण पापोंके विनाश करनेवाले वीर भगवानको नमस्कार कर, जलसे बाहर निकले बाद क्या करना चाहिये, यह बताया जाता है ॥ १॥ नीरानिर्गमनं जलाशयतटे वस्त्रादिकप्रोक्षणं, ... वस्त्राणां परिधारणं समतले भूमेश्च शुद्धे ततः। सुश्रोत्राचमनं च मार्जनविधि सन्ध्याविधि चोत्तम, वक्ष्यामि क्रमशः क्रियाविधिमतां शुद्धाः क्रियाः षड्डिधाः ॥२॥ जलसे बाहर जलाशयके तट पर आना, वस्त्र आदिका संप्रोक्षण करना, सपाट और शुद्ध भूमि पर खड़ा रहकर वस्त्र धारण करना, श्रोत्राचमन, मार्जनविधि, और सन्ध्याविधि ये छह परम पवित्र क्रियाएँ क्रमसे कही जाती हैं ॥२॥ जलान्निस्मृत्य प्रास्थाने निर्मले जन्तुवर्जते । अन्तरङ्गविशुध्द्यर्थ स्थित्वार्हत्स्नानमाचरेत् ॥३॥ जलसे बाहर निकल कर पवित्र जीव-जन्तु रहित स्थानमें बैठकर, अंतरंग शुद्धिके लिर आगे लिखे अनुसार अर्हत स्नान करे ॥ ३॥ हस्ताभ्यां जलमादाय सकृदेवाभिमन्त्रितम। मस्तके च मुखे बाह्वोर्हृदये पृष्ठदेशके ॥४॥ अभिषिञ्चेत्स्वमात्मानं मन्त्रैः सुरभिमुद्रया। एकवृत्या जपेच्छक्त्या भक्त्या पंचनमस्क्रियाम् ॥५॥ दोनो हाथोंमें जल लेकर उसे मंत्रद्वारा मंत्रित कर, मंत्रोच्चारण पूर्वक मस्तक, मुख, दोनों भुजा, हृदय, पीठ आदि स्थानोंमें अपनी आत्माका आभिषेचन करे । पश्चात् सुरभिमुद्रा द्वारा एकचित्त हो कर, अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिभावसे पंच नमस्कार मंत्रका जाप करे ॥ ४ ॥५॥ शास्त्रोक्तविधिना स्नात्वा द्विराचम्य ततः परम् । प्राणायामं ततः कृत्वा सङ्कल्प्य तर्पयेदथ ॥ ६॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ... ___ इस प्रकार शास्त्रोंमें कही हुई विधिके अनुसार स्नान कर दो वार आचमन करे । पश्चात् प्राणायाम कर संकल्प करे । इसके बाद तर्पण करे ॥ ६॥ अक्षतोदकपूर्णेन देवतीर्थेन तर्पयेत् । जयादिदेवताः सर्वाः प्राङ्मुखश्चोपवीत्यथ ॥७॥ पूर्व दिशाकी तरफ मुख कर ययोपवीत-युक्त होकर, अर्थात् बायें हाथमें जनेऊ डालकर और हाथमें अक्षत और जल लेकर देवतीर्थसे सम्पूर्ण जयादि देवतोंका तर्पण करे। उँगालियोंके अग्रमागकी देवतीर्थ संज्ञा है ॥ ७॥ उदङ्मुखो निवीती तु यवसम्मिश्रितोदकैः । गौतमादिमहर्षीणां तर्पयेषितीर्थतः ॥८॥ उत्तर दिशाकी ओर मुख कर यज्ञोपवीतको गलेमें मालाकी तरह लटका कर जव और जलके द्वारा ऋषितीर्थसे गौतमांदि महर्षियोंका तर्पण करे । उँगलियोंके भागको ऋषितीर्थ कहते हैं ॥८॥ दक्षिणाभिमुखो भूत्वा प्राचीनावीत्यनातपम् (१)। तिलैः सन्तर्पयेत्तीर्थपितरो वृषभादयः॥९॥ दक्षिण दिशाकी तरफ मुख कर, प्राचीनावीति अर्थात् दाहिने हाथमें यज्ञोपवीत डाल कर, तिलों द्वारा ऋषभादि तीर्थपितरोंका पितृतीर्थसे संतर्पण करे । अँगूठा और अँगूठेके पासकी उँगली इन दोनोंके मध्यमागका नाम पितृतीर्थ है ॥ ९ ॥ यन्मया दुष्कृतं पापं शारीरमलसम्भवम् । तत्पापस्य विशुध्द्यर्थं देवानां तर्पयाम्यहम् ॥ १० ॥ जो मैंने शारीरिक मल द्वारा पाप किया है उस पापकी शुद्धिके लिए मैं देवोंका तर्पण करता हूँ। भावार्थ-देहशुद्धिके लिए आचमन, तर्पण, प्राणायाम आदि विषय शास्त्रोंमें स्थान स्थान पर पाये जाते हैं । इससे यह बात सिद्ध नहीं होती कि वे सब हिंदूधर्मसे ही लाये गये हैं । यदि ऐसा ही मान लिया जाय कि ये सब विषय हिंदूधर्मके ही हैं, जैनोंके नहीं हैं तो यह बात किस आधारसे कही जाती है । यदि बिना शास्त्रोंके प्रमाणके मनमानी युक्तियों द्वारा कही जाती है तो वह युक्ति शास्त्रविरुद्ध होनेके कारण युक्ति नहीं है, किन्तु युक्त्याभास है । जो लोग इस विषयको हेय बतलाते हैं वे तो पूजा, प्रतिष्ठा, मूर्तिपूजन आदिको भी हिंदूधर्मसे आया बतलाते हैं तो क्या पूजा, प्रतिष्ठा, मूर्तिपूजा संबंधी ऋषिप्रणीत सैकड़ों शास्त्रोंको छोड़कर उनकी बात मान ली जावे ? खैर, कल्पना करो कि परीक्षित बातको मान लेनेमें क्या हर्ज है तो कहना पड़ेगा कि इसका नाम 1 इस श्लोककी रचना खटकती है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेमभाधारकाविरक्षित परीक्षा नहीं है जो अपने मतलबकी बातको मान लेना और बाकीको छोड़ देना। वह कहाँका न्याय है ? मानी भी वह बात जा सकती है जो निश्चित हो। पहले जो लोग कुछ ही कहते थे, आब के कुछ ही कहते हैं तो क्या पूर्वापर विरुद्ध वचन अथवा उस वचनका लिखने बोलनेवाला प्रमाणभूत हो सकता है, कभी नहीं । जिनने गुरुमुखसे शास्त्र ही नहीं देखे हैं, न उनका मनन ही किया है, न उस भाषाकी योग्यता ही रखते हैं, जिनके वचनोंको पढ़कर अथवा सुनकर जनता हँसी उड़ाती है और उनकी गलतियों पर खेद जाहिर करती हैं ऐसे पुरुष भी प्रमाण रूप माने जायें और उनकी बातोंमें कुछ तथ्य समझा जाय तो मलीकूचोंमें फिरनेवाले मनमाना चिल्लानेवाले पुरुष भी क्यों न अच्छे माने जायें और क्यों न उनकी बातोंमें सार समझा जाय । इस लिए कहना पड़ेगा कि जिस परीक्षामें अमूल्य रत्न फेंक कर निःसार काचका टुकड़ा ग्रहण करना पड़े यह परीक्षा किसी कामकी नहीं है। यदि जो जो विषय हिंदूधर्मसे मिलते हैं वे वे हिंदुओंके हैं तो जैनोंके घरका क्या है ? जैनोंके पास ऐसा कोई विषय नहीं है जो जैनधर्मसे बाथ लोमोके पास न पाया जाय । जैनोंके हर एक विषय किसी न किसी रूपमें सभी मतोंमें पाये जायेंगे । जैसे वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, स्नान करना, खाना, पीना, सोना, बैठना, पूजा करना, प्रतिष्ठा करना, स्वर्ग-नरककी. व्यवस्था, पुण्य-पापक संपादन, व्रतधारण, संन्यासधारण, तीर्थयात्रा, हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चौरी न करना, कुशील सेवन न करना, ईश्वरकी स्तुति करना, जीवका अस्तित्व स्वीकार करना, कर्मोके निमित्तसे' संसारमें पड़ा रहना, कर्मोंके अभावमें मुक्तिका होना । तब कहना पड़ेमा कि. इनमें जैनोंका कुछ भी नहीं है । ये सब बाहरसे ही आये हैं। अब न मालूम जैनोंके पास अपने घरकी पूँजी क्या रह जाती है। इस लिए ऐसे मनुष्योंकी बालों पर श्रद्धान नहीं करना चाहिए । जो लोग शासनदेवोंके नामसे ही चिढ़ते हैं और निरी मनमानी ऊटपटांम शंकायें ही उठाया करते हैं वे भी ऋषिप्रणीत मार्गकी अवहेलना करते हैं । श्रावकोंके कई दर्जे हैं । जिस दर्जेका जो श्रावक है उस दर्जेके श्रावकको वैसा करना अनुचित नहीं है । यह तर्पण आदिका विधान जैनधर्मसे बाहरका नहीं है । किन्तु जैनधर्मका ही है । ऋषिप्रणीत प्रतिष्ठापाठोंमें ये सब विषय स्पष्ट सतिसें विस्तारपूर्वक लिखे हुए हैं ॥ १० ॥ असंस्काराश्च ये कोचिजलाशाः पितरः सुराः। तेषां सन्तोषतृप्त्यर्थं दीयते सलिलं मया ॥११॥ जिनका उपनयन आदि संस्कार नहीं हुआ है ऐसे कोई हमारे कुलके पुरुष मरकर पितर-सुर (व्यन्तर जातिके देव ) हुए हों और जलकी आशा रखते हों तो उनके सन्तोषके लिए मैं जल समर्पण करता हूँ । भावार्थ-इस श्लोकमें असंस्कार पद पड़ा है। इससे मालूम होता है कि जिन पुरुषोंका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता है वे प्रायः मरकर व्यन्तर होते हैं। तथा ऐसा आर्षवाक्य भी है । यह बात सिद्धान्तसे निश्चित है कि व्यन्तरोंका निवास मध्यलोककी सम्पूर्ण पथिवीपर है। कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ कि व्यन्तर न रहते हों । उनका विचित्र स्वभाव हैं । यद्यपि वे स्वयं न कुछ खाते हैं और न पीते हैं, परन्तु फिर भी लोकमें वे ऐसी क्रियायें करते हैं जिनसे मालूम पड़ता है कि मानों ऐसा कार्य करते हों । इसी लिए अज्ञानी लोग यह कहा करते हैं कि Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंको मांस खाते, गायका गौत (पेशाब ) पीते हमने देखा है। यह हम कह चुके हैं कि वे स्वयं कुछ खाते पीते नहीं हैं । परंतु उनका स्वभाव है कि वे मनुष्योंके शरीरमें प्रवेश करते हैं और मनुघ्योंसे हर एक प्रकारके कार्य करा कर नाना प्रकारकी क्रीड़ा करते हैं। वे ऐसी क्रीड़ा करते हैं इस विषयमें किसीकी सन्देह हो तो स्वामी अकलंकदेवका बनाया हुआ राजवार्तिक ग्रन्थ देख लें । उसमें लिखा है कि उनकी प्रवृत्ति प्रायः क्रीड़ानिमित्तक है । अतः यह बात सिद्ध है कि वे ऐसी क्रीड़ायें करते हैं । यह बात केवल आनुमानिक और आगमसे ही प्रसिद्ध नहीं, किन्तु प्रत्यक्षमें इस समय भी अनेक व्यन्तर इस प्रकारकी क्रीड़ा करते हुए देखे जाते हैं। देव-देवियोंके ऊपर जो अनगिनतीके बकरे आदि चढ़ाये जाते हैं यह भी पूर्व समयमें उनके द्वारा किये हुए उपद्रवोंका फल है। तथा शास्त्रोंमें यह बात भी पाई जाती है कि जो जीव मरकर व्यन्तर होते हैं वे ही प्रायः उपद्रव करा करते हैं और उनसे कुछ क्रियायें करा कर शान्त हो जाते हैं। यह सब महापुराणादि शास्त्रोंमें व्यन्तर देवोंकृत बाधा बताई गई है । तथा यह भी बताया गया है कि इस तरह करने पर वह उपद्रव शान्त हुआ । जैसे होलिका आदिकी कथामें प्रसिद्ध है। सारांश ऐसा है कि व्यन्तरोंका अनेक प्रकारका स्वभाव होता है । अतः किसी किसीका स्वभाव जल ग्रहण करनेका है। किसी किसीका वस्त्र निचोड़ा हुआ जल लेनेका है । ये सब उनकी स्वभाविकी क्रियायें हैं । वर्तमानमें भी ये देव ऐसा करते हुए देखे जाते हैं । इससे यह बात तो स्पष्ट हो चुकी कि व्यन्तरोंका सर्वत्र निवास है और वे नाना प्रकारकी क्रीड़ा करते हैं । अतः यह लिखना कि जैनसिद्धान्तके अनुसार न तो देव पितरगण पानीके लिए भटकते या मारे मारे फिरते हैं और न तर्पणके जलकी इच्छा रखते हैं या उसको पाकर तृप्त और सन्तुष्ट होते हैं कितना अयुक्त है । जैनशास्त्रोंमें साफ लिखा हुआ है कि व्यन्तरोंका ऐसा स्वभाव है और वे क्रीड़ानिमित्त ऐसा करते हैं ऐसी क्रियायें करा कर वे शान्त होते हैं । जो बाते जैनशास्त्रोंमें साफ साफ पाई जाती है उनके ऊपर भी पानी फेरा जाता है । यद्यपि वे वस्त्र निचोड़ा जल पीते नहीं हैं, परंतु उनका स्वभाव है कि वे ऐसा कराते हैं और करानेसे खुश होते हैं । अतः इस विषयमें और भी जितना लिखते हैं वह भी सब ऊटपटांग ही है । लेखकको विश्वास जब हो कि वे लेखकोंके पास आवें और उनको अपना कर्तव्य दिखलावें । लेखकोंको जैनशास्त्रोंमें विश्वास न होनेके कारण या उसकी पूरी पूरी जानकारी न होनेके कारण या भोले भाले लोगोंको बहकाकर अपनी प्रतिष्ठा आदि चाहनेके कारण मजबूर होकर ऐसा लिखना पड़ा है। ऐसा लिखनेसे तो यही जाहिर होता है कि जो विषय लेखकोंकी आँखोंके सामने नहीं हैं ये हैं ही नहीं और न कभी ऐसे कोई कार्य होते थे । अब प्रश्न यह है कि क्या श्रावकोंको एसा करना चाहिए ? इसका उत्तर यह है कि श्रावकोंके अनेक दर्जे हैं, यद्यपि वे संख्या रूपमें भी गिनाये गये हैं, परन्तु फिर भी उनमें भी ऐसे बहुतसे सूक्ष्म सूक्ष्म अंश होते हैं जैसे मिथ्यात्व कर्मके अनेक अंश हैं। किसीके मिथ्यात्व किसी प्रकारका है और किसीके किसी प्रकारका है-सबके एक सरीखा नहीं है, परन्तु फिर भी वह मिथ्यात्व ही है । इसी तरह श्रावकोंके कुछ अंश ऐसे भी हैं जो अपने दर्जेमें ऐसा करते हैं और उस दर्जेमें वे ऐसा कर सकते हैं । ऐसा करनेसे उनका व्यवहारसम्यक्त्व नष्ट नहीं होता। व्यंतरोंको जल किसी उद्देश्यसे नहीं दिया जाता है। क्योंकि यह बात श्लोक ही साफ कह रहा है कि कोई बिना संस्कार किये हुए मर गये हों, मरकर व्यन्तर हुए हों और मेरे हाथसे जल लेनेकी वांछा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B सोमसेनभट्टारकविरचित रखते हों तो उनको मैं सहज देता हूँ। इसमें कहीं भी किसी विषयका उद्देश्य नहीं है । और न उनकी इच्छापूर्तिके निमित्त जल देनेसे मिथ्यादृष्टि ही हो जाता है । क्योंकि सच्चे देव, गुरु, शास्त्रसे द्वेष करना और कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र से रति करनेका नाम मिथ्यात्व है । देव शब्दका अर्थ यहाँ पर आप्त है । कुदेव शब्द देवगति - संबन्धी देवोंसे तात्पर्य नहीं है । इस विषयको अन्यत्र किसी प्रकरण में लिखेंगे । सारांश इतना ही है कि व्यंतरदेव जलकी आशा रखते हैं और वे तृप्त भी होते हैं ॥ ११ ॥ हस्ताभ्यां विक्षिपेत्तोयं तत्तीरे सलिलाद्बहिः । उत्तार्य पीडयेद्वस्त्रं मन्त्रतो दक्षिणे ततः ॥ १२ ॥ यह उपर्युक्त श्लोक पढ़कर, हाथमें जल लेकर, उस जलाशयके तीरपर, जलसे बाहर जलकी अंजली छोड़े। इसके बाद वस्त्र उतारकर मंत्रपूर्वक दक्षिण दिशाकी तरफ निचोड़े ॥ १२ ॥ केचिदसत्कुले जाता अपूर्वव्यन्तरासुराः । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ॥ १३ ॥ और कहे कि कोई हमारे कुलमें उत्पन्न हुए पुरुष मरकर व्यन्तर या असुर जातिके देव हुए हों तो वे मेरे द्वारा वस्त्र निचोड़ कर दिया हुआ जल ग्रहण करे ॥ १३ ॥ दर्भान्विसृज्य तत्तीरे ह्युपवीती द्विराचमेत् । अक्लिन्नवस्त्रं सम्प्रोक्ष्य शुचीव इति मन्त्रतः ॥ १४ ॥ परिधाय सुवस्त्रं वै युग्मवस्त्रस्य मन्त्रतः । प्रागेव निमृजेद्देहं शिरोऽङ्गान्यथवा द्वयम् ।। १५ ।। उस जलाशय के तीरपर दर्भोंको छोड़कर यज्ञोपवीतको मालाकी तरह गलेमें लटका कर दो वार आचमन करे । " शुचीव " ऐसा मंत्र पढ़कर पहनने के लिए जो शुष्क वस्त्र पासमें है उसका प्रोक्षण करे । अर्थात् उसे जलके छींटे डालकर पवित्र करे । पश्चात् युग्मवस्रके मंत्रको पढ़कर कपड़े पहने । और कपड़े पहननेके पहले ही अपने शरीरको अथवा सिरको पोंछ ले ॥ १४ ॥ १५ ॥ तस्मात् कायं न मृजीत ह्यम्बरेण करेण वा । श्वानलेन साम्यं च पुनः स्नानेन शुध्यति ॥ १६ ॥ कपड़े पहननेके बाद कपड़ेसे अथवा हाथसे शरीरको न पोंछे । क्योंकि बादमें शरीर पोंछनेसे वह कुत्तेके चाटनेके बराबर हो जाता है। और फिर स्नान करनेसे पवित्र होता है । यह भी एक वस्तुका स्वभाव है, तर्क करनेकी कोई बात नहीं है कि ऐसा क्यों हो जाता है। वस्तुके स्वभावमें क्यों काम नहीं देता है। कोई कहे कि अग्नि गर्म क्यों होती है तो कहना पड़ेगा कि उसका स्वभाव है ॥ १६ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | तिस्रः कोट्योऽर्धकोटी च यावद्रोमाणि मानुषे । वसन्ति तावतीर्थानि तस्मान्न परिमार्जयेत् ॥ १७ ॥ मनुष्यके शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम होते हैं । और जितने रोम शरीरमें हैं उतने ही शरीरमें पवित्र स्थान हैं । इसलिए शरीरको पोंछकर अपवित्र न करे ॥ १७ ॥ पिबन्ति शिरसो देवाः पिबन्ति पितरो मुखात् । मध्याच्च यक्षगन्धर्वा अधस्तात्सर्वजन्तवाः ॥ १८ ॥ सिरसे टपकते हुए जलको देव, मुखसे टपकते हुएको पितर, मध्यमागसे टपकते हुएको सारे जीव पीते हैं । भावार्थ - स्नान कर कपड़े न पहननेके पेश्तर ही शरीरके अंग- उपांगों को पोंछ लेना चाहिये । कपड़े पहनने के बाद शरीरको किसी वस्तुसेन पोंछे । क्योंकि धोतीके पहन लेने पर जो पानी शरीर में लगा रहता है वह उक्त प्रकारसे जूँठा हो जाता है । अतः उससे झरीरको पोंछ लेनेसे वह अवश्य ही अपवित्र कुत्ते चाटने जैसा हो जाता है । यद्यपि देवोंमें मानसिक आहार है, पितृगण कितने ही मुक्तिस्थानको पहुँच गये हैं इसलिए इनका पानी पीना असंभव जान पड़ता है । इसी तरह यक्ष, गंधर्वों और सारे जीवोंका भी शरीरके जलका पानी असंभव है, पर फिर भी ऐसा जो लिखा गया है उसमें कुछ न कुछ तात्पर्य अवश्य छुपा हुआ है । यद्यपि इस समय इन बातोंके जाननेका हमारे पास कोई काफी साधन नहीं है, क्योंकि इस समय इस विषयके उपदेशका अभाव है तो भी यह विषय अलीक नहीं है । यदि हमारे न जानने मात्रसे ही हर एक विषय अलीक समझ लिये जायँ तो कोई भी बात सत्य न ठहरेगी। यदि सभी बातें हम लोग ही जानते तो सर्वज्ञकी भी कोई आवश्यकता न होती । बहुतसे विषय ऐसे होते हैं कि वे हमे मालूम नहीं हैं, परन्तु खोज करनेसे शास्त्रान्तरोंमें मिल जाते हैं । और कोई ऐसे हैं जो नहीं मिलते हैं । ऋषियोंको जितना स्मरण रहा है उतना भी वे अपने जीवन समय में नहीं लिख सके हैं । अत एव बहुतसे विषयोंके उत्तर शास्त्रोंमें भी नहीं पाये जाते हैं । जिनका उत्तर न पाया जाय और वह हमारी समझमें न आता हो एतावता उसे अलीक कह देना उचित नहीं है । यद्यपि इस श्लोकका विषय असंभवसा मालूम पड़ता है, परंतु फिर भी वह पाया जाता है । अतः इसका कुछ न कुछ तात्पर्य अवश्य है । व्यर्थ बातें भी कुछ न कुछ अपना तात्पर्य ज्ञापन करा कर सार्थक हो जाती हैं । यदि कोई ऐसा कहे कि ऐसी बातोंको झूठ ही क्यों न मान लिया जाय, इसमें कौनसा परमार्थ बिगड़ता है तो इसका उत्तर इतना ही ठीक रहेगा कि शास्त्रोंके विषयको इस तरह अलीक कह दिया जायगा तो हर एक मनुष्य हर एक बातको जो कि उसको अनिष्ट होगी, फौरन अलीक कह देगा तब शास्त्रकी कोई मर्यादा ही न रहेमी | अलीक विषय वे कहे जा सकते हैं जो पूर्वापरविरुद्ध हों, परमार्थमें जिनसे बाधा आती हो, जो वाक्य बिलकुल बे-सिरपैर के हों, जिनमें परमागमसे बाधा आती हो, जो कुमार्गकी ओर लेजानेवाले हों और प्राणियोंका अहित करनेवाले हों । पर इन श्लोकोंमें कोई भी इस तरहकी बातें नहीं हैं जो कि अप्रमाण कही जायँ । “ सर्वत्राविश्वस्ते नास्ति काचित् क्रिया । " Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसनमारविरचित अर्थात् सभी विषयोंमें आमियाब क्रिया सम्ममा तो कोई भी किया जानेगी ना नीतिके अनुसार यदि इस तरहके विषय जिसको कि किस तरह कितने ही लोग अपार समझते हैं उसी तरह और और विषयोंको और और पुरुष अपनी निरी कुतर्कों द्वारा असार ठहरावेंगे तो ऐसा होते होते सर्वत्र हर एकके कहे अनुसार अविश्वास ही होता जाया तो कोई भी क्रिष्णाय ठीक ठीक न बन सकेंगी। जिनका फल यह होगा कि लोग मनमामी क्रियाओंको करते हुए कुमार्गकी ओर ही झुकेंगे । इसाझे बेहत्तर है कि शास्त्रकी मर्यादाका उल्लंघन न किया जाय । और इस विश्वासको अपने दिलसे हटा देना चाहिए कि पीछेके सोने के विषय हिंदूधर्मसे लेकर अपनेमें मिला लिये हैं ॥ १८॥ सुरापानसमं तोयं पृष्ठतः केशबिन्दवः । दक्षिण जान्हवीतोष वामे तु रुधिरं भवेत् ॥ १९ ॥ सिरके केशों में लगा हुआ जल जो कि पीठ पर टपकता है वह मदिरापानके समान माना गया है और जो दाहिनी ओर गिरता है वह समाजलके समान कहा गया है, तथा जो बाई तरफ झरता रहता है वह थिरके समान मिना गया है । भावार्थ-यहाँ पर कोई यह तर्क करे कि जिस सिरके जलको देव पीते हैं वह जल मादिरा और रुधिरके तुल्य कहा गया है यह कैसे ठीक माना जा सकता है। इसका उत्तर यह है कि जैसे किसीने कहा कि गुरुका हर एक अंग-उमांग पूज्य है. तो किसीने तर्क कर दिया कि क्या उसका गुदस्थान व लिंग आदि भी पूज्य है । बस जिस तरह इस विषयमें यह तर्क है वैसा ही उपर्युक्त तर्कको समझना चाहिये । तथा यह भी नहीं है कि मदिरा व रुधिरके तुल्य कह देनेसे वह मदिरा या रुधिर ही हो गया हो । जैसे किसीने कहा कि यह भोजन मांस जैसा लगता है तो क्या वह बिल्कुल पंचेन्द्रिय मुर्देका मांस ही हो गया, कभी नहीं । किन्तु इसमें मांसकी कल्पना हो जानेके कारण वह मांस जैसा कहा गया है । अतः जो जिस विषयमें जिसकी समानता धारण कर लेता है वह उसीके अनुसार हेय और उपादेय रूप हो जाता है। सारांश तो इन श्लोकोंका यह है कि इन इन कारणोंसे यह जल ऐसा ऐसा हो जाता है अतः उससे शरीरको न पोंछना चाहिए, किन्तु कपड़े पहननेके पहले ही अच्छी तरह पांछ लेना उचित है । यही बात इस नीचेके श्लोकसे दिखाते हैं ॥ १९॥ स्नानं कृत्वा धृते वस्त्रे पतन्ति केशबिन्दवः । तत्स्वानं निष्फलं विद्यात् पुनः स्नानेन शुध्धति ॥ २० ॥ स्नान कर वस्त्र पहन लेनेपर जो जल केसोंमें उलझा हुआ रह जाता है, उसकी जो बृदें गिरती रहती हैं उससे वह किया हुआ स्मान निष्फल हो जाता है । वह पुरुष पुनः स्नान करनेसे शुद्ध होता है ॥२१॥ अपवित्रपटो नमो नग्नथाधर्टः स्मृतः । नामा मलिनोदात्री नमः कौपीनवानपि ॥ २१ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपायवासस्ता मायने नम्बाकुसरीचमान्। अन्तःकच्छो बहिः कान्छो मुत्ताकच्छस्तक का रस अपवित्र कपड़े पहननेवाला, आधा वस्त्र पहननेवाला, मैले कुचैले कपड़े पहननेवाला, कौपीनलँगोटी लगानेवाला, भगवी वस्त्र पहननेवाला, धोतीके सिंवा दूसरा कपड़ा-दुपट्टा वगैरह-न रखनेकाला, केवल भीतरकी तरफ कछौटा कसनेवाला, बाहरकी तरफ कछौटा लगानेवाला, और बिलकुल ही कपड़े न पहननेवाला इस तरह ये दश पुरुष नग्न माने गये हैं ।। २१ ॥ २२ ॥ साक्षानमः स विज्ञेयो दश ननाः प्रकीर्तिताः । बंगुलं चतुरङ्गुलं चोत्तरीयं विनिर्मितम् ॥ २३ ॥ कषायधूम्रवर्ण च केशजं केशभूषितम् । छिना चोपवलं च कुत्सितं नाचस्मरः ॥ २४ ॥ जो वस्त्र दो या चार अंगुल चौड़ा हो, भमघाँ हो, धूर जैसे रंगवाला हो, ऊनी हो, जिसपर ऊन या अन्य केशोंके बेलबूटे वगैरह निकले हुए हों, जिसके कौने वगैरह कटे हुए हों, और जो बिलकुल खराब हो, इस तरहके कपड़े त्रैवर्णिक श्रावकोंको न पहनना चाहिए ॥ २३ ॥ २४ ॥ दग्धं जीर्णं च मलिनं मूषकोपहतं तथा । खादित गोमहिंष्या}स्तत्याज्यं सर्वथा द्विजैः॥२५॥ तथा ऐसे कपड़े जो अग्निसे जल गये हों, जीर्ण हो गये हो, मलिन हो मये हों, चूहों झस कुतस् लिये गये हों, और गाय भैंस आदिके द्वास जो काये गये हों उनका त्रैवर्णिक श्रावक दूरसे ही त्याग करें; ऐसे कपड़े कभी न पहनें ॥ २५ ॥ नीलं रक्तं तु यद्वस्त्रं दूरतः परिवर्नमेन् । .. स्त्रीणां स्फीतार्थसंयोने सकनीके के कुपतिः ।। २६ ६ १) जो वस्त्र नीले रंगसे रंगा मया हो अथवा लाल रंमसे रंगा गया हो तो उसका श्रावकवर्ग दाहीसे त्याग करें। यदि नीला रंम या लाल रंग और और पदार्थों-रंगों से मिले हुए हों तो स्त्रियोंके लिये दूषित नहीं है । और उनके लिये सोते समय भी इस रंगका कपड़ा पहनना दोष नहीं है। ॥२६॥ रक्षणाद्विक्रयाञ्चक तकृतेल्याशिवनाता अपवित्रो भवेद्नेही विमिर पक्षविशुष्यति ।। २७ ।। ऐसे कपड़ोंको हिफाजतके साथ रखनेसे, बेचनसे तथा इनका व्यापार कर आजीविका करनेसे मिरस्त अपवित्र हो जाता है । वह अपने इस धंदेको छोड़ देनेके बाद डेढ़ महीनेमें जाकर पवित्र शुद्ध होता है ॥२७॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभहारकविरचित नीलरक्तं यदा वस्त्रं श्राद्धः स्वाङ्गेषु धारयेत् । ... जन्तुसन्ततिसंवाह्यो वसेद्यमपुरे ध्रुवम् ॥२८॥ जो श्रावक, नीले रंगका या लाल रंगका कपड़ा अपने शरीरमें धारण करता है वह प्राणियोंके शरीरमें कीड़ा उत्पन्न होकर यमपुरमें चिरकाल तक निवास करता है। भावार्थ-वह मरकर प्राणियोंके शरीरमें कीड़ा होता है । वर्णन कई प्रकारके होते हैं, कोई बीभत्स्य होते हैं जो जीवोंको पर पदार्थोंसे अरुचि करानेवाले होते हैं। कोई भयानक होते हैं । यहाँ पर यह वर्णन भयानक मालूम पड़ता है। इससे नीले या लाल रंगका कपड़ा न पहननेका भय दिखाया गया है । इसका सारांश यही है कि इस तरहके कपड़े नुकसान करनेवाले होते हैं, इस लिए ऐसे कपड़ोंको न पहनना चाहिए ॥ २८॥ कौशिके पट्टसूत्रे च नीलीदोषो न विद्यते । स्त्रियो वस्त्रं सदा त्याज्यं परवस्त्रं च वर्जयेत् ॥ २९ ॥ रेशमी वस्त्र तथा पट्ट सूत्रमें नीलापन हो तो उसमें कोई हानि नहीं है । तथा श्रावकोंको त्रियोंके पहननेके कपड़े और औरोंके पहने हुए कपड़े कभी नहीं पहनना चाहिए ॥ २९॥ उक्तंच-परान्नं परवस्त्रं च परशैय्या परस्त्रियः। परस्य च गृहे वासः शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥ ३०॥ अधिक तो क्या कहा जाय पर पराया अन्न खाना, पराये कपड़े पहनना, पराई शैया पर सोना, पराई स्त्रीका सेवन करना और पराये घरमें रहना इंद्रकी भी शोभा नष्ट कर देते हैं अर्थात् इन कामोंके करनेसे औरोंकी बात तो दूर रहे पर भारी सामर्थ्यशाली इंद्रकी भी शोभा नष्ट हो जाती है ॥ ३० ॥ अधौतं कारुधौतं वा पूर्वेद्युधौतमेव च । त्रयमेतदसम्बन्धं सवेकमेमु वजेयेत् ॥ ३१॥ जो कपड़ा धोया हुआ न हो, शूद्रों द्वारा धोया गया हो, पहले दिनका धोया हुआ हो ये तीनों ही प्रकारके कपड़े पहननेके काबिल नहीं हैं। अतः ऐसे कपड़ोंको पहन कर कोई क्रियायें न करें ॥ ३१ ॥ ईपद्धौत स्त्रिया धौतं शूद्रधौतं च चेटकैः। बालकैधौतमज्ञानैरधौतमिति भाष्यते ॥ ३२॥ जो कपड़ा कम धुला हो, स्त्रियों द्वारा धोया गया हो, शूद्रों द्वारा धोया गया हो, नोकरों द्वारा धोया गया हो और अज्ञानी बालकोंके द्वारा धोया गया हो तो वह न धोये हुए सरीखा कहा गया है ॥ ३२॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्णिकाचार। ८७ AN अप्सु नोत्पीडयेद्वस्त्रं सर्वथा श्रावको द्विजः। शुष्कं चोपरि खवायास्तवस्त्रं च न धारयेत् ॥ ३३ ॥ द्विज श्रावकोंको जलके भीतर कभी भी कपड़े नहीं निचोड़ना चाहिए । तथा सूखे हुए कपड़ोंको खटियाके ऊपर न रखना चाहिए ॥ ३३॥ शुष्ककाष्ठेषु निक्षिप्य हिराचम्य विशुद्धयति । प्रागामुदगग्रं वा धौतवस्त्रं प्रसारयेत् ॥ ३४ ॥ शुष्क लकड़ीके ऊपर कपड़ेको रख देनेपर दो बार आचमन करनेसे शुद्ध होता है । किसी अच्छे स्थानमें जहाँपर पैर वगैरह न पड़ते हों या उँचे स्थानमें उन धोई हुई धोती आदि कपड़ोंको सुखावे ॥ ३४॥ नवम्यां पञ्चदश्यां तु संक्रान्तौ श्राद्धवासरे। वस्त्रं निष्पीडयेनैव न च क्षारे नियोजयेत् ॥ ३५ ॥ नवमीके दिन, पूर्णिमाके दिन, संक्रान्तिके रोज और श्राद्धके दिनोंमें कपड़ा निचोड़ना नहीं चाहिए । तथा इन दिनोंमें खारमें भी कपड़ा न दे ॥ ३५॥ स्नानं कृत्वाऽवस्त्रं तु मूर्जा नोत्तारयेद्गृही । आद्रेवस्त्रमधस्ताच्च पुनः स्नानेन शुद्धयति ॥३६॥ स्नान करके, पहने हुए कपड़ेको जो कि स्नान करनेसे गीला हो गया है, सिर पर होकर न उतारे। उसे नीचेका नीचे ही होकर उतार ले, नहीं तो पुनः स्नान करनेसे शुद्ध होता है ॥ ३६॥ प्रत्यग्दक्षिणयोः कृत्वा पुनः शौचं विधीयते । एकवस्त्रो न भुञ्जीत न कुर्याद्देवपूजनम् ॥ ३७॥ न कुत्पितृकर्माणि दानहोमजपादिकम् । खण्डवस्त्रावृतश्चैव वस्त्रार्धप्रावृतस्तथा ॥ ३८ ॥ उस गीले कपड़ेको पश्चिम और दक्षिण दिशाकी तरफ न उतारे, नहीं तो पुनः स्नान करना चाहिए। एक कपड़ा पहन कर भोजन और देव-पूजन न करे । पितृकर्म और दान, होम जप, आदि न करे । और फाड़ कर दो टुकड़े किया हुआ वस्त्र पहन कर, तथा आधा पहन कर और आधा सिर पर बाँधकर भी कोई क्रिया न करे ॥ ३७ ॥ ३८॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहाविरचित उक्तंच—स्नानं दानं जप होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणम् । नैक्क्स्त्री गृही कुर्याच्छ्राद्ध भोजनसत्क्रियाम् ॥ ३९ ॥ ५८ त्रैवर्णिक श्रावण एक वस्त्र अर्थात् सिर्फ धोती पहनकर स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, वृषभादि पितरोंका तर्पण, श्राद्ध और भोजन इत्यादि कार्य न करें । अर्थात् ये कार्य एक धोती पहनकर तथा एक दुपट्टा ओढ़कर करे ।। ३९ ।। धार्यमुत्तरीयादौ ततोऽन्तरीयकं तथा । चतुष्कोणं भवेद्वस्त्रमन्तरीयं च निर्मलम् ॥ ४० ॥ पहले दुपट्टा ओढ़ना चाहिए, पश्चात् धोती पहननी चाहिए। दोनों वस्त्रोंके चारों पल्ले बराबर होने चाहिए – पल्ले फटे हुए नहीं होने चाहिए। तथा उनका साफ-सुथरा होना भी आवश्यक है ॥४०॥ त्रिहस्तं तु विशालं स्याद्वद्यायतं पञ्चहस्तकम् । अधोवस्त्रं तु हस्ताष्टं द्विहस्तं विस्तरान्मतम् ॥ ४१ ॥ ओढ़नेका कपड़ा अर्थात् दुपट्टा तीन हाथ चौड़ा तो बहुत बड़ा हो जाता है इसलिए दो हाथ चौड़ा और पाँच हाथ लम्बा होना ठीक है और अधोवस्त्र धोती आठ हाथ लंबी और दो हाथ चोड़ी होनी चाहिए ॥ ४१ ॥ पट्टकूलं तथा सौत्रं शुभ्रं वा पीतमेव च । कदाचिद्रक्तवस्त्रं स्याच्छेषवत्रं तु वर्जयेत् ॥ ४२ ॥ रेशमी वस्त्र तथा सूती कपड़े सफेद वा पीले रंगके होने चाहिए । यदि लाल भी हों तो कोई हर्ज नहीं है । इसके सिवा और और रंगके कपड़े उपर्युक्त कामोंमें काम न लाने चाहिए ॥ ४२ ॥ रोमजं चर्मजं वस्त्रं दूरतः परिवर्जयेत् । नातिस्थूलं नातिसूक्ष्मं विकारपरिवर्जितम् ॥ ४३ ॥ ऊनका अथवा चमड़ेका वस्त्र दूरंसे ही त्यागने योग्य है । तथा पहनने के कपड़े न तो बहुत मोटे ही होने चाहिए और न बहुत बारीक ही होने चाहिए । किन्तु जिनके पहनने ओढ़ने से कोई तरहका विकार पैदा न हो ऐसे होना आवश्यक हैं ॥ ४३ ॥ लम्बयित्वा पुरा कोणद्वयं तेनैव वाससा । आवेष्टयेत्कटीदेशं वामेन पार्श्वबन्धनम् ॥ ४४ ॥ कोणद्वयं ततः पश्चात्समीचीनं प्रकच्छयेत् । कटी मेखलिकामन्तदेशे गोप्यां प्रबन्धयेत् ॥ ४५ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब धोती पहनना शुरू करे तब एक तरफ थोड़ी और दूसरी तरफसे अधिक लंबी रख्खे । उसको कमरके चारों तरफ लपेटे । पहले बायें हाथकी कोण (काँछ) को दाहिने हाथकी तरफ लावे, बाद दाहिनेकी तरफसे बायें हाथकी तरफ ले जावें । बाद छोटी कोणको नीचेकी तरफसे खोसे । पीछे जो बड़ी कोण है उसको कटीके चारों और करधोनीकी तरह लपेट कर उसे भीतरकी ओरसे खोसे । ४४ ॥ ४५ ॥ आजानुकं तथाऽऽजई चानलीकं गृहोत्तमैः । धारयेदुत्तरीयं तु यथादेहं पिधापयेत् ॥ ४६॥ गृहस्थोंको जंघा पर्यंत, गौड़े पर्यंत, और मुरचे (पाणिं ) पर्यन्त धोती पहननी चाहिए । तथा ओढ़नेका दुपट्टा इस तरह ओड़ना चाहिए जिससे सारी देह ढक जाय ॥ ४६॥ आजानुकं क्षत्रियाणामाजई वैश्यसम्मतम् । आघौण्टं ब्रह्मपुत्राणां शूद्राणां शूद्रवन्मतम् ॥ ४७॥ क्षत्रिय जंघा पर्यंत, वैश्य गौड़े पर्यंत और ब्राह्मण घुटने पर्यन्त धोती पहने । और शद्र लोग जैसा उनमें पहननेका रिबाज हो उसी माफिक पहने ॥ ४७ ॥ नोत्तरीयमधः कुर्यानोपर्यधस्स्थमम्बरम् । अज्ञानाद्यदि कुर्वीत पुनः स्नानेन शुध्द्यति ॥४८॥ ओढ़नेके दुपट्टेको धोतीके स्थानमें न पहने और धोतीको दुपट्टेके स्थानमें न ओढ़े। यदि कोई भूलसे ऐसा कर भी ले तो वह फिर स्नान करनेसे शुद्ध होता है ॥ ४८॥ अथोत्तरीयवस्त्रं तु पूर्ववद्धार्यते बुधैः । एवं वस्त्रद्वयं धृत्वा धर्मको समाचरेत् ।। ४९॥ बुद्धिमान श्रावक लोग ऊपर बताये हुए क्रमके अनुसार घोतीको घोतीके स्थान पर पहनें और ओढ़नेके दुपट्टेको ओढ़ें । इस प्रकार दोनों क्त्रोंको अच्छी तरह पहन ओड़कर धार्मिक क्रियाएँ करना प्रारम्भ करें । ४९ ॥ ये सन्ति द्रव्यसंयुक्तास्तेषां सर्व निवेदितम् । निस्स्पृहाणां दरिद्राणां क्वाशक्ति पिलोकयेत् ॥ ५० ॥ जो पुरुष अच्छे धनी हैं वे तो ऊपर कहे अनुसार नहा धोकर कपड़े आदि पहने-ओढ़ें । और जो षुख्य निस्पृह तथा दरिद्र हैं वे अपनी शक्तिके माफिक एकाध कपड़ा पहन कर ही अपना कार्य चलावें ॥५०॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभद्वारकविरचित वामहस्तेन सन्धार्य वस्त्रमा निपीडयेत् । स्वहस्तेन स्वजातीयहस्तेन प्राणियत्नतः॥५१॥ गीले कपड़ेको बायें हाथसे पकड़कर निचोड़े । और अपने हाथसे निचोड़े अथवा अपने किसी सजाति मनुष्यसे निचुड़वावे । कपड़ा ऐसे यत्नके साथ निचोड़ना चाहिए जिससे दूसरे प्राणियोंको बाधा न पहुँचे ॥ ५१ ॥ स्नानके भेद । मान्त्रं भौमं तथाऽऽग्नेयं वायव्यं दिव्यमेव च । वारुणं मानसं चैव सप्त स्नानान्यनुक्रमात् ॥५२॥ मंत्रस्नान, भूमिस्नान, अग्निस्नान, वायुस्नान, दिव्यस्नान, जलस्नान और मन्त्रस्नान ऐसे सात तरहके स्नान होते हैं ॥ ५२ ॥ . प्रातःस्नाने त्वशक्तश्चेन्मार्जयेदावाससा । उत्तमाङ्गादिपादान्तं स भवेत्स्नानकृद्गृही ॥५३॥ यदि कोई सुबहके समय स्नान करनेको असमर्थ है तो वह गीले कपड़ेसे सिरसे परातेक सर्व शरीरको पोंछ ले । इस तरह करनेवाला भी गिरस्त, स्नान किये सरीखा ही है ॥ ५३ ॥ आपः स्वभावतः शुद्धाः किं पुनर्वह्नितापिताः । अतः सन्तः प्रशंसन्ति स्नानमुष्णेन वारिणा ॥ ५४॥ जल स्वभावसे ही शुद्ध होता है । यदि वह गर्म कर लिया जाय तो और भी शुद्ध हो जाता है । अतः सज्जन लोग गर्म जलसे स्नान करना अच्छा समझते हैं ॥ ५४ ॥ अभ्यङ्गे चैव माङ्गल्ये गृहे चैव तु सर्वदा । शीतोदकेन न स्नायान धार्य तिलकं तथा ॥ ५५ ॥ तेलकी मालिश की हो या कोई मांगलिक कार्य हो या घरहीमें स्नान करना झे तो कभी भी ठंडे जलसे न नहावे, तथा नहाये वगैरह तिलक न लगांवे ॥ ५५ ॥ शीतास्वप्सु निक्षिपेन उष्णमुष्णासु शीतकम् ।। ताभिः स्नाने कृते प्रोक्तं प्रायश्चित्तं जिनागमे ॥ ५६ ॥ ठंडे जलमें गर्म जल और गर्म जलमें ठंडा जल मिलाकर स्नान न करे । कारण कि इस मिश्रित जलसे स्नान करनेवालेके लिए जैनशास्त्रोंमें प्रायश्चित्त बताया गया है ॥ ५६ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । स्वक्रियानिरतो गेही गृहे चापि विधानतः । करोति पञ्चधाऽऽचारं नदीं गन्तुमशक्तकः ॥ ५७ ॥ सङ्कल्पं सूत्रपठनं मार्जनं चाघमर्षणम् । देवतातर्पणं चैव गृहे पञ्च विवर्जयेत् ।। ५८ ।। जो गिरस्ती अपनी दर रोजकी क्रियाके करनेमें तत्पर है और नदीपर जानेके लिए समर्थ नहीं है तो वह अपने घरपर भी विधिपूर्वक पाँच प्रकारके आचरणको कर सकता है । तथा संकल्प, स्वाध्याय, मार्जन, अधमर्षण और देवता -तर्पण ये पाँच क्रियाएँ घर पर न करे || ५७ ॥ ५८ ॥ अन्त्यजैः खनिताः कूपा वापी पुष्करिणी सरः । तेषां जलं न तु ग्राह्यं स्नानपानाय च कचित् ॥ ५९ ॥ चाण्डाल आदिके द्वारा खोदे गये कुएँ, बावड़ी, पुष्करिणी और तालाबोंका जल नहाने और पीने के लिए कभी काममें न ले ॥ ५९ ॥ पानीसे बाहर निकलनेके मंत्र । अथ जलान्निर्गमनमन्त्रः । ॐ नमोऽर्हते भगवते संसारसागरनिर्गताय अहं जलान्निर्गच्छामि स्वाहा । जलान्निर्गमनमन्त्रः । यह मंत्र बोलकर पानीसे बाहर निकले । ॐ ही वी वी अहं हं सः परमपावनाय वस्त्रं पावनं करोमि स्वाहा । स्नानकाले सन्धौतवस्त्रप्रोक्षणम् । इस मंत्र को पढ़कर स्नान करते समय जो कपड़े धोये थे उनका प्रोक्षण करे । ॐ श्वेतवर्णे सर्वोपद्रवहारिणि सर्वमहाजनमनोरञ्जनि परिधानोत्तरीयधारिणि हं झं वं मं हं सं तं परिधानोत्तरीयं धारयामि स्वाहा । इत्यनेन पूर्वप्रक्षालितप्रोक्षितनिर्द्रववस्त्रद्वयेनान्तरीयोत्तरीयसन्धारणम् । ६१ इस मंत्र को पढ़कर पहले धोए हुए तथा प्रोक्षण किय गये दोनों वस्त्रोंको पहने तथा ओढ़े । आचमन करनेकी विधि । उपस्थित्वा शुचौ देशे स्नात्वाऽस्नात्वा तथैव च । aasari कर्तव्यस्ततोऽसौ शौचवान्मतः ॥ ६० ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेमभचारविषित स्नान करके या न करके भी साफ सुथरी जमीन पर बैठकर अचव अश्य करे । क्योंकि आचमनके करनेसे गिरस्ती पवित्र माना गया है ॥६०॥ देशं कालं वयो वंशं मोत्रं जाति गुरं तथा।---- संस्मृत्य प्राङ्गसन्ध्यावां संकरप्याचमनं चरेत् ।। ६१ ॥ प्रातःकालीन सन्ध्याके समय अपना देश, काल, अवस्था, कुल, गोत्र, जाति तथा गुरुका स्मरण कर मंत्रपूर्वक आचमन करे । ६१ ॥ पूर्ववद्वस्त्रमादाय कुर्यादाचमनं बुधः । न तिष्ठम स्थितो नम्रो नामन्त्रो नास्पृशन जलम् ॥ ६२ ॥ स्नान कर चुकनेपर ऊपर बताये अनुसार वस्त्र पहनकर आचमन करे । खड़े खड़े या टेढ़ा-मेढ़ा होकर आचमन न करे तथा मंत्रका उच्चारण किये बिना या जलको छूए बिना भी न करे ।। ६२ ॥ सव्यहस्तेन व्यङ्गुल्या शङ्खीकृत्य पिबेत्पयः । माषमात्रं प्रमाण स्याज्जलमाचमने शुभम् ॥ ६३ ॥ दाहिने हाथकी तीन अंगुलियोंको शंखके आकर बना कर उड़दके बराबर जल पीवे । क्योंकि आचमनमैं इतना ही जल शुभ गिना जाता है ॥ ६३ ॥ सम्मृज्यात्तिर्यगास्यं त्रिः संवृत्याङ्गुष्ठमूलतः। . अधोवक्त्रसुपरिष्टातलेन द्विः सम्मार्जयेत् ॥ ६४ ॥ आचमन करनेके बाद, दोनों ओठोंको मिलाकर अँगूठेके नीचले भागसे तीन बार टेढ़ा स्पर्शन करे । तथा हाथकी हतेलीसे नीचेकी ओठको ऊपरकी ओरसे दो बार स्पर्शन करे ॥ ६४॥ एकवार स्पृशेदास्यं तर्जन्यायंगुलिप्रिमिः ॥ प्राबरन्प्रदर्य स्पृशेपर्जन्यङ्गुष्ठयुग्मतः ।। ६५ । स्पृशेचाक्षिद्वयं साक्षादनामिकांगुष्ठतोऽपि च । श्रोत्रयोर्युगलं पश्चात्कनिष्ठिकाङ्गुष्ठयोगतः ॥ ६६ ।। अंगुष्ठेन तु नाभिं च करतलेन वक्षसि । पाहुयुग्मं कराग्रेण सवोमिमेस्तकं स्पृशेत् ॥ ६७ ॥ तर्जनी, मध्यमा और अनामिका इन तीन उँगलियोंसे मुखका, तर्जनी और अँगूठेसे नाकके दोनों छेदोंका, अनामिका और अंमूळेसे दोनों आँखोंका, कनिष्ठा और अँगूठेले दोनों कानोंका, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असे नामिका, स्वेठीले छातीका, हाथके अबभामसे दोनों भुजाओंका और पूरे हाथ मस्तकका स्पर्श करे ॥६५॥६६॥ ६७॥ आचमनेऽङ्गभेदास्तु चैते द्वादशधा मताः । क्रियाभेदास्तथा झेयाः पञ्चदशेति संख्यया । ६८ में आचमन करनेमें थे नीचे लिखे बारह अंग माने गये हैं । तथा पन्द्रह तरहकी क्रियाएँ मानी गई हैं । ६८॥ भुजद्वयशिरोनाभिमुखरन्ध्राणि सप्तधा । वक्षश्च द्वादशाङ्गानि प्रोक्तानि श्रीजिनाम।। ६९।। दोनों भुजाएँ, दोनों नाकके छेद, दोनों आँखें, दोनों कान, मुख, मस्तक, नाभि और छाती ये बारह अंग जिनागममें कहे गये हैं ।। ६९ ॥ एतेष्वङ्गेषु प्रस्वेदो जायते श्रमयोगतः। विण्मूत्रोत्सर्जने भोमे भोजने ममनादिषु ।।७।। टट्टी-पेशाब करते समय, स्त्री-संभोग करते समय, भोजन करते समय तथा सोने-उठने, चलनेफिरने आदि क्रियाओंके करते समय श्रम पड़नेसे इन अंगोंमें पसीना आदि उत्पन्न होता रहता है ॥ ७० ॥ श्रोत्रचक्षुर्मुखप्रापकक्षाकुक्षिषु नाभिषु । स्रावो जातो यतस्तस्माचाचमनं क्रियते पुनः ॥ ७१ ॥ कान, आँख, मुख, नाक, पसवाड़े, कूख और नाभि इन स्थानोंसे पसीना आदि मल झरता रहता है इसलिए बार बार आचमन किया जाता है ॥ ७१ ॥ आचम्यैवं कुशं कृत्वाऽनामिकायां सुनिर्मलम् । नासायं च तयाङ्गुष्ठकेन धृत्वा विधानतः ॥ ७२ ॥ कुम्भकः पूरकश्चैव रेचकश्च विधीयते । अन्तस्थं सकलं पापं रेचकात्क्षयमाप्नुयात् ॥ ७३ ॥ इस प्रकार आचमन कर, अनामिका उँगलीमें डाभकी मुद्रा पहन कर, उस अनामिका और .. अँगूठेसे विधिपूर्वक नाककी अनीको पकड़कर कुंभक, पूरक और रेचक करे । इसी कुंभक, पूरक और रेचकके करनेको प्राणायाम कहते हैं । तथा रेचकके करनेसे आत्मामें बैठे हुए सारे पाप नष्ट हो Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकेविरचित जाते हैं । नाकके दाहिने छेद द्वारा हवाके भीतर लेजानेको पूरक कहते हैं । और बायें छेद से भीतरकी हवाके बाहर निकालनेको रेचक कहते हैं । तथा पेटमें हवा दबाकर रखनेको कुंभक कहते हैं ॥ ७२ ॥ ७३ ॥ ક્ર दक्षिणे रेचकं कुर्याद्वामेनापूर्य चोदरम् । कुम्भकेन जपं कुर्यात्प्राणायामः स उच्यते ॥ ७४ ॥ नाकके बायें छेदसे उदरको हवासे भरकर पूरक करे । और दाहिने छेदसे रेचक करे । तथा कुंभकसे जप करे । इसे प्राणायाम कहते हैं ॥ ७४ ॥ 1 पञ्चाङ्गुलीभिर्नासाग्रपीडनं प्रणवाभिधा । मुद्रेयं सर्वपापघ्नी वानप्रस्थगृहस्थयोः ॥ ७५ ॥ हाथकी पाँचों उँगलियोंसे नाकके अग्रभागके पकड़नेको प्रणव मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा वानप्रस्थ और गिरस्तोंके सब पापोंका क्षय करनेवाली है ॥ ७५ ॥ कनिष्ठानामिकाङ्गुष्ठैर्नासाग्रस्य प्रपीडयन् । ओंकारमुद्रा सा प्रोक्ता यतेश्च ब्रह्मचारिणः ।। ७६ । कनिष्ठा अनामिका और अँगूठेसे नाककी नोकके पकड़नेको ओंकार मुद्रा कहते हैं । इस मुद्राको यति और ब्रह्मचारी करते हैं ॥ ७६ ॥ तीर्थत प्रकर्तव्यं प्राणायामं तथाऽऽचमम् I सन्ध्या श्राद्धं च पिण्डस्य दानं गेहेऽथवा शुचौ ॥ ७७ ॥ प्राणायाम, आचमन, सन्ध्यावंदन, और पिण्डदान ये नदी वगैरहके किनारे पर बैठ करे । अथवा अपने घरमें भी किसी पवित्र स्थानपर बैठ कर करे ॥ ७७ ॥ सिंहकर्कटयोर्मध्ये सर्वा नद्यो रजस्वलाः । तासां तटे न कुर्वीत वर्जयित्वा समुद्रगाः ॥ ७८ ॥ सिंह संक्रमण और कर्क संक्रमणमें सब नदियाँ प्रायः अशुद्ध रहती हैं इसलिये उन दिनों उनके किनारे पर उक्त क्रियाएँ न करें। और जो नदियाँ सीधी जाकर समुग्रमें मिल गई हैं उनके किनारे पर उक्त क्रियाओंके करनेमें कोई दोष नहीं हैं ॥ ७८ ॥ उपाकर्मणि चोत्सर्गे प्रातः स्नाने तथैव च । चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजोदोषो न विद्यते ॥ ७९ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाकर्म, उत्सर्ग, प्रातः कालीन स्नान, चन्द्रग्रहण और सूर्य ग्रहण इन समयोंमें रजोदोष नहीं होता ॥ ७९ ॥ धनुस्सहस्राण्यौ तु मत्तिर्यासां न विद्यते । न हा नद्यः समाख्याता गर्तास्ताः परिकीर्तिताः ॥ ८० ॥ जो नदियाँ आठ हजार धनुष लम्बी नहीं हैं वे नदियाँ नहीं हैं, उन्हें एक तरहका मढ़ा कहना चाहिए ॥ ८० ॥ दर्भविधि । कुशाः काशा यवा दूर्वा उशीराश्च कुकुन्दराः । गोधूमा व्रीहयो मुंजा दश दुर्भाः प्रकीर्तिताः ॥ ८१ ॥ कुश, कांश, जौ, दूब, उशीर ( तृणविशेष ) ककुंदर, गेहूँ, बीहि ( शाल ) और मूँज इस प्रकार दस तरहके दर्भ होते हैं ॥ ८१ ॥ नभोमासस्य दर्शे तु शुभ्रान् दर्भान् समाहरेत् । अयातयामास्ते दर्भा नियोज्याः सर्वकर्मसु ॥ ८२ ॥ सावन विदी अमावस के दिन स्वेत दर्भ लावे | और वे लाये हुए दर्भ ही सम्पूर्ण क्रियाओं में ग्रहण किये जावें ॥ ८२ ॥ कृष्णपक्षे चतुर्दश्यामानेतव्या कुशा द्विजैः । अकालिकास्तथा शुद्धा अत ऊर्ध्वं विगर्हिताः ॥ ८३ ॥ यदि अमावसके दिन व लाकर पहले लाने हों तो विदी चतुर्दशीको कुश-दर्भ लाने चाहिए । जो नियत समयमें लाये जाते हैं वे ही ठीक होते हैं, अन्य नहीं ॥ ८३ ॥ शुद्धिमन्त्रेण सम्मन्त्र्य सकूच्छित्वा समुद्धरेत् । अच्छिन्नाग्रा अशुष्काग्राः पूजार्थ हरिताः कुशाः ॥ ८४ ॥ शुद्धिके मंत्रसे अभिमंत्रण कर दर्भोंको जमीनमेंसे उपाड़ना चाहिए। तथा जिनकी नोकें टूटी हुई और सूखी हुई नहीं हैं ऐसे हरे दर्भ ही पूजाके योग्य होते हैं ॥ ८४ ॥ कुशालाभे तु काशाः स्युः काशाः कुशमयाः स्मृताः । काशाभावे गृहीतव्या अन्ये दर्भा यथोचितम् ॥ ८५ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभधारकविरचित ___कुश अर्थात् दर्भ यदि न मिले तो कांशसे ही सब क्रिया करे । क्योंकि कांश भी कुशोंहीके तुल्य हैं । यदि कांश भी न मिले तो और जो दर्भ बताये गये हैं उनसे काम लिया जाय ॥८५॥ धर्मकृत्येषु सर्वेषु कुशा ग्राह्याः समाहिताः। दूर्वाः श्लक्ष्णाः सदा ग्राह्याः सर्वेषु शुभकर्मसु ॥ ८६ ॥ सभी धार्मिक कार्यो में कुश अवश्य ही ग्रहण किये जाने चाहिए । तथा सब तरहके शुभ कार्योंमें ताजा दूब ग्रहण की जाय ।। ८६ ॥ निषिद्ध दर्भ। ये त्वन्तर्भिता दर्भा ये छेद्या नखरैस्तथा । कुथिताश्चाग्निदग्धाश्च कुशा यत्नेन वर्जिताः ॥ ८७ ॥ ऐसे दर्भ काममें न लिये जायँ जिनका भीतरी भाग खराब हो गया हो, जो नखादिसे छिन्न भिन्न किये गये हों, मसले हुए हों तथा जले हुए हों ॥ ८७ ॥ अमावास्यां न च छिद्यात्कुशांश्च समिधस्तथा । अष्टम्यां च चतुर्दश्यां पंचम्यां धर्मपर्वसु ॥ ८८ ॥ अमावसके रोज कुश न उखाड़े और पीपल वगैरहकी लकड़ी भी न तोड़े। तथा अष्टमी, चतुर्दशी, पंचमी आदि पर्वदिनमें भी कुश वगैरह न उखाड़े। भावार्थ-सावन विदी १५ अथवा विदी चतुदर्शीको छोड़ कर अन्य पर्वोमें दर्भ तथा समिधा तोड़कर न लावे ॥ ८८ ॥ समित्पुष्पकुशादीनि श्रोत्रियः स्वयमाहरेत् । शूद्रानीतैः क्रयक्रीतैः कर्म कुर्वन्त्रजत्यधः ॥ ८९ ॥ समिधा, फूल, कुश आदि वस्तुओंको स्वयं जाकर लावे । शूद्रोंके द्वारा लाये हुए या पैसा देकर खरीदे हुए कुशादिकों द्वारा कर्म करनेवाला गिरस्ती नीच स्थानको प्राप्त होता है ।।८९॥ पवित्रकका लक्षण। चतुर्भिर्दर्भपिञ्जूलैर्ब्राह्मणस्य पवित्रकम् । एकैकन्यूनमुद्दिष्टं वर्णे वर्णे यथाक्रमम् ॥ ९० ॥ ब्राह्मणोंका चार दर्भोसे, क्षत्रियोंका तीन दर्भो और वैश्योंका दो दर्भोसे पवित्रक होता है। दर्भोके समूहको पवित्रक कहते हैं ॥ ९ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वार्णकाचार । सर्वेषां वा भवेत् द्वाभ्यां पवित्रं ग्रथितं नवम् । त्रिभिश्च शान्तिके कार्य पौष्टिके पश्चभिस्तथा ॥ ९१ ॥ अथवा तीनों ही वर्गों के लिए दो दर्भोका भी नया गुंथा हुआ पवित्र होता है । तथा शान्तिकर्ममें तीन और पौष्टिक कर्ममें पाँच दर्भीका पवित्रक बनाना चाहिए ॥११॥ चतुर्भिश्चाभिचारे तु निष्कामैरिति केचन । द्वौ दी दक्षिणे हस्ते सर्वदा नित्यकर्मणि ॥ ९२ ॥ जारण, मारण आदि कर्मों में चार दौंका पवित्र बनाया जाता है । किसी किसी आचार्यका कहना है कि निष्काम मनुष्योंके लिए भी चार दर्भोका पवित्र काममें लाया जाता है।तथा तीनों वर्णोको प्रतिदिनके कृत्योंमें हमेशा दो दर्भका पवित्र दाहिने हाथमें रखना चाहिए ॥ ९२ ॥ पूजायां तु त्रयो ग्राह्याः साग्राः स्युः षोडशाङ्गुलाः । द्विमूलमेकतः कुर्यात्पवित्रं चाग्रमेकतः ॥ ९३ ॥ पूजाके समय तीन दर्भीका पवित्र बनाया जाय। पवित्रके दर्भ सोलह अंगुल लम्बे होने चाहिए। उनकी नोकें टूटी हुई नहीं होनी चाहिए । तथा उन द की जड़ एक तरफ और नोकें एक तरफ होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि किसीकी जड़ किधर ही हो और नोकें किधर ही हों ॥ ९३ ॥ हयगुलं मूलवलयं ग्रन्थिरेकाङगुला मता। चतुरङ्गुलमग्रं स्यात्पवित्रस्य प्रमाणकम् ॥ ९४ ॥ उँगलीमें पिरोनेके पवित्रकी गोलाई दो अंगुल और उसकी गाँठ एक अंगुल प्रमाण होनी चाहिए । तथा उसका अग्र भाग चार अंगुल होना चाहिए । यह पवित्रका प्रमाण है ॥ ९४ ॥ स्नाने दाने जपे यज्ञे स्वाध्याये नित्यकर्माण । सपवित्रौ सदी वा करौ कुर्वीत नान्यथा ॥ ९५ ॥ स्नान, दान, जप, पूजा स्वाध्याय और नित्यकर्मके समय हाथमें पवित्र या दर्भ अवश्य रहने चाहिए । और और समयोंमें कोई आवश्यकता नहीं है ॥ ९५ ॥ करयुग्मस्थितैर्दभैः समाचामति यो गृही। महत्पुण्यफलं तस्य भुक्ते चतुर्गुणं भवेत् ॥ ९६ ॥ ___ जो गिरस्ती दोनों हाथोंसे दर्भ पकड़कर आचमन करते हैं उन्हें बड़ा पुण्य होता है । यदि पवित्र पहन कर भोजन किया जाय तो इससे चौगुना फल प्राप्त होता है ॥ ९६ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमारकावरचित दर्भ विना में कुर्वीत पायी जिमपूजनम् । जिनयज्ञे जये होमेमनग्रन्थिविधीक्ते ॥ १७ ॥ आचमन, जिमपूजन वगैरह क्रियाएँ बिना दौके न करे । तथा जिनपूजा, जप और होमके समय पवित्रकमें ब्रह्मगाँठ लगावे ॥९७ ॥ सपवित्रः सदर्भो वा कडाधमन परे । नोच्छिष्टं तात्पवित्र तु मुक्त्वोच्छिष्ट तु धर्जयेत् ॥ १८ ॥ पवित्रक या दर्भ हाथमें रखकर आचमन करना चाहिए । इस प्रकार आचमन करनेसे वह पवित्रक उच्छिष्ट नहीं होता। तथा भोजनके बाद वह उच्छिष्ट हो जाता है अतः हाथसे निकालकर उसे एक तरफ डाल दे॥९८ ॥ पवित्रकके भेद। दार्भ नागं च तानं वा राजतं हैममेव च । विभूषा दक्षिणे पाणौ पवितं चोत्तरोत्तरम् ॥ ९९ ॥ दर्भ, सीसा, ताँबा, चाँदी और सोना इनमेंसे किसी एकका पवित्रक ( उला) बनवाकर दाहिने हाथमें अवश्य पहने रहना चाहिए । पत्रिक दर्भसे सबसेका, सीसेसे ताँबेका, ताँबेसे चाँदीका और चाँदीसे सुवर्णका उत्तम गिना जाता है ॥ ९९ ॥ . अनामिक्यां धृतं हैमं तर्जन्यां रौप्यमेव च । ___ कनिष्ठायां धृतं तानं तेन पूतो भवेन्नरः ॥ १०० ॥ अनामिका-चिट्टीके पासवाली-उंगली में सोनेका, सर्जनी-अंगठेके पासकी-उंगलीमें चाँदीका और कनिष्ठा-आखिरकी चिट्टी-ऊँगलीमें ताँबेका छल्ला पहननेवाला मनुष्य पवित्र होता है ॥१०॥ कर्णयोः कुण्डले रम्ये करणं करभूषणम् । उत्तरीयं योगपट्ट पादुके रौप्यनिर्मिते ॥ १०१॥ श्रावकोंको दोनों कानोंमें सोमेके कुंडल, दोनों हाथोंमें सोनेके चूड़े (कड़े ) और पैरों में चाँदीकी खडाऊँ पहननी चाहिए तथा एक दुपट्टा और एक साफा पास होना चाहिए ॥१०१॥ न धार्य पितरि ज्येष्ठे भ्रातरि सुखजीवति । योगपटुं च तर्जन्यां मौंज रौप्यं च पादुका ॥१०२॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने पिता या बड़े काईके जीते हुए मौजूद होते हुए - तर्जनी — अँगूठे के पास की उँगली में पूँजका या चाँदीका पवित्रक न पहने ॥ १०२ ॥ 鹩 ( साका) न बाँधे तथा (छल्ला ) तथा पैरोंमें खड़ाऊँ सन्ध्याचमत्रमन्त्रः । पवित्रादेशे उपविश्य सध्या कार्मा । पवित्र स्थान में बैठकर सन्ध्या करना चाहिए । ॐ अद्य भगवतो महापुरुषस्य श्रीमदादिग्रह्मणो ऽत्र सरस्तीरे तस्य प्रपौत्रः तस्य पुत्रः श्रीवत्सगोत्रजोऽहं देवदत्तनामा प्रातः सन्ध्यां करिष्य इति मुकुलितकरः संकल्पः । प्रथम हाथ जोड़ “ॐ अद्य भगवते" इत्यादि मंत्रका संकल्प करे । इस मंत्र का भाव यह है कि भगवान् महापुरुष श्रीआदिब्रह्माका मतानुयायी, गुरुदत्तका प्रपौत्र, यज्ञदत्तका पौत्र और जिनदत्तवा पुत्र श्रीवत्सगोत्रोत्पन्न मैं देवदत्त आज इस नदीके किनारे पर प्रातःकालीन सन्ध्या करूँगा । मुख पोंछे । ॐ ह्रीं वक्ष्वीं वं मं हं सं तं पं द्रां द्रीं हंसः स्वाहा इत्यनेनाचमनं कुर्यात् । शंखमुद्रितहस्तेन सर्वोऽप्यत्र पिबेज्जलम् । यह मंत्र पढ़कर आचमन करे । और अपने दाहिने हाथको शंखमुद्राके आकर बनाकर आम जलको तीन बार पीवे । , * ॐ ॐ ॐ इत्येवं प्रत्येकमुच्चारयन् अंगुष्ठमूलेन त्रिधा वक्त्रं तिर्यक् सम्मार्जयेत् । ॐ ॐ ॐ इस तरह तीन बार उच्चारणकर अँगूठेके नीचले पैरेसे तीन बार मुखको टेढ़ा पीछे 1 ‘हीँ ँ हीँ ँ हीँ ँ ' इति हस्ततलेनोपरिष्टादधो द्विः सम्मार्जयेत् । ह्रीं सह तीन बार बीलकर हाथकी हथेलीसे ऊपरसे नीचेको दो बार इवीं इवीं इस मुखका स्पर्शन करे । , वीँ स्वी' इति तर्जन्यादित्रयेणास्य स्पृशेत् । तरह दो बार बोलकर तर्जनी, मध्यमा और अनामिका इन तीन उँगलियों से Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहारकविरचित क्ष्वी इत्येकवारं मुखं, एवं तर्जन्यंगुष्ठाभ्यां दक्षिणं वामं च नासाविवरं वं मं । अंगुष्ठानामिकाभ्यां चक्षुषी हं सं । कनीयस्यंगुष्ठयुग्मेन श्रोत्रयुग्मं तं पं। अंगुष्ठेन नाभि द्रां । तलेन हृदयं द्रीं । हस्ताग्रेण भुजशिखरयुगं हं सः। समस्तहस्तकेन मस्तकं. स्पृशेदेकवारमेव स्वाहा इति । इति श्रोत्राचमनविधिः क्रियाभेदात्पञ्चदशधा । . . अङ्गभेदात्पुनद्वादशधा । - वीं बोलकर मुखका एक बार स्पर्शन करे । इसी तरह “वं मं” बोलकर तर्जनी और अँगूठेके द्वारा नाकके दो छेदोंका, "हं सं" उच्चार कर अँगूठे और अनामिका द्वारा दोनों आँखोंका, “तं पं" कहकर कनिष्ठा और अँगूठे द्वारा दोनों कानोंका, “ द्रा" पढ़कर अँगूठेके द्वारा नाभिका, “ द्रीं” बोलकर हस्ततलसे हृदयका, “ हं सः ” पढ़कर हाथके अग्रभाग द्वारा दोनों कन्धोंका, “ स्वाहा ” कहकर सब हाथके द्वारा संपूर्ण सिरका एक एक बार स्पर्शन करे । इस तरह यह श्रोत्राचमन-विधि की जाती है जो क्रियाभेदसे पंद्रह प्रकार और अंगोंके भेदसे बारह प्रकारकी है। ततोऽनामिकायां दर्भ निधायानामिकाङ्गुष्ठाभ्यां नासाग्रं गृहीत्वा ॐ भूर्भुवः स्वः अ सि आ उ सा प्राणायामं करोमि स्वाहा । इति त्रिरुच्चार्य कुम्भकपूरकरेचकान् कुर्वन् प्राणायाम कुर्यात् । इसके बाद, अनामिकामें दर्भीको पकड़े तथा अनामिका और अँगूठेसे नाकके अग्रभागको पकड़े । और “ॐ भूर्भुवः " इत्यादि मंत्रका तीन बार उच्चारण कर कुंभक, पूरक और रेचक इन तीनोंको करता हुआ प्राणायाम करे । इस तरह सन्ध्योपासन विधि की जाती है । अर्घोपासन-विधि । शुद्धां कृत्वा ततो भूमि शोधितोदकसेचनैः । उपविश्य नदीतीरे तत्र जन्तुविवर्जिते ॥ १०३ ॥ आचमनं ततः कृत्वाऽनामिकायां कुशं ततः। निधाय मार्जनं कृत्वा मस्तकोपरि सेचयेत् ॥ १०४ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णिकाचार । ७१ सव्यहस्तेन देवेभ्यो दत्वा भूमौ जलाञ्जलिम् । पीत्वाऽऽचम्य च सम्माय॑ मस्तकोपरि सिञ्चयेत् ॥ १०५ ॥ इसके बाद जीवजन्तु रहित नदीके किनारे परकी भूमिको छने हुए प्रासुक जलसे सींचकर शुद्ध बनावे । इसके बाद उस पर बैठ कर आचमन करे । अनामिकामें कुश पकड़ कर और मार्जन कर मस्तकके ऊपर जलके छींटे डाले । दाहिने हाथसे देवों के लिए जमीन पर जलकी अंजलि छोड़े फिर आचमन कर, जरासा जल पी, सम्मार्जन कर सिर पर थोड़ा सा जल सींचे ॥ १०३ ॥ १०५ ॥ षट् वा त्रीण्यथवा_णि समुद्धार्य सुधीस्ततः। कुशाद्यासनसुस्थाने चोपविश्य समासतः ॥ १०६॥ ऊपरके श्लोंको द्वारा बताई गई क्रियाओंके कर चुकनेके बाद, दर्भ आदिके बने हुए उत्तम आसनों पर बैठ कर छह बार या तीन बार जलकी अंजली देवे ॥ १०६ ॥ बैठने योग्य आसन। वंशासने दरिद्रः स्यात्पाषाणे व्याधिपीडितः। धरण्यां दुःखसम्भूतिदौर्भाग्यं दारुकासने ॥ १०७ ॥ तृणासने यशोहानिः पल्लवे चित्तविभ्रमः । अजिने ज्ञाननाशः स्यात्कम्बले पापवर्द्धनम् ॥ १०८ ॥ नीले वस्त्रे परं दुःखं हरिते मानभंगता । श्वैतवस्त्रे यशोवृद्धिर्दारिद्रे हर्षवर्धनम् ॥ १०९ ॥ रक्तं वस्त्रं परं श्रेष्ठं प्राणायामविधौ ततः । सर्वेषां धर्मसिध्द्यर्थ दर्भासनं तु चोत्तमम् ॥ ११० ॥ प्राणायाम करते समय बाँसके आसन पर बैठनेसे दरिद्री होता है, पत्थरके आसन पर बैठनेसे रोगी होता है, पृथिवी पर बैठनेसे दुःख उत्पन्न होता है, लकड़ीके आसनपर बैठनेसे दौर्भाग्य प्राप्त होता है, तृणोंके आसनपर बैठनेसे यशकी हानि होती है, पत्तोंके आसनपर बैठनेसे चित्त स्थिर नहीं रहता, चर्मके आसनपर बैठनेसे ज्ञानका नाश होता है, कंबल पर बैठनेसे पापकी वृद्धि होती है, नील वस्त्र पर बैठनेसे बड़ा भारी क्लेश उत्पन्न होता है, हरित आसन पर बैठनेसे अपमान होता है, सफेद वस्त्र पर बैठनेसे यश फैलता है, पीले वस्त्रपर बैठनेसे हर्ष बढ़ता है, और लाल कपड़े पर बैठना सबसे श्रेष्ठ है । तथा सभी धर्मकार्योंकी सिद्धिंके लिए दर्भके बने हुए आसनपर बैठना सबसे श्रेष्टं है ॥१०७॥१०८।१०९॥११०॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333 सोमसेनभङ्गादार • जमा करने की विधि। समं ध्याने मनः कृत्वा मध्यदेशेषु निश्चलम् । ज्ञानमुद्राङ्कितो भूत्वा स्वाङ्के तु वामहस्तकम् ॥ १११ ॥ तर्जनीभ्यां तु सव्यहस्तेन निर्मलाम् । जपमालां समादाय जपं कुर्याद्विचक्षणः ॥ ११२ ॥ ध्यान करते समय सब पदार्थोंमें समताभाव रक्खे, अपने मनको रोककर निश्चल करे – उसे इधर उधरके विषयों न जाने दे । आप स्वयं ज्ञानमुझसे अंकित हो जाय और बायें हाथ को नाभिके पास सीधा रख कर, दाहिने हाथ के अंगूले और तर्जनी उंगली उस पवित्र जपमालाको पकड़ कर जप करे ॥ १११ ॥ ११२ ॥ नमस्कारपञ्चपदान् जपेद्यथावकाशकम् । अष्टोत्तरशतं चार्द्धमष्टाविंशतिकं तथा ॥ ११३ ॥ द्विद्वद्येकपदविश्राम उच्छ्वासाः सप्तविंशतिः । सर्वपापं क्षयं याति जते कञ्चनमस्क्रेते ।। ११४ अपनेको जैसा अवकाश हो उसीके अनुसार पंचनमस्कार मंत्र एकसौ आठ या चौपन या अट्ठाईस जाप देवे । दो दो और एक पदका उच्चारण कर विश्राम लेता जाय - 'अहद्भयो नमः, सिद्धुभ्यो नमः'इन दो पदोंको बोलकर थोड़ासा रुके । फिर 'आचार्योम्यो नमः, उपाध्यायेभ्यो नम:' इन दो पदोंको बोलकर थोड़ासा रुके | बाद 'साधुभ्यो नमः ' इस एक पदको बोलकर रुके । इसी प्रकार एक सौ आठ जाप करे । एक एक श्वासमें इसी तरह बार बार जाप देकर सत्ताईस श्वासों में एक सौ आठ जाप पूरे कर दे | इस विधि के अनुसार पंचनमस्कार मंत्री जाप करकेसे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ११३ ॥ ११४ ॥ वाचिकाख्य उपांशु मानसखिविधः स्मृतः । त्रयाणां जपमालानां स्याच्छ्रेष्ठो ह्युत्तरोत्तरः ।। ११५ ॥ जपमालाके तीन भेद माने गये हैं । वाचिक, उपांशु और मानस । इन तीनों जपमालाओं में बाचिकसे उपांशु और उपांशुसे मानसिक श्रेष्ठ गिना जाता है। इनके क्रमसे लक्षण कहे जाते हैं ॥ ११५ ॥ यदुच्चनीचस्वरितैः शब्दैः स्पष्टपदाक्षरैः । मन्त्रमुच्चारयेद्वाचा जपो ज्ञेयः सः बाचिकः ॥ ११६ ॥ १ इसके आगे किसी किसी पुस्तकमें ' प्राप द्वैवं तव नुति इत्यादि एकीभाव स्तोत्रका श्लोक पाया. जाता है Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमर्णिकाचार । ह्रस्व, दीर्घ और प्लुल शब्दके अक्षरोंसे बने हुए मंत्रका वाणी द्वारा स्पष्ट उच्चारण करना उसे बाचिक जप कहते हैं ॥ ११६ ॥ शनैरुच्चारयेन्मन्त्रं मन्दमोष्ठौ प्रचालयेत् । अपरैरश्रुतः किञ्चिस्स उपांशुर्जपः स्मृतः ॥ ११७ ॥ मंत्रके अक्षरोंका बहुत ही धीरे धीरे उच्चारण करना, मन्द मन्द ओठोंको चलाना और जिसे दूसरे लोग जरा भी न सुन सकें उसे उपांशु जप कहते हैं ॥ ११७ ॥ विधाय चाक्षश्रेण्या वर्णाद्वर्ण पदात्पदम् । शब्दार्थचिन्तनं कथ्यते मानसो जपः ॥ ११८ ॥ भूयः वर्ण से वर्णको और पदसे पदको -- जिस तरहका मंत्रके अक्षरों वा शब्दोंका क्रम है उसी क्रमसे-हृदय में धारण कर शब्द - अर्थका बार बार चिन्तवन करना मानस जप कहा जाता है ।। ११८ ॥ १० मानसः सिद्धिकाम्यानां पुत्रकाम्य उपांशुकः । वाचिको धनलाभाग प्रशस्तो जप ईरितः ।। ११९ ॥ सिद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंके लिए मानस जप, पुत्र चाहनेवाले पुरुषोंके लिए उपांशु जप और धन कमानेकी इच्छा रखनेवालोंके लिए वाचिक जप शुभ माना गया है ॥ ११९ ॥ वाचिकस्त्वेक एव स्यादुपांशुः शत उच्यते । सहस्रं मानसः प्रोक्तो जिनसेनादिसूरिभिः ।। १२० ॥ एक बार किया हुआ वाचिक जप एक ही बारके बराबर होता है, उपांशु जप एक बार भी किया हुआ सौ बार किये हुएके बराबर होता है और मानसिक जप हजार बार किये हुएके बराबर होता है । ऐसा बड़े बड़े जिनसेन आदि प्रखर महर्षियोंका अभिमत है ॥ १२० ॥ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च शतमष्टोत्तरं जपेत् । वानप्रस्थश्च भिक्षुश्च सहस्रादधिकं जपेत् ॥ १२१ ॥ ब्रह्मचारी और गृहस्थ एक सौ आठ बार जप करें। तथा वानप्रस्थ और यति एक हजार आठ बार जप करें १२१ ॥ अनध्यायेऽष्टोत्तरं स्याच्छातमन्यत्र चार्द्धकम् । पूजायां दशकं ज्ञेयं यथाशक्ति समाचरेत् ।। १२२ ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित अनध्याय के दिनों में एक सौ आठ, इसके सिवा अन्य दिनोंमें इससे आधे - चौवन और पूजाके समय दश जप अपनी शक्तिके अनुसार करे ॥ १२२ ॥ जप करनेका स्थान । गृहे जपफलं प्रोक्तं वने शतगुणं भवेत् । पुण्यारामे तथाऽरण्ये सहस्रगुणितं मतम् ।। १२३ ।। पर्वते दशसाहस्रं नद्यां लक्षमुदाहृतम् । कोटिं देवालये प्राहुरनन्तं जिनसन्निधौ ॥ १२४ ॥ घरमें बैठ कर जप करनेसे जो फल होता है उससे सौ गुणा वनमें बैठ होता है और वही पुण्यरूप बगीचे या जंगलमें बैठकर किया जाय तो सहस्र गुणा, पर दश हजार गुणा, नदीके किनारे पर एक लाख गुणा, देवालय में एक करोड़ प्रतिमाके सामने अनन्त गुणा फलता है ॥ १२३ ॥ १२४ ॥ व्रतच्युतान्त्यजादीनां दर्शने भाषणे श्रुतौ । क्षुतेऽधोवातगमने जृम्भणे जपमुत्सृजेत् ।। १२५ ।। जप करते करते व्रतच्युत पुरुषों और चाण्डाल आदिके देखनेपर, उनकी बोली सुनाई देनेपर अपने को छींक आनेपर, अपान वायुका प्रसारण होने पर और जँभाई आनेपर जप करना बन्द कर दे ॥ १२५ ॥ कर जप करने से पर्वत के शिखर गुणा और जिन प्राप्तावाचम्य चैतेषां प्राणायामं षडंगकम् । कृत्वा सम्यक् जपेच्छेषं यद्वा जिनादिदर्शनम् ।। १२६ ॥ यदि जप करते समय उपर्युक्त बाधाएँ उपस्थित हो जायँ तो आचमन कर षडंग प्राणायाम करे अथवा उठ कर जिन भगवानका दर्शन करे । बाइ बाकी बची हुई जाप पूर्ण करे ॥ १२६ ॥ एवं जपविधिं कृत्वा तत उत्थाय भक्तितः । हस्तौ द्वौ मुकुलीकृत्य पूर्वाभिमुखसंस्थितः ।। १२७ ॥ वन्दनाकर्म सन्ध्याया निवर्त्यालसवर्जितः । उपविशेत्पुनस्तत्र शिष्टामाचरितुं क्रियाम् ॥ १२८ ॥ ऊपर कहे अनुसार जपविधिको करके आसनसे उठकर खड़ा होवे और पूर्व दिशा की ओर मुँह कर, दोनों हाथ जोड़ कर आलस्य रहित हो, भक्तिपूर्वक सन्ध्या-सम्बन्धी वंदना नामकी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | wwwwwwwww क्रिया करे । इसके बाद अन्य बाकी बची हुई क्रियाको करनेके लिए उसी आसन पर पुनः बैठे ॥ १२७ ॥ १२८॥ सव्यजानुपुरो दर्भयुक्तहस्तद्वयस्तथा । वामहस्तमधः कृत्वा मुकुलीकृत्य दक्षिणम् ॥ १२९ ॥ त्रिरुच्चार्य ततो मंत्रं प्राणायामोदितं पुरा । आचमनं पुनः कुर्यान्मुक्तिमार्गप्रदायकम् ॥ १३० ॥ जिनेन्द्रादिमहर्षीणां दर्भर्वोदकैस्तथा । वृषभादिसुपितॄणां तिलमिश्रोदकैः परम् ॥ १३१ ॥ जयादिदेवतानां च तर्पणं चाक्षतोदकैः । एवं विधाय सन्ध्यायाः कर्म सान्ध्यं समापयेत् ॥ १३२ ॥ दाहिनी जंघाके ऊपर बायें हाथको नीचे और दाहिने हाथको ऊपर रक्खे, दोनोंमें दर्भ ले। इसके बाद पहले प्राणायाम करते समय कहे गये मंत्रका तीन बार उच्चारण कर पुन: उस मोक्षमार्गका प्रदान करनेवाले आचमनको करे । तथा दर्भ, दूब और जलसे जिनेन्द्रादि महर्षियोंका, तिल-मिश्र जलसे वृषभादि पितरोंका, अक्षत और जलसे जयादि देवतोंका तर्पण करे । इस तरह प्रातःकाल-सम्बन्धी सन्ध्या कर सन्ध्याविधि पूर्ण करे ॥ १२९॥ १३२॥ शौचान्ते रोगपीडान्ते मृतकानुगमे तथा । अस्पृश्यस्पर्शने चैव आचमादिक्रियां चरेत् ॥ १३३ ॥ शौच कर चुकने पर, रोगके दूर होने पर, मृतकके साथ स्मशान जानेपर और अस्पृश्य लोगोंका स्पर्श होजानेपर आचमनादि क्रियाओंको करे ॥ १३३ ॥ स्नानतर्पणके त्यक्त्वा शेषां चापि चरेक्रियाम् । सर्वां मध्याह्नसायाह्नसन्ध्ययोद्विजसत्तमः ॥१३४ ॥ त्रैवर्णिक श्रावक, दो पहरको और सायंकालको स्नान और तर्पणको छोड़कर बाकीकी सब क्रियाओंको करे ॥ १३४ ॥ ---- संध्या करनेका समय। सूर्योदयाच्च प्रागेव प्रातःसन्ध्यां समापयेत् । तारकादर्शनात्सर्व सन्ध्यां सायाह्निकी चरेत् ॥ १३५ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहानिरवत मध्यसन्ध्या तु मध्याले काले कृत्यं फलप्रदम् । अकाले निर्मितं कार्य स्वल्पं फलति वा न वा ॥ १३६ ॥ प्रातःकाल सम्बन्धी सन्ध्याको सूर्योदयसे पहले पहले समाप्त कर दे । सायंकाल सम्बन्धी सन्ध्या तारे देखनेसे पहले पहले करे । तथा दो पहर सम्बन्धी संध्याको दो पहरको करे । जो क्रिया अपने ठीक समयमें की जाती है वही उत्तम फलको देनेवाली होती है । और जो अपने ठीक समय पर नहीं की जाती वह बहुत ही स्वल्प फलको फलती है अथवा नहीं भी फलती ॥ १३५॥ १३६ ॥ घटिकाद्वितयं कालादतिक्रामति चेत्तदा । न दोषाय भवत्यत्र लोकास्यादृषणं स्मृतम् ॥ १३७ ॥ सन्ध्या करनेका जो समय है उससे यदि दो घड़ी समय अधिक हो जाय तो कोई दोष नहीं है । पर इस विषयमें लोगोंके मुखसे दूषण सुननेमें आते हैं ॥ १३७ ॥ उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका । अधमा सूयेसंयुक्ता प्रातःसन्ध्या त्रिधा स्मृता ॥ १३८॥ सबह, दोपहर और सायंकाल इस तरह तीन समय सन्ध्या करना चाहिए। प्रातःकाल संबंधी संन्ध्याके तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य । जो संध्या सुबहके समय तारे न लिपनेके पहले पहले की जाती है वह संध्या उत्तम मानी गई है। और जो तारोंके छिप जाने पर की जाती है वह संध्या मध्यम दर्जेकी संध्या है । तथा सूर्यके उग आने पर जो संध्या की जाती है वह जघन्य दर्जेकी है ॥ १३८॥ अह्नो रात्रेश्च यः सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः । सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्वदर्शिभिः ॥ १३९ ॥ सूर्योदय न होनेके पहले और नक्षत्रोंके छिप जाने पर जो दिन और रात्रिके सन्धिका समय है उसे तत्त्वदशी मुनि संध्या कहते हैं ॥ १३९ ॥ सन्थ्योत्तमा तृतीयांशे पञ्चमांशे दिनस्य तु । मध्याहिकी तदूर्ध्व वा पूर्वेव स्याद्विधौ हि सा ॥ १४० ॥ दिनके तीसरे हिस्सेमें अथवा पाँचवें हिस्सेमें मध्याह्न संध्या करनी चाहिए । इसी समयमै मध्याह्न संध्या करना उत्तम है । इसके अलावा समयमें मध्याह्न सध्याका करना पहलेकी तरह निष्फल समझना चाहिए ॥१४॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्ध्याकाले तु सम्माने सनयां वरापासते। जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते ॥ १४१ ॥ सन्ध्या करनेके जो जो सम्म बताये गये हैं उन उन समयों में जो त्रैवर्णिक संध्या नहीं करता है वह इस भवमें जीता हुआ भी शूद्रके तुल्य है और मरकर पाभको कुत्तेका जन्म धारण करता है । भावार्थ-यह भयानक वाक्य है, इसका सारांश यही है कि त्रैवर्णिकोंको सुबह, शाम और दो पहरको संध्या करना चाहिए । बिना संध्या किये उनका यह लोक और परलोक दोनों ही व्यर्थ हैं । ग्रंथकारका तात्पर्य उन प्राणियोंको अच्छे पथपर लानेका है अत एव वे इतना भय दिखलाते हैं । केवल भय ही नहीं है, किन्तु उसका नतीजा भी बुरा ही है ॥ १४१ ॥ सन्ध्याकाले त्वतिक्रान्ते स्नात्वाऽऽचम्य यथाविधि । जपेदष्टशतं जाप्यं ततः सन्ध्यां समाचरेत् ॥ १४२ ॥ यदि संध्या करनेका समय कारणवश बीत चुका हो तो विधिपूर्वक स्नान और आचमन कर एक सौ आठ जाप करे और उसके बाद सन्ध्या करना प्रारंभ करे ॥ १४२ ॥ राष्ट्रभङ्गे नृपक्षोभे रोगातौ सूतकेऽपि च । सन्ध्यावन्दनविच्छित्तिनं दोषाय कदाचन ॥ १४३ ॥ राष्ट्रके विप्लचके समय, राजाके क्षोभके समय, सेगसे पीड़ित हो जानेके समय और जन्म-मरण संबंधी सूतकके समय, सन्ध्यावंदनका विच्छेद हो जाय- सम्मा न कर सके तो कोई दोष नहीं है ॥ १४३॥ देवाग्निद्विजविद्यानां कार्ये महति सम्भवे । सन्ध्याहीने न दोषोऽस्ति यसत्सत्कर्मसाधनात् ॥ १४४ ॥ देव, द्विज, अग्नि और विद्याके कारण यदि कोई बड़ा भारी पुण्य कार्य आ उपस्थित हो और उस समय सन्ध्या न की जा सके तो भी कोई हानि नहीं है । क्योंकि उस समयमें और पुण्य कार्य साधन किये जाते हैं ॥ १४४ ॥ अथार्थ्यवितरणमन्त्रः । ॐझी वी उपवेशनभूः शुद्धचत स्वाहा । दर्भादिना उपवेशनभूमि मार्जयेत् । “ॐ ह्रीं क्ष्वीं" पावि मंच पढ़कर दर्भ आदिके द्वारा बैठनेकी अमहका मार्जन करे। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सोमसेनभेट्टारकविरचित ॐ ही अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्रावयं सं सं क्लीं क्लीं ब्लूं ब्लूं द्राँ द्राँ द्रीँ द्रीं द्रावय द्रावय हं झं क्ष्वीं हंसः असि आउ सा मार्जनं शिर ऊपरि सेचनं करोमि स्वाहा । मार्जनान्ते शिरः परिषेचनम् । “ ॐ ह्रीं अमृते ” इत्यादि मंत्र पढ़कर मार्जनके पश्चात् सिरपर पानीके छींटे छोड़े । ॐ ही लॉं वः पः की वी हं सः चुलकोदकधारणं करोमि स्वाहा । ततः सव्यचुलकेनोदकमुद्धृत्य - " “ ॐ ह्रीं लाँ ” इत्यादि मंत्र पढ़कर दाहिने हाथके चुल्लूमें जल ले । ॐ ही अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधवो मम दुष्कृतनिष्कृतं अन्तःशुद्धिं कुर्वन्तु । हँ झं इवीं क्ष्वीं चुलकामृतं पिबामि स्वाहा । जलपानं कृत्वाऽऽचम्य- पश्चात् यह मंत्र पढ़कर, उस चुल्लूके जलको पीकर आचमन करे । ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रीँ प्हः नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पद्ममहापद्मतिगंछकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीकगङ्गासिन्ध्वादिनदनद्याद्युदकेन कनकघटपरिपूरितेन वररत्नगन्धपुष्पाक्षताद्यैरभ्यर्चितामोदितेन जगद्वन्द्यार्हत्परमेश्वराभिषवपवित्रीकृतेन मार्जनं करोमि स्वाहा । इति जलं संस्पृष्ट्वाऽभिमन्त्र्य -- इस तरह यह मंत्र पढ़कर जलका स्पर्श कर उसे मंत्रित करे । ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोषाय दिव्यतेजोमूर्तये नमः श्री शान्तिनाथाय शान्तिकराय सर्वविघ्नप्रणाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय सर्वक्षामडामरविनाशनाय ॐ हां हीं हूं हौं न्हः असि आ उसा नमः द्रौं द्रौं वंशं मंहं सं इवीं वीं क्ष्वीं हंसः असि आउ सा मम सर्वशान्ति कुरु कुरु स्वाहा । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रैवर्णिकाचार । पश्चात् 'ॐ नमोऽर्हते' इत्यादि मंत्र पढ़कर उससे मार्जन करे और सिरपर सींच कर नीचे लिखे अनुसार छह अर्घ देवे। मार्जनं कृत्वा शिरः परिषिच्य षडाणि समुद्धरेत् । ॐ ही सर्वभवनेन्द्रार्चितसमस्ताकृत्रिमचैत्यचैत्यालयेभ्यः स्वाहा ॥१॥ ॐ हीं व्यन्तरेन्द्रार्चितसमस्ताकृत्रिमचैत्यचैत्यालयेभ्यः स्वाहा ॥२॥ ॐ हीं ज्योतिष्केन्द्राचिंतसमस्ताकृत्रिमचैत्यचैत्यालयेभ्यः स्वाहा ॥३॥ ॐ हीं कल्पेन्द्रार्चितसमस्ताकृत्रिमचैत्यचैत्यालयेभ्यः स्वाहा ॥४॥ ॐ ही सर्वाहमिन्द्रार्चितसमस्ताकृत्रिमचैत्यचैत्यालयेभ्यः स्वाहा ॥२॥ ॐ हीं विश्वेन्द्रार्चितमध्यलोकास्थतसमस्तकृत्रिमाकृत्रिमचैत्यचैत्याल येभ्यः स्वाहा ॥६॥षडय॑मन्त्राः। ये छह अर्घ देनेके छह मंत्र हैं। अर्घ चढ़ानेके तीन मंत्रःॐ हीं विश्वचक्षुषे स्वाहा । ॐ हीं अनुचराय स्वाहा । ॐ हीं ज्योतिर्मतये स्वाहा ॥३॥ इत्यर्च्यत्रयमन्त्राः । ये तीन मंत्र तीन अर्घ चढ़ानेके हैं। इन्हें पढ़कर तीन अर्घ चढ़ावे । णमो अरिहंताणमित्यादिमन्त्रेणाष्टोत्तरशतं तथा । चतुःपञ्चाशत्तथा सप्तविंशतिकं जपेत् ॥ १४५ ॥ पश्चात् “णमोअरहेतार्ण” इत्यादि पंच परमेष्ठी मंत्रके एकसौ आठ अथवा चौबन या सत्ताईस जाप देवे ॥ ९॥ इसके बादःस्वयम्भूभगवानहन्परः परमपूरुषः । परमात्मा पवित्रात्मा पवित्रयतु नो मनः ॥ १४६ ॥ देवदेवो महादेवः परात्मा परमेश्वरः । परमः परमब्रह्म स्वयम्भूतः पुनातु नः ॥ १४७ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहाकविरचित मूर्भुवः स्वः स्वधा स्वाहा पवित्रं पावनं परम् । पूतं भागवतं ज्योतिः पुनीतान्मम मानसम् ॥ १४८ ॥ इत्युच्चार्य परमात्मानं नमस्कुर्यात् । . इन तीन श्लोकोंको पढ़कर परमात्माको नमस्कार करे । ततो जलाञ्जलिं गृहीत्वा झं व व्हः पः हः स्वाहा । इति मन्त्रमुच्चारयन् प्रदक्षिणं परिक्रम्य पूर्वस्यां दिशि जलं विसृजेत् । इसके पीछे हाथमें जलांजलि लेकर “ हूँ वँ " इत्यादि मंत्रका उच्चारण करता हुआ प्रदक्षिणा रूपसे चारों ओर घूमकर पूर्व दिशामें उस जलका विसर्जन करे। ततोऽपि मुकुलितकरकुड्मलः सन् “ॐ नमोऽहते भगवते श्रीशान्तिनाथाय शान्तिकराय सर्वविधप्रणाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय मम सर्वशांतिर्भवतु ।" इत्युच्चार्यइसके बाद, दोनों हाथोंको मुकुलित कर “ॐ नमोऽहते " इत्यादि मंत्रका उच्चारण कर पूर्व दिशाकी ओर मुख कर पूर्वस्यां दिशि इन्द्रः प्रसीदतु पूर्व दिशा में इन्द्र प्रसन्न हो, ऐसा कहे । आमेय दिशाकी तरफ मुख कर आग्नेयां दिशि आग्निःप्रसीदतु आग्नेय दिशामें अग्निकुमार प्रसन्न हो, ऐसा कहे । दक्षिण दिशामें मुख कर, दक्षिणस्यां दिशि यमः प्रसीदतु दक्षिण दिशामें यम प्रसन्न हो, एसा कहे । नैऋत दिशामें मुख कर नैर्ऋत्यां दिशि निऋतः प्रसीदतु नैऋत्य दिशामें निकत प्रसन्न हो, ऐसा कहे । पश्चिम दिशामें मुख कर पश्चिमस्यां दिशि वरुणः प्रसीदतु पश्चिम दिशामें वरुण प्रसन्न हो, ऐसा कहे । वायव्य दिशामें मुख कर वायव्यां दिशि वायुः प्रसीदतु वायव्य दिशामें वायुकुमार प्रसन्न हो, ऐसा कहे। उत्तर दिशामें मुख कर उत्तरस्यां दिशि यक्षः प्रसीदतु उत्तर दिशामें यक्ष प्रसन्न हो, ऐसा कहे । ईशान दिशामें मुख कर ईशान्यां दिशि ईशानः प्रसीदतु ईशान दिशामें ईशानदेव प्रसन्न हो, ऐसा कहे । अधो दिशाकी तरफ दृष्टि डाल कर अधरस्यां दिशि घरणेन्द्रः प्रसीदतु अधो दिशामें घरणेंद्र प्रसन्न हो, ऐसा कहे । ऊपरकी तरफ दृष्टि कर ऊर्ध्वायां दिशि चन्द्रः प्रसीदतु उर्द्ध दिशामें चन्द्र प्रसन्न हो, ऐसा कहे ॥२॥ इति दशदिक्पालान्प्रसाद्य सन्ध्यावन्दनां निवर्तयेत् । इस तरह दश दिक्पालोंको प्रसन्न कर सन्ध्यावन्दना पूरी करे। अब इसके बाद करनेकी क्रिया बताते हैं:अथोत्तरक्रिया । तदनन्तरमुपविश्य सव्यजान्वये दर्भगर्भ मुकुलीकृत्य करकुङ्मलमधरीकृत्य वामहस्तं विन्यस्य Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 99 प्राणायाममन्त्रं त्रिरुच्चार्य " मोक्षमार्गस्य बेतारं सारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ “ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " । इति वाचनां गृहीत्वा दर्भोदकेन ऋषीणां तर्पणं कुर्यात् । तद्यथा - ११ ८१ संध्यावंदन हो चुकने के बाद पर्यकासन बैठकर दाहिनी जाँघकी टखनीपर दोनों हाथोंको मुकुलित कर रक्खे । उसमें बायें हाथको नीचे और दाहिने हाथको ऊपर रक्खे | दोनों हाथोंमें दूब ले । पश्चात् प्राणायामके मंत्रोंका तीन बार उच्चारण कर " मोक्षमार्गस्य नेतारं ” इत्यादि श्लोक और “ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " इत्यादि सूत्र पढ़कर दर्भके अग्रमाग में जल लेकर उससे ऋषियोंका तर्पण करे । वह इस तरह करे - ॐ ह्रीं अर्हत्परमेष्ठिनस्तर्पयामि । ॐ हीं सिद्धपरमेष्ठिनस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिनस्तर्पयामि । ॐ हीं उपाध्यायपरमेष्ठिनस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं सर्वसाधुपरमेष्ठिनस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं जिनाँस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं अवधिजिनांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं परमावधिजिनांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं सर्वावधिजिनांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं अनन्तावधिजिनांस्तर्पयामि । एवं । ॐ ह्रीं कोष्ठबुद्धींस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं बीजबुद्धींस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं पादानुसारिणस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं सम्भिन्नश्रोतॄंस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं प्रत्येकबुद्धांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं स्वयम्बुद्धांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं बोधितबुद्धांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं ऋजुमतींस्तर्पयामि । ॐ ही विपुलमतींस्तर्पयामि ॐ -हीं दशपूर्विणस्तर्वयामि ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्विणस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं अष्टाङ्गमहानिमित्तकुशलांस्तर्पयामि 1 ॐ ह्रीं विक्रियद्धिप्राप्तांस्तर्पयामि ॐ ह्रीं विद्याधरांस्तर्षयामि 1 ॐ ह्रीं चारणांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं प्रज्ञाश्रवणांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं आकाशगामिनस्तर्पयामि 1 ॐ ह्रीं आस्यविषांस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं दृष्टिविषांस्तर्पआमि । ॐ ह्रीं उग्रतपस्विनस्तर्पयामि । ॐ ह्रीं दीप्ततप 1 । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ सोमसेनभहारकविरचित anwww स्विनस्तर्पयामि । ॐ हीं तप्ततपस्विनस्तर्पयामि । ॐ ही महातपसस्तर्पयामि । ॐ हीं घोरतपसस्तर्पयामि । ॐ ही घोरगुणांस्तर्पयामि । ॐ ही घोरपराक्रमास्तर्पयामि । ॐ ही घोरब्रह्मचारिणस्तर्पयामि । ॐ हीं आमपौषधिप्राप्तांस्तर्पयामि । ॐ हीं वेडौषधिप्राप्तांस्तर्पयामि । ॐ ही जल्लोषधिप्राप्तांस्तर्पयामि । ॐ हीं विप्रौषधिप्राप्तांस्तर्पयामि । ॐ हीं सौषधिप्राप्तांस्तर्पयामि । ॐ ही मनोबलिनस्तर्पयामि । ॐ हीं वाग्बलिनस्तर्पयामि । ॐ हीं कायबलिनस्तर्पयामि । ॐ हीं अमृतश्राविणस्तर्पयामि । ॐ हीं मधुस्राविणस्तर्पयामि । ॐ हीं सर्पिस्त्राविणस्तर्पयामि । ॐ हीं क्षीरस्राविणस्तर्पयामि । ॐ हीं अक्षीणमहानसांस्तर्पयामि । ॐ हीं अक्षीणमहालयांस्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह लोके सर्वसिद्धायतनानि तर्पयामि स्वाहा । ॐ हीं अर्ह भगवतो महतिमहावीरवर्द्धमानबुद्धिऋषींस्तर्पयामि । इति ऋषितर्पणमन्त्रा त्रिपश्चाशत् । ततस्तेषां नमस्कारमन्त्रोऽयम् । ॐ हीं अहं क्यौं क्यौं नमः। ये त्रेपन ऋषितर्पण मंत्र हैं । तर्पणके बाद उन सबको नमस्कार करे । “ॐ हीं अर्ह " इत्यादि यह नमस्कार मंत्र है। अथ पितॄणां तर्पणं कुर्यात्तिलोदकेन- ॐ हीं अहं श्रीऋषभस्य भगवतः पितरौ तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह अजितस्य भगवतः पितरौ तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह सम्भवस्य भगवतः पितरौ तर्पयामि । ॐ हीं अहं भगवतोऽभिनन्दनस्य पितरौ तर्पयामि । ॐ हीं अह इत्यादि वर्धमानपर्यन्तं योज्यम् । ॐ हीं अर्ह अस्मत्पितरौ तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह तत्पितरौ तर्पयामि । ॐ हीं अहं तत्पितरौ तर्पयामि । ॐ व्ही. अर्ह अस्मदीक्षागुरुं तर्पयामि । ॐ ही अर्ह अस्मद्विद्यागुरुं तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह अस्मच्छिक्षागुरुं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रैवर्णिकाचार । wwwww तर्पयामि । ॐ हीं अहं तेषां पितरस्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह तेषां पितृतत्पितृतत्पितरस्तर्पयामि । एवं द्वात्रिंशन्मन्त्राः पितृणां तर्पणार्थ । तेषां नमस्कारमन्त्रोऽयम् । ॐ हीं अर्ह नमः। इसके बाद तिल और जलसे पितरों और पिताओंका तर्पण करे । इस तरह ये बत्तीस मंत्र पितृतर्पण करनेके हैं । और “ ॐ हीं अहं नमः " यह उनको नमस्कार करनेका मंत्र है। अथाक्षतोदकेन देवतानां तर्पणं । तन्मन्त्राः । ॐ हीं अहं जयाद्यष्टदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह रौहिण्यादिषोडशविद्यादेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अहं यक्षादिपञ्चदशतिथिदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह सूर्यादिनवग्रहदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह इन्द्रादिदशदिक्पालदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह श्याद्यष्टदिक्कन्यादेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह गोमुखादिचतुर्विंशतियक्षीदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह चक्रेश्वर्यादिचतुर्विंशतियक्षदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह असुरादिदशविधभवनवासिदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अहं किन्नराधष्टविधव्यन्तरदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह चन्द्रादिपञ्चविधज्योतिष्कदेवतास्तर्पयामि । ॐ हीं अर्ह सौधर्मादिवैमानिकदेवतास्तर्पयामि । ॐ ही अर्ह सर्वाहमिन्द्रदेवतास्तर्पयामि । इति तर्पणमन्त्राः । अतो नमस्कारमन्त्रोऽयम् । ॐ हीं अहं असि आ उ सा ॐ क्रौं नमः । एवं मध्याह्नसायाह्नयोः स्नानतर्पणान्यपि विहाय आचमनादिशेषक्रियां सर्वामाचरेत् । शिरःपरिषेचनं जलाञ्जल्याणि जाप्यं देवपूजादिसर्व कर्तव्यम् । इसके बाद अक्षत और जलसे देवतोंका तर्पण करे । उनके तर्पण करनेके ये मंत्र हैं । इस तरह देवतोंका तर्पण किया जाता है । यह उनको नमस्कार करनेका मंत्र है। इति प्रातः संध्योपासनक्रमः। इस तरह ऊपर बताये अनुसार प्रातःकातके समय संध्या वंदना करनेका क्रम है। इसी तरह मध्याह्नके समय और सायंकालके समय भी स्नान और तर्पण कर आचमन आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ करे । सिरपर जल सींचना जलांजली देना, अर्घ चढ़ाना, जाप करना, देवपूजा करना आदि सम्पूर्ण कार्य करे। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८2 सोमसेमभट्टारकविरचित इत्थं युक्तिविधामतः सुसकर्ल सन्ध्यादिकोपासनं, ये कुर्वन्ति नरोत्तमा भवभयाद्भीताश्च ते दुर्लभाः। संसाराम्बुधिनौसमा शिवकरां भव्यात्मनां प्राणिनां, तस्मादादरपूर्विका बुधजनाः कुर्वन्तु सन्ध्यां सदा ॥ १४९ ॥ इस प्रकार युक्ति और विधिपूर्वक सम्पूर्ण संध्योपासन क्रियाको जो भव्य पुरुष करते हैं वे सांसारिक भयोंसे निर्भय हो जाते हैं । यह संध्योपासना भव्य प्राणियोंको संसार-समुद्रसे तारनेके लिए जहाजके समान है और क्रमसे मोक्ष स्थानको ले जानेवाली है । इस लिए बुद्धिमान पुरुषोंको आदर पूर्वक दर रोज तीनों समय सन्ध्यावन्दन करना चाहिए ॥ १४९ ॥ श्रीब्रह्मसूरिद्विजवंशरत्नं, श्रीजैनमार्गप्रविबुद्धतत्त्वः । वाचन्तु तस्यैव विलोक्य शास्त्रं, कृतं विशेषान्मुनिसोमसेनैः॥ १५०॥ द्विजवंशमें शिरोमणि और जैनतत्वोंके स्वरूपको अच्छी तरह जाननेवाले श्रीब्रह्मसूरि नामके एक भारी विद्वान पंडित हमसे पहले हो गये। उन्होंने एक त्रैवर्णिकाचार नामका शास्त्र बनाया है । उसीको देखकर मुझ सोमसेन मुनिने भी इस त्रिवर्णाचार शास्त्रकी कुछ विशेष रीतिसे रचना की है। जिसे भव्य पुरुष अच्छी तरह पढ़ें और पढ़ावें ॥ १५० ॥ इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारनिरूपके भट्टारकश्रीसोमसेनविरचिते स्नानवस्त्राचमनसन्ध्यातर्पणवर्णनो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय। त्रैलोक्ययात्रां चरितुं प्रवीणा, धर्मार्थकामाः प्रभवन्ति यस्याः। प्रसादतो वर्तत एव लोके, सरस्वती सा क्सवान्मनोऽम्जे ॥१॥ जिसके प्रसादसे धर्म, अर्थ और काम ये तीन पुरुषार्थ सुखसे तीन लोक सम्बन्धी यात्रा करनेको समर्थ होते हैं और जो इस लोकमें निवास करती है वह सरस्वती देवी मेरे हृदय-कमलमें निवास करे ॥१॥ शान्तिप्रदं सम्प्रति शान्तिनाथ, देवाधिदेवं वरवचमाषम् । नत्वा प्रवक्ष्ये गृहधममत्र, यतो भवेत्स्वर्गसुखं सुभोगम् ॥ २॥ जीवादि सात उत्तम तत्वोंके उपदेश करनेवाले और शान्ति प्रदान करनेवाले देवाधिदेव शान्तिनाथ परमात्माको नमस्कार कर मैं अब गृहस्थ-धर्मको कहूँगा जिससे स्वर्गीय सुख और अच्छे अच्छे भोग प्राप्त होते हैं ॥२॥ कृत्वैवं सुजलाशये स मुदितथोत्थाय तस्माच्छनै रीर्यायाः पथशोधनं शुचितरं कुर्वन्व्रजेत्स्वं गृहम् । अनातान् सकलान् जनान्नहि तदा मार्गे स्पृशेन्नोत्तमान्, स्नातान् शूद्रजनान्प्रमादबहुलान् शुद्धानपि नो स्पृशेत् ॥ ३॥ तीसरे अध्यायमें बताई हुई क्रियाओंको जलाशयके ऊपर अच्छी तरह सम्पादन कर बड़े ही हर्षके साथ वहांसे उठकर चार हाथ आमेकी जमीनका निरीक्षण करता हुआ अपने घरको रवाना होवे । रास्तेमें स्नान न किए हुए उत्तम पुरुषोंको, स्नान किये हुए शूद्रोंको और जो शुद्ध हैं परन्तु फिर भी प्रमाद युक्त हैं इनको भी न छूवे । उन्हीं न छूने योग्य पुरुषोंको नीचेके श्लोकोंसे प्रकट करते हैं ॥ ३॥ मद्यविक्रायणं शूद्रं कुलालं मद्यपायिनम् । नापितं च शिलास्फोट कुविन्दकमतः परम् ॥ ४॥ .. काच्छिकं मालिकं चैव हिंसक मुद्गलादिकम् । उच्छिष्टपर्णचर्मास्थिव्युतशृंगनखानपि ॥५॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित www रोमकेशखुरान्दन्तानक्तविण्मत्रपूयकान । श्लेष्मनिष्ठीवशूद्रानहण्डिकादीन् द्विहस्ततः ॥६॥ काककुर्कुटमार्जारखरोष्ट्रग्रामसूकरान्। ... कुष्टिकुकुररोगाच्छिन्नांगपतितानरान् ॥७॥ कितवान्मत्तमत्ताँच बन्धनागाररक्षकान् । मलाक्तवस्त्रसंयुक्तान् डोम्बमुख्यान् त्रिहस्ततः ॥८॥ तक्षकाब्रजकान् स्वर्णकारकान् ताम्रकुट्टकान् । अयोनिगडसिन्दूरहिंगुहिंगुलकारकान् ॥९॥ शस्त्रवैद्यानग्निवैद्याञ्जलौकारक्तपायिनः । चर्मादीनतिजीर्णागान् त्यजेद्धस्तचतुष्टयात् ॥ १० ॥ मद्यविक्रेता, शूद, कुम्हार, मद्यपायी, नाई, सिलावट, जुलाहे, काछी, माली, हिंसक और मुसलमान आदिको न छूवे । छूठी-पत्तल-पत्ते, चर्म, हड्डी, सींग, नख, रोम, केश, खुर, दाँत, लहू, विष्टा, मूत्र, पीप, कफ, बँकार, शूद्रका भोजन, मिट्टीकी हँडिया वगैरहको न छूवे-इनसे दो हाथ दूरसे चले। काक, मुर्गे, बिल्लियाँ, गधे, ऊँट, ग्राम्य-सूकर, कोढ़ी, कुत्ते, रोग-पीड़ित, छिन्नअंग, जातिच्युत, धूर्त, नशेबाज, कैदखानेके सिपाही, मैले कपड़े पहने हुए मनुष्य और डोम, आदिकसे तीन हाथ दूर चले। मिस्तरी, धोबी, सुनार, तमेरे, लोहार, सिन्दूर, हींग, हिंगुल बनानेवाले मनुष्य, शस्त्रवैद्य ( नस्तर आदि लगानेवाले ), अग्निवैद्य ( डाम देनेवाले ), जौंक सिंगी लगानेवाले मनुष्य और जिनका शरीर अत्यन्त जीर्ण हो गया है ऐसे मनुष्योंका चार हाथ दूरीसे त्याग करेइनसे चार हाथ दूर चले ॥ ४ ॥१०॥ पञ्चहस्तादृतुमती सूतिका हस्तषट्कतः। चाण्डालचर्मकारादीन हस्तसप्त परित्यजेत् ॥ ११ ॥ रजस्वला स्त्रियोंसे पाँच हाथ, प्रसूति स्त्रियोंसे छह हाथ और चमार, चांडाल, भील आदिकसे सात हाथ हटकर चले ॥ ११ ॥ मांसभारं सुराकुम्भं युगद्वगं तु वर्जयेत् । नृतिरश्वश्च दुर्गान्धशवं तु युगपञ्चकम् ॥ १२ ॥ अस्पृश्यगृहर्ज भस्म धूलीधूमतुषादिकान् । अस्पृशनिजगेहं स गच्छेज्जीवदयापरः ॥१३॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ... मांसभार ( ढेड ), मदिराके वर्तन आदिसे आठ हाथ, मनुष्य और तिर्यचोंके दुर्गन्धियुक्त मुर्दे शरीरसे बीस हाथ दूर चले। अस्पृश्य लोगोंके घरकी भस्म, धूली, धूम, तुष आदिको न छूता हुआ जीवदयामें तत्पर त्रैवर्णिक श्रावक अपने घर पर जावे । भावार्थ-इन श्लोकोंमें ऊँच नीच दोनों तरहके मनुष्योंको न छूनेका उपदेश इस लिए है कि उसे आगे चलकर अपने चैत्यालयमें पूजा करना है ॥ १२ ॥ १३॥ घर बनानेकी विधि। विजातिम्लेच्छशूद्राणां गेहादूरं भवेदृहम् । काष्ठधूमादिसंसर्ग न कुर्यात्कुड्यमेलनम् ॥ १४ ॥ विजाति लोग, म्लेच्छ ( मुसलमान आदि ) और शूद्र इनके घरोंसे अपना घर कुछ फासले पर बनवावे । उनके घरोंकी लकड़ी, धूआँ आदिका सम्पर्क अपने घरसे न होने दे । तथा उनके घरोंकी दीवालसे सटाकर अपने घरकी दीवाल न बनावे ॥ १४ ॥ तेषां हि श्रूयते शब्दो हिंसादिदुष्टवाचकः। केशास्थिचर्मदुःस्पर्शो न भवेत्त्वं तथा कुरु ॥१५॥ जिससे कि इसको मारो, इसको काटो आदि दुष्ट वचन सुनाई न दे सके । तथा ऐसा प्रयत्न करे कि जिससे केश, हड्डी, चर्म आदिका संसर्ग न हो सके ॥ १५॥ तेषां जलप्रवाहस्य नीचभागं विवर्जयेत् । मानिनां पापशीलानां सक्तानां दुष्टसङ्गतौ ॥ १६ ॥ जिधरको उन नीच जातीय मनुष्योंके घरका जल बहकर जाता हो उथरको अपना घर न बनवावे । तथा मानी, पापी और बुरी सोहबतमें लगे हुए मनुष्योंके घरोंके पास भी अपना घर नं बनवावे ॥ १६ ॥ नगरस्यान्त्यसम्भागे न कुर्यादृहबन्धनम् । भषकसूकरादीनां प्रवेशो न हि सौख्यदः ॥ १७॥ नगरके बाहर भी अपना घर न बनवावे, क्योंकि नगरके बाहर मकान होनेसे कुत्ते, सूअर आदि धरोंमें घुस जाते हैं। इनका घरोंमें घुसना शुभ नहीं है ॥ १७ ॥ सङ्कीर्णमार्ग उच्छिष्टमलमूत्रादिदूषितः । वेश्यातस्करव्याघ्रादिसम्बन्धं दूरतस्त्यजेत् ॥ १८॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेमभट्टारकेविरचित जहाँ सभी जातिके मनुष्य आते जाते हों ऐसे रास्ते पर तथा जहाँपर जूठन, विष्टा, मूत्र आदि अपवित्र चीजें डाली जाती हों वहाँ पर मकान न बनवावे । तथा वेश्वा, चौर, व्याघ्र आदिके सम्बन्धको भी दूरहीसे छोड़े ॥ १८ ॥ A उत्तमस्थानमालोक्य सर्पादिपरिवर्जितम् । रम्यं तत्र गृहं कुर्याद्यथाद्रव्यं यथारुचि ।। १९ ।। सर्पादि दुष्ट जन्तुओंसे रहित उत्तमस्थानको पसंद कर अपने विभव और रुचिके अनुसार सुन्दर मकान बनवावे ॥ १९॥ रेणुपाषाणनीरान्तं खनयेत्पृथिवीतलम् । शःखखर्यरचर्मास्थिविण्मूत्रं दूरतस्त्यजेत् ॥ २० ॥ मकानकी नीव इतनी गहरी खोदे जिसमेंसे कँकरीली मिट्टी, पत्थर और पानी निकलने लग जाय । तथा शंख, खपरे, चर्म, हड्डी, विष्टा और मूत्रको दूर ही छोड़े अर्थात् जहाँपर ये चीजें डाली जाती हो वहाँ मकान न बनवावे ॥ २० ॥ पाषाणश्रेष्टकामृद्भिश्चूर्णैर्भूर्वध्यते दृदम् । सुदिने सुमुते वा जिनपूजापुरस्सरम् ॥ २१ ॥ उत्तम दिन और उत्तम मुहूर्तमें जिनेन्द्र देवकी पूजा-पूर्वक ईंट, चूना पत्थर और मिट्टी से बहुत मजबूत मकान चिनवावे ॥ २१ ॥ भुक्तिशालाऽग्निदिको नैर्ऋत्यां शयनस्थलम् । 1 वायव्यां स्नानगेहं स्यादीशान्यां जिनमन्दिरम् ॥ २२ ॥ पश्चिमे चित्रशाला तु नानाजनसमाश्रया । दक्षिणे तु जलस्थानं ह्युत्तरे श्रीधनाश्रयः ॥ २३ ॥ पूर्वस्यां निर्गमद्वारं घण्टातोरणभूषितम् । मध्ये नृत्यन्ति नर्तक्यो गीतहास्यविनोदकैः ॥ २४ ॥ सदनस्य बहिर्भागे शाला गोधनसंभृता । गजाश्वरथपादातैस्तत्रैव स्थीयतेऽन्त्यतः ।। २५ ।। आग्नेय -- पूर्व और दक्षिण दिशाके बीचमें रसोई घर, नैऋत्य-दक्षिण और पश्चिम दिशाके बीच में शयनस्थान, वायव्य-पश्चिम और उत्तर दिशाके बीच में स्नान घर और ईशान - उत्तर दिशा और Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्मिकार पूर्व दिशाके बीचमें चैत्यालय बनवावे । पश्चिम दिशामें अच्छे अच्छे सुन्दर चित्रोंसे खचित चित्रामशाला, दक्षिण दिशामें जल रखनेका स्थान, उत्तर दिशामें खजाना, पूर्वदिशामें घण्टा, तोरण, बन्दनवार आदिसे सुशोभित बाहर भीतर आने-जानेका दरवाजा बनवावे । मकानके मध्यभागमें अच्छे अच्छे गीत, हास्य-विनोदी द्वारा मन बहलानेवाली नर्तकियोंके लिए नाचने-मानेको नृत्यशाला बनवावे और मकानकी बाहरी बगलमें गौशाला ( नौहरा ) बनवावे जिसमें कि हाथी घोड़े, रथ, पयादे आदि सभी रह सकें ॥ २२ ॥ २५ ॥ एकद्वित्रीणि सप्तान्ता उपर्युपरि संस्थिताः । चूर्णकाचसुवर्णादिलेपनैर्लेपिताः पराः ॥ २६ ॥ एक, दो, तीन ऐसे सात मंजिलतकके मकान बनवावे । जिनमें चूना, काच, सुवर्ण आदिका लेप करावे ॥ २६॥ नानाशृंगैश्च संयुक्त मालाचन्द्रोपकादिभिः। पुषोत्पत्तिविवाहादिकल्याणपरिपूजितम् ॥ २७ ॥ मकानके ऊपर कई तरहके शिखर बनवावे तथा माला चँदोवा आदिसे मकानको अच्छी तरह सजावे । और जिसमें पुत्र-जन्मोत्सव, विवाह मंगल आदि अच्छे अच्छे कल्याण करता रहे ॥ २७ ॥ चैत्यस्य वामभागे न होमशालां समापयेत् । धूमावकाशकस्थानं सल्लकीकदलीयुतम् ॥ २८ ॥ चैत्यालयकी बाई ओर होमशालाका निर्माण करावे । जिसमें घूआ निकलनेका एक रास्ता रक्खे । तथा सल्लकी केले आदिके पेड़ लगवावे ॥२८॥ पल्यकं कुसुमानि चन्दनरसः कर्पूरकस्तूरिका, स्वाद बनिता स्वरूपसहिता हास्यादिका सक्रिया । तांबूलं वरभूषणानि तनुजा दानाय सत्संपदो, गेहे यस्य स एव सन्ति विभवा धन्यश्च पुण्यत्माकः ॥ २९ ॥ वही उत्तम पुरुष धन्य है, वही उत्तम पुण्यशाली है जिसके घरमें बढ़ियासे बढ़िया शय्या, फूल, चन्दर-रस, कपूर, कस्तूरी, नित नये मीठे भोजन, उत्तम रूपवती स्त्री, मनोविनोद करनेको उत्तम हास्यादि क्रियाएँ, ताम्बूल, अच्छे अच्छे आभूषण, विनीत पुत्र और दान देनेको उत्तम सम्पत्ति इत्यादि विभव मौजूद हैं ॥ २९ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमनभट्टारकविरचित चैत्यालयप्रवेश। गत्वा तत्र जिनागारं शनैः स्थित्वा बहिःस्थले । पादौ प्रक्षाल्य संशोध्य सम्यगीर्यापथं क्रमात् ।। ३० ।। त्रिःपरीत्य जिनेन्द्रस्य गेहं चान्तर्विशेबुधः । मुखवस्त्रं समुद्घाट्य जिनवक्टं विलोकयेत् ॥ ३१ ॥ वह जलाशय पर स्नान कर आया हुआ गिरस्त अपने मकानमें बने हुए चैत्यालयमें जावे और बाहर आँगनमें खड़ा रहकर पैर धोवे । इसके बाद ईर्यापथ पूर्वक चैत्यालयकी तीन प्रदक्षिणा देकर मन्दिरमें प्रवेश करे । तथा प्रतिमाके सामनेके पड़देको एक तरफ हटा श्रीजिनदेवके मुख-कमलका दर्शन करे और इस प्रकार स्तुति पढ़े ॥ ३० ॥ ३१ ॥ जिनदर्शनस्तवन । दर्शनं जिनपतेः शुभावहं सर्वपापशमनं गुणास्पदम् । स्वर्गसाधनमुशन्ति साधवो मोक्षकारणमतः परं च किं ॥ ३२ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन कल्याणका करनेवाला है, सभी तरहके पापोंका उपशम करनेबाला है और गुणोंका अपूर्व खजाना है, और तो क्या जिसे बड़े बड़े साधु महात्मा स्वर्ग और मोक्षका साधन बनाते हैं ॥ ३२॥ दर्शनं जिनरवेः प्रतापवञ्चित्तपअपरमप्रकाशकम् । दुष्कृतैकतिमिरापहं शुभं विघ्नवारिपरिशोषकं सदा ॥ ३३ ॥ हे जिनरवे ! यह आपका दर्शन सूर्यकी तरह हृदय-कमलका विकास करनेवाला है, पाप रूपी निविड़ अन्धकारको छिन्न भिन्न करनेवाला है, शुभ है और विघ्न रूप जलका सोखनेवाला है ॥ ३३ ॥ दर्शनं जिननिशापतेः परं जन्मदाहशमनं प्रशस्यते। . पुण्यनिर्मलसुधाप्रवर्षणं वर्धनं सुखपयोनिधेः सतः ॥ ३४ ॥ हे जिनचंद्र ! यह आपका दर्शन जन्मदाहका शमन करनेवाला है, पुण्य-निर्मल अमृतको बरसानेवाला है और सज्जनोंके सुख-समुद्रको बढ़ानेवाला है ॥ ३४॥ दर्शनं जिनसुकल्पभूरुहः कल्पितं हि मनसा प्रपूरयेत् । सर्वलोकपरितापनाशनं पंफुलीति फलतो महीतले ॥ ३५ ॥ हे जिनेन्द्र रूप कल्पवृक्ष ! यह आपका दर्शन मनोवाञ्छित चीजोंको पूरनेवाला है, Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रैवर्णिकाचार।.. संसारके सभी लोगोंके तापको नष्ट करनेवाला है और तमाम संसारको अच्छे अच्छे फलोंसे सफल करनेवाला है ॥ ३५॥ दर्शनं जिनसुकामगोरलं कामितं भवति यत्प्रसादतः। दोग्धि दुग्धमपि वित्तकाम्यया शुद्धमेव मन इत्युदाहृतम् ॥ ३६ ॥ हे जिनेन्द्र रूपी कामधेनु ! यह आपका दर्शन पूर्ण समर्थशाली है जिसके प्रसादसे सभी तरहके मनचाहे पदार्थोंकी प्राप्ति होती है। यह दर्शनरूपी कामधेनु ऐसी है कि भव्यपुरुष द्रव्यकी इच्छासे जिसका दूध दोहते हैं इसमें शुद्ध मन ही कारण है अर्थात् उनकी द्रव्यकी तृष्णा दूर हो जाती है ॥ ३६॥ दर्शनं जिनपयोनिधे शं सौख्यमौक्तिकसमूहदायकम् । सद्धनं गुणगभीरमुत्तमं ज्ञानवारिविपुलप्रवाहकम् ॥ ३७ ॥ हे जिनसमुद्र ! यह आपका दर्शन सुख-मोतियोंके समूहको देनेवाला है और ज्ञान-जलको बड़ी भारी वृष्टि करनेवाला सगुणोंसे भरापूरा उत्तम मेघ है ॥ ३७॥ अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देव त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलकप्रमाणः ॥ ३८॥ . हे देव ! आपके चरणकमलोंके देखनेसे आज मेरे ये दोनों नेत्र सफल हुए हैं। हे तीन लोकके तिलक ! यह संसार-समुद्र आज मुझे पानीके चुल्लु बराबर देख पड़ रहा है ॥ ३८॥ किसलायतमनल्पं त्वद्विलोकाभिलाषात्, कुसुमितमतिसान्द्रं त्वत्समीपप्रयाणात् । मम फलितममन्दं त्वन्मुखेन्दोरिदानी, नयनपथमवाप्ताद्देव पुण्यद्रुमेण ॥ ३९ ॥ हे देव ! तुम्हारे देखनेकी इच्छा करते ही इस मेरे पुण्य-वृक्षमें बहुतसी नई कोंपलें फूट पड़ती हैं । तुम्हारे समीपमें जाते ही इसमें फूलोंके गुच्छेके गुच्छे छा जाते हैं । और तुम्हारे मुख-कमल पर नजर पड़ते ही यह पुण्य-वृक्ष फलोंसे लद जाता है ॥ ३९॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहाकविरचित wwwwwwwwwwww शर्वरीषु शशिना प्रयोजनं भास्करण दिबसे किमीश्वर । त्वन्मुखेन्दुदलिते तमस्तते भूतलेऽत्र तकयोस्तु का स्तुतिः ॥४०॥ हे नाथ ! इस पृथ्वीतलपर तुम्हारे मुख-चन्द्रमाकी तेज कान्ति द्वारा ही जब तमाम अन्धकारका नाश हो जाता है तब रात्रिके समय चाँदसे और दिनको समर्थ सूर्यसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता तो बताइए उनकी क्या स्तुति की जाय ॥ ४० ॥ अमितगुणगणानां त्वद्गतानां प्रमाणं, भवति समधिगन्तुं यस्य कस्यापि वाञ्छा। प्रथममपि स तावद्वयोम कत्यगुलं स्या, दिति च सततसंख्याभ्यासमङ्गीकरोतु ।। ४१॥ हे देव ! आपमें निरन्तर स्फुरायमान अमेय गुण-गणोंकी संख्या जाननेकी यदि किसीकी बड़ी भारी उत्कण्ठा है तो वह सबसे पहले आकाश कितने अंगुल लंबा चौड़ा है इस संख्याका निरन्तर अभ्यास करना अंगीकार करे । भावार्थ-जिस तरह आकाशको उँगलियों द्वारा नहीं माप सकते उसी तरह आपके गुणोंकी गिनती भी नहीं कर सकते ॥ ४१ ॥ देव त्वदंघ्रिनखमण्डलदर्पणेऽस्मिन्नध्ये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्रः। श्रीकीर्तिकान्तिधृतिसङ्गमकारणानि भव्यो न कानि लभते शुभमङ्गलानि।।४२॥ हे प्रभो ! स्वभावसे ही महा मनोहर आपके चरणोंके नखोंकी कान्ति रूप पूज्य दर्पणमें जो निरन्तर अपना मुख देखता है वह भव्य पुरुष श्री, कीर्ति और धृतिका समागम करानेवाले कौनसे शुभ मंगल बाकी रह जाते हैं जिनको प्राप्त नहीं कर सकता। भावार्थ-आफ्के पुण्य-दर्शनसे सभी मंगल प्राप्य होते हैं ॥ ४२॥ त्वदर्शनं यदि ममास्ति दिने दिनेऽस्मिन् देव प्रशस्तफलदायि सदा प्रसनम् । कल्पद्रुमार्णवसुरग्रहमन्त्रविद्याचिन्तामणिप्रभृतिभिर्न हि कार्यमस्ति ॥ ४३ ॥ हे देव ! प्रशस्त फलका देनेवाला और हमेशा प्रसन्नचित्त रखनेबाला यदि आपका दर्शन मुझे हर रोज होता रहे तो मुझे कल्पवृक्ष, समुद्र, देव, ग्रह मंत्रविद्या, चिन्तामणि इत्यादि बाह्य वस्तुओंसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है । भावार्थ-आपके दर्शनोंसे बढ़कर संसारमें कोई भी चीजें नहीं हैं । मैं तो यही चाहता हूँ कि हमेशा आपके दर्शन होते रहें । मुझे इन मंत्र-तंत्रादिकी बिलकुल चाह नहीं है ॥ ४३॥ इति संस्तुत्य देवं तमुपविश्य जिनाग्रतः । भार्यायै याचितं वस्तु पानीयाक्षतचन्दनम् ॥ ४४ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पं नैवेद्यदीपाँच धूपं फलमतः परम् । समालोक्य च संशोध्य पूजा कार्या सुबुद्धितः ॥ ४५ ॥ इस तरह परमात्माकी स्तुति कर उनके सामने मुख कर बैठे और अपनी धर्म-पत्नी से माँगे हुए जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलको अच्छी तरह देख-सोध कर शुद्धचित्तसे जिनेन्द्र देवकी पूजा करे । भावार्थ - उपर्युक्त रीतिखे भगवानकी स्तुति कर जलादि आठ द्रव्योंसे पूजा करना प्रारम्भ करे ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ जिनपूजाकम । आव्हानं स्थापनं कृत्वा सन्निधीकरणं तथा । पश्चोपचारविधितः पूजनं च विसर्जनम् ॥ ४६ आव्हान, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन इस तरह इन पाँच उपचारों पूर्वक पूजा करे ॥ ४६ ॥ गर्भागारे जिनेन्द्राणां कृत्वा पूजां महात्सवैः । स्तुतिं स्तुत्या परं भक्त्या नमस्कारं पुनः पुनः ॥ ४७ ॥ कृत्वा मण्डपमध्येऽत्र वेदिकां च समागमेत् । जिनस्य दक्षिणे भागे दर्भासनमुपाश्रयेत् ॥ ४८ ॥ इस तरह गर्भमन्दिरमें जिन भगवानकी बड़े ही महोत्सवके साथ पूजन कर, अच्छे अच्छे स्तोत्रों द्वारा स्तुति कर और बड़े ही विनय पूर्वक बार बार नमस्कार करे । इसके बाद मण्डपके बीच में बनी हुई बेदीके समीप आवे । कहाँ आकर जिन भगवानकी प्रतिमाके दाहिनी ओर दर्भासन पर बैठे ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ वनितास्ततो वाऽन्यशिष्यहस्तात्तथाऽपि च । गृहीत्वा त्वनाद्रव्यं पूजयेजिननायकम् ।। ४९ ।। इसके बाद अपनी स्त्रीके द्वारा अथवा और किसीके हाथ द्वारा दिये हुए पूजा- द्रव्यको लेकर जिनदेवकी पूजा करे ॥ ४९ ॥ पञ्चवर्णैर्महाचूर्णै रङ्गवल्लीं समालिखेत् । कदलीसल्लकीस्तस्मैरिक्षुदण्डैः सतोरणेः ॥ ५० ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकाविरचित घण्टाचमरसम्भूषैर्भूषयेजिनवेदिकाम् । पूर्णकुम्भार्चनाद्रव्यदीश्च वामभागतः ॥५१॥ गन्धकुट्यां जिनेन्द्रस्य प्रतिमां च निवेशयेत् । सिद्धचक्रस्य यन्त्रं च पूजयेद्गुरुपादुकाम् ॥५२॥ सहस्रनाम देवस्य पठेत्तावद्विधानतः। सकलीकरणं कृत्वा शोधयेनिजदेहकम् ॥ ५३॥ गन्धपुष्पाक्षतैस्तोयैः पूजाद्रव्याणि शोधयेत् । पूजोपकरणस्तोमं शोधयेच्छुचिभिर्जलैः ॥ ५४ ॥ पाँच रंगके जुदे जुदे चूणों से रंगवल्ली खेंचे। कदली वृक्ष, और सल्लकी वृक्षके स्तोमोंसे, गोंसे, तोरणोंसे, घण्टा और चमरोंसे वेदीको अच्छी तरह सजावे । जलके घड़ों, पूजाद्रव्यों और द को अपनी बाई ओर रक्खे । गन्धकुटीमें श्री जिनेन्द्र देवकी प्रतिमाको स्थापन करे । पासहीमें सिद्धचक्रके यंत्र और गुरु-पादकाएँ ( चरण ) रख कर उनकी पूजा करे । विधिपूर्वक जिन सहस्रनामको पढ़े। सकलीकरण कर अपनी देहको शुद्ध करे । तथा प्रासुक निर्मल गन्ध-पुष्प-अक्षत आदि पूजाद्रव्यको और पूजाके बर्तनोंको धोकर साफ करे ॥ १० ॥ ५४॥ तत ईशानदिग्भागे वास्तुवायुकुमारकान् । मेघानिनागदेवांश्च भूमिशुद्धिविधायकान् ॥ ५५ ॥ दर्भाम्बुवन्हिभिः शुद्धभूमि संशोध्य पूजयेत् । महावाद्यनिनादेन पुष्पांजलीमिरञ्जसा ॥ ५६ ॥ शिष्या विद्यागुरूंथात्र सार्घ्यदानेन तर्पयेत् । आग्निकोणे क्षेत्रपालं गुडतैलैश्च पूजयेत् ॥ ५७॥ इसके बाद दर्भ, जल और अग्निद्वारा भूमिशुद्धि कर वेदीकी ईशान दिशामें भूमि शुद्धकरनेवाले वास्तुदेव, वायुकुमार, मेघकुमार, अग्निकुमार और नागकुमारकी गाजे-बाजेकी ध्वनिपूर्वक पुष्पांजलि द्वारा पूजा करे । और यहीं पर अपने गुरुओंका अर्घ देकर तर्पण करे-पूजा करे । तथा आग्नेय दिशामें गुड़ तेल द्वारा क्षेत्रपालकी पूजा करे ॥ ५५ ॥ ५७ ॥ ईशानदिशि नागाँश्च क्षीरैरञ्जलिपूरितैः। आभिः पुण्याभिरित्यादि श्लोकेन भुवमर्चयेत् ॥ ५८ ॥ ईशान दिशामें अंजलिभर जलसे नागकुमारोंकी पूजा करे। और आभिः पुण्याभिः इत्यादि नीचे लिखा श्लोक पढ़कर भूभिकी पूजा करे ॥ ५८॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्णिकाचार। ९५ आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमलबहलेनामुना चन्दनेन, __ श्रीद्विक्पेयैरमीभिः शुचिसदकचयैरुद्गमैरेभिरुद्धैः । हृद्यैरोभिनिवेधैर्मखभवनमिमैर्दीपयद्भिः प्रदीपै धूपैः प्रेयोभिरेभिः पृथुभिरपि फलैरेभिरर्चामि भूमिम् ॥ ५९ ॥ इस पवित्र जल, सुगन्ध चन्दन, देखनेमें अत्यन्त सुन्दर पवित्र अक्षतों, फूलों, सुन्दर नैवेयों, जलते हुए दीपकों, उत्तम सुगन्धित धूपों और बड़े बड़े उत्तम फलोंसे इस यागशाला-पूजा करनेकी जमीन-की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५९॥ ततः श्रुतं गुरुं सिद्धं यक्षान्यक्षीश्च देवताः। पूजयेद्विधिवद्भक्त्या दीर्घया दम्भवर्जितः ॥६०॥ इसके बाद शास्त्र, गुरु, यक्ष और यक्षीकी विधिपूर्वक परम भक्तिके साथ छल-कपट रहित होकर पूजा करे ॥ ६०॥ .. आभरण धारण करनेकी विधि । जिनांघ्रिचन्दनैः स्वस्य शरीरे लेपमाचरेत् । यज्ञोपवीतसूत्रं च कटिमेखलया युतम् ॥ ६१ ॥ मुकुटं कुण्डलद्वन्द्वं मुद्रिकां करकङ्कणम् । बाहुबन्धांघ्रिभूषे च वस्त्रयुग्मं च तत्परम् ॥ ६२॥ जिनांघ्रिस्पर्शितां मालां निर्मलां कण्ठदेशके । ललाटे तिलकं कार्य तेनैव चन्दनेन च ॥ ६३ ॥ जिनदेवके चरणस्पर्शित चन्दनसे अपने शरीरमें लेप करे, यज्ञोपवीत पहने, कमरमें करधोनी पहने, शिर पर मुकुट लगावे, दोनों कानोंमें कुण्डल.पहने, उँगलीमें मुद्रिका पहने, दोनों हाथोंमें चूड़ा ( सोनेके कड़े) पहने, दोनों भुजाओंमें भुजबन्ध पहने, पैरोंमें घूघरू बाँधे, धोती दुपट्टा पहने-ओढ़े, जिनदेवके चरणोंसे स्पर्शित निर्मल माला मलेमें पहने और ललाटमें उसी ( जिनचरण-स्पर्शित ) चन्दनसे तिलक करे॥ ६१ ॥ ६३॥ तिलकोंके भेद । आतपत्रं तथा चक्र अर्धचन्द्र त्रिशूलकम् । मानस्तम्भस्तथा सिंहपीठकं चेति षविधम् ॥ ६४ ॥..... Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहात छत्राकार, चक्राकार, अर्धचन्द्राकर, विकार, समस्तम्भाकार तक सिंहसनाकार ये छह तिलक लगानेके भेद हैं। ६४॥ छत्रत्रयमिति स्कृत्वा आतपत्रमुदाहृतम् ।। धर्मचक्रमिति स्मृत्वा चक्राकारं च कारयेत् ।। ६५ ।। पाण्डशिलेति संस्मृत्य अर्धचन्द्र विनिर्मितम् । रत्नत्रयमिति शात्वा त्रिदण्डं तिलकं स्थितम् ॥ ६६ ॥ मानस्तम्भाकृति कार्य मानस्तम्माभिधानकम् । सिंहासनं जिनेन्द्रस्व संस्मृत्य सिंहविष्टरम् ॥ ६७ ॥ छत्र-त्रय ऐसा मानकर छत्राकार, धर्मचक्र ऐसा समझकर चक्राकार, पाण्डुकशिला ऐसा मानकर अर्धचन्द्राकार, रत्नत्रय ऐसा समझकर त्रिशूलाकार, मानस्तम्म ऐसा मानकर मानस्तम्भाकार और जिन भगवानके सिंहासनका स्मरण कर सिंहासनाकार तिलक लगावे ॥६५॥६७॥ तिलक करनेके स्थान। आतपत्रार्धचन्द्रे वा यदा भाले धृते तदा । वक्षसि भुजयोः कण्ठे त्रिशूलाकृतिमादिशेत् ॥ ६८ ॥ जब ललाट पर छत्राकार अथवा अर्थचंद्राकार तिलकलगावे तब छाती पर, दोनों भुजाओं पर और कण्ठमें त्रिशलाकार तिलक करे ॥ ६८॥ भाले स्तम्मै लथा पीठं भुजादौ स्वस्तिकं तदा। त्रिदण्डमथवा चक्रं तदाकृति तथा भवेत् ॥ ६९॥ जब ललाट पर स्तम्भाकार अथवा सिंहासनाकार तिलक लगावे तब भुजा छाती, कंठ इन स्थानोंमें स्वस्तिकाकार त्रिशूलाकार, और चक्राकार तिलक लगावे ॥ ६९ ॥ सर्वाङ्गलेपनं प्रोक्तं सर्वेषु तिलकेषु वा । तदुपरि त्रिशूलाद्यानाकारान्परिचिन्तयेत् ॥ ७० ॥ सभी तरहके तिलकोंमेंसे कोईसा तिलक करना झे तो सम्पूर्ण शरीरभुजा आदि स्थानों में गन्ध-लेपन करे । बथा उस लपेनके ऊपर त्रिमूलकासदि तिलक करे ॥ ७० ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार तिलकोंके आकार । आतपत्रं त्वर्धचन्दं तिर्यग्रेखं प्रकीर्तितम् । त्रिदण्डं मानिकस्तम्भमूर्ध्वरेखमुदाहृतम् ॥ ७१ ॥ सिंहपीठं तथा चक्रं वर्तुलं वर्तुलाकृति । स्तम्भश्चैकांगुलव्यासो द्वचंगुलोऽप्यथवा भवेत् ॥ ७२ ॥ छत्र और अर्धचन्द्र इन दो तिलकोंका आकार आड़ी लकीर जैसा होता है । त्रिशूल और मानस्तंभ ये दो तिलक खड़ी रेखा जैसे माने गये हैं। तथा सिंहपीठ और चक्र इन दो तिलकोंकी आकृति गोलाकार होती है । मानस्तम्भाकार तिलककी चौड़ाई एक अंगुल अथवा दो अंगुल प्रमाण होती है ॥ ७१॥७२॥ त्र्यंगुलं विष्टरव्यासे चतुरङ्गुलमेव वा । भ्रूकेशयोश्च संव्याप्य विशाले स्तम्भविष्टरे ॥ ७३ ॥ चक्रं तथैव विज्ञेयं त्रिदण्डं केशसंगतम् । आतपत्रं स्वर्द्धचन्द्रं रागिणां सुखकारिणम् ।। ७४ ॥ सिंहासनाकार तिलककी चौड़ाई तीन अंगुल अथवा चार अंगुलकी होती है । मनास्तम्भाकार, सिंहासनाकार और चक्राकार ये तीनों तिलक केशोंके ऊपर तक चौड़े होते हैं । तथा त्रिशुलाकार तिलक भौंके केशोंसे मिला हुआ होता है और छत्राकार तथा अर्धचन्द्राकार ये दो तिलक रागी पुरुषोंको सुखी करनेवाले हैं ॥ ७३ ॥ ७४ ॥ सर्वांगे रचना कार्या विकारपरिवर्जिता । भुजयो लदेशे वा कण्ठे हृद्युदरेऽपि च ॥ ७५ ॥ सारे शरीरमें तिलक-रचना करे अर्थात् दोनों भुजाएँ, ललाट, कण्ठ, छाती और उदर इन स्थानोंमें तिलक करे । यह तिलक-रचना ऐसी होनी चाहिए जिसे देखकर किसीको कोई तरहका विकार न हो ॥ ७५ ॥ चारों वर्गों के तिलकोंकी विधि। अर्धचन्द्रातपत्रे तु कुन्ति क्षत्रियाः पराः । स्तम्भ पीठं तथा छत्रं ब्राह्मणानां शुभप्रदम् ॥ ७६ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमारकासवित मानस्तम्भ तथा छवं कैश्यानां तु सुखप्रदम् । शूद्राणां तु भवेच्चक्रमितरेषां त्रिदण्डकम् ॥ ७७ ॥ अर्धचन्द्र और छयाकार ये दो तरहके तिलक क्षत्रिय लगाते हैं। स्तम्भाकार, सिंहासनाकार और छत्राकार ये तीन तरहके तिलक ब्राह्मणोंको शुभ देनेवाले होते हैं । मानस्तंभ और छत्राकार ये दो तिलक वैश्योंको सुखप्रद हैं । तथा शूद्रोंके लिए चक्राकार और अन्य लोगोंके लिए त्रिशलाकार तिलक सुखप्रद होते हैं । ७६ ॥ ७७ ॥ क्षत्रियवैश्यविप्राणां योषितां तिलक स्मृतं । अर्धचन्द्रस्तथा छत्रं तिर्यग्रेखाचतुष्टयम् ॥ ७८ ॥ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंकी स्त्रियाँ अर्धचन्द्राकार तथा आड़ी चार रेखारूप छत्राकार तिलक लगावें ॥ ७८॥ योषितां सर्वशूद्राणां स्तम्भं पोठं त्रिदण्डकम् । चन्दनकुङ्कुमश्रेष्ठद्रव्यस्त्रिवर्णके स्मृतम् ॥ ७९ ॥ सब ही शूद्रोंकी स्त्रियाँ स्वम्भाकार, सिंहासनाकार और त्रिशलाकार तिलक लगावें । तथा तीनों वर्णके स्त्री-पुरुष चन्दन, केशर या अन्य श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्यका तिलक लगावे ॥ ७९ ॥ निम्बकाष्ठैर्मदा वाऽथ शूद्राणां शुभ्रभस्मना । सिन्दूरैवो निशाचूर्णैः सर्वासां योषितां वरम् ॥ ८०॥ नींबकी लकड़ी, मृत्तिका अथवा सफेद राखसे शूद्र तिलक करे । सभी जातिको त्रियाँ सिन्दूर अथवा हल्दीका तिलक करे ॥ ८० ॥ अक्षतधारण। सुगन्धलेपनस्योर्ध्व मध्येभालं धरेद्गृही। अङ्गुलाग्रमिते देशे जिनपादाचिंताक्षतान् ॥ ८१ ॥ गिरिस्ती लोग सुगंध लेपनके ऊपर ललाटके मध्य भागमें उँगलीके टोए प्रमाण जमहमें जिनेन्द्र देवके चरणकमलोंकी पूजा किये हुए अक्षतोंको रक्खें-लगावें ॥ ८१ ॥ गन्धलेपनकी महिमा। ब्रह्मनो वाऽथ गोनो वा तस्करः सर्वपापकृत् । .. जिनांघ्रिगन्धसम्पर्कान्मुक्तो भवति तत्क्षणात् ॥ ८२ ।। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ब्रह्महत्या करनेवाला पुरुष, गोहत्या केरनवाला पुरुष, चौर अथवा सब तरहके पापोंका करनेपाला पुरुष जिन भगवान्के चरणस्पर्शित गन्धका लेप करनेसे उसी समय अपने किये हुए पापकाँसे उन्मुक्त हो जाता है ॥ ८२॥ गंध लगामेकी उँगलियोंका फाल। अङ्गुष्ठः पुष्टिदः प्रोक्तो यशसे मध्यमा भवेत् । अनामिका श्रियं दद्यान्मुक्तिं दद्यात्प्रदेशिनी ॥ ८३ ॥ अँगूठा पुष्टि देनेवाला है, मध्यमा यशके लिए होती है, अनामिका लक्ष्मी देती है और तर्जनी मुक्ति प्रदान करती है। भावार्थ-अँगूठेसे तिलक करनेसे शारीरिक पुष्टि होती है। मध्यमासे यश फैलता है । अनामिकासे लक्ष्मीका और तर्जनीसे मुक्तिका समागम प्राप्त होता है ॥ ८३ ॥ श्रीकामः पुष्टिकामो वा यथेष्टं तिलकं चरेत् । अभ्यंगोत्सवकाले तु कस्तूरीचन्दनादिना ॥ ८४ ॥ लक्ष्मीके चाहनेवाले अथवा शारीरिक पुष्टि चाहनेवाले पुरुषको चाहिए कि वह अपने योग्य तिलक सदा लगावे । तथा तैल मर्दन करनेके बाद स्नान कर चुकने पर अथवा कोई तरहके उत्सवके समय कस्तूरी चन्दन आदिका तिलक लगावे ॥ ८४॥ जपो होमस्तथा दानं स्वाध्यायः पितृतर्पणम् । जिनपूजा श्रुताख्यानं न कुयोत्तिलकं विना ॥८५॥ जप, होम, दान, स्वाध्याय, पितृतर्पण, जिन-पूजा और शास्त्रका व्याख्यान इतने कार्य तिलक लगाये विना न करे ॥ ८५ ॥ वस्त्रयुग्मं यज्ञसूत्रं कुण्डले मुकुटस्तथा । मुद्रिका कंकणं चेति कुर्याचन्दनभूषणम् ॥ ८६ ॥ पहनने ओढ़नके दोनों वस्त्र, यज्ञोपवीत, दोनों कानोंके दोनों कुण्डल, मुकुट, मुद्रिका (छल्ला ) दोनों हाथोंके दोनों चूड़े (कड़े) इनको चन्दनसे सुशोभित करे--उपर्युक्त कार्य करते समय इन सब चीजों पर चन्दन लेप करे ॥ ८६ ॥ ब्रह्मग्रन्थिसमायुक्तं दमैत्रिपञ्चमिः स्मृतम् । मुष्टयगं वलयं रम्यं पवित्रमिति धार्यते ॥ ८७ ॥ तीन अथवा चार दर्भ लेकर उनमें ब्रह्मगाँठ लगावे । ब्रह्मगाँठके बाहर निकले हुए दभोंके अग्र Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौमसनभट्टारकविरचित भागको चार अंगुल लंबा रक्खे । इस तरह करनेसे उन दर्भोके ऊपर वलय-गोलाकारमें गाँठ और नीचेको दर्भोका अग्रभाग रहता है। इसे पवित्रक कहते हैं । इस पवित्रकको अनामिका उँगलीमें पहने ॥ ८७॥ एवं जिनांधिगन्धश्च सर्वांगं स्वस्य भूषयेत् । इन्द्रोऽहमिति मत्वाऽत्र जिनपूजा विधीयते ॥ ८८॥ इस तरह जिनदेवके चरणस्पर्शित गन्धसे अपना सारा शरीर भूषित करे और मैं इन्द्र हूँ ऐसा मानकर श्रीदेवाधिदेव जिन भगवानकी नीचे लिखे अनुसार पूजा करना प्रारंभ करे ॥ ८८॥ श्रीपीठ स्थापन। पाण्डुकाख्यां शिलां मत्वा श्रीपीठं स्थापयेत्क्रमात् । मध्ये श्रीकारमालेख्य दर्भाक्षतजलैः शुभैः ॥ ८९ ॥ जिस पर इन्द्रने भगवान्का जन्भाभिषेक किया था वही यह पांडुकाशला है ऐसा मानकर पूजा करने के लिए श्रीपीठको स्थापन करे । इसके बाद उस श्रीपीठ ( सिंहासन ) के बीचमें श्रीशब्द लिखकर दर्भ, अक्षत, जल आदिसे उस सिंहासनकी पूजा करे ॥ ८९॥ प्रतिमास्थापन । ततो मङ्गलपाठेन प्रतिमां तत्र चानयेत् । सिद्धादीनां च यन्त्राणि स्थापयेन्मन्त्रयुक्तितः ॥ ९ ॥ इसके बाद उत्तम उत्तम मंगलपाठ-स्तुतियाँ पढ़ते हुए उस सिंहासनपर श्रीजिनदेवकी प्रतिमाको लाकर विराजमान करे । और मंत्रविधानपूर्वक सिद्धचक्रादि यंत्रोंको भी विराजमान करे ॥ ९० ॥ प्रक्षाल्य जिनबिम्ब तत्सुगन्धैर्वासितै लैः। आव्हानं स्थापनं कृत्वा सन्निधानं तथैव च ॥९१ ॥ ततः पञ्चगुरुमुद्रां निवृत्य परिदर्शयेत् । ततः पाद्यविधिं कृत्वा जलैराचमयज्जिनम् ॥ ९२॥ ततो नीराजनां कृत्वा पूजयेदष्टधार्चनैः। भस्मोदनशलाकागोमयपिण्डनिराजना ॥ ९३ ॥ इसके बाद आव्हान, स्थापना और सन्निधिकरण कर उस जिनबिंबकी सुगन्धित जलसे प्रक्षाल करे । पश्चात् पंचगुरुमुद्राकी रचना कर उस मुद्राको प्रतिमाके ऊपर तीन वार फिरा कर Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्णकाचार।.. दिखावे । इसके बाद पांद्यविधि कर जलसे जिनदेवको आचमन करावे-प्रतिमाके मुखपर जलके छींटे छोड़े । पश्चात् आरती उतार कर जलादि अष्ट द्रव्यसे पूजन करे । भस्म, ओदन, दर्भकी सलाई, गोमय और पिंड-पंचवर्ण भात-इत्यादि द्रव्योंसे आरती उतारे ॥ ९१ ॥ ९३ ॥ चतुष्कोणेषु कुम्भांश्च मालाचन्दनचर्चितान् । फलपल्लववक्तृस्थान्ससूत्रान्स्थापयेत्क्रमात् ॥ ९४॥ उस सिंहासनके चारों कोनोंपर क्रमसे जलसे भरे हुए कलश रक्खे। उन्हें पुष्पमाला और चन्दनसे सुशोभित करे तथा उनके मुख पर फल और पत्ते रक्खे । और गलेमें सूत लपेटे ॥ ९४ ॥ अध्यः सम्पूज्य कुम्भांस्तांस्ततो दिक्पालकान्दश । अर्घ्यपाद्यादिभिर्यज्ञभागवल्यादिभिर्यजेत् ॥ ९५॥ ।' पश्चात् उन कलशोंको अर्घ देकर दश दिक्पालोंकी अर्ध्य, पाय, यज्ञभाग, बलि आदिसे पूजा करे ॥ ९५॥ कलशस्थापन । ततः पुष्पाञ्जलिं दत्वा वाद्यनिर्घोषनिर्भरैः। उद्धृत्य कलशान्पूर्वांस्तजलैः स्नापयेजिनम् ॥ ९६ ।। पश्चात् पुष्पांजलि क्षेपणकर गाजेबाजेके साथ साथ उन कलशोंमेंसे चार कलश हाथमें उठाकर उनके जलसे जिन भगवानका अभिषेक करे ॥ ९६ ॥ पंचामृताभिषेक। इक्षुरसभृतैः कुम्भैस्तथा घृतघटैः परैः। दुग्धकुम्भैस्तथा दनः कुम्भैः संस्नापयेत्पुनः ॥ ९७॥ पश्चात् इक्षुरस, घृत, दूध, दही इनसे भरे हुए कलशोंसे क्रमसे अभिषेक करे ॥ ९७ ॥ कोणकलशाभिषेक । सर्वौषधिरसैश्वापि चोद्धृत्य श्रीजिनेश्वरम् । कोणस्थैः कलशैर्देवं युत्क्या सस्नापयेत्ततः ॥ ९८॥ पश्चात् सर्वौषधि रससे भरे हुए कलशसे जिनदेवका अभिषेक करे। इसके बाद चारों कोनोंपर स्थित उन चार जलसे भरे कलशोंसे विधिपूर्वक पुनः अभिषेक करे ॥ ९८॥ १ कमलकी कली, दूब, अक्षत और सफेद राई इसको मिलाकर अर्पण करनेको पाद्य कहते हैं। ..... Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनगारपाविरचित जिनमादोदकाहण। गन्धद्रव्यविमित्रैश्च जलैः संस्नापयेत्पुनः। पादोदकं जिनेन्द्रस्य प्रकुर्यात्स्वस्य मूनि ॥ ९९ ॥ पश्चात् उत्तम गंधद्रव्यसे मिले हुए जलसे जिन भगवानका अभिषेक करे । और उस पादोदकको अपने शिर पर चढ़ावे-लगावे ॥ ९९॥ __ अष्टद्रव्यार्चन। वस्त्राञ्चलैरतथागुच्य संस्थाप्य यन्त्रमभ्यतः । पूजयेदृष्टया द्रव्यैर्निर्मलैवन्दनादिभिः ॥ १० ॥ पश्चात् प्रतिमाको वस्त्रसे पोंछ कर उसी सिंहासनमें लिखे यंत्र पर स्थापन कर आठ प्रकारके निर्मल चन्दनादि द्रव्योंसे पूजा करे ॥ १०० ॥ सिद्धयंत्रादिपूजन। ततः सिद्धादिग्रन्त्राणि श्रुतं गुरं र पूजयेत् । यक्ष्यक्षीसुरान्सर्वान्यथायोग्यमभ्यर्चयेद ॥ १०१॥ इसके बाद सिद्धादि यंत्रोंकी, शाम्र और गुरुकी पूजा करे । तथा सम्पूर्ण यक्ष यक्षी आदि शासनदेवोंकी यथायोग्य पूजा करे–सत्कार करे ॥११॥ शेषधारण। त्रिःपरीत्य जिनाधीशं भक्स्या नत्वा पुनः पुनः। जिनश्रीपादपीठस्थां शेषां शिरशि धारयेत् ॥ १०२ ॥ जिनेद्रदेवकी तीन प्रदक्षिणा देकर और भक्तिभावसे बार बार नमस्कार कर जिनपीठपर रक्सी हुई शेषा (आशिंका) को शिरपर धरे ॥ १०२ ॥ अथ होमविधि। एवमाराधमां कृस्वा होमशाला ततो प्रजेत् । समिधाद्यर्चनाद्रव्यं गृहीत्वा निनमार्यया ॥ १०३ ॥ इस प्रकार जिनदेवकी पूजा कर, अपनी सधर्मिणी द्वारा समिध आदि अर्चना द्रव्यको लेकर होमशालामें जाने ॥ १०३॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लक्षणं होमकुण्डानां वक्ष्ये शासानुसारतः। भट्टारकैकसन्धेश्व दृष्ट्वा निर्मलसंहिताम् ॥ १०॥ . . श्रीएकसन्धिनामके भट्टारककी रच्ची हुई निर्दोष संहिताको देखकर शास्त्रानुसार होमकुण्डोंका लक्षण कहा जाता है ॥ १०४४ ..... होमकुंडस्थान। संशोधितमहीदेशे जिनस्य वामभागतः। . अष्टहस्तसुविस्तारा दीर्घा तथैव वेदिका ॥ १०५॥ चतुःषष्ठयंशकान् कृत्वा चतुष्कोणे समांशकान् । राक्षसांशान् परित्यज्य पश्चिमायां ततो दिशि ।। १०६ ॥ मनुष्यांशेषु तिर्यक्षु वेदिकां कारयेत्पराम् । तत्र श्रीजिननाथानां प्रतिमा स्थापयेत्पराम् ॥ १०७ ॥ जिनेन्द्र देवके बाई ओर जलमंत्रादिके द्वारा शुद्ध की हुई जमीन पर आठ हाथ लम्बी चोड़ी एक वेदी बनवावे । उस वेदीके चारों कोनोंपर बराबर बराबर हिस्सेवाले चौसठ भाग खींचे ।उनमेंसे राक्षसोंके भागोंको छोड़कर पश्चिम दिशाकी ओर आड़े मनुष्यभामों पर एक दूसरी वेदिका बनवावे। उस पर श्रीजिनेन्द्रदेवकी पवित्र प्रतिमाको स्थापन करे ॥ १०५॥ १०७॥ ततोऽग्रदेवभागेषु छतत्रयं निवेशयेत् । चक्रायं तथा वक्षयक्षीय स्वस्तिकं परम् ।। १०८ ॥ उस प्रतिमाके सामनेके देवभामोंपर छत्रय, चक्रत्रय, यक्ष-बक्षी और स्वतिककी स्थापना करे ॥ १०८॥ ब्रह्ममागाँस्ततस्त्यक्त्वा देवमानुषमागयोः । पूर्वे ब्रह्मांशकात्तत कुण्डत्रयं तु कारयेत् ॥ १०९ ॥ मध्ये कुण्डं वरं तेषां त्रयाणां क्रियते शृणु । अरत्न्पगाधविस्तारं चतुरस्त्रं त्रिमेखलम् ॥ ११० ॥ पश्चात् ब्रह्मभागोंको छोड़कर देव-मानुषभागके समीप जो ब्रह्मभाग हैं उनसे पूर्ववर्ती जो माग हैं उनपर तीन कुंड बनवावे और उन तीनों कुंडके बीचमें एक अरनिप्रमाण लंबा, इतना ही चौड़ा और इतना ही गहरा चौकोन-जिसके चारों और तीन मेखला ( कटनी) खिंची हुई हो ऐसाएक कुंड बनवावे ॥ १०९ ॥ ११०॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोमसेनभष्टारकविरचित त्रिकोणं दक्षिणे कुण्डं कुर्याद्वर्तुलमुसरे।। तत्रादिमेखलायाश्चाप्यवसेयाश्च पूर्ववत् ॥ १११ ॥ भूताब्धिगुणमात्राः स्युर्मेखलाः प्रथमादयः ।. मात्रायामं तथैतेषां कुण्डानामन्तरं भवेत् ॥ ११२ ॥ उस कुंडके दक्षिणकी ओर एक तिकोन कुण्ड और उत्तरकी ओर एक गोल कुंड बनवावे । पहले कुंडकी तरह इन दोनों कुंडोंके चारों ओर भी तीन तीन मेखलाएँ बनवावे । पहली मेखला पाँच मात्रा प्रमाण, दूसरी चार मात्रा प्रमाण और तीसरी तीन मात्रा प्रमाण ऊँची बनवावे । तथा इन तीनों कुंडोंका अन्तर ( फासला ) एक दूसरेसे एक मात्रा प्रमाण रक्खे ॥ १११ ॥ ११२ ॥ परितो दिक्षु दिक्पालपीठिकाः कुण्डवेदिकाम् । ततः समय॑ तत्सर्वं संशोध्य च जलादिभिः ॥ ११३ ॥ चतुरस्रं ततः कुण्डं त्रिकोणं तदनन्तरम् । ततो वृत्तमपि प्रार्चेदम्भोधररसादिभिः॥११४ ॥ उन कुण्डकी वेदिकाओंके चारों ओर आठों दिशाओंमें आठ दिक्पालोंके आठ पीठ बनवावे । पश्चात् उन सबको जलादिके द्वारा शुद्धकर उनकी पूजा करे । पहले चौकोन कुंडकी, इसके बाद त्रिकोण कुंडकी और इसके पश्चात् गोलाकार कुंडकी पूजा व शुद्धता करे ॥ ११३॥ ११४ ॥ तीर्थकृद्गणभच्छेषकवल्यन्त्यमहोत्सवे । प्राप्य ते पूजनाङ्गत्वं पवित्रत्वमुपागताः॥ ११५ ॥ ते त्रयोऽपि प्रणेतव्याः कुण्डेष्वेषु महानयम् । गार्हपत्याहवनीयदक्षिणामिप्रसिद्धया ॥ ११६ ॥ तीर्थकर, गणधर देव और सामान्यकेवलीके निर्वाणोत्सवके समय पूज्यताको प्राप्त होकर जो पवित्रताको प्राप्त हुई हैं उन तीनों तरहकी अग्निकी तीनों कुंडोंमें रचना करे । इन तीनों कुंडोंमें जो पहला चौकोन कुंड है उसका नाम तीर्थकर-कुंड है और उसकी अग्निको गार्हपत्य अग्नि कहते हैं। दूसरा तिकोन कुंड है वह गणधर-कुंड है, उसकी आग्नको आहवनीय अनि कहते हैं । तीसरा वर्तुलाकार कुंड है जो सामान्यकेवली-कुंड कहा जाता है, उसकी अग्नि दक्षिणाग्निके नामसे प्रसिद्ध है । भावार्थ-यहाँपर शंका उपस्थित होती है कि अग्नि पूज्य और पवित्र कैसे हो सकती है। यदि अग्नि पवित्र और पूज्य मानी जाय तो जिसे अन्य लोग देवता मानते हैं और पवित्र मानकर उसे पूजते हैं जैनी लोग उसका खण्डन क्यों करते हैं। इसका उत्तर यह है कि वस्तु एक ही है, उसमें अभिप्राय जुदा जुदा है । अन्य लोग अग्निमात्रको अर्थात् सभी तरहकी अग्निको पवित्र पूज्य और देव मानते हैं, हम ऐसा नहीं मानते । किन्तु जिस अग्निमें तीर्थकर, गणधर और सामान्यकेवलीका Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैमाणिकाचार। १०५ शरीर दग्ध किया गया था उन आग्निकी स्थापना इन कुंडोंकी अग्निमें करके उसे पवित्र और पूज्य मानते हैं, न कि सारे संसारकी सभी तरहकी आमको । जिस तरह कि सारे ही संसारके पत्थर पूज्य नहीं हैं और न सभी तरहका जल पूज्य है, परंतु जिस जड़ पत्थर या स्थापनाके पुष्पोंमें परमात्माकी कल्पना कर ली जाती है वही पत्थर या पुष्प पूज्य हैं । अथवा जिस गन्धोदकको जैनी लोग 'निर्मलं निर्मलीकरं? इत्यादि श्लोक पढ़कर मस्तकपर चढ़ाते हैं उसे पूज्य और पवित्र मानते हैं, न कि सारे संसारके पत्थरों, पुष्पों और जलोंको । जब कि हम परमात्माकी कल्पना किये हुए पत्थरों और पुष्पोंको पवित्र और पूज्य मानते हैं और उस पत्थरकी मूर्तिके स्नानोदकको बड़े चावसे मस्तकपर चढ़ाते हैं तब हम नहीं कह सकते कि जिस अग्निमें तीर्थंकर आदिका शरीर दग्ध हुआ था उस अग्मिकी इस अग्निमें स्थापना कर पूजने और पवित्र माननेमें क्या दोष है । अथवा यों समझना चाहिए कि यह सब पूजाविधान अनेक तरहसे किया जाता है । वह सब अर्हत देवका ही पूजन है ॥ ११४ ॥ ११६ ॥ . चतुष्कोणे चतुस्तम्भाः सल्लकीकदलीयुताः। घण्टातोरणमालाढ्या मुक्तादामविभूषिताः ॥ ११७ ॥ चन्द्रोपकयवारैश्च चामरैर्दर्पणैस्तथा । . धूपघटैः करतालैः केतुभिः कलशैर्युताः ॥ ११८ ॥ वेदीके चारों कोनोंपर सल्लकीके पत्ते और केलेके स्तभोंसे युक्त चार स्तंभ खड़े करे । उनको घंटा, तोरण, पुष्पमाला, मोतियोंकी माला आदिसे सजावे । उनके ऊपर चन्दोवा ताने, यवार, तिल, जीरा, गेहूँ आदि मंगल धान्य रक्खे । चँवर, दर्पण, धूपघट, झाँझ, धुजा, कलश ये मांगलिक वस्तु वहाँ पर धरे ॥ ११७ ॥ ११८॥ एवं होमगृहं गत्वा पश्चिमाभिमुखं तदा । उपविश्य क्रियाः कार्या नमस्कारपुरस्सराः ॥ ११९॥ उपर्युक्त रीतिसे तैयार किये गये होमगृहमें जाकर पश्चिमकी तरफ मुख करके बैठे और नमस्कार पूर्वक पूजा करना प्रारंभ करे ॥ ११९॥ तत्रादौ वायुमेघाग्निवास्तुनागाँस्तु पूजयेत् । क्षेत्रपालं गुरुं पितॄन् शेषान्देवान्यथाविधि ॥१२० ॥ जिनेन्द्रसिद्धसूरीश्च पाठकान् साधुसंयुतान् । श्रुतं सम्पूज्य युक्तचाऽत्र पुण्याहवचनं पठेत् ॥ १२१॥ १. इस स्थानमें जिनदेवका मुख जिस दिशामें हो उसे पूर्व दिशा समझें । और देवके सामने अपना मुख . रहता है इस लिए उसे पश्चिम दिशा समझें । पूजाविधिमें सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिए। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सोमसेमभट्टारकविरचित पहले पहल वायुकुमार, भेषकुमार, अशिकुमार, वास्तुदेवता और नागकुमारकी पूजा करे । पश्चात् क्षेत्रपाल, गुरु, पितर और बाकीके देवोंकी उनकी पूजाविधिके अनुसार पूजन करे । तथा अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और सर्वसाधु तथा श्रुतदेवताकी युक्तिपूर्वक पूजा कर पुण्याहवाचन पढ़े ॥ १२० ॥ १२१ ॥ चक्रत्रयं दक्षिणेऽस्मिन् वामे छत्रत्रयं यजेत् । पूर्णकुम्भं पुरोभागे यक्षयक्ष्यौ च पार्श्वयोः ॥ १२२ ॥ जिन भगवान के दक्षिणकी ओर स्थापित चक्रत्रयकी, बाई ओर छत्रत्रयकी, सामने पूर्ण कुंभोंकी और दोनों पसवाड़ों की ओर विराजमान यक्ष, यक्षियोंकी पूजा करे ॥ १२२ ॥ कुण्डस्य पूर्वभागे तु दर्भासनेऽवरे मुखः । पद्मासनं समाश्रित्य पूजाद्रव्यं तु विन्यसेत् ॥ १२३ ॥ होमद्रव्यप्रदानाय शिष्यवर्ग नियोजयेत् । मौनं व्रतं समादाय ध्यायेच्च परमेश्वरम् || १२४ ॥ होमकुंडकी पूर्वदिशामें रक्खे हुए दर्भके आसनपर पश्चिमकी ओर मुख कर पद्मासन से बैठे और अपने पास में पूजाद्रव्यको रक्खे । होमद्रव्यको देनेके लिए शिष्योंकी न हों तो स्वयं करे ) और मौनव्रत लेकर परमात्माका ध्यान करे || १२३ ॥ नियोजना करे ( शिष्य १२४ ॥ जिनेंद्रमर्घ्यदानेन परात्मानं च तर्पयेत् । मध्ये कुण्डं सुगन्धेन विलिखेदग्निमण्डलम् ॥ १२५ ॥ सम्पूज्य होमकुण्डं तमपिं सन्धुक्षनेत्परम् । नूतनानिर्भवेद्योग्यो होमसन्धुक्षणे तदा ।। १२६ ।। जिनेन्द्रको अर्ध देकर उनका तर्पण करे । कुंडके मध्यभागमें सुगन्ध द्रव्यसे अग्निमंडल लिखे । पश्चात् होमकुंडकी पूजा कर उसमें अग्नि जलावे । उस समय होमद्रव्य के जलानेमें ताजा अग्नि टीक रहती है ।। १२५ ।। १२६ ॥ दर्भपूलं पवित्रं तु रक्तवस्त्रेण वेष्टितम् । तेन सज्वालयेत्कुण्डं स्वमन्त्रेण ससर्पिषा ॥ १२७॥ शुद्ध दर्भके पूले पर रक्त वस्त्र लपेट कर उससे और घृतसे मंत्रोच्चारण पूर्वक कुण्ड में अभि जलावे ॥ १२७ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत आचम्य च प्राणायाम कुर्यात क्तः स्तुतिम् । अनेरावाहनं मुस्वा पूजयेदष्टधार्वनैः १२८ ॥ इसके बाद आचमन कर प्राणायाम करे । पश्चात् स्तुति पढ़े और अमिका आवाहन कर जलादि अष्ट द्रव्योंसे उसकी पूजा करे ।। १२८ ॥ गार्हपत्यानिमादाय ज्वालयेत्तूनरेऽनलम् । उत्तराग्निं तु संगृह्य ज्वालयद्दक्षिणेऽनलम् ॥ १२९॥ पश्चात् गार्हपत्य बीचले कुंडसे अग्नि लेकर उत्तरकी ओरके कुंडमें अग्नि जलावे । और उत्तर कुंडसे अग्नि लेकर दक्षिण कुंडमें जलावे ॥ १२९ ॥ मेखलासु तिथिदेवान् ग्रहानिन्द्राँस्ततः क्रमात् । पूजयेदुपरिष्टात्तु भक्त्या युक्त्या समन्त्रतः ॥ १३० ॥ इसके बाद कुंडोंकी मेखलाओं पर सिथिदेव, नवगृह और इंद्रोंकी भक्तिपूर्वक मंत्रोचारणके साथ साथ युक्तिसे पूजा करे ॥ १३०॥ दिक्पालान् परितः कुण्डं वेदिकायां तु तर्पयेत् । कृतेषु लघुपीठेषु यथास्वं स्वदिशास्वपि ॥ १३१ ॥ . शाल्योदनं वृतं पकं नैवेचं स्सपायसम् । सिञ्चत्क्षीरैघृतैर्मिश्रं दुग्धकेक्षुरसान्वितम् ॥ १३२ ॥ कुंडके चारों ओर की वेदिकाके ऊपर जो आठों दिशाओंमें छोटे छोटे आठ पीठ बनाये गये थे उनपर यथायोग्य दिकशालाका तर्पण करे । चावल, घी, पका हुआ अन्न, गन्नेका रस, खीर और धीसे मिले हुए दूध और इक्षु-रस संयुक्त नैवेद्यका सिंचन करे अर्थात् इन सबको मिलाकर चढ़ावे ॥ १३१ ॥ ॥ ५३२॥ सुक और सुवाका लक्षण । इन्धनं क्षीरवृक्षस्य स्रुक स्रुवं चन्दनं तथा । अश्वत्थस्याप्यभावेऽस्य तत्पत्रं वा नियोजयेत् ॥ १३३ ॥ होमद्रव्यको अग्निमें जलानेके लिए बड़की लकड़ीका चाटू बनाबे और घृतको अग्निमें डालनेके लिए चन्दनका छोटा । चाटू (चम्मच ) बनवावे । यदि बड़की लकड़ी और चन्दनकी लकडी न मिले तो पीपलकी लकड़ीके ये दोनों पात्र बनवावे । अथवा उन दोनों पात्रके स्थानों में पीपलके पत्तोंको काममें लेवे ॥ १३३ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सोमसेनभहारकविरचित ततः पलाशपत्रेण क्षीरमारुहपत्रतः। खुकवेणाथवा दद्यादादावाज्याहुतिं बुधः ॥ १३४ ॥ यदि उपर्युक्त लकड़ीकी प्राप्ति न हो सके तो ढाक और बड़के पत्तोंका सुक और सुवा (घृत, होमद्रव्यको कुंडमें डालनेके पात्र ) बनवावे । और उनसे प्रथम घृतकी आहुति देवे । गायके पूंछके अग्रभाग सरीखे लंबे मुखका स्रक और नाकके आकार चौड़े मुखका स्रुवा बनवावे । दोनों ही पात्रोंकी लंबाई एक अरनिप्रमाण होनी चाहिए और उनकी डंडी छह अंगुल लंबी होनी चाहिए ॥ १२४॥ गोपुच्छसदृशा सुक च सुवाग्रं नासिकासमम् । दैर्घ्य द्वयोररत्निः स्यान्नाभिदण्डः षडङ्गुलः ॥ १३५ ॥ तद्वयं दर्भपूलेन प्रमृज्यासेचयेजलैः। काष्ठैः प्रताप्य तद्वन्द्वं ताभ्यां घृतं च होमयेत् ॥ १३६ ॥ उन दोनों पात्रोंको दर्भके पूलेसे पोंछकर उनपर जल सींचे और अग्निपर तपा कर उनसे घृत और होमद्रव्यका होम करे ॥१३५ ॥ १३६ ॥ अग्निज्वाला तु महती तथा कुर्यात् घृताहुतिम् । अधिकेऽनौ गवां दुग्धैः कुशागः परिषेचयेत् ॥ १३७ ॥ त्रिषु कुण्डेषु सादृश्यं कुर्याद्धोमसमानताम् । गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निं क्रमाद्यजेत् ॥ १३८ ॥ अग्निमें जो घृताहुति दी जाय वह ऐसी देनी चाहिए जिससे अग्निकी लौ खूब ही ऊंची बढ़े। तथा अग्निके अत्यन्त प्रचण्ड तेज हो जानेपर कुशके अग्रभागसे गायका दूध सोंचे । तीनों कुण्डोंमें एक सरीखा होम करे । किसीमें कमती और किसीमें जियादा न करे । तथा गार्हपत्याग्नि, आहवनीय-अग्नि और दक्षिणाग्निमें क्रमसे होम करे ॥ १३७ ॥ १३८ ॥ तर्पण। तर्पणं पीठिकामन्त्रैः कुसुमाक्षतचन्दनैः । मृष्टाम्बुपूर्णपाणिभ्यां कुर्वन्तु परमेष्ठिनाम् ॥ १३९ ।। पीठिका मंत्रोंका उच्चारण करते हुए पुष्प, अक्षत, चन्दन और जलको अंजलिमें लेकर उससे परमेष्ठीका तर्पण करे ॥ १३९ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । समिधा। पिप्पलेन पलाशेन शम्या वा द्वादशाङ्गुलम् । आर्टेन्धनर्बुधः कुर्यात्समिधां होममुत्तमम् ॥ १४० ॥ पीपल, पलाश अथवा शमीकी बारह अंगुल लंबी गीली लकड़ियोंसे बुद्धिमान गिरस्त होम करे ॥१४॥ क्षीरद्रुमैर्वाऽथ पलाशभूरुहैः, सशर्कराक्षीरघृतप्लुतैः पृथक् । होमेऽष्टविंशद्भिरिमैः ( ? )समिन्धनै-, नमोऽर्हतेत्यादिभिरेव पञ्चभिः ॥ १४१ ॥ अथवा बड़की किंवा पलास (ढाक) की समिधाको जुदा जुदा शक्कर, दूध और घीसे भिजोकर ' नमोऽहते । इत्यादि पांच मंत्रोंसे होम करे । होममें अहाईस तरहकी समिधा होनी चाहिए ॥ १४१॥ वटिकाविधि। काश्मीरागुरुकर्पूरगुडगुग्गुलचन्दनैः।। पुष्पाक्षतजलै जामिलितैरक्षसम्मितैः ॥ १४२ ॥ जयादिदेवतामन्त्रैरनेराहुतिमम्बुना । ब्रह्ममायादिहोमान्ते वटिकाहोममाचरेत् ॥ १४३ ।। केशर, काला चंदन, कपूर, गुड़, गुग्गुल, सफेद्र चन्दन, पुष्प, अक्षत, जल, भुने चावल और बहेड़ा इनकी गोलियां बनावे और जयादि देवतोंके मंत्रोंसे अमिमें आहुति दे । तथा जल द्वारा ब्रह्म-माया आदिका होम हो चुकने पर वटिका होम करे । यहां पर जो जलका होम बताया गया है वह जलमें ही करना चाहिए ॥ १४२॥ १४३ ॥ ___ होम करनेका अन्न । शाल्योदनं क्षीरविचित्रभक्ष्य पकानसार्पः श्रतपायसं च । सुस्वादु पकं कदलीफलं च, रुचाऽक्षमा मिलितं जुहोमि ॥१४४ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित भात, दूध, तरह तरहके भक्ष्य पदार्थ, पका हुआ अन्न, खोवा (मावा), मीठे और पके हुए केले इन सबको मिलाकर, बहेड़ा प्रमाण, सुख बाटू में रखकर आशंमें होम करे ॥ १४४ ॥ अन्नाभावे जुहुयात्सु तण्डुलानोषधीन् स्त्वा । पयो दधि घृतं चापि शर्करां वा फलानि च ॥ १४५ ॥ यदि अन्न न मिले तो चावल, औषधि, दूध, दही, घृत, शक्कर किंवा फलोंको सुन्च नामके होम पात्र में रखकर इनका होम करे ॥ १४५ ॥ उत्तानेन तु हस्तेन त्वष्टाब्रेग पीडिते ( १ ) । संहिताङ्गुलिपाणिस्तु मन्त्रतो जुहुयाद्धविः ॥ १४६ ॥ होम करते समय जिस हाथसे होम करे उसमें हाथकी मिली हुई अंगुलियोंपर होमद्रव्यको रखकर, उसे अंगूठे से दबाकर, हाथको ऊंचा उठा कर, मंत्रोच्चारण पूर्वक उस हविद्रव्यका हवन कुंडमें होम करे ॥ १४६ ॥ दिक्पालोंको कोरान्नाहुति । । प्रस्थप्रमाणचणकाढकमाषमुद्र, गोधूमशालियवमिश्रितसप्तधान्यैः । होमे पृथग्विधृतमुष्टिभिरग्निकुण्डे, वा सप्त विषमग्रहदोषशान्त्यै ॥ १४७ ॥ एक सेर चने, उड़द, मूंग, गेहूं, चावल, जब और तिल इन सातों धान्योंको मिला ले | सबका वजन करीब ढाई सेर होना चाहिए। बाद जुदा जुदा एक एक मुट्ठी भर कर क्रूर ग्रहोंकी शान्तिके लिए सात बार अग्निकुंडमें क्षेपण करे । भावार्थ - इसका नाम कोरान्नाहुति है । इसके करने से क्रूर ग्रहों द्वारा होनेवाली बिघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं ॥ १४७ ॥ नवग्रह होम | हुत्वा स्वमन्त्रचितमम्बुनि सप्तसप्तमुष्टिप्रमाणतिलशालियवप्रसत्तिम् । नीत्वा घृतप्लुतसमिद्भिरथाभिकुण्डे, एकादशस्थवदवन्तु सदा ग्रहा वः ।। १४८ ॥ उन नवग्रहों के मंत्रों का उच्चारण करते हुए, एक घड़े में जल भर कर, उसमें सात सात मुट्ठी तिल, चावल, जब आदि धान्यका हवन करे और इन्हीं धान्यों तथा घृतसे औंसे अग्निकुंडमें हवन करे । ऐसा करनेसे उन नवग्रहोंकी पीड़ा दूर होती है ॥ भिजोई हुई समिधा १४८ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गर्णिकाचार अर्कैः पलाशैः खदिर्मधरै, बर्बोधिद्रुमैः कस्बुशमीसमिद्भिः । दुर्वाकुशाभ्यां क्रमशो ग्रहाणां, सूर्यादिकानां जुहयात्प्रशान्त्यै ॥ १४९॥ आक, ढाक, खदिर, अपामार्ग, पीपल, काला उंबर, शमी, दूभ और डाभ इन नौ तरहकी समिधासे, एक एकसे, क्रमसे, शान्तिके निमित्त, सूर्यादि नौयहींका हवन करे । भावार्थ-आककी समिधासे सूर्यका, पलासकी लकड़ीसे चन्द्रका इस तरह क्रमसे नौग्रहों का हवन को ॥ १४९॥ अर्केण नश्यति व्याधिः पलाशः कामितप्रदः। खदिरचार्थलाभच अपामार्गोभरिनाशकः ॥ १५० ॥ अश्वत्थेन हरेद्रोम दर्मोदुम्बरभाग्यदः। शमी च पापनाशाय दूर्वा चायुःप्रवद्धिनी ॥ १५१ ॥ आककी लकड़ीसे हवन करनेसे पीड़ा दूर होती है, पलासकी मनचाहे पदायोंको देती है, खदिरसे थनकी प्राप्ति होती है, अपामार्गसे दुष्टोंका नाश होता है, पीपलसे रोग हरे जाते हैं, अभ और उदुंबरसे यश फैलता है, शमी पापोंको नष्ट करनेके लिए होता है और दूभ आयुष्य ( उमर ) बड़ाता है । भावार्थ-इन उक्त समिधाओंसे हक्न करनेसे उक्त कार्य होते हैं ॥ १५ ॥ १५१॥ वस्त्राच्छादन । धौतादिवर्ण प्रमुखादिवर्ण, काञ्चीदुलं नखच्छिन्द्रहस्वम् ।. .. देवाजवनोबलकुन्दद्रीमं, आच्छादनं यज्ञगृहेषु सर्वम् ॥ १५२॥ होमशालामें इस श्लोकों बताये हुए सम्ब सरहके वस्त्र होने चाहिए । १५२ ॥ यदि कुण्डास्त्रयः सन्ति सदा सर्व सामीहितम् ।। पृथनष्टपतं होम्यं आज्यामहसुस समित् ।। ३५३ ।। यदि होम करनेके तीन कुंड हों तो उनमें हाएको जुन बदा भूल, मा, पुष्प और समिधा इन सबकी एक सौ भाठ आहुति दे ॥ १५३ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सोमसेनभट्टारकविरचित एकमेव यदा कुण्डं गार्हपत्ये चतुरस्रके । सर्वा अप्याहुतीः कुर्यात्पृथगष्टोत्तरं शतम् ॥ १५४ ॥ यदि तीन कुंड न हों तो उस चौकोन गार्हपत्य नामके एक ही कुण्डमें उन तीनों कुंड सम्बन्धीं जुदी जदी सबकी सब एक सौ आठ आहुतियाँ देवे ॥ १५४ ॥ अन्नं समिल्लवङ्गापोऽञ्जलिचतुर्विधेषु च । होमेषु यत्नतः कुर्यान्मध्ये मध्ये घृताहुतिम् ।। १५५ ॥ कुर्यात्पूर्णाहुतिं चान्त्ये ग्रहस्तो॒त्रं तथा पठेत् । त्रिःपरीत्य नमस्कारं महावाद्यसमन्वितम् ॥१५६॥ तस्माद्भस्म समादाय पवित्रं पापनाशनम् । धरेद्भालादिदेशेषु तिलकं कारयेद्बुधः ।। १५७ ।। अन्न, समिधा, लवंग और जल इन चार तरहके होमोंके बीच बीचमें एक एक घृताहुति देता रहे और होम हो चुकने पर अन्तमें एक सीधी घी की पूर्णाहुति दे जिसकी धार बीचमें न टूटे। ग्रहस्तोत्र पढ़े । अच्छे अच्छे गाजे बाजेके साथ साथ अग्निके तीन प्रदक्षिणा लगाकर उसे नमस्कार करे । उस पवित्र पापको नाश करनेवाली अग्निकी भस्मको लेकर मस्तकादि स्थानोंमें धरे और बुद्धिमान श्रावक उस भस्मका तिलक करे ॥ १५५ ॥ १५६ ॥ १५७ ॥ विशेष विधि । सत्वचः समिधः कार्या ऋज्व्यः श्लाघ्याः समास्तथा । शस्ता दशाङ्गुलास्ताः स्युर्द्वादशाङ्गुलकाश्च वा ।। १५८ ।। षण्मासं स्याच्छमी ग्राह्यां खादिरं तु त्रिमासिकम् । मासत्रयं तु पालाशी अश्वत्थोऽहरहस्स्मृतः ।। १५९ ॥ दिनमेकमपामार्गो ग्राह्यश्चार्कस्तथैव च । बटादयोऽपि ग्राह्याः स्युस्त्रिदिनं स्यादुदुम्बरः ॥ १६० ॥ एतेषामप्यभावे तु कुशा इत्यपरे विदुः । मासमेकं कुशो ग्राह्यो दूर्वा स्यात्सद्य एव च ॥ १६९ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। naamaAAAAW होम करनेकी समिधा छिलके सहित होनी चाहिए तथा सीवी और लंबाई में बराबरकी प्रशंसनीय मानी गई है । दस अंगुल किंवा बारह अंगुल लम्बी होनी चाहिए । शमीकी समिधा छह महीने तक काम देती है । खदिर और पलाशकी तीन माह तक काम देती है । पीपलकी समिधा दर रोज लाना चाहिए । अपामार्म ( खेजड़ी) और आककी समिधा एक दिन तक ग्राह्य है । बड़, उंबर वगैरहकी समिधा तीन दिन पर्यन्त ग्राह्य होती है। यदि उक्त प्रकारकी समिधा न मिले तो किसी किसीका मत है कि इसके स्थानमें कुशोंसे काम ले । कुश एक माह पर्यन्त ग्राह्य होता है और दूब तुरतकी ताजा तोड़ी हुई ही ग्राह्य है, अधिक नहीं ॥ १५८ ॥ १६१॥ कोद्रवं चणकं मापं मसूरं च कुलित्थकम् । कांजिपकं परानं च वैश्वदेवे तु वर्जयेत् ॥ १६२ ॥ कोदो, चने, उड़द मसूर, कुलत्थ, कांजिका (एक प्रकारका पदार्थ) का पका हुआ अन्न और दूसरेका अन्न ये पदार्थ विश्वदेव-कर्ममें वर्जनीय हैं ॥ १६२ ॥ प्रतिष्ठादिमहत्कार्ये कुर्यादेवं सविस्तरम् । नित्यकर्मणि संक्षेपात्तत्सर्वं विधिपूर्वकम् ॥ १६३ ॥ प्रतिष्ठा आदि जैसे महत्कार्योंमें यही होमादि विधान इसी तरह विस्तारके साथ करे। और नित्य कर्ममें इन्हीं सब कार्योंको संक्षेपसे विधिपूर्वक करे ॥ १६३॥ होमके भेद । होमस्तु त्रिविधो ज्ञेयो गृहिणां शान्तिकारकः । पानीयवालुकाकुण्डभेदाद्रम्यः स्वशक्तितः ॥ १६४ ॥ जलहोम, बालुकाहोम और कुण्डहोम ( अग्निहोम ) इस तरह होम तीन प्रकारका है, जो गिरस्तोंको शान्तिका करनेवाला है । अतः गिरस्तोंको हमेशा अपनी शक्तिके अनुसार ये तीनों होम करना चाहिए ॥ १६४ ॥ ....... जलहोम। यत्सद्वर्तुलकुण्डलक्षणमिदं श्रीवारिहोमे निनैः प्रोक्तं ताम्रमृदादिवस्तुरचिते कुण्डे समारोपितम् । कुर्याच्छ्रीतिथिदेवता ग्रहसुराः शेषाश्च सन्तर्प्यताम्, शान्त्यर्थं जलहोममिष्टममलं दुष्टग्रहाणां बुधः ॥ १६५ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभद्वारकविरचित maa . श्रीजिनेन्द्र देवने जलहोममें कुण्डका लक्षण गोल बताया है। वह कुंड तांबा, मिट्टी आदिका बना हुआ होना चाहिए । उस कुंडमें आरंभ किया गया कार्य करना चाहिए । तिथिदेवता, सूर्यादि ग्रह और बाकीके देवोंका तर्पण कर । तथा दुष्ट ग्रहोंकी शान्तिके लिए बुद्धिशन श्रावक पवित्र जलहोम करे । भावार्थ-तांबा मिट्टी वगैरहका गोल कुंड बनवावे, उसमें शान्तिके निमित्त तिथिदेवता आदके सन्तोषके लिए होम करे ॥ १६५ ॥ श्रीखण्डतण्डुलस्रग्भिः सम्भूषितमलं वरम् । शुद्धतीर्थोदकैः पूर्ण जलकुण्डं महामहे ॥ १६६ ॥ सन्धौतशोधितव्रीहिपुढे जिनमहोत्सवे । संस्थाप्य पूजकाचार्यो जलहोम समाचरेत् ॥ १६७ ॥ चन्दन, अक्षत और मालासे सुशोभित किये गये, और तीर्थस्थानके शुद्ध जलसे भरे हुए उस पवित्र उत्तम जलकुंडको धोये हुए और साफ किये हुए चावलों पर रख कर, पूजकाचार्य लहोम करे । भावार्थ-कुंड पर चन्दनादिका लेप कर, उसे शुद्ध तीर्थ जलसे भरकर धोये हुए और ना किये चावलों पर रक्खे और उसमें होम करे ॥ १६६ ॥ १६७ ॥ सप्तधान्यैस्तु दिक्पालाँस्निधान्यैस्तु नवग्रहान् । पकानं नालिकेरं च यथाशक्त्यत्र होमयेत् ॥ १६८ ॥ इस जलकुंडमें सात तरहके धान्योंसे दिक्पालों का, तीन तरहके धान्योंसे नवग्रहोंका होम करे तथा अपनी शक्तिके अनुसार पके हुए अन्न और नारियलका होम करे ॥ १६८ ॥ आचमं तर्पणं प्राणायाममत्र विधानतः । अपां कुंडे विधिं कुर्यादत्रापि सर्वमञ्जसा ॥ १६९ ॥ इस जलहोमके समय विधिपूर्वक आचमन, तर्पण और प्राणायाम करे । तथा इस जलकुंडमें और भी सम्पूर्ण विधि ठीक ठीक रीतिसे करे ॥ १६९ ॥ दिक्पालाः प्रतिसेवनालजगद्दोपार्हदण्डोत्कटाः, सद्धर्मप्रणये निबद्धभगवत्सेवानियोगेऽपि च । पूजापात्रकराग्रतः सरमुपेत्योपात्तबल्यर्चनाः, प्रत्यूहानिखिलानिरस्यत तनुस्नानोत्सवोत्साहिताः ॥ १७० ॥ हे दिक्पालो ! तुम विपरीत आचरण करनेवाले जगत्के दोषोंके योग्य दण्ड-विधान करनेवाले हो इस लिए जिनाभिषेकके लिए जो मैंने कार्य आरंभ किया है उसे उत्साहित हो कर, जब जब Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ११५ मैं जिन भववानकी पूजा करूँ तब तब आकर, बाल-पूजा ग्रहण कर, उत्तम आचरणके करते समय और जिन भगवानके पूजा-महोत्सवके समय मेरे सारे विघ्नोंको दूर करो । इस तरह दिक्पालसे प्रार्थना करे ॥ १७० ॥ बालुका होम। सम्माय॑ गोमयैर्भूमि गन्धोदकैश्च सिञ्चयेत् । तटिनीवालुकास्तत्र प्रसार्य हस्तमात्रतः ॥१७१ ॥ तदुपर्यश्वत्थैः काष्ठैः शिखराकारसञ्चयम् । कुर्यादन्यैश्च काष्ठै; होमकुण्डे यथा पुरा ॥ १७२ ॥ नवग्रहान् तिथिदेवान् दिक्पालान् शेषदेवकान् । अग्निसन्धुक्षणं कृत्वा पूजयेदमिनायकम् ॥ १७३ ॥ आचमं तर्पणं जायं समिधा त्वादिहोमकम् । कुर्याच्छेषं विधानं तु संक्षेपादनिहोमवत् ॥ १७४ ॥ जमीनको गोबरसे लीप कर उसपर गन्धोदक छिड़के । नदीसे बालू मिट्टी लाकर उसपर एक हाय प्रमाण बिछावे । उसके ऊपर पीपलकी लकड़ीका अथवा और किसी लकड़ीका शिखराकार ढेर करे जैसा कि पहले होमकुंड के समय किया था। बाद आनि जला कर नवग्रह, तिथिदेव, दिवपाल और बाकीके देवोंकी तथा अग्निकुमारोंकी पूजा करे । और अग्निहोमकी तरह, आचमन, तर्पण, जाप्य, समिधा-होम आदि सम्पूर्ण विधान संक्षेपसे करे ॥ १७१ ॥ १७४ ॥ होमकरनेके अवसर । व्रतबन्धे विवाहे वा सूतके पातके तथा । जिनगेहप्रतिष्ठायां नूतनगृहनिर्मितौ ॥ १७५ ।। ग्रहपीडादिके जाते महारोगोपशान्तिके । गर्भाधानविधाने तु पित्रादिमरणे तथा ॥ १७६ ॥ कुण्डानां लक्षणं प्रोक्तं प्रागेव होमलक्षणे । यथावसरमालोक्य कुयोद्धोमविधिं बुधः ॥ १७७॥ वतोद्यापनके समय, विवाहके समय, सूतक समाप्तिके समय, पातकका प्रायश्चित्त देनेके समय, जिनमन्दिरकी प्रतिष्ठाके समय, नवीन घर बनवानेके समय, ग्रहोंके उपद्रवोंके समय, बड़े Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ सोमसेनभट्टारकविरचित भारी रोगकी शान्तिके समय, मर्भाधानादि विधियों के समय तथा पिता आदिके मरणके समय, होमका लक्षण बताते वक्त जो कुंडोंका लक्षण पहले कह आये हैं उसे समय समयमें देखकर बुद्धिमान गिरस्त सारी होमविधि करे ॥ १७५॥ १७६ ॥ १७७ ॥ होम करनेका फल। कृते होमविधौ लोके सर्वशान्तिः प्रजायते । वक्ष्येऽधुना परग्रन्थे यजमानस्य लक्षणम् ॥ १७८ ॥ ऊपर कहे अनुसार होमविधिके करनेसे संसारमें चारों और शान्ति छा जाती है । अब अन्य ग्रन्थोंमें जो यजमानका लक्षण कहा गया है वह कहा जाता है ॥ १७८॥ अजमान। यजमानस्तु मुख्योऽत्र पत्नी पुत्रश्च कन्यका । ऋत्विक् शिष्यो गुरुर्धाता भागिनेयः सुतापतिः ॥ १७९ ॥ एतेनैव हुतं यत्तु तध्रुवं स्वयमेव हि । कार्यवशात्स्वयं कतो कर्तु यदि न शक्यते ॥ १८० ॥ इस होम कार्यके करनेमें अपनी धर्मपत्नी, पुत्र, कन्या, ऋत्विक, शिष्य, गुरु, भाई, भांना और दामाद ( जवाई ) ये सब मुख्य यजमान गिने जाते हैं । यदि कार्यवश स्वयं होम आदिको करनेवाला पुरुष होम न कर सके तो इनके द्वारा किया गया होम ऐसा समझना चाहिए कि मानों खुदने ही किया है ॥ १७९ ॥ १८ ॥ होम करनेका समय । भानौ समुदिते विप्रो जुहुयाद्धवनं तथा। अनुदिते तथा प्रातर्गवां च मोचनेऽपि वा ॥ १८१ ॥ हस्ताव॑ रविर्यावद्धवं हित्वा न गच्छति । तावदेव हि कालोऽयं प्रातस्तूदितहोमिनाम् ॥ १८२ ॥ सूर्यके उदय होने पर ब्राह्मण होम करे, या सूर्योदय न होनेके पहले होम करे, अथवा प्रातःकाल जब गायें जंगलमें चरनेके लिए छोड़ी जायँ उस समय होम करे । जबतक सूर्य पृथिवीसे एक हाथ ऊंचा नहीं जाता है तब तकका काल प्रातःकाल कहा गया है ॥ १८१॥ १८२ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । प्रस्तर्द्वादश नाव्यस्तु सायं तु नव नाडिकाः । होमकालः समुद्दिष्टो मुनिभिस्तत्त्वदृष्टिभिः ॥ १८३ ॥ ऊपर के दो श्लोकोंद्वारा बतलाया गया काल होम करनेका मुख्य काल है । इसके सिवा सौ काल, सुबह के वक्त सूर्योदय हो जानेके बाद बारह घड़ीतक और शामको सूर्य अस्त हो जाने के बाद at घड़ीतक होम करनेका है ऐसा तत्त्वदर्शी मुनियोंने कहा है ॥ १८३ ॥ अग्निहोत्री की प्रशंसा । एवं प्रतिदिनं कुर्वन्नरुपासनाविधिम् । अग्निहोत्री द्विजः प्रोक्तः स विप्रैर्ब्रह्मवेदिभिः ॥ १८४ ॥ धार्मिको भूमिदेवोऽसावाहिताभिर्द्विजोत्तमैः । आर्यश्वपसः शिष्टः सुमात्मेति प्रकीर्तितः । १८५ ।। तरह पूर्वोक्त प्रकारसे प्रति दिन विधिपूर्वक अभिकी उपासना करनेवाले पुरुषको आत्माके निजस्वरूपको पहचाननवाले बिमोंने अग्रिहोत्री दिन कहा है। तथा द्विनोंमें श्रेष्ठ पुरुष धार्मिक, भूमिका देव, आहिताग्नि, आर्य, उपासक शिष्ठ, पुण्यात्मा इत्यादि शब्दों द्वारा उसका गुणगान करते हैं ॥ १८४ ॥ १८५ ॥ अग्निहोत्री फल | आहिताग्निद्विज को यत्र ग्रामे वसत्यहो । सप्ते तयो न तत्र स्युः शाकिनीभूतराक्षसाः ॥ १८६॥ व्याघ्रसिंहगजाद्याश्च प्रीडां कुर्वन्ति नो कदा | अकाले मरणं नास्ति सर्पव्याधिभयं न च ॥ १८७ ॥ प्रजा नृपप्रधानाद्याः सर्वेऽत्र सुखिनो जनाः । धनधान्यैः परिपूर्णा गोधनं तुष्टि पुष्टिदम् ॥ १८८ ॥ : सन्ति ते यत्र अग्रिहोत्रद्विजाः पुरे । तस्य देशे कचिन्न स्यादाधिव्याधिप्रपीडनम् ॥ १८९ ॥ तेभ्यो दानं नृपैर्देयं यथेष्टं गोकुलादिकम् । ग्रामक्षेत्रगृहामन्त्ररत्वाभरणवस्त्रकम् ।। १९० ।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ सोमसेनभट्टारकविरंचित जिस गांव में एक भी अग्निहोत्री द्विज रहता हो उस गावमें अतिवृष्टि, अवृष्टि आदि सात तरह के भय नहीं होते । शाकिनी, भूत, राक्षस, व्याघ्र, सिंह, हाथी आदि कभी किसीको पीड़ा नहीं पहुंचाते । किसीकी अपमृत्म नहीं होती । सर्पका और व्याधिका कुछ भय नहीं रहता । प्रजा, राजा, प्रधान वगैरह सब पुरुष हमेशा सुखसे निवास करते हैं । वहांकी जनता धनधान्यसे परिपूर्ण हराभरी रहती है। गायें सबको संतोष पुष्टि देनेवाली होती हैं । और जिस नगरमें बहुत सारे अग्रिहोत्री ब्राह्मण रहते हैं उस नगर के देशमें कहीं पर भी आधि-व्याधिकी पीड़ा नहीं होती। ऐसे अग्निहोत्री ब्राह्मणों के लिए राजाओंको यथेष्ठ गायें, ग्राम, जमीन घर, बर्तन, रत्न, गहने, कपड़े आदि वस्तुओंका दान देना चाहिए । १८६ ॥ १९० ॥ श्रीजिनपूजन जिनबिम्बमथानीय पूर्व देवगृहे न्यसेत् । सिद्धादीनां तु यन्त्राणि स्वस्वस्थाने निवेशयेत् ॥ १९९ ॥ जिनेन्द्रसदनद्वारे क्षेत्रपालान् समर्चयेत् । मध्यदेशे तु सदेवान् गन्धर्वस्तत्र दक्षिणे ॥ १९२ ॥ किन्नरान्वामभागे च भूतप्रेताँश्च दक्षिणे । शेषाँश्च बलिदानेन तर्पयेद्वामभागतः ।। १९३ ॥ ब्रह्मभागे तु ब्रह्माणं अष्टौ दिशाधिपान्बहिः । अर्घ्यपाद्ययज्ञभागरमृतैः प्राक्प्रतर्पयेत् ॥ १९४ ॥ होम हो चुकनेके बाद, पहले जिनबिंत्रको लाकर जिनमन्दिरमें विराजमान कर दे और सिद्ध यंत्रादिकों को भी अपने अपने स्थान पर विराजमान कर दे । जिनमन्दिरके द्वार पर स्थापित क्षेत्रपालों का उनके योग्य पूजा सत्कार करे । मन्दिरके मध्य देशमें जिनदेवकी पूजा करे | उनके दाहिनी ओर गन्धर्वोंका, बाईं ओर किन्नरोंका तथा दाहिनी ओर भूत-प्रेतोंका योग्य पूज्ञा सत्कार करे । तथा बाईं ओर सम्पूर्ण देवोंको बलिदान देकर तृप्त करे । ब्रह्मभाग पर ब्रह्मदेव की पूजा करे । मन्दिरके बाहर आठ दिशाओंमें आठ दिक्पालोंको अर्घ्य, पाय, यज्ञभाग और जलसे पूजा प्रारंभ करनेके पहले ही तृप्त करे ॥ १९९ ॥ १९४ ॥ ग्रहबलि । गृहाणे ततो गत्वा मध्यपीठे सुधाशिनाम् । तत्तद्दिनाधिपस्यापि शान्त्यर्थं बलिमर्पयेत् ॥ १९५ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैवर्णिकाचार। ११९ पश्चात् घरके आंगनमें जाकर मध्यपीठ पर देवोंको और उस उस दिनके स्वामी देवोंको शान्तिके लिए बलि अर्पण करे ॥ १९५॥ न पश्येदभूबाल चिरं दत्वा गृहे बलिं द्विजः। स्वयं नैवोद्धरेन्मोहादुद्धरेच्छ्रीविनश्यति ॥ १९६ ॥ वह द्विज घरमें बलि देकर उस भूबलिको बहुत देर तक देखता ही न रहे और न स्वयं उसे उठाकर वापिस रक्खे । यदि अज्ञानसे उस बलिको उठाकर वापिस घरमें रख ले तो उसकी मौजूदा लक्ष्मी न.शको प्राप्त हो जाती है ॥ १९६ ॥ चाण्डालपतितेभ्यश्च पितृजातानशेषतः। वायसेभ्यो बलिं रात्रौ नैव दद्यान्महीतले ॥ १९७ ॥ ततोऽपि सर्वभूतेभ्यो जलाञ्जलिं समर्पयेत् । दशदिक्षु च पितृभ्यस्त्रिवर्णैः क्रमतः सदा ॥ १९८ ॥ ये भूताः प्रचरन्तीति पात्रे दद्याद्वलिं सुधीः । इत्थं कुर्यात् द्विजो यज्ञान् दिवा नक्तं च नित्यशः ॥ १९९ ॥ चांडालों, पतितों, मर कर उत्पन्न हुए पितरों और कौओंको रात्रिमें जमीन पर बलिदान न दे। सम्पूर्ण भूतोंको जलाञ्जलि समर्पण करे, और पितरोंको दशों दिशाओंमें त्रैवार्णिक पुरुष जलांजलि समर्पर करे तथा बुद्धिमान गिरस्ती “ये भूताः प्रचरन्ति " इत्यादि मंत्र पढ़कर पात्रोंको आहारदान देवे । इस प्रकार उक्त रातिसे द्विज पुरुष निरन्तर रात-दिन यज्ञ-पूजा करे ॥ १९७ ॥ १९९ ॥ स्त्रियोंका कर्तव्य। गृहस्त्रिया च कि कार्य गृहकृत्यं तदुच्यते । भ; तु पूजिते देवे गृहदेवांश्च तर्पयेत् ॥ २०० ॥ घरकी स्त्रियोंका कर्तव्य क्या है यह कहा जाता है । अपना स्वामी जब देवोंकी पूजा कर चुके तब वह गृहदेवोंका तर्पण करे ॥ २०० ॥ चार प्रकारक देव । देवाश्चतुविधा ज्ञेयाः प्रथमाः सत्यदेवताः । कुलदेवाः क्रियादेवाश्चतुर्धा वेश्मदेवताः ॥ २०१॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविराषित सत्यदेवाः परे पञ्च जिनेन्द्रसिद्धसूरयः। . पाठकसाधुयोगीन्द्राश्चैते मोक्षस्य हेतवः ॥२०२॥ देव चार प्रकारके होते हैं । एक सत्यदेव, दूसरे क्रियादेव, तीसरे कुलदेव, चौथे गृहदेव । मोक्षके कारण अर्हन्स, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पांच सत्यदेव कहलाते हैं ॥ २०१॥२०२॥ क्रियादेवता। छत्रचक्राग्निभेदाच क्रियादेवास्त्रयो मताः। सर्वविघ्नहराः पूज्या हव्यपकानदीपकैः ॥२०३ ॥ छत्र, चक्र और अग्नि इन भेदोंसे क्रियादेव तीन प्रकारके माने गये हैं जो सम्पूर्ण विघ्नोंको हरण करनेवाले हैं और हव्य, पक्वान्न, दीपक आदिके द्वारा पूजनीय हैं ॥ २०३ ॥ कुलदेवता। वंशे पुरातनरिष्टा नित्यसौख्यविधायकाः। चक्रेश्वर्यम्बिकापमा इत्यादिकुलदेवताः ॥ २०४॥ अपने वंशमें पुरातन पुरुषोंके द्वारा माने हुए, निरन्तर सुख देनेवाले चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती आदि कुलदेव कहे जाते हैं ॥ २०४॥ गृहदेवता। विश्वेश्वरीधराधीशश्रीदेवीधनदास्तथा । गृहे लक्ष्मीकरा ज्ञेयाश्चतुर्धा वेश्मदेवताः ॥ २०५ ॥ विश्वेश्वरी, धरणेन्द्र,श्रीदेवी और कुबेर ये चार घरमें सम्पत्ति बढ़ानेवाले गृहदेवता जानने ॥२०५॥ सत्यदेव । साक्षात्पुण्यस्य हेत्वर्थ मुक्त्यर्थं मुक्तिदायकाः । पूज्याः पूज्यश्च सम्पूज्याः सत्यदेवा जिनादयः ॥ २०६ ॥ जो साक्षात् पुण्यके कारणोंके लिए हैं, मुक्तिके लिए हैं, मुक्तिके देनेवाले हैं, पूज्य हैं और पूज्य पुरुषोंके द्वारा पूजनीय हैं वे जिनादि देवता सत्यदेवता हैं ॥ २०६ ॥ सत्क्रियादेवताः पूज्या होमे शान्त्यर्थमीश्वराः। जनन्यः श्रीजिनेन्द्राणां विश्वेश्वर्य इति स्मृताः ॥ २०७ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिकाचार। ..... विश्वेश्वर्यः पराः पूज्याः कुलखीमिनिकेतने।। अवन्ध्या जायन्ते तासां पूजनात्तु कुलस्त्रियः ॥२०८ ॥ . वे प्रशंसनीय क्रियादेव होमके समय शान्तिके अर्थ अवश्य पूजने योग्य हैं, क्योंकि ये क्रियादेव इस कार्यके मुख्य स्वामी हैं। श्री जिनेन्द्रदेवकी माताओंको विश्वेश्वरी कहते हैं । कुलीन स्त्रियोंको चाहिए कि वे इन विश्वेश्वरी देवतोंकी अपने घरमें अवश्य पूजा करा करें । इनके पूजनेसे वे कुलीन स्त्रियाँ अपने वन्ध्यापनको छोड़ कर अच्छे अच्छे पुत्र प्रसव करनेवाली हो जाती हैं ॥२०७॥२०८॥ कुबेरपूजनादृहे लक्ष्मीर्वसति शाश्वती। . धरेन्द्रपूजनात्पुत्रप्राप्तिभवति चोत्तमा ॥ २०९ ॥ कुबेरके पूजनेसे हमेशा घरमें लक्ष्मीका निवास रहता है और धरणेन्द्रके पूजनेसे उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होती है ॥ २०९॥ श्रीदेवीपूजनागर्भस्थितो बालो न नश्यति । वस्त्रैर्भूषैः फलैश्चान्नैः सम्पूज्या वेश्मदेवताः ॥ २१० ॥ श्रीदेवीकी पूजा करनेसे गर्भमें स्थित बालक नाशको प्राप्त नहीं होता । इस लिए वस्त्र, आभूषण, फल और अन्नसे गृहदेवोंको पूजना चाहिए ॥ २१० ॥ ज्वालिनी रोहिणी चक्रेश्वरी पद्मावती तथा। कुष्माण्डिनी महाकाली कालिका च सरस्वती ॥ २११ ॥ गौरी सिद्धायनी चण्डी दुर्गा च कुलदेवताः । पूजनीयाः परं भक्त्या नित्यं कल्याणमीप्सुभिः ॥ २१२ ॥ ज्वालिनी, रोहिणी, चक्रेश्वरी, पद्मावती, कुष्माण्डिनी, महाकाली, काली, सरस्वती, गौरी, सिद्धायनी, चण्डी, और दुर्गा ये देवियां कुलदेवता कहलाती हैं। अपना भला चाहनेवाले पुरुष निरन्तर इनका भक्तिपूर्वक सत्कार करें ॥२११॥२१२॥ पूज्याश्चतुर्विधा देवा धर्मार्थकाममीप्सुभिः। इप्सितार्थप्रदा विघ्नहराश्च भाविसिद्धिदाः ॥ २१३॥ धर्म, अर्थ और कामके चाहनेवाले पुरुष इन चार प्रकारके देवोंकी पूजा करें । ये देव मनचाहे अर्थको देनेवाले हैं, विघ्नको हरनेवाले हैं, और भावी सिद्धिके देनेवाले हैं ॥२१३॥ १६ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सोमसेनभट्टारकविरचित ये पूजयन्ति तान् देवान् तेषां गृहेषु शाश्वती । लक्ष्मीर्वसति गोऽश्वादिमहिषीसर्वसम्पदः || २१४ ॥ जो पुरुष इन देवोंकी पूजा करते हैं उनके घरोंमें हमेशा लक्ष्मीका निवास रहता है और गाय, घोड़े, भैंस आदि सब तरह की सम्पदाएं भी सदा निवास करती हैं ॥ २१४ ॥ इह जन्मनि संक्लेशव्याधयो न कदाचन । भवन्ति तस्य देवानां सामर्थ्यात्पुण्यसद्मनि ॥ २१५ ॥ उस पुरुष के पुण्यगृह में उन देवोंके सामर्थ्य से इस जन्ममें कभीभी संक्केश व्याधि आदिक रोग नहीं होते ॥ २१५ ॥ अन्त्ये सन्न्यासमादाय समाधिमरणं भवेत् । स्वर्गमुक्तिप्रदं रम्यमनन्तसुखसागरम् ॥ २१६ ॥ अन्त समय में उसका संन्यास धारण पूर्वक समाधिमरण होता है। जो समाधिमरण स्वर्ग-मोक्षको देनेवाला है और अनन्त सुखका रमणीय खजाना है ॥ २१६ ॥ इत्येवं कथितो जिनेन्द्रवचनादाचारधर्मो मया श्रीभट्टारकसोमसेनगणिना संक्षेपतः सत्क्रियः । देवाराधनहोमनित्यमहसां लक्ष्मीप्रमोदास्पदं ये कुर्वन्ति नरा नरोत्तमगुणास्ते हो लभन्ते शिवम् || २१७॥ इस तरह पूर्वोक्त रीतिसे मुझ श्रीभट्टारक सोमसेन गणीने जिनेन्द्रके वचनसे कहे हुए देवोंकी आराधना, होम और नित्य पूजोत्सवकी समीचीन क्रियारूप आचार धर्मको कह । जो उत्तम गुण पुरुष इस आचार धर्मका पालन करते हैं वे अनन्त चतुष्टय स्वरूप मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ २१७ ॥ सरस्वत्याः प्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति पण्डिताः । ततः सैषा समाराध्या भक्त्या शास्त्रे सरस्वती ।। २९८ ॥ सरस्वतीके प्रसादसे पंडितजन काव्यरचना करते हैं इसलिए शास्त्र में उस सरस्वतीकी भक्ति - पूर्व आराधना करनी चाहिए ॥ २९८ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ब्रह्मसूरिसुविप्रेण यदुक्तं जिनधर्मिणाम् । प्रोक्तं महापुराणे वा तदेवात्र प्रकाशितम् ॥ २१९॥ श्रीब्रह्मसूरिने जिनधर्मियोंके लिए जो क्रियाकांड कहा है अथवा महापुराणमें जो कहा गया है वही इस त्रैवर्णिकाचार शास्त्रमें कहा गया है ॥ २१॥ इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारकथने भट्टारकश्रीसोमसेनविरचिते गृहकर्मदेवतापूजानिरूपणीयो नाम चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा अध्याय । वासुपूज्यं जगत्पूज्यं लोकालोकप्रकाशकम् ।। नत्वा वक्ष्येऽत्र पूजानां मन्त्रान् पूर्वपुराणतः ॥१॥ लोक और अलोक को प्रकाश करनेवाले जमत्पूज्य वासुपूज्य भगवान् को नमस्कार कर इस अध्यायमें पूर्वपुराणोंसे लेकर पूजा सम्बन्धी मंत्रों को कहूंगा ॥१॥ सन्ध्यास्थानात्स्वमेहस्य ईशान्यां प्रक्किल्पिते । जिनागारे व्रजेद्धीमानीर्यापथविशुद्धितः ॥२॥ पादौ प्रक्षाल्य गेहस्य कपाटं समुदाटयेत् ॥ मुखवस्त्रं परित्यज्य जिनास्यमवलोकयेत् ॥ ३ ॥ सन्ध्या स्थानसे उठ कर अपने घरकी ईशान दिशामें बने हुए जिन मंदिर को ई-पथ शुद्धि पूर्वक जावे, वहां पर पैरों को धोकर जिन मन्दिर के किबाड़ खोले और जिनमांदर के दरवाजेपर पड़े हुए पड़देको एक ओर सरकाकर जिन भगवानके मुखका अवलोकन, और दर्शन करे ॥ २-३॥ कपाटोदाटनॐ ही अहं कपाटमुध्दाटयामि स्वाहा । कपाटोद्धाटनम् ॥१॥ यह मंत्र पढ़कर मंदिरके किवाड़ खोले ॥१॥ द्वारपालानुज्ञापनॐ न्हाँ अर्ह द्वारपालमनुज्ञापयामि स्वाहा ॥ द्वारपालानुज्ञापनम् ।।२।। यह मंत्र पढ कर द्वारपाल को अपने भीतर जानेकी सूचना कर दे ॥२॥ ॐ हाँ अर्ह निःसही ३ रत्नत्रयपुरस्सराय विद्यामण्डलनिवेशनाय सममयाय निस्सही जिनालयं प्रविशामि स्वाहा ॥ अन्तःप्रवेशनमन्त्रः ॥३॥ यह मंत्र पढकर जिन मन्दिरमें प्रवेश करे ॥३॥ ईर्यापथशोधनःईपिथे प्रचलताऽद्य मया प्रमादादेकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा । निर्वर्तिता यदि भवेदयुगान्तरक्षामिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे॥४॥ इर्यापथशोधनम् ॥४॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार ईर्यापथसे गमन करते हुए आज मैंने प्रमादवश एकेन्द्रिय आदि जीवों की विराधना की हो और यदि चार हाथसे अधिक दृष्टि पसारी हो तो वह मेरा पाप गुरुभक्तिसे मिथ्या हो । यह श्लोक पढ़कर ईर्यापथ शुद्धि करे ॥ ४ ॥ मुखवाटन क्वणत्कनकघण्टिकं विमलचीनपट्टोज्वलं बहुप्रकटवर्णकं कुशलशिल्पिभिर्निर्मितम् । जिनेन्द्रचरणाम्बुजद्वयं समर्चनीयं मया समस्तदुरितापहृद्वदनवस्त्रमुध्दाट्यते ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं मुखवस्त्रमुध्दाटयामि स्वाहा || मुखवस्त्रोध्दाटनम् ॥ ५ ॥ श्रीजिनेन्द्र देवके दोनों चरण कमलों की पूजा करने की मेरी इच्छा है इसलिए मैं जिसमें टन टन शब्द करनेवाली सोने की घंटिया लगी हुई हैं, जो निर्मल उज्वल रेशमी है, नाना भांतिके रंगों से रंगा हुआ है. चतुर कारीगर के हाथका बना हुआ है ऐसे समस्त पापोंको अपहरण करने वाले मुख वस्त्र ( जिनभगवानके मुखपर पड़े हुए पर्दे ) को एक ओर सस्काता हूं । यह श्लोक और मंत्र पढ कर मुखवस्त्र को हटावे ॥ ५ ॥ श्रीमुखावलोकन: श्रीमुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत् । आलोकनविहीनस्य तत्सुखावाप्तयः कुतः ॥ ६ ॥ श्री जिनेन्द्र देवके मुखावलोकन मात्रसे ही लक्ष्मी के मुखका अवलोकन होता है अर्थात् उत्तम सम्पदा मिलती है । जो पुरुष कभी जिन भगवान के दर्शन नहीं करते उनको श्रीमुख का अवलोकन रूपी सुख की प्राप्ति नहीं होती-वे मरकर दरिद्री होते हैं ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीँअर्ह नमोऽर्हत्परमेष्ठिभ्यः श्रीमुखावलोकनेन मम सर्वशान्तिर्भवतु स्वाहा ॥ श्रीमुखावलोकनम् ॥ ६॥ यह मंत्र पढ़ कर श्री जिनदेवके मुखारविन्दका दर्शन करे ॥ ६ ॥ याग भूमिप्रवेश ॐ हाँ अर्ह याग प्रविशामि स्वाहा | यागभूमिप्रवेशनम् ॥ ७ ॥ . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमट्टारकविरचित यह मंत्र पढ कर पूजा-स्थानमें प्रवेश करे ॥७॥ पुष्पांजलिॐ हाँ झाँ भूः स्वाहा ॥ पुष्पाञ्जलिः ॥ ८॥ यह मंत्र पढ़ कर जिन-चरणोंपर पुष्पांजलि क्षेपण करे ॥८॥ वाद्यघोष-. ॐ हाँ वाद्यमुदघोषयामि स्वाहा ॥ तदाप्रभृति बहिर्वाधघोषणम् ॥ ९॥ यह मंत्र पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपणके समयसे लेकर बाहर बाजे बजवावे ॥ ९ ॥ ॐ हाँ अहं वास्तुदेवाय इदमयं पाद्यं गन्धं पुष्पं दीपं धूपं चरुं बलिं स्वस्तिकमक्षतं यज्ञभागं यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा ॥ १० ॥ ॐ ह्रीँ अहँ वास्तुदेवाय इत्यादि मंत्र पढ़ कर वास्तु देवताको अर्घ्य पाद्य वगैरह देवे ॥ १० ॥ बाद नीचे लिखा श्लोक पढ़ेः यस्यार्थं क्रियते कर्म स प्रीतो नित्यमस्तु मे । शान्तिकं पौष्टिकं चैव सर्वकार्येषु सिद्धिदः ॥७॥ जिस देवके लिए मैं शान्तिक और पौष्टिक कर्म करता हूं वह देव मुझपर हमेशाह प्रीति करे और सब कामोंमें सिद्धि दे-विघ्न दूर करे ॥७॥ भूमिशोधनॐ ही वायुकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय महीसम्मार्जनं कुरु कुरु हूं फट् स्वाहा ॥ दर्भपूलेन यागभूमि परितः सम्माजनम् ॥ पूर्वेशान्ययोर्मध्ये वायुकुमारायार्यप्रदानम् । एवमुत्तरत्रापि ॥ ११॥ "ॐ ह्रीँ वायुकुमाराय "इत्यादि मंत्र पढ़कर डाभके पूलेसे यागभूमि (पूजा करने की जगह ) को चारों ओरसे बुहारे । पूर्व दिशा और ईशान दिशाके बीच में वायुकुमार को अर्घ चढ़ावे । इसी तरह आगे भी करे ॥ ११ ॥ ॐ हीं मेघकुमाराय हं सं वं मं झं ठं ठं क्षालनं कुरु कुरु अहं धरां प्रक्षाल्य भूमिशुद्धिं करोमि स्वाहा ॥ दर्भपूलोपात्तजलेन तदा भूमि सिञ्चेत् ॥ १२॥ . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | १२७ ॐ ह्रीं मेघकुमाराय " इत्यादि मंत्र पढ़ कर दर्भके पूलेको जलमें भिजोकर जमीनको सींचे ॥ १२॥ ॐ ही अर्ह अग्निकुमाराय भूमिं ज्वालय ज्वालय अंहं सं वं ठं यं क्षः फट् स्वाहा ॥ ज्वलदर्भपूलानलेन भूमिज्वालनम् ॥ १३ ॥ ___“ओं ह्रीँ अर्ह अग्निकुमाराय" इत्यादि मंत्र पढ़ कर जलते हुए दर्भ पूलेकी आगसे भूमि जलावे ॥१३॥ नागसंतर्पणःॐ ही कौँ वौषट् पष्ठिसहस्रसंख्येभ्यो नागेभ्योऽमृताञ्जलिं प्रसिञ्चामि स्वाहा ॥ ऐशान्यां दिशि जलाञ्जलिम् ॥ १४ ॥ ___“ओं ह्रीं क्रौं" इत्यादि मंत्र पढकर नागकुमारोंको ईशान दिशामें जलांजलि देवे ॥ १४ ॥ क्षेत्रपालार्चनॐ ही कौ अवस्थक्षेत्रपाल आगच्छागच्छ संवौषट् इदमय॑मित्यादि पूर्ववत् ।१५। “ओं ह्रीं क्रौं अत्रस्थ क्षेत्रपाल ! आगच्छ आगच्छ इद मयं पायं गन्धं दीपं धूपं चरुं बलिं स्वास्तिकं अक्षतं यज्ञ भागं यजा महे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यन्ताभिति स्वाहा” यह मंत्र पढकर क्षेत्रपालको अर्घा चढ़ावे ॥ १५॥ भूम्यर्चनॐ नीरजसे नमः । ॐ दर्पमथनाय नमः । ॐ शीलगन्धाय नमः । ॐ अक्षताय नमः । ॐ विमलाय नमः । ॐ परमसिद्धाय नमः । ॐ ज्ञानोद्योताय नमः । ॐ श्रुतधूपाय नमः । ॐ अभीष्टफलदाय नमः॥जलैर्गन्धदर्भादिभिश्च भूम्यर्चनम् ।१६। "ओं नीरजसे नमः ” इत्यादि मंत्र पढ़ कर जल गन्ध दर्भ आदिसे भूमिकी पूजा करे ॥१६॥ - मन्त्रीद्धारकर्णिकामध्येऽर्हदादयोष्टौ । ततोऽष्टदले जयाद्यष्टौ । ततः षोडशदलेषु षोडशविद्यादेवताः । चतुर्विंशतिदलेषु चतुर्विंशतियक्षीदेवताः । ततो द्वात्रिंशद्दलेषु शक्राः । ततो वज्राग्रे चतुर्विंशतियक्षदेवताः । ततो दिक्पाला दश । ततो नवग्रहाः । ततोऽनावृतयक्षाः । एवं यन्त्रोद्धारः ॥ १७ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सोमसेनमहारपरिचित यह मंत्र कमलके आकार होता है। इसकी कर्णिकाके मध्य भागमें अर्हत आदि आठको लिखे । इसके बाद उसके आठ पनोंपर जयादि आठ देवोंको लिखे। इसके बाद सोलह पत्ते खेंच कर उनपर सोलह विद्यादेवतोंको लिखे । इसके वाद चौवीस पत्ते खेंच कर चौवीस यक्षी देवोंको लिखे । इसके वाद बत्तीस पत्तोंपर शकोंको लिखे । इसके बाद वज्रायोंपर चौबीस यक्षदेवोंको लिखे । इसके बाद दश दिक्पालोंको लिखे । इसके बाद नौ ग्रहोंको लिखे और इसके बाद अनावृत यक्षोंको लिखे । इस तरह मंत्रका उद्धार करे ॥ १७॥ दर्भासन-- तदक्षिणभागे-ॐ हाँ अहँ हाँ ट ठ दर्भासनं निक्षिपामि स्वाहा ॥ दमासनस्थापनम् ॥१८॥ मंत्रके दक्षिण भागमें “ओं ह्रीं अर्ह साँइत्यादि मंत्रको पढ़कर दर्भका आसन बिछावे॥१८॥ ॐन्ही अहं निस्सही हूं फट् दर्भासने उपविशामि स्वाहा ॥दर्भासने उपवेशनम् ॥१९॥ “ओं ह्रीं अहं निस्सही " इस मंत्रको पढ़कर दर्भासन पर बैठे ॥१९॥ मौनधारणॐ ही अहं यूं मौनस्थितायाहं मौनव्रतं गृह्णामि स्वाहा ॥ मौनग्रहणम् ॥ २०॥ “ओं ह्रीं अर्ह यूं " इत्यादि मंत्र पढ़कर मौन धारण करे ॥ २० ॥ अंगशोधनॐ ही अहं भूः प्रतिपद्ये भुवः प्रतिपद्ये चतुर्विशतितीर्थकृचरणशरणं प्रतिपधे ममाङ्गानि शोधयामि स्वाहा ॥ वसाञ्चलेन स्वांगस शोधनम् ॥ २१ ॥ “ओं ह्रीं अहं भूः” इत्यादि मंत्र पढ़कर वस्त्रके आँचलसे अपने शरीरकी शुद्धि करे ॥२१॥ हस्तप्रक्षालनॐ ही अर्ह असुज्जुरभव तथा हस्तौ प्रक्षालयामि स्वाहा । हस्तद्वयपवित्रीकरणम् ॥ २२ ॥ “ओं ह्रीं अर्ह असुज्जरभव " इत्यादि मंत्र पढ़कर दोनों हाथ पवित्र करे-धोवे॥ २२ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रैवर्णिकाचार | १२९ पूजापात्र बुद्धि । ॐ हाँ ह्रीं हूँ ह्रौं न्हः नमोर्हते भगवते श्रीमते पवित्र जलेन पात्रशुद्धिं करोमि स्वाहा ॥ पात्रेषु पूजांगद्रव्यस्थापनम् ॥ २३ ॥ ॐ ह्रीं इत्यादि मंत्र पढ़कर संपूर्ण पूजा पात्रों पर शुद्ध जल डाले और भिन्न भिन्न पूजा पात्रों में भिन्न भिन्न पूजा द्रव्य रखें । पूजाद्रव्य शुद्धि | ॐ ह्रीं अर्ह झौं झौं वं मं हं सं तं पं इवीं क्ष्वीं हं सं असि आउ सा समस्त जलेन शुद्धपात्रे निक्षिप्त पुष्पादि पूजाद्रव्याणि शोधयामि स्वाहा ॥ २४ ॥ ओं ह्रीं इत्यादि मंत्र उच्चारण कर पूजा सामग्रियोंपर पानी प्रक्षेपण करें । विद्यागुरु पूजन | ॐ ह्रीं अय्यां दिशि अस्माद्विद्या गुरुभ्यो बलिं ददामि स्वाहा ॥ २५ ॥ ओं न्हीं इत्यादि मंत्र उच्चारण कर विद्या गुरुके लिये बलिदान करें । सिद्धार्चन । ॐ व्हीं सिद्धपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं समर्पयामि स्वाहा ।। सिद्धायार्घ्य निवेदनम् ||२६|| ओं-हीं इत्यादि मंत्र पढ़कर सिद्धि परमेष्टिको अर्घ चढ़ावे । सकली करणम् । रेफैवलाशताकुलैः ॥ अग्निमण्डलमध्यस्थै सर्वागदेशजैयत्वा ध्यानदग्धवपुर्मलम् ॥ दर्भासने स्थित्वा ध्यायन्निदं पठेत् । ॐ ह्रीं अर्ह भगवतो जिनभास्करस्य बोध सहस्रकिरणैर्मम कर्मेन्धस्य द्रव्यं शोषयामि घे घे स्वाहा । इत्युच्चार्य कर्मेन्धनानि शोषयेत् ॥ शोषणम् ॥ २७ ॥ अग्नि मण्डलके बीच में स्थित, और सेकड़ों ज्वालाओंसे व्याप्त जो रेफ, वह अपने शरीर के सब अंगोंसे निकल कर पापमलको ध्यानद्वारा भस्म करता है । १७ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहाकविरचित दर्भासनमें बैठकर यह पढ़ें। ओं ही इत्यादि मंत्र पढ़कर कर्मरूपी ईधन भस्म करे । लवं यूं स दह दह कर्म फलं दह दह दुःखे घे घे स्वाहा ॥ __ इत्युच्चार्य कर्मेधनानि दग्धानीति स्मरेत् ॥ २८ ॥ ओं -हाँ इत्यादि मंत्रोच्चारण कर कर्मे धन जल गये ऐसा चिन्तवन करें। ॐ ही अर्ह श्रीजिनप्रभुजिनाय कर्मभस्मविधूननं कुरु कुरु स्वाहा ॥ इत्युच्चार्य तद्भस्मानि विधूतानि स्मरेत् ।। २९ ॥ “ओं ही अर्ह " इस मंत्रका उच्चारण जले हुए कर्मरूपी इंधनकी भस्म उड़ गई ऐसा चिन्तवन करे ॥ २९ ॥ प्लावनम् । ततः पश्चगुरुमुद्राग्रे असि आ उ सा इत्येतान् तदुपरि झं वं व्हः पः हः इत्यमृतबीजानि निक्षिप्य तन्मुद्रां शिरस्यधोमुखमुध्दृत्य-ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवार्षणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्ली क्ली ब्लू ब्लू द्राँ द्राँ द्राद्री द्रावय द्रावय स्वाहाइत्युच्चाये ततः स्रवत्पीयूषधाराभिरात्मानं स्त्रापयेत् ॥अभिषवणम्॥३०॥ इसके बाद पंचगुरु मुद्रा बनावे उसके अग्रभागमें असि आ उ सा इन पांच अक्षरोंको रखकर ये पांच अक्षर रख लिये गये ऐसी कल्पना कर अक्षरोंके ऊपर क्रमसे झं वं व्हः पः हः इन अमृत बीजोंको रखकर उनके ऊपर ये पांच अक्षर रख लिये गये ऐसी कल्पना कर उस मुद्राको अपने शिरपर अधोमुख रख कर “ओं अमृते अमृतोद्भवे” इत्यादि मंत्रका उच्चारण कर इसके बाद झरती हुई अमृतधारासे अपनी आत्माको स्नान कराया है ऐसी अपने हृदयमें कल्पना करे । ये अभिषेक मंत्र है ॥ ३०॥ एवं त्रिधा विशुद्धः सन् करन्यासं विदध्यात् ॥ ३१ ॥ हस्तद्वयकनीयस्याद्यङ्गुलीनां यथाक्रममम् ॥ मूले रेखात्रयस्योर्ध्वमग्रे च युगपत्सुधीः ॥१॥ इस तरह अभिषवम विधि तीन वार कर विशुद्ध होकर करन्यास करे-हाथोंपर अर्हन्तदेवकी स्थापना करे ॥ ३१॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैवामिकामार। . १३१ इति पश्चनमस्कारान् विन्यस्य । ॐहाँ ई वं मंहं संतं अ सि आ उ सा हस्तसम्पुटं करोमि स्वाहा ॥ इति हस्तौ सम्मुटेत् ॥ इति करन्यासः ॥३२॥ दोनों हाथोंकी कनिष्ठा आदिक उंगलियोंके मूलमें (नीचे) तीन रेखाओंके ऊपर, उन रेखाओंके ऊपर पहले पेरुएकी रेखाओंपर और दूसरे पेरुएकी रेखाओंपर क्रमसे और पांचों उगलियोंपर एक साथ पंच नमस्कार-मंत्रकी स्थापना कर “ओं ह्रीं अर्ह वं" इत्यादि मंत्र पढ़कर दोनों हाथ जोड़े। इंसे करन्यास मंत्र कहते हैं ॥ ३२ ॥ ततोऽङ्गुष्ठयुग्मेनैव स्वाङ्गन्यासं कुर्यात् ॥ॐ -हाँ णमो अरिहंताणं स्वाहा।इति मन्त्रं हृदि॥ ॐ ही णमो सिद्धाणं स्वाहा । ललाटे॥ ॐ हूँ णमो आयरियाणं स्वाहा । दक्षिणकर्णे ॥ ॐ हूँ णमो उवज्झायाणं स्वाहा । पश्चिमे ॥ॐ हः णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा । वामकर्णे॥ ॐ हाँ सामो अरिहंताणं स्वाहा ॥ शिरोमध्ये ।। ॐ न्ही पमो सिद्धाणं स्वाहा । शिरोऽयभागे ॥ ॐ हूँ णमो आयरियाणं स्वाहा । नैर्ऋत्ये ॥ ॐ हाँ णमो उवज्झायाणं स्वाहा । शिरोवायव्यम् ॥ ॐ हः णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा । शिर ईशान्ये । इति द्वितीयन्यासः ॥३३॥ इसके बाद हाथक्के दोनों अंगुठोंसेही स्वांगन्यास करे । उसकी विधि इस प्रकार है। “ओं ह्राँ णमो अरिहंताणं स्वाहा'' इस मंत्रको पढ़कर दोनों अंगूठोंसे हृदयको “ओं ही णमो सिद्धाणं स्वाहा। इसे पढ़कर ललाटको “ओं हूँ णमो आयरियाणं स्वाहा" इसे पढ़कर दाहिने कानको “ओं ह्रौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा ” इसे पढकर शिरके पिछले भागको “ओं ह्राँ णमो लोए सव्यसाहूणं स्वाहा" इसे घटकर वायें कानको “ओं हाँ णमो भरिहंताणं स्वाहा" इसे पढकर शिरके मध्यभागको " ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं स्वाहा” इस मंत्रका उच्चारण कर शिरके आग्नेय भागको “ओं हूं णमो आयरियाणं स्वाहा ,, इसका उच्चारण करके सिरके मैऋत्य भागको “ओं हों णमो उवझायाणं स्वाहा." इसका उच्चारण कर सिरके वायव्य भागको “ओं हः णमो लोए सव्वसाहूां स्वाहा इसका उच्चारण कर शिरके ईशान भागको स्पर्शन करे । इसका नाम द्वितीय न्यास है। न्यास नाम रखनेका है इसलिए इन मंत्रीका उच्चारण कर हाथके दोनों अंगूठोंको हृदयादि स्थानोंपर रखना चाहिए ॥ ३३ ॥ ॐ हाँ णमो अरिहंताणं स्वाह्म । दक्षिणे अजे ॥ ॐ हाँ णमो सिद्धाणं स्वाहा ॥ वाम भुजे ॥ ॐ हूँ णमो आयरियाणं स्वाहा । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सोमसेनभट्टारकविरचित नाभौ ॥ ॐ हाँ णमो उवज्झायाणं स्वाहा । दक्षिण कुक्षौ ॥ ॐ हः णमो लोए सव्वसाहूणं स्वाहा । वामकुक्षौ ॥ इति तृतीयोऽ __ङ्गन्यासः इत्यङ्गन्यासभेदाः ॥ ३४ ॥ “ओं हाँ णमो अरिहंताणं स्वाहा ” इसे पढ कर दाहिनी भुजापर “ओं ही णमो सिद्धाणं स्वाहा” इसे पढकर बाई भुजापर, “ओं हूँ णमो आयरियाणं स्वाहा ” इसे पढ़कर नाभिपर “ओं हौं णमो उवज्झायाणं स्वाहा” इसे पढकर दाहिनी कूखपर “ओं हँः णमोलोए सव्वसाहूणं स्वाहा” इसे पढकर बाई कुखपर जुड़े हुए दोनों हाथोंके अंगूठोंको रक्खे । यह तीसरा अंगन्यास है। इस तरह अंगन्यासके भेद बतलाये ॥ ३४ ॥ वामायामथ तर्जन्यां न्यस्यैवं पञ्चमन्त्रकम् ॥ पूर्वादिदिक्षु रक्षार्थ दशस्वपि निवेशयेत् ॥ १॥ इसके अनन्तर, इसी प्रकार बायें हाथकी तर्जनी ( अँगूठेके पासकी ) उंगलीपर पंचणमोकार मंत्रकी स्थापना कर अपनी रक्षाके लिये पूर्वादि दशों दिशाओंमें उस उँगलीको क्रमसे फिरावे ॥१॥ ॐ क्षां क्षीं हूं क्षे झै क्षों क्षौं क्षं क्षः स्वाहा । इति द्वादश कूटाक्षराणि ॥३५॥ ॐ-हाँ हीं हूं न्हें हैं हों ही हं हः स्वाहा।इति द्वितीयद्वादश शून्यबीजानि॥ इति दशदिशां बन्धः ॥३६॥ “ओं क्षा क्षी' इत्यादि ये दूसरे कूटाक्षर हैं और “ ओं हां ही " इत्यादि ये दूसरे बारह शून्यबीजा हैं। इनसे दशमें दिशाओंकी वन्ध करे। इनमेंसे एक एक अक्षरका एक एक दिशामें न्यास करे इस तरह दशों दिशाओंमें दशों अक्षरोंका न्यास करे । बाद “ओं हां? इत्यादि अक्षरोंका न्यास करे । इसे दिग्बंधन कहते हैं ॥ ३६ ॥ कवचाँस्तु करन्यासं कुर्यान्मन्त्रेण मन्त्रवित् ॥ ३७॥ मंत्रके प्रयोगोंको जाननेवाला पुरुष करन्यास कर मंत्रके द्वारा कवचन्यास करे ॥ ३७॥ ॐहृदयाय नमः । शिरसे स्वाहा ॥ शिखायै वषट् ॥ कवचाय हूं ॥ अस्त्राय फट् ॥ इति शिखाबन्धः ॥३८॥ ___ओं हृदयाय नमः इसे पढ़कर हृदयका "शिरसे स्वाहा” इसे पढ़कर शिरका स्पर्श न करे। चोटीका स्पर्श न कर वषट्कार करे चिटकी बजावे सारे शरीरमें कवच धारण कर लिया है ऐसी धारणा कर 'हंकार' करे और अस्त्रके लिए फटकार करे-तीन वार ताली बजावे इसके बाद चोटीके गांठ लगावे ॥ ३८॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ taarचार । अथ परमात्मध्यानम् । ॐ ह्रीँ ँ णमो अरिहंताणं अर्हदभ्यो नमः ॥। २१ वारं ॥ ३९ ॥ ॐ हीँ अहं णमो सिद्धाणं सिद्धेभ्यो नमः ॥ २१ वारं ॥ परमात्मध्यानमन्त्र ४० एवं तु कुर्वतः पुंसो विमा नश्यन्ति कुत्रचित् ॥ ये दो मंत्र परमात्मा का ध्यान करनेके लिए है जिनका हस्तकका बीस एक्कीस बार जप करे ॥ ३९ ॥ ४० ॥ १३३ आधिर्व्याधिः क्षयं याति पीडयन्ति न दुजर्नाः ॥ १ ॥ इति सकलीकरणम् ॥ उक्त रीति से मंत्रों का प्रयोग करनेवाले पुरुषके सारे विघ्न नाशको प्राप्त होते हैं । उसकी आधि व्याधि सब क्षयको प्राप्त होती है । और उसे दुर्जन कहीं पर भी पीडा नहीं पँहुचा सकते । इस तरह सकली करणकी विधि कही गई ॥ ४५ ॥ तत आव्हानस्थापनसन्निधीकरणं कृत्वा जिनश्रुतसूरीन् पूजयेत् ॥ ४१ ॥ सकलीकरण कर चुकने के पश्चात् आव्हान स्थापन और सन्निधकरणकर जिन श्रुत और सूरिकीपूजा करे । इनके मंत्र आगे बताते हैं ॥ ४१ ॥ जिनश्रुतसूरि पूजा मंत्र ॐ हाँ अर्ह श्रीपरब्रह्मणे अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जलं निर्वपामि स्वाहा । एवं गन्धादि । अष्टनव्यद्रव्यपूजनम् | जिनपूजा ॥ ४२ ॥ ओं ह्रीं अर्ह इत्यादि मंत्र पढकर जल चढावे । इसी तरह गंध अक्षत आदि द्रव्य चढ़ावे । ये अष्टद्रव्य प्रासुक ताजें बने हुए होने चाहिए । इसे जिन पूजा कहते हैं ॥ ४२ ॥ ॐ ही परमब्रह्ममुखकमलोत्पन्नद्वादशाङ्गश्रुतेभ्यः स्वाहा ॥ श्रुतपूजामन्त्रः ॥ ४३ ॥ पूजाका मंत्र है। इस मंत्रसे श्रुत-शास्त्रकी पूजा करे ॥ ४३ ॥ ॐ हीँ शिवपदसाधकेभ्य आचार्यपरमेष्ठिभ्यः स्वाहा || आचार्यपूजामन्त्रः ॥ ४४ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसमभएकविरचित यह आचार्यकी पूजाका मंत्र है । इस क्षेत्रसे आचार्यों मुरुओंकी पूजा करे ॥ ४४ ॥ ततो जिनपादार्पितचन्दनैः स्वांगभलं कुर्यात् ॥ ४५ ॥ इसके बाद जिन चरणों में अर्पित चन्दनद्वारा अपने शरीरको भूषित करे ॥ ४५ ॥ कलशस्थापन व श्रीपीठस्थापनततः-ॐ हाँ स्वस्तये कलशस्थापनं करोमि स्वाहा ॥ यन्त्रात्प्राक्कलशस्थापनम् ॥ ॐ हाँ नेत्राय संवौषट् । कलशार्चनम् ॥ ॐ हाँ स्वस्तये पीठमारोपयामि स्वहा ॥ यन्त्रात्प्रत्यक् पीठारोपणम् ॥ ॐ हाँ अहं क्षां ठः ठः श्रीपीठस्थापनं करोमि स्वाहा । श्रीपीठप्रक्षालनं करोमि स्वाहा । श्रीपीठप्रक्षालनम् ॥ ॐ हाँ दर्पमथनाय नमः । पीठदर्भः ॥ ॐ हाँ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः स्वाहा श्रीपीठार्चनम् ॥ ॐ हाँ श्री श्रीलेखनं करोमि स्वाहा । श्रीकारलेखनम् ॥ ॐ हाँ श्री श्रीयन्नं पूजयामि स्वाहा । श्रीयन्त्रार्चनम् ॥ ४६॥ ततः इसके बाद “ओं ह्री स्वस्तये कलशस्थापनं करोमि स्वाहा” यह मंत्र पढ़कर यंत्रसे पूर्वकी ओर कलशस्थापन करे । “ओं ह्रीं नेत्राय संवौषट् ” यह पढ़कर 'कलशोंकी पूजा करे। “ओं ह्रीं स्वस्तये पीठमारोपभक्ति स्वाहा " यह पढकर यंत्रके पश्चिमकी ओर पीठारोपणं करे । “ ॐ ह्राँ अहं क्षां ठः ठः श्री पीठस्थापनं करोमि स्वाहा” यह पढकर पीठ स्थापन करे । “ओं ह्री ह्रीं हूँ ह्रौं हः नमोऽहते भगवते श्रीमले पवित्रता जलेन श्रीपीटाक्षालनं करोभि स्वाहा" यह पढकर पीठ प्रक्षालन करे । “ओं ह्रीं दर्षमथनाय नम" यह पढकर पीउपर दर्भ स्वखे । “ओं ह्रीं सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रभ्यः स्वाहा " यह पढकर पीठकी पूजा करे । “ओं हाँ श्रीँ श्री लेखने करोमी स्वाहा" यह पढकर पीठपर श्रीकार लिखे । “ओं ह्रीं श्रीं श्रीं यंत्रं पूजयाभि स्वाहा " यह पढ़कर श्री यंत्रकी पूजा करे ॥ ४६॥ जिनप्रतिमास्थापनादिमंत्रॐ धात्रे षट् ॥ सिंहासनस्थजिनं श्रीपादयोः स्पृष्ट्वा प्रतिमामानयेत्॥४७॥ “ओं धात्रे वषट् ” यह पढ़ कर निजमंदिरमें सिंहासनपर विराजमान जिन प्रतिमाको पूजाके स्थानमें लावे ॥ ४७॥ ॐ हाँ श्रीवर्गे प्रतिमा स्थापन करोमि स्वाहा । श्रीवर्णे प्रतिमास्थापनम्।।४८।। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्जिकाचार | " ओं ह्रीं श्री वर्णे ” इत्यादि पढ़कर सिंहासनपर लिखे हुए श्रीकारपर प्रतिमा स्थापन करे ॥ ४८ ॥ ॐ हाँ अर्ह श्रीपरब्रह्मणे अर्घ्यं निर्वपामि स्वाहा || अर्घ्यदानमन्त्रः || ४९ ॥ "ओं ह्रीं अ" इत्यादि मंत्र पढ कर प्रतिमाको अर्ध्य देवे ॥ ४९ ॥ ॐ नमः परब्रह्मणे श्रीपादप्रक्षालनं करोमि स्वाहा || श्रीपादौ प्रक्षाल्य तज्जलैरात्मानं प्रसिश्चेत् ॥ पाद्यम् ॥ ५० ॥ १३५ “ ओं नमः परब्रह्मणे ” इत्यादि पढ कर श्री जिन चरणोंका प्रक्षालन कर उस जलसे - अपने को सीचे - जलकी कुछ बूदें अपने पर गेरे । इसे पाय कहते हैं ॥ ५० ॥ ॐ ह्रीँ ह्रीँ ँ हूँ ह्रीँ ँ ह: अ सि आउ सा एहि एहि संवौषट् ॥ आव्हानम् ॥ एवं अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ॥ पुनः मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम् ॥५१॥ "ओं ह्राँ ह्रीं हूँ ह्रीँ" ह्रः असि आ उ सा एहि एहि संवौषट् ” यह पढ कर श्री जिन भगवानका आव्हान करे । इसी तरह ओं ह्रीं ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रा: अ आउ सा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं यह पढ कर प्रतिगजेन देवकी स्थापना करे । फिर " ओं ह्रीं ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः असि आ उ सा मम सन्नहितो भव भव वषट् ” यह पढकर सन्निधिकरण करे ॥ ५१ ॥ ॐ ह्रीँ ँ अ सि आ उ सा नमः || पंचगुरुमुद्राधारणम् ॥ ५२ ॥ " ओं ह्रीं अ सि " यह मंत्र पढकर पंच गुरुमुद्रा धारण करे ॥ ५२ ॥ ॐ वृषभाय दिव्यदेहाय सद्योजाताय महाप्राज्ञाय अनन्तचतुष्टयाय परमसुखप्रतिष्ठिताय निर्मलाय स्वयम्भुवे अजरामरपरमपदप्राप्ताय चतुर्मुखपरमेष्ठिने महते त्रैलोक्यनाथाय त्रैलोक्यप्रस्थापनाय अधीष्टदिव्यनागपूजिताय परमपदाय ममात्र सन्निहिताय स्वाहा ॥ अनेन पंचगुरुमुद्रानिर्वर्तनम् ।। ततोऽपि पाद्यम् ।। ५३ ।। “ ओं वृषभाय " इत्यादि मंत्र के द्वारा पंच गुरुमुद्राकी रचना करे । इसके बादभी पूर्वोक्त प्रमाण पाय विधान करे ॥ ५३ ॥ ॐ हाँ झ्वाँक्ष्वाँ वं मं हं सं तं पं द्राँ द्राँ द्राँ द्राँ हंसः स्वाहा ॥ जिनस्यार्चमनम् ॥ ५४ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सोमसेनभट्टारकविरचित “ओं ह्रीं इवीं ” इत्यादि पढकर प्रतिमाको आचमान करावे ॥ ५४ ॥ ॐ हाँ क्रॉ समस्तनीराजनद्रव्यैर्नीराजनं करोमि अस्माकं दुरितमपनयतु ___ भवतु भगवते स्वाहा ॥ नीराजनार्चनम् ॥ ५५ ॥ “ओं ह्रीं क्रौं ” इत्यादि पढ़कर जिनेंद्र देवकी आरती उतारे ॥ ५५ ॥ ॐ हाँ काँ प्रशस्तवर्णसर्वलक्षणसम्पूर्णायु धवाहनयुवतिजनसहिता इन्द्राग्नियमनिर्ऋतिवरुणपवनकुबेरेशानशेषशीतांशवो दश दिग्देवता आगच्छत ॥ इत्यादि दिक्पालार्चनम् ॥ ५६ ॥ “ओं ह्रीं क्रौं" इत्यादि पढकर दिक्पालोंका अर्चन करे ॥ ५६ ॥ ॐ हाँ स्वस्तये कलशोद्धारणं करोमि स्वाहा ॥ कलशोद्धारणम् ॥५७॥ “ओं ह्रीं स्वस्तये ॥ इत्यादि पढ़कर जिनाभिषेकके लिए कलशोंको हाथमें लेवें ॥ ५७ ॥ ॐ हाँ श्रीँ क्लाँ ऐं अर्ह वं मं हं संत पंचं मं हं सं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं ईवाँ ईवाँ श्वाँ श्वाँ द्राँ द्राँ द्रां द्रां द्रावय द्रावय नमोऽहंते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा ॥ जलस्नपनम् ॥ ५८ ॥ “ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ” इत्यादि मंत्र पढ़कर कलश जलसे जिन देवका अभिषेक करे ॥ ५८॥ ॐ हाँ श्रीँ-इत्यादि श्रीमते सर्वरसेषु पवित्रतरनालिकेररसाम्ररसकदलीपनसेक्षुरसघृतदुग्धदधिभिः जिनमभिषेचयामि स्वाहा ॥ ५९॥ “ओं ह्रीं श्रीं " इत्यादि पढ़कर पंचामृताभिषेक करे ॥ ५९॥ ॐ नमोऽर्हते भगवते कङ्कोलैलालवङ्गादिचूर्जिनाङ्गमुद्वर्तयामि स्वाहा ॥६०॥ “ओं नमोऽर्हते” इत्यादि पढ़कर कंकोला इलायची लवंग आदिसे प्रतिमाका उद्वर्तन करे॥६०॥ • ॐ हाँ श्रीँ क्ती इत्यादि श्रीमते पवित्रतरचतुष्कोणकुम्भपरिपूर्णजलेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा ॥ कोणकुम्भजलस्नपनम् ॥ ६१ ॥ “ओं ह्रीं " यह पढ़कर सिंहासनके कौनोंपर रक्खे हुए जलके कलशोंसे भगवानका आभिषेक करे॥ ६॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। १३७ ॐ हाँ निखिललोकपवित्रीकरणगन्धोदकेनाभिषेचयामि जिनम् । गन्धोदकेनोत्तमाङ्गस्य सेचनम् ॥ इति स्नपनविधिः ॥ ६२ ॥ “ओं ह्रीं " यह मंत्र पढ़कर गन्धोदकसे जिन भगवानके मस्तकका सेचन करै । इस तरह स्नपन विधि पूर्ण हुई ॥ ६२॥ . अष्टद्रव्यार्चन मंत्रततः प्रतिमामानीय यन्त्रेमध्ये संस्थाप्य सम्पूजयेत् ॥ स्नपनाभावे अधिवासनात्मालङ्करणपर्यन्तं विधानमाचर्य यन्त्रे एव प्रतिमाया आव्हानादिकं कृत्वा सम्यक् पूजयेत् ॥ तद्यथा ॥ ६३ ॥ ॐ हाँ न्ही हूँ हाँ हः अ सि आ उ सा जलं गृहाण गृहाण नमः ॥ एवं गन्धाक्षतकुसुमचरुदीपधूपफलैश्च जिनं पूजयेत् ॥ पूर्णायं जाप्यं जपेत् ॥६४॥ स्नानविधि हो चुकनेके बाद प्रतिमाको उठाकर यंत्रके मध्य भागमें स्थापन कर पूजा करै । यदि प्रतिमाको स्नान न कराना हो तो आव्हानसे लेकर जिन चरणार्पित गंधसे स्वशरीको भूषित करने तककी विधान करै । और यंत्रमेंही प्रतिमाका आव्हानादिक करके अच्छी तरह पूजा करै । वह इसतरह कि ॥ ६३॥ ___“ओं ह्रीँ श्रीं ॥ इत्यादि मंत्र पढ़कर जल चढ़ावै । इसी तरह गन्ध अक्षत पुष्प नैवेद्य दीप धूप और फलसे जिन देवकी पूजा करै । बाद पूर्णार्घ्य देकर जाप जपै ॥ ६४ ॥ जयादिदेवतार्चनमंत्रततः पञ्चपरमेष्ठिनां पूजां कुर्यात् ।। इति कर्णिकाभ्यर्चनम् ॥ ६५ ॥ इसके बाद पंचपरमेष्टिकी पूजा करै । इस तरह जो कमलाकार यंत्र बनाकर मध्य कर्णिकामें पंच परमेष्ठीकी स्थापनाकी थी उसका पूजाविधान समाप्त हुआ ॥ ६५ ॥ अष्टपत्रेषु-ॐ हीं जये विजये अजिते अपराजिते जम्भे मोहे स्तम्भे स्तम्भिनि सर्वा अप्यायुधवाहनसमेता आयात आयात इदमयं चरुममृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहीत गृहीत स्वाहा ॥ इति जयादिदेवीरभ्यर्चयेत् ॥६६॥ उस कर्णिकाके चारों और आठ पत्तें खेंचकर जो जयादि आठ देवियोंकी स्थापना की थी उनकी “ओं ह्रीं जये विजये " इत्यादि पढ़कर अर्घ चढ़ावे ॥ ६६ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमारकाविरचित विद्यादेवतार्चनमंत्रषोडशपत्रेषु - ही रोहिणि प्रज्ञप्ते वज्रशृंखले वज्राङ्कुशे अप्रतिचके पुरुषदत्ते कालि महाकालि गान्धारि गौरि ज्वालामालिनि वैराटि अच्युते अपराजिते मानसि महामानसि चेति सर्वा अप्यायुधकाहनसमेता आयात आयातेदमध्ये गृहीत गृहीत स्वाहा ॥ इति विद्यादेवतार्चनम् ॥ ६७ ॥ उन आठ पत्तोंके चारों ओर सोलह पत्रोंमें “ओं ह्रीं रोहिणी , इत्यादि पड़कर सोलह विद्यादेवोंकी पूजन करै ॥६७॥ | शासनदेवतार्चन मंत्रचतुर्विंशपत्रेषु-ॐ ही चक्रेश्वरि रोहिणि प्रज्ञप्ति वज्रशृङखले पुरुषदत्ते मनोवेगे कालि ज्वालामालिनि महाकालि मानवि गौरि गांधारि वैराटि अनन्तमति मानसि महामानसि जये विजये अपराजिते बहुरूपिणि चामुण्डे कूष्माण्डिनि पद्मावति सिद्धायिनि सर्वा अप्यायुधवाहनसमेता आयात आयात इदमयं गृह्णीत गृह्णीत स्वाहा ।। इति शासनदेवतापूजनम् ॥६८॥ चौबीस पत्रोंपर “ओं ह्री चक्रेश्वरी” इत्यादि पढ़कर चक्रेश्वरी आदि चौवीस शासन देवोंकी अर्घसे पूजन करै ॥ ६८॥ इंद्रार्चन मंत्रद्वात्रिंशत्पत्रेषु-ॐ ही असुरेन्द्र नागेन्द्र सुपर्णेन्द्र द्वीपेन्द्रो दधीन्द्र स्तनितेन्द्र विद्युदिन्द्र दिगिन्द्र अग्नीन्द्र वाविन्द्र किन्नरेन्द्र किम्पुरुषेन्द्र महोरगेन्द्र गन्धर्वेन्द्र यक्षेन्द्र राक्षसेन्द्र भूतेन्द्र पिशाचेन्द्र चन्द्रादित्य सौधर्मेन्द्र ईशानेन्द्र सनत्कुमारेन्द्र माहेन्द्रेन्द्र ब्रह्मेन्द्र लान्तवेन्द्र शुक्रेन्द्र शतारेन्द्रानतेन्द्र प्राणतेन्द्रारणेन्द्राच्युतेन्द्र सर्वेऽप्यायातायात यानायुध. युवतिजनैः सार्धं भूर्भुवः स्वः स्वधा इदमयं चरुममृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहीत गृहीत ॥ इतीन्द्राणामभ्यर्चनम् ॥ ६९ ॥ बत्तीस पत्रोंपर “ओं ह्रीं असुरेन्द्र " इत्यादि पढ़कर असुरेन्द्रादि वत्तीस इंद्रोंकी पूजा करै ॥ ६९॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। wwwwwwwwwwwwwww यक्षार्चममंत्रअथ वज्राग्रस्थापितचतुर्विशतियक्षाः । ॐ ही गोमुखमहायक्षत्रिमुखयक्षेश्वरतुम्बरुपुष्पाक्षमातङ्गस्यामजितब्रम्हेश्वरकुमारचतुमुखपातालकिनरमरुडगन्धर्वखगेन्द्रकुबेरवरुणभृकुटिगामेदधरणमातङ्गाः सर्वेऽप्यायु धवाहनयुवति सहिता आयातायात इदमर्थ्य मन्धमिलादि गृह्णीत गृह्णीत स्वाहा ॥ यक्षाचेनम् ॥ ७० ॥ बत्तीस पत्तोंके चारों ओर बताये हुए चौवीस बनानोपर स्थापित चोवीस यक्षोंकी “ओं ह्रीं गोमुख " इत्यादि पढ़कर पूजा करै ॥७॥ दिक्पाल व नवग्रहअथ दिक्पालः । ॐ इन्द्रामियमनैर्ऋत्यवरुणपवनकुबेरेशानधरणसोमाः सर्वेप्यायुधवाहनयुवतिसहिता आयातायात इदमध्येमित्यादि । - दिक्पालार्चनम् ॥ ७१॥ “ ओं इंद्राग्नि " इत्यादि पढ़कर दिक्पालोंकी पूजा करै ॥ ७१ ॥ अथ ग्रहाः । ॐ आदित्यसोममंगलबुधबृहस्पतिशुक्रशनिराहुकेतवः सर्वेऽप्यायुधवाहनवधूचिन्हसपरिवारा आयातायात इदमध्ये स्वाहा ॥ इति नवग्रहपूजा ॥ ७२ ॥ “ओं आदित्यसोम " इत्यादि पढ़कर नवग्रहोंकी पूजा करै ॥७२॥ अनावृतपूजा। ॐ हीं औं क्रौं है अनावृत आगच्छागच्छ अनावृताय स्वाहा ॥ इत्यनावृतपूजा ॥७३॥ _..“ओं हाँ औं " इत्यादि पढ़कर अनावृत देवकी पूजा करै ॥ ७३ ॥ एवं महामन्त्रं समाराध्य मूलविद्यामष्टशतवारान् जपेत् ।। इति देवताराधनविधिः ॥ ७४ ॥ इस तरह महा यंत्रकी पूजा कर मूल मनको एकसौ आठ बार जपें ॥ ७४॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित ॐ हाँ ही हूं हौं हः असि आ उ सा अस्य देवदत्तस्य सर्वोपद्रवशान्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥ अयं मूलमन्त्रः ॥ ७५ ॥ यह मूल मंत्र है। इसका एकसौ आठ बार जप करै जाप जपनेवाला देवदत्तके स्थान में अपना नाम जोड़ दे॥ शांतिकर्म। ज्वररोगोपशान्त्यर्थं श्वेतवर्णैर्यन्त्रमुद्धार्य सम्पूज्य पश्चिमाभिमुखः सूरिः ज्ञानमुद्रापद्मासनं श्वेतजापैरष्टोत्तरशतं जपेत् पश्चिमरात्रौ। त्रिपञ्चसप्तदिनाभ्यन्तरे ज्वरो मुञ्चति ॥ एवमन्येषामपि रोगाणामनुष्ठेयम् ।। इति शान्तिकर्म ॥ ७६ ॥ ज्वररोगकी शान्तिके लिए बुद्धिमान पुरुष रात्रिके पिछले 'भागमें श्वेतवर्णसे यंत्र खेंचकर उसकी पूजा कर पश्चिमकी ओर मुख कर ज्ञानमुद्रा धारण कर पद्मासन बैठ कर श्वेत जापसे एक सौ आठ जप करै । इस तरह करनेसे तीन पांच अथवा सात दिनके भीतर ज्वर दूर हो जाता है । इसी तरह अन्य रोगोंके लिएभी अनुष्ठान करै । इसे शान्तिकर्म कहते हैं ॥ ७६ ॥ __ पौष्टिककर्म । एवं पौष्टिकेऽपि तथैव । उत्तराभिमुख इति विशेषः॥ ॐ हाँ ही हूँ हौं हः असि आ उ सा अस्य देवदत्तनामधेयस्य मनःपुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा ॥ पुष्टिकर्म ॥ ७७ ॥ इस तरह पौष्टिक कभी ऐसाही करै । इतना विशेष है कि इस जापमें उत्तरकी ओर मुख कर बैठे । “ओं ह्रां ह्रीं” इत्यादि पौष्ठिक कर्ममें जप करनेका मंत्र है । इसे पौष्टिक कर्म कहते हैं ॥ ७७॥ वशीकरण । अथ वश्यकर्मणि । रक्तवर्णैर्यन्त्रोद्धारः रक्तपुष्पैः । स्वस्तिकासनपद्ममुद्रांकितः पूर्वाण्हे यक्षाभिमुखः- ॐ हाँ हीं हूं हौं हः अ सि आ उ सा अमुं राजानं वश्यं कुरु कुरु वषट्--वामहस्तेन मन्त्र जपेत् ॥ इति वश्यकौ ॥ ७८ ॥ इसके अनन्तर वश्य कर्ममें इस प्रकार करै कि लालरंगसे यंत्रोद्धार करे, लाल पुष्पोंसे पूजा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ taarar १४१ करै, स्वस्तिकासन बैठे । पद्ममुद्रा जोड़े । उत्तर की ओर मुख करके बैठे पूवाण्हके समय "ॐ ह्रीँ ह्रीँ" इत्यादि मंत्रो बायें हाथसे जपे । इस तरह वश्य कर्म होता है ॥ ७८ ॥ आकर्षण । I अथाकृष्टिकर्मणि । रक्तवर्णैर्यन्त्रोद्धारः पूर्वाभिमुखो दण्डासनाङ्कुशमुद्रायुतः ॐ हाँ हीँ हूँ हाँ हः असि आउ सा एनां स्त्रियमा कर्षयाकर्षय संवौषट् ॥ एवं भूतप्रेतवृष्टचादीनामप्याकर्षणम् ॥ ७९ ॥ आकर्षण कर्म यदि किसी स्त्री आदिका करै तो लालवर्णका यंत्र बनावे, पूर्व दिशाकी ओर मुखकर दण्डासन से बैठे, अंकुश मुद्रा जोड़े और “ ॐ ह्राँ " इत्यादि मंत्रका जप करै । इसी तरह भूत-प्रेत- वृष्टि आदिकाभी आकर्षण करै ॥ ७९ ॥ स्तम्भन । 1 हरितालादिपीतवर्णैर्यन्त्रोद्धारः । पूजा सर्वा पीता । पीता जपमाला बज्रासनं शंखमुद्रा ॥ ॐ हाँ हीँ हूँ हीँ हः अ सि आउ सा साधकस्य एतन्नामधेयस्य क्रोधं स्तम्भय स्तम्भय ठः ठः ॥ एवं शार्दूलादीनां क्रोधस्तम्भनम् ॥ ८० ॥ यदि किसीके क्रोधका स्तम्भन करना हो तो इस प्रकार करै कि हल्दी आदि के पीले रंग से यंत्र खेंचै, पूजा-सामग्री पीली बनावै, जापमाला भी पीले रंगकी ले, वज्रासन मांड़े । शंखमुद्रा जोड़े, “ॐ ह्रां ह्रीं”” इत्यादि मंत्र का जाप करै । इसी प्रकार सिंह आदिका क्रोध - स्तभंव न करै ॥ ८० ॥ 9 अतिवृष्टौ सत्यां कर्माण — ॐ हाँ हीँ हूँ हाँ ह आउ सा अत्र एनां वृष्टिं स्तम्भयः ठः ठः ॥ इति स्तम्भनम् ॥८१॥ अतिवृष्टिके स्तंभन करनेमें “ ॐ ह्रां ह्रीँ ” इत्यादि मंत्रका जप करे इसतरह स्तम्भन कर्म होता है ॥ ८१ ॥ उच्चाटनकर्म । अधोच्चाटनकर्मणि कृष्णवर्णैर्यन्त्रोद्धारः । अपराण्हे मरुद्दिमुखः कुर्कुटासनः पल्लवमुद्रा नीलजाप्यैर्जप ॐ हाँ हीँ हूँ हीँ हः असि उसा देवदत्तानमधेयं अत उच्चाटय उच्चाटय फट् फट् । इति जपेत् । एवं भूतादीनामप्युच्चाटनम् ॥ इत्युच्चाटनकर्म ॥ ८२ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसमभधारकाविरचित यदि किसीका उच्चाटन करना हो तो इस कर्ममें काले रंगका यत्रं बनावै दिनके पिछले भागमें वायव्य दिशाकी ओर मुखकर कर्कुटासन बैठे पल्लवमुद्रा जोड़े और नील जाप्यसे “ॐ ह्रीं ह्रीं" इत्यादि मंत्रका जाप करै इसीतर भूतादिका उच्चाटन करै । यह उच्चाटन कर्म है ॥ ८२ ॥..---- विद्वेषकर्म। अथ विद्वेषकर्मणि कृष्णवर्णैर्यन्त्रोद्धारः । मध्यान्हे अग्निमुखः। कुर्कटासनं पल्लवमुद्रा कृष्णजाप्यैजेपः ॥ ॐ न्हाँही , हौ हः असि आ उ सा अनयोर्यज्ञदत्तदेवदत्तनामधेययोः परस्परमतीव विद्वेषं कुरु कुरु हूँ ॥ एवं स्त्रीपुरुषयोर्वा ॥ इति विद्वेषणम् ॥ ८३ ॥ विद्वेष कर्ममें काले रंगसे यंत्रोद्धार करै । मध्याह्नके समय आग्नेय दिशाकी ओर मुख कर कुकुटासनसे बैठे पल्लव मुद्रा करै, कालेजाप्यसे “ॐ ह्राँ " इत्यादि मंत्रका जाप करे । यदि स्त्रीपुरुषमेंभी विद्वेष कराना हो तो इसी प्रकार करै ॥ ८३ ॥ · अभिचारकर्म। अभिचारकर्मणि सर्पविषमित्रैरुन्मत्तरसमित्रैः अपराण्हे ईशानदिङ्मुखः कृष्णवस्त्रो भद्रासनो वज्रमुद्राखीदरमण्यादिकृताक्षमालः। ॐ हाँ हाँ हूं हौ हः अ सि आ उ सा अस्य एतन्नामधेयस्य तीव्रज्वरं कुरु कुरु घे घे । इत्युच्चारयेत् । शूलशिरोरोगाणामप्येवं कर्तव्यम् । उच्चाटनादिकर्माणि धर्माधारभूतानां राजादिनामभिलषितानि चेत्तदा विधेयानि ॥ ८४॥ यदि किसीको कोई तरहका रोग उत्पन्न करना हो तो इस मंत्रका उपयोग करै । साँपके जहरसे अथवा किसी मादक द्रव्यसे मिश्रित काले रंगसे यंत्र खेंचे दोपहरके बाद ईशान दिशाकी तरफ मुख कर काले कपड़े पहन भद्रासन बैठे, वज्रमुद्रा बनावे खदिरमाणिकी जपमाला बनवावे, और “ ॐ ह्रां ह्रीं” इत्यादि मंत्रका उच्चारण करै । शूर शिरका रोग आदिभेभी इस मंत्रका प्रयोग करै । उच्चाटन आदि कर्म धर्मात्मा राजा आदिको अभिलषित हो तो करै ॥ ८४ ॥ होम विधि। इत्याराधनाविधि समाप्य होमशालायामग्निहोमं विदध्यात ॥ तद्यथा--ॐ हाँ क्ष्वी भूः स्वाहा । पुष्पाञ्जलिः ॥ १ ॥ । इस तरह इस पूजाके विधानको पूर्ण कर होम शालामें जाकर अग्नि होम करै । इसका विधान इस प्रकार है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .विकाचार 1..... " “ॐ ह्रीँ वाँ ” इस मंत्र का उच्चारण कर पूण्यांजलि क्षेपण करै ॥ १ ॥ ॐ हीँ अत्रस्थक्षेत्रपालाय स्वाहा || क्षेत्रपालबलिः ॥ २ ॥ इस मंत्र का उच्चारण कर क्षेत्रपालको बलि देवे ॥ २ ॥ १४३ ॐ नहीँ ँ वायुकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय महीं पूतां करु करु हूं फट् स्वाहा || भूमिसम्मार्जनम् ॥ ३ ॥ इस मंत्र को पढ़कर भूमिका सम्मार्जन- सफाई करै ॥ ३ ॥ ॐ नहीँ मेघकुमाराय घरां प्रक्षालय प्रक्षालय अं हं सं तं पं स्वं झं झं यं क्षः फट् स्वाहा || भूमिसेचनम् ॥ ४ ॥ यह मंत्र पढ़कर भूमीपर जल सीचें ॥ ४ ॥ ॐ हीँ अग्निकुमाराय इम्यूँ ज्वल ज्वल तेजः पतये अमिततेजसे स्वाहा ।। दर्भाग्निप्रज्वालनम् ॥ ५ ॥ यह मंत्र पढ़कर दर्भसे अग्नि सुलगावे ॥ ५ ॥ हीँ क्रौं षष्टिसहस्रसंख्येभ्यो नागेभ्यः स्वाहा । नागतर्पणम् || ६ || इस मंत्रका उच्चारण कर नागोंकी पूजा करै ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं भूमिदेवते इदं जलादिकमर्चनं गृहाण गृहाण स्वाहा । भूम्यर्चनम् ॥ ७ ॥ यह मंत्र पढ़कर भूमिकी पूजा करै ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीँ अहं क्षं वं वं श्रीपीठस्थापनं करोमि स्वाहा || होमकुण्डा - प्रत्यक् पीठस्थापनम् ॥ ८॥ इस मंत्रका उच्चारण कर होम कुंडसे पश्चिमकी ओर पीठ स्थापन करै ॥ ८ ॥ ॐ न्हीँ ँ समग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः स्वाहा || श्रीपीठार्चनम् ॥ ९ ॥ इस मंत्र को पढ़कर पीठकी पूजा करै ॥ ९ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सौमसेनभट्टारकविरचित- ३ Aryamanawwwwwwwwwwww ॐ ही श्री क्लीं ऐं अर्ह जगतां सर्वशान्ति कुर्वन्तु श्रीपीठे प्रतिमास्थापनम् करोमि स्वाहा ॥ श्रीपीठे प्रतिमास्थापनम् ॥१०॥ यह मंत्र पढ़कर श्रीपीठपर प्रतिमा स्थापन करै ॥ १०॥ .. ॐ हीं अहँ नमः परमेष्ठिभ्यः स्वाहा ॥ ॐ हीं अहं नमः परमात्मकेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ ही अर्ह नमोऽनादिनिधनेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ ही अहं नमो नसुरासुरपूजितेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ हाँ अहं नमोऽनन्तज्ञानेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ ही अहं नमोऽनन्तदर्शनेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ--हाँ अर्ह नमोऽनन्तवीर्येभ्यः स्वाहा ॥ ॐ ही अर्ह नमोऽनन्तसौख्येभ्यः स्वाहा इत्यष्टभिर्मन्त्रैः प्रतिमार्चनम् ॥ ११ ॥ इन आठ मंत्रोंका उच्चारण कर प्रतिमाकी पूजा करना चाहिए ॥ ११ ॥ ॐ ही धर्मचक्रायाप्रतिहततेजसे स्वाहा ॥ चक्रत्रयार्चनम् ॥ १२ ॥ इस मंत्रको पढ़कर तीनों चक्रोंकी पूजा करै ॥ १२ ॥ ॐ न्ही श्वेतच्छत्रनयश्रियै स्वाहा ॥ छत्रत्रयपूजा ॥ १३ ॥ इस मंत्रका उच्चारण कर छत्र त्रयकी पूजा करै ॥ १३ ॥ ॐ ही श्री क्की ऐ* अर्ह ड्सौं गौं सर्वशास्त्रप्रकाशिनि वदवदवाग्वादिनि अवतर अवतर । अन तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। संनिहिता भव भव वषट् । क्यूँ नमः सरस्वत्यै जलं निर्वपामि स्वाहा । एवं गन्धाक्षतपुष्पचरुदीपधूपफलवस्त्राभरणादिकम् । प्रतिमागे सरस्वतीपूजा ॥१४॥ ॐ ही श्री इत्यादि मंत्र पढ़कर सरस्वतीका आव्हान स्थापन और सन्निधिकरण करै “क्यूँ" इत्यादि पढ़कर जल गन्ध अक्षत पुष्प नैवेद्य दीप धूप फल और वस्त्राभरणादिकसे प्रतिमाके सामने सरस्वतीकी पूजा करे ॥ १४ ॥ ॐ-हाँ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपवित्रतरगात्रचतुरशीतिलक्षणगुणाष्टादशसहस्रशीलधरगणधरचरणाः आगच्छत आगच्छत संवौषात् ॥ इत्यादि गुरुपादुकापूजा ॥१५॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। “ॐ ही " इत्यादि पढ़कर गणधरोंकी पादुकाकी पूजा करे ॥ १५ ॥ ॐ ही कलियुगप्रवन्धदुर्मागविनाशनपरमसन्मार्गपरिपालन भगवन् यक्षेश्वर जलार्चनं गृहाण गृहाण ॥ इत्यादि जिनस्य दक्षिणे यक्षार्चनम् ॥ १६ ॥ "ॐ ही ” इत्यादि पढ़कर जिन भगवानके दक्षिणकी ओर यक्षोंकी पूजा करे ॥ १६ ॥ ॐ ही कलियुगप्रबन्धदुर्मार्गविनाशिनि सन्मार्गप्रवतिीन भगवति यक्षीदेवते जलाद्यर्चनं गृहाण गृहाण । इत्यादि वामे शासनदेवतार्चनम् ॥ १७॥ यह मंत्र पढ़कर जिन भगवानकी बाई ओर शासन देवतोंकी पूजा करे ॥ १७ ॥ ॐ हाँ उपवेशनभूः शुध्द्यतु स्वाहा ॥ होमकुण्डपूर्वभामे दर्भपूलेनोपवेशनभूमिशोधनम् ॥ १८ ॥ यह मंत्र पढ़कर होम कुंडके पूर्वभागमें दर्भके पूलैसे बैठनेकी जमीनको शुद्ध करे ॥ १८ ॥ ॐ ही परब्रह्मणे नमो नमः । ब्रह्मासने अहमुपविशामि स्वाहा ॥ होमकुण्डाग्रे पश्चिमाभिमुखं होता उपविशेत् ॥ १९ ॥ यह मंत्र पढ़कर होता ( होम करनेवाला ) होम कुंडके अग्रभागमें पश्चिमकी ओर मुख करके बैठे ॥ १९॥ ॐ ही स्वस्तये पुण्याहकलशं स्थापयामि स्वाहा ॥ शालिपुञ्जोपरि फलसहितपुण्याहकलशस्थापनम् ॥२०॥ यह मंत्र पढ़कर चावलोंके ढेरपर पुण्याहवाचनके कलश स्थापन करे और उनके ऊपर नारियल आदि कोईसा फल रक्खे ॥ २० ॥ ॐ हाँ हाँ हूँ हाँ हा नमोर्हते भगवते पद्ममहापअतिगञ्छकेसरिपुण्डरीकमहापुण्डरीकगङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदापयोधिशुद्धजल. सुवर्णघटप्रक्षालितवररत्नगंधाक्षतपुष्पार्चितमामोदकंपवित्रं कुरु कुरु झं झं झौं झौं वं वं मंमं हं हं सं सं तं तं पं पं द्राँ ड्राँ द्री द्रा हैं सः ॥ इति जलेन प्रसिञ्च्य जलपवित्रीकरणम् ॥ २१ ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित यह मंत्र पढ़कर जल सींचकर पूजा करनेके जलको पवित्र करे ॥ २१ ॥ ॐ ही नेत्राय संवौषट् ॥ कलशार्चनम् ॥ २२ ॥ ---- यह मंत्र बोलकर कलशोंकी पूजा करे ॥ २२ ॥ ततो यजमानाचार्यः वामहस्तेन कलशं धृत्वा सव्यहस्तेन पुण्यहवाचनां पठन् भूमि सिश्चेत् ॥ पुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्तां प्रीयन्तां इत्यादि पुण्याहवाचनां पठित्वा कलशं कुडस्य दक्षिणे भागे निवेशयेत् ॥२३॥ इसके बाद यजमान आचार्य बायें हाथमें कलश लेकर दाहिने हाथसे पुण्याहवाचनाको पढ़ता हुआ भूमिका सिंवन करे और पुण्याहं पुण्याहं प्रीयन्तां प्रीयन्तां इत्यादि पुण्याहवाचनाको पढ़कर कलशको कुण्डके दाहिने भागमें स्थापन करे ॥ २३ ॥ ततः ॐ ही स्वस्तये मङ्गलकुम्भं स्थापयामि स्वाहा ॥ वामे मङ्गलकलशस्थापनं तत्र स्थालीपाकप्रोक्षणपात्रपूजाद्रव्यहोमद्रव्यस्थापनम् ॥ २४ ॥ इसके बाद “ ॐ ह्रीं स्वस्तये" इत्यादि पढ़कर कुंडके बायें भागमें कलश स्थापन करे और वहींपर स्थालीपाक-गन्ध-पुष्प-अक्षत-फल इत्यादिकोंसे सुशोभित पांच पंचपात्री, प्रोक्षणपात्र पूजाद्रव्य और होम द्रव्यको स्थापन करे ॥ २४ ॥ ॐ ही परमेष्ठिभ्यो नमो नमः । इति परमात्मध्यानम् ॥ २५ ॥ इसे पढ़कर परमात्माका चिन्तवन करे ॥ २५ ॥ ॐ ही णमो अरिहंताणं ध्यातृभिरभीप्सितफलदेभ्यः स्वाहा ।। परमपुरुषस्यायप्रदानम् ॥ २६ ॥ यह पढ़कर परमात्माको अर्घ्य दे ॥ २६ ॥ तत इदं यन्त्रं कुण्डमध्ये लिखेत् ॥ ॐ ही नीरजसे नमः । ॐ दर्पमथनाय नमः । इत्यादि ॥ जलदभैंर्गन्धाक्षतादिभि होमकुण्डार्चनम् ॥ २७ ॥ .. इसके बाद कुण्डके बीचमें “ ॐ हीं नीरजसे नमः " " ॐ दर्पनाथाय नमः" इत्यादि जिसे पीछे पूर्ण लिख आये हैं उस मंत्रको लिखे जल-गन्ध-अक्षत-दर्भ आदिसे होम कुंडकी अर्चना करे ॥ २७ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं र अग्निं स्थापयामि स्वाहा ॥ अग्निस्थापनम् ॥२८॥ इसे पढ़कर कुंडमें अग्निकी स्थापना करे ॥ २८ ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ र र र र दर्भ निक्षिप्य अग्निसन्धुक्षणं करोमि स्वाहा ॥ अग्निसन्धुक्षणम् ॥ २९॥ यह पढ़कर कुंडमें दर्भ डाल कर अग्नि जलावे ॥ २९ ॥ ॐ ही इवीं क्ष्वी वं में हं सं तं पं द्रां द्रां हं सः स्वाहा ।। आचमनम् ॥ ३० ॥ यह मंत्र पढ़कर आचमन करे ॥ ३० ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः अ सि आ उ सा अहं प्राणायामं करोमि स्वाहा । - त्रिरुच्चार्य प्राणायामः ॥३१॥ इस मंत्रका तीन वार उच्चारण कर प्राणायाम करे ॥ ३१ ॥ ॐ नमोऽर्हते भगवते सत्यवचनसन्दर्भाय केवलज्ञानदर्शनप्रज्वलनाय पूर्वोत्तराग्रं दर्भपरिस्तरणमुदुम्बरसमित्परिस्तरणं च करोमि स्वाहा ॥ होमकुण्डस्य चतुर्भुजेषु पञ्चपञ्चदर्भवेष्टितेन परिधिबन्धनम् ॥ ३२ ॥ “ॐ नमोऽईते " इत्यादि पढ़कर कुंडके चारों कोनोंपर पांच पांच दर्भको एक साथ बांधकर परिधिबन्धन करे दक्षिण और उत्तरके कोनेपर रवखे हुए दीकी नौके पूर्व दिशाकी और करे और पूर्व पश्चिमके कोनोंपर रक्खें हुए द की नोंके उत्तरकी ओर करे ॥ ३२ ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं अग्निकुमार देव आगच्छागच्छ इत्यादि । इत्यदेिवमाहूय प्रसाद्य तन्मौल्युद्भवस्यामेरस्य गार्हपत्यनामधेयमत्र संकल्प्य अर्हद्दिव्यमूर्तिभावनया श्रद्धानरूपदिव्यशक्तिसमन्वितसम्यग्दर्शन भावनया समभ्यर्चनम् ॥३३॥ “ ॐ ॐ ॐ ॐ ” इत्यादि मंत्र पढ़कर अग्निदेव ( अग्नि कुमार ) का आव्हान करे, उसे प्रसन्न करे अर्थात् अग्नि जलावे, उस अग्निकी ऊपरकी ज्वालामें 'गार्हपत्य । इस नामकी कल्पना करे और अर्हन्त भगवानकी दिव्यमूर्तिकी तथा श्रद्धान रूप दिव्यशक्ति युक्त सम्यग्दर्शनकी भावना कर पूजा करे ॥ ३३ ॥ . ॥ ३३॥ .. .. . . .. . . .. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ सोमसेनभट्टात्तविरचित - ॐ म्ही क्रौ प्रशस्तपर्णसर्वलक्षणसम्पूर्ण स्वायुधवाहन वधू चिन्हसपरिवाराः पञ्चदशतिथिदेवताः आगच्छत आगच्छत इत्यादि कुण्डस्य प्रथममेखलायां तिथिदेवतार्चनम् ॥ ३४ ॥ “ ॐ हीँ क्रौं ” इत्यादि मंत्रको बोलकर कुंडकी प्रथम मेखलापर पन्द्रह तिथि देवतोंकी पूजा करे ॥ ३४ ॥ ॐ हाँ क्रोँ प्रशस्तवर्णसर्वलक्षणसम्पूर्णस्वायुधवाहनव चिन्हसपरिवारा नवग्रहदेवता आगच्छतागच्छतेत्यादि द्वितीयमेखलायां ग्रहपूजा ।। ३५ ।। ॐ ह्रीँ मेँ इत्यादि मंत्रका उच्चारण कर दूसरी मेखलापर ग्रहोंकी पूजा करे ॥ ३५ ॥ ॐ ह्रीँ क्रीँ प्रशस्तवर्ण सर्वलक्षणसम्पूर्णस्वायुधवाहन वधूचिन्हसपरिवाराश्चतुर्णिकायेन्द्रदेवता आगच्छतागच्छतेत्यादि । ऊर्ध्वमेखलायां द्वात्रिंशदिन्द्रार्चनम् ॥ ३६ ॥ यह मंत्र पढ़कर तीसरी मेखलापर बत्तीस इंद्रोंकी पूजा करे ॥ ३६ ॥ ॐ वहीँ क्रौं सुवर्णवर्ण सर्वलक्षणसम्पूर्ण स्वायुधवाहनवधू चिन्ह सपरिवार इन्द्रदेव आगच्छागच्छेत्यादि इन्द्रार्चनम् ॥ एवं लघुपीठेषु दशदिक्पालपूजा ॥ ३७ ॥ यह मंत्र पढ़कर इंद्रकी पूजा करे, इसी तरह वेदी पर आठों दिशाओंमें बने हुए आठ लघुपीठोंपर आठ दिक्पालों की पूजा करे ॥ ३७ ॥ ततः ॐ =हीँ ँ स्थालीपाकमुमहरामि स्वाहा ॥ पुष्पाक्षतैरुपहार्य स्थालीपाकग्रहणम् ॥ ३८ ॥ इसके बाद “ ॐ ह्रीँ स्थालीपाकमुपहरामि स्वाहा " यह पढ़कर पुष्प अक्षतोंसे भरकर स्थालीपाकको अपने पास रक्खे ॥ ३८ ॥ ॐ वहीँ होमद्रव्यमादधामि स्वाहा || होमद्रव्याधानम् ॥ ३९ ॥ इसे पढ़कर होम द्रव्यको अपने पास रक्खे ॥ ३९ ॥ ँ ॐ ह्रीँ आज्यपात्रमुपस्थापयामि स्वाहा । आज्यपात्रस्थापनम् ||४०|| Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैवार्मिकाबार । यह पढ़कर होम करनेके घीको अपने पास स्थापन करे ॥ ४० ॥ ॐ ही रुचमुपस्करोमि स्वाहा ॥ रुचस्तापनं मार्जनं जलसेचनं पुनस्तापनमग्रे निधापनं च ॥४१॥ यह मंत्र पढ़कर स्रुक (सुची) अर्थात् घी होमनेके पात्रका संस्कार इस प्रकार करे कि प्रथम उसे आमिपर तपावे सेकै इसके बाद उसे पौंछे, इसके बाद उसपर जल साँचे पुनः अग्निपर तपावे । और अपने सामने रक्खें ॥ ४१॥ ॐ ही रुवमुपस्करोमि स्वाहा ॥ रुवस्थापनं तथा ॥ ४२ ॥ . यह मंत्र बोलकर स्रुव अर्थात् होम सामग्रीको होमनेके पात्रका सुचीकी तरह संस्कार करे स्थापना करै ॥ ४२॥ ॐ ही आज्यमुद्रासयामि स्वाहा ॥ दर्भप्रिण्डोज्वलेन आज्यस्योद्वासनमुत्पाचनमवेक्षणं च ॥४३॥ यह मंत्र पढ़कर धीको तपावे । वह इस तरह कि दर्भके पूलेको जलाकर घीको उद्दासन ( उठावे ) उत्पाचन (तपावे ) और अवेक्षण ( देखे ) करे ॥ ४३ ॥ ॐ ही पवित्रतरजलेन द्रव्यशुद्धिं करोमि स्वाहा ॥ होमद्रव्यप्रोक्षणम् ॥४४॥ यह मंत्र पढ़कर द्रव्यशुद्धि करे ॥ ४४ ॥ ॐ ही कुशमाददामि स्वाहा ॥दर्भपूलमादाय सर्वद्रव्यस्पर्शनम्।।४५।। यह मंत्र पढ़कर दर्भके पूलेको उठाकर सब द्रव्यसे छुवावे ॥ ४५ ॥ ॐ ही परमपवित्राय स्वाहा ॥अनामिकांगुल्यां पवित्रधारणम् ॥४६॥ यह मंत्र पढ़कर अनामिका उंगलीमें पवित्र पहने ॥ ४६॥ ॐ हीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राय स्वाहा॥ यज्ञोपवीतधारणम् ॥४७॥ यह मंत्र पढ़कर यज्ञोपवीत पहने ॥ ४७ ॥ ॐ ही अग्निकुमाराय परिषेचनं करोमि स्वाहा ॥अग्निपर्युक्षणम् ४८॥ यह मंत्र पढ़कर कुंडके चारों ओर पानीकी धार छोड़े ॥ ४८॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सोमसेनभट्टारकविरचित ततः ॐ ही अर्ह अर्हत्सिद्ध केवलिभ्यः स्वाहा । ॐ हीँ पञ्चदशतिथिदेवेभ्यः स्वाहा ।। ॐ ह्रीँ नवग्रहदेवेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ हाँ द्वात्रिंशदिन्द्रेभ्यः स्वाहा ॥ ॐ ही दशलोकपालेभ्यः स्वाहा || ॐ -हीँ ँ अभीन्द्राय स्वाहा || षडेतान् मन्त्रानष्टादशकृत्वः पुनरावर्तनेनोचारयन् स्रुवेण प्रत्येकमाज्याहुतिं कुर्यादित्याज्याहुतयः ॥ ४२ ॥ इसके बाद, “ ॐ ह्रीँ अर्है " इत्यादि छह मंत्रको अठारहबार दोहरा कर बोले प्रत्येक मंत्र को बोलकर सूची घृताहुति करे । इस तरह एकसौ आठ आहुति हो जाती हैं । इसे घृ कहते हैं ॥ ४९ ॥ ॐ हाँ अर्हत्परमेष्ठिन स्तर्पयामि स्वाहा । ॐ ह्रीँ सिद्धपरमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा || ॐ हूँ आचार्य परमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा || ॐ हौ उपाध्यायपरमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा ॥ ॐ हः सर्व साधुपरमेष्ठिनस्तर्पयामि स्वाहा ।। अवांतरे पंच तर्पणानि ॥५०॥ “ ॐ हाँ ” इत्यादि मंत्र पढ़कर मध्यमें पांच तर्पण करे । यह तर्पण हर एक द्रव्यका हो . और होम हो. चुकने के बाद किया जाता है इस लिए इसे अवान्तर तर्पण कहते है ॥ ५०॥ ॐ ह्रीं अग्निं परिषेचयामि स्वाहा || क्षीरेणापिर्युक्षणम् ॥ ५१ यह मंत्र पढ़कर अग्निको दूधकी धार दे ॥ ५१ ॥ अथ समिधाहुतयः । ॐ हाँ ही हूँ हो हः असि आउ सा स्वाहा ॥ अनेन मन्त्रेण समिधाहुतयः करेण होतव्याः । इति समिधाहोमः १०८ ।। ततः षडाज्याहुतयः पञ्च तर्पणानि पर्युक्षणं च ॥५२ " अव समिधाहुति कहते हैं “ ॐ ह्राँ ” इत्यादि मंत्र के द्वारा हाथसे समिधाकी एकसौ आठ आहुतिया देवें मंत्रोच्चारणभी एकसौ आठ वार करे इसके बाद पूर्वोक्त छह घृताहुति के मंत्र पढ़कर छह घृताहुति देवे | पांच तर्पण करे और अग्निका परीक्षण करे। अग्निके चारों ओर दूधकी धार देने को पर्युक्षण कहते हैं ॥ ५२ ॥ १ नित्य यज्ञमें हमेशह यज्ञोपवीत बदल लेनेकी कोई आवश्यकता नहीं है नित्ययज्ञमें तो उस पुराने यज्ञोपवीतपरही जलगन्ध लगावे और नैमित्तिक यज्ञमें नया यज्ञोपवीत धारण करे । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। १५१ अथ लवंगाद्याहुतयः॥ ॐ हाँ अर्हदभ्यः स्वाहा। ॐ ही सिध्देभ्यः स्वाहा । ॐ हूँ सूरिभ्यः स्वाहा। ॐ हाँ पाठकेभ्यः स्वाहा । ॐ न्हः सर्वसाधुभ्यः स्वाहा ॥ ॐ ही जिनधर्मेभ्यः स्वाहा । ॐ ही जिनागमेभ्यः स्वाहा । ॐ म्ही जिनालयेभ्यः स्वाहा । ॐ म्ही सम्यग्दर्शनाय स्वाहा । ॐ ही सम्यग्ज्ञानाय स्वाहा । ॐ ही सम्यक्चारित्राय स्वाहा । ॐ ही जयाद्यष्टदेवताभ्यः स्वाहा । ॐ ही षोडशविद्यादेवताभ्यः स्वाहा । ॐ ही चतुर्विंशतियक्षेभ्यः स्वाहा । ॐ ही चतुर्विंशतियक्षीम्यः स्वाहा । ॐ ही चतुर्दशभ वनवासिभ्यः स्वाहा ॐ ही अष्टविधव्यन्तरेभ्यः स्वाहा ॐ ही चतुर्विधज्योतिरिन्द्रेभ्यः स्वाहा । ॐ ही द्वादशविधकल्पवासिभ्यः स्वाहा । ॐ ही अष्टविधकल्पवासिभ्यः स्वाहा । ॐ ही दशदिक्पालकेभ्यः स्वाहा । ॐ ही नवग्रहेभ्यः स्वाहा । ॐ ही अष्टविधकल्पवासिभ्यः स्वाहा । ॐ ही अग्नीन्द्राय स्वाहा । ॐ स्वाहा भूः स्वाहा । भुवः स्वाहा । स्वः स्वाहा ॥ एतान् सप्तविशान्तमन्त्राँश्चतुवारानुच्चाये प्रत्येकं लवंगगन्धाक्षतगुग्गुलुतिलशालिकुङ्कुमकपूरलाजागुरुशर्कराभिराहुतीः रुचा जुहुयात् ॥ इति लवङ्गाद्याहुतयः॥ १०८ ॥ ५३॥ “ ॐ ह्रीं अर्हस्य " इत्यादि सत्ताईस मंत्रोंका चार चार वार उच्चारण कर हरएक मंत्रको लौंग-गन्ध-अझत-गुग्गुल-तिल-शाली-कुंकुम-कपूर-लाजा-( भुने चांवल ) अगुरु-और शक्कर इनकी सूचीसे आहूतियां देवे । इस प्रकार १०८ एकसौ आठ आहूति दे ॥ ५३॥ . ॥ पूर्ववत् षडाज्याहुतिपञ्चतपणैकपर्युक्षणानि ॥५४॥ . . इसके बाद पहले की तरह छह घृताहूति पंचतर्पण और एक पर्युक्षण करे । इनके करते समय पूर्वोक्त मंत्रोंको बोलता जाय ॥ ५४ ॥ ॥अथ पीठिकामन्त्रः॥ ॐ सत्यजाताय नमः । ॐ अर्हज्जाताय नमः ॐ परमजाताय नमः। ॐ अनुपमजाताय नमः ॐ स्वप्रधानाय नमः । ॐ अचलाय नमः। ॐ अक्षयाय नमः । ॐ अव्याबाधाय नमः । ॐ अनन्तज्ञानाय नमः। ॐ अनन्तदर्शनाय नमः । ॐ अनन्तवीर्याय नमः । ॐ अनन्तसु Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित खाय नमः । ॐ नीरजसे नमः । ॐ निर्मलाय नमः । ॐ अच्छेद्याय नमः । ॐ अभेद्याय नमः । ॐ अजराय नमः । ॐ अपराय नमः । ॐ अप्रमेयाय नमः । ॐ अगर्भवासाय नमः । ॐ अक्षोभ्याय नमः । ॐ अविलीनाय नमः । ॐ परमथनाय नमः । ॐ परमकाष्ठयोगरूपाय नमः । ॐ लोकाग्रनिवासिने नमः । ॐ परमासिद्धेभ्यो नमः । ॐ अर्हत्सिद्धेभ्यो नमः । ॐ केवलिसिद्धेभ्यो नमः । ॐ अन्तकृत्सिद्धेभ्यो नमः ॐ परंपरसिद्धभ्यो नमः । ॐ अनादिपरमसिद्धेभ्यो नमः । ॐ अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमः । ॐ सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्य निर्वाणपूजार्ह अग्नीन्द्राय स्वाहा ॥सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु । अपमृत्युनाशनं भवतु ॥ पीठिकामन्त्राः ॥ पीठिकामन्त्रैरेतैः पत्रिंशद्भेदभिन्नैः प्रतिमन्त्रं त्रिवारमुच्चारितैः शाल्यनक्षीरघृतभक्ष्यपायसशर्करारम्भाफलर्मिलितैरन्नाहुतीः स्रुचा जुहुयात् ॥ १०८ ॥ पुनराज्याहुतितर्पणपर्युक्षणानि ॥ ५५ ॥ . “ॐ सत्यजाताय नमः ॥ इत्यादि छत्तीस मंत्र पीठिका मंत्रोंका हरएकका तीन तीन वार उच्चारण करें प्रत्येकके अंन्तमें, शाली, अन्न, दूध, घी, दूसरे खानेके पदार्थ, खोवा, शक्कर और केले इन सबको मिलाकर सूचीके द्वारा अन्नाहूत देवे । यह भी १०८ वार हो जाती है इसके बाद फिर छह घृताहूति पांचतर्पण और एक पर्युक्षण करे ॥ ५५ ॥ ॥अथ पूर्णाहुतिः ॥ ॐ तिथिदेवाः पञ्चदशधा प्रसीदन्तु । नवग्रहदेवाः प्रत्यवायहरा भवन्तु । भावनादयो द्वात्रिंशद्देवा इन्द्राः प्रमोदन्तु । इन्द्रादयो विश्वे दिक्पालाः पालयन्तु । अनीन्द्रमौल्युद्भवाऽप्यनिदेवता प्रसन्ना भवतु । शेषाः सर्वेऽपि देवा एते राजानं विराजयन्तु । दातारं तर्पयन्तु । संघ श्लाघयन्तु । वृष्टिं वर्षयन्तु । विघ्नं विघातयन्तु । मारी निवारयन्तु । ॐ ही नमोऽर्हते भगवते पूर्णज्वलितज्ञानाय सम्पूर्णफलार्ध्या पूर्णाहुतिं विदध्महे ॥ इति पूर्णाहुतिः ॥५६ ॥ “ॐ तिथिदेवाः ॥ इत्यादि मंत्रोंके द्वारा पूर्णाहूति देवे । पूर्णाहूतिमें फल और पूजाका द्रव्य होना चाहिए। पूर्माहूतिके मंत्र पूर्ण हों वहां तक बराबर एक सरीखी घीकी धार छोड़ता रहे ॥५६॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ततो मुकुलितकरः- ॐ दर्पणोद्योतज्ञानप्रज्वलित सर्वलोकप्रकाशक भगवन्नर्हन् ! श्रद्धां मेधां प्रज्ञां बुद्धिं श्रियं बलं आयुष्यं तेज आरोग्यं सर्वशान्ति विधेहि स्वाहा । एतत्पठित्वा सम्प्रार्थ्य शान्तिधारां निपात्य पुष्पाजलिं प्रक्षिप्य चैत्यादिभक्तित्रयं चतुर्विंशतिस्तवनं वा पठित्वा पञ्चाङ्गं प्रणम्य तद्दिव्यभस्म समादाय ललाटादौ स्वयं धृत्वा अन्यानपि दद्यात् ॥ ५७ ॥ १५३ इसके बाद हाथ जोडकर “ ॐ दर्पणोयोत " इत्यादि मंत्र पढ़े, प्रार्थना करे, शान्ति धारा दे, पुष्पांजलि क्षेपण करे, चैत्य वगैरह की तीन भक्ति अथवा चौवीस तीर्थकरोंकी स्तुति पढ़े और पंचांग नमस्कार कर होमकी दिव्य भस्मको लेकर ललाट वगैरह स्थानोंपर लगावे और औरोंकोभी देवे ॥५७॥ इति होमविधिं कृत्वा तत्रस्थां जिनप्रतिमां सिद्धायतनयन्त्राणि पूर्वनिर्मापितजिनगृहाभ्यन्तरे संस्थाप्य पुनः पुनर्नमस्कारं कृत्वा नित्यव्रतं गृहीत्वा देवान्विसर्जयेत् ॥ ५८ ॥ इस तरह होम विधिको करके होम स्थानमें लाकर विराजमान की हुई जिन प्रतिमा को और सिद्धादि यंत्रोंको जिनमन्दिर में स्थापन कर बारबार नमस्कार कर, नित्यव्रत ग्रहण कर, बाकीके सब देवोंका विसर्जन करे ॥ ५८ ॥ क्षेत्रपालादिकार्चन. ॐ ही क्रौ प्रशस्तवर्णाः सर्वलक्षणसम्पूर्णाः स्वायुधवाहनसमेताः क्षेत्रपालाः ! श्रियो गन्धर्वाः किन्नराः प्रेता भूताः सर्वे ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इमं सार्घ्यं चरुममृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृह्णीत गृहीत । इति क्षेत्रपालादिद्वारपालानभ्यर्चयेत् ॥ ५९ ॥ “ ॐ ह्रीँ ” इत्यादि मंत्र पढ़कर क्षेत्रपालादि द्वारपालोंकी पूजा करे अर्थात् गंधादि अष्टद्रव्यों का अर्ध, नैवेद्य, स्वस्तिक और यज्ञ भाग चढ़ावे ॥५९॥ वास्तुदेवतार्चन. ततो निजगृहाङ्गणमध्यदेशप्रकल्पितायां यथोचितायामविस्तारोत्सेधचतुरस्रवेदिकायां- ॐ ही क्रौं प्रशस्तवर्णाः सर्वलक्षणसम्पूर्णा यानायुधयुवतिजनसहिता वास्तुदेवाः । सर्वेऽपि ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा इदमर्घ्य चरुममृतमिव स्वस्तिकं यज्ञभागं गृह्णीत गृह्णीत | इति वास्तुदेवान् समर्चयेत् ॥ ६० ॥ 2. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित इसके बाद, अपने घरके बीच आंगनमें बनी हुई योग्य लम्बी, चौड़ी, ऊँची और चौकोन वेदीके ऊपर “ ॐ ह्रीं ॥ इत्यादि मंत्र पड़कर वास्तु देवोंका पूजन करे ॥ ६० ॥ तिथिदेवतार्थना ततस्तत्र-ॐ ही कौ प्रशस्तवर्ण सर्वलक्षणसम्पूर्ण मानायुधयुक्त्तिजनसहित यक्षदेव ! इदमयं बलिं गृहाण गृहाण इति प्रतिपदिने यक्षदेवं समचयेत् । द्वितीयायां तिथौ वैश्वानरं, तृतीयायां राक्षसं, चतुर्थी निति, पञ्चम्यां पन्नगं, षष्ठयामसुरं, सप्तम्यां सुकुमारं अष्टम्यां पितृदेवं, नवम्यां विश्वमालिनं, दशम्यां चमरं, एकादश्यां वैरोचनं. द्वादश्यां महाविद्यां त्रयोदश्यां मारदेवं, चतुर्दश्यां विश्वेश्वरं, पर्वान्ते पिण्डभुजं, एवं तत्तद्दिनेषु तिथिदेवता अभ्यर्चयेत् ॥ ६१॥ इसके बाद वहीं पर “ ॐ ह्रीं" इत्यादि मंत्र पढ़कर जिस दिन जो तिथि हो उसी देवताकी पूजा करे । अर्थात् प्रतिपत् ( पड़वा ) के दिन यक्षदेवकी, दौजको वैश्वानरकी, तीजको राक्षसोंकी, चौथको निक्रतिकी, पंचमीको पन्नगकी, छठको असुरकी, सप्तमीको सुकुमारकी, अष्टमीको पितृदेवकी, नवमीको विश्वमालिनीकी, दशमीको चमरकी, एकादशीको वैरोचनकी, द्वादशीको महाविद्याकी, त्रयोदशीको मारेदेवकी, चतुर्दशीको विश्वेश्वरकी, पर्वके अंत दिनको अर्थात् अमावास्या और पूर्णमासीको पिण्डभुजकी पूजा-सत्कार करे ।।६१ ॥ वारदेवतार्चन ततः-ॐ ही कौ प्रशस्तवर्ण सर्वलक्षणसम्पूर्ण यानायुधयुवतिजनसहित आदित्य ! इमं बलिं गृहाण गृहाण स्वाहा । एवं रवौ रविं, सोमे सोमं, भौमे भौम, बुधे बुध, बृहस्पतौ गुरु, शुक्रे शुक्र, शनौ शनि, एवमर्चयेत् ॥ ६२॥ इसके बाद “ॐ ही ” इत्यादि मंत्र पढ़कर रविवारको सूर्यकी, सोमवारको चन्द्रकी, मंगलको मंगलकी, बुधको बुधकी, बृहस्पतिको बृहस्पतिकी, शुक्रको शुक्रकी, और शनिको शनिकी पूजा करे ॥ ६२॥ ग्रहदेवतार्चन. ततो गृहिणी गृहाभ्यन्तरे पूर्वोक्तसत्यदेवता अर्हदादयः, क्रियादेवता अग्न्यादयः, गृहदेवता धनदाद्यः, कुलदेवताः पद्मावत्यादयः, एता. न्देवानचेयेत् मन्त्रपूर्वकम् । ततो द्वारपालान् पूजयेत् । जलाञ्जलिना पित्रदेवाँस्तर्पयेत् । इति गृहस्थानां नित्यकर्म ॥ ६३ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | १६५ . इसके बाद यजमानकी धर्मपत्नी अपने घरमें अर्हदादि सत्यदेवतोंकी, अभिआदि क्रिया देवोंकी, धनद आदि गृहदेवतोंकी और पद्मावती आदि कुलदेवतोंकी मंत्र पूर्वक पूजा करे, इसेके बाद द्वारपालोंकी पूजा करे, तथा जलाअलिसे पितृदेवोंका तर्पण करे । इस तरह गृहस्थोंका नित्य कर्म होता है ॥ ६३ ॥ एवं सुमन्त्रविधिपूर्वकमत्र कार्य, देवार्चनं सुखकरं जिनराजमार्गम् । कुर्वन्ति ये नरवरास्तदुपासकाः स्युः, स्वर्गापवर्मफलसाधनसाधकाश्च ॥ १ ॥ इस तरह मंत्रोंके द्वारा विधिपूर्वक सुख प्रदान करनेवाला देवार्चन करना चाहिए । जो पुरुष जिनराजके बताये हुए मार्गका अनुसरण-आचरण करते हैं वे उनके उपासक और स्वर्ग -मोक्षके फलोंके कारणों को साधनेवाले बन जाते हैं ॥ १ ॥ कर्मप्रतीतिजननं गृहिणां यदुक्तं श्रीब्रह्मसूरिवरविप्रकषीश्वरेण । सम्यक्तदेव विधिवत्प्रविलोक्य सूक्तं श्रीसोमसेनमुनिभिः शुभमन्त्रपूर्वम् ॥ २ ॥ श्री ब्रह्मसूरिने गिरिस्तोंको नित्य नैमित्तिकका ज्ञान होनेके लिए जो उपाय बताया है उसको अच्छी तरह देखकर शुभ मंत्रों पूर्वक, विधि सहित, मुझ सोमदेव मुनिने कहा है ॥ २ ॥ इति धर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारे पञ्चमोऽध्यायः । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . छठा अध्याय। अनन्तमहिमोपेतमनन्तगुणसागरम् । अनन्तसुखसम्पन्नमनन्तं प्रणमाम्यहम् ॥१॥ जो अनन्त महिमा युक्त हैं, अनन्त गुणोंके समुद्र हैं, और अनन्त सुख सम्पन्न हैं उन अनन्तनाथ परमात्माको मैं, नमस्कार करता हूं ॥१॥ अब जिन चैत्यालयका लक्षण बताते हैं शकुनं श्रीगुरुं पृष्ठवा जप्त्वा कर्णपिशाचिनीम् । तदुपदेशतः कुर्याज्जिनागारं मनोहरम् ॥ २ ॥ . अपने श्रीगुरुसे शकुन पूछकर और कर्णपिशाचिनी मंत्रको जपकर उन ( गुरु ) के उपदेशके अनुसार मनोहर जिनमन्दिर बनवावे ॥२॥ कर्णपिशाचिनी यंत्र। ..... यन्त्रं विलिख्य पूर्वोक्तविधिना कांस्यभाजने । तस्याग्रे तु जपं कुर्यात् काञ्जिकाहारभुक्तिमाक् ॥३॥ पोक्त विधान पूर्वक कांसीके वर्तनपर मंत्र लिखकर उस यंत्रके सामने जप करे । जप करनेवाला पुरुष उस दिन केवल काञिका-आहार करे ॥ ३ ॥ इस तरहका यंत्र बनवावे। ॐ जोगे मग्गे | ॐ ही सः हल्बी ह ही ॐ * यन्त्रस्थापना ॐ । | इति यन्त्रम् । अथ मंत्र:-ॐ जोगे भग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिनपार्वे श्री ही स्त्री कर्णपिशाचिनीं नमः । इति मन्त्रः यंत्रके सामने यह मंत्र जपे। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातीपुष्पसहस्राणि जप्त्वा द्वादश सदृशः। विधिना दत्तहोमस्य विद्या सिद्धयति वर्णिनः ॥४॥ उक्त मंत्रके जाति पुष्पोंद्वारा बारह हजार जाप करनेसे विधिपूर्वक होम करनेवाले सम्यग्दृष्टि ब्रह्मचारीको विद्या ( कर्णपिशाचनी मंत्र ) सिद्ध होती है ॥ ४ ॥ सानाहते मुनि मुखज्योतिःस्त्रीकारधीरिमाम् । जपन् शृणोति च पश्यत्यपि जाग्रच्छुभाशुभम् ॥५॥ अनाहत मंत्र युक्त ह्रीं इस अक्षरके मस्तकपर जिसके मुखकी ज्योति है और जिसका स्त्री जैसा आकार है रेसे इस कर्णपिशाचेनी मंत्रका जाप करनेवाला पुरुष अपने भावी शुभ-अशुभको जानता है और प्रत्यक्ष देखता है ॥ ५॥ जिन मन्दिरकी भूमिका लक्षण. भूपातालक्षेत्रपीठवास्तुद्वारशिलार्चनाः। कृत्वा नरं प्रविश्यारी न्यस्यात्रारोपयेद्ध्वजम् ॥६॥ जैन चैत्यालयं चैत्यमुत निर्मापयेच्छुभम् ।। वाञ्च्छन् स्वस्य नृपादेश्च वास्तुशास्त्रं न लक्षयेत् ॥ ७॥ भंपाताल, ( मंदिरकी नीब ) क्षेत्र, पीठ, वास्तु, द्वार, और शिला इनकी पूजा कर पुतला रखकर उसकी पूजा करे और यहाँपर ध्वजारोपण करे । अपने ओर राजा-प्रजाको शुभ की कामना करता हुआ जिन चैत्यालय और जिन प्रतिमा बनवावे । तथा वास्तु शास्त्रका उल्लंघन . न करे अर्थात् सब विधि वास्तुशास्त्रके अनुसार करे ॥ ६॥७॥ रम्ये स्निग्धां सुगन्धादिदूर्वाद्याढ्यां स्वतः शुचिम् । जिनजन्मादिना वाऽस्मै स्वीकुर्याद्भूमिमुत्तमाम् ॥८॥ ___ जो उत्तम रमणीय स्थान में हो, स्निग्ध हो, सुगन्ध आदि या दूर्वा (दूब) आदि संयुक्त हो, स्वयं पवित्र हो, अथवा-जिनेन्द्रके पंचकल्याण आदिसे पवित्र हो ऐसी उत्तम जमीन जिन मन्दिर बनवानेके लिये स्वीकार करे-पसन्द करे ॥८॥ उत्तम मध्यम और जघन्य भूमिकी परीक्षा. . खात्वा हस्तमधः पूर्णे गर्ने तेनैव पांसुना! तदाधिक्यसमोनत्वैः श्रेष्ठा मध्याऽधमा च भूः ॥९॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ सोमसेनभट्टात्काक्तिचित उस जमीनमें एक हाथ गहरा और एक हाथ चौड़ा एक गढ़ा खोदे और उसी मिट्टी से उस गढेको भरदे । यदि वह मिट्टी उस गढ़के भर जानेपर गढ़ेसे उंची रह जाय तो जमीन को उत्तम समझे, यदि मिट्टी गढ़ेके बराबर हो तो मध्यम और गढ़ेसे नीची रह जाय तो जघन्य समझे ॥ ९ ॥ प्रदोषे कटसंरुद्धतमिस्रायां च तद्भुवि । ॐ हूं फडित्यस्त्रमन्त्रत्रातायामामभाजने ॥१०॥ आमकुम्भोऽर्ध्वगे सर्पिः पूर्णे पूर्वादितः सिताम् । रक्तां पीतासितां न्यस्य वर्ति सर्वाः प्रबोध्य ताः ॥ ११ ॥ अनादिसिद्धमन्त्रेण मन्त्रयेदाघृतक्षयात् । शुद्धं ज्वलन्तीषु शुभं विध्यातीष्वशुभं वदेत् ॥ १२ ॥ ॐ हूं फट् इति अस्त्रमन्त्रः । ॐ णमो अरहंताणमित्यादि धम्मो सरणं पव्वज्जामिपर्यन्तं न्हौं शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा इत्यनादिमन्त्रः । जमीनको भी बुरी जाननेका दूसरा उपाय यह हैं कि सूर्यास्त हो जानेपर जब कुछकुछ अन्धेरा छा जाय तब थोड़ीसी जमीनके चारों और परकोटेके मानिन्द चटाई बांध दे जिससे उसमें हवा का प्रवेश न हो सके । बाद उस जमीनपर “ ॐ हूँ फट् ” यह अस्त्र मंत्र लिखे उसके ऊपर एक मिट्टीका कच्चा घड़ा रख कर उस घड़ेपर एक कच्चा मिट्टीका दिया रख दे. उस दियेको घीसे लबालब भरदे, और उसमें पूर्व दिशामें सफेद, दक्षिण दिशामें लाल, पश्चिम दिशा में पीली और उत्तर दिशामें काली बत्ती धरकर सब बत्तियोंको जलावे और उन्हे अनादि सिद्धमंत्र के द्वारा मंत्रित करदे। यदि घृत निबटने तक वे बत्तियां साफ जलती रहें तो जमीनको शुभ समझे और यदि बुझती हुई मालूम पड़ें तो अशुभ समझे ॥ १०॥११॥१२॥ 66 ॐ हूँ फट् " यह अस्त्र मंत्र है । णमो इत्यादि अनादि मंत्र है । पातालवास्तुपूजन । एवं संगृह्य सद्भूमिं सुदिनेऽभ्यर्च वास्त्वधः । संशोध्याध्यर्धमम्भोभिः प्राग्धरावधि वा तथा ॥१३॥ पातालवास्तु सम्पूज्य प्रपूर्याभ्याप्य तां समात् । प्रासाद लोकशास्त्रज्ञो दिशः संशोध्य सूत्रयेत् ॥ १४ ॥ इस प्रकार जमीनकी परीक्षा कर अच्छे मुहूर्तमें उसकी पूजा करे। बाद उस जमीनको पान सींच कर शुद्ध करे । उसमें एक खड्डा खोदे । उस खड्डेमें पाताल वास्तुकी पूजा करे | बाद छोटेछोटे 1 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वर्णिकाचार । पत्थरके टुकडोंसे उस गढेका पूरकर उसे पहली जमीनके बराबर समतल कर दे । इस प्रकार लोक व्यवहार और वास्तुशास्त्रको जाननेवाला गिरस्त दिशाओंका विचार कर जिनमन्दिर बनवाना आरंभ करे ॥ १३॥१४॥ प्रतिष्ठादिषु शास्त्रेषु यदुक्तं गेहलक्षणम् । तेन मार्गेण संस्कुर्याजिनागारं शुभावहम् ॥ १५॥ प्रतिष्ठादिशास्त्रोंमें जो मकान बनवानेका लक्षण कहा गया है. उसीके अनुसार शुभको देनेवाला जिनमन्दिर बनवावे ॥१५॥ मूलेषु पारदं क्षिप्त्वा श्रीखण्डं कुंकुमं तथा । प्रथमं स्थापयेद्गर्भ कोणेषु च चतुष्टयम् ॥१६॥ तेषामुपरि संस्थाप्य शिलाः पञ्च यथाक्रमम् । पृथमन्त्रैश्च सम्पूज्य.पश्चानां परमेष्ठिनाम् ॥१७॥ दानं तप्तादियुक्तानां दत्वा सम्मानपूर्वकम् । सर्वविघ्नोपशान्त्यर्थं स्वक्षेत्रे भ्रामयेदलिम् ॥ १८ ॥ पाया भरनेके पत्थर रखनेकी जगहपर पारा, घिसाहुआ चन्दन, तथा कुंकुंम रखकर उनके ऊपर यथाक्रमसे पांच पत्थर रक्खे उनमेंसे एक पत्थर उठा कर प्रथम मध्यमें रक्खे. और चार पत्थर जुदा जुदा चारों कोनों में रक्खे बाद पंच परमेष्ठीकी पृथक् पृथक् मंत्रोद्वारा पूजा कर कारीगरोंको आव-आदरपूर्वक इनाम देकर सारे विघ्नोंकी शान्तिके लिए उस क्षेत्रकी पूजा करे ॥ १६॥१७॥१८॥ पीठबन्धं ततः कुर्यात्प्रासादस्यानुसारतः। आदौ गर्भगृहं द्वारे ततः मूत्रनिवासकम् ॥ १९॥ ततो मण्डपविन्यासं वेदिकास्थानमुत्तमम् । . द्वारादहिश्चतुःपार्वे चित्रशालां मनोहराम् ॥ २० ॥ व्याख्यानकारणस्थानं नाट्यशालां विचित्रिताम् । वाद्यनिर्घोषकास्थानं मानस्तम्भं मनोहरम् ॥ २१ ॥ इत्यादिलक्षणोपेतं जिनगेहं समाप्य च ।। जिनबिम्बार्थमानेतुं गच्छेच्छिल्पिसमन्वितः ॥ २२ ॥ . सुमुहूर्ते सुनक्षत्रे वाद्यवैभवसंयुतः। प्रसिद्धपुण्यदेशेषु नदीनगवनेषु च ॥ २३॥ सुस्निग्धां कठिनां चैव सुखदां सुस्वरां शिलाम् । समानीय जिनेन्द्रस्य बिम्बं कार्य सुशिल्पिभिः ॥२४॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित पश्चात्, जिनमन्दिरकी लंबाई चौड़ाईके अनुसार पीठबन्ध अर्थात् वेदी रखने के लिए एक चबूतरा बनवाले । बाद सबसे पहले गर्भागार तैयार कराया जाय । इसके बाद क्रमसे दरवाजे, सूत्रनिवासनामका स्थान, मण्डप, और वेदिका बनवावे । मण्डपके दरवाजोंसे बाहर चारों पसवाडोंमें एक मनोहर चित्रशाला, शास्त्र-व्याख्यान स्थान (स्वाध्याय शाला ), हरएक प्रकारके चित्रामोंसे चित्रित एक नाट्यशाला, वायशाला (बाजे बजानेका स्थान ) और एक सुन्दर मानस्तंभकी रचना करावे । इत्यादि सुलक्षणोंसे भरापूरा जिनमदिर बनवावे । जब भन्दिर बनकर पूर्ण होजाय तब कारीगारोंको साथ लेकर अच्छे मुहूर्तमें गाजे बाजे और उत्तम ठाट-बाट के साथ जिनबिंब बनवानेके लिए शिला लानेको जावे। प्रसिद्ध प्रसिद्ध पुण्यस्थानोंमें घूमकर नदी, पर्वत और वनमें जाकर, अच्छी चिकनी, कठिन, सुखदेनेवाली, बजानेसे जिसमें सुर अच्छा निकलता हो ऐसी उत्तम शिला लाकर उसे जिनबिंब बनवाने के लिए अच्छे शिल्पिकारोंके सिपुर्द करे ॥ १९॥ जिनबिंबलक्षण. कक्षादिरोमहीनाङ्गश्मश्रुरेखाविवर्जितम् । स्थितं प्रलम्बितहस्तं श्रीवत्साढ्यं दिगम्बरम् ॥ २५ ॥ पल्यङ्कासनं वा कुर्याच्छिल्पिशास्त्रानुसारतः । निरायुधं च निःस्त्री भ्रूक्षेपादिविवर्जितम् ॥ २६ ॥ निराभरणकं चैव प्रफुल्लवदनाक्षिकम् । सौवर्ण राजतं वाऽपि पैत्तलं कांस्य तथा ॥ २७ ॥ प्रावालं मौक्तिकं चैव वैडूर्यादिसुरत्नजम् । चित्रजं च तथा लेप्यं कचिचन्दनजं मतम् ॥ २८ ।। प्रातिहायोष्टकोपेतं सम्पूर्णावयवं शुभम् ।। भावरूपानुविद्धाङ्गं कारयेद्विम्बमर्हतः ॥ २९ ।। जो जिनबिंब तैयार कराया जाय वह इन लक्षणोंसे युक्त होना चाहिए. जिनबिंबके कूख आदि स्थानोंमें बालोंके चिन्ह न हों, हजामत वगैरह की रेखा न हो, खड्गासनहो, जिसके दोनों हाथ सीधे लम्बे लटकते हुए हों, श्रीवत्स चिन्हवाला हो, दिगम्बर हो, अथवा खड्गासन न हो तो पल्यकासन (पद्मासन) हो अर्थात् खड्गासन या पद्मासन इन दोनों से कोई सा आकारवाला हो यह नहीं कि खगासन ही हो या पद्मासन ही हो, जिसकी रचना शिल्पशास्त्रके अनुसार हो, गदा तोमर आदि आयुधोंसे रहित हो, स्त्री रहित हो, भ्र-क्षेप आदि दोषोंसे रहित हो, आभरण आदि से रहित हो, जिसका चेहरा और नैत्र प्रफुल्लित हो, वह जिनबिंब चाहे पत्थरका हो, चाहे सोना, चांदी, पीतल, कांसा, प्रवाल, मोती और अच्छे २ वैडूर्यादि रत्नोंका हो । तथा चित्रज-चित्रको लेप्य-मन्दिरकी दिवालपर चित्रामकी बनीहुई और कहीं कहीं चन्दनकी प्रतिमा भी मानी गई Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । है, छत्र चामर आदि आठ प्रातिहार्योंसे युक्त हो, जिसके शारीरिक अवयव परिपूर्ण और शुभ हों, देखनेमें ऐसा हो कि जो मनुष्योंके भावोंको अपनी ओर खेंचती हो अर्थात् वीतरागता को लिए हुए हो ॥ २५॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९॥ प्रातिहाविना शुद्धं सिद्धबिम्बमपीदृशम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम् ॥ ३० ॥ ... प्रातिहार्य को छोड़ सिद्ध-बिम्ब भी ऐसाही होना चाहिए । तथा आचार्य उपाध्याय और साधुओं की प्रतिमा भी आगमके अनुसार ऐसीही होनी चाहिए ॥३०॥ वामे च यक्षीं बिभ्राणं दक्षिणे यक्षमुत्तमम् । नवग्रहानधोभागे मध्ये च क्षेत्रपालकम् ॥ ३१ ॥ यक्षाणां देवतानां च सर्वालङ्कारभूषितम् । स्ववाहनायुधोपेतं कुर्यात्सर्वाङ्गसुन्दरम् ॥ ३२ ॥ उस अर्हन्तकी प्रतिमाके बाई ओर यक्षी हो, दाहिनी ओर यक्ष हो, प्रतिमाके नीचले भागमें नवग्रह हों, पीठके मध्यमें क्षेत्रपाल हो। तथा यक्षों और यक्षियों की प्रतिमा सम्पूर्ण अलंकारोंसे सजी हुई, अपने अपने वाहन और आयुधोसे युक्त सर्वांग सुन्दर बनावे ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ लक्षणैरपि संयुक्तं विम्ब दृष्टिविवर्जितम् । न शोभते यतस्तस्मात्कुदृष्टिप्रकाशनम् ॥ ३३ ॥ यदि प्रतिमा उक्त लक्षणोंसे युक्त हो परन्तु उसकी दृष्टि-नजर ठीक ठीक न हो तो वह देखने में सुन्दर नहीं लगती है, इस लिए प्रतिमा की दृष्टि स्पष्ट बनवाना चाहिए ॥ ३३ ॥ प्रतिमाकी दृष्टि व हीनाधिक अंग-उपांगका फल । अर्थनाशं विराधं च तिर्यग्दृष्टेभयं तदा । अधस्तात्पुत्रनाशं च भार्यामरणमूर्ध्वदृक् ॥३४॥ शोकमुद्वेगसन्तापं सदा कुर्याद्धनक्षयम् । शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थ शान्तिवृद्धिप्रदानहक् ॥ ३५ ॥ सदोषा च न कर्तव्या यतः स्यादशुभावहा । कुर्याद्रौद्री प्रभो शं कृशाङ्गी द्रव्यसंक्षयम् ॥ ३६ ॥ संक्षिप्ताङ्गी क्षयं कुर्याचिपिटा दुःखदायिनी । .. विनेत्रा नेत्रविध्वंसी हीनवक्त्रा त्वभोगिनी ॥ ३७॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित व्याधि महोदरी कुर्याद्धृद्रोगं हृदये कशा । अङ्गहीना सुतं हन्याच्छुष्कजङ्घा नरेन्द्रहा ॥ ३८ ॥ पादहीना जनं हन्यात्कटिहीना च वाहनम् । ज्ञात्वैवं पूजयेज्जैनी प्रतिमां दोषवर्जिताम् ॥ ३९॥ प्रतिमा की दृष्टि यदि टेढ़ी हो तो प्रतिमा बनवाने वालेके धनका नाश होता है, सबसे वैर विरोध पड़जाता है, और उसको नाना प्रकारके भय उत्पन्न होते रहते हैं । यदि उसकी दृष्टि नीचेको हो तो पुत्रका नाश होता है, यदि दृष्टि ऊपरको हो तो स्त्रीका मरण होता है, और वह शोक, उद्वेग सन्ताप और धनका क्षय करती है । यदि प्रतिमा शान्त हो तो वह सौभाग्य और पुत्रोत्पत्तिके लिए और शान्तिको बढानेवाली होती है; सदोष प्रतिमा कभी न बनवाना चाहिए, क्योंकि वह अशुभ करनेवाली होती है । रुद्राकार प्रतिमा स्वामीका नाश करनेवाली और कृश अंगवाली प्रतिमा द्रव्यका क्षय करनेवाली होती है । सिकुडे हुए अंगवाली प्रतिमा कुलका क्षय करती है, चिपटी दुःख करनेवाली होती है, नेत्ररहित प्रतिमा नेत्रका विध्वंस करनेवाली होती है । मुखरहित प्रतिमा भोगोंको हरण करने वाली होती है । बड़े पेटवाली व्याधि उत्पन्न करती है, हृदयमें कृश प्रतिमा हृदयमें रोग पैदा करती है, अंगहीन प्रतिमा पुत्रका नाश करती है, शुष्क जंघावाली राजाका घात करनेवाली होती है पैरहीन प्रतिमा मनुष्योंका क्षय करती है। कटिहीन प्रतिमा सवारीके वाहन आदिका क्षय करनेवाली होती है। इस लिए इन सब दोषोंको जानकर जैनियोंको निर्दोष प्रतिमाकी पूजा करना चाहिए ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ प्रतिष्ठां च यथाशक्ति कुर्याद्गुरूपदेशतः । स्थिरं चानुचलं बिम्बं स्थापयित्वात्र पूजयेत् ॥ ४० ॥ गुरुके उपदेशानुसार अपनी शक्ति-माफिक प्रतिमा बनवावे । तथा स्थिर किंवा चल प्रतिमाकी स्थापना कर उसकी पूजा करे ॥४०॥ गिरस्तोंके घरोंमें रखने योग्य प्रतिमा। द्वादशांगुलपर्यन्तं यवाष्ठांशादितः क्रमात् । स्वगृहे पूजयेगिम्बं न कदाचित्ततोधिकम् ॥ ४१ ॥ अपने घरमें यवके आठवें भागको आदि लेकर क्रमसे बारह अंगुलपर्यन्तकी प्रतिमाकी पूजा करें इससे अधिक आकारवाली प्रतिमाकी घरमें पूजा कभी न करे । भावार्थ-घरमें प्रतिमा कमसे कम जौके आठवें हिस्से प्रमाण और जियादासे जियादा बारह अंगुल-एक वेंत प्रमाण विराजमान करे इससे अधिक नहीं ॥४१॥ १ न वितस्त्यधिकां जातु प्रतिमा स्वगृहेऽर्चयेत् । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचा चैत्यालयस्य चैत्यस्य लक्ष्म संक्षेपतो मया । वर्णितं च ततो वक्ष्ये वन्दनादिविचारकम् ॥ ४२ ॥ यहां तक चैत्य और चैत्यालयका लक्षण संक्षपसे कहा गया, अब इसके आगे वन्दना आदिका विचार करते हैं ॥ ४२ ॥ होमशालासे उठकर चैत्यालय - मन्दिरको जावे । तस्मात्स्वस्थमनीभवन् भवभयाद्भीतः सदा धार्मिको मध्येनागरिकं जिनेन्द्रभवनं घण्टाध्वजाभूषितम् । धर्मध्यानपरास्पदं सुखकरं सद्द्रव्यपूजान्वित ईर्यायाः पथशोधयन् स यतिवद्देहाद्व्रजेच्छ्रावकः ॥ ४३ ॥ १६३ होम आदि से स्वस्थ चित्त हो कर, संसारके सम्पूर्णभयोंसे हमेशह डरता हुआ, धार्मिक गिरस्त, उत्तम पूजासामग्री साथमें लेकर ईर्याीपथशुद्धिपूर्वक, नगरके बीचमें बने हुए, घंटा-वजाओं से सुसज्जित, धर्म्ययानके करनेका उत्कृष्ट स्थान, सुखको करनेवाले जिनचैत्यालयको महामुनिकी तरह अपने घरसे रवाना होवे ॥ ४३ ॥ बहिर्द्वारे ततः स्थित्वा नमस्कारपुरस्सरम् । संस्तुयाच्छ्रीजिनागारं परमानन्दनिर्भरम् ॥ ४४ ॥ वहां पहुंचकर जिनमंदिरको नमस्कार करे और बाहर दरवाजेपर खड़ा रह कर परम आनंद करनेवाले श्रीजिन- चैत्यालयकी स्तुति करे ॥ ४४ ॥ सपदि विजितमारः सुस्थिताचारसारः क्षपितदुरितभारः प्राप्तसद्बोधपारः । सुरकृतसुखसारः शंसितश्रीविहारः परिगतपरपुण्यो जैननाथो मुदेऽस्तु ।। ४५ ।। वे जिन भगवान् मेरे कल्याणके करनेवाले होवें । जिनने क्षणभरमें कामदेवको अपने काबू में कर लिया है. जो सम्यक् आचरणपर आरूढ हो चुके हैं, जिनने चार घातियारूप महापापके बोझको अपनेसे अलहदा कर दिया है, जो सद्बोध के पारको पाचुके हैं, जिनके लिए देवोंके द्वारा सुख-सामग्री जुटाई जाती है, जिनका विहार अत्यन्त प्रशंसनीय है और जिनने उत्कृष्ट पुण्य प्राप्त किया है। यह श्लोक पढ़कर नमस्कार करे ॥४५॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सोमसेनभट्टारकविरचितं उच्चैर्गोपुरराजितेन सुवृतं सालेन रम्बेन वै शालामण्डपतोरणान्वितवरं श्रीभव्यसंधैर्भृतम् । गीतैर्वाद्यनिनादगर्जनिवहैः शोभापरं मंगलम् जैनेन्द्रं भवनं गिरीन्द्रसदृशं पश्येत्ततः श्रावकः || ४६ ॥ इसके बाद वह श्रावक, ऊंचे ऊंचे दरवाजोंसे सुशोभित, मनोहर परकोटेसे बेढ़े हुए, शाला मण्डप और तोरणसे युक्त, भव्य समूहों से खचाखच भरे हुए, गीत बाजे वगैरह के शब्दों से गुंजार करते हुए, परम रमणीय, मंगलस्वरूप, सुमेरुके समान ऊंचे श्रीजिनमन्दिरका अवलोकन करे ॥ ४६ ॥ चैत्यालय स्तुति । कुसुमसघनमाला धूपकुम्भा विशालाश्रमरयुवतिताना नर्तकी नृत्यगाना | कनककलशकेतूत्तुङ्गशृङ्गाग्रशाला सुरनरपशुसिंहा यत्र तिष्ठन्ति नित्यम् ॥ ४७ ॥ जिसमें, दरवाजों पर फूलोंकी मालाएं लटक रही हैं, बड़े बड़े धूप-घट जहांपर रक्खे हुए हैं, युवतियाँ चमर ढौर रही हैं, नाचनेवालियां नाच रही हैं और मंगलगान कर रही हैं, जिसके उंचे शिखरपर सोनेकें कलश चढे हुए हैं, ध्वजाएँ फहरी रही हैं, जिसमें देव मनुष्य पशु सिंह आदि सब जातिके प्राणी अपना अपना वैरभाव छोड़ कर एक जगह निरन्तर बैठते हैं ॥ ४७ ॥ श्रीमत्पवित्रमकलङ्कमनन्तकल्पं स्वायम्भुवं सकलमंगलमादितीर्थम् । नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनानां त्रैलोक्यभूषणमहं शरणं प्रपद्ये ॥ ४८ ॥ जो परम पवित्र है, बुरे कर्मोंसे रहित निर्दोष है, अनन्त कल्पपर्यन्त परमात्मा के रहनेका स्थान है, सकल मंगलों में उत्तम मंगल है, मुख्य तीर्थस्थान है, जिसमें निरन्तर उत्सव होते रहते हैं, जो अच्छे अच्छे मणियोंका बनाया गया है और तीन लोकका भूषणभूत है, ऐसे जिन चैत्यालयकी शरणको आज मैं प्राप्त हुआ हूं ॥४८॥ जयति सुरनरेन्द्र श्रीसुधानिर्झरिण्याः कुलधरणिधरोऽयं जैनचैत्याभिरामः । प्रविपुल फलधर्मानो कहाग्रप्रवालप्रसरशिखरशुम्भत्केतनः श्रीनिकेतः ॥ ४९ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो देवों और राजाओंकी विभूतिरूपी अमृतकी नदीके निकलनेका कुलपर्वत है, जिनप्रति माओंसे अत्यन्त शोभायमान है, जिसके शिखरपर जो धुजाएं फर्रा रही हैं वे ऐसी जान पडती हैं मानों बड़े बड़े फलोंके मारसे झुकहुए धर्मरूपी कल्पवृक्षकी नवीन कोमल कौंपलें ही चारों ओर फल रही हो और जो लक्ष्मीका निवास स्थान है ऐसा श्रीजिनमान्दर जयवंत रहे ॥ ४९ ॥ मन्दिर प्रवेश। इत्यादिवर्णनोपेतं जिनेन्द्रभवनं गृही। गत्वोपविश्य शालायां पादौ प्रक्षालयेत्ततः ॥ ५० ॥ इत्यादि वर्णनासे युक्त श्री जिनमन्दिरमें जावे और स्नानशालामें बैठ कर पैर धोवे ॥ ५० ॥ वारत्रयं चेतसि निःसहीति शब्दं गिरा कोमलया नितान्तम् । समुच्चरन् द्वारत एव भक्त्या जैनं निरीक्षेत दृशा सुबिम्बम् ॥ ५१॥ श्री जिनमंदिरके दरवाजेमें प्रवेश करतेही अपने निर्मल हृदयमें तीन वार निसही इस शब्दका अत्यन्त कोमल वाणीद्वारा उच्चारण करता हुआ श्री जिनप्रतिबिंबका अपने नेत्रोंसे निरीक्षण करे ॥५१॥ त्रिःपरीत्य जिनबिम्बमुत्तमं हस्तयुग्ममुपधाय भालके । निन्दयनिजमनेकदोषतः स्वैर्गुणैर्जिनवरं स्तुयात्सुखम् ।। ५२ ॥ बाद श्री जिनबिंबके तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगा कर दोनों हाथोंको सिरपर रख कर नमस्कार करे । और अपनी अनेक शेषोंसे भरपूर निन्दा करता हुभा उत्तम गुणोंद्वारा श्री जिनेन्द्रका यशोगान करे ॥५२॥ द्वारपालाँश्च सन्मान्य हीनाधिकान्स्वतःपरान् । कृत्वाऽन्तर्वामभागेषु स्थित्वा संस्तूयते जिनः ॥५३॥ इसके बाद, द्वारपालोंका सत्कार करे और अपनेसे भिन्न जो दर्शक गण हैं उन्हे बाई और लेकर भीतर गर्भागारमें जावे और वहांपर खड़ा रह कर श्री जिनदेवकी इस प्रकार स्तुति पढे (?)॥ ५३ ॥ ... श्रीजिन-स्तुति । शान्तं ते वपुरेतदेव विमलं भामण्डलालंकृतं पाणीयं श्रुतिहारिणी जिनपते ! स्याद्वादसद्दर्शना । वृत्तं सर्वजनोपकारकरणं तस्मात् श्रुतज्ञाः परे त्वामेकं शरणं प्रयान्ति सहसा संसारतापच्छिदे ॥५४॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉદ્દેદ सोमसेनभट्टारकविचित हे जिनपते ! यह आपका शरीर अत्यन्त शान्त है, पापोंसे रहित निर्मल है, और प्रभामण्डलसे अलंकृत है । यह आपकी दिव्यध्वनि कानोंको अपनी ओर आकर्षण करनेवाली है, और स्याद्वाद के स्वरूपको हाथमें रक्खे हुए आवलेकी तरह दिखलाती है । तथा आपका यह निर्मल आचरण सारे संसारी जनोंका उपकार करनेवाला है। इस लिए शास्त्रोंके जानकर और और मनुष्य भी, संसारके सन्तापका उच्छेद करनेके लिए अकेले आपकी शरण आते हैं ॥ ५४ ॥ स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननीगर्भान्धकूपोदरादोद्घाटितदृष्टिरस्मि फलवज्जन्माऽस्मि चाद्य स्फुटम् । त्वामद्राक्षमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयीनेत्रेन्दीवरकाननेन्दुममृतस्यन्दिनमाचन्द्रकम् ॥ ५५ ॥ हे स्वामिन् ! तीन लोकवर्ती मनुष्योंके नेत्र-कमल-वन के विकास करने को चन्द्रमाके समान और अमृत बरसानेवाली प्रभायुक्त चंद्रिकारूप आपका जब मैं अक्षय सुखकी प्राप्तिके लिए दर्शन करता हूं तब मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मानों मैं आज माता के गर्भरूपी अन्धकारमय कुए से निकलकर बाहर आया हूं, आज मैंने अपने नेत्र खोले हैं और आज मेरा जन्म सलफ हुआ है ॥ ५५ ॥ दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं दृष्टं सिद्धिरसस्य स सदनं दृष्टं तु चिन्तामणेः । किं दृष्टैरथवानुषङ्गिकफलैरेभिर्मयाऽद्य ध्रुवं दृष्टं मुक्तिविवाहमङ्गलमिदं दृष्टे जिनश्रीगृहे ॥ ५६ ॥ हे देव ! मैने कठिन से कठिन रोगोंको नष्ट-भ्रष्ट कर देनेवाला रसायन गृह देखा, भारी से भारी निधियोंका स्थान देखा, सिद्धिरसका महल देखा, चिन्तामणिका उत्तम स्थान देखा किन्तु इन आनुषंगिक फलोंको देनेवाली चीजोंके देखनेसे प्रयोजन ही क्या है ? प्रयोजन मूल तो यह है कि आज मैने श्री जिनमन्दिर देखा है सो ऐसा भासता है कि मुक्तिरूपी स्त्रीका विवाह मंगल देख लिया है ॥ ५६ ॥ afe प्रभुता विराजमाने नेत्रे इतः सफलतां जगतामधीश । चित्तं प्रसन्नमभवन्मम शुद्धबुद्धं तस्मात्वदीयमघहारि च दर्शनं स्तात् ॥ ५७ ॥ हे तीन जगतके अधिपति जिन ! अपने प्रभुत्वरूपसे विराजमान हुए आपको देख लेनेपर ये मेरे दोनों नेत्र सफल हो जाते है और मेरा मन शुद्ध और ज्ञानरूप हो कर अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसलिए पापको अड़मूलसे खोद कर फेंक देनेवाला आपका दर्शन मुझे निरन्तर होता रहे ॥ ५७ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. .त्रैवर्णिकाचार। १६७ सैषा घटी स दिवसः स च मास एव प्रातस्तथापि वरपक्ष इहास्तु सोऽपि । यत्र त्वदीयचरणाम्बुजदर्शनं स्यात् साफल्यमेव वदतीह मुखारविन्दम् ।। ५८ ॥ हे जिन ! जिस समय आपके चरणकमलोंका दर्शन होवे वही घड़ी, वही दिन, वही महीना वही प्रातःकालका समय और वही पखवाड़ा इस जगत मै निरन्तर बना रहे क्योंकि आपका यह .मुखकमल मेरे जन्मकी सफलताको कह रहा है ॥५८॥ . नेत्रे ते सफले मुखाम्बुजमहो याभ्यां सदा दृश्यते । जिह्वा सा सफला यया गुणतया त्वदर्शनं गीयते । तौ पादौ सफलौ च यौ कलयतस्त्वदर्शनायोद्यतं तञ्चेतः सफलं गुणास्तव विभो ! यञ्चिन्तयत्यादरात् ॥ ५९॥ हे देव ! नेत्र वेही सफल हैं जिनसे हमेशह आपका मुखकमल देखा जाता है । जिव्हा वही सफल है जिससे आपका यशोगान किया जाता है । पैर वेही सफल हैं जो आपके दर्शनोंके लिए उद्यत रहते हैं और चित्त भी वही सफल है जो बड़े चावसे आपके गुणोंका चिन्तवन करता है ॥ ५९॥ दर्शनं तव सुखैककारणं दुःखहारि यशसेऽपि गीयते । सेवया जिनपतेरहर्निशं जायतां शिवमहो तनूमताम् ॥६०॥ हे विभो ! आपका दर्शन अनिर्वचनीय सुखका कारण है । दुःखका हरण करनेवाला है और दिग्दिगान्तरोंमें कीर्ति फैलानेवाला है। इसलिए हे जिन ! रात-दिन आपकी सेवा करनेसे प्राणियोंका कल्याण होवे ॥६०॥ इत्यादिस्तवनैः स्तुत्वा जिनदेवं महेश्वरम् । भवेत्सन्तुष्टचित्तोऽसावुपात्तपुण्यराशिकः ॥६१॥ इत्यादि स्तवनों द्वारा परमात्मा जिन देवकी स्तुति कर जिसने भारी पुण्यका उपार्जन किया है ऐसा यह भव्य पुरुष परमसन्तोष धारण करे ॥ ६१॥ द्वारपालसे अनुज्ञा लेनेका मंत्र । ॐ ही अर्ह द्वारपालाननुज्ञापयामि स्वाहा । यह द्वारपालसे प्रार्थना करनेका मंत्र है, इसे पढ़ कर द्वारपालसे आज्ञा लेवे। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमहारकादिराचेत चैत्यालयप्रवेशमंत्र। ॐ ही अहं निःसही निःसही रत्नत्रयपुरस्सराय विद्यामण्डलनिवेशनाय समयाय निःसही जिनालयं --प्रविशमि स्वाहा । जिनालय प्रवेशः।इसे पढ़कर जिनालयमें प्रवेश करे । गंधोदकसेंचनमंत्र। ॐ ही पविलं गन्धोदकं शिरसि परिषचयामि स्वाहा । गन्धोदकपरिषेचनम् । इस मंत्रको पढ़कर शिरपर गन्धोदक छिड़के। .. . नमस्कारविधि। उर्ध्वाधो वस्त्रयुक्तः सन् स भूमौ श्रीजिनाधिपम् । नमेत्साष्टांगविधिना पञ्चांगविधिनाऽथवा ॥ ६२ ॥ धोती-दुपट्टेसे युक्त वह श्रावक, जमीनपर, श्री जिनदेवको साष्टांग अथवा पंचांग नमस्कार करे ॥ ६२॥ पश्वर्द्धशय्यया यद्वा प्रणामः क्रियते बुधैः । भक्त्या युक्त्या स्थलं दृष्ट्वा यथावकाशकं भवेत् ॥ ६३ ॥ अथवा पश्वर्ध शय्यासे, भक्तिपूर्वक योग्य रीतिसे वह बुद्धिमान जिनदेवको प्रणाम करे । सो जैसा अवकाश हो वैसा स्थान देखकर नमस्कार करे ॥६३९. अष्टांग नमस्कार। हस्तौ पादौ शिरश्चोरः कपोलयुगलं तथा । अष्टांगानि नमस्कारे प्रोक्तानि श्रीजिनागमे ॥ ६४ ॥ दोनों हाथ, दोनों पैर, शिर, छाती, और दोनों कपोल ये आठ अंग नमस्कार करनेमें, जिनागममें कहे गये है। अर्थात् इन आठ अंगोंसे नमस्कार करे । भावार्थ-इन आठ अंगोंको जमीनपर टेक कर नमस्कार करनेको साष्टांग नमस्कार करते हैं ॥ ६४॥ . . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ maramani पंचांग और पश्वर्ध नमस्कार । मस्तकं जानुयुग्मं च पञ्चाङ्गानि करौ नतौ। अत्र प्रोक्तानि पश्वर्द्धं शयनं पशुवन्मतम् ॥६५॥ मस्तक, दोनों घुटने और दोनों हाथ इस तरह ये पांच अंग नमस्कारमें कहे गये हैं अर्थात् इन पांचों अंगोंको जमीनपर टेककर नमस्कार करना सो पंचांग नमस्कार है । और पशुकी तरह सोनेको पश्वर्ध नमस्कार कहते है ॥६५॥ भुवं सम्माये वस्त्रेण साष्टांगनमनं भवेत् । पदद्वन्द्वं समं स्थित्वा दृष्टया पश्येज्जिनेश्वरम् ॥ ६६ ॥ कपड़ेसे जमीनका मार्जन कर साष्टांग नमस्कार करे । इस तरह नमस्कार कर लेनेपर दोनों पैरोंको बराबर कर खड़ा रह कर आखोंसे जिनेश्वरको देखे । इसके बाद---- ॥ ६६ ॥ संयोज्य करयुग्मं तु ललाटे वाऽथ वक्षसि । न्यस्य क्षणं नमेत्किंचिद्भूत्वा प्रदक्षिणी पुनः ॥ ६७ ॥ दोनों हाथोंको जोड़ कर ललाटपर अथवा वक्षस्थलपर रख कर थोड़ासा नीचा झुक कर नमस्कार करे और प्रदक्षिणा देकर पुनः नमस्कार करे ॥ ६७ ॥ __ अष्टांग नमस्कार विधि। वामपादं पुरः कृत्वा भूमौ संस्थाप्य हस्तकौ । पादौ प्रसार्य पश्चात् द्वौ शयेताधोमुखं शनैः ॥ ६८ ॥ सम्प्रसार्य करद्वन्द्वं कपालं स्पर्शयेद्भवम् । कपोलं सर्वदेहं च वामदक्षिणपार्श्वगम् ॥ ६९ ॥ पुनरुत्थाय कार्य त्रिवारं मुखे स्तुतिं पठन् । समस्थाने समाविश्य कुर्यात्सामायिकं ततः ॥ ७० ॥ प्रथम बायें पैरको आगे कर दोनों हाथोंको जमीनपर टेक दे पश्चात् दोनों पैरोंको पसारकर धीरेसे नीचा मुख कर सोवे । इसके बाद दोनों हाथोंको पसार कर मस्तकसे भूमिका स्पर्शन करे। इसके बाद दोनों कपोलों तथा बांये दाहिने पसवाड़ोसे भूमिका स्पर्श करे । पश्चात् खड़ा होकर फिर नमस्कार करे फिर खड़ा होवे और फिर नमस्कार करे इस तरह तीन वार नमस्कार कर खड़ा होकर जिन भगवानकी स्तुति पढ़े । इसके बाद बराबर जगहपर बैठकर सामायिक करे ॥६८॥६९॥७०॥ २२ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित जिनपूजा ततः कार्या शुभैरष्टविधार्चनैः । श्रुतं गुरुं ततः सिद्धं पूजयेद्भक्तितः परम् ॥ ७१॥ पश्चात् जलगन्धादि आठ तरहके प्रासुक अर्चना द्रव्यसे जिनदेवकी पूजा करे। इसके बाद शास्त्र, गुरु, और सिद्धोंकी भक्तिभावसे पूजा करे ॥७१॥ ___श्रुतपूजा वर्णन। ये यजन्ति श्रुतं भक्त्या ते यजन्त्येऽञ्जसा जिनम् । न किश्चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥ ७२ ॥ जो श्रावक भक्तिभावसे शास्त्रकी पूजा करते हैं वे परमार्थसे जिनदेवकी ही पूजा करते हैं क्योंकि श्रीवीरभगवान देव और शास्त्रमें कुछ भी अन्तर नहीं बतलाते हैं ॥ ७२ ॥ गुरु-उपास्तिवर्णन । उपास्या गुरवो नित्यमप्रमत्तैर्वृषार्थभिः । तत्पक्षतार्थ्यपक्षान्तश्चरा विघ्नोरगोत्तराः ॥ ७३ ॥ मोक्ष-सुखकी चाहना करनेवाले पुरुषोंको प्रमाद छोड़कर निरन्तर श्रीगुरुकी सेवा करना चाहिए। क्यौंक जो पुरुष गुरुओंकी अधीनतारूप गरुडपक्षीकी छत्रछायामें रहता है वह धर्मकार्योंमें आनेवाले विघ्नरूपी सोंसे दूरही रहता है । भावार्थ-जो गुरुओंकी आज्ञामें रहते हैं उन्हें कभी भी विघ्न-बाधाएं नहीं सताती इसलिए गुरुओंकी उपासना अवश्य करना चाहिए ॥७३॥ निर्व्याजया मनोवृत्त्या सानुवृत्या गुरोर्मनः । प्रविश्य राजवच्छश्वद्विनयेनानुरञ्जयेत् ॥ ७४ ॥ जिस प्रकार सेवक लोग राजाके मनको प्रसन्न रखते हैं उसी तरह कल्याणकी कामना करनेवाले श्रावकोंको छल-कपट रहित और मनोनुकूल अपने मनकी प्रवृत्तिसे गुरुके मनमें पवेश कर, उन्हें देखकर खड़े होना नमस्कार करना हितमित वचन बोलना और उनका भला विचारना रूप विनयसे हमेशा अपने ऊपर उन्हें अनुरक्त रक्खे ॥ ७४ ॥ पूजाके भेद। पूजा चतुर्विधा ज्ञेया नित्या चाष्टान्हिकी तथा । इन्द्रध्वजकल्पद्रुमो चतुर्मुखश्च पञ्चमः ॥ ७५॥ नित्यमह पूजा, आष्टान्हिकी पूजा, इन्द्रध्वज पूजा, और कल्पदुम पूजा इस तरह पूजाके Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... त्रैवर्णिकाचार। ..... १७१ wwwwwwwwe चार भेद हैं, पांचवां भेद चतुर्मुख भी है ॥७५॥ नित्यमह पूजाका लक्षण। प्रोक्तो नित्यमहोऽन्वहं निजगृहान्नीतेन गन्धादिना पूजा चैत्यगृहेऽर्हतः स्वविभवाच्चैत्यादिनिर्मापणम् । भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधा दानं त्रिसन्ध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां नित्यप्रदानानुगम् ॥ ७६ ॥ प्रतिदिन अपने घरसे गन्ध पुष्प अक्षत आदि पूजाकी सामग्री ले जाकर चैत्यालयमें जिन भगवानकी पूजा करना, अपनी सम्पत्ति के अनुसार जिनबिंब जिनमंदिर आदि बनवाना, मन्दिर आदिके कार्य निर्विघ्न चलते रहनेके लिए भक्तिपूर्वक राजनीतिके अनुसार स्टॉम्प आदि लिखकर अथवा रजिस्टर्ड करा कर गांव घर खेत दुकान आदि देना, अपने घर अथवा जिनमंदिरमें सबेरे दोपहर और शामको तीनों समय नित्य अरहंत देवकी आराधना करना और मुनियोंको प्रतिदिन आहार देकर उनकी पूजा करना, ये सब अलग अलग नित्यमह कहलाते हैं ॥ ७६ ॥ आष्टान्हिक और इंद्रध्वज पूजाका लक्षण । जिनार्चा क्रियते सद्भिर्या नन्दीश्वरपर्वणि । आष्टान्हिकोऽसौ सेन्द्राद्यैः साध्या त्वैन्द्रध्वजो महः ॥ ७७ ॥ नन्दीश्वर पर्वके दिनोंमें अर्थात् प्रतिवर्ष आषाढ़ कार्तिक और फाल्गुन मनिके शुक्लपक्षकी अष्टमासे पौर्णिमा तक अन्तके आठ दिनोंमें जो अनेक भव्यजन मिलकर अरहंत देवकी पूजा करते हैं उसे आष्टाह्निक मह कहते हैं और इंद्र प्रतीन्द्र आदि जो पूजा करते हैं उसे इन्द्वध्वज मह कहते हैं ॥ ७७ ॥ चतुर्मुखमहका लक्षण । भक्त्या मुकुटबद्धैर्या जिनपूजा विधीयते । तदाख्यः सर्वतोभद्रश्चतुर्मुखमहामखः ॥ ७८ ॥ बड़े बड़े मुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो भक्ति भावसे पूजा की जाती है उसका नाम चतुर्मुख सर्वतोभद्र और महामह है। यह पूजा प्राणिमात्रका भला करनेवाली है इसलिए इसे सर्वतो भद्र, चार दरवाजेवाले मण्डपमें की जाती है इसलिए चतुर्मुख और अष्टाह्निक मह की अपेक्षा बड़ी है इसलिए महामह कहते हैं ॥ ७८ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचिंत कल्पद्रुम पूजाका लक्षण। किमिच्छकेन दानेन जगदाशाः प्रपूर्य यः । चक्रिभिः क्रियते सोऽहंद्यज्ञः कल्पद्रुमो मतः ॥ ७९ ॥ आप क्या चाहते हैं इस प्रकार प्रश्न पूर्वक संसार भरके मनुष्योंकी आशा पूर्ण कर चक्रवर्ती राजाओंके द्वारा जो पूजा की जाती है उसे कल्पद्रुम यज्ञ कहते हैं ।।७९ ॥ बलिनपननाट्यादि नित्यं नैमित्तिकं च यत् । भक्ताः कुर्वन्ति तेष्वेव तद्यथास्वं विकल्पयेत् ॥ ८०॥ भक्तजन जो नित्य करने योग्य और पर्व दिनों में करने योग्य ऐसे बलि (दाल, भात, रोटी आदि) चढ़ाना आभषेक करना, नृत्य करना, गाना, बजाना, प्रतिष्ठा, रथयात्रा आदि करते हैं, उन सबका समावेश यथा योग्य इन नित्यमहादिकोंमेंही करना चाहिए । भावार्थ-परमात्माका अभिषेक करना उनके सामने नाचना गाना बजाना रथयात्रा करना गिरनार सम्मेद शिखर आदि यात्रा करना इत्यादिकोंका नित्यमह वगैरह जो पूजाके भेद हैं उन्हीमें शुमार है ॥८॥ हरएक जल-गन्ध-आदि पूजाका फल । वार्धारा रजसः शमाय पदयोः सम्यक्प्रयुक्तार्हतः सद्गन्धस्तनुसौरभाय विभवाच्छेदाय सन्त्यक्षताः। यष्टुः स्रग्दिविजस्रजे चरुरुमास्वाम्याय दीपस्त्विषे धूपो विश्वगुत्सवाय फलमिष्टाथोय चापोय सः॥ ८१॥ शास्त्रोक्त विधिके अनुसार श्रीजिनेन्द्र देवके चरणोंमें अर्पण की हुई जल धारा ज्ञानावरणादि पापकर्मोको शान्त करती है । पवित्र गन्ध विलपन शरीरमें सुगन्धि देता है, अक्षत चढ़ानेसे उसकी अणिमा महिमा सम्पत्तिका कभी नाश नहीं होता है, पुष्पमाला चढ़ानेसे स्वर्गमें कल्पवृक्षोंकी मालाएं प्राप्त होती हैं । नैवेद्य चढ़ानेसे अनन्त लक्ष्मीका आधिपति बनता है, दीप चढ़ानेसे कान्ति बढ़ती है, धूप चढानेसे परम सौभाग्य प्राप्त होता है, फल चढ़ानेसे मनचाहे फलोंकी प्राप्ति होती है और अर्ध्य पुष्पांजलि क्षेपण करनेसे विशिष्ट सत्कारकी प्राप्ति होती है ॥ ८१ ॥ पूजाक्रमः। भक्त्या स्तुत्वा पुनर्नत्वा जिनेशं क्षेत्रपालकम् । पद्माद्याः शासनाधिष्ठा देवता मानयेत्क्रमात् ॥ ८२ ॥ पूजा कर चुकनेके बाद भक्तिभावसे जिनदेवकी स्तुति कर पुन: उन्हें नमस्कार कर क्रमसे Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। . क्षेत्रपाल और पद्मावती आदि शासन देवतोंका सत्कार करे ॥ ८२ ॥ ततो मण्डपसद्देशं समागत्य श्रुतं मुनिम् । भक्त्या नत्वा समाधानं पृच्छेदेहादिसम्भवम् ॥८३ ॥ पश्चात् मंडपमें आकर भक्तिपूर्वक शास्त्र और मुनिको नमस्कार करे तथा मुनिमहाराजकी शारीरिक कुशलता पूछे ॥ ८३ ॥ नित्य व्रत ग्रहण। दिग्देशानर्थदण्डादि रसं तैलघृतादिकम् ॥ नित्यव्रतं तु गृहीयाद्गुरोरग्रे सुखप्रदम् ।। ८४ ॥ पश्चात् श्रीगुरुके समक्ष दिग्विरति, देशविरति अनर्थदण्डविरति वगैरह और तेल घी वगैरह रसका त्याग यह नित्य व्रत ग्रहण करे । भावार्थ-मैं आज इस देशसे बाहर नहीं जाऊंगा इस दिशाकी और नहीं जाऊगा, विना प्रयोजनके कोई भी कार्य नहीं करूंगा. आज तेल नहीं खाऊंगा, आज घी नहीं खाऊगा, आज गुड-शक्कर नहीं खाऊगा, आज नमक नहीं खाऊंगा इत्यादि नियम ग्रहण करे ॥ ८४ ॥ व्रतग्रहणकामाहात्म्य । दृक्पूतमपि यष्टारमहतोऽभ्युदयश्रियः । श्रयन्त्यहम्पूर्विकया किं पुनर्प्रतभूषितम् ॥ ८५ ॥ . श्री अर्हन्त देवकी पूजा करनेवाले केवल व्रत रहित सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध पुरुषोंका, बड़प्पन, आज्ञा, ऐश्वर्य, बल, परिवार भोगोपभोगकी सामग्रियां आदि सम्पदाएं पहले मैं प्राप्त होऊ इस प्रकार एक दूसरीसे ईर्ष्या करती हुई बहुत शीघ्र आश्रय ग्रहण करती हैं। तो फिर जो सम्यग्दर्शनसे पवित्र हैं और अहिंसा सत्य आदि व्रतोंसे विभूषित हैं ऐसे श्री जिन देवकी पूजा करनेवाले श्रावकोंका वे संपदाएं आश्रय ले इसमें क्या आश्चर्य है-कुछ भी नहीं । भावार्थ-ये सम्पदाएं बतोंसे विभूषित पुरुषोंका विशेष रीतिसे आश्रय ग्रहण करती हैं ॥ ८५ ॥ ... गुरु आदिको नमस्कार करनेका प्रकार । नमोऽस्तु गुरवे कुर्याद्वन्दनां ब्रह्मचारिणे । इच्छाकारं सर्मिभ्यो वन्दामीत्यर्जिकादिषु ।। ८६ ॥ गुरुओं को “नमोऽस्तु" ब्रह्मचारियोंको “वंदना" साधर्मियोंको “इच्छाकार" और अर्जिकाओंको " बन्दामि " करे ॥ ८६ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित गुरु आदिके देने योग्य आशीर्वाद । श्रावकानां मुनीन्द्रा ये धर्मवृद्धि ददत्यहो । अन्येषां प्राकृतानां च धमेलाभमतः परम् ।। ८७॥ आर्यिकास्तद्वदेवात्र पुण्यवृद्धिं च वर्णिनः। दर्शनविशुद्धिं प्रायः कचिदेतन्मन्तान्तरम् ॥ ८८ ॥ श्राद्धाः परस्परं कुर्युरिच्छाकारं स्वभावत । जुहारुरिति लोकेऽस्मिन्नमस्कारं स्वसजनाः ॥ ८९ ॥ जो लोग मुनिश्वरोंको आकर “ नमोऽस्तु" करे उसके बदलेमें वे महामुनीश्वर श्रावकोंको तो “ धर्मवृद्धिरस्तु” अर्थात् सद्धर्मकी वृद्धि हो ऐसा कहे । जैनधर्मसे बाह्य अजैनोंको “ धर्मलाभोऽस्तु " अर्थात् तुम्हें सद्धर्मकी प्राप्ति हो ऐसा कहे । आर्यिकाएंभी श्रावकों और अजैनों को ऐसाही कहे । तथा ब्रह्मचारी “ पुण्यवद्धिरस्तु ” पुण्यकी वृद्धि हो ऐसा कहे अथवा “ दर्शनविशुद्धिरस्तु" तुम्हारे दर्शनकी विशुद्धि होवे ऐसा कहे, ऐसा किन्हीं किन्हींका मत हैं । श्रावकगण पस्परमें एक दूसरेसे इच्छाकार करें तथा इस लोकव्यहारमें सज्जनवर्ग जुहारु इस तरहका नमस्कार करें ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ ८९॥ व्यावहारिक पचति । योग्यायोग्यं नरं दृष्ट्वा कुर्वीत विनयादिकम् । ... विद्यातपोगुणैः श्रेष्ठो लघुश्चापि गुरुर्मतः ॥ ९० ॥ योग्य और अयोग्य मनुष्योंको देखकर विनय वगैरह करना चाहिए। तथा जो पुरुष विद्या तप और गुणोंमें श्रेष्ठ है वह अवस्थामें छोटा है तो भी बड़ा माना जाता है ॥ ९० ॥ रोगिणो दुःखितान् जीवान् जैनधर्मसमाश्रितान् । सम्भाष्य वचनैर्मुष्टैः समाधानं समाचरेत् ॥ ९१ ॥ रोगी तथा दुःखी ऐसे जैन धर्मावलंबी मनुष्योंका हितकर मीठे वचनोंसे सम्बोधन कर उनका यथेष्ट समाधान करे ॥ ९१ ॥ मूर्खान् मूढांश्च गर्विष्ठान् जिनधर्मविवर्जितान् । कुवादिवादिनोऽत्यर्थं त्यजेन्मौनपरायणः ॥ ९२ ॥ जो मूर्ख हों, मूढ हों, घमंडी हों, व्यर्थ वितंडा करनेवाले हों और जैन धर्मसे बाह्य हों ऐसे लोगोंसे विशेष बातचीत न करे, किन्तु मौन धारण कर ले ॥ ९२ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . त्रैवर्णिकाचार । नम्रीभूताः परं भक्त्या जैनधर्मप्रभावकाः । तेषामुध्दृत्य मूर्धानं ब्रूयाद्वाचं मनोहराम् ।। ९३ ।। जो भारी भक्तिसे जैन धर्मकी प्रभावना करनेवाले हैं और बड़े नम्र हैं उनके सामने अपना मस्तक ऊंचा उठा कर मनोहर वचन बोले ॥ ९३ ॥ शास्त्रश्रवण और शास्त्रकथन । गुरोरग्रे ततो मामुपविश्य मदोज्झितः । शृणुयाच्छास्त्रसम्बन्धं तत्त्वार्थपरिसूचकम् ।। ९४ ।। १७५ इसके बाद मद छोड़ कर - विनय भावसे गुरुके सामने भूमिपर बैठ कर तत्वोंकी कथनी करनेवाले शास्त्र के रहस्यको गुरु- मुखसे सुने ॥ ९४ ॥ अन्येषां पुरतः शास्त्रं स्वयं वाऽथ प्रकाशयेत् । मनसा वाऽप्रमत्तेन धर्मदीपनहेतवे ।। ९५ ।। जीवाजीवास्रवा बन्धसंवरौ निर्जरा तथा । मोक्षश्च सप्त तत्त्वानि निर्दिष्टानि जिनागमे ॥ ९६ ॥ षड् द्रव्याणि सुरम्याणि पञ्च चैवास्तिकायकाः । यतिश्रावकधर्मस्य शास्त्रार्थं कथयेद्बुधः ।। ९७ ।। मिथ्यामतं परिच्छिद्य जैनमार्ग प्रकाशयेत् । प्रमाणनयनिक्षेपैरनेकान्तमताङ्कितैः ॥ ९८ ॥ पुण्यं पुण्यफलं पापं तत्फलं च शुभाशुभम् 1 दयादानं भवेत्पुण्यं पापं हिंसानृतादिकम् ॥ ९९ ॥ इत्यादि धर्मशास्त्राणि समुद्दिश्य सविस्तरम् । यतिपण्डितमुख्यानां शुश्रूषां कारयेन्नरः ।। १०० ।। अथवा धर्मक्की प्रभावनाके निमित्त बहुतही सावधानी के साथ अन्य साधर्मियोंको आप खुद शास्त्र सुनावे । जिनमतमें कहे गये जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल इन छह द्रव्यों, और काल द्रव्यको छोड़ कर बाकीके पांच अस्तिकाय तथा अनगार धर्म और श्रावक धर्मके स्वरूपका अच्छी तरह कथन करे । अनेकान्तसे अंकित प्रमाण नय और निक्षेप द्वारा मिथ्या मतोंका खण्डन करते हुए जैन मार्गका प्रकाशन करे । पुण्य पाप और इनके शुभ अथवा अशुभ फलको समझावे । दया दान करनेसे पुण्य होता है । हिंसा करने झूठ बोलने चौरी करने कुशील सेवन करने और परिग्रह रखनेसे Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकाविरचित पाप होता है इत्यादि धर्मके रहस्यको विस्तार पूर्वक समझावे । तथा मुनि पंडित आदिकी शास्त्र सुनने-सुनानेकी इच्छा उत्पन्न करावे-अथवा सेवा शुश्रूषा करे-करावे ॥९५॥९६॥९७।९८॥९९॥१०॥ नमस्कारं पुनः कुर्याजिनानां जैनधर्मिणाम् । गुर्वादिकं च सम्पृछ्य व्रजेनिजगृहं गृही ॥ १०१ ॥ फिर जिनदेवको और जैन धर्मियोंको नमस्कार करे और गुरु आदिको पूछ कर वह गिरिस्त अपने घरको रवाना होवे ॥ १०१ ॥ सदने पुनरागत्य कृत्वा स्नानं च पूर्ववत् । जपहोमजिनार्चाश्च कुर्यादाचमनादिकम् ॥ १०२॥ प्राणायामं परीषेकं शिरसोऽर्घप्रकल्पनम् । उष्णोदकेन पूजादिकार्यं कुर्यान्न च कचित् ॥ १०३ ॥ घरपर आकर स्नान कर जप, होम, जिन भगवानकी पूजा, आचमन, प्राणायाम, शिरपर जल सिंचन, अर्घ्य प्रदान आदि सम्पूर्ण कार्य पहलेकी तरह करे । तथा कहीं परभी गर्म जलसे पूजा आदि कार्य न करे ॥ १०२ ॥ १०३ ॥ पात्रदान । ततो भोजनकाले तु पात्रदानं प्रकल्पयेत् । भोगभूमिकरं स्वर्गप्राप्तेरुत्तमकारणम् ॥ १०४॥ इसके बाद भोजन करनेके समय, भोग भूमिको ले जाने और स्वर्ग प्राप्त करानेका उत्तम कारण ऐसा जो पात्रदान है उसे करे ॥ १०४ ॥ पात्रोंके भेद। पात्रं चतुर्विधं ज्ञेयममुत्रात्र सुखाप्तिदम् । धर्मभोगयश सेवापात्रभेदात् परं मतम् ॥ १०५ ॥ इस भवमें और परभवमें सुख देनेवाले धर्म पात्र, भोगपात्र, यशपात्र और सेवापात्रके भेदसे चार तरहके पात्र माने गये हैं । भावार्थ-पात्रके चार भेद हैं ॥ १०५॥ धर्म पात्रके भेद। धर्मपात्रं त्रिभेदं स्याज्जघन्यं मध्यमोत्तमम् । तेभ्यो दानं सदा देयं परलोकसुखप्रदम् ॥ १०६ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। १७७ ___ धर्म पात्रके तीन भेद हैं । जघन्य, मध्यम और उत्तम । जिनको, परलोकमें सुखदेनेवाला दान सदा देना चाहिए ॥ १०६ ॥ जघन्य पात्रका लक्षण । सम्यग्दृष्टिः सदाचारी श्रावकाचारतत्परः। गुरुभक्तश्च निर्गर्वो जघन्यं पात्रमुच्यते ॥ १०७ ॥ जो सम्यग्दर्शनसे युक्त है, सदाचारी है, श्रावकाचारके पालनेमें तत्पर है, गुरुमें जिसकी भक्ति है और विनयी है उसे जघन्य पात्र कहते हैं। भावार्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक जघन्य पात्र है। श्रावकाचारमें तत्पर है इसका अभिप्राय यह है कि श्रावकपनेके मुख्य मुख्य चिन्ह जैसे रात्रिमें न खाना, जल छान कर पीना, जिन पूजा करना, मद्य मांस मधु और अभक्ष्य भक्षण न करना आदि ॥ १०७ ॥ मध्यम पात्रका लक्षण । ब्रह्मचर्यव्रतोपेतो गृहस्थारम्भवर्जितः । अल्पपरिग्रहैर्युक्तो मध्यमं पात्रमिष्यते ॥ १०८ ॥ जो ब्रह्मचर्य व्रतसे युक्त है, गृहस्थ सम्बन्धी आरम्भसे रहित है और जिसके पास थोड़ा परिग्रह है उसे मध्यम पात्र कहते हैं । भावार्थ-प्रथम प्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमातकके देशविरति श्रावक मध्यमपात्र हैं ॥ १०८॥ उत्तम पात्रका लक्षण । अष्टाविंशतिसंख्यातमूलगुणयुतो व्रती । सर्वैः परिग्रहैर्मुक्तः क्षमावान् शीलसागरः ॥१०९॥ मित्रशत्रुसमध्यानी ध्यानाध्ययनतत्परः। मुक्त्यर्थी त्रिपदाधीशो ज्ञेयं [त्तमपात्रकम् ॥ ११० ॥ जो अठाईस मूलगुणोंसे युक्त है, सब तरहके परिग्रहोंसे रहित है, क्षमावान है, शीलका सागर है, मित्र और शत्रुको एक दृष्टि से देखता है-दोनोंमें समभाव है, ध्यान और अध्ययनमें तत्पर है, मुक्ति चाहनेवाला है और रत्नत्रयका स्वामी है उसे उत्तम पत्र जानना ॥ १०९॥ ११० ॥ जघन्यादित्रिपात्रेभ्यो दानं देयं सुधार्मिकैः । ऐहिकामुत्रसम्पत्तिहेतुकं परमार्थकम् ॥ १११॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सोमसेनभट्टारकविरचित manninn धर्मात्मा लोग जघन्य मध्यम और उत्तम इन तीनों पात्रोंको दान देवें । इनको दिया हुआ दान, इस लोकसम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी वास्तविक सम्पत्तिके देनेका कारण है। भावार्थ-इन तीनों पात्रोंको दान देनेवाले धर्मात्माओंको दोनों लोकोंमें उत्तम सुखकी प्राप्तिका कारण तरह तरहकी भोगोपभोगकी सामग्रियां मिलती हैं ॥ १११ ॥ भोग पात्रके लक्षण । भोगपात्रं तु दारादि संसारसुखदायकम् । तस्य देयं सुभूषादि स्वशक्त्या धर्महेतवे ॥ ११२ ॥ स्त्री पुत्र आदि भोगपात्र कहे जाते हैं ये सांसारिक सुखके देनेवाले हैं इनको धर्मके लिए अपनी शक्तिके अनुसार अच्छे अच्छे आभूषण कपड़े आदि देने चाहिएं ॥ ११२ ॥ __ भोगपात्रोंको दान न देनेका फल । यदि न दीयते तस्य करोति न वचस्तदा । पूजादानादिकं नैवं कार्य हि घटते गृहे ॥ ११३ ।। यदि भोग पात्रोंको दान न दिया जाय तो वे उसकी बातको न मानेंगे और पूजन आदि कार्य घरमें अच्छी तरह न बन सकेंगे। इस लिए भोगपात्रोंको अवश्य दान देना चाहिए ।। ११३ ॥ यशपात्रका लक्षण । भट्टादिकं यशस्पात्रं लोके कीर्तिप्रवर्तकम् । देयं तस्य धनं भूरि यशसे च सुखाय च ॥ ११४ ॥ भाट ब्राह्मण आदि लोकमें कीर्ति फैलानेवाले यशपात्र हैं इनको अपने यश और सुखके लिए बहुतसा धन देना चाहिए ॥ ११४॥ यशपात्रोंको दान न देनेका फल। विना कीर्त्या वृथा जन्म मनोदुःखप्रदायकम् । मनोदुःखे भवेदात पापबन्धस्तथार्तितः ॥ ११५ ॥ संसारमें नामवरीके बिना जन्मधारण करना व्यर्थ है । ऐसा जन्म रात-दिन हृदयमें वेदना उत्पन्न करता रहता है, चित्तमें अत्यन्त संक्लेश होता है, चित्तमें संक्लेश होनेसे भारी आर्तध्यान होता है, जिसके होनेसे पाप कर्मका बन्ध होता है । इसलिए कीर्तिके लिए उचित आचरण करना चाहिए ॥ ११५॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । सेवापात्रका लक्षण। सेवापात्रं भवेद्दासीदासभृत्यादिकं ततः। तस्य देयं पटाद्यन्नं यथेष्टं च यथोचितम् ॥ ११६ ॥ दास-दासी, नौकर-चाकर वगैरह सेवा पात्र हैं इसलिए इनको इनकी योग्यताके अनुसार, इन्हें जैसा इष्ट हो वस्त्र अन्न आदि पदार्थ देवे ॥ ११६ ॥ दयादान। दयाहेतोस्तु सर्वेषां देयं दानं स्वशक्तितः। गोवत्समहिषीणां च जलं च तृणसञ्चयम् ॥ ११७ ॥ दयाके निमित्त अपनी शक्तिके अनुसार सभीको दान देना चाहिए। गाय मेंस आदिको जल और घास देना चाहिए । भावार्थ-जो श्रावक भारी आरंभमें प्रवर्तित है वह पिंजरापोल आदि संस्थाएं खोल कर गौ आदिकी रक्षा करे और अन्धे लूले अपाहिज पुरुषोंके लिए अन्न शाला प्याऊ आदि बनवावे । तथा व्रती श्रावक अपने योग्य दयादान करें ॥ ११७ ॥ जुदे जुदे दानोंके फल । पात्रे धर्मनिबन्धनं तदितरे श्रेष्ठं दयाख्यापकं मित्रे प्रीतिविवर्धनं रिपुजने वैरापहारक्षमम् । भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतौ सन्मानसम्पादक भट्टादौ तु यशस्करं वितरणं न काप्यहो निष्फलम् ॥ ११८ ।। पात्रोंको दान देनेसे पुण्यबन्ध होता है, पात्रोंके अलावा अन्य दुःखी जीवोंको दान देनेसे यह बड़ा दयालु है इस प्रकारकी नामवरी होती है, मित्र को दान देनेसे प्रीति बढ़ती है, अपने दुश्मनोंको दान देनेप्से वैरका नाश होता है, नौकरको दान देनेसे वह अपनेमें भक्ति करता है, राजाको देनेसे राज-दरबारमें तथा अन्यत्रभी सत्कार होता है और भाट ब्राह्मण आदिको देनेसे यश फैलता है इस लिए किसीको भी दिया हुआ दान निष्फल नहीं होता । अत: अपनी शक्तिके अनुसार अवश्य दान करना चाहिए ॥११८॥ सुप्तोत्तानशया लिहन्ति दिवसान् स्वांगुष्ठमार्यास्ततः कौ रङ्गन्ति ततः पदैः कलगिरो यान्ति स्खलद्भिस्ततः । स्थेयोभिश्च ततः कलागुणभृतस्तारुण्यभोगोद्गताः सप्ताहेन ततो भवन्ति सुदृगादानेऽपि योग्यास्ततः ॥ ११९ ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकाविरचित भोगभूमिके पुरुष आर्य कहलाते हैं वे आर्य पुरुष जब दान देकर भोग भूमिमें जन्म लेते हैं तब वे सात दिनतक-पहले सप्ताह में तो ऊपर को मुंह किये सोये रहते हैं और अपना हाथका अंगूठा चूषते रहते हैं । इसके दूसरे सप्ताह में, पृथिर्वापर पैरोंसे रेंगते हैं- धीरे धीरे घुटनों के बल चलते हैं । इसके बाद तीसरे सप्ताहमें मीठे मीठे वचन बोलते हैं और लड़खड़ाते हुए चलने लगते हैं। चौथे सप्ताहमें वे स्थिर रूपसे पैर रखते हुए ठीक ठीक चलने लगते हैं। इसके बाद पांचवें सप्ताह में गाना बजाना आदि कलाओंसे तथा लावण्य आदि गुणोंसे सुशाभित हो जाते हैं । इसके बाद छठे सप्ताहमें युवा बन जाते हैं और अपने इष्ट भोगोंके भोगने में समर्थ हो जाते हैं और इसके बाद सातवें सप्ताह में वे सम्यग्दर्शनके ग्रहण करनेके योग्य हो जाते हैं । ग्रन्थकार अपि शब्दसे आश्चर्य प्रगट करते हैं कि देखो दानका क्याही माहात्म्य है जिससे वे लोग भोगभूमिमें जन्म लेकर थोड़े ही दिनों में कैसे योग्य बन जाते हैं ॥ ११९ ॥ १८० दानके भेद | आहारशास्त्रभैषज्याभयदानानि सर्वतः । चतुर्विधानि देयानि मुनिभ्यस्तत्त्ववेदिभिः ।। १२० ॥ वस्तु स्वरूपको जानने वाले पुरुष, आहारदान, शास्त्रदान, औषधदान और अभयदान चार प्रकारके दान मुनियोंके लिए देवें ॥ १२० ॥ प्रत्येक दान फैल | ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिर्भेषजाद्भवेत् ॥ १२१ ॥ ज्ञानदान - शास्त्रदानके देनेसे ज्ञानवान हो जाता है । अभयदानके देने से भय दूर होता है। आहार दानके देनेसे वह सुखी होता है और औषधदानकं देनेसे व्याधि रहित नीरोग होता है ॥ १२१ ॥ अथोत्तर पुराणे - उत्तर पुराण में ऐसा कहा है कि शास्त्राभ्यान्नदानानि प्रोक्तानि जिनसत्तमैः । पूर्वपूर्वबहूपात्तफलानीमानि धीमताम् ॥ १२२ ॥ सर्वज्ञदेवने शास्त्रदान अभयदान और अन्नदान ये तीन दान कहे हैं। जिनमें से आहार दानसे अभयदान और अभयदानसे शास्त्रदान का फल अधिक है ॥ १२२ ॥ कुंदान | कन्या हस्तिसुवर्णवाजिकपिलादासीतिलाः स्यन्दनं क्ष्मा गेहं प्रतिबद्धमंत्र दशधा दानं दरिद्रेप्सितम् । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | तीर्थान्ते जिनशीतलस्य सुतरामाविश्वकार स्वयं लुब्धो वस्तुषु भूतिशर्मतनयोऽसौ मुण्डशालायनः ॥ १२३ ॥ कन्या, हाथी, सोना, घोडा, गाय, दासी, तिल, रथ, भूमि और मकान ये दरिद्रों को इष्ट दशप्रकारके दान हैं । जिनका दशवें शीतल नाथ तीर्थकरके तीर्थके अन्त समयमें तरह तरहकी वस्तुओं में लोलुप हुए भूतिशर्मा के पुत्र मुंडशालायनने स्वयं आविष्कार किया था । भावार्थये दान वीतरागकथित नहीं हैं इनका प्रवर्तक एक स्वार्थी लुब्धक पुरुष है । इस लिए ये दान निन्य हैं । यदि ये ही दान आगे लिखे अभिप्रायोंसे किये जांय तो न निन्द्यही हैं और न पापके कारणही हैं ॥ १२३ ॥ विचार्य युक्तितो देयं दानं क्षेत्रादि सम्भवम् । योग्यायोग्यं सुपात्राय जघन्याय महात्मभिः ।। १२४ ॥ १८१ श्रावकोंको योग्य-अयोग्यका युक्तिपूर्वक विचार कर जघन्य पात्रके लिए भूमि आदि दश दान अवश्य देने चाहिएं ॥ १२४ ॥ औरों को क्यों न दे ऐसी शंका होने पर कहते हैं— मध्यमोत्तमयोर्लोके पात्रयोर्न प्रयोजनम् । क्षेत्रादिना ततस्ताभ्यां देयं पूर्वं चतुर्विधम् ॥ १२५ ॥ मध्यम पात्रों और उत्तम पात्रोंको लोकसे कुछ प्रयोजन नहीं है । इस लिए उनको इन दशदानोंके अतिरिक्त पूर्वोक्त चार प्रकारके आहार दान, औषध दान, शास्त्र दान और अभय दान देवे ॥ १२५ ॥ चैत्यालयं जिनेंद्रस्य निर्माप्य प्रतिमां तथा । प्रतिष्ठां कारयेद्धीमान् हैमैः संघं तु तर्पयेत् ॥ १२६ ॥ पूजायै तस्य सत्क्षेत्रग्रामादिकं प्रदीयते । अभिषेकाय गोदानं कीर्तितं मुनिभिस्तथा ॥ १२७ ॥ जिन भगवानका चैत्यालय बनवाकर तथा प्रतिमा बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करावे और सुवर्णसे सारे जैन संघको तृप्त करे। जिन भगवानकी पूजाके लिए अच्छी उपजाऊ जमीन, ग्राम, घर आदि देवे जिससे कि उनकी उपजसे निर्विघ्न जिन पूजाका कार्य चलता रहे । तथा भगवानके अभिषेकके लिए गौका दान दे जिसके शुद्ध प्रासुक दूधसे भगवान्का दुग्धाभिषेक हुआ करे । ऐसा आचार्यों का मत है ॥ १२६ ॥ १२७ ॥ शुद्धश्रावकपुत्राय धर्मिष्ठाय दरिद्रिणे । कन्यादानं प्रदातव्यं धर्मसंस्थितिहेतवे ।। १२८ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सोमसेनभट्टारकविरचित विना भार्यौ तदाचारो न भवेदगृहमेधिनाम् । दानपूजादिकं कार्यमग्रे सन्ततिसम्भवः ।। १२९ ।। निर्धन, धर्मात्मा श्रावकके पुत्रको धर्मकी स्थिति बनी रहने के लिए कन्यादान करे । क्योंकि उत्तम स्त्रीके बिना गिरस्तोंका गिरस्ताचार नहीं चल सकता इस लिए आगेको गिरस्ताचारकी सन्तति बराबर चलती रहने के लिए कन्यादान देकर उसका सत्कार करना चाहिए । भावार्थ-धर्मात्मा पुरुषों के सहारेही धर्म चलता है इस लिए धर्मकी सन्ततिका व्युच्छेद न होने चाहिए । यदि इस उद्देशसे धर्मकी पापका कारण नहीं है वह प्रत्युत देनेके लिए धर्मात्माओं को श्रावकके पुत्रको कन्या देना स्थिति बराबर जारी रहनेके लिए कन्याका दान किया जाय धर्मका कारण ही है । यदि यह अभी प्राय न रखकर काम भोगोंकी वांछासे कन्या दी जाय तो वह अवश्य कुदान है । हमारे यहां जो कन्याओंका विवाह जारी है वह धर्मकी स्थिति बने रहने के अभिप्राय से है । जिनलोगोंका अभिप्राय यह कि माता पिता कन्याओं का विवाह काम भोग सेवन करने के लिए करते हैं वे जैन शास्त्रोंसे अनभिज्ञ हैं और अपने उद्देश्यकी पूर्ति के लिए शास्त्रों के रहस्यको छिपाकर लोगोंको धोखा देते हैं । कन्याका विवाहना धर्म है इस विषयको सूरिवर पं. आशाधरजीने सागारधर्मामृतमें बहुत अच्छी तरह प्रतिपादन किया है उससे इस विषयको अच्छी तरह धर्मके श्रद्धानी पुरुषों को समझ लेना चाहिए ॥ १२८ ॥ १२९ ॥ श्रावकाचारनिष्ठोऽपि दरिद्री कर्मयोगतः । सुवर्णदानमाख्यातं तस्मायाचारहेतवे ।। १३० ॥ यदि कोई श्रावकका पुत्र श्रावकके आचरण में निष्ठ है किन्तु वह कर्मयोगसे दरिद्री है तो ऐसे धर्मात्माको उसके गिरस्ताचारकी स्थिति के लिए सुवर्ण दान देना चाहिए । भावार्थ- सुवर्ण दान देने से वह बेफिकर होकर अपने धर्म में दृढ बना रहता है और आगेको 'धर्मकी बढ़वारी प्रभावना आदिके लिए जी जानसे कोशिश करता रहता है और उसका गिरस्ताचार बराबर जारी रहता है इस लिए ऐसोंको सुवर्णदान अवश्य देना चाहिए । धर्मके निमित्त सुवर्णदान करना पाप नहीं है ॥ १३० ॥ निराधाराय निस्स्वाय श्रावकाचाररक्षिणे । पूजादानादिकं कर्तुं गृहदानं प्रकीर्तितम् ।। १३१ ॥ जिस श्रावक के पास रहनेको मकान नहीं है, वह इतना निर्धन है कि मकान बनवानेको असमर्थ है किन्तु श्रावकके आचरणोंकी पूरी पूरी रक्षा करता है ऐसे श्रावकको पूजा करने मुनीश्वरों को दान देने आदिके लिए गृह दान देना चाहिए ॥ १३१ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | पद्भ्यां गन्तुमशक्ताय पूजामंत्रविधायिने । तीर्थक्षेत्रसुयात्रायै रथाश्वदानमुच्यते ।। १३२ ।। जो पैरोंसे चलने में असमर्थ है और जिनपूजा मंत्र आदि श्रावकके कर्तव्योंका मुस्तैदी से पालन करता है उसको तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा करनेके लिए रथदान अश्वदान आदि देना चाहिए ॥ १३२ ॥ भट्टादिकाय जैनाय कीर्तिपात्राय कीर्तये । हस्तिदनं परिप्रोक्तं प्रभावनाङ्गहेतवे ।। १३३ । जैन धर्मावलंबी ब्राह्मण भाट आदि कीर्ति पात्रोंको कीर्तिके लिए प्रभावनाके कारण हाथीदान करना चाहिए ॥ १३३ ॥ दुर्घटे विक मार्गे जलाश्रयविवर्जिते । प्रपास्थानं परं कुर्याच्छोधितेन सुवारिणा ।। १३४ ॥ १८३ जो मार्ग दुर्घट है पर्वत वृक्ष पत्थर आदिके कारण बिकट हो रहा है। जिसमें जलाशय कुआ, बावड़ी आदि नहीं है ऐसे मार्गमें छने पानीकी प्याऊ लगानी चाहिए ॥ १३४ ॥ अन्नसत्रं यथाशक्ति प्रतिग्रामं निवेशयेत् । शीतकाले सुपात्राय वस्त्रदानं सतूलकम् ।। १३५ ॥ अपनी शक्तिके अनुसार हरएक गांवमें भोजनशाला खोलना चाहिये और शर्दीकी मोसिम में गरीब सज्जन पुरुषों को रुईके कपड़े बनवादेना चाहिए ॥ १३५ ॥ जलान्नव्यवहाराय पात्राय कांस्यभाजनम् । महाव्रतियतीन्द्राय पिच्छं चापि कमण्डलुम् ॥ १३६ ॥ पात्रों के लिए खाने और पीनेके लिए कांसी आदिके वर्तन देवे । तथा महाव्रती मुनियोंके लिए पिच्छि-कमंडलु देवे ॥ १३६ ॥ जिनगेहाय देयानि पूजोपकरणानि वै । पूजामन्त्रविशिष्टाय पण्डिताय सुभूषणम् ॥ १३७ ॥ जिनमन्दिर में जिनभगवानकी पूजाके लिए पूजाके वर्तन और पूजाकरनेवाले तथा मंत्र तंत्र विशिष्ट पंडित के लिए भूषण वगैरह देना चाहिए ॥ १३७ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकाविरचित गिरस्त इन चीजोंका दान न करें। हिंसोपकरणं मूलं कन्दं मांसं सुरा मधु । घुणितं स्वादु नष्टान्नं सूक्ष्मानं रात्रिभोजनम् ॥ १३८ ॥ मिथ्याशास्त्रं वैद्यकं च ज्योतिष्कं नाटकं तथा । हिंसोपदेशको ग्रन्थः कोकं कंदर्पदीपनम् ॥ १३९ ॥ हिंसामन्त्रोपदेशश्च महासंग्रामसूचकम् । न देयं नीचबुद्धिभ्यो जीवघातप्रवर्द्धकम् ॥ १४० ॥ फरसी तलवार आदि हिंसोपकरण पदार्थ, मूल, कन्द, मांस, मदिरा मधु, घुने हुए पदार्थ, जिनमें जीव हिंसाकी संभावना हो एसे स्वादिष्ट पदार्थ, नष्ट-अन्न, सूक्ष्म-अन्न, रात्रिको भोजन, मिथ्याशास्त्र, वद्यकशास्त्र, ज्योतिःशास्त्र, नाटक, जिसमें हिंसाका उपदेश हो ऐसा शास्त्र, कामको उद्दीपन करनवाला कोकशास्त्र, जिसमें हिंसाके मेत्रोंका उपदेश हो और महासंग्रामका सूचक हो ऐसाशास्त्र किसीको भी न दे। क्योंक यदि ऐसी चीजें नीचपुरुषोंके हाथ पड़ गई तो उनसे हिंसाके बढ़नेकी संभावना है ॥ १३८ ॥ १३९ ॥ १४०॥ कुपात्र । मदोन्मत्ताय दुष्टाय जैनधर्मोपहासिने । हिंसापातकयुक्ताय मदिरामांसभोजिने ॥ १४१ ॥ मषाप्रलापिने देवगुरुनिन्दां प्रकुर्वते । देयं किमपि नो दानं केवलं पापवर्द्धनम् ॥ १४२ ॥ जो मदोन्मत्त हों, दुष्ट हों, जैनधर्मकी हँसीहँसनेवाले हों, हिंसा-महापापसे युक्त हों, मदिरामांसका सेवन करनेवाले हों, झूठ बोलनेवाले हों और सच्चे देव-गुरुओंकी निन्दा करनेवाले हों ऐसे पुरुषोंको कुछ भी न दे क्योंकि इनको दान देना केवल पापका बढ़ाना है। इस १४२ वें श्लोकमें देव गुरुकी निंदा करनेवालेको भी कुछ नहीं देना चाहिए ऐसा कहा गया वह बहुतही युक्ति युक्त है क्योंकि जो देव गुरुकी निन्दा करनेवाले होंगे वे अवश्यही खोटे आचरणोंका प्रचार करेंगे इससे पापकीही बढ़वारी होगी। इसके लिए वर्तमानमें ज्वलन्त दृष्टान्त भरे पड़े हैं बहुतसे लोगोंने जैनधर्मकी तथा जैनाचार्योंकी निन्दा करना आरंभ कर दिया है जिन लोगोंने ऐसा करना आरंभ कर दिया है वे खुले दिलसे विधवा विवाह करना ऊंचनीचका भेद तोड़ना, एक पत्तलमें बैठ कर हरएकके साथ भोजन करना आदि पापाचारोंका समर्थन कर रहे हैं। ऐसे लोगोंको जैनसमाज सहायता देकर कुदान रूपमहापापका बोझ अपने शिरपर ले रही है बड़ेही आश्चर्यकी बात है ॥ १४१ ॥ १४२ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्णिकाचार। १८५ मिथ्याशास्त्रेषु पत्प्रोक्तं ब्राह्मणैर्लोभलम्पटैः।। तन देयमजास्त्र्यादि पादत्राणादि हिंसकम् ॥ १४३ ॥ अत्यन्त लोभी ब्राह्मणोंने खोटे खोटे शास्त्रोंमें जो बकरी स्त्री आदिका दान देना लिखा है वह भी न दे तथा पैरके जूते आदि हिंसक चीजें भी न दे ॥ १४३ ॥ दानके पात्र । चैत्ये चैत्यालये शास्त्रे चतुःसंघेषु सप्तसु । सुक्षेत्रेषु व्ययः कार्यो नो चेल्लक्ष्मीनिरर्थिका ॥ १४४ ॥ जिन प्रतिमाके बनवानेमें, जिनमंदिरके बंधवानेमें, शास्त्रोंके लिखवाने तथा जीर्णोद्धार करानेमें और चारों संघोंमें-इस तरह इन सात स्थानोंमें श्रावकगण अपनी लक्ष्मीका व्यय करे; वरना उनकी लक्ष्मी व्यर्थ है-निष्फल है ॥ १४४ ॥ ___ दानको प्रशंसा। भोगित्वाऽद्यन्तशान्तिप्रभुपदमुदयं संयतेऽनप्रदानाच्छ्रीषेणो रुनिषेधाद्धनपतितनया प्राप सर्वोषधर्द्धिम् । प्राक्तजन्मर्षिवासावनशुभकरणाच्छूकरः स्वर्गमयं कौण्डेशः पुस्तका_वितरणविधिनाऽप्यागमाम्भोधिपारम् ॥ १४५ ॥ श्रीषेण महाराजने आदित्यगति और अरिंजय नामके चारणमुनियोंको आहारदान दिया था, जिसके प्रभावसे वे प्रथम उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुए। फिर कई बार स्वर्गीय सुखोंको भोग कर अन्तमें शान्तिनाथ तीर्थकरका पद पाकर मुक्तिको गये। यहांपर केवल कारणमात्र दिखाया है अर्थात् वे आहार देनेसे ही तीर्थकर नहीं हो गये थे, किंतु उनने आहार-दानके बलसे ऐसे पुण्य और पदको प्राप्ति की थी, जिसकी वजहसे उनने तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया था। यदि वे आहार-दान न देते तो उन्हें वह पुण्य और पद नहीं मिलता कि, जिस पदमें जिस पुण्योदयसे वे तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर सके थे। इसलिए उनके तीर्थकर पदमें भी परंपरासे आहारदानही कारण है । देवकुल राजाके यहां एक कन्या बुहारी दिया करती थी। उसने औषध-दान देकर एक मुनिको नीरोग किया था। उसके प्रभावसे वह मरकर शेठ धनपतिकी वृषभसेना नामकी पुत्री हुई और उसे वहां ज्वर, अतिसार आदि रोगोंको दूर करनेवाली सौषधि नामकी ऋद्धि प्राप्त हुई । एक शूकरने अपने पहिले भवमें मुनियोंके लिए बसतिका बनवानेका आभप्राय किया था और उसने अपने उसी शूकर भवमें एक मुनिकी रक्षा की थी। इन दोनों कार्योंमें जो उसके शुभ परिणाम हुए थे उन परिणामोंसे वह मरकर सौधर्म-स्वर्गमें एक ऋद्धिधारी देव हुआ था । तथा गोविंदनामका एक ग्वालिया था । उसने शास्त्रकी पूजाकर वह शास्त्र मुनियोंको भेंट किया था। इसलिए उस दानके प्रभावसे वह कौंडेश नामका मुनि होकर द्वादशांग श्रुतज्ञान-महासागरका पारगामी हो गया था। इस तरह चार प्रकारके दानोंमें ये चार प्रसिद्ध हुए हैं। इनके अलावा और भी बहुतसे हुए हैं । उनमेंसे केवल चारके नाम दिखाये हैं ॥ १४५॥ २४ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सोमसेनभट्टारकविरचित संक्षेपेण मया प्रोक्तं गृहिणां दानलक्षणम् । दत्वा दानं यथाशक्ति भुञ्जीत श्रावकः स्वयम् ॥ १४६ ॥ हमने यह संक्षेपसे गृहस्थियोंके दानका कथन किया है। इसी तरह अपनी शक्तिके अनुसार दान देकर श्रावक आप स्वयं भोजन करे ॥ १४६ ॥ भोजन-विधि । प्रक्षाल्य हस्तपादास्यं सम्यगाचम्य वारिणा । स्ववान्धवान् समाहूय स्वस्य पंक्तौ निवेशयेत् ॥ १४७ ॥ __ भोजन करनेको बैठनेके पहिले जलसे हाथ पैर और मुंह धोकर अच्छी तरह आचमन करे और फिर अपने बन्धु-वर्गको बुलाकर उन्हें अपनी पंक्तिमें साथ लेकर बैठे ॥ १४७॥ पंक्तिभेद। क्षत्रियसदने विप्राः क्षत्रिया वैश्यसमनि । वैश्याः क्षत्रियगेहे तु भुञ्जते पंक्तिभेदतः ॥ १४८ ॥ विप्रस्य सदने सर्वे विट्रक्षत्रियाश्च भुञ्जते । शुद्राः सद्मसु सर्वेषां नीचोच्चाचारसंयुताः ॥ १४९ ॥ क्षत्रियोंके मकानमें ब्राह्मण, वैश्यके मकानमें क्षत्रिय और क्षत्रियके घरमें वैश्य निरनिराली पंक्तिमें बैठकर भोजन करें । एकही पक्तिमें न बैठे। ब्राह्मणके घरपर वैश्य और क्षत्रिय सब भोजन करें । तथा नीच ऊंच सभी जातिके शूद्र ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्योंके घरपर भोजन करें । भावार्थजैसा भोजनका क्रम बताया गया है उसी तरह अपनी अपनी अलहदी पंक्तिमें बैठ कर भोजन करना चाहिए । ब्राह्मण ब्राह्मणकी पंक्तिमें, क्षत्रिय क्षत्रियकी पक्तिमें, वैश्य वैश्यकी पंक्तिमें और शूद्र अपने अपने योग्य शूद्रकी पंक्तिमें बैठकर भोजन करें । यह नहीं कि, ब्राह्मणकी पंक्तिमें क्षत्रिय वैश्य और शूद्र, क्षत्रियकी पक्तिमें ब्राह्मण वैश्य और शूद्र, वैश्यकी पक्तिमें ब्राह्मण क्षत्रिय और शूद्र तथा शूद्रकी पक्तिमें ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य बैठकर भोजन करें। तथा इससे यह भी पाया जाता है कि शूद्रके घरपर कोई भी भोजन न करे । इसी तरह उच्च शूद्रके यहां नीच शूद्र भोजन करे, परंतु नीच शूद्रके यहां उच्च शूद्र भोजन न करे ॥१४८-१४९॥ भोजनके अयोग्य स्थान । विण्मूत्रोच्छिष्टपात्रं च पूयचर्मास्थिरक्तकम् । गोमयं पङ्कदुर्गन्धस्तमो रोगांगपीडितः ॥ १५० ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। wwwwwwwwwanmmmmarne असम्मार्जितमुलि मृताङ्गि धूमसंवृतम् । मलिनं वस्त्रपात्रादि युक्ता स्त्रीः पूर्णगर्भिणी ॥ १५१॥ सूतकिगृहसन्धिस्थो म्लेच्छशब्दोऽतिनिष्ठुरः। तिष्ठन्ति यत्र शालायां भुक्तिस्तत्र निषिध्यते ॥ १५२ ॥ जहाँपर विष्टा पड़ा हो, मूत्र पड़ा हो, जूठे वर्तन रक्खे हों, पपि, चमड़ा, हड्डी और खून पड़े हों, गोबर पड़ा हो, कीचड़ हो, दुर्गन्ध आती हो, अन्धकार हो, रोगसे पीड़ित मनुष्य हों, जो जगह झाड़-पोंछकर साफ की हुई न हो, धूला कूड़ा-करकट डला हो, प्राणियोंके टूटे हुए अवयव इधर उधर पड़े हों, जो जगह चारों ओर धूएंसे आच्छादित हो रही हो, जिस मकानकी दीवालों और छत वगैरह पर धूआं जमा हुआ हो, मैले-कुचैले कपड़े वर्तन आदिसे भरी पड़ी हो, जहां पूर्ण गर्भवती स्त्री बैठी हो वहां भोजन न करे । जिस मकानकी दीवाल वगैरह सूतकीके मकानकी दीवाल वगैरहसे चिपटी हो अथवा सूतक जिस घरमें हो वहांपर भोजन न करे। जहांपर नीच लोगोंके कठोर शब्द सुनाई पड़ते हों ऐसी जगहमें बैठकर भोजन न करे ॥ १५०-१५२॥ पंक्तिमें सामिल होने योग्य मनुष्य । पंक्त्या युक्तो नरो ज्ञेयो रोगमुक्तः कुलीनकः । स्नातोऽनुव्रतिकः पूर्णावयवो विमलाम्बरः ॥१५३ ॥ सर्वेन्द्रियेषु सन्तुष्टो निर्विकारश्च धर्मदृक् । निर्गर्यो ब्रह्मचारी वा गृहस्थः श्लाघ्यत्तिकः ॥ १५४ ॥ एक पंक्तिमें बैठकर भोजन करने योग्य मनुष्य ऐसा होना चाहिए कि जो नीरोग हो, कुलीन हो, स्नान किया हुआ हो, अपने योग्य व्रतोंको पालनेवाला हो, जिसके शारीरिक अवयव परिपूर्ण हों-लूला लंगड़ा अन्धा न हो, जो स्वच्छ कपड़े पहने हो, जिसकी सब इन्द्रियां सन्तुष्ट हों, जो विकार-रहित हो, जिसकी धर्मपर श्रद्धा हो, जो ग्रर्वयुक्त न हो, ब्रह्मचारी हो और जिसकी आजीविका प्रशंसनीय हो ऐसा गृहस्थी हो ॥ १५३ ॥ १५४ ॥ .. ... पंक्तिमें सामिल न होने योग्य मनुष्य । पंक्त्ययोग्यं ततो वक्ष्ये विजातीयो दुरात्मकः । मलयुक्ताम्बरोऽस्नातच्छिन्नाङ्गः परिनिन्दकः ॥ १५५ ॥ श्वासी कासी व्रणी कुष्टी पीनसच्छदिरोगिणः। . मिथ्यादृष्टिविकारी च उन्मत्तः परिहासकः ॥ १५६ ॥ असन्तुष्टश्च पाषण्डी लिङ्गी भ्रष्टः कुवादिकः । सप्तव्यसनसंयुक्तो दुराचारो दुराशयः ॥ १५७॥ चतुःकषायिको दीनो निघृणाङ्गोऽभिमान्यपि । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सोमसेमभट्टारकाविरचित अतिबालोऽतिवृद्धश्वातिश्यामो ऽतिमतिभ्रमः ।। १५८ ॥ षण्टश्च पश्चिमद्वारी पञ्चभिश्व बहिष्कृतः । देवार्चकश्च निर्माल्यभोक्ता जीवविनाशकः ॥ १५९ ॥ राजद्रोही गुरुद्रोही पूजापीडनकारकः । वाचालोऽतिमृषावादी वक्राङ्गश्चातिवामनः ।। १६० ॥ इत्यादिदुष्टसंसर्ग सन्त्यजेत्पंक्तिभोजने । श्वानसूकरचाण्डालम्लेच्छहिंसकदर्शनम् ॥ १६१ ॥ अब पंक्ति में सामिल न होने योग्य मनुष्योंको बताते हैं-जो विजातीय हो - अपनी जातिका न हो, दुष्ट हो, मैले-कुचैले कपड़े पहने हो, स्नान किये न हो, जिसके शरीरका कोईसा अंग छिन्न भिन्न हो गया हो, जो निन्दक हो, जिसको सांस चढ़ रहा हो, खांसी चलती हो, जिसके शरीर में फोड़ा फुंसी वगैरहके घाव हो रहे हों, जो कोढ़ी हो, जिसके पीनसका रोग हो रहा हो, उल्टी होती हो, जो मिथ्यादृष्टि हो, विकारी हो, उन्मत्त हो, ठट्टेबाज हो, सन्तोषी न हो, पाखंडी हो, शरीरमें कुछ न कुछ चिन्ह रखनेवाला लिंगी (ढौंगी ) हो, वितंडा करनेवाला हो, सातों व्यसनों का सेवन करनेवाला हो, दुराचारी हो, दुष्ट आशयवाला हो, चारों कषायोंसे युक्त हो, दीन हो, जिसके शरीरको देखकर ग्लानी आती हो, जो अभिमानी हो, अत्यन्तही बालक हो, अत्यन्त बूढ़ा हो, अत्यन्त काला हो, जिसकी बुद्धिमें अत्यन्त भ्रम ( विकार ) हो गया हो, जो नपुंसक हो, जिसकी गुदा बह रही हो, पंचोंने जिसको बहिष्कृत कर दिया हो, जिसके जिनपूजाकी आजीविका हो - देवपूजा करके उदरनिर्वाह करता हो, जो निर्माल्य-भोजी हो, जीवोंकी हिंसा करनेवाला हो, राजद्रोही हो, गुरुद्रोही हो, पूजादि धर्मकार्यों में विघ्न पाड़नेवाला हो, अत्यन्त वाचाल हो, अत्यन्त झूठ बोलनेवाला हो, जिसका शरीर टेढ़ामेढ़ा हो और बिल्कुल बौना हो, इत्यादि तरहके मनुष्योंको भोजनमें सामिल न करे तथा भोजन के समय, कुत्ते, सूकर, चांडाल, म्लेच्छ, हिंसक आदिको आँखसे न देखे ॥१५५-१६१॥ प्राङ्मुखस्तु समश्नीयात्प्रतीच्यां वा यथासुखम् । उत्तरे धर्मकृत्येषु दक्षिणे तु विवर्जयेत् ॥ १६२ ॥ आयुष्यं प्राङ्मुखो भुंक्ते यशस्वी चोत्तरामुखः । श्रीकामः पश्चिमे भुंक्ते जातु नो दक्षिणामुखः ॥ १६३ ॥ पूर्व दिशा की ओर मुख कर भोजन करे अथवा पश्चिमकी ओर मुख कर भोजन करे | जैसा दिखे वैसा करे । तथा धार्मिक कामों में उत्तरकी ओर मुख कर भोजन करे, किन्तु भोजन के समय दक्षिणकी ओर मुख न करे । पूर्वकी ओर मुखकर भोजन करनेसे आयु बढ़ती है, उत्तरकी ओर मुखकर भोजन करनेसे यश फैलता है और पश्चिमकी और मुखकर भोजन करनेसे लक्ष्मीका चा होता है - उसे लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तथा दक्षिणकी ओर मुखकर भोजन करनेसे कुछ भी नहीं मिलता ॥ १६२-१६३॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ भोजनके योग्य चौकेकी रचना। चतुरस्रं त्रिकोणं च वर्तुलं चार्थचन्द्रकम् ।। कर्तव्यमानुपूर्येण मण्डलं ब्राह्मणादिषु ॥ १६४ ॥ ब्राह्मणोंका चौका चौकोन, क्षत्रियोंका त्रिकोण और वैश्योंका मोल अथवा अर्धचन्द्राकार होना चाहिए ॥ १६४ ॥ यातुधानाः पिशाचाश्च त्वसुरा राक्षसास्तथा । घ्नन्ति ते बलमन्नस्य मण्डलेन विवर्जितम् ॥ १६५ ॥ चौकेके बिना भोजन करनेसे यातुधान (भूत), पिशाच, असुर तथा राक्षस भोजनकी शक्तिको नष्ट कर देते हैं । इसलिए चौका बनाकर उसमें बैठकर ही भोजन करना चाहिए ॥१६५॥ भोजनके योग्य बर्तन । भोजने भुक्तिपात्रं तु जलपात्रं पृथक् पृथक् । श्रावकाचारसंयुक्ता न अन्त्येकभाजने । १६६ ।। ___ भोजनमें भोजनपात्र और जलपात्र अलहदे २ होने चाहिए । श्रावकगण एक थालीमें बैठकर भोजन न करें ॥ १६६॥ एक एव तु यो भुंक्ते क्मिले कांस्यभाजने । चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुः प्रज्ञा यशो बलम् ॥ १६७॥ जो पुरुष अकेला ही निर्मल कांसीके बर्तनमें भोजन करता है उसकी आयु, प्रज्ञा, यश और बल-ये चारों बढ़ते हैं ॥ १६७॥ पलाविंशतिकादर्वागत ऊर्ध्वं यदृच्छया। इदं पात्रं गृहस्थानां न यतिब्रह्मचारिणाम् ॥ १६८ ॥ ___ भाजन करनेका बर्तन ( थाली ) वीस पल ( अस्सी तोले ) के भीतर भीतर होना चाहिए। अथवा इससे ऊपर चाहे जितना हो । यह पात्रका प्रमाण गृहस्थोंके लिए है, यति-ब्रह्मचारियोंके लिए नहीं ॥ १६८॥ पञ्चाो भोजनं कुर्यात्प्राङ्मुखोऽसौ समाश्रितः । हस्तौ पादौ तथा चास्यमेषु पश्चाता स्मृता ॥ १६९ ॥ गृहस्थ पूर्वकी ओर मुखकर पंचाई भोजन करे । दोनों हाथ, दोनों पैर और एक मुख इन पांचोको पंचाता कहते हैं। इन पांचों अंगोंको धोकर भोजन करे ।। १६९ ।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० सोमसेनभट्टारकविरचित भोजनके बर्तनोंका अन्तर। अन्तरं भुक्तिपात्राणां वितस्तिद्वयमश्नताम् । द्वित्रिहस्तं यथा न स्याच्छीकरस्पर्शनं तथा ॥ १७० ॥ भोजन करनेवालोंके भोजनके पात्रोंका एक दूसरेसे दो बेंत अथवा दो तीन हाथका फासला रहना चाहिए, जिससे एक दूसरेके छींटे उछलकर इधर उधर न जावें ॥ १७॥ पत्तोंमें भोजन करनेकी विधि। विवाहे वा प्रतिष्ठायां कांस्यपात्राद्यसम्भवे । पर्णपात्रेषु भोक्तव्यमुष्णाम्बुप्रासुकेषु च ॥ १७१॥ विवाहके समय अथवा प्रतिष्ठाके समय आवश्यकताके अनुसार कांसीके वर्तन न मिलें तो गर्मजलसे धोकर प्रासुक की हुई पत्तोंकी बनी हुई पत्तलोंमें भोजन करे॥ १७१ ॥ ___भोजनके योग्य पत्ते। रम्भाकुटजमध्वानतिन्दुफणसचम्पकाः । पापोफलपलाशवटवृक्षादिपत्रकम् ॥ १७२ ॥ केला, कुटज वृक्ष, मधृ वृक्ष, आम्र वृक्ष, फणस वृक्ष, चम्पक वृक्ष, कमल, पोफल वृक्ष, ढाक, बड़ इत्यादि वृक्षोंके पत्ते भोजनके योग्य होते हैं ॥ १७२ ॥ अयोग्य पत्ते। चिश्चार्काश्वत्थपणेषु कुम्भीजम्बूकपर्णयोः । कोविदारकदम्बानां पात्रेषु नैव भुज्यते ॥ १७३॥ चिंच वृक्ष, आक, पीपल, कुंभीज वृक्ष, जांबू, कांचन वृक्ष और कदम्ब वृक्ष इनके पत्तोंपर भोजन न करे ॥ १७३॥ निषिद्ध पात्र । करे खर्परके गेही शिलायां ताम्रभाजने । भिन्नकांस्ये च वस्त्रे च न भुञ्जीयात्तथायसे ॥ १७४ ॥ गृहस्थ लोग हाथमें, मिट्टीके खपरोंमें, पत्थरपर, तांबेके वर्तनमें, फूटे हुए कांसेके वर्तनमें, कपड़ेमें तथा लोहेके पात्रमें भोजन न करें ।। १७४ ।।। वर्तनमें भोजन रखनेकी विधि। अनं मध्ये प्रतिष्ठाप्यं दक्षिणे घृतपायसम् । शाकादि पुरतः स्थाप्यं भक्ष्यं भोज्यं च वामतः॥१७५ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | थाली अथवा पत्तलके बीच में भात वगैरह अन्न परोसे, दाहिनी ओर घी और दूध, शाक दाल आदि सामने, और बाकीके भक्ष्य तथा भोज्य पदार्थोंको बाई ओर परोसे ।। १७५ ॥ भोजन करने को बैठने की विधि | पात्रं धृत्वा तु हस्तेन यावद्ग्रासं न भुज्यते । अन्नं प्रोक्ष्यामृतीकृत्य सेचयेद्विमलैर्जलैः ।। १७६ । भोजनका ग्रास मुंहमें न ले उसके पहले पात्रको हाथसे रखकर प्रथम अन्नको मंत्र द्वारा प्रोक्षण कर और उसको अमृत बनाकर चारों ओर जल सींचे ॥ १७६ ॥ उसके मंत्र ये हैं ॐ ह्रीं झं वं ह्नः पः हः इदममृतानं भवतु स्वाहा । अत्र प्रोक्षणम् ||१|| यह मंत्र पढ़ कर भोजनको अमृत बनावे और प्रोक्षण करे । ॐ ह्रीं झौं झौं भूतप्रेतादिपरिहारार्थं परिषेचयामि स्वाहा । परिषेचनम् ॥ २ ॥ यह मंत्र पढ़ कर भोजनकी थालीके चारों ओर पानी सींचे । अन्नेनैव घृताक्तेन नमस्कारेण वै भुवि । तिस्र एवाहुतीर्दद्याद्भोजनादौ तु दक्षिणे ।। १७७ ।। बलिं दत्वोर्विदेवेभ्यः करौ प्रक्षाल्य वारिभिः । अमलीफलमात्रं तु गृह्णीयाद्ग्रासमुत्तमम् ॥ १७८ ॥ १९१ " भोजन प्रारंभ करनेके पेश्तर दाहिनी ओर भूमिपर “ उर्वि देवेभ्यो नमः यह मंत्र पढ़कर घीसे मिले हुए अन्नकी तीन आहूतियाँ देवे । पृथिवीके अधिष्ठाता देवको यह बलि देकर दोनों हाथों को जलसे धोकर आँवलेके फलकी बराबर उत्तम ग्रास मुंहमें लेवे ॥ १७७-- १७८ ॥ ॐ क्ष्वीं स्वीं हं सः आपोशनं करोमि स्वाहा । इति शंखमुद्रया जलं पिबेत् ॥ ३ ॥ यह मंत्र पढकर शंखमुद्रासे जल पीवे ॐ ह्रीं इन्द्रियमाणाय स्वाहा ॥ १ ॥ ॐ नहीं कायबलप्राणाय स्वाहा ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं मनोबलप्राणाय स्वाहा || ३ || ॐ नहीं उच्छ्वासप्राणाय स्वाहा ॥ ४ ॥ ॐ नहीं आयुःप्राणाय स्वाहा ।। ५ ।। इति पञ्चप्राणाहुतीर्दत्वा भुञ्जीत ॥ ४ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमट्टारकनिचित “ ॐ ह्रीँ" इत्यादि पांच मंत्र पढ कर पांच प्राप्णाहुति देकर भोजन करे ॥ ४ ॥ अन्न-लक्षण । पकं शुद्धं कवोष्णं च भोज्यमन्नमनिन्दयन् । देशकालानुसारेण यथेष्टं भुज्यते वरम् ।। १७९ ।। १९२ देश कालका विचार कर अपनी रुचिके अनुसार भोजनसे ग्लानि न करता हुआ अच्छा सीझा या सिका हुआ कुछ कुछ गर्म और निर्दोष भोजन करे ॥ १७९ ॥ अन्न भक्षण और पात्र - स्पर्श । वामहस्तेन गृण्हीयाद्भुंजानः पात्रपार्श्वकम् । दक्षिणेन स्वहस्तेन भुञ्जीतानं विशोध्य च ॥ १८० ॥ भोजन करनेवाला श्रावक बायें हाथसे थालको पकड़ ले और आंखों से देख-भालकर दाहिने हाथ से भोजन जीमें ॥ १८० ॥ जलपान । वामेन जलपात्रं तु धृत्वा हस्तेन दक्षिणे । ईषदाधारमादाय पिबेनीरं शनैः शनैः ॥ १८९ ॥ आदौ पीतं हरेद्वहि मध्ये पीतं रसायनम् । भोजनान्ते च यत्पीतं तज्जलं विषवद्भवेत् ॥ १८२ ॥ बायें हाथ से लोटे वगैरहको पकड़कर दाहिने हाथसे उस लोटेके नीचे कुछ सहारा लगाकर धीरे धीरे जल पीवे । भोजनके आदिमें जल पीनेसे अग्नि मन्द होती है, मध्यमें पनिसे वह जल औषधिका काम देता है और अन्तमें पीया हुआ जल विषके मानिंद होता है ॥ १८१--१८२ ॥ 1 शत और उष्ण अन्नके गुण । अत्युष्णान्नं बलं हन्यादतिशीतं तु दुर्जरम् । तस्मात्कवोष्णं भुञ्जीत विषमासनवर्जितः ॥ १८३ ॥ अत्यन्त गर्म भोजन बलका नाश करता है-निर्बल बना देता है और अत्यन्त ठंडा भोजन अजीर्णता उत्पन्न करता है वह पचता नहीं । इस लिए कुछ कुछ गर्म भोजन करे और भोजन करते समय विषम आसन से न बैठे ॥ १८३ ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । तृषितस्तु न भुञ्जीत क्षुधितो न पिबेज्जलम् । तृषितस्तु भवेद्गुल्मी क्षुधितस्तु जलोदरी ॥ १८४॥ प्यासा तो भोजन न करे और भूखा जल न पीवे । क्योंकि प्यासमें भोजन करनेसे गुल्मरोग हो जाता है और भूखमें पानी पीनेसे जलोदर रोग हो जाता है ॥ १८४॥ आदौ स्वादु स्निग्धं गुरु मध्ये लवणमाम्लमुपसेव्यम् । रूक्षं द्रवं च पश्चान्नं च भुक्त्वा भक्षयेत्किचित् ॥ १८५॥ - भोजन के लिए जब बैठे तब शुरूमें मीठा और चिकना भोजन करे, बीचमें भारी, नमकीन और खट्टा भोजन करे, तथा अन्तमें रूखा और पतला भोजन करे । भोजन कर चुकनेके बाद कुछ न खावे ॥ १८५ ॥ भोजनान्तराय। प्राणघातेऽनबाष्पेण वन्हौ झंपत्पतङ्गके। . दर्शने प्राणघातस्य शरीरिणां परस्परम् ॥ १८६ ॥ कपर्दकेशचर्मास्थिमृतप्राणिकलेवरे। नखगोमयभस्मादिमिश्रिताने च दर्शिते ।। १८७ ॥ उपद्रुते बिडालाद्यैः प्राणिनां दुर्वच श्रुतौ । शुनां श्रुते कलिध्वानै ग्रामघृष्टिध्वनौ श्रुते ॥ १८८ ॥ पीडारोदननिःश्वानग्रामदाहशिरश्च्छिदः। धाव्यागमरणप्राणिक्षयशब्दे श्रुते तथा ॥ १८९ ॥ नियमितान्नसम्भुक्ते प्राग्दुःखाद्रोदने स्वयम् । विदशकायां क्षुते वान्तौ मूत्रोत्सर्गेऽन्यताडिते ॥ १९० ॥ आर्द्रचर्मास्थिमांसासृक्पूयरक्तसुरामधौ ।. दर्शने स्पर्शने शुष्कास्थिरोमविट्जचर्माण ॥ १९१ ॥ ऋतुमती प्रसूता स्त्री मिथ्यात्वमलिनाम्बरे । मार्जारमूषकवानगोश्वाद्यव्रतिबालके ॥ १९२ ॥ पिपीलिकादिजीवैर्वा वेष्टितानं मृतैश्च वा। इदं मांसमिदं चेदृक् संकल्पे वाऽशनं त्यजेत् ॥ १९३ ॥ भोजन करते समय, मोजनकी भाफसे प्राणीके प्राणोंका घात हो जानेपर, अग्निमें झपटकर पतंग आदिके मर जानेपर, भोजन करनेवालोंके शरीरोंका परस्पर स्पर्श हो जानेपर, कौड़ी, केश, चमड़ा, हड्डी, २५ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित मरे हुए प्राणियोंके कलेवर, नाखून, गोबर, राख चिपटा हुआ अन्न देख लेनेपर, बिल्ली, आदिका उपद्रव होनेपर, प्राणियोंके दुर्वचन सुनाई देनेपर, कुत्तोंकी आवाज सुन लेनेपर, परस्परमें लड़ने की आवाज आनेपर, सूकरकी बोली सुन लेनेपर, पीड़ाके कारण किसीके रोने की आवाज सुनाई देनेपर, आममें आग लग जानेपर, फलाँका शिर कट गया इसतरहके शब्द सुनने पर, लड़ाई वगैरह में प्राणियों के मरनेकी आवाज सुननेपर, त्याग किये हुए भोजनके खा लेनेपर, पहले उत्पन्न हुए दुःखसे अपने को रुलाई आने पर, अपनेको टट्टीकी आशंका होनेपर, छींक आनेपर, वमन होनेपर, पेशाब आ जानेपर, दूसरे के अपने को मार देनेपर, गीला चमड़ा, हड्डी, मांस, खून, पीप, मदिरा मधुका दर्शन किंवा स्पर्श हो जानेपर, जली हुई हड्डी केश चमड़ाका दर्शन स्पर्श हो जानेपर, ऋतुमती और प्रसूता स्त्रीका दर्शन या स्पर्शन हो जानेपर, मिथ्यादृष्टि और मैले कुचैले कपड़े पहने हुए मनुष्यके दृष्टिगत या स्पर्श हो जानेपर, बिल्ली, चूहे, कुत्ते, गायें, घोड़े, आदि तथा अवती बालकका स्पर्श हो जानेपर और भोजन में जिंदे जिन्हें भोजन से अलहदा नहीं कर सकते ऐसे अथवा मरे हुए चींटी आदि जीवों के गिर पड़ने पर भोजन छोड़ दे । तथा यह मांस है, टट्टी है, खून है— इस तरह की भोजनमें कल्पना हो जानेपर भोजन छोड़ दे ॥ १८६-१९३॥ १९४ त्याज्य भोजन । मद्यमांसमधून्युज्झेत्पश्ञ्चक्षीरफलानि च । अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधाद्विदुः ।। १९४ ॥ मद्य, मांस, मधु और पंच उदुंबर फलोंको भक्षण करनेका त्याग करे । इन आठोंके त्यागको श्रावकों के आठ मूलगुण बोलते हैं । इनके त्यागनेसे स्थूल वधसे विरति अर्थात् स्थूल - हिंसाका त्याग हो जाता है ॥ १९४ ॥ पिप्पलोदुम्बरप्लक्षवटपीलुफलान्यदन् । हन्त्यार्द्राणि त्रसान् शुष्कान्यपि स्वं रागयोगतः ॥ १९५ ॥ । पीपल, ऊमर ( गूलर ), पाकर, बड़ और कठूमर ( काले गूलर अथवा अंजीर ) इन पांचों वृक्षोंके हरे फल खानेवाला श्रावक सूक्ष्म और स्थूल- दोनों तरहके बस जीवोंकी हिंसा करता और अधिक दिन पड़े रहनेसे जिनमेंके सजीव नष्ट हो गये हैं- ऐसे सूखे हुए इन फलोंको जो खाता है वह भी रागयुक्त होनेके कारण अपनी हिंसा करता है । भावार्थ - हिंसा दो तरहकी है - एक द्रव्य-हिं और दूसरी भाव - हिंसा । अपने अथवा दूसरेके बाह्य प्राणोंका घात करना द्रव्य - हिंसा है; और भाव प्राणों का नाश करना भाव -हिंसा है। अपने रागद्वेषादि भावों की उत्पत्ति होना अथवा परको क्रोधादि उत्पन्न कराना भी भाव - हिंसा है । इन फलोंके खानेसे दोनों तरहकी हिंसा होती है । इनमें रहनेवालेजीवों के प्राणोंका घात होता है, इसलिए द्रव्य - हिंसा है । और खानेवालेकी आत्मामें अत्यन्त रागभाव है, इसलिये भाव - हिंसा है । आत्माका स्वभाव रागद्वेषादि -रहित शुद्ध स्फटिकरूप निर्मल है। । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। उसमें विकार-भावोंके पैदा होनेसे उसके उस असली स्वभावका घात हो जाता है। बस इस स्वभावका घात होना ही हिंसा है। इन सूखे फलोंके खानेमें उसे अधिक राग-भाव है । इसलिए वह इन रागभावोंके निमित्तसे अपनी हिंसा करता है ॥ १९५॥ मद्यपान-निषेध। पीते यत्र रसाङ्गजीवनिवहाः क्षिप्रं म्रियन्तेऽखिलाः । कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतयः सावद्यमुद्यति च ॥ तन्मद्यं व्रतयन्न धूर्तिलपरास्कन्दीव यात्यापदं । तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मजति ॥ १९६ ॥ जिस मद्यके रससे उत्पन्न हुए अथवा जिनके समूहसे वह मयका रस बना है ऐसे अनेक जीवोंके समूहके समूह उस मद्यके पीते ही मर जाते हैं। इसके पीनेसे काम, क्रोध, भय, भ्रम आदि तथा पाप उत्पन्न करने वाले परिणाम पैदा होते हैं। इसलिए उस मद्यका त्याग करनेवाला पुरुष धूर्तिल नामके चोरकी तरह आपत्तिको प्राप्त नहीं होता है, लेकिन मद्यपायी पुरुष एकपाद नामके सन्यासीकी तरह अगम्य-गमन, अभक्ष-भक्षण, अण्ये-पान आदि दुराचारोंका सेवन करता हुआ संसार-समुद्रमें डूबता है-दुर्गतिको जाता है । भावार्थ-मयके पीनेमें भी द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा-दोनों तरहकी हिंसा होती है | मद्य पीनेवालोंकी बड़ी बुरी दुर्गति होती है । इसमें प्रत्यक्ष अनेक दोष देखे जाते हैं ॥ १९६॥ आस्तामेतद्यदिह जननी वल्लभां मन्यमाना। निन्द्यां चेष्टां विदधति जना निस्त्रपा पीतमद्याः॥ तन्नाधिक्यं पथि निपतिता यत्किरत्सारमेयात् । वक्त्रे मूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणाः पिबन्ति ॥ १९७ ॥ खैर, जीभके लोलुपी होकर द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसाको कुछ नहीं समझते हैं तो जाने दीजिए, परंतु ये दोष जो प्रत्यक्ष देखने में आते हैं उनपर तो जरा गौर कीजिए । इस संसारमें कितने ही निर्लज्ज मनुष्य मदिरा पीकर विह्वल हुए अपनी जन्म देनेवाली माताको अपनी प्यारीकाम-प्रेयसी समझकर उससे बड़ी निंद्य चेष्टाएं करते हैं। यह इतनी अधिक आश्चर्यकी बात नहीं है, कारण कि जो लोग मद्य पीकर रास्तेमें गिर पड़ते हैं और मुंह फाड़कर सीधे बीच सड़कोंमें पड़े रहते हैं उनके मुंहमें बिल समझकर कुत्ते पेशाब कर देते हैं। उसे वे लोग बड़ा मीठा है, बड़ा मीठा है-ऐसा कह कह कर बड़े चावसे पीते हैं । भावार्थ-कहनेका तात्पर्य यह है कि मदिरा पीनेवाले बुरेसे बुरे कार्योको करनेमें तत्पर रहते हैं। उन्हें किसी भी विषयके हेयोपादेयकी सुधि नहीं रहती। यदि ऐसे घृणित कार्य करनेवाले भी नीच न कहे जा कर एक पंक्ति और एक पत्तलमें बैठकर भोजन-पान करनेके योग्य समझे जावेंगे तो नहीं मालूम नीच शब्दका प्रयोग ही कहाँपर किया जायगा ? जिस उद्देश्यको लेकर Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ सोमसेनमट्टारकविरचित वे किसीको नीच कहना चाहेंगे, फर्ज कीजिए कि दूसरा उस-विचारको भी अच्छा समझता हो, वह उसे नीच न समझता हो । तो कहना पड़ेगा कि नीच शब्द कोई भी वाच्य न रहा । खैर, मान लो कि, किसीके ये विचार हों कि नीच ऊंचके भेदको ही मिटा देना चाहिए, तो इनके विचार ऐसे हैं जैसे किसीका विचार हो कि तमाम संसारको मद्य मांसादिका सेवन करना चाहिए । परंतु जैसे इसके इन विचारोंके लिए कुलीन बुद्धिमान पुरुषोंके हृदयमें स्थान नहीं है, उसी तरह नीच ऊंच भेदोंको मिटा देनेके विचारोंके लिये भी अनुभवी विचारशील मनुष्यों के हृदयोंमें स्थान नहीं है । सारांश-मद्य पीना महा घृणित कार्य है, और मद्यपायी पुरुषोंके साथ बैठकर भोजनादि करना भी अत्यन्त घृणित कार्य है ॥ १९७॥ मांस-भक्षण-निषेध। हिंस्रः स्वयं मृतस्यापि स्यादनन्वा स्पृशन् पलम् । पकापका हि तत्पेश्यो निगोतौघभृतः सदा ॥ १९८॥ जिन गाय, भैंस, बकरे, बकरी, मछलियां आदि जीवोंको किसीने मारा नहीं है-जो काल पाकर स्वयं मर गये हैं, उनके मांसको खानेवाले या सिर्फ उसको छूनेवाले भी हिंसक-जीवोंके मारनेवाले हैं । क्योंकि पकी हुई हो, विना पकी हुई हो अथवा पक रही हो-ऐसी मांसकी डलियोंमें भी हर समय अनन्त साधारण-निगोदिया जीवोंका समूह अथवा उसी जातिके लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियजीव उत्पन्न होते रहते हैं ॥ १९८ ॥ मधु-निषेध। मधुकृवातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुशः। खादन् बनात्यघं सप्तग्रामदाहाहसोऽधिकम् ॥ १९९ ॥ यह मधु उसके बनानेवाले भौरे, मधुमक्खियां आदि ढेरके ढेर प्राणियोंके विनाशसे पैदा होता है । इसके अलावा इसमें भी हर समय प्राणी उत्पन्न होते रहते हैं। यह मधु उन जीवोंकी झूठन है। इसलिए यह बड़ा ही अपवित्र पदार्थ है। इसको निकालनेवाले म्लेच्छोंकी लार भी उसमें गिर पड़ती है अतः बड़ा ही तुच्छ है । जो कोई मनुष्य इस शहदकी एक बूंद भी सेवन करता है उसे सात गांवोंके जलानेके पापसे भी अधिक पाप लगता है ॥ १९९॥ नवनीत-निषेध । मधुवन्नवनीतं च मुश्चेत्तदपि भूयसः । द्विमुहूतात्परं शश्वत्संसृजन्त्यनिराशयः ॥ २० ॥ मधुकी तरह मक्खन अथवा लौनीका भी श्रावकोंको त्याग करना चाहिए । क्योंकि Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रैवर्णिकाचार। मक्खनमें भी हर समय दो मुहूर्तके बाद प्राणियों के समूहके समूह उत्पन्न होते रहते हैं। भावाथ-दही मथकर मक्खन निकाल लेनेके दो मुहूर्त बाद उसमें अनन्तजीव उत्पन्न हो जाते हैं और फिर जब तक उसे गर्म नहीं कर लेते तब तक हर समयमें उसमें अनन्तजीव उत्पन्न होते और मरते रहते हैं । अतः हिंसासे डरनेवाले धर्मात्माओंको मक्खन कभी नहीं खाना चाहिए ॥२०॥ रात्रि-भोजन व जलपान-निषेध । रागिजीववधापायभूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत् । रात्रौ भुक्तिं तथा युञ्ज्यान पानीयमगालितम् ॥ २०१॥ धर्मात्मा पुरुषोंको मद्य-मांसके त्यागकी तरह रात्रिमें भोजन करनेका भी त्याग करना उचित है। क्योंकि दिनमें भोजन करनेकी अपेक्षा रात्रिमें भोजन करनेमें अधिक राग पाया जाता है। जहां राग है वहां हिंसा अवश्य है । दिनकी अपेक्षा रात्रिमें भोजन बनाने खानेसे प्राणियोंका वध भी कई गुना अधिक होता है । रात्रिमें भोजन करनेसे जलोदर आदि अनेक रोग हो जाते हैं । इसी तरह अनछना पानी भी पीने वगैरहके काममें न लेवे । पानी यह पेय द्रव्य है । इसलिए पीने योग्य तेल, घृत, दूध आदि सब पतले पदार्थों को छानकर काममें लेवे ॥ २०१॥ मुहूर्तेऽन्त्ये तथाऽऽऽऽन्हो वल्भाऽनस्तमिताशिनः । गदच्छिदेऽप्याम्रघृताद्युपयोगश्च दुष्यति ॥ २०२ ॥ रात्रि-भोजन-त्यागी पुरुषको दिनके पहले मुहूर्त में-सूर्योदयके हो जाने पर दो घड़ी तक भोजन करना चाहिए और दिनके अन्त्य मुहूर्तमें अर्थात् सूर्यास्तमें दो घड़ी बाकी रह जाने पर भोजन करे; तथा रोगकी शान्तिके लिए आम, चिरोंजी, केला, दालचीनी आदि फल और घी, दूध, गन्नेका रस आदि रसका उपयोग भी दूषित है । भावार्थ-रात्रि-भोजन-त्यागी पुरुष दो घड़ी दिन चढ़े पहले भोजन न करे और शामको जब दो घड़ी दिन रह जाय तब भोजन न करे—उससे पहले पहले भोजन, जल-पान, फल, रस आदिका खाना पीना कर ले । वरना रात्रि-भोजन-त्याग व्रतमें दोष आता है ॥ २०२॥ अहिंसावतरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये । नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरनिधा त्यजेत् ॥ २०३ ॥ बाईस परीषहों और नाना प्रकारके उपसर्गोंसे चल-विचल न होनेवाला तथा जीवोंकी रक्षा करनेमें तत्पर धीर वीर पुरुष, अहिंसा-व्रतकी रक्षाके लिए और मद्य-त्याग आदि आठ मूलगुणों की विशुद्धिके लिए मनं वचन कायसे अन्न, पान, खाद्य, और लेह्य-इन चार प्रकारके आहारका यावज्जीव ( मरणपर्यन्त ) त्याग करे ॥ २०३॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सोमसेनभट्टारकविरचित जलोदरादिकृयूकाद्यङ्कमप्रेक्ष्यजन्तुकम् । प्रेताद्युच्छिष्टमुत्सृष्टमप्यश्नन्निश्यहो सुखी ॥ २०४ ।। रात्रिमें भोजन करनेसे भोजनके साथ यदि जू खानेमें आ जाय तो वह जलोदर रोग. पैदा कर देता है। यदि मकड़ी खानेमें आ जाय तो शरीरमें कोढ़ हो जाता है । यदि मक्खी खानेमें आ जाय तो वमन हो जाता है । यदि मद्किा खानेमें आ जाय तो मेदाको हानि पहुंचती है। यदि भोजनमें बिच्छू गिर पड़े तो तालुमें बड़ी व्यथा पैदा कर देता है । लकड़ीका टुकड़ा अथवा कांटा भोजनके साथ खा लिया जाय तो गलेमें रोग पैदा करता है । भोजनमें मिला हुआ बाल यदि गलेमें लग जाय तो स्वरमंग हो जाता है। इस तरह अनेक दोष रात्रिमें भोजन करनेसे उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा कई सूक्ष्म जन्तु भोजनमें गिर पड़ते हैं, जो अन्धकारके कारण दिखते नहीं हैं उनको भी खाना पड़ता है । रात्रिके समय पिशाच, राक्षस आदि नीच व्यंतरदेव इधर उधर घूमते रहते हैं, उनका भी भोजनसे स्पर्श हो जाता है । वह भोजन भक्षण करनेके योग्य नहीं रहता है । इस तरहके अनेक दोषोंसे युक्त भोजन भी रात्रिमें भोजन करने वालोंको खाना पड़ता है। तथा जिस चीजका त्याग है वह भी रात्रिमें न दिखनेसे खानेमें आ जाती है । इस प्रकार रात्रिभोजनमें अनेक दोष होते हुए भी, आश्चर्य और खेद है कि, दुर्बुद्धि लोग रात्रिमें भोजन करते हुए अपनेको सुखी मानते हैं ॥ २०४॥ जल-गालन-व्रतके दोष । मुहूर्तयुग्मोर्ध्वमगालनं वा दुर्वाससा गालनमम्बुनो वा । अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपानेऽस्य न तदव्रतेऽWः ॥ २०५ ॥ छने हुए पानीको दो मुहूर्त याने चार घड़ीके बाद न छानना, फटे-टूटे, मैले, पुराने, छोटे छेदवाले कपड़ेसे छानना, छाननेसे बाकी बचे हुए जल ( जीवानी) को जिस जलाशयका वह पानी था उससे दूसरेमें लेजाकर डालना-ये सब जल-गालन-व्रतके दोष हैं। भावार्थ-जिसके जल छान कर पीनेका नियम है वह यदि चार घड़ी के बाद पानी छान कर न पीवे, योग्य छन्नेसे न छाने और जीवानीको उसीके स्थानमें न पहुंचावे तो उसका वह व्रत प्रशंसनीय नहीं है ॥२०५॥ मद्य-त्याग-व्रतके दोष। सन्धानकं त्यजेत्सर्वं दधि तक्रं व्यहोषितम् । काञ्जिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥ २०६ ॥ श्रावकोंको सब तरहका आचार, दो दिन-रातके बादका दही और मठा ( छाछ ), जिसपर सफेद सफेद फूलन आ गई हो अथवा दो दिन-रातसे अधिक हो गई हो ऐसी कांजी नहीं खाना चाहिए। यदि वे इनको न छोड़ेंगे तो उनके मय-त्याग-व्रतमें अतीचार लगेंगे ॥२०६॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवर्णिकाचार। १९९ मांस-त्याग-बतके दोष। .. चर्मस्थमम्भः स्नेहश्च हिंग्वसंहृतचर्म च । सर्व च भोज्यव्याप्यनं दोषः स्यादामिषव्रते ॥ २०७॥ चमड़ेके वर्तनमें रक्खा हुआ जल, घी, तेल आदि, चमड़ेसे ढकी हुई या चमड़ेमें बँधी हुई हींग, तथा जिनका स्वाद बिगड़ गया हो ऐसे दाल भात घी आदि समस्त पदार्थोंका खाना मांस-त्यागव्रतके अतीचार हैं ॥२०७॥ मधु-त्याग-व्रतके अतीचार। प्रायः पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुव्रतविशुद्धये । बस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोगं नार्हति व्रती ॥ २०८ ॥ शहदके त्यागी पुरुषोंको अपने मधु-त्याग-व्रतकी निर्मलताके लिए प्रायः सभी जातिके फूल न खाने चाहिए; तथा वस्तिकर्म, पिण्डदान, नेत्रांजन आदिमें भी मधु, मांस, मद्यका उपयोग न करना जाहिए। भावार्थ-श्लोकमें प्रायः पद पड़ा हुआ है उससे मालूम पड़ता है कि जिन पुष्पोंको शोध सकते हैं ऐसे महुआ, भिलामा आदिके तथा नागकेसर आदिके सूके फूलोंके खानेका बिलकुल निषेध नहीं है । २०७ ।। पंच उदम्बर-त्याग ब्रतके अतीचार । सर्व फलमविज्ञातं वार्ताकाद्यविदारितम् । तद्वद्वलादिसिम्बीश्च खादेनोदुम्बरव्रती ॥ २०९ ॥ पंच उदुम्बर फलोंके त्यागी गृहस्थोंको सभी जातिके अजान फल, ककड़ी, बेर, सुपारी आदि फल और मटर आदिकी फलियोंको विदारेबिना-उनका मध्यभाग शोधेबिना न खाना चाहिए ॥२०९॥ इन ऊपरके श्लोकोंमें अष्ट मूलगुणोंके अतीचार बताए गए हैं । उनका संक्षेप भावार्थ मात्र यहां दिया गया है। यदि विशेष देखनेकी आवश्यकता हो तो सागारधर्मामृतकी संस्कृत टीका और उसकी भाषा टीकासें देखना चाहिए । - अन्य त्याज्य पदार्थ। अनन्तकायाः सर्वेऽपि सदा हेया दयापरैः । यद्येकमपि तं हन्तुं प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान् ॥ २१० ॥ ये ऊपर बताए गए सभी पदार्थ तथा इसी तरहके और भी पदार्थ अनन्तकाय हैं । इनमें अनन्तानन्त जीव हर समय निवास करते हैं । अतः दयालु पुरुषोंको इन. अनन्तकायोंका याव Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित जीवन त्याग करना चाहिए । जो इनमेंसे एकको भी मारनेके लिए प्रवृत्त होता है वह अनन्त जीवोंका संहार करता है ॥ २९० ॥ २०० नालीसूरणकालिङ्गद्रोणपुष्पादि वर्जयेत् । आजन्म तदभुजामल्पफलं घातश्च भूयसाम् ॥ २११ ॥ कमलकी डंडी, सूरण कंद, तरबूज ( कलिङ्गड़ ), द्रोणपुष्प, मूली, अदरख, नीमके फूल, केतकी फूल आदि वनस्पतिका यावज्जीवन त्याग करना चाहिए | क्योंकि इनके खानेवालोंको फल तो थोड़ा होता है और उनके खानेसे बहुतसे जीवोंका घात होता है | ॥ २१९ ॥ आमगोरससम्पृक्तं द्विदलं प्रायशो नवम् । वर्षास्वदलितं चात्र पत्त्रशाकं च वर्जयेत् ॥ २१२ ॥ जिस धान्यके बराबर २ दो हिस्से हो सकते हों ऐसे मूंग, उड़द, चना आदिको द्विदल कहते हैं । अग्निसे पकाये गए कच्चे दूध, कच्चे दही और कच्चे दूध के जमाये हुए दहीकी छाछ में मिले हुए मूंग, उड़द, चना आदि द्विदलको न खाना चाहिए; क्योंकि उनमें अनन्तजीव पड़ जाते हैं । ऐसा आगममें सुना जाता है । इसी तरह प्रायः पुराने द्विदलको भी न खावे । प्रायः शब्दके कहने का तात्पर्य यह है कि कुलिथ आदि द्विदल अन्न यद्यपि अधिक दिन रक्खे रहने के कारण काले पड़ गये हों, परंतु उनमें सम्मूर्च्छन जीव न पड़े हों; तो उनके खाने में कोई दोष नहीं है । तथा बरसात के दिनों में चक्कीमें बिना दले- जिनकी दलकर दाल न बनाई गई हो ऐसे द्विदल धान्यको भी न खावे । क्योंकि आयुर्वेद में लिखा है कि बरसात के दिनोंमें इन धान्यों में अंकुरे पैदा हो जाते हैं, और सम्मूर्च्छन त्रसजीव भी उत्पन्न हो जाते हैं। इससे यह भी अभिप्राय निकलता है कि बरसात में इन धान्योंमेंसे जिनमें अंकुर न पड़े हों उन्हें भी न खाना चाहिये, और बरसात के दिनों में पत्तेवाला शाक भी नहीं खाना चाहिये; क्योंकि बरसातमें ऐसे शाकोंमें त्रस स्थावर जीव बहुत से मिले रहते हैं । इनके खानेसे फल भी बहुत थोड़ा होता है ॥ २१२ ॥ भोजन करते समय मौन - विधि | रक्षार्थमभिमानस्य ज्ञानस्य विनयो भवेत् । तस्मान्मौनेन भोक्तव्यं नार्थ्यं हस्तादिसञ्ज्ञया ॥ २१३ ॥ रूप अभिमान की रक्षा होती है और श्रुतज्ञानका करना चाहिए। हाथ आदिके इशारे से भी किसी मौन धारण करनेसे, मैं भोजन करते समय कुछ भी न मांगूगा - इस प्रकारके अयाचकत्व-तविनय होता है । इसलिए मौन धारणकर भोजन भोज्य वस्तुकी अभ्यर्थना न करे ॥ २१३ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रैवर्णिकाचार । २०१ भोजन-प्रमाण। आपूर्णमुदरं भुजेच्छङ्कालज्जाविवर्जितः । अतिक्रमो न कर्तव्य आहारे धनसञ्चये ॥ २१४॥ शंका और लज्जाको छोड़कर पेट भरे पर्यन्त भोजन करे। भोजनके करनेमें और धन इकट्ठा करनेमें अत्यन्त लालसा न करे । भावार्थ-जब भोजन करनेको बैठे तब पेट भरकर भोजन करे । भोजन करते समय कोई तरहकी लज्जा या आशंका न करे तथा खूब अघाकर भी न खावे; क्योंकि अधिक खा लेनेसे सुस्ती आती है और निद्रा भी खूब आती है । अतः हमेशह परिमित भोजन करना चाहिए ॥ २१४॥ भोजनके पश्चात् करने योग्य क्रिया। ततोऽन्नपाचनार्थ च शीतलं तु पिबेज्जलम् । मुखं जलेन संशोध्य हस्तौ प्रक्षालयेत्ततः ॥ २१५॥ पेट भर भोजन करनेके बाद भोजन पचनेके लिए थोड़ा ठंडा पानी पीवे, और मुखको जलसे साफ कर दोनों हाथ अच्छी तरह धोवे ॥ २१५॥ ततोऽङ्गणे पुनर्गत्वा शलाकादन्तघर्षणम् । कृत्वा जलेन हस्तौच पादौ प्रक्षालयेच्छुचिः ॥ २१६ ॥ फिर उठकर आँगनमें जाकर दाँतोंनसे दाँतोंको घिसे और जलसे हाथ-पैरोंको धोकर साफ करे ॥ २१६ ॥ न खाने योग्य भोजन । ब्रह्मोदने तथा चौले सीमन्ते प्रथमार्तवे । मासिके च तथा कृच्छे नैव भोजनमाचरेत् ॥ २१७ ॥ बलि चढ़ाया हुआ अन्न, और चौल-संबंधी, सीमंत-क्रिया-संबंधी, गर्भाधान-संबंधी तथा मासिकश्राद्ध-संबंधी अन्न-भोजन न खावे.तथा कष्टके समय भी भोजन न करे ॥ २१७ ॥ गणानं गणिकानं च शूलिकानमधर्मिणः । यत्यन्नं चैव शूद्रान्नं नाश्नीयाद्गृहिसत्तमः ॥ २१८॥ उत्तम गृहस्थ जो भोजन बहुतसे मनुष्योंके लिए तैयार किया जाता है उसे न खावे; तथा वेश्याका अन्न, अधर्मी पुरुषोंका अन्न, यतिका अन्न और शूद्रका अन्न भी न खावे ॥ २१८॥ एकादशे पक्षश्राद्धे सपिण्डप्रेतकर्मसु । प्रायश्चित्ते न भुज्जीत भुक्तश्चेत्सञ्जपेज्जपम् ॥ २१९ ॥ मरे हुए मनुष्यके ग्यारहवें दिनका, पखवाड़ेमें जो श्राद्ध होता है उसका, सपिंड प्रेतकर्मका और किसीको प्रायाश्चित्त दिया गया हो तो उस प्रायश्चित्तके समयका अन्न न खावे । यदि खा लेवे तो जाप जपे ॥ २१९॥ २६ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ सोमसेनभद्वारकाविरचित एकपंक्त्युपविष्टानां धर्मिणां सहभोजने। यद्येकोऽपि त्यजेत्यानं शेषैरनं न भुज्यते ॥ २२० ॥ एक पंक्तिमें एक साथ बैठे हुए साधर्मियोंमेंसे यदि एक भी पुरुष पात्र छोड़कर उठ खड़ा हो तो बाकीके बैठे हुए साधर्मियोंको भी भोजन न करना चाहिए ॥ २२० ॥ भुञ्जानेषु च सर्वेषु योग्रे पात्रं विमुश्चति । स मूढः पापतां भुजेत्सर्वेभ्यो हास्यतां व्रजेत् ॥ २२१॥ अपनी पंक्तिमें बैठे हुए जितने मनुष्य भोजन कर रहे हों उनमेंसे जो कोई भी पात्र छोड़कर पहले उठ खड़ा होता है वह महामूर्ख है और वह सबके हँसीका पात्र होता है-उसकी सब लोग हंसी करते हैं ॥ २२१ ॥ अमिना भस्मना चैव दर्भेण सलिलेन च । अन्तरे द्वारदेशे तु पंक्तिदोषो न विद्यते ॥ २२२ ॥ अग्नि, राख, दर्भ और पानी-इनका व्यवधान हो-ये भोजन करते हुए पुरुषोंके मध्यमें रक्खे हों, तथा दरबाजे आदिका व्यवधान हो तो पंक्ति-दोष नहीं है । भावार्थ-भोजन करते समय यदि इनमें से किसी एकका व्यवधान हो तो पंक्तिसे उठ खड़े होनेमें कोई दोष नहीं है ॥ २२२ ॥ एकपंक्त्युपविष्टानामन्योऽन्यं स्पृश्यते यदि । भुक्त्वा चानं विशङ्कः संनष्टोत्तरशतं जपेत् ॥ २२३ ॥ एक पंक्तिमें बैठे हुए मनुष्योंका यदि परस्परमें स्पर्श हो जाय तो उस भोजनको नि:शंक होकर खावे और खा चुकनेके बाद एक सौ आठ जाप देवे ॥ २२३ ॥ __ पूर्व किश्चित्समुदत्य स्थाल्या अन्नादिकं परम् । - मित्राद्यर्थ स्वयं शेषमश्नीयादित्ययं क्रमः ॥ २२४ ॥ पहले अपनी थालीमेंसे थोड़ासा भोजनं निकालकर अपने मित्र आदिके लिए जुदा रख दे। बाद अवशिष्ट भोजनको आप खावे । यह भोजन करनेका क्रम है ॥ २२४ ॥ भुक्त्वा पीत्वा तु तत्पात्रं रिक्तं त्यजति यो नरः । स नरः क्षुत्पिपासाहॊ भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥ २२५ ॥ जो मनुष्य भोजन करके या जल पी करके उनके पात्रोंको बिल्कुल खाली छोड़ देता है वह हर जन्ममें भूख-प्यासकी पीड़ा सहता है ॥ २२५ ॥ अर्द्ध भवति गण्डूषमधं त्यजति वै भुवि । शरीरे तस्य रोगाणां वृद्धि व प्रजायते ॥ २२६ ।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · त्रैवर्णिकाचार। जो मनुष्य चूल्लूमें जल लेकर कुरला करे तो वह उसमेंसे आधेको पी जाय और आधेको जमीनपर डाल दे । ऐसा करनेसे उसके शरीरमें कभी रोग नहीं बढ़ते ॥२२६ ॥ यद्युत्तिष्ठेदनाचम्य भुक्तवानासनादगृही। सद्यः स्त्रानं प्रकुर्वीत नान्यथाऽशुचितां व्रजेत् ॥ २२७ ॥ यदि भोजन करनेवाला गृहस्थ आचमन किये बिना ही आसनसे उठ खड़ा हो तो वह उसी वक्त स्नान करे; नहीं तो वह अपवित्रताको प्राप्त होता है । सारांश-भोजन करनेके बाद आचमन अवश्य करना चाहिए ॥ २२७॥ भुक्तिवस्त्रं परित्यज्य धारयेदन्यदम्बरम् । पूगताम्बूलपर्णानि गृण्हीयान्मुखशुद्धये ॥ २२८ ॥ .. जिस कपड़ेको पहनकर भोजन किया था उसे उतारकर दूसरा कपड़ा पहने, और मुख-शुद्धिके लिए पान-सुपारी खाबे ॥ २२८ ॥ ताम्बूलचर्वणं कुर्यात्सदा भुक्त्यन्त आदरात् । अभ्यङ्गे चैव मांगल्ये रात्रावपि न दुष्यति ॥ २२९ ॥ भोजन कर चुकनेके बाद हमेशह तांबूल खाना चाहिए । तेलकी मालिस कर स्नान कर चुकनपर और मांगलीक कार्यके समय रात्रिमें भी पान खाने में कोई दोष नहीं है। यह विधि पाक्षिकश्रावकके लिए है ॥ २२९॥ पान खानेकी विधि। प्रातःकाले फलाधिक्यं चूर्णाधिक्यं तु मध्यमे । पर्णाधिक्यं भवेद्रात्रौ लक्ष्मीवान् स नरो भवेत् ॥ २३०॥ ___ सुबहके समय पानमें सुपारी अधिक डालना चाहिए, दोपहरको चूना अधिक होना चाहिए और रात्रिमें पान अधिक होना चाहिए। इस क्रमसे जो तांबूल भक्षण करता है वह पुरुष भाग्यशाली होता है ॥ २३०॥ पर्णमूले भवेदव्याधिः पर्णाग्रे पापसम्भवः । चूर्णपर्ण हरत्यायुः शिरा बुद्धिं विनाशयेत् ॥ २३१ ॥ पानका नीचेका हिस्सा खानेसे व्याधि होती है, अग्रभाग खानेसे पाप-उत्पन्न होता है,पान मसलकर खानेसे आयु घटती है और उसका शिरा-डंठल भक्षण करनेसे बुद्धिका नाश होता है;- ॥२३१॥ मूलमग्रं परित्यज्य शिराश्चैव परित्यजेत । सचूर्ण भक्षयेत्पर्णमायुःश्रीकीर्तिकारणम् ॥ २३२॥ इसलिए उसका मूलभाग, अग्रभाग और शिरा छोड़कर चूना लगाकर पान खावे । इस प्रकार पान खानेसे आयुष्य, सम्पत्ति और कीर्तिकी वृद्धि होती है ॥ २३२ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सोमसेनभट्टारकविरचित अनिधाय मुखे पर्ण पूगं खादति यो नरः।। सप्तजन्म दरिद्रः स्यादन्ते नैव सरेज्जिनम् ॥ २३३ ॥ जो मनुष्य मुखमें पान न रखकर सिर्फ सुपारी खाता है वह सात जन्म तक दरिद्री होता है और मरणके समय परमात्माका नाम-स्मरण भी नहीं कर पाता ॥ २३३॥ पञ्च सप्ताष्ट पर्णानि दश द्वादश वाऽपि च । दद्यात्स्वयं च गृह्णीयादिति कैश्चिदुदाहृतम् ॥ २३४॥ पांच, सात, आठ, दश अथवा बारह पान दूसरोंको दे और इतने ही आप खावे-ऐसा भी किसी किसीका कहना है ॥ २३४ ॥ प्रथमः कुरुते व्याधि द्वितीयः श्लेष्मकारकः । तृतीयो रोगनाशाय रसस्ताम्बूलजो मतः ॥ २३५॥ पानका पहला रस (पीक ) व्याधि पैदा करता है, दूसरा रस श्लेष्म ( कफ ) लाता है और तीसरा रोग नाश करता है ॥ २३५ ॥ तर्जन्या चूर्णमादाय ताम्बूलं न तु भक्षयेत् । मध्यमाङ्गुल्यङ्गुष्ठाभ्यां खादयेच्चूर्णलोहितम् ॥ २३६ ॥ तर्जनी ( अंगूठेके पासकी) उंगलीसे चूना लगाकर पान न खावे, किन्तु बीचकी उंगली और अंगूठेसे चूना लगाकर पान खावे ॥ २३६॥ ताम्बूलं कटु तीक्ष्णमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितं । वातघ्नं कफनाशनं कृमिहरं दुर्गन्धिनिर्णाशनम् ॥ वक्त्रस्याभरणं विशुद्धिजननं कामाग्निसन्दीपनं । ताम्बूलस्य सखे त्रयोदश गुणाः स्वर्गेऽपि ते दुर्लभाः॥ २३७॥ पान कडुआ, तीक्ष्ण, उष्ण, मधुर, खारा और कषैला होता है । यह बात, कफ, कृमि ( पेटके जंतु ) और दुर्गन्धिको दूर करता है, मुखकी शोभा है, विशुद्धि पैदा करने वाला है और कामाग्निको दीपन करने वाला (बढ़ाने वाला ) है । हे मित्र ! पानमें ये तेरह गुण होते हैं । इनका स्वर्गमें भी मिलना कठिन है ॥ २३७॥ मृताशौचगते श्राद्धे मातापितृमृतेऽहनि। उपवासे च ताम्बूलं दिवा रात्री च वर्जयेत् ॥२३८ ॥ मरणका सूतक प्राप्त होनेपर, अपने माता पिताके श्राद्धके दिन और उपवासके दिन, दिन और रातमें पान न खावे ॥ २३८ ॥ पात्रदाने जिनार्चायामेकभक्तवतेऽपि वा।। पारणादिवसे शुद्धे भुक्तेरादौ विवर्जयेत् ॥ २३९ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .त्रैवर्णिकाचार। २०५ पात्र-दान और जिन भगवानकी पूजा करते समय तथा एकाशनके दिन पान न खाये। और पारणेके दिन भोजन करनेसे पहिले पान न खावे ॥ २३९ ॥ एलालवंगकर्पूरसुगन्धान्यसुवस्तुकम् । . . भक्षयेत्सह पर्णैश्च तथा वा मुखशुद्धये ॥ २४० ॥ इलायची, लौंग, कपूर और दूसरे २ सुगन्धित पदार्थ पानके साथ खाबे । तथा मुखशुद्धिके लिए वगैर पानके भी इन चीजोंको खावे ॥२४०॥ दोपहरके समय शयन करनेकी विधि । शनैः शनैस्ततो गत्वा चाष्टोत्तरशतं पदान् । उपविश्य घटीयुग्मं स्वपेद्वा वामभागतः॥२४१ ॥ तांबूल चर्वण कर चुकनेके बाद धीरे धीरे एक सौ आठ पैंड घूमकर अथवा कुछ थोड़ी देर तक बैठकर बाई करबटसे दो घड़ी सोबे ॥ १४१ ॥ न स्वपेदिवसे भूरि रोगस्योत्पत्तिकारणम् । कार्याणां च विनाशः स्यादङ्गशैथिल्यमत्र च ॥ २४२ ॥ दिनमें बहुत न सोबे । क्योंकि दिनमें सोना रोगकी उत्पत्तिका कारण है, गृह-कार्योंमें हानि पहुँचती है और सारे अंग-उपांग ढीले पड़ जाते हैं ॥ २४२॥ अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाच । दिवाशयाज्जागरणाच रात्रौ ।। निरोधनान्मूत्रपुरीषयोश्च । षभिःप्रकारैः प्रभवंति रोगाः ॥२४३ ॥ अधिक जल पीने, विषम-अरुचिकर या परिमाणसे अधिक भोजन करने, दिनमें अधिक सोने, रात्रिमें जागने और टट्टी-पेशाबकी बाधा रोकने-इन छह कारणोंसे रोग उत्पन्न होते हैं ॥२४३॥ भुक्तोपविशतस्तुन्दं बलमुत्तानशायिनः । आयुर्वामकटिस्थस्य मृत्युर्धावति धावतः ॥ २४४ ॥ भोजन करके बैठे रहनेसे तौंद बढ़ती है, मुंह ऊपरको करके सीधा सोनेसे बल बढ़ता है, बाई करबट सोनेसे आयु बढ़ती है और दौड़नेसे मृत्यु दौड़ती है—आयु घटती हैं ॥ २४४ ॥ चैतस्थानगमागमौ जिनमते प्रीतिश्च पात्रे रुचि- .. राहारादिसुदानदत्तिकथनं भुक्तिश्च शय्याऽऽसनम् ।। योग्यायोग्यसुवस्तुभक्ष्यकथनं श्रीसोमसेनेन वै। सम्प्रोक्ता बहुधा जिनेन्द्रवचनाद्धर्मप्रदाः सक्रियाः ।। २४५ ॥ जिन मंदिरको आना, यहांसे बापिस घर जाना, जिनमतमें प्रीति करना, पात्रमें प्रेम करना, आहारादि चार प्रकारके दान देना, भोजन करना, सोना, बैठना, योग्य वस्तुका भक्षण करना और Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभधारकविरचित अयोग्यका त्याग करना-इन विषयोंकी विधि इस अध्यायमें मुझ श्रीसोमसेनने वर्णन की है। ये क्रियाएँ जिन वचनके अनुसार ही कही गई हैं, जो पुण्यको प्राप्त कराने वाली हैं ॥ २४५॥ ये कुर्वन्ति नरोत्तमाः सुरुचिभिर्दानं जिनेन्द्रार्चनं । तत्त्वातत्त्वविचारणां जिनपतेः शाखान्धितः सम्भवाम् ॥ धान्यास्ते पुरुषाः सुमागेजनका मोक्षस्य चाराधका । ___भोक्तारोगुणसम्पदा त्रिभुवनस्तुत्याः परं धार्मिकाः ॥ २४६ ॥ जो श्रेष्ठ पुरुष, भक्तिभावसे पात्रोंको दान देते हैं, जिन भगवानकी पूजा करते हैं और जिन भगवानके कहे हुए शास्त्रके अनुसार योग्य अयोग्यका विचार करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं, सुमार्गके प्रवर्तक हैं, मोक्षकी आराधना करनेवाले हैं, गुण-सम्थसिके मोगनेवाले हैं, तीन भुक्नके द्वारा स्तवनीय हैं और बड़े धर्मात्मा हैं ॥ २४५ ॥ . इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारकथने भट्टारकश्रीसोमसेनविरचिते जिनचैत्यालयगमनादिभोजनान्त क्रियाप्रतिपादकः षष्ठोऽध्यायः समाप्तः । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्याय । मङ्गलाचरण । नमः श्रीषर्द्धमानाय सर्वदोषापहारिणे । जीवाजीवादितत्त्वानां विश्वज्ञानं सुबिभ्रते ॥ १॥ श्रीवर्धमानस्वामीको नमस्कार है, जिनने अपने क्षुधादि अठारह दोषोंको नष्ट कर दिए हैं, और जिनको जीव अजीव आदि सातों तत्वोंका परिपूर्ण ज्ञान है ॥ १॥ सकलवस्तुविकासदिवाकर, भुवि भवार्णवतारणनौसमम् । सुरनरप्रमुखैरुपसेवितं, सुजिनसेनमुनिं प्रणमाम्यहम् ॥२॥ जो सम्पूर्ण वस्तुओंके स्वरूपको प्रकाश करनेमें सूर्यके समान हैं, भूमंडलमें संसारी जीवोंको संसारसमुद्रसे पार करनेके लिए नौका-जहाजके समान हैं और देवों तथा मनुष्यों द्वारा सेवनीय हैं-ऐसे श्रीजिनसेन मुनीश्वरको मैं नमस्कार करता हूं ॥ २ ॥ द्रव्य सम्पादन करनेकी विधि । धर्मकृत्यं समाराध्य सद्व्यं साधयेत्ततः । विना द्रव्यं कुतः पुण्यं पूजा दानं जपस्तपः ॥३॥ पूर्वोक्त अध्यायोंमें वर्णन किये अनुसार विधिपूर्वक धर्म-कार्योंका संपादन करता हुआ द्रव्य कमाबे; क्योंकि द्रव्यके बिना पुण्य, पूजा, दान, जप और तप नहीं बन सकते ॥ ३॥ त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण, पशोरिवायुर्विफलं नरस्य । तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, न तं विना यद्भवतोऽर्थकामौ ॥ ४ ॥ धर्म, अर्थ और काम इन तीन वर्गोंकी साधना किये बिना मनुष्यका जन्म पशुकी तरह विफलं है । इन तीनों वर्गों में भी धर्म पुरुषार्थको बड़े बड़े दिव्यज्ञानी श्रेष्ठ बतलाते हैं; क्योंकि धर्मके बिना अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुपार्थ दोनों नहीं बन सकते ॥४॥ स्त्रियोंके कर्तव्य। — सम्मार्जनं जलाकर्ष पेषणं कण्डनं तथा । अग्निज्वालेति. पश्चैव कर्माणि गृहियोषिताम् ॥ ५॥ घरकी सफाई रखना; जलाशयसे जल भरकर लाना, चक्की पीसना, ऊखलमें धान्यादि कूट .. कर साफ करना, चूल्हा जला कर भोजन बनाना-ये पांच गृहस्थ स्त्रियोंके कर्तव्य हैं ॥५॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सोमसेनभट्टारकविरचित सूक्ष्मकोमलमार्जन्या पट्टवस्त्रसमानया । मार्जयेत्सदने भूमि बाध्यन्तेऽतो न जन्तवः ॥६॥ वस्त्र जैसी मुलायम और बारीक झाडूसे स्त्री घरको झाडे, जिससे इधर उधर चलते फिरते हुए चींटी आदि जीवोंको बाधा न पहुंचे ॥६॥ तत्रोत्थां धूलिमादाय छायायां प्रासुके स्थले। सम्प्रसार्य क्षिपेद्यत्नात्करुणायै नितम्बिनी ॥७॥ ___घरमें झाडू लगानेसे जो धूल-कचरा निकलता है उसे छायामें प्रासुक स्थानमें करुणाभावसे फैलाकर गेरे ॥ ७॥ गोमेयेन मृदा वाऽथ सद्योभूतेन वारिणा। गेहिन्या लेपयेद्नेहं हस्तेनाङ्गिसुयत्नतः ॥८॥ ताजे गोबर और जलसे अथवा मिट्टी और जलसे या केवल पानीसे गृहस्थ स्त्रियां खुद अपने हाथोंसे घरको लीपें और प्राणियोंको पीड़ा न हो-ऐसी सावधानी रक्खें ॥ ८॥ गोमयं स्थापयेत्सद्यो धर्मे चैव निधापयेत् । उपलानि सुशुष्काणि निजेन्तूनि सुसञ्चयेत् ॥ ९॥ गृहस्थ स्त्रियां गोबर था और उसे धूपमें सुखावें । इस प्रकार ये जीवजन्तु रहित सूके उपलों ( कंडों )का संचय करें । भावार्थ-यह त्रिवर्णाचार ग्रन्थ है। इसमें तीनों वर्गों के छोटी बड़ी हैसियतके सभी पुरुषोंके कर्तव्य बतलाए गए हैं। ऊंची स्थितिके लोगोंको इन कार्योंसे घृणा नहीं करना चाहिए । यदि वे नौकरोंसे भी सावधानी से ये कार्य करावें तो परमार्थमें कोई हानि नहीं है ॥ ९ ॥ चुल्युत्थभस्मना प्रातर्मर्दयेत्कांस्यभाजनम् । पानं वा भोजनं कुयोंद्विना भस्म न शोधितम् ॥ १०॥ सुबह उठकर अपने चूल्हेकी राखसे कांसे आदिके बर्तन मांजे; क्योंकि राखसे मांजे बिना खाने-पीनेके बर्तन साफ नहीं होते ॥ १०॥ गृहीत्वा जलकुम्भाँश्च शनैर्गच्छेज्जलाशयम् । शोधितेन जलेनादौ कुम्भान् प्रक्षालयेच्छुचेः ॥ ११॥ जलके घड़े लेकर धीरे धीरे जलाशय पर जावे और शुद्ध छने जलसे प्रथम उन घड़ोंको धोकर साफ करे ॥ ११॥ पत्रिंशदगुलं लम्ब तावदेव च विस्तृतम् । . अच्छिद्रं सघनं वस्त्रं गृह्यते जलशुद्धये ॥ १२ ॥ .... छत्तीस अंगुल लम्बा और इतनाही चौडा छेद-रहित मोटा कपडा जल छाननेको रक्खे ॥१२॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २०९ त्रुटितं पाटितं जीर्ण हुच्छे सूक्ष्म सरन्ध्रकम् । न ग्राह्यं गालनं स्त्रीमिर्जलजन्तुविशुद्धये ॥१३॥ जो कटा-फटा हो, पुराना हो, छोटा हो, बारीक हो, छेदवाला हो-ऐसा कपड़ा स्त्रियोंको जल छाननेके लिए नहीं रखना चाहिए ॥ १३ ॥ तेन वस्त्रेण कुम्भास्यं संच्छाद्य शोधयेज्जलम् । शनैः शनैश्च धाराभिर्यथा नोल्लंघयेद्धटम् ॥१४॥ ऐसे योग्य छन्नेसे घड़ेके मुखको ढांक कर धीरे धीरे धार बांध कर जल छाने, ताकि जल उछलकर घड़ेके बाहर न फैले ॥ १४ ॥ शेषं जलं तु तत्रैव तीर्थे निक्षेपयेत्पुनः । तीर्थादागत्य गेहे तु पुनः संशोधयेज्जलम् ॥ १५ ॥ बचे हुए जलको अर्थात् जीवानीको वहीं जलाशयमें छोड़ दे । तथा जलाशयसे घर आकर फिर जल छाने ॥ १५॥ घटीद्वये गते चापि पुनरेवं विशोधयेत । प्रातःकाले तु संशोध्य शेषं पूर्वमले क्षिपेत् ॥ १६ ॥ मुहूर्त गालितं तोयं प्रासुकं प्रहरद्वयम् । ... उष्णोदकमहोरात्रमगालितमिवोच्यते ॥ १७ ॥ इसी तरह प्रत्येक दो घड़ीके बाद जल छान कर काममें लेवे । सुबहके समय जल छानकर जीवानी उसी जलाशयमें डाल आवे । इस तरह छाना हुआ जल दो घड़ी तक जीव-जन्तु रहित याने प्रासुक रहता है । इलायची, लौंग वगैरह डालकर प्रासुक किया हुआ जल दो पहरतक और गर्म किया हुआ जल एक दिनराततक जीवजन्तु-रहित रहता है । इसके अलावा जो जल है वह बिना छने जलके बराबर होता है ॥ १६-१७॥ वासयेत्पाटलीपुष्पैर्मूलेरौशीरकैस्तथा । एलाकर्पूरकाभ्यां तु चन्दनादिसुवस्तुना ॥ १८ ॥ पाटली (पाढल ) के फूल, उशीरक मूल (खस ), इलायची, कपूर तथा चन्दन आदि उत्तम उत्तम वस्तुओंसे जलको सुगन्धित करे ॥ १८॥ - एकविन्दूद्भवा जीवाः पारावतसमा यदि । भूत्वा चरन्ति चेज्जम्बूद्वीपोऽपि पूर्यते च तैः ॥ १९ ॥ जलकी एक बूंदमें इतने जीव हैं कि यदि वे कबूतरके बराबर होकर उड़ें तो उनसे यह जम्बूद्वीप लबालब भर जाय ॥ १९ ॥ २७ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सोमसेनभट्टारकविरचित तस्माद्यत्नः परः कार्यो धर्माय जलशोधने । नूतनं सुदृढं वस्त्रं ग्राह्यं श्रावधर्मिणा ॥ २० ॥ इसलिए श्रावकोंको जल छाननेमें धर्मके निमित्त पूरा पूरा यत्न करना चाहिए तथा नया मजबूत कपड़ा जल छाननेको रखना चाहिए ॥ २० ॥ इस ग्रन्थके प्रायः सभी श्लोक संग्रह किये हुए हैं, इसलिए पुनरुक्तिपर लक्ष्य नहीं देना चाहिए। पट्टकूलमतिसूक्ष्म बहुमूल्यं दृढं धनम् । परिधत्ते स्वयं वस्त्रं जलार्थे तु दरिद्रता ॥२१॥ जो बहुत बढ़िया हो, अधिक मूल्यका हो, बहुत बारीक हो, बहुत ही मोटा हो जिससे पानी छनना ही मुश्किल हो जाय-ऐसे कपड़ेको जन-छाननेके लिए रखनेसे दरिद्रता बढ़ती है ॥२१॥ गोधूमादिसुधान्यानि संशोध्य शुचिभाजने । नूतनानि पवित्राणि पेषयेज्जीवयत्नतः ॥ २२ ॥ अच्छे नए गेहूं आदि धान्यको पवित्र बर्तनमें बीन कर चक्कीमें सावधानीसे पीसे, जिससे कि जीवोंको बाधा न पहुंचे ॥ २२॥ घुणितं जीणितं धान्यं वर्णस्वादविपर्ययम् । पेषयेत्कुट्टयेनैव भिक्षुभ्योऽपि न दीयते ॥ २३ ॥ जो घुना हुआ हो, पुराना हो, जिसका रंग और स्वाद बदल गया हो-ऐसे धान्यको नहीं पीसे, न ऊखलमें कूटे और न भिक्षुकोंको देवे ॥ २३ ॥ घुणितं कीटसंयुक्तं धर्मे मार्गेऽथवा जले । धान्यं प्रसार्यते नैव जीवघातो भवेद्यतः ॥ २४ ॥ जो घुन गया हो, जिसमें कीड़े पड़ गए हों-ऐसे धान्यको न तो धूपमें फैलावे, न रास्तेभे फैलावे, और न पानीसे धोवे । क्योंकि ऐसा करनेसे जीवोंकी हिंसा होती है ॥ २४ ॥ बहुदिनानि रक्ष्यन्ते न च धान्यानि संग्रहे । उत्पत्तिस्त्रसजीवानां यतः सञ्जायते भुवि ॥ २५ ॥ अधिक दिन पर्यन्त धान्यका संग्रह न रक्खे । क्योंकि आधिक दिन तक रखनेसे उसमें त्रसजीव पड़ जाते हैं ॥ २५॥ तण्डुलेषु च चूर्णेषु द्विदलेषु च शीघ्रतः। उत्पत्तिस्त्रसजीवानां तस्माद्वेगाव्ययो मतः ॥ २६ ॥ चावलोंमें, आटेमें और चने आदिकी दाल में बहुत जल्दी त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये इनको अधिक दिन तक न रखकर जल्दी खर्च कर देना चाहिए ॥ २६ ॥ त Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - त्रैवर्णिकाचार । २११ स्नात्वा जलेन वा शीर्ष हस्तौ संशोध्य मृत्स्नया। परिधाय पटं धौतं प्रविशेस्त्रीमहानसे ॥ २७॥ जलसे स्नानकर, मस्तक और हाथोंको मिट्टीसे धोकर और धुली हुई धोती पहनकर स्त्रियाँ रसोई-घरमें जावें ॥ २७ ॥ चुल्ल्यां संशोध्य जीवादीन् पूर्वभस्म परित्यजेत् । निर्जन्तूनि सुशुष्काणि चेन्धनानि समानयेत् ॥ २८ ॥ अग्निं सन्धुक्षयेच्चुल्ल्यां प्रक्षाल्य थालिकास्ततः। स्वयं पाकविधिः कार्यो नानारससमन्वितः ॥ २९ ॥ घृतपकं पयःपाकं सूपोदनं सशर्करम् । आपूपव्यञ्जनान्येव भाग्यस्येद्धं फलं विदुः॥३०॥ वहां पर जीव-जन्तुओंको देखकर पहलेकी राखको निकालकर चूल्हेको साफ करे। फिर जीव-जन्तु रहित सूका ईधन जलानेको लावे और चूल्हमें आग सुलगाये । इसके बाद सब बर्तनोंको धोकर स्वयं अनेक प्रकारका रसीला भोजन बनाबे । घीमें तली हुई पूरी आदि; दूधमें पकी हुई खीर वगैरह; दाल-भात, शक्करका हलुआ, लड्डू, पेड़े, बरफी आदि; पूवे (गुलगुले ), नमकीन सेव, अँजिए आदि अपनी शक्तिके अनुसार बनाबे । इस तरहकी उत्तम उत्तम चीजोंका प्राप्त होना भाग्यका फल है ॥ २८-३०॥ आदौ सन्तर्प्य सत्पात्रं भर्तारं च सुतादिकम् । गृहदेवाँश्च सन्तप्ये ततः स्याद्भोजनं स्त्रियः ॥३१॥ स्त्रियाँ प्रथम सत्पात्रोंको आहार देकर बादमें पति-पुत्रोंको भोजन जिमा कर तथा गृह-देवतोंका सत्कार करनेके पश्चात् आप भोजन करे ॥ ३१॥ इत्येवं पञ्च कर्माणि कथितानि सुयोषिताम् । नराणां कर्म षष्ठं तु व्यापारः कथ्यतेऽधुना ॥ ३२॥ इस तरह गृहस्थ स्त्रियोंके पाँच कर्तव्योंका कथन किया । अब पुरुषोंके कर्तव्योंका कथन करते हैं ॥ ३२॥ पुरुषोंके कर्तव्य । प्राह्मणः सरितं गत्वा वस्त्रं प्रक्षालयेत्ततः। दर्भादि समिधो नीत्वा गृहे संस्थापयेत्ततः ॥ ३३॥ . सदनं यजमानस्य गत्वा धर्मोपदेशनाम् । तिथिवारं च नक्षत्रं कथयेद्ग्रहशुद्धये ॥ ३४ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.१२ सोमसेनभास्कविरक्ति श्रीजिनगुणसम्पत्ति श्रुतस्कचं द्विकावलिम् । मुक्तावलिं. तथाऽन्यं च व्रतोद्देशं समादिशेत् ॥ ३५ ॥ चतुर्दश्यष्टमी चाद्य प्रातर्वा व्रतवासरम् । चान्द्रं बलं गृहाचारं कथयेज्जैनशासनात् ॥ ३६ ॥ कथां व्रतविधानस्य पुराणानि जिनेशिनाम्। ग्रहहोमं मृहाचारं कथयेजिनशासनात् ॥ ३७॥ यजमानेन यद्दत्तं दानं धान्यं धनं तथा । गृह्णीयावर्षभावेन बहुतृष्णाविवर्जितः ॥ ३८॥ आशीर्वादं ततो दद्याद्भक्तचित्तं न दूषयेत् । गृहमागत्य पुत्रादीन् तोषयेन्मधुरोक्तितः ॥ ३९ ॥ गृहचिन्तां ततः कुर्याद्वस्वैर्धान्यैश्च पूरयेत् । गोधनैर्दधिदुग्धैश्च तृणकाष्ठैश्च भूषणैः ॥ ४० ॥ ब्राह्मण, प्रातःकाल नवीपर जाकर अपने वस्त्रोंको धोवे और दर्भ वगैरह समिधा (होमादिका ईधन) लाकर घर पर रक्खे। इसके बादः यजमानके घर जाकर उसे धर्मोपदेश सुनाबे और ग्रह-शुद्धिके लिए तिथि, वार, नक्षत्र बतलावे; जिनेन्द्रदेवके मुणोंका, श्रुतस्कन्ध, द्विकावली, मुक्तावली तथा अन्य व्रतोंको समझावे; आज किंवा कल अष्टमी है, चतुर्दशी है, व्रत करनेका दिन है, चन्द्रमाका बल, गृहस्थका आचार, व्रतविधान सम्बन्धी कथाएं, जिनेन्द्रदेवोंके पुराण, ग्रहहोम, ग्रहाचार आदि जिन शासनके अनुसार बतलावे । फिर यजमान धन-धान्य आदि जो कुछ दे उसे लोभ-तृष्णा-रहित होकर बड़े हर्ष-पूर्वक स्वीकार करे। इसके बाद वह उसे आशीर्वाद दे। वह अपने भक्तके चित्तको नाराज न करे । फिर घर पर आकर मधुर वचनों द्वारा पुत्रादिकोंको सन्तुष्ट करे । इसके बाद घरमें कौनसी वस्तु है, कौनसी नहीं है, इसका विचार कर वस्त्र, धान्य, गौ, दही, दूध, घास, लकड़ी, आभूषण आदि लाकर घरमें रक्खे ॥ ३३–४०॥ ददाति प्रतिगृह्णाति सद्दानं जिनमर्चति । पठते पाठयत्यन्यानेवं ब्राह्मण उच्यते ॥ ४१॥ जो उत्तम दान देता-लेता है, जिनदेवकी पूजा करता है, स्वयं पढ़ता है और औरोंको पढ़ाता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं ॥ ४१ ॥ पुत्रपौत्रसुतादीनां लौकिकाचाररक्षणम् । ... विवाहादिविधानं च कुर्याद्रव्यानुसास्तः ॥ ४२ ॥ गोऽश्वमहिषीमुख्यानि स्वं स्वं स्थानं निवेशयेत् । सन्धायाः समये सन्ध्यां विनः कुर्याक पूर्कत् ॥ ४३ ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने पुत्र, पौत्र, पुत्री आदिको. लौकिक आचार-व्यबहारकी शिक्षा देके । अपनी शक्तिके अनुसार उनके विवाह-शादी करे । तथा गौ, घोड़ा, भैंस आदिको अपने अपने स्थान पर बांधे और सन्ध्याके समय पहलेकी तरह वह ब्राह्मण सन्ध्या-वंदना. करे ॥ ४२--४३॥ क्षत्रियाणां विधि प्रोचे संक्षेपाच्छूयतां त्वहम् । भृत्यो यः क्षत्रियस्तेन गन्तव्यं राजसअनि ॥४४॥ सभास्थितं महीपालं नत्वाऽग्रे स्थीयते भुवि । सशस्त्रः स्वामिभक्तः सन्करकुड्मलवान्मुदा ॥ ४५ ॥ नृपाज्ञया यथास्थानं तथैवोपविशेत्सुखम् । स्वाम्यर्थं च त्यजेत्त्राणान स्वाम्यर्थ देहधारणम् ॥ ४६ ॥ एतत्कार्य प्रकर्तव्यं तच्छुत्याः शीघ्रतः पुनः ।। तत्कर्तव्यं प्रयत्नेन प्रसन्नः स्याद्यतो नृपः॥४७॥ स्वामिद्रोही कृतघ्नश्च यश्च विश्वासघातकः । पशुधाती कृपाहीनः श्वनं याति सः निन्दकः॥४८॥ नृपाज्ञा यत्र विद्येत स गच्छेसत्र वेगतः। सन्ध्यां सामायिकं पात्रदान तपश्च साधयेत् ॥ ४९॥ ___ अब थोड़ासा क्षत्रियोंका कर्तव्य बताया जाता है। उसे ध्यान देकर सुनिए । जो क्षत्रिय नौकर हो वह प्रातः उठकर अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित हो राजभवनको जावे । वहाँ जाकर सभामें बैठे हुए राजाको नमस्कार कर दोनों हाथ जोड़ हृदयमें स्वामीकी भक्ति रखता हुआ बड़े हर्षसे उसके सामने भूमिपर खड़ा रहे । फिर राजाकी आज्ञासे अपने योग्य स्थानमें जाकर सुखसे बैठ जावे । मौका आने पर स्वामीके लिए अपने प्राणोंकी आहूति कर दे; क्योंकि सेवकोंका देह धारण करना स्वामीके लिए ही है । राजा कहे कि यह कार्य करो उसे बहुत जल्दी और पूरी कोशिशके साथ करे, जिससे अपना स्वामी अपनेसे प्रसन्न रहे। जो भृत्य स्वामीका द्रोही, कृतघ्नी, विश्वासघाती, पशुधाती, निर्दयी और निन्दा करनेवाला होता है वह मरकर नरकको जाता है । राजाकी जहां भेजनेकी आज्ञा हो वहाँ शीघ्र जावो सन्ध्यावंदन, सामायिक, पात्र-दान, तपश्चरण आदि कर्तव्योंकी साधना करता रहे ॥ ४४-४९ ॥ देवपूजां परां कृत्वा पूर्वोक्तविधिना नृपः । आगत्योपविशेत्स्वस्थः सभायां सिंहविष्टरे ॥ ५० ॥ न्यायमार्गेण सश्चि सुदृष्ट्या प्रतिपालयेत । प्रजा धर्मसमासक्ता बिना प्रजां कुतो वृषः ॥५१॥ दुष्टानां निग्रहं कुर्याच्छिष्टानां प्रतिपालनम्। .. जिनेन्द्राणां मुनीन्द्राणां नमनादिक्रियां भजेत् ॥ ५२ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सोमसेनमट्टारकविरचित राजानं धर्मिणं दृष्ट्वा धर्म कुर्वन्ति वै प्रजाः। यथा प्रवतेते राजा तथा प्रजा प्रवतेते ॥ ५३॥ राजा पूर्वोक्त विधिके अनुसार देव पूजा कर, सब क्रियाओंसे स्वस्थ चित्त हो सभामें आकर सिंहासन पर विराजमान होवे। सबका न्याय-नीतिके अनुसार पालन करे । प्रजाको धर्म में आसक्त बनावे । क्योंकि प्रजाके बिना धर्मकी रक्षा नहीं हो सकती। दुष्टोंका निग्रह करे, शिष्टोंका प्रतिपालन करे और जिनेन्द्रों तथा मुनीन्दोंको नमस्कार आदि करे । राजाको धर्मात्मा देखकर प्रजा भी धर्माचरण करती है । जैसी राजाकी प्रवृत्ति होती है वैसी ही प्रजाकी हुआ करती है ॥ ५०-५३॥ सप्ताङ्गैश्च भवेद्राराजा भयाष्टकविवर्जितः । शक्तित्रयसमोपेतः सिद्धित्रयविराजितः ॥५४॥ राजाको राज्यके सात अंगोंसे युक्त, आठ भयोंसे रहित तथा तीन तरहकी शक्ति और तीन तरहकी सिद्धिसे युक्त होना चाहिए ॥ ५४॥ अमात्यसुसुहृत्कोशदुर्गराष्ट्रबलानि च । स्वामिना सह सप्तैव राज्याङ्गानि सुखाय वै ॥ ५५ ॥ मंत्री, अच्छे मित्र, खजाना, किला, राष्ट्र, सेना और राजा-ये राज्यके सात अंग होते हैं। ये सातों ही अंग सुखके साधन हैं ॥ ५५ ॥ अनावृष्टयतिवृष्टयग्निसस्योपघातमारिकाः। तस्करन्याधिदुर्भिक्षा एता अष्टौ भीतयः स्मृताः ॥ ५६ ॥ अनावृष्टि, अतिवृष्टि, अग्निप्रलय, धान्य-नाश, महामारी, चोर, व्याधि, और दुर्भिक्ष-ये आठ भय माने गये हैं ॥ ५६ ॥ शाकिनीभूतवेतालरक्षःपनगवृश्चिकाः। मूषकाः शलभाः कीरा इत्यष्टौ भीतिकारकाः ॥ ५७ ॥ शाकिनी, भूत, बेताल, राक्षस, सांप, बिच्छू, चूहे, पतंग-कीड़े, और तोते-ये आठ भय उत्पन्न करने वाले हैं ॥ ५७ ॥ सुपूजायां महीपाले सर्वत्र सुखचिन्तकः । परमनःस्थितं ज्ञानं ज्ञात्वा चरत्यमात्यकः ॥ ५८ ॥ जो सज्जनोंके सत्कारमें, राजामें और बाकीके सब मनुष्योंमें हितकी कामना करने वाला है और दूसरेके मनकी बात जानकर कार्य करता है उसे मंत्री कहते हैं ॥ ५८ ॥ अमुत्रात्र हितंकारी धर्मबुद्धिप्रदायकः। . . गुणवाची परोक्षेऽपि स सुहृत्कथितो बुधैः ॥ ५९ ॥ _नोट-१. गिनतीमें ये नव होते हैं । इससे यथा संभव किन्हीं दोकाएकमें समावेश कर लेना चाहिये । प्र० Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २१५ जो इसलोक और परलोक सम्बन्धी हित करने वाला हो, धार्मिक भावोंकी जागृति पैदा करने वाला हो और पीठ पीछे भी बड़ाई करने वाला हो उसे बुद्धिमान लोग मित्र कहते हैं ॥ ५९ ॥ धनधान्यसुवर्णानि वस्त्रशस्त्राणि भेषजम् । रसा रत्नानि भूरीणि सन्ति कोश इति स्मृतः ॥ ६ ॥ धन, धान्य, सुवर्ण, वस्त्र, शस्त्र, औषध, रस, रत्न आदिको कोश कहते हैं ॥ ६० ॥ वैषम्यं वारिणा पूर्ण सर्वधान्यास्त्रसंग्रहः । तृणकाष्ठानि भृत्याश्च पलायनावकाशकम् ॥ ६१ ॥ उपला वह्नियन्त्राणि गुटीगोफणषड्रसाः। गूढमार्गाः प्रवर्तन्ते यत्र दुर्गः स उच्यते ॥ ६२॥ जो ऊंचे नीचे पथरीले स्थानमें बना हुआ हो, जिसमें जल खूब हो, सब तरहके धान्य और अस्त्रोंका जिसमें संग्रह हो, घांस, लकड़ी, नौकर, चाकर जहांपर खूब हों, निकल भागनेका जिसमें रास्ता हो; बड़े २ पत्थर, अग्नि, यंत्र, गोले, गोफण और दूध दही आदि छह रसोंसे परिपूर्ण हो, जिसका रास्ता ऐसा गूढ़ हो कि जिसमें होकर शत्रुओंका प्रवेश न हो सके, वह दुर्ग कहा जाता है ॥ ६१-६२॥ पुरनगरसुग्रामाः खेटखवटपत्तनाः । द्रोणाख्यं वाहनं यत्र सन्ति राष्ट्रः स उच्यते ॥ ६३ ॥ जहां पर पुर, नगर, ग्राम, खेट, खर्वट, पत्तन, द्रोण और वाहन हैं उसे राष्ट्र कहते हैं ॥६३ ॥ ग्रामो वृत्त्यावृतः स्यानगरमुरुचतुर्गोपुरोद्भासिसालं। . खेटं नद्यद्रिवेष्टयं परिवृतमभितः खर्वटं पर्वतेन ॥ ग्रामैर्युक्तं परं स्यादलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनि । द्रोणाख्यं सिन्धुवेलावलयवलयितं वाहनं चाद्रिरूढम् ॥ ६४॥ जिसके चारों ओर कांटोंकी बाड़ लगी हो उसे ग्राम और जिस ग्रामके चारों दिशामें चार मोटे मोटे दरवाजे हों उसे नगर कहते हैं । पर्वत और नदीसे बेढ़े हुए ग्रामको खेट और चारो ओरसे पर्वत द्वारा घिरे हुए ग्रामको खर्वट कहते हैं। जिसमें एक हजार ग्राम लगते हों वह पुर और जिसमें रत्नोंका खजाना हो वह पत्तन कहलाता है । और समुद्रसे बढ़े हुए ग्रामको द्रोण और पर्वतके ऊपर बने हुए ग्रामको वाहन कहते हैं ॥ ६४॥ अजनाद्रिसमा नागा वायुवेगास्तुरङ्गमाः । रथाः स्वर्गविमानामा भीमा भृत्याश्चतुर्बलम् ॥ ६५ ॥ जिसमें अंजन पर्वतके समान बड़े २ काले हाथी हों, हवाकी तरह तेज दौड़ने वाले घोड़े हों, स्वर्गीय विमानोंकी तरह ऊँचे ऊँचे रथ हों और भयानक-अर्थात् युद्ध-कलामें निपुण सिपाही हों, उसे चतुरंग-सैन्य कहते हैं ॥६५॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सोमसेनमारकाविरचित तेजस्वी शान्तरूपश्च 'त्यागी भोगी दयापरः । बलिष्ठश्च रणे योद्धा प्रोक्तो राजा स पण्डितः ॥ ६६ ॥ ___ राजा तेजस्वी, शान्त, उदार, सम्पत्तिका उपभोग करनेवाला, दयालु, बलवान, योद्धा और विद्वान होना चाहिए ॥ ६६ ॥ तिस्रो मंत्रप्रभूत्साहशक्तयश्च प्रकीर्तिताः। वामनोदेवसिद्धचन्ता नृपे तिस्रश्च सिद्धयः ।। ६७ ॥ मंत्र-शक्ति, प्रभु-शक्ति और उत्साह-शक्ति-ये तीन शक्तियां हैं। वचन-सिद्धि, मन-सिद्धि और देव-सिद्धि-ये तीन सिद्धियां हैं ॥ ६७ ॥ पाइगुण्यं नृपती प्रोक्तं राज्यरक्षणहेतवे । सन्धिविग्रहयानासनाश्रयद्वैधभावनस् ॥ ६८ ॥ राज्यकी रक्षाके लिए राजामें सन्धि, विग्रह, मान, आसन, आश्रय और वैधी भाव-ये छह गुण कहे गए हैं ॥ ६८॥ समतादर्शनं स्वस्य ददेद्दानमरिं प्रति । भेदः शत्रोच सेनाया दण्डः शनिपातनम् ।। ६९ ।। समता-सबको समान देखना, दान-अपने शत्रुको मजराना देना, भेद-शत्रुकी सेनामें फूट मचा देना, और दण्ड-शत्रुका विनाश करना—ये चार राज्यकी रक्षाके उपाय हैं ॥ ६९ ॥ सहायाः साधनोपायो देशकालबलाबले । विपत्तेश्च प्रतीकारः पश्वधा मन्त्र इष्यते ।। ७०।। . अपने सहायक कौन कौन हैं, अपने पास क्या क्या साधन हैं, इस समय कौनस उपाय करना चाहिए, देश-काल अपने अनुकूल है या प्रतिकूल है, तथा इस आई हुई आपत्तिक प्रतीकार कैसे हो सकता है--इस तरहके विचार करनेको पांच प्रकारके मंत्र कहते हैं ॥ ७० अष्टादशाक्षौहिणीनां स्वामी मुकुटबन्धकः। क्षोणीलक्ष्म ततो वक्ष्ये जिनागमानुसारतः ॥ ७१॥ जो अठारह अक्षौहिणी सेनाका स्वामी हो उसे मुकुटबद्ध राजा कहते हैं । अक्षौहिणी सेनाका लक्षण जिनागमके अनुसार आगे कहते हैं ॥ ७१ ॥ - पत्तिः सेमा च सेनास्य गुल्मो वाहिनिपृतने । . ..' चमूरनीकिनी चेति चाष्टधा शृणु तद्विधिम् ॥ ७॥ पत्ति, सेना, सेनामुख, गुल्म, वाहिनी, पृतना, चमू और अनीकिनी ये सेनाके आठ भेद हैं। इनके लक्षण आगे कहते हैं ॥७२॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | एकविंशतिका अश्वाश्चतुरशीतिपाद्गाः । एको हस्ती रथश्चैकः पत्तिरित्यभिधीयते ॥ ७३ ॥ जिसमें इक्कीस घोड़े, चौरासी पियादे, एक हाथी और एक रथ हो उसे पति कहते हैं ॥ ७३ ॥ पत्तिस्त्रिगुणिता सेना तिस्रः सेनामुखं च ताः । सेनामुखानि च त्रीणि गुल्ममित्यनुकीर्त्यते ॥ ७४ ॥ वाहिनी त्रीणि गुल्मानि पृतना वाहिनीत्रिकम् । चमूत्रिपृतना ज्ञेया चमूत्रयमनीकिनी ।। ७५ ।। अनीकिन्यो दश प्रोक्ताः प्राज्ञैरक्षौहिणीति सा । अष्टादशाक्षोहिणी पः प्रभुर्मुकुटवर्द्धनः ॥ ७६ ॥ २१७ तीन पत्तिकी एक सेना, तीन सेनाका एक सेनामुख, तीन सेनामुखका एक गुल्म, तीन गुल्मकी एक वाहिनी, तीन वाहिनीकी एक पृतना, तीन पृतनाकी एक चमू, तीन चमूकी एक अनीकिनी और दश अनीकिनीकी एक अक्षौहिणी सेना होती हैं । ऐसी अठारह अक्षौहिणी सेना के स्वामीको मुकुटबद्ध राजा कहते हैं । एक अक्षौहिणी सेनामें ४५९२७० घोड़े, १८३७०८० पियादे, २१८७० हाथी और २१८७० रथ, कुल मिलाकर २३४००९० सैन्य होते हैं । ७४-७६ ॥ अथ मतान्तरम् || एकमण्डलभू राजा श्रेण्यश्वाष्टादशाधिपः । मुकुटबद्ध इत्याख्यः स एव मुनिभिः परः ॥ ७७ ॥ जो राजा एक मंडलका स्वामी हो वह यदि अठारह श्रेणियोंका स्वामी हो तो उसे मुकुटबद्ध राजा कहते हैं । ऐसा भी किसी २ का मत है ॥ ७७ ॥ सेनापतिर्गणपतिर्वणिजां पतिश्च । सेनाचतुष्कपुररक्षचतुः सुवर्णाः ॥ मन्त्रीस्वमात्यसुपुरोधमहास्वमात्याः । श्रेण्यो दशाष्टसहिता विबुधश्व वैद्यः ॥ ७८ ॥ सेनापति, ज्योतिषी, श्रेष्ठी, चार प्रकारका सैन्य ( हाथी, घोडे, प्यादे और रथ ), कोतवाल, ब्राह्मणादि चार वर्ण, मंत्री, अमात्य, पुरोहित, महामात्य, पंडित और वैद्य इन अठारहको श्रेणि कहते हैं ॥ ७८ ॥ एतत्पतिर्भवेद्राजा राज्ञां पञ्चशतानि यम् । सेवन्ते सोऽधिराजस्स्यादस्मात्तु द्विगुणो भवेत् ॥ ७९ ॥ महाराजस्ततश्चार्द्धमण्डली मण्डली ततः । महामण्डल्यर्धचक्री ततश्चक्रीत्यनुक्रमात् ॥ ८० ॥ अठारह श्रेणियों के अधिपतिको राजा या मुकुटबद्ध राजा कहते हैं। जिसकी ऐसे पांचसी मुकुटबद्ध राजा सेवा करते हों उसे अधिराजा कहते हैं। अधिराजासे दूना महाराजा, महाराजासे दूना अर्धमंडली, अर्धमंडलीसे दूना मंडली, मंडलीसे दूना महामंडली, महामंडलीसे दूंना अर्धचक्री और अर्धचक्रीसे दूना चक्रवर्ती राजा होता है। भावार्थ- मुकुटबद्ध राजाओंका स्वामी अधिराजा होता है । एक हजार मुकुटबद्ध राजाओंका स्वामी महाराजा होता है । दो हजार मुकुटबद्ध राजाओंका २८ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सोमसेनभट्टारकविरचितअधिपति अर्धमंडली होता है। चार हजार मुकुटबद्ध राजाओंका स्वामी मंडली होता है। आठ हजार मुकुटबद्ध राजाओंका स्वामी महामंडली होता है। सोलह हजार राजाओंका स्वामी अर्धचक्री होता है । और बत्तीस हजार राजाओंका स्वामी चक्रवर्ती होता है ॥ ७९-८० ॥ चतुरशीतिर्लक्षाश्च मातङ्गाश्च रथास्तथा । अष्टादश सुकोट्योऽमी वायुवेगास्तुरममाः ॥ ८१ ॥ चतुरशीतिः सुकोट्यो यमदूताः पदातयः । षण्णवतिसहस्राणि स्त्रीणां च गुणसम्पदाम् ॥ ८२ ॥ द्वात्रिंशत्सुसहस्राणि मुकुटबद्धभूभृताम् । तावन्त्येव सहस्राणि देशानां सुनिवेशिनाम् ॥ ८३ ॥ नाटकानां सहस्राणि द्वात्रिंशत्ममितानि वै । द्वासप्ततिसहस्राणि पुरामिन्द्रपुरश्रियाम् ॥ ८४ ॥ ग्रामकोट्यश्च विज्ञेया रम्याः षण्णतिप्रमाः। द्रोणामुखसहस्राणि नवतिर्नव चैव हि ॥ ८५॥ पत्तनानां सहस्राणि चत्वारिंशदथाष्ट च । षोडशैव सहस्राणि खेटानां परिमा मता ॥ ८६ ॥ भवेयुरन्तरद्वीपाः षट्पञ्चाशत्ममामिताः। संवाहनसहस्राणि संख्यातानि चतुर्दश ॥ ८७ ॥ स्थालीनां कोटिरेकोक्ता रन्धने या नियोजिता । कोटीशतसहस्रं स्याद्धलानां कुलवैः समम् ॥ ८८ ॥ तिस्रोऽपि व्रजकोट्यः स्युर्गोकुलैः शश्वदाकुलाः। कुक्षिवासशतानीह सप्तैवोक्तानि कोविदैः ॥ ८९ ॥ दुर्गाटवीसहस्राणि संख्याष्टाविंशतिर्मता । म्लेच्छराजसहस्राणि रम्याष्टादशसंख्यया ॥ ९० ॥ कालाख्यश्च महाकालो माणवः पिङ्गलस्तथा । नैसप्पैः पद्मः पाण्डुश्च शवश्च सर्वरत्नकः ॥ ९१ ॥ निधयो नव विख्याता वाञ्छितार्थफलमदाः। भद्रेण परिणेतव्या देवाधिष्ठितशक्तयः ॥ ९२ ॥ भोग्यं भाण्डं च शस्त्रं च भूषणं देहवस्त्रकम् । धनं वायं बहुरत्नं ददते निधयः क्रमात् ॥ ९३ ॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २१९ चक्रातपत्रदण्डासिमणयश्चर्म काकिणी । चमूगृहपतीभाश्वयोषित्तक्षपुरोधसः ॥ ९४ ॥ रत्नानि निधयो देव्यः पुरं शय्यासने चमूः । भाजनं वाहनं भोज्यं नाट्यं दशाङ्गभोगकाः ॥ ९५ ॥ गणषद्धामराणां तु सहस्राणि च षोडश । इत्यादिविभवैर्युक्तश्चक्रवर्ती भवेद्भुवि ।। ९६ ॥ चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ, वायुके समान तेज दौड़नेवाले अठारह करोड़ घोड़े, यमदूतसरीखे चौरासी करोड़ पियादे, छयानवे हजार सुन्दर गुणवती स्त्रियाँ, बत्तीस हजार सेवा करनेवाले मुकुटबद्ध राजे, बत्तीस हजार सुन्दर रचनावाले देश, बत्तीस हजार नाट्यशालाएँ, इन्द्रपुरीके समान संपदावाले बहत्तर हजार पुर, छयानवे करोड़ रमणीक ग्राम, निन्यानवे हजार द्रोणमुख, अडतालीस हजार पत्तन, सोलह हजार खेट, छप्पन अन्तर्वीप, चौदह हजार वाहन, भोजन बनानेके एक करोड़ बर्तन, सौ हजार करोड़ (दश खरब) हल और कुलव ( बक्खर ), गायोंसे भरे तीन करोड़ बड़े, सात सौ कुक्षिवास, अहाईस हजार दुर्ग (गढ़ ) और जंगल, अठारह हजार म्लेच्छ राजे, मनचाहे फलोंको देनेवाली और क्रमसे अपने २ देवोंद्वारा अधिष्ठित, महापुण्यदायिनी और बर्तन, शस्त्र, आभूषण, मकान, कपड़े, धन, बाजे, और नाना प्रकारके रत्न इत्यादि भोग्य पदार्थ देनेवाली काल, महाकाल, माणव, पिंगल, वैसर्प, पद्म, पांडु, शंख और सर्वरत्न ये नव निधियां; चक्र, छत्र, दंड, खड्ग, मणि, चर्म, काकिणी, सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, सुतार और पुरोहित ये चौदह रत्न; निधियां, देवियां, पुर, शय्या, आसन, सेना, भाजन (बर्तन ), वाहन ( सबारी), भोज्य ( भोजनके योग्य पदार्थ) नाट्य (खेल-तमाशेके योग्य बस्तुएं), ये दश भोग्य पदार्थ और सोलह हजार श्रेणीबद्ध देव इत्यादि अनेक प्रकारकी विभूतियुक्त चक्रवर्ती राजा होता है ॥ ८१-९६ ॥ न्यायेन पालयेद्राज्यं प्रजां पालयति स्फुटम् । यः स प्राप्नोति धर्मिष्ठः सदा राज्यमनागतम् ॥ ९७ ॥ जो न्याय-नीतिसे राजकाजका संचालन और प्रजाका पालन करता है वह धर्मात्मा राजा अपने राज्यके अलावा और भी अधिक राज्यको प्राप्त करता है ॥ ९७ ॥ इत्यतो न्यायमार्गेण हिताय स्वपरात्मने । पालनीयं सदा राज्यं त्रिवर्गफलसाधनम् ॥ ९८ ॥ इसलिए अपने और दूसरोंके हितके लिए हमेशा न्यायमार्गसे राज्यका संचालन करना चाहिए। क्योंकि यह राज्य धर्म, अर्थ और काम, इन तीन पुरुषार्थों का साधक है ॥ ९८ ॥ सन्यासियोगिविमादी स्तोषयेद्दानमात्रतः। प्रतीत्य शपथैः सर्वाः प्रजा ग्राम निवासयेत् ॥ ९९ ॥ सन्यासी, योगी, ब्राह्मण आदिको दान देकर संतुष्ट करे, और शपथोंद्वारा सर्व प्रजाको विश्वास दिलाकर गांव बसावे ॥ ९९ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सोमसेनभट्टारकविरचित - कर्णेजपान् खलाँश्चोरान् परस्त्रीलम्पटान्मदान् । देशान्निर्वासयेद्राजा हिंसकान्मद्यपायिनः ॥ १०० ॥ चुगलखोरों, दुष्टों, चोरों, परस्त्री लंपटियों, मदोन्मत्तों, हिंसकों और शराब पीने वालोंको राजा देशसे निकाल बाहिर करे ॥ १०० ॥ स्वदेशादागतं वित्तं यथापात्रं समर्पयेत् । ख भट्टं नटं काणमन्धादीन्प्रतिपालयेत् ॥ १०१ ॥ अपने देशसे बसूल हुए धनको योग्य पात्रोंको देवे तथा उससे लंगड़े, भाट, नट, काने, अंधे आदि लोगोंका पालन-पोषण करे ॥ १०१ ॥ इत्यादि देशनं कृत्वा सन्ध्यायाः समये ततः । गच्छेज्जनालयं राजा सन्ध्यादिक क्रियां भजेत् ॥ १०२ ॥ उपर्युक्त कार्यों के बारेमें अपने नौकरादिकोंको आज्ञा करके राजा 'जिनमंदिरको जावे और वहांपर सन्ध्यावंदन आदि क्रियाएं करे । आचार कहा ॥ १०२ ॥ वैश्यस्य सत्क्रियां प्रोचे पुराणस्यानुसारतः । मषी कृषिः पाशुपाल्यं वाणिज्यं वैश्यकर्मणि ॥ सन्ध्याके समय इस तरह क्षत्रियोंका १०३ ॥ अब पुराणके अनुसार वैश्योंका आचार-व्यवहार कहता हूँ । वैश्यके कर्ममें मी ( लिखना पढ़ना ), कृषि ( खेती ), पशुपालन और वाणिज्य (व्यापार), ये चार कार्य मुख्य हैं ॥ १०३ ॥ राजसेवां समाश्रित्य कुर्याद्देशस्य लेखनम् । आयव्ययं कुलाचारं दत्तं भुक्तं नृपेण यत् ॥ १०४ ॥ राजकी नौकरी पाकर सारे देशके आयव्ययका हिसाब लिखे कि राज्य में कितनी आमदनी है, कितना खर्च है; राजाके कुलका आचरण कैसा है, राजाने किसको क्या दिया है, उसने स्वयं किस चीजका उपभोग किया है ॥ १०४ ॥ व्ययं तु सदने स्वस्य वाऽऽदायं वा कतिप्रमम् । द्रविणं कस्य किं दत्तं गृहीतं किं च कस्य वा ।। १०५ ।। इसी तरह वैश्य अपने घरका हिसाब-किताब लिखे कि आज अपने घर में क्या खर्च हुआ है, कितनी आमदनी हुई है, किसको कितने रुपये दिए हैं और किसके कितने रु० आए हैं ॥ १०५ ॥ कति धान्यं कति द्रव्यं सुवर्ण वाऽथ गोधनम् । भुक्तिभाण्डं च संलेख्यं यतो न संशयो भवेत् ॥ १०६ ॥ अपने घर में कितना धान्य, कितना द्रव्य, कितना सोना, कितनी गाएँ - भैषें और कितने भोजनके बर्तन हैं, ये सब लिखे; ताकि कोई तरहका सन्देह न रहे ॥ १०६ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २२१ लञ्च खुर्च न गृहीयात् कूटलेखं च वर्जयेत् । ... मायाशल्यं निदानं च क्रौर्यरागातिलोभताम् ॥१०७ ॥ - वैश्य लाँच न ले, और कोई खुशीसे कुछ दे उसे भी न ले । क्योंकि लांचके लेनेसे अपने परिणाम लांच देनेवालेकी ओर झुक जाते हैं, जिससे कार्योंके ठीक ठीक होनेकी संभावना नहीं रहती । वैश्य खोटे लेख, तमस्सुक आदि न लिखे, छल कपट न करे, अप्राप्त वस्तुके ग्रहण करनेकी लालसा न रक्खे, परिणामोंमें क्रूरता न रक्खे और अत्यन्त राग और लोभ न करे ॥ १०७ ॥ किंकरं तु समाहूय दत्वा च वृषभान् परान् । बीजधान्यं धनं वित्तं संस्कुर्यात् कृषिकर्म च ॥ १०८ ॥ . अच्छे अच्छे बैल और बोने योग्य अच्छा बीज तथा अन्य उपयोगी सामग्री देकर नौकेरोसे खेती करावे ॥ १०८॥ व्रतधारी क्रियाकारी सामायिकी तपोरतः। न कुर्यात् कर्षणं धर्मी भूरिजीवप्रघातकम् ॥ १०९ ॥ जो व्रतधारी है, नित्य नैमित्तिक क्रियाओंको करता है, निरन्तर सुबह शामको सामायिक करता है और उपवास आदि तपश्चरण करता है, ऐसा धर्मात्मा वैश्य स्वयं खेती न करे । क्योंकि खेती करनेसे बहुतसे जीवोंका घात होता है ॥ १०९ ॥ गोमहिषीतुरंगादीन् संगृह्य च व्ययेत्पुनः। दधि दुग्धं घृतं तक्रं भव्यपात्राय दीयते ॥ ११० ॥ घृतस्य विक्रये दोषो नास्ति व्यापारवर्तिनः। शेष गव्यं न विक्रीत तृणायैस्तर्पयेद्धनम् ॥ १११ ॥ वैश्य, गाएँ, भैसें, घोड़े आदिकी खरीदी कर बेंचे और दूध, दही, घी और मठा योग्य पुरुषोंको देवे । व्यापारी गृहस्थको घीके बेंचनेमें कोई दोष नही है । घीके अलावा शेष दूध दही आदि न बेंचना चाहिये । तथा अपने पासके पशुओंको घास आदिसे खूब तृप्त रक्खेउन्हें भूखे रहने दे || ११०-१११ ॥ वाणिज्यं त्रिविधं प्रोक्तं पण्यं वृषभवाहनम् । अब्धिनावादिकं चेति कुटुम्बपोषणाय वै ॥ ११२.॥ __ वैश्योंको अपने कुटुम्बका भरण-पोषण करनेके लिए व्यापार करना चाहिए। वह व्यापार तीन प्रकारका है । प्रथम-दुकान करना, दूसरे बैलगाड़ी आदिमें माल रखकर दूसरी जगह ले जाकर बेंचना तथा दूसरी जगहसे माल लाकर अपने यहां बेंचना और तीसरे जहाज आदि द्वारा द्वीपान्तरोंको माल ले जाना और वहांसे लाना ॥ ११२ ॥ गजयन्त्रे समानत्वं न्यूनाधिक्यविवर्जितम् । अल्पलाभेन कर्तव्यं वस्त्रस्य विक्रय मुदा ॥ ११३ ॥ कपड़ा नापनेका गज बराबर रक्खे, कमती ज्यादा न रक्खे । तथा थोड़ा नफा लेकर कपड़ा बेचे ।। ११३ ।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सोमसेनभट्टारकविरचितवर्षासु सूक्ष्मवस्त्रेषु जन्तूनां सम्भवो भवेत् । तत्पतिलेखनं कार्य श्रावकैधमहेतवे ॥ ११४ ॥ बरसातके दिनोंमें बारीक कपड़ोंमें प्रायः जीवोंकी उत्पत्ति होनेकी संभावना रहती है। इसलिए श्रावकोंको धर्मके निमित्त ऐसे कपड़े निरन्तर झाड़ पोंछ कर साफ रखने चाहिए ॥ ११४ ॥ रोमचर्मभवं वस्त्रं कौशेयं रक्तवर्जितम् ।---- . नीचगृहारनालेन संलिप्तं नैव विक्रयेत् ॥ ११५ ॥ __ ऊनी, चमड़ाके, बिना रंगे हुए (१) कोशेके तथा नीच घरोंका चांवल आटा आदिका मांड (कडप) लगे हुए कपड़े न बेंचे ॥ ११५ ॥ . सूत्रं च पट्टसूत्रं च कार्पासं नैव दोषभाक् ।। पट्टसूत्राण्डकौशाण्डेः श्रावकैनैव गृह्यते ॥ ११६ ॥ (?) ___ सूत, पट्टसूत्र (रेशम) और रुई-कपासका व्यापार करना दूषित नहीं है । तथा पट्टसूत्रांड, कौशांडका व्यापार श्रावकगण न करें ॥ ११६ ॥ सुवर्ण रजतं रत्नं गृण्हीयान्मौक्तिकं तथा । कपटं तत्र नो कार्य बहिर्लेपादिसम्भवम् ॥ ११७ ॥ श्रावकगण, सोना, चाँदी, रत्न और मोतियोंका व्यापार करें । तथा व्यापारमें किसी हीन (खोटी ) चीजपर किसी चीजका झोल आदि देकर-पालिशकर चोखी कहकर न बेंचे ॥ ११७ ॥ कूटद्रव्यं स्वयं ज्ञात्वाऽज्ञानिनं नैव विक्रयेत् । अतिवृद्धं तथा बालं मुग्धं भद्रं न धूर्तयेत् ॥ ११८ ॥ यह माल खोटा है, ऐसा अपनेको मालूम हो जानेपर अज्ञानियोंको वह माल न बेंचे । तथा बूढ़े, बालकों, मुग्धों और सजन पुरुषोंके साथ धूर्तता न करे ॥ ११८ ॥ चोरद्रव्यं नृपद्रव्यं भूपालद्रोहिणस्तथा । चेटीचेटकयोर्वित्तं न ग्राह्यं साधुभिर्जनैः ॥ ११९ ॥ चोरीका माल, राजाका माल; राजद्रोहीका माल, तथा दास-दासीका माल सजन पुरुषोंको न लेना चाहिए ॥ ११९ ॥ विस्मृतं पतितं गुप्तवृत्त्या दत्तं च केनचित् । रक्षणे स्थापितं भूमौ क्षिप्तं वा नच गोपयेत् ॥ १२० ॥ किसीका भूला हुआ, गिरा हुआ, गुप्तपनेसे अपने पास रक्खा हुआ, रक्षा करनेके लिए अपनेको सम्हलाया हुआ अथवा जमीनमें गढ़े हुए द्रव्यको न ग्रहण करे ॥ १२० ॥ तुलायां न्यायमार्गेण देशधर्मानुसारतः। . प्रस्तरादिषु मानेषु न्यूनाधिक्यं न कारयेत् ॥ १२१॥ नोट-१,यह श्लोक अशुद्ध मालूम पड़ता है। इससे इसका भाव ठीक ठीक नहीं निकलता । अनु. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २२३ तराजू तथा अपने देश-धर्मके अनुसार प्रचलित पत्थर लोहा आदिके सेर, पावसेर, पाई, पायली आदि तौलने-मापनेके बांटोंको कम ज्यादा न करे ॥ १२१ ॥ न्युनं दीयेत न कापि गृहीयान्नाधिकं कदा । घृतं गुडादि तैलं च धान्यं तु न कदाचन ॥ १२२ ॥ घी, गुड़, तेल, अनाज आदि पदार्थ न तो किसीको तोलमें कमती दे, और न आप किसीसे बढ़ती ले ॥ १२२ ॥ मधु च मधुपुष्पाणि कुसुम्भं धायपुष्पकम् । अहिफेनं विषं क्षारं मूक्ष्मधान्यं तिलादिकम् ॥ १२३ ॥ . घुणितं सकलं धान्यं लाक्षां लोहं च साबुकम् । लोहशस्त्राणि सर्वाणि जीर्णघृतं सतैलकम् ॥ १२४ ॥ पौस्तं माञ्जिष्ठकं क्षेत्रं कूपं जलप्रवाहजम् । इक्षुयन्त्रं तैलयन्त्रं नावं च चर्मभाजनम् ॥ १२५ ॥ लशुनं शृङ्गबेरं च निशाक्षेत्रं च चालजम् । कन्दं मूलं तथा चान्यदनन्तकायिकं परम् ॥ १२६ ॥ सिक्थं च नवनीतं च वनवाटीक्षुकाण्डकम् । पत्राणि नागवल्याश्च वन्हिबाणस्य भेषजम् ॥ १२७ ॥ खेचरं रोम चर्मास्थि शृङ्खलं पादुकाद्वयम् । मार्जनी च पदत्राणं हिंसोपकरणं परम् ॥ १२८ ॥ इत्यादिकमयोग्यं च पूर्वग्रन्थे निषेधितम् । तन्न ग्राह्य वणिग्वर्यैधेमेरक्षणहेतवे ।। १२९ ॥ शहत, महुवेके फूल, कुसूमा, धायटीके फूल, अफीम, विष, क्षार, तिल आदि बारीक अनाज, घुने हुए सब तरहके अनाज, लाख, लोहा, साबूदाना, सब तरहके लोहेके हथियार, पुराना धी, पुराना तेल, पोस्ते, मंजीठाका खेत, कुआ, अरहट (कुएसे पानी खींचनेका रहट), गन्नेका रस निकालनेका यंत्र, घानी, नाव, चमड़ेके मशक आदि बर्तन, लहसन, बेर, हल्दीका खेत, चालज, कन्द, मूल (जड़) तथा दूसरे अनन्तकायिक पदार्थ, मोम, मक्खन, बागबगीचे, गन्नेके पेड़, पान, छोड़नेकी दारू, पारा, ऊन, चमड़ा, हड्डी, लोहेकी सांकल, खड़ाऊ, बहारी, जूते, हिंसाके योग्य अस्त्र-शस्त्र इत्यादि अयोग्य पदार्थोंका, जिनका कि प्राचीन प्रन्थों में निषेध किया गया है, बनिये अपने धर्मकी रक्षाके लिए देन लेन न करें ।। १२३-२९ ।। ____अजाघ्नगोघ्नमत्स्यघ्नाः कल्लालाश्चर्मकारकाः। पापर्धिकः सुरापायी एतैवेक्तुं न युज्यते ॥ १३०॥ बकरी, गाय मारनेवाले कसाई, मच्छी मारनेवाले ढीमर, शराब बेंचनवाले कलार, चमार, पातकी और मदिरा पीनेवाले, इत्यादि नीच लोगोंके साथ बात भी न करे ॥ १३० ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सोमसेनभट्टारकविरंचितएतान्किमपि नो देयं स्पर्शनीयं कदापि न। . न तेषां वस्तुकं ग्राह्य जनापवाददायकम् ॥ १३१ ॥ ' इन लोगोंको कुछ भी न दे, न उनकी कोई वस्तु ले और न कभी उनको छुए । क्योंकि ऐसा करनेसे संसारमें अपनी बदनामी होती है ॥ १३१॥ -------- रजको रअकश्चैव भाडिभुञ्जतिलन्तुदो। चक्राग्निभस्मपाषाणचूर्ण न कारयेत्रियाम् ॥ १३२॥ धोबी, रँगरेज़, भड़भूजे और तेलीको उनके कामोंके बारेमें उत्तेजना न करे । तथा गाडीका चाक, अग्नि, भस्म, पत्थर फोड़ना आदि कार्य करनेको किसीसे न कहे ॥ १३२ ॥ विपक्षत्रियवैश्यैश्च स्पृश्यशूद्रैस्तथा सह । व्यापारकरणं युक्तं नीचैर्नीचत्वमुद्भवेत् ॥ १३३ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और स्पृश्य शूद्रोंके साथ व्यापार करना चाहिए । नीचोंके साथ व्यापार करनेसे अपनेमें नीचता आती है ॥ १३३ ॥ काछिकमालिको कांस्यकनकलोहकारकाः । सूत्रधारः सूचीधारः कुविन्दः कुम्भकारकः॥ १३४ ॥ रङ्गकारः कुटुम्बी च भाडभुञ्जस्तिलन्तुदः।। ताम्बूली नापितश्चैव स्पृश्यशूद्रा; प्रकीर्तिताः ॥ १३५॥ काछी, माली, कसेरे-ठटेरे, सुनार, लुहार, सिलावट, सूचीधार, हिन्दू जुलाहे, कुम्हार, रंगरेज, कुटुंबी, भड़भूजे, तेली, तमोली, नाई इत्यादि लोग स्पृश्य शूद्र माने गये हैं ॥ १३४-१३५॥ योग्यायोग्यमिदं दृष्ट्वा व्यापारः क्रियते बुधैः । दूरदेशगमार्थं च वृषभं वाहयेन्नरः ॥ १३६ ॥ अल्पभारं परिक्षिप्य शनैः सञ्चालयबुधः । आहारोदकपूरेण यावत्तृप्ति तु पूरयेत् ॥ १३७ ॥ पृष्ठे शोफादिके जाते कृपया परिच्छेदयत् । उपशमो न यावच तावद्भारं न धारयेत् ॥ १३८ ॥ बुद्धिमान् वैश्योंका कर्तव्य है कि वे उपर्युक्त योग्य और अयोग्य लोगोंका विचार कर उनके साथ व्यापार-धंधा करें। यदि व्यापारके लिए देशान्तरोंको जाना हो तो बैलोंपर लाद कर माल ले जावे। जिन बैलोंपर माल ले जावे उनपर थोड़ा (माफिकका) बोझा लादे और उन्हें धीरे धीरे चलावे । उनको खाने पीनेके लिए घांस-पानी आदि भर पेट देवे। यदि उनकी पीठ वगैरहपर सूजन आदि आ गई हो तो दया-पूर्वक उसका इलाज करे । जबतक उनका रोग दूर न हो तबतक उनपर बोझा न लादे ॥ १३६-१३८ ॥ ... जलयाने सदाचारं रक्षयेद्धमहेतवे । कदाचित्कर्मयोगेन मग्नं चेत्संस्मरेज्जिनम् ॥ १३९ ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २२५ व्यापारके लिए यदि नाव आदिमें बैठकर द्वीपान्तरोंको जावे, तो वहांपर धर्मके निमित्त अपने शुद्ध आचरणकी रक्षा करता रहे । यदि कदाचित् दैवयोगसे समुद्र में डूबनेका मौका आ जाय तो जिनदेवका स्मरण करे ॥ १३९ ॥ व्यापारो वणिजां प्रोक्तः संक्षपेण यथागमम् । विपक्षत्रियवैश्यानां शूद्रास्तु सेवका मताः॥ १४०॥ यहांतक संक्षेपमें आगमके अनुसार वैश्योंका कर्तव्य-कर्म कहा । अब शूद्रोंका कर्तव्य-कर्म कहा जाता है । शूद्र लोग, ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्योंके सेवक होते हैं ॥ १४० ॥ तेषु नानाविधं शिल्पं कर्म मोक्तं विशेषतः। जीवदयां तु संरक्ष्य तैश्च कार्य स्वकमेकम् ॥ १४१ ॥ शूद्रोंके लिए तरह २ के शिल्प-कर्म विशेष रीतिसे कहे गये हैं। वे जीवोंकी दयाका पालन करते हुए अपने अपने कार्यको करें ॥ १४१ ॥ विपक्षत्रियविदशूद्राः मोक्ताः क्रियाविशेषतः। जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः ॥ १४२ ॥ लाभालाभे समं चित्तं रक्षणीयं नरोत्तमैः । अतितृष्णा न कर्तव्या लक्ष्मीभाग्यानुसारिणी ॥ १४३ ॥ ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-ये चारों वर्ण अपनी अपनी क्रियाओंके भेदसे कहे गये हैं। ये सब जैनधर्मके पालन करनेमें दत्तचित्त रहते हैं, इसलिए सब भाई-बंधुके समान हैं। सबको नफा नुकसानमें समचित्त रहना चाहिए। तथा व्यापारमें अधिक लालसा भी न करना चाहिए। क्योंकि लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति अपने अपने भाग्यके अनुसार होती है ॥ १४२-१४३ ॥ उद्यमेषु सदा सक्त आलस्यपरिवर्जितः । सदाचारक्रियायुक्तो धनं प्राप्नोति कोटिशः ॥ १४४ ॥ जो पुरुष आलस्य छोड़कर निरन्तर उद्योग करता रहता है और सदाचरणका पालन करनेमें तत्पर रहता है उसे करोड़ों रुपये प्राप्त हो जाते हैं ॥ १४४ ॥ सव्यापार तथा धर्मे आलस्यं न हि सौख्यदम् । उद्योगः शत्रुवन्मित्रमालस्पं मित्रवद्रिपुः ॥ १४५ ॥ उत्तम व्यापार तथा धर्ममें आलस्य (सुस्ती) करना सुखकर नहीं है । उद्योग कटु बचन बोलनेवाले शत्रकी तरह मित्र है, और आलस्य मीठे वचन बोलनेवाले मित्रकी तरह शत्र है। भावार्थ-यद्यपि उद्योग करनेसे कई तरहकी आपत्तियां झेलनी पड़ती हैं, परन्तु आखिर वह उद्योग मित्रोंके सरीखा ही कार्य करता है-अपना सहायक होता है । और यद्यपि आलस्य करनेसे अर्थात् सोते पड़े रहनसे शरीरको आराम मिलता है, परन्तु वह आराम आराम नहीं है। वास्तवमें वह आराम दुःखदायी है ॥ १४५ ॥ २९ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सोमसेनभट्टारकविरचितपीडायामद्भुते जृम्मे स्वेष्टार्थप्रक्रमे क्षुते । शयनोत्थानयोः पादस्खलने संस्मरेज्जिनम् ॥ १४६॥ किसी तरहकी पीड़ा होनेपर, विचित्र अँभाई-उबासीके आनेपर, उत्तम कार्य करनेका प्रारंभ करनेमें छींक आनेपर, सोने, उठने तथा पैरके लड़खड़ा जाने या धक्का लग जानेपर जिनदेवका स्मरण करे ॥ १४६ ॥ अश्रद्धेयमसत्यं च परनिन्दात्मशंसने । मध्येसमं न भाषेत कल्युत्पादवचः सदा ॥ १४७ ॥ अर्थनाशं मनस्तापं गृहदुश्चरितानि च । मानापमानयोवाक्यं न वाच्यं धृतसन्निधौ ॥ १४८ ॥ पुरुष सभाओंमें तथा अन्यत्र ऐसे वचन न बोले, जिससे दूसरे लोग अपना विश्वास न करें। झूठ न बोले, अपनी प्रशंसा और दूसरोंकी निन्दा न करे, तथा कलहकारी वचन न बोले । अपने दव्यकी हानि, मनका संताप, घरके दुश्चरित्र और मान अपमानके वचन धूर्त लोगोंके सामने न कहे ॥ १४७-१४८ ॥ सम्पत्तौ च विपत्तौ च समचित्तः सदा भवेत् ।। स्तोकं कालोचितं ब्रूयाद्वचः सर्वहितं प्रियम् ॥ १४९ ॥ न्यायमाग सदा रक्तचोरबुद्धिविवर्जितः । अन्यस्य चात्मनः शत्रु भावात्मकाशयेन हि ॥ १५० ॥ सम्पत्ति और विपत्तिमें सदा समचित्त रहे, समयके अनुकूल थोड़ा प्रिय और हितकारी वचन बोले, हमेशह नीतिपर डटा रहे, चोरी करनेके परिणाम कभी न करे, और अपने तथा परके शत्रुका प्रकाशन न करे ॥ १४९-१५०॥ वैराग्यभावनाचित्तो धर्मादेशवचो वदेत् । लोकाकूतं समालोच्य चरेत्तदनुसारतः ॥ १५१॥ सत्त्वे मैत्री गुणे हषः समता दुजेनेतरे। कायोथे गम्यते तस्य गेहं नोचेत्कदा च न ॥ १५२ ॥ निरन्तर वैराग्यभावनामें लौ लगाये रहे, धर्मोपदेशी वचन बोले, लोगोंके विचारोंको अच्छी तरह समझ-बूझकर उनके अनुसार आचरण करे, संसारभरके प्राणियोंपर मित्रभाव रस्खे, गुणी जनोंको देखकर हर्ष प्रकट करे, दुर्जन और सजन पर सम भाव रक्खे, और कार्यके निमित्त ही दूसरेके घरपर जावे अर्थात् बिना कार्यके दूसरेके घर कभी न जावे ॥ १५१-५२॥ हिंसापापकरं वाक्यं शास्त्रं वा नैव जल्पयेत् । द्रोहस्य चिन्तनं वापि कस्यापि चिन्तयेन हि ॥ १५३ ॥ . जिन चनोंके बोलनेसे हिंसा-पाप हो वैसे वचन कभी न बोले और न ऐसा शास्त्र किसीको सुनावे । तथा कहीं पर भी किसीके बैरकी चिन्तना न करे ॥ १५३ ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ त्रैवर्णिकाचार। दारिद्यशोकरोगास्तिोषयेद्रेषजादिना । स्वस्य यदनिष्टं स्यात्तन्न कुर्यात्परे क्वचित् ॥ १५४ ॥ दरिद्रियों, शोकसे व्याकुल और रोग पीड़ितोंको औषधि आदिके द्वारा सन्तुष्ट करे। जिस कार्यको आप बुरा समझता हो उस कार्यको किसी दूसरेके निमित्त भी न करे ॥१५४ ॥ समीपोक्तौ हासे श्वासे जृम्भे काशे क्षुते तथा । धूमधूलिप्रवृत्तौ च छादयेद्वाससाऽऽननम् ॥ १५५ ॥ दूसरेके अत्यन्त समीप खड़े रहकर बातचीत करते समय, हँसते समय, सांस लेते समय, जभाई लेते समय और छींक लेते समय कपड़ेसे अपना मुंह ढाँक ले । तथा घुएंमें जाना हो या जहाँपर धूल-गर्दा उड़ रहा हो वहाँ जाना हो तो भी अपना मुँह ढाँक ले ॥ १५५ ।। कूपकण्ठे च वल्मीके चोरवेश्यासुराशिनाम् । सन्निधौ मार्गमध्ये तु न स्वपेत्तु जलाशये ॥ १५६ ॥ कुएके किनारे ( पार ) पर, साँप, चूहे आदिके बिलोंपर, चोर, वेश्या और मद्य पीनेवाले पुरुषोंके घरपर, रास्तेके बीचमें तथा तालाब आदि जलके स्थानोंमें न सोवे-निद्रा न लेवे ॥ १५६ ॥ नैको मार्गे व्रजेकः स्वपेत्क्षेत्रे शवान्तिके । अविज्ञातोदके नैव प्रविशेद्वा गिरौ न हि ॥ १५७ ॥ अकेला रास्ता न चले, खेतमें अथवा मुर्देके पास अकेला न सोवे, अपरिचित कुआ, नदी, तालाब आदिमें अकेला न घुसे और पर्वतपर अकेला न चढ़े ॥ १५७ ॥ दातारं पितृबुद्ध्या च सेवेत् क्षेमहेतवे । पठितान्यपि शास्त्राणि पुनः पुनः प्रचिन्तयेत् ।। १५८ ॥ अपने सुख और फायदेके लिए जो अपनेको खाने-कमानेको रुपया पैसा देता हो उसकी पिता-बुद्धिसे सेवा करे-उसे पिताके तुल्य समझे । पढ़े हुए शास्त्रोंका बारबार चिन्तवन-मनन करे ॥ १५८ ॥ सूक्ष्मवस्तु तथा सूर्य नैकदृष्टया विलोकयेत । पादत्राणं विना मार्गे गच्छन्न हि सुधार्मिकः ॥ १५९ ॥ अत्यन्त बारीक वस्तु तथा सूर्यको एक दृष्टिसे न देखे । जूता पहिने बिना रास्ता न चले ॥१५९॥ मूखैः सह वदेनैव नोल्लङ्घयेद्गुरोर्वचः। दुर्वाक्यं यदि वा मूदत्तं तत्सहेत स्वयम् ॥ १६० ॥ __ मूर्ख पुरुषोंके साथ बातचीत न करे, पिता आदि बड़ोंके वचनोंका उल्लंघन न करें; और यदि मूर्ख आदमी अपनेको कटु वचन भी कहे तो उन्हें शान्तिके साथ सह ले ॥ १६० ॥ व्यवहाराद्विवादे वा कालुष्यं नावहेद्धृदि । नाकारणं हसेदास्यं नासारन्ध्र न घषयेत् ॥ १६१॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित व्यावहारिक कामोंमें यदि किसीके साथ विवाद हो गया हो-झगड़ा पड़ गया हो, तो उसक कारण अपने हृदयमें कलुषता धारण न करे, प्रयोजनके बिना न हँसे, मुखपर बारबार हाथ न फेरे, और न नाक में बारबार उंगली हँसे ॥ १६९ ॥ २२८ ब्रूयात्कार्य दृढीकृत्य वचनं निर्विकारतः । वृथा तृणादि न छेद्यं नांगुल्याद्यैश्व वादनम् ॥ १६२ ॥ किसी भी कार्यका पुख्ता विचार कर उसके विषय में ऐसे वचन कहे जिनके सुननेसे दूसरोंके हृदयमें क्षोभ पैदा न हो । चिना प्रयोजन तृण ( तिनके) आदिको न छेदे । और न व्यर्थ उगलियां चटकावे । अथवा अपने शरीरपर बिना प्रयोजन हाथ उंगली आदिके द्वारा बाजा न बजावे ॥ १६२ ॥ मात्रा पुत्र्या भगिन्या वा नैको रहसि जल्पयेत् । आसने शयने स्थाने याने यत्नपरो भवेत् ॥ १६३॥ माता, पुत्री अथवा बहिनके साथ एकान्तमें अकेला बैठकर बातचीत न करे । बैठने, सोने, खड़े रहने और सवारी आदि पर चढ़नेके समय सावधान रहे ॥ १६३ ॥ जीवधनं स्वयं पश्येत् समीपे कारयेत्कृषिम् । वृद्धान् बालाँस्तथा क्षीणान् बान्धवान्परितोषयेत् ॥ १६४ ॥ गाय, भैंस, बैल, घोड़े आदि जीवित धनकी स्वयं देख-रेख रक्खे । खेती वगैरह अपने ग्राम के पास में ही करावे । बूढ़ों, बालकों, शक्तिहीन दुर्बल और बांधवोंको सन्तुष्ट रक्खे || १६४ || जिनादिप्रतिमाया वा पूज्यस्यापि ध्वजस्य वा । छायां नोल्लङ्घयेन्नीचच्छायां च स्पर्शयेत्तनुम् ।। १६५ ॥ जिनादि प्रतिमाकी या पूज्य जिन मंदिरपर लगी हुई ध्वजाकी छायाका उल्लंघन न करे और नीच पुरुषोंकी छायासे अपने शरीरका स्पर्श न होने दे ॥ १६५ ॥ अदानाक्षेपवैमुख्यमर्थिजनेषु नाचरेत् । अपकारिष्वपि जीवेषु ह्युपकारपरो भवेत् ॥ १६६ ॥ अथ जनोंको कुछ न देना, उनका तिरस्कार करना, उन्हें वापिस लौटा देना आदि कार्य न करे । अपना अपकार करनेवाले - अपना बुरा चाहनेवाले मनुष्योंपर भी उपकार ही करे ॥ १६६ ॥ निद्रा स्त्रीभोगभुक्त्यध्वयानं सन्ध्यासु वर्जयेत् । साधुजनैर्विवादं तु मूखैः प्रीतिं तु नाचरेत् ॥ १६७ ॥ सन्ध्या के समय निद्रा न ले, स्त्री-संभोग न करे, भोजन न करे और न रास्ता चले । सज्जनोंके साथ वाद-विवाद न करे और मूर्खोके साथ प्रीति न करे ॥ १६७ ॥ छात्रागारे नृपागारे शत्रुवेश्यागृहे तथा । क्रीतान्नसदने नीचार्चकागारे न भुञ्जयेत् ।। १६८ ।। शिष्य, राजा, शत्रु, तथा वेश्या के घरपर भोजन न करे । तथा ढाबे, होटल आदिमें, नीच पुरुषोंके यहां, और पुजारियोंके घर भोजन न करे ॥ १६८ ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २२९ vavhind नाखिनां च नदीनां च शृंगिणां शस्त्रपाणिनाम् ।। वनितानां नृपाणां च चोराणां व्यभिचारिणाम् ॥ १६९ ॥ • खलानां निन्दकानां च लोभिनां मद्यपायिनाम् । विश्वासो नैव कर्तव्यो वञ्चकानां च पापिनाम् ॥ १७० ॥ नखोंसे प्रहार करनेवाले जानवरों, नदियों, सींगवाले जानवरों, हथियार धारण किये हुए मनुष्यों, स्त्रियों, राजाओं, चोरों, व्यभिचारी पुरुषों, दुष्टों, निंदकों, लोभी मनुष्यों, शराब पीनेवाले मनुष्यों, ठगियों और पापियोंका कभी विश्वास न करे ॥ १६९-१७० ॥ मध्ये न पूज्ययोर्गच्छेन्न पृच्छेदप्रयोजनम् । बहिर्देशात्समायातः स्नात्वाऽऽचम्य विशेद्गृहम् ॥ १७१ ॥ पूज्य पुरुषोंके बीच में होकर गमन न करे । प्रयोजनके बिना किसीसे कुछ न पूछे । बाहिर देशसे आया हो तो स्नान-आचमन कर घरमें प्रवेश करे ॥ १७१ ॥ आरम्भे तु पुराणस्यान्यव्यापारस्य कस्यचित् । नमः सिद्धेभ्य इत्युच्चैनम्रीभूतो वदेद्वचः ॥ १७२ ॥ शास्त्रके प्रारंभमें अथवा और किसी कार्यके शुरुवातमें नम्रताके साथ "ॐ नमः सिद्धेभ्यः" इस पदका उच्चारण करे ॥ १७२ ॥ भुञ्जानोऽप्यहिक सौख्यं परलोकं विचिन्तयेत् । स्तनमेकं पिबन्बालोऽन्यस्तनं मर्दयेद्भुवि ॥ १७३ ॥ ___ इस लोक सम्बन्धी सुखोंको भागते हुए भी परलोक सम्बन्धी सुखका चितवन करे । जैसे कि बालक अपनी माताके एक स्तनको पीता रहता है और दूसरेको अपने हाथसे पकड़े रहता है। भावार्थ-मनुष्योंको अपने उभय ( दोनों) लोक सम्बन्धी सुखका चितवन करना चाहिए ॥ १७३ ॥ कृत्वैवं लौकिकाचारं धर्म विस्मारयेन हि ।। सन्ध्यादिवन्दनां कुर्यादीप प्रज्वलयेद्गृहे ॥ १७४ ॥ • इस तरह लौकिक आचरणका पालन करता हुआ गृहस्थधर्मको न भूले, सन्ध्यावन्दना आदि करता रहे; और शामको घरमें दीपक जलावे ॥ १७४ ॥ रवेरस्तं समारभ्य यावत्सूर्योदयो भवेत् । यस्य तिष्ठेद्गृहे दीपस्तस्य नास्ति दरिद्रता ॥ १७५ ॥ आयुष्ये प्राङ्मुखो दीपो धनायोदङ्मुखो मतः। प्रत्यङ्मुखोऽपि दुःखाय हानये दक्षिणामुखः ॥ १७६ ॥ सूर्यास्तसे लेकर सूर्योदय पर्यन्त जिसके घरमें दीपक जलता रहता है उसके घेरम कभी दरिद्रताका प्रवेश नहीं हो पाता है । दीपकका मुख पूर्व दिशाकी ओर करनेसे आयु बढ़ती है, उत्तरकी तरफ मुख करनेसे धन-लक्ष्मी बढ़ती है, पश्चिमकी ओर मुख करनेसे दुःख होता है और दक्षिणकी तरफ मुख करनेसे हानि होती है ॥ १७५-१७६ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० सोमसेनभट्टारकविरचितचतुर्दिक्षु तु ते दीपाः स्थापिताः सन्ति चेदहो । शुभदास्तु ततो विश्वे न हि दोषस्तु कश्चन ॥ १७७ ॥ चार दिये चारों दिशाओंमें मुखकर धरनेसे शुभ देनेवाले होते हैं। इसमें पहले कहे हुए कोई दोष नहीं लगते । ॥ १७७ ॥ इत्येवं कथितस्त्रिवर्णजनितो व्यापारलक्ष्म्यागमो। ये कुर्वन्ति नरा नरोत्तमगुणास्तं ते त्रिवर्गार्थिनः ॥ भोगानत्र परत्रजन्मान सदा सौख्यं लभन्ते पर मन्ते कर्मरिपुं निहत्य विमलं मोक्षं व्रजन्त्यक्षयम् ॥ १७८ ॥ ___इस तरह तीनों वर्णोंका आचार व्यवहार, लक्ष्मीकी प्राप्ति आदिका वर्णन किया । धर्म, अर्थ और काम-इन तीन पुरुषार्थोंके चाहनेवाले जो सज्जन इस त्रैवर्णिक आचरणको करते हैं वे इस जन्ममें उत्तम भोगोंको भोगते हैं और पर जन्ममें भी हमेशा परम सुख पाते हैं। तथा अन्तमें कर्म रूपी बैरियोंको जीतकर वे अक्षय-निर्मल-मोक्षस्थानको जाते हैं ॥ १७८ ॥ त्रिवर्णसल्लक्षणलक्षिताङ्गो । योऽभाणि चातुर्यकलानिवासः। व्यापाररूपः स च सप्तमोऽसा-। वध्याय इष्टो मुनिसोमसेनैः।।१७९॥ तीनों वर्गों के आचार-व्यवहारसे परिपूर्ण, चातुर्य कलाका निवास-ऐसा यह सदाचारात्मक सातवां अध्याय मुझ सोमसेनमुनिने निरूपण किया ॥ १७९ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। आठवाँ अध्याय। मंगलाचरण। हरिवंशोदयपर्वतसूर्योऽजेयमतापपरिभाव्यः। जयति सदरिष्टनेमिस्त्रिभुवनराजीवकाल्हादी ॥१॥ जो हरिवंशरूपी उदयाचल पर. उदय हुए सूर्य के समान हैं, अजेय कान्तिसे युक्त हैं, तीन भुवनके भव्यजनरूपी कमलोंका विकास करनेवाले हैं, ऐसे श्रीअरिष्टनेमि जिनेश्वर जयवन्त रहें ॥ १ ॥ चन्द्रमभं जिनं वन्दे चन्द्राभं चन्द्रलाञ्छनम् । भव्यकुमुदिनीचन्द्रं लोकालोकविकाशकम् ॥२॥ __ मैं उन चन्द्रप्रभ जिनेश्वरको नमस्कार करता हूँ, जिनके शरीरकी कान्ति चन्द्रमाकी कान्तिक समान पीतवर्ण है, जिनके चन्द्रमाका चिन्ह है, जो भव्यरूपी कमलिनीका विकास करनेको चन्द्रमा सदृश हैं, और जो लोक और अलोकका प्रकाशन करनेवाले हैं ॥ २ ॥ __कथन-प्रतिज्ञा। गर्भाधानादयो भव्यास्त्रित्रिंशत्सुक्रिया मताः । वक्ष्येऽधुना पुराणे तु याः प्रोक्ता गणिभिः पुरा ॥३॥ गर्भाधान आदि जिन उत्तम तैंतीस सुक्रियाओंका प्राचीन महर्षियोंने शास्त्रों में कथन किया है उसको अब मैं यहांपर कहता हूँ ॥ ३ ॥ तैंतीस क्रिया । आधानं प्रीतिः सुप्रीतिधृतिर्मोदः मियोद्भवः । नामकर्म बहिर्यानं निषद्या प्राशन तथा ॥ ४ ॥ व्युष्टिश्च केशवापश्च लिपिसंस्थानसंग्रहः । उपनीतिवेतचयो व्रतावतरणं तथा ॥५॥ विवाहो वर्णलाभश्च कुलचर्या गृहीशिता। प्रशान्तिश्च गृहत्यागो दीक्षाधं जिनरूपसा ॥ ६॥ मृतकस्य च संस्कारो निर्वाणं पिण्डदानकम् । श्राद्धं च सूतकद्वैतं प्रायश्चित्तं तथैव च ॥ ७ ॥ तीर्थयात्रेति कथिता द्वात्रिंशत्संख्यया क्रियाः। त्रयस्त्रिंशच्च धर्मस्य देशनाख्या विशेषतः॥८॥ १ गर्भाधान, २ प्रीति, ३ सुप्रीति, ४ धृति, ५ मोद, ६ प्रियोद्भव, ७ नामकर्म, ८ बहिर्यान, ९ निषद्या, १० अन्नप्राशन, ११ व्युष्टि, १२ केशवाप, १३ लिपि-संग्रह, १४ उपनयन, १५ प्रतपर्या, १६ प्रतावतरण, १७ विवाह, १८ वर्णलाभ, १९ कुलचर्या, २० गृहीशिता, २१ प्रशान्ति, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सोमसेनभट्टारकविरचित २२ गृहत्याग, २३ दीक्षा, २४ जिनरूपता, २५ मृतकसंस्कार, २६ निर्वाण, २७ पिण्डदान, २८ भाद्ध, २९ जननाशौच, ३० मृतकाशौच, ३१ प्रायश्चित्त, ३२ तीर्थयात्रा और ३३ धर्मोपदेश-ये तैंतीस क्रियाएं हैं ।। ४-८॥ . - गर्भाधान क्रिया। ऋतुमती स्वहस्ते तु यावदिनचतुष्टयम् । मल्लिकादिलतां धृत्वा तिष्ठेदेकान्तसमनि ॥ ९॥ चतुर्थे वासरे पञ्चगव्यैः संस्नापयेच्च ताम् । हरिद्रादिकसद्वस्तुसुगन्धैरनुचर्चयेत् ॥ १० ॥ रजस्वला स्त्री, चार दिन तक अपने हाथमें मल्लिका (मोगरा-बेला) आदिकी बेल लिये हुए एकान्त स्थानमें बैठी रहे, चौथे दिन पंचगव्यसे स्नान कर हल्दी आदि मंगल द्रव्य तथा सुगन्धित पदार्थोंका शरीरपर लेप करे ॥ ९-१०॥ प्रथमर्तुमती नारी भवत्यत्र गृहाङ्गणे । ब्रह्मस्थानात्पृथग्भागे कुण्डत्रयं प्रकल्पयत् ॥ ११ ॥ पूर्ववत्पूजयेत्सुरिः प्रतिमां वेदिकास्थिताम् । चक्रच्छत्रत्रयोपेतां यक्षयक्षीसमन्विताम् ॥ १२ ॥ जब स्त्री पहले-ही पहले रजस्वला हो तब अपने घरके आँगनमें ब्रह्म-स्थानको छोड़कर किसी दसरे स्थानमें पहलेकी तरह तीन कुंड बनावे और वहां वेदीके ऊपर तीन चक्र, तीन छत्र और यक्षयक्षीसे युक्त जिनप्रतिमा विराजमान कर गृहस्थाचार्य पूजा करे ॥ ११-१२ ॥ ततः कुण्डस्य प्राग्भागे हस्तमात्रं सुविस्तरम् । चतुरस्रं परं रम्यं सँस्कुयोद्वेदिकाद्वयम् ॥ १३ ॥ पञ्चवर्णैस्ततस्तत्र संलिखेदग्निमण्डलम् । अष्टदिशासु पद्माष्टं मध्ये कर्णिकया युतम् ॥ १४ ॥ इसके बाद कुंडसे पूर्व दिशाकी ओर एक हाथ लम्बी चौड़ी चौकोन दो वेदिकाएँ बनावे । पश्चात् उनके ऊपर पांच रंगके चूर्णसे अग्निमंडल लिखे । उस अग्निमंडलकी आठों दिशाओंमें बीचमें कार्णका-युक्त भाठ पाँखुरीवाले आठ कमल बनावे ॥ १३-१४ ॥ चतुथ वाऽह्नि सुस्नातौ जायापती निवेश्य च । तत्र चालङ्कृतौ वृद्धस्त्रीभिश्च क्रियते क्रिया ॥ १५ ॥ मृदा संलिप्य सद्भूमिं निशाचूर्णैश्च तण्डुलैः । तयोरग्रे लिखेद्यन्त्रं स्वस्तिकाकारमुत्तमम् ॥ १६ ॥ तत्र सपल्लवं कुम्भं मालावस्त्रसुसूत्रितम् । स्थापयेन्मङ्गलार्थं तु ससून विधिपूर्वकम् ॥ १७ ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २३३ चौथे दिन वृद्ध सुवासिनी स्त्रियां उन पति-पत्नीको स्नान करावें । फिर वे उन्हें गहनों-कपड़ोंसे अच्छी तरह सजा कर अग्निमंडलोंपर बैठावें और सब क्रियाएँ करें। उनके आगेकी जमीन मिट्टीसे लीपकर हल्दी और चांवलोंसे स्वस्तिकके आकारवाला एक उत्तम यंत्र लिखें । उसपर मंगलके लिए विधिपूर्वक एक कलश स्थापन करें । उस कलशके मुखको पाँच पत्ते, माला, वस्त्र और सूतके धागेसे सुशोभित करें ॥ १५-१७ ॥ __ आचार्यस्तं करे धृत्वा पुण्याहवचनैर्वरैः। सिञ्चयेदम्पती तौ च पुण्यक्षेमार्थचिन्तकः ॥ १८ ॥ इसके बाद गृहस्थाचार्य कलशको हाथमें लेकर, इनका कल्याण हो, पुण्य बढ़े और इन्हें सम्पत्ति प्राप्त होवे-ऐसा मनमें चिन्तवन करता हुआ पुण्याहवचनों द्वारा उस कलशके जलसे उन दोनों पति-पत्नीका अभिषेक करे ॥ १८ ॥ त्रिपरीत्य ततो वहिं तत्र चोपाविशेत्पुनः। सौभाग्यवनिताभिश्च कुडकुमैः परिचयेत् ॥ १९ ॥ नीराजनां ततः कृत्वा वर्धयेच्च जलाक्षतैः। वस्त्रताम्बूलभूषाभिः पूज्यौ तौ ताभिरादरात् ॥ २० ॥ इसके बाद उनसे अग्निकी तीन प्रदक्षिणा दिलाकर वहीं पर बैठा दे । पश्चात् सौभाग्यवती स्त्रियाँ उनके कुंकुमका तिलक करें, आरती उतारे और जल-अक्षत उनके सिरपर डालकर, तुम वृद्धिको प्राप्त होओ-फलो फूलो, ऐसा कहें । इस अवसरपर वे स्त्रियाँ वस्त्र, ताम्बूल, आभूषण आदिसे उनका सत्कार करें-कोई वस्त्र, कोई तांबूल, कोई आभूषण आदि अपनी २ शक्तिके अनुसार उन पति-पत्नीको देकर खुश करें ॥ १९-२० ॥ वरवध्वौ युवाभ्यां भो अस्मद्वंशोऽस्तु दृद्धिमान् ।। इत्याशीर्वचनस्तौ च संन्तोषाद्वा विसर्जयेत् ॥ २१॥ और हे वधू-वरो! तुम्हारे द्वारा यह हमारा वंश वृद्धिको प्राप्त होवे, इत्यादि आशीर्वाद देकर उन्हें सन्तोषपूर्वक वहाँसे घर भेजें ॥ २१ ॥ स्वजातीयांस्ततः सर्वानन्नदानैश्च तर्पयेत् । सद्गन्धैः पूजयेत्पीत्या ताम्बूलाम्बरभूषणैः ॥ २२ ॥ इसके बाद अपने सब जातीय लोगोंको भोजन करावे और तिलक लगाकर तांबूल, कपडे और आभूषणोंसे बड़े प्रेमके साथ उनका सत्कार करे ॥ २२ ॥ इत्यादिकविधिः कार्यः प्रथमतौं स्त्रियो गृहे । ततः सन्तानवृद्धिः स्यात्केवलं धर्महेतुका ॥२३॥ ... स्त्रियां जब पहले पहल रजस्वला होवें तब उपर कहे अनुसार सम्पूर्ण विधि करें । इससे केवल धार्मिक सन्तानकी वृद्धि होती है ॥ २३ ॥ स्वगृहे प्राक् शिरः कुर्याच्छ्वाशुरे दक्षिणामुखः । प्रत्यङ्मुखः प्रवासे च न कदाचिदुदङ्मुखः ॥ २४ ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित सोते समय अपने घरमें पूर्व दिशाकी तरफ, ससुराल में दक्षिणकी तरफ और प्रवास में पश्चिमकी तरफ सिर करके सोवे । उत्तर दिशाकी तरफ कभी भी सिर न करे ॥ २४ ॥ तृणे देवालये चैव पाषाणे चैव पल्लवे । अङ्गणे द्वारदेशे तु मध्यभागे गृहस्य च ।। २५ ॥ रिक्तभूमौ तथा लोष्टे पार्श्वे चोच्छिष्टसन्निधौ । शून्यालये स्मशाने च वृक्षमूले चतुष्पथे ॥ २६ ॥ भूतस्थानेऽहिगेहे वा परस्त्रीचोरसन्निधौ । कुलाचाररतो नित्यं न स्वपेच्छ्रावकः क्वचित् ॥ २७ ॥ तृणोंपर, मंदिर में, पत्थरोंपर, पत्तोंपर, आँगन में, दरवाजेके बीच, घरके बीच में, खाली जमीन में, मिट्टी के ढेलोंपर, उच्छिष्ट (झूठन) के समीप, शून्यस्थानमें, स्मशानमें, वृक्षकी जड़ों में, चौराहेमें, भूतके स्थानोंमें, सपके बिलोंपर, पराई स्त्रीके पास और चोरोंके पास अपने कुलपरंपरागत आचरण में तत्पर श्रावक कभी न सोवे । भावार्थ — इन स्थानों में कभी नहीं सोना चाहिए ॥ २५-२७॥ २३४ ऋतुमत्यां तु भार्यायां तत्र सङ्गादिकं चरेत् । अनृतुमत्यां भार्यायां न सङ्गमिति केचन ।। २८ । स्त्रीके ऋतुमती होनेपर संभोग आदि क्रिया करे । और उसके ऋतुमती न होने तक संभोग न करे, ऐसा किन्हीं किन्हींका कहना । भावार्थ — जब तक स्त्री रजस्वला न हो तब तक उससे समागम न करना चाहिए । जब वह रजस्वला हो तभी उसके साथ समागम करना चाहिए, ऐसा किसी किसी शास्त्रकारका मत है ॥ २८ ॥ गर्भाधानाङ्गभूतं यत्कर्म कुर्यादिचैव हि । रात्रौ कुर्याद्विधानेन गर्भबीजस्य रोपणम् ॥ २९ ॥ गर्भाधान सम्बन्धी जो होमादि क्रियाएं करना हों वे सब दिनमें ही कर लें । रात्रिमें विधिपूर्वक गर्भबीजका रोपण करे ॥ २९ ॥ मूत्रादिकं ततः कृत्वा क्षालयेत्रिफलाजलैः । योनि रात्रौ गते यामे सङ्गच्छेद्रतिमन्दिरम् ॥ ३० ॥ एक पहर रात्रि बीत चुकने पर, स्त्रियाँ पेशाब आदि करके हरड़ा, बहेड़ा और आँवला- इस त्रिफला के जलसे योनि - जननेंद्रिय को धो लें । पश्चात् वे शयनागार में जावें ॥ ३० ॥ पादौ प्रक्षालयेत्पूर्व पश्चाच्छय्यां समाचरेत् । मृदुशय्यां स्थितः शेते रिक्तशय्यां परित्यजेत् ॥ ३१ ॥ शयनागार में जाकर प्रथम अपने पैरोंको जलसे धोवें । पश्चात् शय्यापर पैर रक्खें । कोमल शय्यापर सोवें । जो शय्या कोमल न हो- कड़ी हो कठोर हो, उसपर न सोवें ॥ ३१ ॥ उपानहौ वेणुदण्डमम्बुपात्रं तथैव च । ताम्बूलादिसमस्तानि समीपे स्थापयेद्गृही ॥ ३२ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | २३५ वहां शयनागार में गृहस्थ अपने जूते, बांसकी लकड़ी, पानीका लोटा और ताँबूल आदि उपयोगी सामान अपने पासमें एक ओर रख ले ॥ ३२ ॥ कुङ्कुमं चाञ्जनं चैव तथा हारीतसुंदरम् । धौतवस्त्रं च ताम्बूलं संयोगे च शुभावहम् ॥ ३३ ॥ केशर, काजल, हरा रंगा हुआ कपड़ा, और पानकी सामग्री ये चीजें स्त्री-समागम के समय मंगल-कारक होती हैं ॥ ३३ ॥ भर्तुः पादौ नमस्कृत्य पश्चाच्छय्यां समाविशेत् । सा नारी सुखमाप्नोति न भवेद्दुःखभाजनम् ॥ ३४ ॥ जो स्त्री पतिके दोनों चरणोंको नमस्कार करके शय्यापर बैठती है वह सुखको प्राप्त होती है । वह कभी दुःखका भाजन नहीं बनती ॥ ३४ ॥ स्वपेत् स्त्री प्राक् शिरः कृत्वा प्रत्यक्पादौ प्रसारयेत् । ताम्बूलचर्वणं कृत्वा सकामो भार्यया सह ॥ ३५ ॥ चन्दनं चातुलिप्यांगे धृत्वा पुष्पाणि दम्पती । परस्परं समालिंग्य प्रदीपे मैथुनं चरेत् ॥ ३६ ॥ दीपे नष्टे तु यः सङ्गं करोति मनुजो यदि । यावज्जन्म दरिद्रत्वं लभते नात्र संशयः ॥ ३७ ॥ पादलग्नं तनुश्चैव ह्युच्छिष्टं ताडनं तथा । कोपो रोषश्च निर्भर्त्सः संयोगे न च दोषभाक् ॥ ३८ ॥ पति-पत्नी दोनों पान खाकर पूर्व दिशाकी ओर सिर और पश्चिम की ओर पैर करके सोवें । दोनों अपने शरीरमें चन्दनका लेप करें और गले में पुष्पमाला पहनें । दोनों परस्पर आलिंगन कर मैथुन करें । मैथुनके समय दिया न बुझावें । जो पुरुष दिया बुझा कर संभोग करता है वह अपने जीवनकालतक दरिद्री रहता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है । संभोग के समय परस्पर एक दूसरेके पैरोंका लग जाना, परस्परमें उच्छिष्ट - झूठनका सम्बन्ध हो जाना, ताड़न करना, कोप करना, रोष करना, तिरस्कार करना दोष नहीं हैं । दूसरे समय में इनका होना सदोष है ॥ ३५-३८ ॥ ताम्बूलेन मुखं पूर्ण कुंकुमादिसमन्वितम् । प्रीतमाल्हादसंयुक्तं कृत्वा योगं समाचरेत् ॥ ३९ ॥ विना ताम्बूलवदनां नग्नामाक्रान्तरोदनाम् । दुर्मुखां च क्षुधायुक्तां संयोगे च परित्यजेत् ॥ ४० ॥ भुक्तवानुपविष्टस्तु शय्यायामभिसम्मुखः । संस्मृत्य परमात्मानं पत्न्या जंघे प्रसारयेत् ॥ ४१ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित अलोमशां च सद्रुचामनार्द्रा सुमनोहराम् । योनिं स्पृष्ट्वा जपेन्मन्त्रं पवित्रं पुत्रदायकम् ॥ ४२ ॥ स्त्रियां मुखमें पान खा कर, ललाट ( कपाल ) पर केशर आदिका तिलक लगा कर और अपने पतिको आनन्दित कर संभोग करे । जिस स्त्रीने पान न खाया हो, जो नग्न हो, मुंहसे बकझक करती हो, रोती हो, दुर्मुखा हो - अप्रिय वचन बोलनेवाली हो और भूखी हो, ऐसी स्त्रीके साथ पुरुष संयोग न करे । स्त्रीसंभोगकी इच्छा करनेवाला पुरुष भी भूखा न हो । वह भी भोजन करके शय्यापर आरूढ होवे | बाद परमात्माका स्मरण कर ब्यालीसवें श्लोक में लिखी हुई क्रियाओं को करता हुआ नीचे लिखा हुआ पुत्रदायक मंत्र का जाप करे ॥ ३९-४२ ॥ मंत्र — ॐ हीँ क्लीँ ब्लू योनिस्थदेवते मम सत्पुत्रं जनयस्व अ सि आ उसा स्वाहा । २३६ इति मंत्रेण गोमयगोमूत्रक्षीरदधिसर्पिः कुशोदकैर्योनिं सम्प्रक्षाल्य श्रीगन्धकुंकुमकस्तूरिकाद्यनुलेपनं कुर्यात् । अर्थात्(यह मंत्र पढ़कर गोबर, गोभूत्र, दूध, दही, घी, डाभ, और जलसे जननेंद्रिय का प्रक्षालन कर उसपर गंध, केशर, कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करे । योनिं पश्यन् जपेन्मन्त्रानर्हृदादिसमुद्भवान् । मादृशस्तु भवेत्पुत्र इति मत्वा स्मरेज्जिनम् ॥ ४३ ॥ मेरे सरीखा हो मेरे यहां पुत्र होवे ऐसा मानकर फिर नीचे लिखे अर्हदादि मंत्रोंको पढ़े ॥ ४३ ॥ मंत्र — ॐ ह्राँ अर्हदभ्यो नमः । ॐ -हीँ सिद्धेभ्यो नमः । ॐ हूँ सूरिभ्यो नमः । ॐ =हीँ पाठकेभ्यो नमः । ॐ हः सर्वसाधुभ्यो नमः ॥ फिर नीचे लिखा मंत्र पढ़कर स्त्रीका आलिंगन करे | मंत्र — ॐ हीँ श्रीजिनप्रसादात् मम सत्पुत्रो भवतु स्वाहा । ओष्ठावाकर्षयेदोंष्ठैरन्योन्यमवलोकयेत् । स्तनौ धृत्वा तु पाणिभ्यामन्योन्यं चुम्बन्मुखम् ॥ ४४ ॥ बलं देहीति मन्त्रेण योन्यां शिश्नं प्रवेशयेत् । योस्तु किंचिदधिकं भवेल्लिङ्गं बलान्वितम् ॥ ४५ ॥ इन दोनों लोकोंमें बतलाई गई सामान्य विधिके अनुसार स्त्रीमें कामकी इच्छा उत्पन्न करे । मंत्र — ॐ हीँ शरीरस्थायिनो देवता मां बलं ददतु स्वाहा । इस मंत्र को पढ़कर संभोग करना चाहिए । नोट - १. अश्लीलता और अशिष्टाचारका दोष आनेके सबब क्रियाओंका भाषानुवाद नहीं किया गया है । इसी प्रकार अर्थ भी नहीं लिखा गया है। I ४२ वें श्लोकमें कही गई ४४ वें और ४५ वें श्लोकका प्रकाशक । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | २३७ मंत्रका भाव यह है कि मेरे शरीरका अधिष्ठाता देव मुझे बल प्रदान करे । इससे मालूम पड़ता है कि स्त्री-पुरुषोंके शरीर व सम्पूर्ण अंग उपांगों के अधिष्ठाता देव होते हैं । स्त्रीसमागमके समय पढ़ने योग्य मंत्रोंसे भी यही मालूम पड़ता है । ये मंत्र ग्रंथकर्त्ता के जन्म से पहले लिखे हुए अन्य ग्रन्थोंमें भी पाये जाते हैं । ऋषिप्रणीत आगमसे भी निश्चित है कि हरएक स्त्री पुरुषके शरीर आदि अंगके अधिष्ठाता देव हुआ करते हैं । ये देव प्रायः व्यन्तर जातिके हैं। इनका हर तरहका स्वभाव होता है । अपने २ कमोंदयसे ये भिन्न २ स्वभाव वाले होते हैं। कितने ही लोग ऐसी बातोंके सम्बन्ध में एक भारी तमूल उत्पन्न कर देते हैं । कई स्थानोंमें बतलाया गया है कि अच्छेसे अच्छे और बुरेसे बुरे स्थानोंमें रहनेका उनका स्वभाव है। अच्छीसे अच्छी और बुरीसे बुरी चीजोंसे प्रेम करना भी उनके लिये स्वभाविक है । लेकिन सबका एकसा स्वभाव नहीं होता है । किसीका कैसा ही है तो किसीका कैसा ही । जैसे किन्हीं देवोंका नियोग है कि वे सूर्य-चंद्रमा के विमानोंके वाहन बन कर उनको खींचते हैं । उन देवोंको उनके कर्मोंका फल उसी प्रकार से प्राप्त होता है । इसी प्रकार व्यन्तर आदि देवोंका नियोग है कि कोई स्त्री पुरुषोंके शरी आदि अंगो में निवास करते हैं; और कोई कहीं अन्यत्र निवास करते हैं । सारे मध्यलोक में सब जगह उनका निवास हैं । उनके अनेक प्रकारके नियोग हैं। वे मनुष्योंके कर्मोदयके अनुसार उनके सहायक भी होते हैं । यदि कोई यह शंका उठावे कि जब वे मनुष्योंके सहायक हैं तो हर समय उनकी सहायतामें उन्हें तत्पर रहना चाहिए और कभी किसीका अनिष्ट नहीं होना चाहिए । इसका उत्तर यह है कि इष्ट अनिष्टकी प्राप्ति अपने अपने पहले किये हुए कम के अनुसार होती है । उसमें अनेक बाह्य कारण भी अवलंबन होते हैं । उनकी कोई गिनती नहीं है । अतः संभव है कि वे मनुष्योंके खास खास कार्यों में सहायक होते हों ॥ ४४-४५ ॥ सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च । यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥ ४६ ॥ इच्छापूर्वं भवेद्यावदुभयोः कामयुक्तयोः । रेतः सिञ्चेत्ततो योन्यां कस्माद्दर्भ बिभर्ति सा ॥ ४७ ॥ जिस स्त्रीसे पुरुष और जिस पुरुषसे स्त्री सन्तुष्ट होती है उसके कुलमें निरन्तर कल्याण की वृद्धि होती रहती है । कामयुक्त स्त्री और पुरुष दोनोंके वीर्यका जब एक साथ क्षरण होता है तब उससे वह स्त्री गर्भ धारण करती है ॥ ४६-४७ ॥ ऋतुकालोपगामी तु प्राप्नोति परमां गतिम् । सत्कुलः प्रभवेत्पुत्रः पितॄणां स्वर्गो मतः ॥ ४८ ॥ इस तरह जो पुरुष ऋतु- समय में स्त्रीसंगम करता है वह उत्तम गतिको प्राप्त होता है; और उसके उत्तम कुलीन तथा अपने मातापिताओंको स्वर्ग प्राप्त करा देनेवाला पुत्र होता है ॥ ४८ ॥ ऋतुस्नातां तु यो भार्या सन्निधौ नोपयच्छति । घोरायां भ्रूणहत्यायां पितृभिः सह मज्जति ॥ ४९ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ सोमसेनभट्टारकविरचितस्त्रीके ऋतुस्नान होनेपर जो पुरुष उस स्त्रीके पास नहीं जाता है वह अपने माता पिताक साथ साथ भ्रूणहत्याके घोर पापमें डूबता है । भावार्थ-कितने ही लोग ऐसी बातोंमें आपत्ति करते हैं । इसका कारण यही है कि वे आजकल स्वराज्यके --नसेमें चूर हो रहे हैं। अतः हरएको समानता देनेके आवेश में आकर उस क्रियाके चाहनेवाले लोगोंको भड़काकर अपनी ख्याति-पूजा आदि चाहते हैं । उन्होंने धार्मिक विषयोंपर आघात करना ही अपना मुख्य कर्तव्य समझ लिया है ॥ ४९ ॥ ऋतुस्नाता तु या नारी पतिं नैवोपविन्दति । शुनी वृकी शृगाली स्याच्छूकरी गर्दभी च सा ॥ ५० ॥ जो स्त्री ऋतुस्नान कर पतिके पास नहीं जाती है वह मरकर कुत्ती, भेड़ या हिरनी, शृगालिनी (सियारनी ), शूकरी और दिही होती है ॥ ५० ॥ कामयज्ञमिति पाहुहिणां सर्वदैव च । __ अनेन लभते पुत्रं संसाराणेवतारकम् ॥ ५१ ॥ ऊपर यह जो गर्भाधानकी विधि बताई गई है उसे गृहस्थोंका कामयज्ञ कहते हैं। इस विधिसे पिता संसार-समुद्रसे तारनेवाला पुत्र प्राप्त करता है ॥ ५१ ॥ मोद क्रिया। गर्भे स्थिरेऽथ साते मासे तृतीयके ध्रुवम् । प्रमोदेनैव संस्कार्यः क्रियामुख्यः प्रमोदकः ॥ ५२ ॥ इस तरह गर्भ रह जानेपर तीसरे महीने बड़े हर्षके साथ मोदनामकी दूसरी क्रिया करे ॥ ५२ ॥ तृतीये गर्भसंस्कारो मासे पुंसवनं च सः। आधगर्भो न विज्ञातः प्रथमे मासि वै यदि ॥ ५३॥ ___ यदि पहले महीनेमें गर्भवतीका पहला गर्भ न जाना जाय तो तीसरे महीनेमें गर्भसंस्कार करे । वही संस्कार पुरुषचिन्हसे युक्त होता है ॥ ५३ ॥ तैलाभ्यङ्गं जलैरादौ गर्भिणी स्नापयेच्च ताम् । अलङ्कृत्य च सदस्वैः करे फलं समर्पयेत् ॥ ५४॥ उपले शरीरे तु संस्कुर्याच्चन्दनादिना । पूर्ववद्धोमसत्कार्य जिनपूजापुरःसरम् ॥ ५५ ॥ प्रथम उस गर्भवती स्त्रीके तेलकी मालिश कर जलसे स्नान करावे । उसे अच्छे अच्छे कपड़ोंसे अलंकृत करे । उसके हाथमें एक फल दे । उसके शरीरमें चन्दन, केशर आदिका उपलेप-चर्चन करे । फिर पहलेकी तरह जिनपूजा, होमादि सम्पूर्ण कार्य करे ॥ ५४-५५ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । वेदिका जिनागारे काष्ठनिर्मित पीठयोः । दम्पती तौ च संस्कृत्य भूषणैरुपवेशयेत् ।। ५६ ।। अग्रे स्वस्तिकमालेख्यं चन्दनैस्तण्डुलैः पुरः । पूर्ववत्कलशं रम्यं स्थापयेन्मन्त्रपूर्वकम् ॥ ५७ ॥ जिनेन्द्रसिद्धसूरी व पूजयेद्भक्तितः परान् । बहुधा धूपदीपैश्च पक्कान्नः सत्फलैरपि ॥ ५८ ॥ यक्षीयक्षादिदेवानां पूर्णाहुतिमतः परम् । आचार्यः स्वकरे धृत्वा कल्याणकलशं वरम् ॥ ५९ ॥ पुण्याहवाचनै रम्यैर्गर्भिणीं तां प्रसिञ्चयेत् । शान्तिभक्तिं ततश्वोक्त्वा देवान् सर्वान् विसर्जयेत् ॥ ६० ॥ पहिले उन दोनों पति-पत्नियोंको जेवर आदिसे भूषित कर जिन मन्दिरमें वेदी - के सामने लकड़ीके पाटोंपर बैठावे | उनके सामने गन्ध और चावलोंका सांथिया बनावे । उसके ऊपर मंत्रका उच्चारण कर पहलेकी तरह एक सुन्दर कलश धरे । फिर अर्हन्त, सिद्ध, आचार्योंकी बड़ी भक्ति भावसे नाना प्रकारके दीप, धूप, नैवेद्य, फल आदि अष्टद्रव्योंसे पूजा करे | बाद यक्षी यक्ष आदि देवतोंको पूर्णाहुति देवे । पश्चात् गृहस्थाचार्य उस कल्याणकारी कलशको हाथमें लेकर पुण्याहवचनों द्वारा उस गर्भिणीका अभिषेक करे - उसपर जलधारा छोड़े । तदनन्तर शान्तिपाठ पढ़कर सब देवोंका विसर्जन करे ॥ ५६-६०॥ ततो गन्धोदकै रम्यैर्गर्भिणी स्वोदरं स्पृशेत् । कलिकुण्डादि सद्यन्त्रं रक्षार्थ बन्धयेद्गले ॥ ६१ ॥ सौभाग्यवत्यः सन्नार्यश्वानादिना प्रतोषयेत् । सुप्रमोदश्च सर्वेषां जातीनां समुत्पादयेत् ॥ ६२ ॥ २९ पश्चात् वह गर्भिणी स्त्री गन्धोदक लेकर अपने उदरपर लगावे और अपने गलेमें गर्भ-रक्षा के अर्थ कलिकुंड आदि यंत्र बांधे। फिर घरका मालिक सौभाग्यवती उत्तम स्त्रियोंको भोजन, कपड़े आदि सन्तुष्ट करे और अपने सम्पूर्ण जातिके लोगों में हर्ष उत्पन्न करे ॥ ६१-६२ ॥ मंत्र — ॐ कं ठं व्हः पः अ सि आउ सा गर्भार्भकं प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा । इति होमान्ते गन्धोदकेन प्रसिञ्च्य स्वपत्न्युदरं स्वयं स्पृशेद्भर्ता । अर्थात् — होम हो चुकनेके बाद यह मंत्र पढ़कर गन्धोदक सिंचन कर पति अपनी उस गर्भिणी स्त्रीके उदरका स्पर्शन करे | पुंसवन क्रिया । सद्गर्भस्याथ पुष्ट्यर्थ क्रियां पुंसवनाभिधाम् । कुर्वन्तुं पञ्चमे मासि पुमांसः क्षेममिच्छवः ॥ ६३ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सोमसेनभट्टारकविरचितशुचिभिः सलिलैः स्नातो धौतवस्त्रसमन्वितः । स्वभायर्यायां क्रियाः कुर्यादाचार्योक्तित आदरात ॥ ६४ ॥ जिनपूजां च होमं च गृहे कुर्यात्स पूर्ववत् । आचायः कुलवृद्धाभिः स्त्रीभः सह सुमार्गगः॥६५॥ संस्नाप्य गर्भिणी तां तु भूषयेद्वस्त्रभूषणैः ।.. उपलेपादिकं कुर्याचन्दनादिसुवस्तुभिः ॥६६॥ काष्ठपीठे जिनाग्रे तु रक्तवस्त्रपच्छादिते । सिन्दूराजनसंयुक्तां गर्भिणी तां निवेशयेत् ॥ ६७ ॥ पुण्याहवाचनैः सूरिः सन्मन्त्रेस्तां प्रसिञ्चयेत् । पुरुषेण करे तस्याः पूगीपत्राणि दीयन्ते ॥ ६८॥ यवाङ्कुरैस्तथा पुष्पैः पल्लवैर्दर्भसंयुतैः। मालां कृत्वा तु कण्ठेऽस्या अपेयेद्विधिपूर्वकम् ॥ ६९ ॥ यक्षादीनां तु पूर्णा दत्वा शान्ति पठेद्बुधः । ताम्बूलादिफलैवस्वेर्विवादीस्तोषयेद्गुरुः ॥ ७० ॥ अपना भला चाहनेवाला पुरुष पांचवें महीनेमें गर्भकी पुष्टि के लिए पुंसवन नामकी क्रिया करे । पवित्र प्रासुक जलसे स्नान कर धुले हुए साफ-सुथरे कपड़े पहनकर गृहस्थाचार्यके कहे अनुसार पति - स्वयं अपनी भार्या में सादर पुंसवन क्रिया करे । पहलेकी तरह अपने घरपर जिनपूजा होम आदि करे । सुमार्गगामी गृहस्थाचार्य कुलकी स्त्रियों द्वारा उस गर्भिणीको स्नान कराकर वस्त्र-आभूषणोंसे सुसजित करे । उसके चन्दन केशर आदिका लेप करे । ललाटमें तिलक लगाये हुई, आंखोंमें काजल आंजे हुई उस गर्भिणीको जिन भगवानके सामने लाल कपड़ेसे ढके हुए लकड़ीके पटा पर बैठावे । गृहस्थाचार्य पुण्याहवचनों द्वारा मंत्रोच्चारण पूर्वक उसका अभिषेक करे, और उसके पति द्वारा उसके हाथोंमें तिल और पा दिलावे । जवके अंकुर, पुष्प, कोमल पत्ते और डाभकी माला बनाकर उसके पतिके हाथसे उसके गलेमें विधिपूर्वक पहनबाबे । बाद गृहस्थाचार्य यक्ष यक्षी आदिको पूर्णाहुति देकर शांन्तिपाठ पढे । घर-मालिक उस समय वहां उपस्थित ब्राह्मणोंको ताम्बूल, फल, वस्त्र आदि देकरके खुश करे || ६३-७० ॥ मंत्र-ॐ झं बं इवीं वीं हं सः कान्तागले यबमाला क्षिपामि झझै स्वाहा । __ यह मंत्र पढ़कर पति स्त्रीके गले में माला डाले। मंत्र-ॐ झं वं व्हः पः हः असि आ उ सा कान्तापुरतः पायस दध्योदनहरिद्राम्बुकलशान् स्थापयामि स्वाहा । __अनेन तस्या अग्रे पायसदध्यादनहरिद्राम्बुकलशान स्थाप्य बालिकाकरण स्पर्शयेत । तत्र पायसस्पर्शे पुत्रलाभः । दध्योदनस्पर्शे पुत्रीलाभः । हरिद्राम्बुकलशस्पर्श उभयोरलाभः।। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २४१ ____ यह मंत्र पढ़कर गर्भिणीके सामने दूध, दही, भात और हल्दीके पानीसे भरे हुए तीन कलश स्थापन कराकर छोटी बालिकाके हाथसे उन कलशोंका स्पर्शन करावे । वह बालिका यदि दूध भरे कलशको हाथ लगावे तो पुत्रोत्पत्ति समझना । यदि वह दही भात भरे कलशको हाथ लगावे तो पुत्री समझना। और यदि हल्दीके जलसे भरे हुए कलशको हाथ लगावे तो दोनोंकी अप्राप्ति समझे अर्थात् या तो नपुंसक हो, या बीच में गर्भ गिर जाय, या होकर मर जाय, इत्यादि समझना। ततः प्रभृति गेहे स्वे वाद्यघोषं प्रघोषयेत् । गीतं च नतेकीनृत्यं दानं कुर्यादीनं प्रति ॥७१॥ उस दिनसे हर रोज अपने घर पर बाजे बजबाबे, गीत गबाने, नाचनेषालियोंका नाच करावे और प्रतिदिन दान करता रहे ॥ ७१ ॥ सीमन्त क्रिया। अथ सप्तमके मासे सीमन्तविधिरुच्यते । केशमध्ये तु गर्भिण्याः सीमा सीमन्तमुच्यते ॥ ७२ ॥ शुभेऽन्हि शुभनक्षत्रे सुवारे शुभयोगके । सुलग्ने सुघटिकायां सीमन्तविधिमाचरेत् ॥ ७३ ॥ सातवें महीने में सीमंतविधि की जाती है । गर्भिणी स्त्रीके सिरके केशोंके बीचमें मांग पाडनेको सीमंत कहते हैं । यह विधि शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ वार, शुभ योग, शुभ लम और शुभ मुहूर्तमें की जाना चाहिए ॥ ७२-७३ ॥ स्नातां प्रसादितां कान्तमन्तर्वत्नी च सत्मियाम् । प्रत्यगासनगां कृत्वा होम प्राग्वत्प्रकल्पयेत् ॥ ७४ ॥ पतिपुत्रवती वृद्धा स्वजातीया कुलोद्भवा । गर्भिण्याः केशमध्ये तु सीमन्तं त्रिः समुन्नयेत् ॥ ७५ ॥ स्नान कराकर वस्त्र आभूषण आदिसे सुसजित कर उस कमनीय सुन्दर गर्भवतीको पति अपने पास अलग आसनपर बैठाकर पहलेकी तरह होमादि कार्य करे । और सधवा पुत्रवती अपनी जातिकी कुलीन वृद्ध स्त्रियाँ उस गर्भवती स्त्रीके सिरमें तीन बार मांग पाड़े ॥ ७४-७५ ॥ साधनं फलवगुच्छद्वयदर्भत्रयान्विता । शलाका खादिराऽऽज्याक्ता सीमन्तोन्नयने भवेत् ॥ ७६ ॥ समिद्वा कुड्मलाभाया शमीवृक्षसमुद्भवा ।। त्रिस्थानधवलाकारा शलली वा तथा भवेत् ॥ ७७ ॥ तेन तैलासिन्दूरैः सीमन्तं चोनयेच्च सा। धवस्त्वौदुम्बरं चूर्ण क्षिपेत्तन्मूर्धि चोदरे ॥ ७८ ॥ तदुम्बरकृतां मालां सीमन्तिन्या गले गुरुः। क्षिप्त्वा स्विष्टकृताद्यन्यत्सर्व प्राग्वत्मकल्पयेत् ॥ ७९ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सोमसेनभट्टारकविरचित ____ मांग पाड़नेके साधन ये हैं। फलोंवाली छोटी छोटी दो टहनियां (डालियां) और तीन दर्भसे युक्त घृतमें भिंजोई हुई खदिरवृक्ष (खैर) की सलाईस मांग पाड़े । अथवा शमीवृक्षकी समिधा (लकड़ी) से मांग पाड़े । उस समिधाका ‘अग्रभाग मुकुलित होना चाहिए, तथा वह सेहीके परोंके समान तोन जगह सफेद होना चाहिए, जिस वस्तुले पांग पाड़े उसके अग्रभागमें तेलसे गीला किया हुआ सिन्दूर लगा ले । इस तरह मांग पाड़ चुकने के बाद उसका पति उसके पेट और सिरपर उदुबर (गूलर ) का क्षेपण करे । आचार्य उदुं बरके फलोंकी माला बनाकर उस गर्भिणीके गलेमें पहनावे। शिष्टाचार आदि सम्पूर्ण कार्य पहलेकी तरह किये जावें ॥७६--७९॥ पुण्याहवाचनैराचार्यों गर्भिणी सियेत् । अर्थात् पुण्याहवाचनके द्वारा आचार्य गर्भिणीका अभिषेक करे । मंत्र-ॐ हीं श्रीं क्लीं क्रॉ असि आ उ सा उदुम्बरकृतचूर्ण समस्ते जठरे चेयं इवीं वीं स्वाहा। अनेनोदरं वा मस्तकं वा उदुम्बरचूर्णेन सेचयेत् । अर्थात् इस मंत्रके द्वारा पेटपर अथवा मस्तकपर उदुंबर चूर्णसे अभिषेचन करे । मंत्र-ॐ नमोऽहते भगवते उदुम्बरफलाभरणेन बहुपुत्रा भवितुमहीं स्वाहा । अनेनोदुम्बरफलमालां कण्ठे क्षिपेत पुरुषः। अर्थात् इस मंत्रको पढ़कर उदुंबर फलोंकी माला उसके गलेमें पहनाबे । विशेष । गर्भाधानं प्रमोदश्च सीमन्तः पुंसवं तथा। नवमे मासि चैकत्र कुर्यात्सर्व तु निर्धनः ॥ ८० ॥ अन्नप्राशनपर्यन्ता गर्भाधानादिकाः क्रियाः । उक्तकाले भवन्त्येता दोपो नाषाढपुष्ययोः ॥ ८१॥ मासप्रयुक्त कार्येषु अस्तत्वं गुरुशुक्रयोः। न दोषकृत्तदा मासो रक्षको वलवानिति ॥ ८२ ॥ पुंसवने च सीमन्ते चौलोपनयने तथा । गभाधान प्रमोदे च नान्दीमगलमाचरेत् ॥ ८३ ॥ जो पुरुष निर्धन है वह नियत समयमें बारवार इन क्रियाओंको न कर सकता हो तो गर्भाधान, प्रमोद, सीमन्त, और पुंसवन-इन सब क्रियाओं को एक साथ नववें महीनेमें करे। गर्भाधानको आदि लेकर अन्नप्राशन पर्यन्तकी कुल क्रियायें अपने अपने नियत समयमें होती हैं। इनके लिये आषाढ़ और पूषका दोष नहीं गिना जाता । जिस समयमें जो क्रिया करनेकी है उस समय, यदि बृहस्पति और शुक्रका अस्त हो तो भी कोई दोष नहीं है । उस वक्त वही महीना बळ नोट-१ कुछ मुड़ी हुई नोंक, जैसी कि अधफूले फूलकी पांखुरीकी नोंक भीतरको कुछ मुड़ी रहती है। प्र. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। वान रक्षक है । पुंसवन, सीमंत, चौल, उपनयन, गभीधान और प्रमोद इन क्रियाओंके समय नान्दी मंगल अवश्य करे ॥ ८०-८३ ॥ गर्भणीके धर्म । भूम्यां चैवोचनीचाय मार हावरोहणे । नदोपतरणं चैव शकटारोहणं तथा ॥ ८४ ॥ उग्रौषधं तथा क्षारं मैयुनं भारवाहनम् । कृते पुंसवने चैव गर्भिगो परिव नयेत् ॥ ८५ ॥ पांचवें महीने में पुंसवन क्रिया हो चुकने के बाद गर्भवती स्त्री ऊंची नीची जमीनपर न चढ़ेउतरे, बहती हुई नदीको पार न करे, गाडापर न चढ़े, तेज औषधि सेवन न करे, खारे पदार्थ न खावे, मैथुन सेवन न करे, और बोझा न उठावे ॥ ८४-८५ ॥ . पतिके धर्म। पुंसो भार्या गर्भिणी यस्य चासौ । सूनोचौलं क्षौरकर्मात्मनश्च ।। गेहारम्भं स्तम्भसंस्थापनं च । वृद्धिस्थानं दूरयात्रां न कुर्यात् ॥ ८६॥ __ जिस पुरुषकी स्त्री गर्भवती हो वह अपने पुत्रका चौलकर्म न करे, आप स्वयं हजामत न बनबाबे, नया घर न बंधबाबे, स्तंभ (खंभा) खड़ा न करे और बहुत लंबा सफर न करे ॥ ८६ ॥ शवस्य दाहनं तस्य दहनं सिन्धुदर्शनम् । पर्वतारोहणं चैव न कुर्याद्गर्भिणीपतिः ॥ ८७ ॥ मासात्तु पश्चमादूर्ध्व तस्याः सङ्गं विवर्जयेत् । ऋतुद्रये व्यतीते तु न कुर्यान्मौजीबन्धनम् ॥ ८८ ॥ गर्भिण्यामपि भार्यायां वीर्यपातं विवजेयेत् । अष्ट मासात्परं चैव न कुर्याच्छ्राद्धभोजनम् ॥ ८९ ॥ क्षौरं चौमूं मौञ्जिबन्धं वर्जयेद्गर्भिणीपतिः । भिन्नभार्यासुतस्येह न दोषश्चौलकर्मणि ॥ ९० ॥ गर्भिणी स्त्रीका पति मुर्देको कन्धेपर न ले जाय, उसको अपने हाथसे न जलावे, समुद्र न देखे, पर्वतपर न चढ़े, पांचवें महीनेके बाद गर्भिणी स्त्रीसे समागम न करे, चार महीने हो चुकनेपर अपने पुत्रका उपनयन संस्कार न करे, गर्भवती स्त्रामें किसी भी तरह वीर्यपात न करे, आठवें महीनेके बाद श्राद्धका भाजन न करे, और क्षौर, चौल और उपनयनकर्म न करे। अपनी दूसरी स्त्रीके पुत्रका चौलकर्म करनेमें दोष नहीं है। सारांश-जिस स्त्रीके पहलेका लड़का हो और वह गर्भवती हो तो उसका पति उस पहले लड़केका चौलसंस्कार आदि न करे । यदि उसके दूसरी स्त्री हो, जिसके कि गर्भ न हो, उसके पुत्रका वह चौलकर्म करे तो कोई दोष नहीं है ॥ ८७-९० ॥ प्रीति, सुप्रीति और पियोद्भव क्रियाएं । पुत्रजन्मनि साते प्रीतिसुप्रीतिके क्रिये । प्रियोद्भवश्च सोत्साहः कर्तव्यो जातकर्मणि ॥९१ ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सोमसेनभट्टारकविरचितसज्जनेषु परा प्रीतिः पुत्रे सुप्रीतिरुच्यते । पियोद्भवश्च देवेषूत्साहस्तु क्रियते महान् ॥ ९२ ॥ पुत्र पैदा होनेके बाद, प्रीति, सुप्रीति और प्रियोद्भव क्रियाएं बड़े उत्साहके साथ करे । सजनोंमें प्रीति करना प्रीतिक्रिया है । पुत्रमें प्रीति करनेको सुप्रीतिक्रिया कहते हैं। और देवोंमें उत्साह फैलाना प्रियोद्भव-क्रिया है ॥ ९१-९२ ॥ । पुत्रे जाते पिता तस्य कुर्यादाचमनं मुदा। प्राणायामं विधायोच्चैराचमं पुनराचरेत् ॥ ९३ ॥ पूजावस्तूनि चादाय मङ्गलं कलशं तथा । महावाद्यस्य निर्घोषं ब्रजेद्धमजिनालये ॥ ९४ ॥ ततः प्रारभ्य सद्विमान् जिनालये नियोजयेत् । प्रतिदिनं स पूजार्थ यावन्नालं प्रच्छेदयेत् ॥ ९५ ॥ दानेन तर्पयेत्सर्वान् भट्टान भिक्षुजनान् पिता । वस्त्रभूषणताम्बूलैः स्वजनात् सकलानपि ॥ ९६ ॥ मुखमालोक्य पुत्रस्य पात्रे क्षीराज्यशर्कराः । संमिश्य पञ्चकृत्वस्तं प्राशयेत्काञ्चनेन सः ॥ ९७ ॥ स्त्रीपुत्रयोश्च कर्मैवं कर्तव्यं द्रव्यमात्रकम् । ब्रह्मसूत्रे धृतं नालं तेनावेष्टय निकृन्तयेत् ॥ ९८॥ पुत्रका जन्म होनेपर उसका पिता बड़े हर्षसे प्रथम आचमन करे। बाद प्राणायाम करके फिर आचमन करे। फिर पूजा-सामग्री और मंगल-कलश लेकर गाजेबाजेके साथ जिन-मंदिर जावे। उस दिनसे जबतक नालछेद क्रिया न हो तबतक प्रतिदिन पूजा करनेके लिए सदाचारी ब्राह्मणोंकी नियोजना करे, भाटों भिक्षुकों आदिको दान देकर सन्तुष्ट करे, और अपने सारे कुटुंबी जनोंको वस्त्र आभूषण और तांबूलसे संतुष्ट करे । पुत्रका मुख देखकर एक पात्रमें दूध घी और शक्कर मिलाकर सोनेकी चिमची अथवा दूसरे किसी सोनेके पात्रसे पांच दफे उस बच्चेके मुंहमें डाले । यह विधि पुत्रीके लिए भी मंत्र आदिका उच्चारण न कर सिर्फ क्रियामात्ररूप की जाय। इसके बाद नालको ब्रह्मसूत्र (जनेऊ) में लपेटकर नालच्छेद करे ॥ ९३-९८ ॥ ततस्तन्नाभिनालं तु शुचिस्थाने निवेशयेत् । रत्नमुक्ताफलद्रव्ययुक्तं भूमौ मुदा पिता ॥ ९९ ॥ पश्चात् पिता हर्षयुक्त होकर उस नालको रत्न और मोतीके साथ पवित्र भूमिमें गाड़े॥ ९९ ॥ प्रसूतौ वनिताऽगारे चतुरङ्गुलमात्रकम् । त्यक्त्वा मृदं मृदा शुच्या गोमयेन तु लेपयेत् ॥ १० ॥ पञ्चकल्कजलैरुष्णैः सा संस्नायात्सुतान्विता । तौ तृतीये तृतीयेऽन्हि शुचित्वमेवमाचरेताम् ॥ १०१ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैवर्णिकाचार | वस्त्रभूषणशय्याश्च भोग्यभोजनपात्रकम् । क्षालयेच्छुचिभिस्तोयै रजकेन यथाविधि ॥ १०२ ॥ जन्मादिपञ्चमे षष्ठे निशीथे बलिमाहरेत् । अर्चयेदष्टदिक्पालान्गीतवाद्य सशस्त्रकैः ॥ १०३ ॥ कृत्वा जागरणं, रात्रौ दीपेश्व शान्तिपाठकैः । द्वारे द्वितीयभागे तु सिन्दूरैश्वापि कज्जलैः ।। १०४ ॥ 1 प्रसूतिगृहमें चार अंगुल प्रमाण मिट्टी डालकर मिट्टी और गोबर से लीपे । पांच कल्कयुक्त उष्ण जलसे उस बच्चे और प्रसूताको स्नान करावे । यह स्नान पवित्रताके लिए तीन तीन दिन बाद प्रसवसे दशवें दिन तक करावे । प्रसूता के कपड़े, आभूषण, पलंग, भोजन करने के बर्तन आदिको विधिपूर्वक पवित्र जल तथा मिट्टीसे धोवे और मांजे । घोबीसे धुलवाने योग्य वस्तुओंको धोबीसे धुलावे । जन्मके पांचवें अथवा छठे दिन दशदिक्पालोंकी पूजा कर बलि दे । रात्रिमें दीपक लगाकर शान्तिपाठों द्वारा जागरण करे । दरबाजेके दूसरी ओर सिन्दूर तथा कज्जलकी टिपकी वगैरह लगावे || १०० - १०४ ॥ जननाशौच (जन्मके सूतक ) की मर्यादा । प्रसूतेर्दशमे चान्हि द्वादशे वा चतुर्दशे । मृतकाशौचशुद्धिः स्याद्विमादीनां यथाक्रमम् ॥ १०५ ॥ २४५. प्रसूतिके दशवें दिन ब्राह्मणों, बारहवें दिन क्षत्रियों और चौदहवें दिन वैश्योंकी जननाशौचजन्मके सुतककी शुद्धि होती है । भावार्थ पुत्र-पुत्रीका जन्म होने पर दश दिनतक ब्राह्मणोंके, बारह दिनतक क्षत्रियोंके और चौदह दिनतक वैश्योंके सूतक रहता है ॥ १०५ ॥ प्रसूतिगृहे मासैकं दायादानां गृहेषु च । दशदिनावधिं यावन्न गच्छेदभुक्तये यतिः ॥ १०६ ॥ प्रसूतिके घरपर एक महीनेतक और उसके दायादों भाई-बांधवोंके घरपर दश दिन तक मुनि आहारके लिए न जावें । ॥ १०६ ॥ पञ्च दिनानि चेटीनां सूतकं परिकीर्तितम् । स्वामिगृहे प्रसूताद्धोटकीनां तथैव च ॥ १०७ ॥ उष्टी गौर्महिषी छागी प्रसूता चेद्गृहे यदा । दिनमेकं परित्याज्यं बहिन हि दोषभाक् ।। १०८ ॥ यदि कोई दासी अपने स्वामीके घरपर प्रसूत हुई हो तो उस घरमें पांच दिनतक सूतक रहता है । इसी तरह घोड़ीका भी पांच दिनतक सूतक रहता है । उँटनी, गाय, भैंस और बकरीका एक एक दिनका सूतक रहता है । यदि ये सब स्वामीके घरसे बाहर प्रसूत हुई हों तो कुछ भी सूतक नहीं है ॥ १०७ - १०८ ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सोमसेनभट्टारकविरचितबर्तन-शुद्धि | भाजनानि मृदां यानि पुराणानि तु सन्त्यजेत् । धातुभाण्डानि वस्त्राणि क्षालनाच्छुचितां नयेत् ॥ १०९ ॥ दद्यात्तु प्रथमे दानं षष्ठे वा पञ्चमेऽपि वा । दशमे देवपूजा स्याददानं तथा बलिः ॥ ११० ॥ प्रसूतिके समय जिन बर्तन कपडा आदिने स्पर्श हुआ हो उनमेंसे मिट्टी को तो फेंक दे, तांबे पीतल आदि धातुक बर्तन और कपड़े मांजने-धोनेमे शुद्ध होते हैं। पहले दिन, छठे दिन अथवा पांचवें दिन भी दान दवे । दशवें दिन देवपूजा, आहारदान और बालदान करे ॥ १०९-११०॥ मंत्र — ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं हूं हीं हः नानानुजानुपजो भवभव असि आउ सा स्वाहा । अनेन पुत्रमुखमवलोकयेत । अर्थात् यह मंत्र पढ़कर बालकका मुख देखे । ततश्चैत्यालये पूजाहोमादिकं विधाय तद्गन्धोदकेन स्त्रीपुत्रौ गृहं प्रसिञ्चय स्वजनान् भोजयेत् । अर्थात् इसके बाद जिन मन्दिरमें होम आदि करके गन्धोदकसे स्त्रीपुत्र और घरको सींचकर अपने बन्धुवर्गको भोजन करावे । नामकर्म - विधि | द्वादशे षोडशे विंशे द्वात्रिंशे दिवसेऽपि वा । नामकर्म स्वजातीनां कर्तव्यं पूर्वमार्गतः ॥ १११ ॥ द्वात्रिंशदिवसादूर्ध्वं यावत्संवत्सरं भवेत् । नामकर्म तदा कार्यमिति कैश्चिदुदीरितम् ।। ११२ ।। कृत्वा होमं जिनेन्द्राचं शुभेऽन्हि श्रीजिनालये । स्वगृहे वा ततो भक्त्या महावाधानि घोषयेत् ॥ ११३ ॥ सुपीठे दम्पती तौ च सपुतौ भूषणान्वितौ । निवेश्य सेचयेत्सूरिःपुण्याहवचनैः परैः ॥ ११४ ॥ जन्म के बारहवें, सोलहवें, बीसवें अथवा बत्तीसवें दिन अपनी कुलपरंपरा के अनुसार नामकर्म विधि करें । बालकका नाम रखनेको नामकर्म विधि कहते हैं । यदि बत्तीसवें दिन नामकर्म विधि न कर सके तो फिर जब एक वर्ष पूरा हो जाय तब करे, ऐसा भी किसी २ का कहना है । इस विधि में भी शुभ दिन में जिनमन्दिर अथवा अपने घर में भक्तिभावसे होम और जिनपूजा करे तथा बाजे बजबाबे | और दोनों पति-पत्नी तथा पुत्रको कपड़े गहने आदि से सजाकर अच्छी चौकीपर बैठाकर पुण्याहवचनों द्वारा गृहस्थाचार्य उनका सेचन करे ।। १११ - ११४॥ जातके नाम के चैव नमाशनकर्मणि । व्रतरोपे च चौले च पत्नीपुत्रौ स्वदक्षिणे ॥ ११५ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | गर्भाधाने पुंसवने सीमन्तोन्नयने तथा । वधूमवेशने शूद्रापुनर्विवाहमण्डने ॥ ११६ ॥ पूजने कुलदेव्याश्च कन्यादाने तथैव च । कर्मस्वेतेषु वै भार्या दक्षिणे तूपवेशयेत् ॥ ११७ ॥ कन्यापुत्रविवाहे तु मुनिदानेऽर्चने तथा । आशीर्वादाभिषेके च प्रतिष्ठादिमहोत्सवे ।। ११८ ॥ वापीकूपतडागानां वनवाट्याच पूजने । शान्ति पौष्टिके कार्ये पत्नी तूत्तरतो भवे ॥ ११९ ॥ जातकर्म, नामकर्म, अन्नप्राशनकर्म, व्रतग्रहणकर्म और चौलकर्ममें पत्नी और पुत्रको अपनी दाहिनी ओर बैठावे । गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, वधूप्रवेश, शूद्रापुनर्विवाह, कुलदेवताकी पूजा और कन्यादान के समय पत्नीको दाहिनी ओर बैठावे तथा पुत्रविवाह, पुत्रीविवाह, मुनिदान अर्चन, आशीर्वादग्रहण, अभिषेक, प्रतिष्ठादि महोत्सव, बावड़ी, कुआ, तालाव और बागीचे के मुहूर्त, शान्तिकर्म और पौष्टिक कर्मके समय पत्नीको अपनी बाई ओर लेकर बैठे। भावार्थश्लोक नं० ११७ में 'शूद्रापुनर्विवाहमंडने' यह पद पड़ा हुआ है । इस परसे शायद यह खयाल किया जाय कि इस ग्रन्थमें पुनर्विवाहका मंडन भी पाया जाता है, पर यह खयाल ठीक नहीं है । क्योंकि शूद्रोंके दो भेद हैं— सच्छूद्र और असच्छूद्र या भोज्यशूद्र और अभोज्यशूद्र । जिनमें एक वार ही विवाह करनेकी रिवाज है जो दूसरी वार विवाह ( घरेजा ) नहीं करते हैं वे सच्छूद्र होते हैं । तदुक्तं - सकृत्परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्रा । २४७ - सोमनीति । इससे विपरीत जिनमें घरेजा प्रचलित है वे असच्छूद्र होते हैं । तथा जिनका अन्न पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र लेते हैं वे भोज्यशूद्र होते हैं । इनसे विपरीत अभोज्य शूद्र होते हैं । तदुक्तं — भोज्याः - यदन्नपान ब्राह्मणक्षत्रियविछूद्रा भुज्यन्ते, अभोज्याः - तद्विपरीतलक्षणाः । - नान्दिगुरु । इससे यह नतीजा निकला कि सच्छूद्र प्रशस्त और भोज्य होते हैं । इसमें हेतु पुनर्विवा हका न होना ही है । जब शूद्रों में भी सर्वाशसे विधवाविवाहका उपदेश नहीं है तब एकदम उच्च जातिवालोंके लिये ग्रन्थकारने " शूद्रापुनर्विवाहमंडने " इस पद द्वारा विधवाविवाहका उपदेश दिया है यह कहना नितांत भूल भरा है । असल बात यह है कि इस ग्रन्थ में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के आचारका मुख्यतासे वर्णन किया है । और बीच बीचमें दोनों तरहके शूद्रों का आचरण भी यत्र तत्र गौणता से बताया है। अच्छूद्रों में पुनर्विवह (घरेजा) की प्रवृत्ति प्रचलित है, अतः प्रकरणवश असच्छूद्रों के इस कर्तव्यका भी कथन कर दिया है । एतावता विधवाविवाह सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि विधवाविवाह आगमसे विरुद्ध पड़ता है । आगम विधवाविवाह कहीं भी नहीं लिखा है । जैन आगम में ही नहीं, वल्कि ब्राह्मण सम्प्रदाय के आगममें भी विधवाविवाहकी विधि नहीं कही गई है। इस विषय में मनुका कहना है कि "न विवाह विधावुक्तं विषवावेदनं पुनः " अर्थात् विवाहविधि में विधवाका विवाह कहा ही नहीं गया है । जिस - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ सोमसेनभट्टारकविरचित अनर्थका बाह्य लोग भी निषेध करते हैं उसका जैन ऋषि कभी भी विधान नहीं करेंगे। यह बात आवालगोपाल प्रसिद्ध है कि विवाहविधिमें सर्वत्र कन्याविवाह ही बताया गया है, विधवाविवाह नहीं । विधवाविवाहसे तो प्रत्युत उसमें घृणा प्रकट की गई है । आदिपुराणके ४४ वें पर्वमें षट्खंडाधिपति भरत चक्रोके पुत्र अर्ककीर्ति महाराज विधवासे इस प्रकार घृणा करते हैं-- नाहं सुलोचनार्थ्यस्मि मत्सरी मच्छरैरयं । परासुरधुनैव स्यात् किं मे विधवया तया ॥ मैं सुलोचनाको नहीं चाहता, क्योंकि इस मत्सरी जयकुमारके प्राण मेरे बाणोंसे अभी लापता हु { जाते हैं, तब मुझे उस विधवा सुलोचनासे प्रयोजन ही क्या है ? . पद्मपुराणसे भी विधवा-विवाहका निषेध होता है-जिस समय खरदूषण शूर्पणखाको दर. कर ले भगे तब महाराज रावणने उनसे युद्ध करनेकी ठान ली । उस समय मंदोदरी महादेवी रावण महाराजसे कहती है कि कथंचिञ्च हुतेऽप्यस्मिन् कन्याहरणदूषिता । अन्यस्मै नैव वि प्राण्या केवलं विधवी भवेत् ॥ हे प्राणनाथ ! आप किसी तरह युद्ध में खरदूषणको मार भी देंगे तो भी कन्या हरणसे दूषित हो चुकी है, अब वह दूसरेको देने योग्य नहीं रही है । अतएव वह खरदूषणके मारे जाने पर केवल विधवा ही कही जायगी।। __महापुराण और पद्मपुराण ये दोनों पुराण जैनोंके आर्ष ग्रंथ कहे जाते हैं । इनकी प्रमाणता भी जैनोंकी नस नसमें ठसी हुई है। अतः इन दोनों आर्ष ग्रन्थोंसे निश्चित होता है कि विधवाविवाह एक निंद्य वस्तु है और वह आगमविरुद्ध भी है। ग्रन्थकर्ता सोमसेन महाराजके अभिप्राय भी भागमानुकूल हैं। विधवाविवाहकी ओर उनके परिणाम जरा भी विचलित नहीं हैं। ग्रन्थकारने विधवाके लिए आगे तेरहवें अध्यायमें दो ही मार्ग बताये हैं, एक जिन-दीक्षा ग्रहण करना और दूस । वैधव्य दीक्षा लेना . उन्होंने इन दो मार्गोंके अलावा तीसरा विधवा-विवाह नामका मार्ग नहीं बतलाया है । अतः निश्चित होता है कि ग्रन्थकारका आशय विधवाविवाहके अनुकूल नहीं है, वे तो विधवा-विवाहको एक निंद्य वस्तु समझते हैं अन्यथा वे उक्त दो मार्गोंके अलावा वहीं पर एक विधवाविवाह नामका तीसरा मार्ग और बतला देते । ग्यारहवें अध्यायके कुछ श्लोकों परसे भी विधवाविवाहका आशय निकाला जाता है वह भी ठीक नहीं है उन श्लोकोंका स्पष्टीकरण भी वहीं करेंगे। कहनेका तात्पर्य यह है कि शूद्रापुनर्विवाहमंडने इस पदपरसे या और भी कई श्लोकों और पदोंपरसे ग्रंथकारका आशय विधवाविवाहरूप सिद्ध नहीं होता ॥ ११५-११९ ॥ निच्छिद्र निस्तुषे ताळे शिशोः प्रस्तीर्य तत्पिता। निजनाम लिखेत्तत्र स्वाभीष्टं जन्मनाम च ॥ १२० ॥ क्षीरसर्पियुते पात्रे निधाय भषणानि वै । तत्ताले पूर्वताले च गन्धपुष्पकुशान् क्षिपेत् ॥ १२१ ॥ मस्तके कर्णयोः कण्ठे भुजयुग्मे च वक्षसि । साज्यं पयः कुशैः सिक्त्वा भूषणैर्भूषयेच्छिशुम् ॥ १२२ ।। १ 'निस्तुषानक्षताँस्ताले ' इति पाठः साधुः। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२४९ त्रैवर्णिकाचार। अष्टोत्तरसहस्रेण नामभिर्यो विराजते । स देवोऽस्मै कुमाराय शुभं नाम प्रयच्छतु ॥ १२३ ॥ इति सम्मायुं देवं तं त्रिवारं च द्विजैः सह । यदायाति स तन्नाम घोषयित्वा नमेज्जिनम् ॥ १२४ ॥ पूर्णार्प यक्षदेवानां दत्वा कर्णौ निशामुखे । संछेद्यान्दोलके रात्री बालं पीत्या निवेशयेत् ॥ १२५ ॥ लडकेका पिता किसी बर्तनमें छिलके-रहित चाँवलोंको इस तरकीबसे बिछावे कि बीचमें कोई छिद्र न रहे-कोई जगह खाली न रहे । उनमें उंगलीसे पहिले अपना नाम लिखे। फिर अपनेको जो इष्ट हो वही नाम उस लड़केका लिखे । दूसरे बर्तनमें दूध और घी मिलाकर उसमें लड़केके आभूषण (जेवर) धरे । फिर इसमें तथा पहलेके बर्तनमें गन्ध, पुष्प और कुश धरे । मस्तक, दोनों कान, कण्ठ, दोनों भुजाएं और छातीपर घृत, दूध और कुशका सेचन कर उस बालकको दागीनोंसे सजावे। बाद " जो एक हजार आठ नाम कर विराजमान है वह देव इस बालकको शुभ नाम प्रदान करे।" इस तरह ब्राह्मणोंके साथ साथ तीन बार उस देवकी प्रार्थना करे। बाद लड़केका जो नाम रखना हो उस नामकी जोरसे घोषणा कर जिनदेवको नमस्कार करे और यक्षोंको पूर्णा देवे । उसी दिन शामके समय बालकके दोनों कान छेदकर रातको पालनेमें उसे प्रीतिपूर्वक सुला दे ॥ १२०-१२५ ॥ मंत्र-ॐ हीं श्रीं क्लीं अर्ह बालकस्य नामकरणं करोमि । अभिनन्दननाम्ना आयुरारोग्यश्वर्यवान् भव भव । अष्टोत्तरसहस्राभिधाना) भव भव रौं खौं असि आ उ सा स्वाहा । यह मंत्र पढ़कर नामकर्म करे । “ अभिनन्दननाम्ना" के आगे लड़केका जो नाम रखना हो उसे जोड़ दे। मंत्र-ॐ हीं श्रीं अई बालकस्य हः कर्णनासावेधनं करोमि अ सि आ उसा स्वाहा । यह मंत्र पढ़कर बालकका कर्णवेध करे। मंत्र-ॐ हीं झौं झौं श्वी क्ष्वी आन्दोलं बालकमारोपयामि तस्य सर्वरक्षा भवतु सौं श्लौं स्वाहा। यह मंत्र पढ़कर बालकको मूलेपर सुलावे । .. बहिर्यान-क्रिया। गृहानिष्क्रमणं सूनोश्चतुर्थे मासि कारयेत् । जिनार्कदर्शनार्थ च तृतीये प्रथमेऽपि वा ॥ १२६ ।।। शुक्लपक्षे सुनक्षत्रे स्नातं भूषणभूषितम् । पुण्याहवचनैर्वालं सिञ्चयेच कुशोदकैः ॥ १२७ ॥ - - Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचिते विधाय वक्षसि बालं महावाद्यसमन्वितम् । निष्क्रमेद्वन्धुभिः साकं माता पिताऽथवा गृहात् ॥ १२८ ॥ भक्त्या चैत्यालयं गत्वा त्रिः परीत्य प्रपूज्यच । .. शिशोः सन्दशेयेत्सीत्या वृद्धये जिनभास्करम् ॥ १२९ ॥ संघ सम्पूज्य सद्वस्त्रैः शेषाँस्ताम्बूलचन्दनैः। शेषाशिषं समादाय पूर्ववच बजेद्गृहम् ॥ १३० ॥ चौके महीने बालकको जिन-भास्करका दर्शन करानेको घरसे बाहर निकाले । त्रीसरे या · पहिले महीने भी निकाल सकते हैं । यह विधि इस तरह करे कि, शुक्लपक्षमें अच्छे ग्रह नक्षत्र आदि ..देखकर उस दिन बालकको स्नान करावे और वस्त्र. आभूषण पहनाकर पुण्याहवचनोंद्वारा कुश और. जलसे बालकका अभिषेचन करे । बाद लड़केकी मा अथवा पिता उसे गोदमें लेकर बहुत गाजे-बाजेके साथ अपने भाईबन्धुओं सहित घरसे बाहर निकले। भक्तिभावसे चैत्यालयको जाकर जिन भगवान्की तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी पूजा करे और बालकको उसकी वृद्धि के लिये जिन. सूर्यका दर्शन करावे । फिर अपने कुटुंबियोंको वस्त्र आभूषण पहनावे, अन्य जातीय लोगोंका तांबूल चंदन आदिसे सत्कार करे तथा आसिका लेकर जिस तरह चैत्यालयको आये थे उसी तरह घरको वापिस जावें ॥ १२६-१३० ॥ मंत्र-ॐनमोऽर्हते भगवते जिनभास्कराय तव मुखं बालकं दर्शयामि दीर्घायुष्यं कुरु कुरु स्वाहा । ... यह मंत्र पढ़कर बालकको जिन भगवानका दर्शन करावे । __ उपवेशन-क्रिया। पञ्चमे मासि कर्तव्यं शिशोश्चैवोपवेशनम् । सम्पूज्य श्रीजिनं भूमिं कुमारान् पञ्च पूजयेत् ॥ १३१ ॥ बीहिश्यामाकगोधूममाषमुद्गतिला यवाः। एभिः संलेख्य रङ्गावली च वस्त्रं प्रसारयेत् ॥ १३२ ॥ स्नापयित्वा शिशुं सम्यक् भूषणैश्च विभूषयेत् । गृहे पद्मासनस्थाने सुमुहूर्ते निवेशयेत् ॥ १३३ ॥ पूर्वमुखे विधायास्यमधास्थं वामपादकम् । उपरि दक्षिणाधिः स्यादुपर्यस्य करद्वयम् ।। १३४॥ नीराजनं ततः कुर्याद्विमैराशीर्वचः परम् । तदिने सज्जनान् सर्वान् भोजयेत्पीतिपूर्वकम् ॥ १३५ ।। बालकके जन्मके पांचवें महीनेमें उपवेशन ( बालकको बिठलानेकी क्रिया) करनी चाहिये । यह इस तरह कि, अपने घरमें श्रीजिनदेव, बालकके बैठानेकी भूमि और पांच कुमारोंकी यथायोग्य पूजा करे । चांवल, गेहूं, उड़द, मूंग, तिल और जौ की एक रंगावली खींचकर उसपर एक कपड़ा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | २५१ बिछावे । बालकको स्नान कराकर वस्त्र आभूषण पहनावे । फिर अच्छे मुहूर्तमें उस कपड़ेपर बालकको पद्मासन बैठावे । पद्मासन बैठानेकी विधि यह है कि बालकका मुख पूर्व दिशा की ओर करे, बायें पैरको नीचे और दाहिने पैर को ऊपर करे, तथा पैरोंके ऊपर उसके दोनों हाथ धरे । इस तरह बैठाकर उसकी आरती उतारे और विप्रगण आशीर्वाद दें। उस दिन सब सज्जनोंकोः प्रीतिपूर्वक भोजन करावे । " सम्पूज्य श्रीजिनभूमिकुमारान् पंच पूजयेत " ऐसा भी पाठ है, जिसका 1 अर्थ होता है कि पांच कुमार बालब्रह्मचारी जिनोंकी पूजा करे ॥ १३१--१३५॥ fo मंत्र-ॐ ह्रीं अर्ह अ सि आ उ सा बालकमुपवेशयामि स्वाहा । इस मंत्र को बोलकर बालकको बैठावे । अन्नप्राशन- क्रिया । तथा च सप्तमे मासे शुभ शुभवासरे । अन्नस्य प्राशनं कुर्याद्बालस्य वृद्धये पिता ॥ १३६ ॥ जिनेन्द्रसदने पूजा महावैभवसंयुता । आदौ कार्या ततो गेहे शुद्धानं क्रियते बुधैः ।। १३७ ॥ ततः प्राङ्मुखमासित्वा पिता माताऽथवा सुतम् । दक्षिणाभिमुखं कृत्वा वामोत्सङ्गे निवेशयेत् ॥ १३८ ॥ क्षीरानं शर्करायुक्तं घृताक्तं प्राशयेच्छिशुम् । दध्यन्नं च ततः सर्वान्बान्धवानपि भोजयेत् ।। १३९ ॥ बालकको पहले-पहल अन्न खिलानेको अन्नप्राशन कहते हैं। सातवें महीने शुभ क्षत्र और शुभ दिनमें बालककी वृद्धिके लिए पिता इस विधिको करे । प्रथम भारी ठाठ-बाटके साथ जिनमंदिर में जिनदेवकी पूजा करे | बाद अपने घर में शुद्ध भोजन तैयार करावे । इसके बाद माता अथवा पिता दक्षिण दिशा की ओर मुखकर बैठे, और बालकका पूर्वदिशाकी ओर मुखकर उसे अपनी बाई गोद में बैठाकर घी शक्कर मिला हुआ, खीर, दही और मिष्टान्न खिलावे | बाद सब बान्धवको भोजन करावे ॥ १३६--१३९ ॥ मंत्र — ॐ नमोऽर्हते भगवते भुक्तिशक्तिप्रदायकाय वालकं भोजयामि पुष्टि - स्तुष्टिश्रारोग्यं भवतु भवतु स्वीं क्ष्वीं स्वाहा । यह मंत्र पढ़कर बालकको अन्न खिलावे । पादन्यासक्रिया (गमन - विधि ) अथास्य नवमे मासे गमनं कारयेत्पिता । मनोचितनक्षत्रे सुवारे शुभयोगके ॥ १४० ॥ पूजां होमं जिनावासे पिता कुर्याच्च पूर्ववत् ॥ पुत्रं संस्त्राप्यसद्वस्त्रैर्भूषये दूषणैः परम् ॥ १४१ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सोमसेनभट्टारकविरचितपूर्वादिपूर्वपर्यन्तं गुर्वग्निब्राह्मणान्परान् । प्रदक्षिणाक्रमेणैव धौतवस्त्रं प्रसारयेत् ॥ १४२ ॥ तस्योपरिस्थितं पुत्रमुदङ्मुखं मुदा पिता । गमयेद्दक्षिणांध्यग्रं भुजौ सन्धृत्य पाणिना ॥ १४३ ॥ सव्यभागेऽग्निकुण्डं तत्सन्त्यज्य त्रिमदक्षिणाः। दत्वाऽग्निगुरुयुद्धेभ्यः प्रणतिं कारयेत्पिता ॥ १४४ ॥ नवमें महीने में गमनके योग्य शुभ नक्षत्र शुभ दिन और शुभ योगसे पिता बालकको गमन करावे-गमनविधि करे। पहलेकी तरह इस विधिमें भी जिनमंदिरमें पूजा और होम करे । बालकको स्नान कराकर वस्त्र-आभूषणसे खूब सजावे । गुरु, अग्नि और ब्राह्मणोंके चारोंतरफ प्रदक्षिणाके क्रमसे पूर्व दिशासे पूर्व दिशातक एक सफेद धोया हुआ वस्त्र बिछावे । उसके ऊपर पिता बालकको उत्तरकी ओर मुखकर खड़ा करे और अपने हाथोंसे बालककी दोनों भुजाएं पकड़कर गमन करावे । गमनके समय पहिले बालकका दाहिना पैर आगे बढ़ावे । दाहिनी ओरके अग्निकुंडको छोड़कर तीन प्रदक्षिणा दिलाकर बाद अमि, गुरु और ब्राह्मणोंको उस बालकसे नमस्कार करावे ॥ १४०--१४४ ॥ मंत्र-ॐ नमोऽहते भगवते श्रीमते महावीराय चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ताय बालकस्य पादन्यासं शिक्षयामि तस्य सौख्यं भवतु भवतु श्वी क्ष्वी स्वाहा । गमन कराते समय पिता यह मंत्र बोले । _व्युष्टिक्रिया। ततोऽस्य हायने पूण व्युष्टि म क्रिया मता। वर्षवर्धनपर्यायशब्दवाच्या यथाश्रुतम् ॥ १४५ ॥ तत्रापि पूर्ववद्दानं जैनी पूजा च पूर्ववत् । इष्टबन्धुसमाव्हानं सन्मानादिश्च लक्ष्यते ॥ १४६ ॥ पूरा एक वर्षका बालक होजानेपर व्युष्टिक्रिया की जाती है, जिसका दूसरा नाम वर्षवर्धनजन्मगांठ है । इस क्रियामें भी पहिलेकी तरह जिनपूजा, दान, होम करना और इष्टबन्धुओंको बुलाकर उनका यथायोग्य सन्मान आदि किया जाता है ॥ १४५-१४६ ॥ चौलकर्म। मुण्डनं सर्वजातीनां बालकेषु प्रवर्तते । पुष्टिबलपदं वक्ष्ये जैनशास्त्रानुमार्गतः ॥ १४७ ॥ तृतीये प्रथमे चाब्दे पञ्चमे सप्तमेऽपि वा । चौलकर्म गृही कुर्यात्कुलधर्मानुसारतः ॥ १४८ ॥ चूलाकर्म शिशोर्मातरि गर्भिण्यां यदि वा भवेत् । गर्भस्य वा विपत्तिः स्याद्विपत्तिवा शिशोरपि ॥ १४९ ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार २५३ शिशोर्मातरि गर्भिण्यां चूलाकम न कारयेत । गते तु पञ्चमे वर्षे दोषयेन हि गर्भिणी ॥ १५० ॥ आरभ्याधानमाचौलं कर्मातीतं तु यद्भवेत् । आज्यं व्याहृतिभिर्तुत्वा प्रायश्चित्तं समाचरेत् ॥ १५१ ।। चौल नाम बालकके मुंडन (जडूला उतारने ) का है। यह मुंडन प्रायः सभी जातियोंमें होता है, जो बालकको पुष्ठ और बलिष्ठ बनाता है, उसीका जैनशास्त्रोंके अनुसार कथन किया जाता है। पहले, तीसरे, पांचवें अथवा सातवें वर्षमें गृहस्थ अपनी कुलपरंपराके अनुसार बालकका चौल कर्म करें । बालककी माताके गर्भवती होनेपर चौलकर्म करनेसे या तो माताका गर्भ गिर जाता है या वह बालक मर जाता है । इसलिए माताके गर्भवती होते हुए बालकका चौलकर्म न करे । हां, यदि बालक पांच वर्षका हो गया हो और माता गर्भवती हो तो चौलकर्म करनेमें कोई दोष नहीं है । गर्भाधानसे लेकर चौलकर्मतक की क्रियाएं यदि न हुई हों तो व्याहृति मंत्रके द्वारा आज्याहुति देकर प्रायश्चित्त ले ले ॥ १४७-१५१ ॥ चौलाई बालकं स्नायात्सुगन्धशुभवारिणा । भेऽन्हि शुभनक्षत्रे भूषयेद्वस्त्रभूषणः ॥ १५२ ॥ पूर्ववद्धोमं पूजां च कृत्वा पुण्याहवाचनैः । उपलेपादिकं कृत्वा शिशुं सिञ्चेत्कुशोदकैः ॥ १५३ ।। यवमाषतिलबीहिशमीपल्लवगोमयैः । शरावान् षट् पृथक्पूर्णान् विन्यस्येदुत्तरादिशि ॥ १५४ ॥ धनुःकन्यायुग्ममत्स्यवृषमेषेषु राशिषु । ततो यवशरावादीन् विन्यस्येत्परितः शिशोः ॥ १५५ ॥ क्षुरं च कर्तरी कूर्चसप्तकं घर्षणोपलम् । निधाय पूर्णकुम्भाग्रे पुष्पगन्धाक्षतान् क्षिपेत् ॥ १५६ ॥ मात्रङ्कस्थितपुत्रस्य स धौतोऽग्रे स्थितः पिता। शीतोष्णजलयोः पात्रे सिञ्चेच युगपजलैः॥ १५७ ॥ निशामस्तु दधि क्षिप्त्वा तज्जले तैः शिरोरुहान् । सव्यहस्तेन संसेच्य पादक्षिण्येन घर्षयेत् ॥ १५८ ॥ नवनीतेन संघर्ण्य क्षालयेदुष्णवारिणा। मङ्गलकुम्भनीरेण गन्धोदकेन सिञ्चयेत् ॥ १५९ ॥ जिस बालकका मुंडन करना है उसे शुभ दिन और शुभ नक्षत्रमें सुगन्धित जलसे स्नान करावे और आभूषण पहनावे । पहलेकी तरह होम और पूजा कर चन्दनादिकका उपलेप वगैरह करके उस बालकका पुण्याहवचनोंद्वारा कुश और जलसे अभिषेचन करे ! इसके बाद धनु, कन्या मिथुन, मीन वृष और मेष राशियोंमें जव, उड़द, तिल, चाँवल, शमीवृक्षके पत्ते और गायके. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सोमसेनभट्टारकविरचित गोबरसे छह मिट्टीके दियोंको पूरे भरकर उत्तर दिशामें जुदा जुदा रख दे। और फिर उन्हें उठाकर बालकके चारों ओर रख दे। फिर छुरा, कैंची, डाभके सात तिनके और उस्तरा घिसनेकी शिलको जलसे भरे कलश के ऊपर रखकर उनपर पुष्प, गन्ध और अक्षत डाले । बालकका पिता स्नान कर माताकी गोद में बैठे हुए बालकके सामने खड़ा होकर ठंडे और गर्म जलके दोनों पात्रों को दोनों हाथोंमें लेकर दूसरे वर्तन में एक साथ उनमेंका जल गेरे । फिर उसमें हल्दी और दही डालकर उस जलको बायें हाथसे बालकके सिरके केशोंपर सींचे और दाहिने हाथसे उन केशको धोवे । बाद मक्खनसे घिसकर गर्म जलसे बालोंको धोवे । और फिर उस मांगलीक कलशके जलसे धोकर गन्धोदकसे सींचे - धोवे ॥ १५२ - १५९ ॥ ततो दक्षिणकेशेषु स्थानत्रयं विधीयते । प्रथमस्थानके तत्र कर्तनाविधिमाचरेत् ।। १६० ।। शालिपात्रं निधायाग्रे खदिरस्य शलाकया । पञ्चदर्भैः सुपुष्पैश्च गन्धद्रव्यैः क्षुरेण च ॥ १६१ ॥ वामकरेण केशानां वर्तिं कृत्वा च तत्पिता । अङ्गुष्ठाङ्गुलिभिश्चैतद्धृत्वा हस्तेन कर्तयेत् ॥ १६२ इसके बाद दाहिनी तरफके केशोंके तीन स्थान बनावे | उनमें से पहले स्थानके केशको कैचीसे कतरे । उस समय बालक के साम्हने शालिके चावलोंसे भरा हुआ बर्तन रखकर खदिरवृक्ष की एक समिधा, पांच दर्भ, पुष्प, गन्ध और छुरा बायें हाथमें लेकर उस बालक के केशोंकी बटकर बत्ती बनाकर, पिता उन केशोंको अंगूठे और उंगलीसे दबाकर दाहिने हाथमें कैंची लेकर कतरे ॥ १६०-१६२॥ मंत्र — ॐ नमोऽर्हते भगवते जिनेश्वराय मम पुत्र उपनयनमुण्डमुण्डितो महाभागी भवतु भवतु स्वाहा । इत्युच्चरन्केशाँसंच्छिद्य शमीपर्णैः सह भार्यायै दद्यात् । साऽपि 6 तथा भवतु इत्युक्त्वा क्षीरघृतमिश्रितान् कृत्वा गोमयशरावे क्षिपेत् । अर्थात् बाल कतरते समय ॐ नमोऽर्हते ' इत्यादि मंत्र पढ़कर बाल कतरे । उन कतरे हुए केशों को शमीवृक्षके पत्तोंके साथ बालककी माताके हाथमें देवे । माता भी 'तथा भवतु' कहकर उन केशोंको दूध और घी लगाकर गोबरसे भरे हुए दिये में छोड़ दे । द्वितीयस्थाने तिलपात्रमग्रे निधाय पूर्वोक्तशस्त्रशेषैश्व - 'ॐ नमः सिद्धपरमेष्ठिने मम पुत्रो निर्ग्रन्थमुण्डभागी भवतु स्वाहा । ' इत्युक्त्वा केशान् प्रच्छिद्य तस्यै दद्यात् । सा तथा करोतु । अर्थात् दूसरे स्थानके केशों को कतरते समय तिलोंसे भरा हुआ पात्र बालकके सामने धरकर पहले की तरह छुरा वगैरह हाथमें लेकर ' ॐ नमः सिद्धपरमेष्ठिने' इत्यादि मंत्र पढ़कर केशोंको कतरे और माता के हाथमें देवे । माता भी पहले की तरह विधि करे । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । तृतीयस्थाने यवशरावमग्रे निधाय पूर्वोक्तशस्त्रशेषैश्व - ' ॐ हीं नमः आचार्य परमेष्ठिने मम पुत्रो निष्क्रान्तिमुण्डभागी भवतु स्वाहा इत्युक्त्वा केशान् संछिद्य पूर्ववत्कुर्यात् । तीसरे स्थानके केश कतरते समय जवके दियेको बालकके सामने रखकर पहले की तरह वगैरह हाथमें लेकर 'ॐ नमः आचार्य परमेष्ठिने' इत्यादि मंत्र पढ़कर केशोंको कतरकर पहले की तरह सारी विधि करे । छुरा वामभागे केशानां भागद्वयं कृत्वा तत्र प्रथमभागे माषपात्रमग्रे निधाय शस्त्रशेषैश्च – 'ॐ नमः उपाध्यायपरमेष्ठिने मम पुत्र ऐन्द्रभागी भवतु स्वाहा । इत्युच्चार्य पूर्ववत् कुर्यात् । २५५ बाईं तरफ के केशोंके दो भाग कर प्रथम भागको कतरते समय उड़दका दिया बालकके सामने रखकर पूर्वोक्त छुरा वगैरह हाथमें लेकर 'ॐ नमः उपाध्याय परमेष्ठिने' इत्यादि मंत्र पढ़कर केशोंको कतरकर माताके हाथमें देवे । माता ' तथा भवतु ' कहकर केशोंको दूध और घी लगाकर गोबर के दिये में गेरे । , द्वितीयस्थाने शमीपल्लवपात्रं निधाय शस्त्रशेषैश्च - 'ॐ हौं नमः सर्व साधुपरमेष्ठिने मम पुत्रः परमराज्यकेशभागी भवतु स्वाहा । , इत्युक्त्वा पूर्ववत्कुर्यात् । दूसरे स्थानके केश कतरते समय शमीपक्षके पत्तोंके दियेको बालकके सामने रखकर छुरा गैरह हाथमें लेकर 'ॐ नमः सर्वसाधुपरमेष्ठिने ' इत्यादि मंत्र पढ़कर पूर्वोक्त सारी विधि करे । I तत्रोष्णोदकेन केशान् प्रक्षाल्य - ' ॐ नहीं पञ्चपरमेष्ठिप्रसादात् केशान्वय शिरो रक्ष कुशली कुरु नापित ।' इत्युक्त्वा नापिताय पिता क्षुरं दद्यात् । नापितोऽपि ' भवदीप्सितार्थो भवतु ' इत्युक्त्वा शिखा परिरक्ष्य शेषकेशान् मुण्डयेत् । ततस्तान् केशान् क्षीरघृतधान्यगोमयपात्राणि च महावाद्य विभवेन नद्यां क्षिपेत् । ततः कुमारं स्नापयित्वा वस्त्रभूषणैरलंकृत्य गृहमानीय यक्षादीनामर्घ्य दत्वा पुण्याहवाचनैः पुनः सिंचयित्वा सज्जनान् भोजयेत् । बाकी बचे हुए केशोंको गर्म जलसे धोकर “ ॐ व्हीं पश्वपरमेष्ठि० " इत्यादि मंत्र पढ़कर बालकका पिता वह छुरा नाईको दे देवे । नाई भी ' आपका अभीप्सित हो ' ऐसा कहकर चोटी छोड़कर बाकी के केशका मुंडन करे । इसके बाद उन केशोंको और दूध, घी, धान्य तथा गोमयके दियोंको भारी गाजे बाजे के साथ नदीमें प्रवाहित करे । बाद बालकको स्नान कराकर वस्त्र आभूषण से अलंकृत करे और घर में लाकर यक्ष आदिको अर्ध देकर पुण्याहवचनोंद्वारा पुनः बालकका सेचन कर सज्जनों को भोजन करावे । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित लिंपिसंख्यान कर्म | द्वितीयजन्मनः पूर्वमक्षराभ्यासमाचरेत् । मौञ्जीबन्धनतः पश्चाच्छास्त्रारम्भो विधीयते ।। १६३ ॥ पचमे सप्तमे चान्दे पूर्व स्यान्मौञ्जिबन्धनात् । तत्र चैवाक्षराभ्यासः कर्तव्यस्तुदगयने ॥ १६४ ॥ द्वितीय जन्म के पहले अर्थात् उपनयन- संस्कारकी क्रिया करनेके पहले बालकको अक्षराभ्यास कराना चाहिए | क्योंकि उपनयनके बाद तो शास्त्रारंभ किया जाता है । उपनयनसे पहले पांचवें अथवा सातवें वर्षमें बालकको अक्षराभ्यास करावे । अक्षराभ्यास उत्तरायणमें करावे ॥१६३-१६४॥ मृगादिपञ्चस्वपि तेषु मूले । हस्तादिके च क्रियतेऽश्विनीषु । पुर्वात्रये च श्रवणत्रये च । विद्यासमारम्भमुशन्ति सिद्धयै ॥ १६५ ॥ २५६ मृग, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मूल, हस्त, चित्रा, अश्विनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा, श्रवण, धनिष्ठा, और शततारका, इन नक्षत्रों में विद्यासिद्धिके लिए बालकको विद्या सिखाना प्रारंभ किया जाय, ऐसा बुद्धिमानोंका कहना है || १६५ ॥ आदित्यादिषु वारेषु विद्यारम्भफलं क्रमात् । आयुजडथं मृतिर्मेधा सुधीः प्रज्ञा तनुक्षयः ॥ १६६ ॥ अनध्यायाः प्रदोषाश्च षष्ठी रिक्ता तथा तिथिः । वर्जनीया प्रयत्नेन विद्यारम्भेषु सर्वदा || १६७|| विद्यारम्भे शुभा प्रोक्ता जीवज्ञप्तितवासराः । मध्यमौ सोमसूर्यौ च निन्द्यचैव शानः कुजः ॥ १६८ ॥ उदग्गते भास्वति पञ्चमेऽब्दे । प्राप्तेऽक्षरस्वीकरणं शिशुनाम् ॥ सरस्वती क्षेत्रसुपालकं च । गुडोदनाद्यैरभिपूज्य कुर्यात् ॥ १६९ ॥ आदित्यादिवारों को विद्या सिखाना आरंभ करनेका फल क्रमसे इस प्रकार जानना । रविवार को विद्या सिखाना प्रारंभ करनेसे आयुष्य बढ़ती है, सोमवारको बुद्धि मोटी हो जाती है, मंगलवार को मृत्यु प्राप्त होती है, बुधवारको मेधा बढ़ती है अर्थात् धारणाशक्ति उत्पन्न होती है, गुरुवारको सुधीःबुद्धि कुशल होती है, शुक्रवारको प्रज्ञा अर्थात् ऊहापोह ( तर्कवितर्क रूप शक्ति उत्पन्न होती है, ) और शनिवारको विद्या प्रारंभ करनेसे शरीर क्षीण होता है । अनध्यायके दिनोंको, प्रदोषके समय, छठको, रिक्तातिथि अर्थात् चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशीको विद्या प्रारंभ न करावे । विद्या प्रारंभ कराने के लिए बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार शुभ माने गये हैं, सोमवार और रविवार मध्यम हैं, और शनिवार और मंगलवार निकृष्ठ हैं । बालकको पांचवां वर्ष लगनेपर सूर्यके उत्तरायण होनेपर अक्षराभ्यास करानेका मुहूर्त करे । उस समय सरस्वती और क्षेत्रपालकी गुड़, चावल आदि से पूजा करे || १६६-१६७ ॥ एवं सुनिश्चिते काले विद्यारम्भं तु कारयेत् । विधाय पूजामम्बायाः श्रीगुरोश्च श्रुतस्य च ।। १७० ।। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २५७ पूर्ववद्धोमपूजादि कार्य कृत्वा जिनालये । पुत्रं संस्नाप्य सद्भरलंकृत्य विलेपनैः ॥ १७१ ॥ विद्यालयं ततो गत्वा जयादिपञ्चदेवताः। सम्पूज्य प्रणमेद्भक्त्या निर्विघ्नग्रन्थसिद्धये ॥ १७२ ॥ वस्त्रैर्भूषैः फलद्रव्यैः सम्पूज्याध्यापकं गुरुम् । हस्तद्वयं च संयोज्य प्रणमेद्भक्तिपूर्वकम् ॥ १७३ ॥ इस तरह ऊपर बताये हुए किसी एक मुहूर्तमें विद्या प्रारंभ करावे । उस दिन माता, गुरु और शास्त्र-सरस्वतीकी पूजा करे । पहलेकी तरह जिनालयमें जाकर होम, जिनपूजा आदि करे । बाद बालकको स्नान कराकर, वस्त्र आभूषण पहनाकर, ललाटमें तिलक लगाकर विद्यालय-स्कूलमें ले जावे । वहां जाकर निर्विघ्न रीतिसे विद्या समाप्त होनेके लिए जमारि पांच देवतोंकी पूजा कर उन्हें भक्ति भावसे उस बालकसे नमस्कार करावे । बाद वस्त्र, आभूषण फल और रुपये वगैरहसे अध्यापककी पूजाकर दोनों हाथ जोड़ भक्तिपूर्वक बालक अध्यापक को नमस्कार करे ॥ १७०-१७३ ॥ पाङ्मुखो गुरुरासीनः पचिमाभिमुखः शिशुः । कुयोदक्षरसंस्कारं धर्मकामार्थसिद्धये ॥ १७४ ।। विशालफलकादौ तु निस्तुषाखण्डतण्डुलान् । उपाध्यायः प्रसायोथ विलिखेदक्षराणि च ॥ १७५ ॥ शिष्यहस्ताम्बुजद्वन्द्वधृतपुष्पाक्षतान् सितान् । क्षेपयित्वाऽक्षराभ्यणे तत्करेण विलेखयेत् ॥ १७६ ॥ हेमादिपीठके वाऽपि प्रसार्य कुङ्कुमादिकम् । सुवर्णलेखनीकेन लिखेत्तवाक्षराणि वा ॥ १७७ ॥ नमः सिद्धेभ्य इत्यादौ ततः स्वरादिकं लिखेत् । . . अकारादि हकारान्तं सर्वशास्त्रप्रकाशकम् ॥ १७८ ॥ विद्या सिखानेवाला गुरु पूरबकी ओर मुखकर बैठे । बालकको पश्चिमकी ओर मुखकर बैठावे। बाद धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धिके लिए अक्षर-संस्कार करे। वह इस तरह कि एक मोटी पट्टीपर छिलके-रहित अखंड चाँवलोंको बिछाकर उपाध्याय प्रथम आप खुद अक्षर लिखे । बाद उन अक्षरोंके पास बालकके हाथसे सफेद फूल और अक्षतोंको क्षेपण करा कर उसके हाथको अपने हाथसे पकड़. कर उससे अक्षर लिखबावे । अथवा सोना, चांदी आदिके बने हुए पाटेपर कुंकुम, केशर आदि बिछाकर सोनेकी लेखनीसे उसपर अक्षर लिखे और बालकसे लिखावे । अक्षर लिखते समय सबसे पहले 'नमः सिद्धेभ्यः' लिखे । इसके बाद अकारको आदि लेकर हकारपर्यंतके संपूर्ण शास्त्रोंको प्रकाश करनेवाले स्वर और व्यंजन लिखे और बालकसे लिखावे ॥ १७४-१७८ ॥ मंत्र-ॐ नमोऽहते नमः सर्वज्ञाय सर्वभाषाभाषितसकलपदार्थाय पालकमक्षराभ्यासं कारयामि द्वादशाङ्गश्रुतं भवतु भवतु ऐं श्रीं न्हीं क्लीं स्वाहा । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सोमसेनभट्टारकविरचितअक्षर लिखाते समय यह मंत्र पढ़े। पुस्तकग्रहण विधि। ततश्चाधीतसर्वाणि चाक्षराणि गुरोर्मुखात् । सुदिने पुस्तकं ग्राह्य होमपूजादि पूर्ववत् ॥ १७९ ॥ उपाध्यायं च सम्मान्य वस्त्रभूषैश्च पुस्तकम् । हस्तौ द्वौ मुकुलीकृत्य प्राङ्मुखश्च समाविशेत् ॥ १८० ॥ उपाध्यायेन तं शिष्यं पुस्तकं दीयते मुदा । शिष्योऽपि च पठेच्छास्त्रं नान्दीपठनपूर्वकम् ॥ १८१ ॥ इसके बाद वह बालक गुरुमुखसे उन अक्षरोंको सीखकर शुभ मुहूर्तमें पुस्तक पढ़ना प्रारंभ करे । इस समय भी पहले की तरह होमादि कार्य करे। बालक वस्त्र आभूषण आदिके द्वारा अपने गुरुका सन्मान कर और पुस्तककी पूजा कर दोनों हाथ जोड़ पूरबकी ओर मुख कर बैठे। पाठक महोदय बड़े हर्षसे उस बालकके हाथमें पुस्तक दे और वह बालक-शिष्य भी नान्दीमंगलके पठन पूर्वक उस पुस्तकको पढ़ना आरंभ करे ॥ १७९-८१॥ उपसंहार । गर्भाधानसुमोदपुंसवनकाः सीमन्तजन्माभिधाः। बाह्येयानसुभोजने च गमनं चौलाक्षराभ्यासनम् ॥ सुप्रीतिः प्रियमुद्भवो गुरुमुखाच्छास्त्रस्य संग्राहणं । एताः पञ्चदश क्रियाः समुदिता अस्मिन् जिनेन्द्रागमे ॥ १८२ ॥ कुर्वन्ति धन्याः पुरुषाः प्रवीणाः । आचारशुद्धिं च शिवं लभन्ते ।। भुक्त्वेह लक्ष्मीविभवं गुणाढ्याः। श्रीसोमसेनैरुपसंस्तुतास्ते ॥ १८३ ॥ गर्भाधान, मोद, पुंसवन, सीमन्त, प्रीति सुप्रीति प्रियोद्भव, जातकर्म, नामकर्म, बहिर्यान, उपवेशन, अन्नप्राशन, गमनविधि, व्युष्टिक्रिया, चौलकर्म, अक्षरसंस्कार और पुस्तक-गृहण, ये पन्द्रह क्रियाएं इस अध्यायमें कही गई हैं । भावार्थ-यद्यपि ये क्रियाएं गिनतीमें सत्रह होती हैं, परन्तु प्रीति, सुप्रीति और प्रियोद्भव इन तीन क्रियाओंका एकहीमें समावेश किया गया है। क्योंकि ये क्रियाएं एक साथ ही की जाती हैं, अन्य क्रियाओंकी तरह जुदे जुदे समयोंमें नहीं की जातीं । अतः तीनोंका एकहीमें समावेश कर श्लोकका अर्थ घटित कर लेना चाहिए । अथवा "एता सप्तदशक्रियाः समुदिता अस्मिन् जिनेन्द्रागमे।" इस तरह दूसरे पाठके अनुसार सत्रह क्रियाएं समझना चाहिए। जिन क्रियाओंका नाम श्लोकमें नहीं है, परंतु उनका वर्णन हो चुका है, अतः चकारोंसे उनका भी समावेश कर लेना चाहिए। जो चतुर पुण्यवान पुरुष इन उपर्युक्त पन्द्रह क्रियाओंको करते हैं वे इस लोकमें अटूट संपत्तिका भोगकर आचारशुद्धिको प्राप्त करते हैं और क्रमसे मुनि सोमसेनके द्वारा पूजित होकर मोक्ष-सुखको प्राप्त करते हैं। इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारकथने भट्टारकश्रीसोमसेनविरचिते . गर्भाधानादिपञ्चदशक्रियामरूपणो नामाष्टमोऽध्यायः समाप्तः। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२५९ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmanamanna त्रैवर्णिकाचार। नववाँ अध्याय । मंगलाचरण। वन्दे श्रीसुमहेन्द्रकीर्तिसुगुरुं विद्याब्धिपारपदं । कालेऽद्यापि तपोनिधि गुणगणैः पूर्ण पवित्रं स्वयम् ॥ नगत्वादिकदुष्टसत्परिषहैर्भग्नो न यो योगिराद् । पायान्मां स कुबुद्धिकष्टकुहरात्संसारपाथोनिधेः॥१॥ मैं, विद्यारूपी समुद्र के पार पहुंचानेवाले, गुणोंकर परिपूर्ण, पवित्र और इस कलिकालमें अद्वितीय तपके खजानेरूप श्रीमहेन्द्रकीर्ति सद्गुरुको बन्दना करता हूं। जो योगीश्वर नमता आदि परीषहोंसे भन्न नहीं हुआ है-जिसने नग्नता आदि दुष्ट परीषहोंको जीत लिया है, वह भी महेन्द्रकीर्ति गुरु दर्बुद्धिरूपी अत्यन्त कष्टदायी गढ़ेरूप संसारसमुद्रसे मेरी रक्षा करें ॥ १ ॥ अजितं जितकामारि मुक्तिनारीमुखपदम् । यज्ञोपवीतसत्कर्म नत्वा वक्ष्ये गुरुक्रमात् ॥ २॥ मैं, जिनने कामरूपी शत्रुओंको जीत लिया है-अपने बशमें कर लिया है और जो मुक्ति-स्त्रीको सुख देनेवाले हैं, उन श्रीअजितनाथ जिनेन्द्रको प्रणामकर गुरुपरंपराके अनुसार यज्ञोपवीत नामके सत्कर्म ( सत्क्रिया) को कहूंगा ॥ २॥ उपनयन क्रिया। गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गोदेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः॥३॥ ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्य विमस्य पञ्चमे । राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ॥ ४॥ ब्राह्मणके लड़केका गर्भसे लेकर आठवें वर्षमें, क्षत्रियका गर्भसे ग्यारहवें वर्षमें और वैश्यका गर्भसे बारहवें वर्षमें यज्ञोपवीत संस्कार करे । विद्या अधिक चाहनेवाले ब्राह्मण-पुत्रका पांचवें वर्षमें, बलके चाहनेवाले क्षत्रिय-पुत्रका छठे वर्ष में और व्यापारकी इच्छा रखनेवाले बैश्य-पुत्रका आठवें वर्षमें यज्ञोपवीत संस्कार किया जाय ॥ ३-४ ।। आ षोडशाच द्वाविंशाच्चतुर्विंशात्तुवत्सरात् ॥ ब्रह्मक्षत्रविशा कालो झुपनयनजः परः ॥५॥ अत ऊर्ध्व पतन्त्येते सर्वधर्मबहिष्कृताः। प्रतिष्ठादिषु कार्येषु न योज्या ब्राह्मणोत्तमैः ॥ ६ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके उपनयन संस्कारका अंतिम काल क्रमसे सोलह वर्ष, वाईत वर्ष और चौवीस वर्ष तकका है। यदि इस समय तक इनका यज्ञोपवीत संस्कार न हो तो इसके Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०. सोमसेनभट्टारकविरचितबाद वे धार्मिक कृत्योंसे बहिष्कृत समझे जायँ । उत्तम ब्राह्मणोंका फर्ज है कि ऐसे पुरुषोंको प्रतिशादि शुभकार्योंमें नियुक्त न करें ॥ ५-६ ॥ अथाचार्यः-पितैवोपनयेत्पूर्वं तदभावे पितुः पिता।.. तदभावे पितुर्धाता सकुल्यो गोत्रजो गुरुः ॥ ७॥ व्रतबन्धं कुमारस्य विना पितुरनुज्ञया। यः करोति द्विजो मोहानरकं सोधिगच्छति ॥ ८॥ लड़केका उपनयन संस्कार पिता ही करावे । यदि पिता न हो तो पितामह ( बापका बाप ), पितामह न हो तो पिताका भाई (चाचा), चाचा भी न हो तो उसके वंशका कोई पुरुष, और यदि वह भी न हो तो उसके गोत्रका कोई पुरुष उसका यज्ञोपवीत संस्कार करावे । पिताकी अनुज्ञाके बिना यदि कोई दूसरा पुरुष अज्ञानवश द्विजके बालकका यज्ञोपवीत संस्कार करे तो वह नरकको जाता है ॥ ७-८॥ ऐसी आज्ञाओंको देखकर प्रायः कितनेही लोग आश्चर्य करने लग जाते हैं और अपनी मोहनी लेखनीयों द्वारा ऊटपटांगं मीठी मीठी त सुनाकर भोले जीवोंकी जिनमतसे श्रद्धा हटाया करते हैं। वे कहते हैं. इस तरहकी बातें लिखनेवालेने जैनियोंकी कर्म-फिलासफीको तो उठाकर ताकमें रख दिया है । पर हम उनसे पूछते हैं कि योग्यता मिलनेपर ऐसे कर्मोंसे क्या नरककी आयु नहीं बँध सकती । क्या आप यह चाहते हैं कि ऐसे कार्य करानेके बाद शीघ्र ही उसे नरकको चला जाना चाहिए । यदि ऐसे कामोंसे नरकायुका बन्ध नहीं हो सकता तो वे कौनसे ऐसे कार्य हैं जिनके जरिये ही नरकायुका बन्ध होता है, अन्यसे नहीं । यदि मान लो कि ऐसे कर्मोंसे नरकायुका बन्ध न होता तो भी जब आप कर्म-फिलासफीको मानते हैं तो कोई न कोई कर्मका बन्ध अवश्य होगा। तब बताइये कि पुण्यबन्ध होगा या पापबन्ध ? यदि मर्यादा उल्लंघन करनेवालेको भी पुण्यबन्ध होगा तो उमास्वामी, समन्तभद्र आदि महर्षियोंने विरुद्ध राज्यातिक्रम नामका चौरीका अतीचार क्या यों ही बतला दिया ? कल्पना करो कि सरकारने कोई एक नियम बनाया । उसका किसीने उल्लंघन किया। इससे उसे जेल जाना पड़ा। तब बताइये. वह नियमके तो हो जेल गया या कर्मके उदयसे ? यदि कहेंगे कि नियम तोड़नेसे गया: तो आपने भी कर्म-फिलासफीको ताकमें रख दी । यदि कहें कि कर्मके उदयसे जेल गया तो उस कर्मका बन्ध उसने कब और किन २ कृत्योंसे किया था ! यदि कहेंगे कि कभी किन्हीं कृत्योंसे हुआ होगा, जिसके फलस्वरूप जेल जाना पड़ा । तो यहांपर भी ऐसा क्यों नहीं मान लेते कि ऐसे कार्योंसे नरकायुका बन्ध हो नाय और कालान्तरमें उसके उदयसे नरक जाना पड़े। मर्यादा उल्लंघन करनेवालेको पुष्पबन्ध होने लगे तो जो प्रत्यक्षमें राजकीय कानूनोंको उल्लंघन कर जेल जाते हैं उन्हें भी पुण्यबन्ध ही होता होगा । धन्य है ऐसे पुण्यबन्धको! जिसका बुरा फल प्रत्यक्षमें भोग रहे हैं और फिर भी वह पुण्य बन्ध ही रहा । अतः मानना पड़ेगा कि ऐसे कर्मोंसे पापबन्ध ही होता है । मान लें कि ऐसे कामोंसे नरकायुरूप महापापका बन्ध नहीं होता तो भी अन्य पाप कर्मोंका बन्ध अवश्य होगा। और उन पापकर्मोंका उदय आनेपर उनके निमित्तसे यह जीव भारी अनर्थ कर बैठे तब तो उनके नरकायुका बन्ध अवश्य हो जायगा । ऐसी हालतमें कहना पड़ेगा कि उसी पापबन्धके परंपरा फलसे ऐसी हालत हुई । तो कारणमें कार्यका या कारण-कारणमें कार्यका उपचार कर Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । २६१ ऐसा कहना अयुक्त नहीं है। यदि आपका यह कहना हो कि ऐसे कार्य करनेके अनन्तर ही नरकको चला जाना चाहिए तो जिसको आप महापापी समझते हैं वह भी क्या महापापके अनन्तर हा नरक चला जाता है ? यदि कहेंगे कि नियम नहीं तो बस ठीक है, यहां भी ऐसा क्यों नहीं मान लेते कि उसी समय चला जाय या कालान्तरमें चला जाय, कोई नियम नहीं । ग्रन्थकारका सिर्फ आशय इतना ही है कि मर्यादा उल्लंघन करना अच्छा नहीं है, जिसका फल नरकादि गतियोंमें जाना है । इसमें उनने कर्म-फिलासफीको उठाकर कैसे ताकमें रख दिया है सो कुछ समझमें ही नहीं आता। जो बात युक्तियुक्त है उनमें भी व्यर्थकी ऊटपटांग शंकायें उठाई जाती हैं। यह सब कर्मफिलासफीके न समझनेका ही फल प्रतीत होता है। पुत्रनिश्चयः-स्वाङ्गजः पुत्रिकापुत्रो दत्तः क्रीतश्च पालितः । भगिनीजः शिष्यश्चेति पुत्राः सप्त प्रकीर्तिताः ॥९॥ अपनेसे उत्पन्न हुआ पुत्र, पुत्रीका पुत्र, दत्तक पुत्र, खरीदा हुआ पुत्र, पाला हुआ पुत्र, भाँजा और शिष्य, ऐसे सात प्रकारके पुत्र होते हैं ॥ ९ ॥ सूत्रं बलं हस्तमानं चत्वारिंशच्छताधिकम् । तत्रैगुण्यं बहिवृत्त्याऽन्तवृत्त्या त्रिगुणं पुनः ॥१०॥ गृहभायां समादाय स्वयं हस्तेन कतयेत् । तेन सूत्रेण संस्कार्य शुभ्रं यज्ञोपवीतकम् ॥ ११॥ रुईके एक सौ चालीस हाथ लंबे सूतको तिहराकर उसे बाहरकी तरफसे बटे । फिर उसे तीन लड़ाकर भीतरकी तरफसे बटे । यज्ञोपवीतके सूतको गृहपत्नी स्वयं अपने हाथसे काते । उसी सूतका सफेद यज्ञोपवीत बनावे ॥ १०-११ ॥ नान्दीश्राद्धे कृते पश्चादुल्कापाताग्निवृष्टिषु । सूतकादिनिमित्तेषु न कुर्यान्मौञ्जीबन्धनम् ॥ १२ ॥ यस्य माङ्गलिक कार्य तस्य माता रजस्वला । तदा न तत्पकर्तव्यमायुःक्षयकरं हि तत् ॥ १३ ॥ मात्रा सहैव भुञ्जीत ऊर्ध्व माता रजस्वला । व्रतबन्धः प्रशस्तः स्यादित्याह भगवान्मुनिः॥१४ ॥ नान्दीश्राद्धे कृते पश्चात्कन्यामाता रजस्वला । कन्यादानं पिता कुर्यादित्यादि जिनभाषितम् ॥ १५॥ नान्दीश्राद्ध हो चुकनेपर, उल्कापात, अमिप्रवेश, अतिवृष्टि और सुतक आदि कारण आ उपस्थित हों तो मौंजी-बन्धन-संस्कार न करे। जिस बालकका यज्ञोपवीत-मंगल करनेका है उस बालककी माता यदि रजस्वला हो जाय तो उसका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह बालककी आयुका विनाश करनेवाला है। यज्ञोपवतिके समय माताके साथ बैठकर भोजन करने की विधि होती है । उसके हो चुकनेके बादमें माता यदि रजस्वला हो जाय तो कोई हानि Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सोमसेनभट्टारकविरचित नहीं है। ऐसा पूर्वाचार्यों का कहना है । कन्या के विवाह के समय नान्दीश्राद्ध हो चुकनेपर यदि कन्याकी माता रजस्वला हो जाय तो उस समय कन्याका पिता कन्या- दान करे । इत्यादि जिनेन्द्र देवका कहना है ॥ १२-१५ ॥ शुभे ग्रहे शुभे योगे मौञ्जीबन्धोचितं सुतम् । संस्नाप्य भूषयित्वा तं मात्रा सह तु भोजयेत् ॥ १६ ॥ केशानां मुण्डनं कृत्वा शिखाशेषं तु रक्षयेत् । हरिद्राज्यसुसिन्दूरदूर्वादिकं विलेपयेत् ॥ १७ ॥ पुनः संस्नाप्य पुण्याहवाग्भिः सिक्त्वा कुशाम्बुभिः । आज्यभागावसानान्तैः सुगन्धिभिर्विलेपयेत् ॥ १८॥ नान्दीश्राद्धं च पूजां च होमं च वाद्यघोषणम् । सर्व कुर्याच्च तस्याग्रे पूर्ववद्गुरुपूजनम् ॥ १९ ॥ मौंजीबन्धन करने योग्य बालकको शुभग्रह और शुभयोगमें स्नान कराकर, उसे कपड़े आभूषण पहनाकर माताके साथ भोजन करावे । चोटी छोड़कर उसके केशोंका मुंडन करावे । हल्दी, घी, सिंदूर, दूब आदिका उसके सिरपर लेप करे । उसके बाद उसे फिर स्नान कराकर पुण्याहवचनों द्वारा कुश और जलसे सेचन कर आज्यभागके अन्तिम सुगन्ध ( चंदन ) से बालकके लेप करे । फिर इस बालकके सामने पहलेकी तरह नान्दीश्राद्ध, पूजा, होम, और वाद्यघोषण ( बाजा बजवाना ), गुरुपूजन आदि सब कार्य करे ॥ १६-१९ ॥ आसने सुमुहूर्ते तु ग्रहस्तोत्रादिकं पठेत् । परमेष्ठिनमस्कारमन्त्रं च संस्मरेत्सदा ॥ २० ॥ पद्मासनस्थः पुत्रोऽसौ प्रसाद्य मुदगाननः । निर्निमेषं निरीक्षेत पित्रास्यं जन्मशुद्धये ॥ २१ ॥ पुत्रस्य सम्मुखं स्थित्वा तत्पिता सुमुहूर्तके । arti वा गन्धेन ललाटे तिलकं न्यसेत् ॥ २२ ॥ इसके बाद समीपवर्ती सुमुहूर्त में ग्रहस्तोत्रों का पाठ करे । और हमेशह पंचनमस्कारको स्मरण करे । वह बालक उत्तरकी ओर मुख कर पद्मासन ( पलाठीमार ) बैठकर अपने द्वितीय जन्मकी शुद्धिके लिए निर्निमेष अर्थात् आंखोंकी पलकोंको न झपकाते हुए प्रसन्नतायुक्त पिताके मुखका निरीक्षण करे । बालकका पिता भी अच्छे मुहूर्तमें पुत्रके सामने खड़ा होकर पुत्रके मुखको देखे और उसके ललाटपर तिलक लगावे ॥ २०-२२ ॥ मुञ्जत्रिवर्तिवलितां मौऔँ त्रिगुणितां शुभाम् । कौपीनकटिसूत्रोर्ध्व कटिलिंगं प्रकल्पयेत् ॥ २३ ॥ मंत्र-ॐ ह्रीं कटिप्रदेशे मौंजीबन्धं प्रकल्पयामि स्वाहा । इत्युक्त्वा कट्यां त्रिलिङ्गसमन्वितां मौंजीं बध्नीयात् । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २६३ मौजकी तीन लड़ी एक रस्सी बनावे । उसे तिगुनी कर एक मौंजीबन्धन बनाने । उसे कौपीन और कटिसूत्रके ऊपर कटिलिंग कल्पित करे । बाद " ॐ ही कटिप्रदेशे" इत्यादि मंत्र पढ़कर उसके तीन गांठ लगाकर उस मौंजीबन्धनको कमरके चारों ओर बांधे ॥ २३ ॥ मंत्र-ॐ नमोऽहते भगवत तीर्थकरपरमेश्वराय कटिसूत्रं कौपीनसहितं मौंजीबन्धनं करोमि पुण्यबन्धो भवतु अ सि आ उ सा स्वाहा । इति कटयां मुजीं धृत्वा पुष्पाक्षतान् क्षिपेत् । अर्थात्-" ॐ नमोऽर्हते" इत्यादि मंत्र पढ़कर मौंजीको हाथमें लेकर उसपर पुष्प और अक्षत क्षेपण करे। रत्नत्रयात्मकं सूत्रं यज्ञसूत्रं मुनिर्मलम् । हरिद्रागन्धसाराक्तमुरोलिङ्गं प्रकल्पयेत् ॥ २४॥ मंत्र-ॐ नमः परमशान्ताय शांतिकराय पवित्रीकृतार्ह रत्नत्रयस्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि मम गात्रं पवित्रं भवतु अर्ह नमः स्वाहा । इत्यनेन यज्ञोपवीतमुरसि धारयेत् । ___ यह निर्मल यज्ञसूत्र रत्नत्रयस्वरूप है । इसे हल्दी और चन्दनसे रंगे और इसमें उरोलिंग की कल्पना करे । भावार्थ-यह यज्ञोपवीत छातीका चिन्ह है, ऐसा समझे । और “ॐ नमः परमशान्ताय" इत्यादि मन्त्रको पढ़कर उस यज्ञोपवीतको छातीमें धारण करे-पहने ॥ २४ ॥ जिनराजपदाम्भोजशेषसंसर्गपावनीम् ।। ब्रह्मग्रन्थि शिखामेव शिरोलिंगं प्रकल्पयेत ॥ २५॥ मंत्र-ॐ नमोऽहते भगवते तीर्थकरपरमेश्वराय कटिसूत्रपरमेष्ठिने ललाटे शेखरं शिखायां पुष्पमालां च दधामि मां परमेष्ठिनः समुद्धरन्तु ॐ श्रीं हीं अर्ह नमः स्वाहा । अनेन शिरसि पुष्पमालां धृत्वा तिलकं कृत्वा नवीनवस्त्रोत्तरीयपरिधानं कुर्यात् । ___जो जिनदेवके चरण-कमलसम्बन्धी गन्ध, अक्षत आदि पदार्थोंके स्पर्शस पवित्र हई ब्रह्मग्रन्थियक्त (जिसमें ब्रह्मगांठ लगी हुई है.) अपनी चोटीमें ही शिरोलिंगकी कल्पना करे । भावार्थ-अपनी चोटीको ही शिरोलिंग समझे और उसमें ब्रह्मगांठ लगावे । ॥ २५ ॥ “ॐ नमोऽहते" इत्यादि मन्त्र पढ़कर सिरमें पुष्पमाला धारण कर और तिलक लगाकर नई धोती और दुपट्टा पहने । अन्तरीयोत्तरीये द्वे नूत्ने धृत्वा स मानवः । आचम्य तर्पणान्यानपि कृत्वा यथाविधि ॥२६॥ ततोआलिं च संयोज्य गन्धाक्षतफलान्वितम् । आचार्य याचयेत्पुत्रो व्रतानि मुक्तिहेतवे ॥ २७॥ तच्छ्रुत्वा श्रावकाचारावतानि गुरुरादिशेत् । गृहीयात्तानि सम्मीत्या बीजमन्त्र गुरोर्मुखात् ॥२८॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सोमसेनभट्टारकविरचित वह बालक, एक धोती और एक दुपट्टा पहनकर आचमन, तर्पण और अर्घ्यदान यथाविधि करे । पश्चात अंजलि बनाकर उसमें गन्ध अक्षत और फल लेकर मुक्तिकी इच्छासे व्रतग्रहण करनेकी आचार्यसे प्रार्थना करे। उसकी प्रार्थना सुनकर आचार्य महाराज श्रावकाचारके अनुसार उसे व्रतग्रहण करावे। वह बालक बड़ी प्रीतिके साथ आचार्य महाराजके दिये हुए व्रतोंको और बीजमंत्रोंको ग्रहण करे ॥ २६-२८॥ मंत्र-ॐ हीं श्रीं क्लीं कुमारस्योपनयनं करोमि अयं विषोत्तमो भवतु अ सि आ उ सा स्वाहा । इति त्रिरुच्चार्य अघोरं पञ्चनमस्कारमुपदिशेत् । आचार्य तीन बार इस मंत्रको उच्चारकर उसे व्रत और पंचनमस्कारमंत्रका उपदेश करे। . शुद्धं विवाहपर्यन्तं ब्रम्हचर्य परिब्रजेत् । त्रैवाचारसूत्रं च छत्रदण्डसमन्वितम् ॥२९॥ विमादीनां तु पालाशखदिरो दुम्बराः क्रमात् । दण्डाः स्वोच्चास्तुरीयांशबद्धहारिद्रकर्पटाः ॥३०॥ अग्नरुत्तरतः स्थित्वा मांङ्मुखास्त्रजलाञ्जलीन् । पुष्पाक्षतान्वितान् कृत्वा वटुस्तिष्ठेन्निजासने ॥ ३१ ॥ होमपूजादिकं काये कृत्वा पूर्णाहुतिं गुरुः। अग्रे यद्यत् कर्तव्यं तत्तु तस्मै निवेदयेत् ॥ ३२ ॥ जबतक विवाह न हो तबतक निर्दोष ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करे । तीन वर्षों के आचरणके योग्य यज्ञोपवीत पहने तथा छत्र और दण्डा हाथमें रक्खे । ब्राह्मण तो पलाशकी लकड़ीका, क्षत्रिय खदिरकी लकड़ीका और वैश्य उदुंबरकी लकड़ीका दण्डा रक्खे । दण्ड अपनी उंचाईके बराबर ऊंचा होना चाहिए। जिस तरफसे दण्डको हाथमें पकड़ते हैं उस तरफ उसकी उंचाईके चतुर्थाश (चार हिस्सोंमेंसे एक हिस्से ) पर हल्दीसे रंगा हुआ कपड़ा चारों ओर लपेटा हुआ होना चाहिए । बाद वह बालक पूर्वकी तरफ मुख कर (अग्निसे उत्तरकी तरफ) खड़ा होवे और पुष्प-अक्षतयुक्त जलकी तीन अंजलि देकर अपने आसनपर बैठे । बाद गुरु होम पूजा आदि कर पूर्णाहुति दे। इसके बाद जो विधि करना हो वह सब गुरु उस बालकको पहले कहता जाय कि अब यह विधि होगी, अब यह होगी, इत्यादि ॥ २९-३२॥ निर्गत्य सदनाच्छिष्यस्त्वङ्गणे ह्याचमं परम् । कृत्वा सूर्य समालोक्य एकम समुत्तरेत् ॥ ३३ ॥ शमीत्रीह्यक्षतैर्लाजैः क्षीराज्यचरुभिस्तथा । संसिञ्च्य जुहुयादग्नौ शान्त्यर्थ तिस्र आहुतीः॥ ३४ ॥ संवृतौष्ठद्वयं वक्त्रं धौतं तापितपाणिना । त्रिः समृज्याग्न्युपस्थानं कृत्वाऽग्निं विसृजेत्पुनः ॥ ३५ ॥ आविद्याभ्यसनं चान्ते भिक्षावृत्तिप्रयोजनम् । गुरोरादेशमादाय बहिर्गच्छेत्स पात्रयुक् ॥ ३६ ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | २६५ वह बालक होमशालासे निकलकर बाहर आँगनमें आवे। वहांपर आचमन कर और सूर्यको देखकर एक अर्ध दे । बाद अभिके चारों ओर पानीकी धारा देकर उसमें शान्तिके अर्थ शमीकी समिधा, शालीके चांवल, लाज ( लाई ) दूध, घी और नैवेद्यकी तीन आहूतियां छोड़े । बाद मुखको धोकर दोनों ओठोंको मिलाकर अपने मुखपर अग्निसे हाथ तपा तपाकर तीन बार फेरे । बाद अभिकी उपस्थापना कर उसका विसर्जन करे । पश्चात् विद्याभ्यासपर्यंत भिक्षा मांगकर भोजन करना उस बालकका कर्तव्य है; इसलिए वह गुरुसे आज्ञा लेकर पात्र - सहित घर से बाहर निकले ॥ ३३–३६ ॥ सव्यपादं विधायाग्रे शनैर्गच्छेद्गृहाद्बहिः । ब्राह्मणानां गृहे गत्वा भिक्षां याचेत शिक्षया ॥ ३७ ॥ भिक्षाकाले तु निःशङ्को भिक्षां देहीति वाग्वदेत् । यथा शृण्वन्ति गेहस्थास्त्रिवर्णाचारसंयुताः ॥ ३८ ॥ प्रथमकरणादी द्वौ चरणद्रव्ययुग्मकम् । अनुयोगाश्च चत्वारः शाखा विश्मते मताः ॥ ३९॥ तासांमध्ये तु या शाखा यस्य वंशे प्रवर्तते । तामुक्त्वा गृहिणी तस्मै सन्दद्यात्तण्डुलाञ्जलिम् ॥ ४० ॥ वह बालक अपने दाहिने पैर को प्रथम आगे बढ़ाकर धीरे धीरे घरसे बाहर निकले । णोंके घरपर जाकर गुरुकी शिक्षाके अनुसार भिक्षा मांगे। भिक्षाके समय निःशंक अर्थात् लाज छोड़कर " भवति भिक्षां देहि " इस तरहके वचन बोले । अपने मुखसे इस तरहके वचन बोले कि जिन्हें तीन वर्णोंके आचरणयुक्त गृहस्थ स्पष्ट सुन लें । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, और द्रव्यानुयोग, ये चार शाखाएं ब्राह्मणों के मत में मानी गई हैं । उनमें से जो शाखा जिस ब्राह्मणके घर में चली आई हो उसे बोलकर गृहिणी उस बालकको अंजलिभर चावलोंकी भिक्षा देवे ॥ ३७-४० ॥ भिक्षायाचनकं दृष्ट्वा बन्धुवर्गों वदेदिदम् । दूरदेशान्तरे पुत्रमागच्छ त्वं तु बालकः ॥ ४१ ॥ ave गुरुसानिध्ये विद्याभ्यासं सदा कुरु । मध्ये कुटुम्बवर्गस्य सर्वेषां सुखदायकः ।। ४२ ।। अङ्गीकृत्य वचस्तेषां गच्छेच्चासौ जिनालयम् । क्रियां कुर्यात्तु होमादिसम्भवां जिनपूजनम् ॥ ४३ ॥ ब्राह्मणास्ततः सर्वान् भोजयित्वा यथाविधि । वस्त्रभूषणताम्बूलैः पुण्यार्थं परिपूजयेत् ॥ ४४ ॥ ब्राह्म उस बालककी भिक्षाकी याचनाको देखकर बंधुवर्ग इस तरहके वचन बोलें कि, हे बालक ! तू अभी बालक है, दूर देशोंको मत जा, यहींपर गुरुके निकट हमेशह विद्याभ्यास कर और ३४ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचितकुटुंबमें रहकर सबको सुखी कर । इन वचनोंको सुनकर वह बालक उसे स्वीकार करे और चैत्यालयमें जावे । वहांपर होम जिनपूजन आदि क्रियाएं करे । इसके बाद ब्राह्मण आदि सारे मनुष्योंको भोजन कराकर, पुण्यके अर्थ वस्त्र, आभूषण और तांबूलद्वारा विधिपूर्वक उनका यथायोग्य सत्कार करे ॥ ४१-४४ ॥ बोधि-पूजन। चतुर्थवासरे चापि संस्नातः पितृसन्निधौ । संक्षिप्तहोमपूजादि कर्म कुर्याद्यथोचितम् ॥ ४५ ॥ शुचिस्थानस्थितं तुझं छेददाहादिवर्जितम् । मनोज्ञं पूजितुं गच्छेत्सुयुक्त्याऽश्वत्थभूरुहम् ॥ ४६॥ दभेपुष्पादिमालाभिहेरिद्राक्तसुतन्तुभिः। स्कन्धदेशमलंकृत्य मूलं जलेश्च सिंचयेत् ॥ ४७॥ वृक्षस्य पूर्वदिग्भागे स्थण्डिलस्थाग्निमण्डले। नव नव समिद्भिश्च होमं कुर्याघृतादिकैः ॥ ४८ ॥ पूतत्वयज्ञयोग्यत्वबोधित्वाद्या भवन्तु मे । त्वद्वद्घोधिद्रुमत्वं च मच्चिन्हधरो भव ॥ ४९ ।। तं वृक्षमिति सम्पार्थ्य सर्वमंगलहेतुकम् । वृक्षं वन्हि त्रिः परीत्य ततो गच्छेद्गृहं मुदा ॥ ५० ॥ एवं कृते न मिथ्यात्वं लौकिकाचारवर्तनात् ।. भोजनानन्तरं सर्वान् सन्तोष्य निवसेदगृहे ॥ ५१ ॥ पतिमासं क्रियां कुयोद्धोमपूजापुरःसराम् । श्रावणे तु विशेषेण सा क्रियाऽऽवश्यकी मता ॥ ५२ ॥ चौथे दिन वह बालक, अच्छी तरह स्नानकर पिताके निकटमें संक्षेपसे यथायोग्य होम पूजा आदि कर्म करे । पवित्र स्थानमें खड़ा हो, ऊंचा हो, छिन्नभिन्न न हो, और जला हुआ न हो, ऐसे एक मनोहर पीपलके वृक्षको देखकर उसकी पूजाके लिए वह बालक जावे। दर्भ, फूलमाला हल्दीसे रंगे हुए सूतसे उस वृक्षके स्कंधको सुशोभित कर उसकी जड़को जलसे सींचे । उस वृक्षकी पर्व दिशामें एक चौकोन चबूतरा बनाकर उसमें गोल अग्निकुंड बनावे । उसमें अमि तैयार कर नौ नौ समिधाओं और घृत आदिसे होम करे । और हे वृक्ष ! तेरी तरह मुझमें भी पवित्रता हो, यायोग्यता हो, जिस तरह तुझे बोधि नाम प्राप्त है उसी तरह मुझे बोधि-रत्नत्रयकी प्राप्ति हो और तूं भी मेरे समान चिन्हका धारण करनेवाला हो। इस प्रकार सम्पूर्ण मंगलोंके कारण उस वृक्षराजसे प्रार्थना करे । पश्चात् उसके तीन प्रदक्षिणा देकर सहर्ष घरपर आवे। इस तरह इस लौकिक आचरणके करनेसे मिथ्यापन नहीं है। घरपर आकर भोजनके बाद सबको संतोषित कर घरमें रहे । यह क्रिया हर महीनेमें करता रहे। परंतु श्रावण महीनेमें यह क्रिया अवश्य की जानी चाहिए Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। भावार्थ-सूर्यको अर्घ देना, संक्रान्तिके दिन दान देना, गंगादि नदियोंमें स्नाम करना, वृक्षकी पूजा करना, सरोवरकी पूजा करना, इनको लोकमूढ़ता आगममें कहा है । यहांपर ग्रंथकारने वृक्षपूजन बताया है, इसलिए इसका लोकमूढ़तामें अन्तभाव होना चाहिए । किन्तु ग्रन्थकार लिखते हैं कि इस लौकिक आचरणके करनेसे मिथ्यात्व नहीं है । इससे यह मालूम होता है कि इसमें कुछ थोड़ासा रहस्य है । सिर्फ जिस तरह शरीरकी निर्मलताके लिए कुए बावड़ीपर स्नान करते हैं उसी तरह गंगा यमुना आदि नदियोंमें स्नान करना लोकमूढ़ता नहीं है। किंतु वर ( वांछित फलको प्राप्त करने ) की इच्छासे उनमें स्नान करना लोकमूढ़ता है । यदि हम घरपर स्नान करते हैं और उसमें भी हम इस इच्छासे स्नान करें कि इससे हमें स्वर्ग मोक्षकी प्राप्ति होगी तो यह इच्छा भी परमार्थके प्रतिकूल होनेसे मिथ्या ही है। इसलिए यहांपर ऐसा समझना चाहिए कि जो ऐसे अभिप्रायोंको धारण कर गंगा यमनामें स्नान करें तो उसे लोकमूढताका सेवन करनेवाला कहना चाहिए और जो सामान्यसे अर्थात् घरपर जिस तरह नित्य स्नान करता है उसी तरह स्नान करे तो वह मिथ्यापन नहीं है। यह न्याय नहीं है कि कोई अपनी नित्यक्रियाके अनुसार या वैसे ही गंगामें स्नान कर रहा हो और उसे चटसे मिथ्याती कह दें। केवल कहनेसे कुछ नहीं होता, होता है स्नान करनेवालेके अभिप्रायोंसे । स्वर्गमोक्षकी इच्छासे सूर्यको अर्घ देना मिथ्या है। किन्तु प्रतिष्ठादिके समय विशेष विधिके अनुसार सूर्यको अर्घ देना मिथ्या नहीं है, जो अखिल प्रतिष्ठापाठोंमें प्रसिद्ध ही है। स्वर्ग मोक्षकी इच्छासे संक्रांतिके दिन दान देना मिथ्या है, परंतु जो स्वतःस्वभाव प्रतिदिन भक्तिदान या करुणादान करता है और वह उस दिन भी अपने हमेशहकी तरह दान देवे तो उसे भी मिथ्यादृष्टि कहने लग जायें, यह न्याय नहीं है। सरोवर की पूजा करना मिथ्या है, परंतु प्रतिष्ठादिकोंके समय जो सरोवरकी पूजा की जाती है वह मिथ्या नहीं है। काली, चंडी, मुंडी देवियोंका सत्कार करना मिथ्या है । परंतु प्रतिष्ठादिकके समय इनका भी यथायोग्य सत्कार किया जाता है वह मिथ्या नहीं है । इसे सम्पूर्ण प्रतिष्ठापाठोंके ज्ञाता पुरुष स्वीकार करेंगे । जो लोग किसीभी शास्त्रको नहीं मानते हैं उनके लिए हमारा कुछ कहना नहीं है। परन्तु हमारे बड़े बड़े दिग्गज विद्वान और धर्मके ज्ञाता पुरुष प्रतिष्ठापाठोंको प्रमाण मानते हैं और उनके अनुसार प्रतिष्ठा कराते हैं। वे तो इन उपर्युक्त बातोंको अवश्य ही स्वीकार करेंगे। इससे यह अभिप्राय निकलता है कि विशेष विशेष विधियोंमें स्वर्ग मोक्ष आदिकी इच्छा न कर शान्तिके लिए ऐसा करना मिथ्या नहीं है । इसी तरह इस यज्ञोपवीत नामकी विशेष विधिमें बोधिकी इच्छासे बोधिवृक्षकी पूजा करना मिथ्या नहीं होना चाहिए। हां, यहांपर यह शंका हो सकती है कि उस जड़ पदार्थसे बोधि-ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि ज्ञानप्राप्तिमें अंतरंग कारण उसका क्षयोपशम है और बाह्य कारण अनेक हैं। संभव है कि जिस तरह क्षेत्रको निमित्त लेकर ज्ञानका क्षयोपशम हो जाता है, वैसे ही ऐसा करनेसे भी ज्ञानका क्षयोपशम हो जाय । वह क्षेत्र भी जड़ ही है। जैसे पुस्तक आदि जड़ पदार्थसे ज्ञानका क्षयोपशम होता है, वैसे ही उस वृक्षके निमित्तसे भी क्षयोपशम हो सकता है । जड़ वस्तुएँ आत्माके ऊपर अपना असर डाला करती हैं। इसके अनेकों दृष्टान्त भरे पड़े हैं। संभव है कि उस वृक्षके निमित्तसे भी आत्मापर एक Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सोमसेनभट्टारकविरचित ऐसा असर पड़ जाय जिससे उसकी आत्मामें विलक्षणता आ जाय । केवल जड़ कहकर हरएककी अवहेलना करमा ठीक नहीं है। मंदिरोंको, सिद्धस्थानोंको, समवशरणको, परमात्मासंबंधी हर एक उपकरणको, गन्धोदकको आदि अनेक जड़ पदार्थोंको नमस्कार करते ही हैं। जिन अभिप्रायों से यह ठीक है वैसे ही इस समय के अभिप्रायोंसे यह भी ठीक हो सकता है। हां, यदि इस इच्छा से प्रेरित होकर हमेशह ही या स्वर्गादिककी इच्छासे या उस वृक्षको ही कर्त्ता हर्त्ता मानकर जब कभी वह - दृष्टिगोचर हो तभी उसे हाथ जोड़ना - नमस्कार करना - अवश्य मूढ़ता है । लोग जो हमेशह या विशेष विशेष दिनोंमें पीपल पूजन करते हैं वह भी मूढ़ता है। इन बातों से तो ग्रन्थकारका कहना अयुक्त मालूम नहीं पड़ता । जो लोग बीतराग प्रतिमाको, उसके स्तोत्रोंको, प्रतिष्ठापाठोंको अयुक्त बतलाते हैं उनके लिए तो सभी अयुक्त ही है । वे तो वृक्ष-पूजन दूर रहे, यज्ञोपवीत संस्कारको ही अयुक्त बताते हैं । कहनेका सारांश यह है कि, हरएक कथन आपेक्षिक हुआ करता है । यदि उनमें से अपेक्षा हटा दी जाय और विचार किया जाय तो जैनमतके सभी विषयोंमें परस्पर विरोध झलकने लगेगा । और यदि उसीको अपेक्षासे विचार करेंगे तो विरोधका पता भी नहीं चलेगा। जैसे व्यवहारनय और निश्चयनयको ही लीजिये । व्यवहारके बिना निश्चय कार्यकारी नहीं है और निश्चय के बिना व्यवहार कार्यकारी नहीं है। एक स्थानमें गृहस्थाश्रमकी- पुत्र आदिकी भारी प्रशंसा की गई है । दूसरे स्थानों में उनको हेय बतलाया है। क्या यह परस्पर विरोध नहीं है । परंतु अपेक्षासे विचार किया जाय तो रंचभर भी परस्पर में विरोध नहीं है । इसी तरह जिन अपेक्षाओंसे सूर्यको अर्घ देना, वृक्षपूजन करना, संक्रातिमें दान देना, गंगायमुना आदिमें स्नान करना बुरा बताया गया है उन अपेक्षाओंसे इन कार्योंको करना अवश्य बुरा है । और जिन अपेक्षाओं से इनका निषेध नहीं है, उन अपेक्षाओंस इनका करना बुरा भी नहीं है; सिर्फ स्थान का विचार कर लेना आवश्यक है । 1 वर्षेऽतीते त्रिकालेषु सन्ध्यावन्दनसत्क्रियाम् । सदा कुर्यात्स पुण्यात्मा यज्ञोपवीतधारकः ।। ५३ ॥ यज्ञोपवीत धारण किये हुए एक वर्ष व्यतीत होजानेपर यज्ञोपवीत धारण करनेवाला पुण्यात्मा पुरुष तीनों कालोंमें अर्थात् सुबह, दोपहर और शामको संध्या, वंदन आदि उत्तम क्रियाएं करे ॥ ५३ ॥ उपवीतं बटोरेकं द्वे तथेतरयोः स्मृते । एकमेव महत्पूतं सावधिब्रह्मचारिणाम् ॥ ५४ ॥ यज्ञोपवीते द्वे धार्ये पूजायां दानकर्मणि । तृतीयमुत्तरीयार्थ वस्त्राभावे तदिष्यते ॥ ५५ ॥ रन्ध्रादिनाभिपर्यन्तं ब्रह्मसूत्रं पवित्रकम् । न्यूने रोगप्रवृत्तिः स्यादधिके धर्मनाशनम् ।। ५६ ।। आयुःकामः सदा कुर्यात् द्वित्रियज्ञोपवीतकम् । पञ्चभिः पुत्रकामः स्याद्धर्मकामस्तथैव च ।। ५७ ।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। .. यज्ञोपवीतेनैकेन जपहोमादिकं कृतम् । तत्सर्व विलयं याति धर्मकार्य न सिद्धयति ॥ ५८॥ पतितं त्रुटितं वाऽपि ब्रह्मसूत्रं यदा भवेत् । नूतनं धारयेद्विमः स्नानसङ्कल्पपूर्वकम् ॥ ५९॥ यज्ञोपवीतमकैकं प्रतिमन्त्रेण धारयेत् । आचम्य प्रतिसङ्कल्पं धारयेन्मुनिरब्रवीत् ॥ ६॥ एकमन्त्रैकसङ्कल्पं धृतं यज्ञोपवीतकम् । एकस्मिँस्त्रुटिते सर्व त्रुटितं नात्र संशयः ॥ ६१॥ बालकके लिए एक यज्ञोपवीत होना चाहिए । गृहस्थ और वानप्रस्थके लिए दो यज्ञोपवीत होना आवश्यक है ।. सावधि (नियत समयतक) ब्रह्मचारी रहनेवालेके लिए एक ही यज्ञोपवीत परम पवित्र है । पूजा करते समय और दान देते समय दो यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए । तीसरा यज्ञोपवीत उत्तरीय-वस्त्रके लिए होता है । वह वस्त्रके अभावमें वस्त्रकी पूर्तिस्वरूप होता है । तालुके छेदसे लेकर नाभिपर्यन्त लंबा यज्ञोपवीत होना चाहिए । इस प्रमाणसे छोटा यज्ञोपवीत रहनेसे रोगकी उत्पत्ति होती है और बड़ा रहनेसे धर्मका नाश होता है । अपनी आयुष्यकी खैर. खूनी चाहनेवाला हमेशह दो या तीन यज्ञोपवीत पहना करे। पुत्र चाहनेवाला तथा धर्म चाहनेवाला पुरुष पांच यज्ञोपवीत पहने । एक यज्ञोपवीत पहन कर जप होम आदि करनेसे वह सब निष्फल होता है। इससे कछ भी धर्मकार्य सिद्ध नहीं होते। यदि यज्ञोपवीत गिर पड़े या टूट जाय तो स्नान-संकल्पपूर्वक नया यज्ञोपवीत धारण करे । जिसे जितने यज्ञोपवीत पहनने हों उसे चाहिए कि एक एक यज्ञोपतिके प्रति जुदा जुदा मंत्र पढ़कर पहने । और हरएक संकल्पके प्रति आचमन कर यज्ञोपवीत पहने । ऐसा पूर्व मुनियोंका कहना है । एक मंत्र और एक संकल्पपूर्वक यदि यज्ञोपवीत पहना जाय तो एकके टूट जानेपर सभी टूटेहुए समझना चाहिए, इसमें संशय नहीं है। क्योंकि एक मंत्र और एक संकल्पसे पहनेहुए सबके सब यज्ञोपवीत एक सरीखे ही हो जाते हैं ॥ ५४-६१॥ यज्ञोपवीतं चानन्तं मुञ्जी दण्डं च धारयेत् । नष्टे भ्रष्टे नवं धृत्वा नष्टं चैव जले क्षिपेत् ॥ ६२ ॥ यज्ञोपवीत, अनंत, मुंजी, और दण्डको वह बालक हमेशह अपने पास रखे । यदि ये चीजें टूटफूट जाय तो नई धारण करे और टूटी-फूटीको जलमें क्षेपण करे ।। ६२ ।। सदोपवीतवद्धार्य वासः सकलकर्मसु । सह यज्ञोपवीतेन बनीयाजलकमणि ॥ ६३ ॥ जैसे सम्पूर्ण कृत्योंमें यज्ञोपवीत धारण किया जाता है, वैसे ही सारे कार्मोमें एक दुपट्टा भी, जैसा कि शरीरमें यज्ञोपवीत पहना गया है उसी तरह धारण करे । और जलकृत्यों में उसे और यज्ञोपवीतको बांधे ॥ ६३ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित कार्पासमुपवीतं स्याद्विपस्यो– त्रिवृद्धृतम् । हेमसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्य पट्टसूत्रकम् ॥ ६४ ॥ उच्छिष्टं तोरणं छिनं द्विकृतं विधवाकृतम्। .. भुक्तोत्तरे त्वनध्याये सप्ततन्तु न धारयेत् ॥ ६५॥ सूतके पातके म्लाने तैलस्याभ्यनके तथा। कण्ठादुत्तार्य सूत्रं तु कुयुर्वै क्षालनं द्विजाः॥६६॥ ब्राह्मण रुईका, क्षत्रिय सुवर्णका और वैश्य पट्टसूत्रका यज्ञोपवीत धारण करें। जो किसी तरह जूठा होगया हो, तोरणरूप किया गया हो-दोनों हाथोंसे पकड़कर गलेके बाहर निकाल लिया गया हो, टूट गया हो, दो बार सूत कातकर बनाया गया हो, विधवाके द्वारा बनाया गया हो, भोजनके बाद बनाया गया हो और अनध्यायके दिनों में बनाया गया हो, ऐसा सात तंतुका यशापवीत नहीं पहनना चाहिए। सूतक होनेपर, पातक होनेपर. मैला हो जानेपर और शरीर में तेल मदन करनेपर उस यज्ञोपवीतको गलेसे बाहर निकालकर जलसे अच्छी तरह धोवें ॥ ६४-६६ ॥ व्रतचर्या विधि । व्रतचर्यामहं वक्ष्ये क्रियामस्योपबिभ्रतः।। कटयूरूरःशिरोलिङ्गमनूचानव्रतोचितम् ॥ ६७ ॥ अब उत्तम व्रतके योग्य कटि, उरु, हृदय और मस्तकके चिन्होंको धारण करनेवाले इस बालककी व्रतचर्या नामकी क्रिया कही जाता है ।। ६७ ॥ कटिलिङ्ग भवेदस्य मौजीबन्धं त्रिभिर्गुणैः। . रत्नत्रयविशुद्धयङ्गं तद्धि चिन्हं द्विजन्मनाम् ॥ ६८॥ तीन लड़का बना हुआ मौजीबंध ही इस बालकका कटिलिंग है, जो रत्नत्रयकी विशुद्धिका कारण है और द्विजन्मी पुरुषोंका चिन्ह है-उससे यह जाना जा सकता है कि, इसके गर्भजन्म और यज्ञोपवीत संस्काररूप जन्म इस तरह दो जन्म, हो चुके हैं ॥ ६८ ॥ तच्चेष्टमरुलिंगं च सधौतसितशाटकम् । आर्हतानां कुलं पूतं विशालं चेति सूचने ॥ ६॥ धोई हुई जो सफेद धोती पहनी जाती है वही इसके उरुलिंग है, जो आईत्पुरुषोंकाजैनोंका कुल पवित्र और बड़ा है, ऐसा सूचित करता है ॥ ६९ ॥ उरोलिङ्गमथास्य स्याग्रन्थितं सप्तभिर्गुणैः । यज्ञोपवीतकं सप्तपरमस्थानसूचकम् ॥ ७० ॥ _सात धागेका बना हुआ जो यज्ञोपवीत पहना जाता है वही इसके उरोलिंग-हृदयका चिन्ह है, जो आगे कहे जानेवाले सात परमस्थानोंको सूचित करनेवाला है ॥ ७० ॥ शिरोलिंगं च तस्येष्टं परं मौण्डयमनाविलम् । मौण्डयं मनोवचःकायगतमस्योपबृंहितम् ।। ७१ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २७१ निदोंप-विकाररहित जो शिरका मुंडन है वही उस बालकके परम शिरोलिंग है, जो मन वचन और कायकी शुद्धिको बढ़ाता है ॥ ७१ ॥ एवम्पायेण लिङ्गेन विशुद्धं धारयेद्वतम् । स्थूलहिंसाविरत्यादि ब्रह्मचर्योपबृंहितम् ॥ ७२॥ ऊपर बताये गये चारों लिंगयुक्त वह बालक स्थूल हिंसाका त्याग, ब्रह्मचर्य वगैरह निर्मल व्रत धारण करे ॥ ७२ ॥ दन्तकाष्ठग्रहो नास्य न ताम्बूलं न चाञ्जनम् । न हरिद्रादिभिः स्नानं शुद्धिस्नानं दिनम्मति ॥ ७३ ॥ न खवाशयनं तस्य नान्याङ्गपरिघट्टनम् । भूमो केवलमेकाकी शयीत व्रतशुद्धये ॥ ७४ ॥ यह ब्रह्मचारी काष्ठ (लकड़ी) से दतौन न करे, तांबूल न खावे, आखोंमें काजल न आंजे, हल्दी वगैरहका उबटन न करे, केवल दिनमें एक बार मनःशुद्धिके अर्थ शुद्ध जलसे स्नान करे, खाटपर न सोवे, और औरोंके शरीरसे अपने शरीरको घर्षण न करे-दूसरेके शरीरसे अपना शरीर न मिलावे । वह केवल अपने व्रतोंकी शुद्धिके लिए जमीनपर अकेला सोवे ॥ ७३-७४ ॥ । व्रतावतरण । श्रावणे मासि नक्षत्रे श्रवणे पूर्ववक्रियाम्। पूर्वहोमादिकं कुर्यान्मौजी कट्याः परित्यजेत् ॥ ७५ ॥ तत आरभ्य वस्त्रादीन् गृह्णीयात्परिधानकम् । शय्यां शयीत ताम्बूलं भक्षयेद्गुरुसाक्षितः ॥ ७६ ॥ वह बालक श्रावण महीनेके श्रवण नक्षत्रमें पहलेकी तरह होम, जिनपूजा वगैरह करके कमरमें जो मौंजीबन्धन बँधा था उसे अलहदा करे । उसी वक्तसे लेकर गृहस्थके पहनने योग्य वस्त्र पहने, शय्यापर सोवे और तांबूल भक्षण करे । यह प्रतावरण क्रिया गुरुसाक्षिपूर्वक करे ॥ ७५-७६ ॥ अथवा-यावद्विधासमाप्तिः स्यात्तावदस्यदृशं व्रतम् । ततोऽप्यूज़ व्रतं तु स्याचन्मूलं ग्रहमेधिनाम् ॥ ७७॥ __ अथवा जबतक इस बालकके विद्याकी समाप्ति होती है तबतक उसके ऊपर बताये हुए व्रत रहते हैं। इसके बाद भी व्रत तो रहते हैं, परन्तु वे व्रत रहते हैं जो ग्रहस्थोंके योग्य होते हैं। भावार्थ-विद्यासमाप्तिपर्यन्त तो ऊपर बताये हुए व्रत रहते हैं । बादमें व्रत छूट जाते हैं और गृहस्थके योग्य अष्टमूलगुणादि व्रत उसके होते हैं ।। ७७ ॥ सूत्रमौपासकं चास्य स्यादध्येयं गुरोर्मुखात् । विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥ ७८ ॥ इस बालकको अपने गुरुमुखसे विनयपूर्वक श्रावकाचार पढ़ना चाहिए । इसके बाद अन्य अध्यात्म शास्त्रका अध्ययन करना चाहिए ॥ ७८ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसनभट्टारकविरचिंत- नं० ७७ और ७८ वें श्लोक आदिपुराणके हैं। इसके बाद आदिपुराणमें इसी क्रिया यह और भी बताया है कि अपने सुसंस्कारोंका उद्बोधन करने के लिए और वैयात्यकी ख्यातिके लिए भी इसे व्याकरणशास्त्र और न्यायशास्त्रका अध्ययन करना चाहिए। श्रावकाचार पढ़ने के बाद इनके पढ़नेमें कुछ दोष नहीं है । ज्योतिःशास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशास्त्र, और गणितशास्त्र भी उसे विशेष रीतिसे पढ़ने चाहिए। जब वह विद्या पढ़ चुके उसके बाद उसके व्रतावतरण-पूर्वोक्त व्रत छूट जाते हैं। क्योंकि वे व्रत एक विशेष विषयको लिये हुए थे। बाद वह अपने स्वाभाविक व्रतोंमें स्थित होजाता है। मधुत्याग, पंचउदुंबर फलोंका त्याग, और स्थूल-हिंसादि पंच पापोंका त्याग ये सब व्रत उसके सार्वकालिक जन्मपर्यन्त होते हैं। व्रतावतरणं चेदं गुरुसाक्षिकृतार्चनम् । वत्सरात् द्वादशादूर्ध्वमथवा प्रोडशात्परम् ॥ ७९ ॥ वस्त्राभरणमाल्यादिग्रहणं गुर्वनुज्ञया ।। शस्त्रोपजीविवर्यश्चेद्धारयेच्छस्त्रमप्यदः॥ ८ ॥ वैश्यश्चेव्यवहारादिव्यापारं कारयेन्मुदा। दोषे जाते त्रयो वर्णोः प्रायश्चित्तं हि कुर्वते ॥ ८१॥ बारहवें अथवा सोलहवें वर्षके बाद यह व्रतावतरण क्रिया होती है। इसमें भी गुरुकी साक्षीसे पूजा, होम आदि किये जाते हैं। गुरुकी सम्मतिके अनुसार वस्त्र, आभूषण, माला आदि ग्रहण करे । और यदि वह क्षत्रिय हो तो शस्त्र धारण करे, और वैश्य हो तो व्यापार करे। तीनों वर्णके मनुष्य यदि कोई उनके हाथसे अपराध हो गया हो तो प्रायश्चित्त लें ॥ ७८-८१ ॥ दोष और प्रायश्चित्त । .. मद्यमांसमधुं मुंक्ते अज्ञानात्पलपञ्चकम् । उपवासत्रयं चैकमक्तं द्वादशकं तथा ॥ ८२ ॥ अन्नदानाभिषेकाश्च प्रत्येकाष्टोत्तरं शतम् । तीर्थयात्राद्वयं पुष्पाक्षतान्दद्यात्स्वशक्तितः॥ ८३॥ यदि अज्ञानवश बीस तोलापर्यन्त मद्य, मांस और मधु खा लिया गया हो तो तीन उपवास, बारह एकाशन, एक सौ आठ अन्नदान और इतने ही स्नान करे; दो बार तीर्थयात्रा करे और अपनी शक्तिके अनुसार पुष्प और अक्षत देवे ।। ८२-८३ ॥ " म्लेच्छादीनां च गेहे तु भुक्ते त्रिंशदुपोषणम् । एकभुत्त त्रिपञ्चाशत्पात्रदानशतद्वयम् ॥ ८४ ॥ एका गौः पंच कुम्भाश्चाभिषेकानां शतद्वयम् । पुष्पाक्षतं तीर्थयात्राद्वयं कुर्याद्विशेषतः ॥ ८५ ॥ म्लेच्छादि अर्थात् नीच लोगोंके घरपर भोजन कर लिया गया हो तो तीस उपवास, तिरेपन एकाशन, और दो सौ पात्रको दान करे; एक गाय, पांच कलश देवे, दो सौ बार जलस्नान करे, पुष्प और अक्षत देवे तथा दो बार तीर्थयात्रा करे ।। ८४-८५ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २७३ विजातीयानां गेहे तु भुक्ते चोपोषणं नव । एकभुक्ताश्च पञ्चाशदत्राभिषेकाः समाः ॥ ८६ ॥ विजातीय लोगाके घरपर भोजन कर लिया हो तो नौ उपवास, पचास एकाशन और इतने हो अभिषेक करे ॥ ८६ ॥ मृतेऽनौ पातके मोक्ताः प्रोषधाः पञ्चविंशतिः। एकभुक्त्यनदानाभिषेकपुष्पशतत्रयम् ॥ ८७॥ अनिमें जलकर मरजाने वालेके शरीर-संस्कार करने वालेकी शुद्धि, पच्चीस उपवास करने, तीन सौ एकाशन करने, तीन सौ अन्नदान देने, तीन सौ बार जल-स्नान करने और तीन सौ पुष्प देनेसे होती है ।। ८७ ॥ गिरेः पातोऽहिदष्टश्च गजादिपतनान्मृतः। मोषधाः पञ्च पकानयात्राभिषकविंशतिः ॥ ८८॥ तीर्थयात्राञ्च गोदानं गन्धपुष्पाक्षतादयः। यथाशक्ति गुरोः पूजा द्रव्यदानं जिनालये ॥ ८९ ॥ पर्वतपरसे गिरनेसे, सांपके डस लेनेसे, हाथी वगैरह परसे गिरनेसे यदि कोई मरगया हो, तो उसके शरीरका संस्कार करने वालेकी शुद्धि पांच प्रोषधोपवास करनेसे, बीस सत्पात्रोंको दान करनेसे, बीस बार जल स्नान करनेसे, तीर्थयात्रा करनेसे और अपनी शक्ति-अनुसार जिन-मंदिरमें द्रव्य देनेसे होती है॥ ८८-८९ ॥ प्रायश्चित्तेषु सर्वेषु शिरोमुण्डं विधीयते । काश्मीरागुरुपुष्यादिद्रव्यदानं स्वशक्तितः॥ ९०॥ ग्रहपूजा यथायोग्यं विप्रेभ्यो दानमुत्तमम् । संघपूजा गृहस्थेभ्यो ह्यन्नदानं प्रकीर्तितम् ॥ ९१ ॥ सब तरहके प्रायश्चित्तोंमें शिरका मुंडन करावे, अपनी शक्ति-अनुसार केशर, अगुर, पुष्पअक्षत आदि द्रव्योंका दान करे, जो ग्रह जैसे हों उनका उन्हींके योग्य सत्कार करे, ब्राह्मणों को दान दे, संघकी पूजा करे और गृहस्थोंको भोजन करावे ।। ९०-९१ ॥ चाण्डालादिकसंसर्ग कुर्वन्ति वनितादिकाः। पञ्चाशत्लोषधश्चैकभक्तः पञ्चशतानि च ॥ ९२ ॥ सुपात्रदानं यात्राश्व पश्चाशत्पुष्पचन्दनम् । संघपूजा च जापं च द्रव्यदानं जिनालये ॥ ९३ ॥ यदि भावकोंकी स्त्री वगैरहका चांडालादिसे स्पर्श होगया हो तो वे पचास प्रोषधोपवास, और पांचसो एकाशन करें, सुपात्रोंको दान दें, तीर्थयात्रा करें, पचास पुष्प-चंदन देवें, चारों संघकी पूजा करें, जाप जपें और जिनालयमें द्रव्य देवें ॥ ९२-९३ ॥ मालीकादिकसंसर्ग कुर्वन्ति वनितादयः। मोषधाः पञ्च चैकानदश पात्राणि विंशतिः ॥ ९४ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सोमसेनभट्टारकविरचितपदि स्त्री आदिकोंका माली आदि स्पर्य शूद्रोंसे संसर्ग होगया हो तो वे पांच प्रोषधोपवास और दश एकाशन करें तथा बीस पात्रोंको दान देवें ॥ ९४ ॥ सूतके जन्ममृत्योश्च प्रोषधाः पंच शक्तितः। .....----- एकभक्ता दशैकाधपात्रदानं च चन्दनम् ।। ९५ ॥ जन्म और मृत्युसंबंधी सूतकवालेसे संसर्ग होजाय तो अपनी शक्ति के अनुसार पांच प्रोषधोपवास करे, एकसे लेकर दशपर्यंत एकाशन करे, इतने ही पात्रोंको दान और चंदन देवे ॥ ९५ ॥ आयाते मुखेऽस्थिखण्ड चोपवासास्त्रयो मताः। एकभुक्ताश्च चत्वारा गन्धाक्षताः सशक्तितः ॥ ९६ ॥ यदि मुंहमें हड्डीका टुकड़ा चला जाय तो तीन उपवास और चार एकाशन करे । तथा अपनी शक्तिके अनुसार गन्ध अक्षत देवे ॥ ९६ ॥ स्पर्शितेऽस्थिकरे स्वाङ्गे स्नात्वा जपशतत्रयम् । अस्थि यथा तथा चमकेशश्लेष्मम लादिम् ॥ ९७॥ जिसने अपने हाथमें हड्डी ले रखी हो उससे या वैसे ही हड्डीसे अपने शरीरका स्पर्श होजाय तो स्नान कर तीन सौ जाप करे । जैसा हड्डीसे छू जाने का प्रायश्चित्त है वैसा ही चमड़ा, केश, श्लेष्म (खकार), मल, मूत्र आदिसे छू जानेका समझना चाहिए ॥ ९७ ।। गर्भस्य पातने पापे मेषधा द्वादश स्मृताः। एकभत्ताश्च पञ्चाशत् पुष्पाक्षताश्च शक्तितः ॥९८॥ गर्भपातका पाप होनेपर बारह प्रोषधोपवास, पचास एकाशन और अपनी शक्तिके अनुसार पुष्प-अक्षत माने गये हैं ।। ९८॥ अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा विकलत्रयघातने । मोषधा द्विात्रचत्वारो जपमालास्तथैव च ॥ ९९ ॥ अशानसे अथवा प्रमादसे दो इंद्रिय, तीन-इंद्रिय और चार-इंद्रिय जीवका घात होगया हो तो कमसे दो उपवास, तीन उपवास और चार उपवास करे, तथा दो बार, तीन बार और चार बार जाप करे ॥ १९॥ घातिते तृणभुग्जावे पोषधा अष्टाविंशतिः। पात्रदानं च गोद नं पुष्प क्षतः स्व तः ॥१०॥ तुण-चारी जीवका घात हो जानेपर अठाईस प्रोषधोपवास करे और अपनी शक्ति-अनुसार पात्रदान, गो-दान तथा पुष्प-अक्षत देवे ॥ १० ॥ जलस्थलचरणां तु पक्षिणां घातकः पुमान् । गृहे मूषकमाजोरवादीनां दन्तदोषिणाम् ॥ १०१॥ पोषधा द्वादशैकान्नाभिषेकाश्चानु षोडश । गोदानं पात्रदानं तु यथाशक्ति गुरोर्मुखात् ॥ १०२॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | २७५ जलचर स्थलचर पक्षियों और अपने घरमें रहनेवाले दम्तदोषी चूहे, बिल्ली, कुत्ते आदिका बात करनेवाले मनुष्यकी शुद्धि बारह प्रोषधोपवास, सोलह एकाशन और सोलह स्नान तथा गुरुके कथनानुसार यथाशक्ति गो-दान और पात्र दान करनेसे होती है ॥ १०१-१०२ ॥ गोमहिषीछागीनां वधकर्ता त्रिविंशतिः । प्रोषधाने भक्तानां शतं दानं तु शक्तितः ॥ १०३ ॥ गाय, भैंस और बकरीका वध करनेवाला पुरुष तेईस उपवास, सौ एकाशन और शक्तिके अनु सार दान करे || १०३ ॥ मनुष्यघातिनः प्रोक्ता उपवासाः शतत्रयम् 1 गोदानं पात्रदानं तु तीर्थयात्राः स्वशक्तितः ॥ १०४ ॥ मनुष्यका वध करनेवाले पुरुषकी शुद्धि तीन सौ उपवास करनेसे तथा अपनी शक्तिके अनु खार गो-दान, पात्र दान और तीर्थयात्रा करनेसे होती है ।। १०४ ॥ यस्योपरि मृतो जीवो विषादिभक्षणादिना । क्षुधादिनाऽथवा भृत्ये गृहदाहे नरः पशुः ॥ १०५ ॥ कूपादिखनने वाऽपि स्वकीयेऽत्र तडागके | स्वद्रव्ये द्रव्यगे भृत्ये मार्गे चौरेण मारिते ॥ १०६ ॥ कुडादिपतने चैव रण्डावन्हौ प्रवेशने । जीवघातिमनुष्येण संसर्गे क्रयविक्रये ॥ १०७ ॥ मोषधाः पञ्च गोदानमेकभक्ता द्विपञ्चकाः । संघपूजा दयादानं पुष्पं चैव जपादिकम् ॥ १०८ ॥ यदि कोई मनुष्य अपने निमित्तसे विष आदि खाकर मरगया हो अथवा भूख वगैरहसे काई नौकर मरगया हो, अपने घरमें लाय लगजानेसे मनुष्य अथवा पशुका मरण होगया हो, अपने कुआ बावड़ी आदिके खोदते समय अथवा अपने तालाब आदिमें डूबकर कोई मरगया हो, अपना द्रव्य लेकर जानेवाले नौकरको रास्तेमें चोरोंने मार दिया हो, अपने घर की दीवाल आदिके गिरने से कोई मरगया हो, अपने निमित्त कोई रंडा अग्निमें जल गई हो, कसाई पुरुषसे संसर्ग होगया हो और उसके साथ लेन देन व्यवहार होगया हो, तो पांच उपवास करे, गो-दान दे, बावन एकाशन करे, संघकी पूजा करे, दया दान करे, पुष्प देवे और जप आदि करे ।। १०५-१०८ ॥ स्वतेऽन्यैः स्पर्शितं भाण्डं मृण्मयं चेत्परित्यजेत् । ताम्रारलोह भाण्डं चेच्छुद्धयते शुद्धभस्मना ॥ १०९ ॥ वह्निना कांस्यभाण्डं चेत्काष्ठभाण्डं न शुद्धयति । कांस्य ताम्रं च लोहं चेदन्यभुक्तेऽग्निना वरम् ॥ ११० ॥ अपने रसोई बनाने व पानी भरने आदिके मिट्टी के बर्तन दूसरे विजातीयसे छू जांब, ता उन्हें पृथक् ( अलहदे ) कर देना चाहिये । यदि तांबे, पीतल और लोहे के बर्तन अपनी जातिके स्त्री-पुरुषोंको छोड़कर दूसरी जातिके स्त्री-पुरुषोंसे छू जायँ तो शुद्ध राखसे माँज लेनेसे शुद्ध होजाते हैं । कांसे के बर्तन अनि डालकर माँज लेनेसे शुद्ध होते हैं। लकड़ीके वर्तन किसी Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ सोमसेनभट्टारकविरचितशुद्ध नहीं होते । और काँसा, तांबा, लोहा, पीतल वगैरहके बर्तनोंमें दूसरे विजातिने जीमा हो तो अनि डालकर माँज लेनेस शुद्ध होजाते हैं ॥ १०९-११० ॥ यद्भाजने सुरामांसविण्मूत्रश्लेष्ममाक्षिकम् ।। क्षिप्तं ग्राह्यं न तद्भाण्डमन्यायः श्रावकोत्तमैः ॥ ११॥ जिस बर्तन में शराब, मांस, शहत, विष्टा, मूत्र, खकार आदि रख दिये गये हों उस वर्तनको उत्तम श्रावक-गण कभी काममें न लें । ऐसे बर्तनोंको काममें लेना एक प्रकारका अन्याय है ॥११॥ चालनी वस्त्रं शूर्प च मुसलं घटयन्त्रकम् । स्वतोऽन्यः स्पर्शितं शुद्धं जायते क्षालनात्परम् ॥ ११२ ॥ चालनी, वस्त्र, सूप, मूसल और चक्की, ये वस्तुएं अपने सिवा अन्य विजातिसे छू जाय, तो जलसे धोलेनेसे शुद्ध हो जाती हैं ।। ११२ ॥ -- स्वप्ने तु येन यद्भुक्तं तत्त्याज्यं दिवसत्रयम् । मर्च मांसं यदा भुङ्क्ते तदोपवासकद्वयम् ॥ ११३ ॥ सुपने में कोई भी चीज खाली हो तो उसका तीन दिनतक त्याग कर दे—उस चीनको तीन दिनतक न खावे । मद्य-मांस यदि सुपनेमें खाये हों तो दो उपवास करे ॥ ११३ ।। ब्रह्मचयेस्य भंगे तु निद्रायां परवशतः। सहस्रैकं जपेज्जापमेकभक्तत्रयं भवेत् ॥ ११४॥ निद्रामें परवश ब्रह्मचर्यका भंग होगया हो, तो एक हजार जाप जपे और तीन एकाशन करे । मात्रा तथा भगिन्या च समं संयोग आगते ।। उपवासद्वयं स्वप्न सहस्रैकं जपोत्तमम् ॥ ११५ ॥ सुपनेमें माता तथा बहिनके साथ संयोग हुआ हो,तो दो उपवास करे और एक हजार जाप जपे। मिथ्यादृशां गृहे रात्री भुक्तं वा शूद्रसद्मनि । तदोपवासाः पञ्च स्युर्जाप्यं तु द्विसहस्रकम् ॥ ११६॥ मिथ्यादृष्टियोंके घरपर अथवा शूद्र के घरपर रात्रिमें भोजन किया हो तो पांच उपवास करे और दो हजार जाप जपे ॥ ११६ ॥ इत्येवमल्पशः प्रोक्तः प्रायश्चित्तविधिः स्फुटम् । अन्यो विस्तरतो ज्ञेयः शास्त्रेष्वन्येषु भूरिषु ॥ ११७ ॥ .इस तरह यह थोड़ीसी प्रायश्चित्त विधि बताई गई है। बाकी विस्तारसे जानना हो, तो अन्य शास्त्रोंसे जानमा ॥ ११७ ॥ इत्यं मौजीवन्धनं पालनीयं । प्रायश्चित्तं वर्जयेत्को नु पापः । धर्म्य कर्म पायशो रक्षणीयं । पुण्याश्लिष्टैः सोमसंनैर्मुनीन्द्रः ॥ ११८॥ इस तरह मौजीबंधन व्रतका पालन करना चाहिए और पातक होजानेपर प्रायश्रित ग्रहण करना चाहिए; तथा पुण्य चाहनेवाले सोमसेन मुनोको धार्मिक कृत्योंका रक्षण करना चाहिए । सारांश पुण्यार्थी लोगोंको धर्मकृत्य करना उचित है ॥ ११८ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | दशवाँ अध्याय । - मंगलाचरण | भुवनकमलमित्रः सर्वदा यः पवित्रः । सुकृतकरचरित्रः पालितानेकमित्रः । स जयति जिनदेवः सद्य एवैन्मुदं वः । शिवपदमपि भक्त्या धर्मनाथो जिनेन्द्रः ॥ १ ॥ जो तीन- भुवन रूपी कमलके मित्र हैं, जो सदा पवित्र हैं, जिसका चारित्र पुण्यको करनेवाला है, और जिसने अनेक श्रद्धानी भव्यों का पालन-पोषण किया है, वह श्रीजिनेंद्रदेव जयवंत रहें और शीघ्र ही तुम्हारे हर्ष बढ़ावें । तथा भक्तिद्वारा श्रीधर्मनाथ - जिनेन्द्र शिव पद भी देवें - तुम्हारा कल्याण करें || १ | व्रत- ग्रहण - विधि | अथोपवीतान्वित एव शिष्यो । महागुणाढयो विभवैरुपेतः । ब्रजेज्जिनेन्द्रालयमुन्नताङ्गं । समावृतोऽसौ परितः कुटुम्बैः ॥ २ ॥ २७७ व्रतावतरण क्रियाके बाद यज्ञोपवीतयुक्त महा गुणवान और अनेक प्रकारके विभवसे परिपूर्ण वह शिष्य अपने कुटुंबियों सहित श्रीजिन-मन्दिरको जावे ॥ २ ॥ पादौ प्रक्षाल्य जैनेन्द्रं प्रविशेत्सदनं शनैः । पूजां शान्तिं विधायात्र सङ्गच्छेद्गुरुसन्निधौ ॥ ३ ॥ पैर धोकर जिनमंदिर में प्रवेश करे । वहाँ पूजा और शान्ति करके गुरुके पास जावे || ३ || फलं धृत्वा गुरोरग्रे महाभक्तिसमन्वितः । पंचाङ्गं नमनं कुर्यात्करयुग्मशिरः स्थितः ॥ ४ ॥ समाधानं च सम्पृच्छयोपविशेद्विनयाद्भुवि । धर्मवृद्धधादिना सोऽपि तोषचेच्छिष्यवर्गकम् ॥ ५ ॥ बहुत भक्ति-पूर्वक गुरुके सामने फल रखकर पंचांग नमस्कार करे, दोनों हाथ जोड़ शिरपर लगावे । फिर कुशल मंगल पूछकर विनयके साथ भूमिपर बैठे । गुरु भी धर्मवृद्धि आदिके द्वारा शिष्य बर्गको सन्तुष्ट करे ।। ४-५ ॥ स्वामिन् ब्रूहि कृपां कृत्वा श्रावकाचारविस्तरम् । तच्छ्रुत्वा श्रीगुरुचापि ब्रूयाद्धर्म तु तम्पति ॥ ६ ॥ हे स्वामिन् ! कृपाकर विस्तारपूर्वक श्रावकोंके आचरणको समझाइये | शिष्यके इस नम्र निवेदनको सुनकर श्रीगुरु भी उसे श्रावक-धर्म अच्छी तरह समझावें || ६ || धर्मकथन | मिथ्यात्वत्यजनं पूर्वं सम्यक्त्वग्रहणं तथा । द्वादशभेदभिन्नानां ब्रतानां परिपालनम् ॥ ७ ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित हे भव्य वर्ग ! सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारे कल्याणको करनेवाले श्रीजिनेन्द्रदेव के कहे हुए धर्मको प्रतिपादन करता हूं । संसारी प्राणियों को सबसे पहिले मिथ्यात्वका त्यागकर सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिए; और पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - इन बारह व्रतोंका पालन करना चाहिए ॥ ७ ॥ उक्तंच - यही ग्रन्थान्तरोंमें कहा है । २७८ मिच्छत्तं बेदंतो जीवो विवरीयदंसणो होदि । धम्मं रोचेदि हु मुहुरं पि जहा जुरिदो ॥ ८ ॥ मिथ्यात्वको अनुभव करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धान करनेवाला होता है । उसे समीचीन धर्म नहीं रुचता-वह समीचीन धर्मसे भारी द्वेष करता है । जैसे रोगीको मीठा रस भी कडुआ लगता है ॥ ८ ॥ नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ॥ ९॥ जिनकी चेतना मिथ्यात्वसे ग्रसित है वे मनुष्य होकर भी पशुओंके समान आचरण करते हैं । और जिनकी चेतना सम्यक्त्वसे व्यक्त है वे पशु होकर भी मनुष्योंके समान आचरण करते हैं ॥९ ॥ मिथ्यात्वके तीन भेद । केषांचिदन्धतमसायते गृहीतं ग्रहायते ऽन्येषाम् । मिथ्यात्वमिह गृहीतं शल्यति सांशयिकं परेषाम् ॥ १० ॥ मिथ्यात्व के तीन भेद हैं- एक अगृहीत, दूसरा गृहीत और तीसरा सांशयिक । दूसरेके उपदेशके बिना अनादि परंपरासे चले आये आत्माके अतत्व श्रद्धानरूप परिणामोंको अगृहीत- मिथ्यात्व कहते हैं । ऐसा मिथ्यात्व किन्हीं किन्हीं एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवोंतक गाढ़ अन्धकारकासा काम देता है - यह मिथ्यात्व उन्हें कभी भी सत्तत्वोंका श्रद्धान नहीं होने देता। दूसरेके उपदेशसे अतत्वोंमें श्रद्धान हो उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । ऐसा मिथ्यात्व संज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवोंको चढ़े हुए भूतोंकी तरह उन्मत्त बना देता है। सम्यग्दर्शनादि मोक्षके कारण हैं या नहीं — ऐसी दालायमान प्रतीतिका नाम संशय है । यह संशय- मिथ्यात्व किन्हीं किन्हीं श्वेतांबरीय मतानुयायी इन्द्रचन्द्रनागेन्द्र गच्छके स्वामी इन्द्राचार्य आदिकोंके हृदयमें शल्य - बाणके समान चुभता रहता है ॥ १० ॥ धर्मस्थोऽपि सद्धर्म लघुकर्मतयाऽद्विषन् । भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभस्तद्विपर्ययात् ॥ ११ ॥ जिसके सच्चे धर्मसे द्वेष करनेका कारण मिथ्यात्व-कर्म हलका पड़ गया है, वह मिथ्या-धर्म आसक्त होकर भी प्रमाणसे अबाधित सद्धर्मसे द्वेष भाव नहीं रखता है । ऐसे पुरुषको भद्र-मिथ्यादृष्टि कहते हैं। यह भद्र-मिथ्यादृष्टि आगामी कालमें सम्यक्त्व - गुणका पात्र होनेके कारण जैनधर्मसम्बम्धी उपदेशके योग्य है । और जो अभद्र है जो मिथ्यात्व-कर्मका तीव्र उदय होने के कारण जैनधर्मसे प्रचुर द्वेष करता है, वह उपदेशके योग्य नहीं है ॥ ११ ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~uw ~ rA त्रैवर्णिकाचार। मिथ्यात्वके पांच भेद। एयंतबुद्धदरसी विवरीओ बंभ तावसो विणो । इंदो वि य संसयिदो मकडिओ चेव अण्णाणी ॥ १२ ॥ सर्वथा क्षणिकको एकान्त कहते हैं । इस एकान्त मिथ्यात्वका माननेवाला बौद्ध है । ब्राह्मण विपरीत-मिथ्यांदृष्टि है, जो यज्ञमें प्राणियोंको मारनेसे मुक्ति बताता है । तापस, विनय-मिथ्याडष्टि है. जो हरएककी विनय करनेसे ही मुक्ति होना स्वीकार करता है । इंद्रचन्द्रनागेन्द्र गच्छका स्वामी इन्द्राचार्य संशय-मिथ्यादृष्टि है, जो इस प्रकारके सन्देहमें ही झूलता रहा है कि,सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र मुक्तिके कारण हो सकते हैं या नहीं ? इसीलिए वह सभी मतोंसे मुक्ति स्वीकार करता है। श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकरके तीर्थमें उत्पन्न हुआ द्वादशांगका वेत्ता मस्करी मुनि अज्ञानमिभ्यादृष्टि है, जो अज्ञानसे मुक्ति मानता है ॥ १२॥ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कारण । आसन्नभव्यताकर्महानिसज्ञित्वशुद्धिभाक् । देशनाधस्तमिथ्यात्वो जीवस्सम्यक्त्वमश्नुते ॥ १३ ।। जो आसन्न-भव्य है, जिसके मिथ्यात्वादि कर्मोंकी स्थिति अन्तःकोटाकोटी प्रमाण होगई है, जो संज्ञी है, जो विशुद्ध परिणामोंका धारण करनेवाला है, और उपदेश, जातिस्मरण आदिके द्वारा जिसका मिथ्यात्व नष्ट होगया है, वह जीव सम्यक्त्वके योग्य होता है । भावार्थ-आसन्न-भव्यता आदि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कारण हैं ॥ १३ ॥ . मतेषु विपरीतेषु मदुक्तं दुष्टबुद्धिभिः। श्रद्धेयं न कदा तत्त्वं हिंसापातकदोषदम् ॥ १४ ॥ . . विपरीत-मतोंमें दुष्ट-बुद्धि पुरुषोंने जो हिंसा आदि पापोंके करनेवाले तत्वोंका कथन किया है उन तत्वोंका कभी भी श्रद्धान-विश्वास नहीं करना चाहिए ॥ १४ ॥ सच्चे देवका लक्षण । सर्वदर्शी च सर्वज्ञः सिद्ध आप्तो निरञ्जनः। अष्टादशमहादोषै रहितो देव उच्यते ॥ १५ ॥ जो सर्वदशी है, सर्वश है, कृतकृत्य है, अवंचक है-संसारी जीवोंको पंचनारहित हितका उपदेश करनेवाला है, चार घातिया कर्मोंसे रहित है और क्षुधा-तृषा आदि अठारह महादोषोंसे रहित-निर्दोष है, उसे देव कहते हैं ॥ २५॥ __ अठारह दोषोंके नाम। क्षुत्तुद्रुग्भयरागरोषमरणस्वेदाश्च खेदारतिः।। चिन्ताजन्मजराश्च विस्मयमदौ निद्रा विषादस्तथा ।। मोहोऽष्टादशदोषदुष्टरहितः श्रीवीतरागो जिनः । पायात्सर्वजनान् दयालरघतो जन्तोः परं दैवतम् ॥ १६ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित HAMAnamoon भुर्धा, तो, गर्ग, भय, रागे, द्वेष, मरणं, स्वेदं ( पसीना ), खेदं, अरति', चिन्ता, जन्म, जरी (बुढापा), विस्मय ( आश्चर्य), मर्दै (गर्व). निद्री. विषाद और मोह-इन अठारह दोषोंसे रहित वीतराग दयाल जिनदेव, जो प्राणियोंका उत्कृष्ट देवता है, सब संसारी जीवोंकी पापसे रक्षा करें ॥ १६॥ ___ सच्चे शास्त्रका स्वरूप। पूर्वपराविरुद्धं यदाप्नोदिष्टं सुबृद्धिमत् । यथार्थवाचकं शास्त्र तदध्येयं शिवाप्तये ॥ १७ ॥ जो पूर्वापरसे अविरुद्ध है, सर्वज्ञ-वीतराग-परम-हितोपदेशीका कहा हुआ है, यथार्थ उपदेशका करनेवाला है, मिथ्या बुद्धिको नष्ट कर सुबुद्धिका देनेवाला है,वह शास्त्र है। ऐसे ही शास्त्रका मोक्षकी प्राप्तिके लिए अध्ययन करना चाहिए । भावार्थ-जो इन लक्षणोंसे युक्त है वह आगम है। इसके विपरीत जो संसारमें रुलाने ( भटकाने) वाला है, विषयोंका उपदेश करनेवाला है, वह आगमामास है। जो आगमसरीखा दिखता हो, परंतु आगमके उक्त लक्षणसे रहित हो, उसे आगमाभास कहते हैं। आरातीय आचार्य एकदेश-वीतराग हैं, आप्त हैं, संसारी-जीवोंका हित चाहनेवाले हैं, और वास्तविक उपदेशके करनेवाले हैं; इसलिए उनके बनाये हुए आगमका भी अपने कल्याणके निमित्त भक्ति-पूर्वक अध्ययन करना चाहिए ॥ १७ ॥ गुरुका लक्षण। विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः।। झानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १८ ॥ जो पांच इंन्द्रियोंके भले-बुरे विषयोंकी वासनाके वशसे रहित हैं, चौवीस प्रकारके परिग्रहोंसे रहित हैं, कृषि आदि आरंभसे पराङ्मुख हैं, और ज्ञान तथा तपमें रात-दिन लीन रहते हैं, वे गुरु प्रशंसनीय हैं-ऐसे तपस्वी गुरु हो सकते हैं ॥ १८ ॥ सम्यग्दृष्टिका लक्षण। एतेषां निश्चयो यस्य निःशङ्कत्वेन वर्तते । सम्यग्दृष्टिः स विज्ञेयः शङ्कायष्टकवर्जितः ॥ १९ ॥ इस प्रकारके सच्चे देव, गुरु, शास्त्रका जिसके हृदयमें निःशंक निश्चय है, उसे शंकादि आठ दोषों-रहित सम्यग्दृष्टि समझना । भावार्थ-शंकादि आठ दोषों-रहित सच्चे देव, गुरु और शास्त्रका प्रदान करना सम्यग्दर्शन है ॥ १९ ॥ - निःशंकित अंगका लक्षण। देवे मंत्रे गुरौ शास्त्रे कचिदातेशयो न चेत् । फल्गुदोषान कर्तव्यः संशयः शुद्धदृष्टिभिः ॥ २० ॥ देव, शास्त्र, गुरु और इनके बताये हुए मंत्रोंमें अतिशय है या नहीं-ऐसे व्यर्थके दोषोंका उदावन कर शुद्ध सम्यग्दृष्टियोंको आप्त आदिमें संशय नहीं करना चाहिए । भावार्थ-आप्त आदि में अविशा है या नहीं इस तरह संशय न करना निःशंकित अंग है ॥ २०॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | निष्कांक्षित अंगका लक्षण | कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेनास्था श्रद्धाऽनाकाङ्क्षणा स्मृता ॥ २१ ॥ जो कर्मोंके उदयके आधीन है, अन्तसहित है, बीचबीचमें दुःखोंके उदयसे मिला हुआ है, और पापका कारण है, ऐसे सांसारिक सुखमें अनित्यरूप श्रद्धान करना - उसकी चाह न करना निष्कांक्षित अंग है ॥ २१ ॥ ૨૮૨ निर्विचिकित्सित अंगका लक्षण । स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥ २२ ॥ स्वभावसे अपवित्र, किन्तु रत्नत्रयके द्वारा पवित्र हुए शरीरमें ग्लानिरहित होकर गुणोंमें प्रीति करना निर्विचिकित्सित अंग माना गया है ॥ २२ ॥ अमूढदृष्टि अंगका लक्षण । कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असम्पृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥ २३ ॥ दुःखोंके कारण मिथ्या मतोंमें, और उन मिथ्या मतों में स्थित मिथ्यादृष्टि मनुष्यों में मनसे सम्मत न होना, कायसे सराहना न करना और वचनोंसे प्रशंसा न करना अमूढदृष्टि अंग कहा जाता है॥ २३ ॥ उपगूहन अंगका स्वरूप । स्वयंशुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥ २४ ॥ स्वतः-स्वभावसे निर्दोष जैनधर्मसे अज्ञ - धर्मसे पूरी पूरी वाकफियत न रखनेवाले और उसके पालन करनेसे असमर्थ मनुष्योंके जरिये उत्पन्न हुई निन्दाके दूर करनेको उपगृहन अंग कहते हैं ॥ २४ ॥ स्थितीकरणका लक्षण | दर्शनाच्चरणाद्वाऽपि चलतां धर्मवत्सलः । प्रत्युपस्थापनं प्राज्ञैः स्थितीकरणमुच्यते ॥ २५ ॥ सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्चारित्रसे व्युत ( भ्रष्ट ) होनेवाले मनुष्योंको धर्ममें प्रेम रखनेवाले पुरुषोंद्वारा फिरसे उसीमें स्थिर कर देनेको विद्वान पुरुष स्थितीकरण अंग कहते हैं ।। २५ ।। वात्सल्य अंगका लक्षण । जैनधर्मयुतान् भव्यान् रोगचिन्तादिपीडितान् । वैयावृत्त्यं सदा कुर्यात्तद्वात्सल्यं निगद्यते ॥ २६ ॥ रोग, चिन्ता आदिसे पीड़ित और जैनधर्मसे युक्त भव्य पुरुषोंके वैयावृत्य करनेको वात्सल्य अंग कहते हैं ॥ २६ ॥ ३६ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित प्रभावना अंगका स्वरूप। अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्मभावना ॥ २७ ॥ अज्ञानरूपी अन्धकारके फैलावको दूर कर जैसे बने वैसे जिनशासनका महात्म्य-प्रभाव परमतावलंबियोंके सामने जाहिर करना प्रभावना अंग है ॥ २७ ॥ अष्टाङ्गैः पाळितं शुद्धं सम्यक्त्वं शिवदायकम् । न हि मंत्र्योऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ २८ ॥ उक्त आठ अंगोंके साथ साथ निरतिचार पालन किया हुआ सम्यग्दर्शन मोक्षको देनेवाला है। यदि इनमेंसे एक भी अंग हीन हो तो वह सम्यग्दर्शन संसारकी संतति-परिपाटीको छेदने में समर्थ नहीं है। जैसे विषको उतारनेवाला मंत्र यदि एक अक्षरसे भी न्यून हो तो वह विषकी दाहको दूर नहीं कर सकता ॥ २८ ॥ __ सम्यक्त्वके पच्चीस मल । मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट् । अष्टौ शंकादयो दोषाः सम्यक्त्वे पञ्चविंशतिः ॥ २९ ॥ तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन, और शंका आदि आठ दोष, ये सम्यक्त्वके पच्चीस दोष हैं । भावार्थ-इन दोषोंसे सम्यक्त्व मलिन होता है; अतः इनसे बचना चाहिए ॥ २९ ॥ लोकमूढ़ता। गोयोनि गोमयं मूत्रं चन्द्रसूर्यादिपूजनम् । अग्नौ गिरेः प्रपातश्च विज्ञेया लोकमूढ़ता ॥ ३० ॥ . धर्म समझकर गायकी जननेन्द्रियका स्पर्शन करना-वंदना-नमस्कार करना, उसके गोबर और मूत्रका सेवन करना, चंद्र-सूर्य आदिका पूजन करना, अनिमें गिरकर सती होना, और पर्वतसे गिरकर मरना लोकमूढ़ता है॥ ३० ॥ इनके अलावा गहते ग्रहणमें स्नान करना, संक्रांतिके दिन सोना, चांदी, तांबा आदिका दान करना, संध्याकी उपासना करना, अग्निको देव मानकर सत्कार करना, शरीरकी पूजा करना, मकानकी पूजा करना, रत्न, वाहन ( बैलआदि), भूमि, वृक्ष, शस्त्र, पर्वत इत्यादि वस्तुओंकी उपासना-पूजा करना; नदी, समुद्रोंमें स्नान करना इत्यादि और भी अनेक लोकमूढ़ता है । गायका गोबर आठ प्रकारकी शुद्धियोंमें माना गया है । यहाँपर उसका निषेध सेवन, पूजन करने आदिका है--लोग गोमय और गोमूत्रके सेवन, पूजन आदिमें धर्म मानते हैं, उसका निषेध है । कोई २ गोबरको सर्वथा अशुद्ध-अपवित्र कहते हैं, यह कथन भी ठीक नहीं है । क्योंकि आठ प्रकारकी लौकिक शुचिमें उसका पाठ है । यदि वह सर्वथा अशुद्ध ही हो तो उससे लिपी हुई जमीनको शुद्ध नहीं मानना चाहिए,और नीराजना (आरती) आदिमें उसका उपयोग नहीं करना चाहिए। यथाः... लौकिक शुचित्वं कालाग्निभस्ममृत्तिकागोमयसलिलज्ञाननिर्विचिकित्सत्बभेदादष्टविधं । -चारित्रसार। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । २८३ अर्थात् कालशुद्धि, अनिशुद्धि, भस्मशुद्धि, मृत्तिकाशुद्धि, गोमयशुद्धि, जलशुद्धि', शानशुद्धि और निर्विचिकित्सत्वशुद्धिके भेदसे लौकिक शुचिता-पवित्रता आठ प्रकारकी है । यद्यपि गोमय शरीरसे उत्पन्न होता है, तथापि वह लोकमें पवित्र माना गया है । यथाः शरीरजा अपि गोमय-गोरोचना-दंतिदन्त-चमरीबाल-मृगनाभि-खङ्गिविषाण-मयूर. पिच्छ-सर्पमाणि-शुक्ति-मुक्ताफलादयो लोकेषु शुचित्वमुपागताः। -चारित्रसार । ___ इसका आशय यह है कि, प्राणियोंके शरीरसे उत्पन्न होते हुए भी गोमय, गोरोचना, हाथीके दांत, चमरी गायके बाल, कस्तूरी, गेंडेके सींग, मयूरपंखको पिच्छि, सर्पके मस्तककी मणि, सीप, मोती आदि वस्तुएं लोकमें शुचिता-पवित्रताको प्राप्त हुई हैं। आदि शब्दसे शंख, रेशम आदि भी समझना चाहिये। . इससे यह फलितार्थ निकला कि, लोग गोमय और गोमूत्रको पवित्र मानकर देवता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं, यह लोकमूढ़ता है । उससे भूमि-शुद्धि करना आदि लोकमूढ़ता नहीं है । जैसी लोकमें चंद्रसूर्यकी पूजा की जाती है वैसी पूजा करना लोकमूढ़ता है । पर जिनप्रतिष्ठा आदिके समय उनका सत्कार करना लोकमूढ़ता नहीं है । यहां अभिप्रायका भेद है । सर्वसाधारण अग्निको देवमानकर नमस्कारादि करना लोकमूढ़ता है। परंतु जिनयज्ञ-संबंधी आहिताग्नि आदि तीन तरहकी अमिकी पूजा करना, उसकी भस्मको शिरपर चढ़ाना, नमस्कार करना लोकमूढ़ता नहीं है । इसी तरह सर्वसाधारण पर्वतोंकी पूजा करना लोकमूढ़ता है। परंतु सम्मेदशिखर, गिरनार, शत्रुजय, तारंगा आदि पर्वतोंकी पूजा करना लोकमूढ़ता नहीं है । यज्ञोपवीत संस्कारके समय बोधि (बड़) वृक्षकी पूजा, चैत्यवृक्षकी पूजा, जिन-मंदिरकी भूमिकी पूजा करना आदि भी लोकमूढ़ता नहीं है । सर्वसाधारण अग्नि, वृक्ष, पर्वत आदि पूज्य क्यों नहीं और विशेष विशेष कोई कोई पूज्य क्यों हैं ? इसका उत्तर यह है कि जिनसे जिनभगवानका संबंध है वे पूज्य हैं; अन्य नहीं। अस्तु, लोकमूढताकी संभवता-असंभवताका विचार बुद्धिमानोंको स्वयं कर लेना चाहिए। देवमूढ़ता। बरोपलिप्सयाऽऽशावान् रागद्वेषमलीमसाः। देवता यदुपासीत देवतामूद्रमुच्यते ॥ ३१॥ वरकी इच्छासे आशावान् होकर राग-द्वेषसे महामलीन कुदेवोंकी उपासना-भक्ति करनेको देव. मूढ़ता कहते हैं ॥ ३१ ॥ भावार्थ-मुझे अपने वांच्छित इष्ट फलकी प्राप्ति हो, ऐसी इसलोक-संबंधी फलकी इच्छा कर रागद्वेषसे मलीन देवोंकी उपासना करनेको स्वामिसमन्तभद्राचार्य देवमूढता बतलाते हैं । वह अक्षरशः ठीक है । इसमें कोई भी तरहकी बाधा नहीं है। परंतु विचार यह है कि ऋषिप्रणीत हमारे बड़े बड़े पूजाशास्त्रों, स्नानशास्त्रों, प्रतिष्ठापाठ आदिमें सर्वत्र शासनदेवोंका पूजन पाया जाता है । पूजनका क्रम इस विषयके सभी शास्त्रोंमें वैसा ही है, जैसा इस शास्त्रके चतुर्थ अध्यायमें बताया गया है। फर्क है तो सिर्फ इतना ही कि,किसीमें विस्तारको लिये हुए और किसीमें संक्षेपताको लिये हुए वर्णन किया गया है । तब यह विचार उपस्थित होता है कि शास्त्रोंमें यह परस्पर विरोध कैसा ? परंवं पक्षपातको छोड़कर विचार किया जावे तो, यद्यपि यह निर्विचार Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित पुरुषोंको विरोध मालूम पड़ता है, तथापि कुछ विरोध नहीं है। प्रथम कथनका अभिप्राय समझलेना चाहिए कि यह निषेध किस अभिप्रायसे है और यह विधान किस अभिप्राय-अपेक्षासे है ? श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने रत्नकरंडके इसी श्लोककी टीकामें स्पष्ट कर दिया है । यदि केवल उसीका पूर्ण विचारके साथ मनन किया जाय तो सब तरहकी शंकाओंका उत्तर थोड़ेमें मिल जाता है। वे लिखते है कि वरकी इच्छासे शासन-देवोंकी उपासना करना देवमूढता है। परंतु शासनदेवोंको शासनदेव मानकर-उनको सद्धर्मके भक्त मानकर उनका सत्कार करना देवमूढता नहीं है । आचार्य महाराजके इस कथनसे किसी भी शंकाका उत्तर बाकी नहीं रह जाता है। इसीसे सबका समाधान हो जाता है। कितने ही लोग श्रीप्रमाचंद्रके इस कथनको स्वामी समन्तभद्राचार्यके विरुद्ध बतलाते हैं। हम उनसे पूछते हैं कि इसमें विरुद्धता ही क्या है ? वे कहेंगे कि श्रीसमन्तभद्राचार्य देवोंके पूजनेका निषेध करते हैं और श्रीप्रभाचंद्राचार्य उसका विधान करते हैं। इसका समाधान यह है कि स्वामी समंतभद्राचार्य वरकी इच्छासे रागद्वेषसे मलीन अर्थात् मिथ्यादृष्टि देवोंके पूजनेका निषेध करते हैं । उसका प्रभाचंद्राचार्य भी निषेध करते हैं । रहा शासनदेवोंको शासनदेव मानकर उनके सत्कारका विधान; सो इसका तो समन्तभद्राचार्य भी निषेध नहीं करते । क्योंकि उन्होंने श्लोकमें 'वरोपलिप्सया' और 'आशावान् ' ये दो पद दिये हैं। जिससे मालूम पड़ता है कि स्वामिसंमतभद्राचार्य शासनदेवोंके सत्कारका निषेध नहीं करते। हां यदि वरकी इच्छासे शासन-देवोंका सत्कार किया जाय तो कदाचित् देव-मूढताका दोष आ सकता है। अतः इस विषयमें श्रीसमंतभद्राचार्य और श्रीप्रभाचंद्राचार्यका मत परस्पर विरुद्ध नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि शासन-देवोंका सत्कार अन्य ऋषिप्रणीत ग्रन्थोंमें नहीं पाया जाता और इसका नया ही जिकर श्रीप्रभाचंद्राचार्यने किया होता, तो कदाचित् कह सकते थे कि श्रीसमंतभद्राचार्य और श्रीप्रभाचंद्राचार्यका मत परस्पर विरुद्ध है । श्रीसोमदेवसूरिप्रणीत यशस्तिलक-चंपू, श्रीदेवसेनसूरिप्रणीत प्राकृत भावसंग्रह, वसुनंदि. सिद्धान्तचक्रवर्तिप्रणीत उपासकाध्ययन, प्रतिष्ठासार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि ऋषिप्रणीत बड़े बड़े ग्रन्थों में उनके सत्कारका उल्लेख है । शासनदेव जिनभक्त होते हैं। जो जिनभक्त होते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं । शासन-देव जिनभक्त हैं, इसका उल्लेख समंतभद्राचार्यसे भी पूर्ववर्ती ऋषिप्रणीत ग्रन्थोंमें पाया जाता है। हरिवंशपुराणमें तो शासनदेवोंसे बड़ी बड़ी प्रार्थनाएं की गई हैं। भैरव-पद्मावतीकल्प, ज्वालामालिनीकल्प, सिद्धचक्रकल्प आदि अनेक ऋषिप्रणीत मंत्रशास्त्र हैं, जिनसे भी शासन-देवोंका सत्कार सिद्ध होता है । अस्तु, शासन-देवोंके सत्कारकी जैसी विधि आगममें बताई गई है तदनुसार करना देवमूढ़ता नहीं है । और न समंतभद्राचार्य तथा प्रभाचंद्राचार्यके वचनोंमें परस्पर विरोध ही है। पाखंडिमूढ़ता। सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेया पाखण्डिमूढता ॥ ३२ ॥ . जो नाना प्रकार के परिग्रह रखते हैं, अनेक तरहके आरंभ करते हैं, हिंसासे परिपूर्ण हैं, और संसारके चक्करमें-मोह-फाँसमें फंसे हुए हैं, उन पाखंडियोंको संसारसमुद्रसे पार करनेवाले गुरु मान उनका सत्कार करना पाखंडिमूढ़ता है । भावार्थ-जो अपने धर्मोपदेशके द्वारा भव्य जीवोंको संसार-समुद्रसे पार करनेवाला है और जो स्वयं संसार-समुद्रसे पार होनेवाला है, वह स्वपरका कल्याण Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। करनेवाला गुरु हो सकता है । इसके विपरीत जो स्वयं अनेक प्रकारके कुकृत्य करता है, सांसारिक चक्रों में खूब गोता लगा रहा है, इंद्रियोंके विषयोंमें हराबोर हो रहा है, जिसके वचन पूर्वापर विरोधको लिये हुए हैं, जो जीवोंको मिथ्या उपदेश देकर कुमार्गकी ओर खेंचे ले जा रहा है, वह गुरु नहीं है-वह वास्तवमें पत्थरकी नौका है । जो स्वयं पानीमें डूबती और दूसरोंको भी डूबो देती है । ऐसे पत्थरकी नौकासे समद्र पार करना कटिन ही नहीं. वल्कि महा कठिन है। अतः ऐसे पुरुषोंके लुभानेवाले वचनोंसे मोहित होकर सख चाहनेवाले प्राणियोंको अपनी आत्माको उनके वाग्जालम न फँसाना चाहिए ॥ ३२ ॥ -आठ मद । ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धिं तपो तपुः। अष्टावाश्रित्य मानित्वं श्रीयते तन्मदाष्टकम् ॥ ३३॥ ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बलें, ऋद्धि, तपश्चरण, और शरीर, इन आठोंको गर्व करनाघमंड करना, आठ मद हैं ॥ ३३ ॥ छह अनायतन। कुदेवस्तस्य भक्तश्च कुशास्त्रं तस्य पाठकः। कुगुरुस्तस्य शिष्यश्च षण्णां सङ्गं परित्यजेत् ॥ ३४ ॥ कुदेव और कुदेवभक्त, कुशास्त्र और कुशास्त्र-पाठक-भक्त, तथा कुगुरु और कुगुरुभक्त, ये छह अनायतन हैं। इन छहोंके साथ संगति नहीं करना चाहिए । भावार्थ-धर्मके आलम्बनाको आयतन कहते हैं। सच्चा देव, सच्चा गुरु और सच्चा शास्त्र, ये तीन तथा तीन इनके भक्त, इस. तर, ये छह धर्मके आलम्बन हैं । इनसे विपरीत जो ऊपर श्लोकमें बताये हैं वे धर्मके आलंबन नहीं हैं । अतः उन्हें अनायतन कहते हैं। इन छहोंकी संगति करनेसे धर्म-सम्यक्त्व मलिन होता है । अतः सम्यग्दृष्टियोंको इन छहोंकी संमति नहीं करना चाहिए ॥ ३४ ॥ शंकादि आठ दोष। शङ्काऽऽकांक्षा जुगुप्सा च प्रौढ्यमनुपगृहनम् । अस्थितीकरणं चाप्यवात्सल्यं चाप्रभावना ॥ ३५ ॥ एतेऽष्टौ मिलिता दोषास्त्याज्याः सम्यक्त्वधारिभिः । सदैव गुरुशास्त्राणां भक्तिः कार्या निरन्तरम् ॥ ३६ ॥ शंका-निर्दोष जिनमतमें खाँमुखाँ शंका करना; आकांक्षा-अच्छे अच्छे विषयभोगोंकी चाहना करना; जुगुप्सा-धर्मात्माओंसे ग्लानि करना, मूढदृष्टि-कुमार्गमें तथा कुमार्गमें रहनेवाले पुरु षोंमें सहमत रहना, उनकी प्रशंसा करना-सराहना करना; अनुपगूहन-निर्दोष परम पवित्र संपूर्ण जीवोंके हित करनेवाले जिनमार्गकी निंदा करना; अस्थितीकरण-धर्ममें आसक्त पुरुषोंको धर्ममें झूठे दोष दिखादिखाकर धर्मसे चिगाना; अवात्सल्य-धर्मके धारी श्रद्धानी पुरुषोंसे द्वेष करना, उनकी झूठी निंदाकर लोगोंको भड़काना; और अप्रभावना-जैनधर्मकी प्रतिष्ठा न करनाउसकी झूठी निंदा फैलाना; ये सम्यक्त्वके आठ दोष हैं। सम्यग्दृष्टिको इन आठ दोषोंका त्याग करना चाहिए, और हमेशह सच्चे देव, गुरु, शास्त्रकी भक्ति करना चाहिए ॥ ३५-३६ ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सोमसेनभट्टारकविरचित सम्यक्त्वके तीन भेद । सम्यक्त्वं त्रिविधं ज्ञेयं क्षायिकं चौपशामिकम् । क्षायोपशमिकं चेति उत्तमाधममध्यमम् ॥ ३७ ।। सम्यक्त्व तीन प्रकारका जानना-पहला क्षायिक सम्यक्त्व, दूसरा थायोपशमिक सम्यक्त्व और तीसरा औपशमिक सम्यक्त्व । इनमेंसे क्षायिक सम्यक्त्व उत्तम है । क्षायोपशमिक मध्यम है, और औपशमिक जघन्य है ॥३७ ।।। तीनों सम्यग्दर्शनोंकी उत्पत्ति । मिथ्यासमयमिथ्यात्वसम्यक्प्रकृतयस्त्रयः। आद्य कषायतुर्य च चतुःप्रकृतयः पुनः ॥ ३८ ॥ क्षायिकं च क्षयात्तासां शमनाच्चौपशमिकम् । मिश्रात्तन्मिश्रसम्यक्त्वमिति मोक्षपदायकम् ॥ ३९ ॥ मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये तीन; और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार-इस प्रकार सात कर्मोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इन सातोंके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। और इन सातोंके क्षयोपशमसे क्षायोपशामिक सम्यक्त्व होता है। ये तीनों ही सम्यक्त्व मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं ।।३८-३९ ॥. सम्यक्त्वके आठ गुण । उक्तंच-संवेउ णिव्वे जिंदा गरहा च उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा अगुणा हुंति सम्मत्त ॥ ४०॥ संवेग, निर्वेग, अपनी निन्दा, अपनी गर्दा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकंपा, ये सम्यक्त्वके आठ गुण हैं। चत्तारि वि खेत्ताइं आउगबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुव्वयमहव्वयाई ण हवइ देवाउगं मोत्तुं ॥ ४१ ॥ छसु हिडिमासु पुढविसु जोइसवणभवणसव्वइत्थीसु । वारसमिच्छोवाये सम्माइटे ण होदि उववादो ॥ ४२ ॥ पंचसु थावरवियले असण्णिणिगोयम्मि छक्कुभोगेसु । . सम्मादिठी जीवो उववजदि ण णियमेण ॥ ४३॥ नरकक्षेत्र, तिर्यग्क्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र और देवक्षेत्र, इन चारों क्षेत्रसम्बन्धी आयुकर्मके बंध जानेपर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति तो हो जाती है, किन्तु देवायुको छोड़ अन्य तीन क्षेत्रसंबंधी आयुका बंध हो जानेपर अणुव्रत-देशविरत नामका पंचम गुणस्थान और महाव्रत-छठे सातवें गुणस्थान नहीं होते। देवायुके बंध जानेपर तो अणुव्रत महाव्रत हो जाते हैं। सम्यग्दृष्टि मरकर रत्नप्रभा नामकी प्रथम नरकभूमिके सिवाय बाकीकी छह पृथ्वियोंमें; ज्योतिषी, व्यंतर और भवनवासी, इन तीन तरहके देवोंमें, और सब स्त्रियोंमें-देवांगना, मनुष्यनियाँ और तिर्यंचनियाँ, इन तीन तरहकी स्त्रियोंमें-इस तरह बारह मिथ्यादृष्टियोंके उत्पन्न होनेके स्थानोंमें उत्पन्न नहीं होता। इन बारह स्थानोंमें नियमसे मिथ्यादृष्टि ही मरकर पैदा होता है । हां, इन स्थानोंमें उत्पन्न होनेके बाद सम्यक्त्वोत्पत्तिकी योग्यता Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २८७ मिलनेपर उनके सम्यग्दर्शन हो सकता है। सम्यग्दृष्टि मरकर नियमसे पांच थावरों, तीन विकलेंद्रियों, असंही पंचेंद्रियों, निगोदियों और कुभोग-भूमियोंमें भी उत्पन्न नहीं होता है; और न इन जीवोंमें सम्यग्दर्शन होता है ।। ४१-४३॥ । क्षायोपशमिक-सम्यक्त्वका स्वरूप। दंसणमोहुदयादो उप्पज्जइ जं पयत्थसदहणं । चलमलिणमगाढं तं वेदगसम्मत्तमिदि जाणे ॥४४॥ दर्शनमोहनीय-सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे आत्मामें जिनोक्त पदार्थोंका जो श्रद्धान होता है उसे वेदक-क्षायोपशमिक-सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ़रूप रहता है। इनका स्वरूप गोम्मटसार जीवकांडसे जानना ।। ४४ ॥ __ औपशमिक-सम्यक्त्वका लक्षण । दंसणमोहुवसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थसदहणं । • उवसमसम्मत्तमिदं पसण्णमलपंकतोयसमं ॥ ४५ ॥ दर्शन मोहनीय-मिथ्यात्वकर्म, सम्यक्मिथ्यात्वकर्म, सम्यक्त्वकर्म, अनंतानुबंधिक्रोध, अनंतानुबंधिमान, अनंतानुबंधिमाया और अनंतानुबंधिलोभ, इन सात प्रकृतियोंके उपशम होनेसे आत्मामें पदार्थों का जो श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। जैसे मलिन जलमें फिटकड़ी वगैरहके डालनेसे मल नीचेको बैठ जाता है और ऊपरसे पानी निर्मल हो जाता है. उसी तरह यह सम्यक्त्व कर्म-मलोंके फल न देनेसे-उदय न आनेसे, अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त निर्मल होता है ॥ ४५ ॥ क्षायिक-सम्यक्त्वका स्वरूप। खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ । तं खाइयसम्मत्तं णिचं कम्मक्खवणहेदु ॥ ४६॥ ऊपर कहे हुए सात प्रकारके क्षय होनेपर आत्मामें जो निर्मल पदार्थका श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे क्षायिक-सम्यक्त्व कहते हैं । यह सम्यक्त्व नित्य है-एकवार उत्पन्न होकर फिर कभी नहीं छूटता है । यह कर्मोंके क्षय करनेमें कारण है ॥ ४६ ॥ वयणहि वि हेहि वि इंदियभयआणयेहि रूवेहिं । वीभच्छजुगुच्छाहि वि तेलोयेण वि ण चालेज्जो॥४७॥ यह सम्यक्त्व वचनोंसे, हेतुओंसे, इन्द्रियोंको भय उपजानेवाले रूपोंसे, बीभत्स्य पदार्थोके देखनेसे. जुगुप्सासे, और तो क्या तीन लोकसे भी चलायमान नहीं होता। भावार्थ-इस सम्यक्त्वको भ्रष्ट करनेके लिए कितने ही कारण क्यों न मिल जायें, पर तो भी यह सम्यक्त्व कभी भी नष्ट नहीं होता है-हमेशह आत्मामें प्रकाशमान रहता है ॥ ४७ ॥ दसणमोहक्खवणा पढवगो कम्मभूमिजादो हु। मणुजो केवलिमूले णिहवगो होइ सम्वत्थ ॥ ४८॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ सोमसेनभट्टारकविरचितकर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य ही केवली अथवा श्रुतकेवलीके निकट दर्शन-मोहनीयके क्षय करनेका प्रारंभ करता है और उसका निष्ठापन-पूर्ति सब जगह करता है ॥ ४८ ॥ दंसणमोहक्खविदे सिज्झदि एक्केव तिदियतुरियभवे ।... णादिक्कदि तुरियभवं ण विणस्सदि सेससम्मं वा ॥ ४९ ॥ __दर्शन-मोहका क्षय हो जानेपर एक ही भवमें मुक्ति हो जाती है अथवा तीसरे या चौथे भवमें मुक्ति होती है । परंतु चौथे भवका कभी उल्लंघन नहीं होता-चौथे भवमें नियमसे मुक्ति हो ही जाती है। जैसे औपशमिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होकर छूट जाते हैं, वैसे यह शायिक सम्यक्त्व एक बार होकर कभी नहीं छूटता है । भावार्थ-जैसे किसी मनुष्यके क्षायिक सम्यक्त्व हुआ और वह यदि चरम-शरीरी है तो उसी भवसे मुक्ति हो जाती है। इस अपेक्षा एक ही भवसे मुक्ति होती है। यदि उसके पहले नरककी आयु बंध गई हो तो नरकको, और यदि आयु न बंधी हो तो स्वर्गको जाता है। वहांसे च्युत हो, मनुष्य होकर मुक्ति जाता है। इस तरह दो मनुष्य-भव और एक नरक या देव-भव, इन तीन भवोंमें मुक्ति चला जाता है। यदि किसी मनुष्यको तिर्यच या मनुष्यकी आयुका बंध हो चुकनेके बाद क्षायिक सम्यक्त्व हुआ है तो वह मरकर भोग-भूमिमें मनुष्य या तिर्यंच-पुरुष (पुरुष लिंगधारी तिर्यच) होता है । वहांसे मरकर वह सीधा स्वर्गको जाता है । वहांसे व्युत हो मनुष्य-भव प्राप्त कर मुक्तिको जाता है । इस अपेक्षा चार भव होते हैं-एक सम्यक्त्व उत्पन्न होनेका मनुष्य-भव, दूसरा भोगभूमिका भव, तीसरा देव-भव और चौथा फिर मनुष्य-भव । दूसरे भवमें कभी मुक्ति नहीं होती है ॥ ४९ ॥ व्रताद्धृष्टस्य सम्यक्त्वं वर्तते यदि चेतसि । आर्द्रः सिध्यति भव्यः स चारित्रधरणक्षणे ॥५०॥ जो मनुष्य चारित्रसे भ्रष्ट है, परन्तु यदि उसकी आत्मामें सम्यग्दर्शन मौजूद है तो, वह भव्य अपने परिणामोंसे आर्द्र है; इसलिए वह नियमसे चारित्र धारणकर नियमसे सिद्धिको प्राप्त होता है ॥ ५० ॥ सम्यक्त्वकी प्रशंसा। .. विद्यावृत्तस्य सम्भूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥५१॥ सम्यक्त्वके बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और मोक्षप्राप्तिरूप फलकी प्राप्ति नहीं होती है। जैसे बीजके बिना न तो वृक्ष ही ऊगता है, न उसकी पृथ्वीपर स्थिति ही रह सकती है, न वह बढ़ ही पाता है, और न उसके फल ही लगते हैं। ५१ ॥ न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ ५२ ॥ तीनों कालों में और तीनों जगतोंमें प्राणियोंका भला करनेवाला सम्यक्त्वके बराबर न तो कोई हुआ है, न है,और न होगा। और मिथ्यात्वके बराबर जीवका न कोई दूसरा दुश्मन हुआ,न है, और न होगा । अतः मिथ्यात्वको त्यागना चाहिए और सम्यक्त्वको ग्रहण करना चाहिए ॥ ५२ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार दुर्गतावायुषों बन्धात्सम्यक्त्वं यस्य जायते । गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाऽप्यल्पतरा स्थितिः ॥ ५३ ॥ जिस मनुष्यके दुर्गति सम्बन्धी आयुका बंध हो जाने के पीछे सम्यक्त्व होता है, उसके उस गतिका छेद नहीं होता-उसे उस गतिमें अवश्य जाना ही पड़ता है । तौभी उसके आयुकर्मकी स्थिति बहुत ही थोड़ी रह जाती है ।। ५३ ॥ सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुदरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः॥ ५४॥ जो जीव व्रतोंसे रहित हैं, जिनके कोई तरहका व्रत नहीं है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे पवित्र हैं, वे मरकर नरक और तिर्यंच गतिमें नहीं जाते, स्त्री और नपुंसक नहीं होते, खोटे कुलमें उत्पन्न नहीं होते, विकृत शरीरवाले नहीं होते, अल्प आयुवाले नहीं होते, और न दरिद्री होते हैं । किन्तु-॥ ५४ ॥ ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः। उत्तमकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥ ५५ ॥ वे सम्यग्दर्शनसे परम पवित्र जीव, मनुष्य-गतिमें भारी कान्तिमान, महा तेजस्वी, परिपूर्ण विद्यावान, उत्कृष्टशक्तिशाली, भारी यशस्वी और प्रचुर सम्पत्तिके स्वामी होते हैं, उत्तम कुल में जन्म लेते हैं; धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी साधना करनेवाले होते हैं, और मनुष्योंमें, सिरके तिलकके समान, श्रेष्ठ होते हैं ॥ ५५ ॥ अष्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः । अमराप्सरसा परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ।। ५६ ॥ अणिमा महिमा लघिमा गरिमाऽन्तर्धानकामरूपित्वम् । प्राप्तिः प्राकाम्यवशित्वशित्वाप्रतिहतत्वमिति वैक्रियकाः॥ ५७ ॥ स्वर्गमें वे जिनभक्त सम्यग्दृष्टि जीव आठ ऋद्धियोंकी पुष्टिसे सन्तुष्ट और प्रचुर शोभासे युक्त होते हैं । तथा वे देव और देवांगनाकी सभाओंमें बहुत कालपर्यन्त आनंदसे क्रीड़ा करते हैं। १ अणिमा, २ महिमा, ३ लघिमा, ४ गरिमा, ५ अंतर्धान, ६ कामरूपित्व, ७ प्राप्ति, ८ प्राकाम्य ९ वशित्व, १० ईशित्व, और ११ अप्रतिहतत्व, ये ग्यारह ऋद्धियां हैं, जिनमें से स्वर्गमें आठ प्राप्त होती हैं ।। ५६-५७ ॥ नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् । वतयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः क्षत्रमौलिशेखरचरणाः॥ ५८ ॥ ये सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्य-गतिमें और भी भारी प्रभावशाली होते हैं। यहां वे नवनिधियों और चौदह रत्नोंके अधिपति होते हैं; षट्खंड पृथ्वीके स्वामी होते हैं, पृथ्वीतलपर एकछत्र राज्य करते है. और जिनके चरणोंमें बत्तीस हजार राजे-महाराजे सिर झुकाते हैं। इसके अलावा और भी कई तराके उत्तम कार्यों को प्राप्तकर वे इस सम्यग्दर्शनके बलसे मुक्तितक जाते हैं ।। ५८ ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सोमसेनभट्टारकविरचित सम्यग्ज्ञानका लक्षण। अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥ ५९॥ जो वस्तुस्वरूपको जितना उसका स्वरूप है उससे न तो न्यून जानता है, न अधिक जानता है, और न विपरीत जानता है किन्तु जैसी उसकी असलियत है वैसा ही संदेहरहित जानता है, उसे आगमके वेत्ता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं । भावार्थ--संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरहित वस्तुके स्वरूपका जानना सम्यग्ज्ञान है ॥ ५९ ।। प्रथमानुयोग-ज्ञान । प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधिसमाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥६॥ जो सम्यग्ज्ञान, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चार पुरुषार्थोंका भले प्रकार निरूपण करनेवाले पुण्यमयी (अर्थात् जिनके सुननेसे पुण्यकी प्राप्ति होती है) चरित्र और पुराणको जानता है और जो रत्नत्रय तथा ध्यानका खजाना है उसे प्रथमानुयोग-ज्ञान कहते हैं । भावार्थ-भगवान समन्तभद्रस्वामी परिपूर्ण परीक्षाप्रधानी थे । उनने हरएक पदार्थकी खूब अच्छी तरह जांच की है, जो उनके बनाये हुए आप्तमीमांसा ग्रन्थसे प्रकट है। उन्हींका कहना है कि, जिसमें एक पुरुषकी जीवनी लिखी जाती है उसे चरित कहते हैं; और जिसमें तिरेसठ शलाकाके पुरुषोंकी जीवनी लिखी जाती है उसे पुराण कहते हैं । ऐसे चरित्र और पुराणोंमें चारों पुरुषार्थोंका कथन रहता है । इन पुराणोंके पढ़नेसे पढ़नेवालोंको पुण्यकी प्राप्ति होती है। इनके पढ़नेसे रत्नत्रय और ध्यानकी प्राप्ति होती है। इसलिए पुराणोंकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए; इन्हें गप्प नहीं सम. झना चाहिए । ये वस्तुके वास्तविक स्वरूपको प्रकट करनेवाले हैं। इसीलिए इनका ज्ञान प्रथमा. नुयोग नामका ज्ञान है, और वह सम्यग्ज्ञान है ॥ ६ ॥ करणानुयोग-ज्ञान । लोकालोकविभत्ते युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिव तथा मतिस्वैति करणानुयोगं च ॥ ६१ ॥ जोसम्यग्ज्ञान लोक और अलोकके विभागको, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी-रूप युगोंकी उलटा-पलटीको और चारों गतियोंकी व्यवस्थाको दर्पणकी भांति स्पष्ट दिखाता है उसे करणानुयोग ज्ञान कहते हैं। भावार्थ-जैसे दर्पण अपने सामने रक्खे पदार्थको स्पष्ट दिखाता है वैस ही करणानुयोग शास्त्र इन बातोंको स्पष्ट दिखाते हैं । इनके ज्ञानको करणानुयोग-ज्ञान कहते हैं । ६१ ॥ चरणानुयोग-ज्ञान । गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षांगम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥ ६२ ॥ सम्यग्ज्ञान, गृहस्थों और मुनियोंके चारित्रकी उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षाके कारण चरणानुयोग शाबको जानता है । भावार्थ-जिसमें मुनि और गृहस्थोंके चारित्रका कथन हो, उसकी वृद्धि और Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | रक्षाका उपाय बताया गया हो वह चरणानुयोग शास्त्र है। इस शास्त्रके ज्ञानको चरणानुयोग-शान कहते हैं; और यह ज्ञान, सम्यग्ज्ञान है ॥ ६२ ॥ - ज्ञान । द्रव्यानुयोग- इ जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालोकमतनुते ॥ ६३ ॥ द्रव्यानुयोग नामका दीपक, जीव, अजीव सुतत्त्वोंको, पुण्य और पापको, बंध और मोक्षको तथा श्रुतविद्या-भावश्रुतके प्रकाशको विस्तारता है । भावार्थ - जिनमें मुख्य करके इन विषयोंका वर्णन हो उसे द्रव्यानुयोग - शास्त्र कहते हैं । इनके ज्ञानका नाम द्रव्यानुयोग - ज्ञान है । यह ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान है । सारांश—ये चारों जातिके शास्त्र सम्यक्शास्त्र हैं, और इनका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । सम्यक्चारित्र | हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुन सेवापरिग्रहाभ्यां च । पापालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ ६४ ॥ २९१ पापास्रव के कारण हिंसा, झूठ, चौरी, कुशील सेवन और परिग्रह, इन पांच पापोंसे विरक्त होना सम्यग्ज्ञानियोंका चारित्र है || ६४ ॥ सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्व संगविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ॥ ६५ ॥ यह चारित्र दो प्रकारका है, एक सकल चारित्र और दूसरा विकल- एकदेश चारित्र । सकल चारित्र सब तरहके परिग्रहोंसे रहित महामुनियोंके होता है ! और विकल चारित्र परिग्रहयुक्त गृहस्थोंके होता है || ६५ ॥ सांगार-गृहस्थका लक्षण । अनाथविद्यादोषोत्थचतुः संज्ञाज्वरातुराः । शश्वत्सज्ज्ञानविमुखाः सागारा विषयोन्मुखाः ॥ ६६ ॥ भय, जो अनादिकालीन अविद्यारूप वात, पित्त और कफ, इन तीन दोषोंसे उत्पन्न हुए आहार, मैथुन और परिग्रह, इन चार संज्ञारूपी ज्वरसे पीड़ित हैं, अतएव सदा अपने आत्मज्ञानसे विमुख हैं और सांसारिक विषयोंमें लीन हैं, वे सागार - घर - कुटुंब में रहनेवाले गृहस्थ होते हैं ।। ६६ ॥ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥ ६७ ॥ जो गृहस्थ होकर भी निर्मोह है - घर - कुटुम्बादि में ममत्वपरिणामरहित है, वह मोक्षमार्ग में स्थित है | और जो मुनि होकर भी नाना मोहजाल में फंसा हुआ है वह मोक्षमार्गम स्थित नहीं है। इसलिए मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ होता है ।। ६७ ॥ सम्यग्दृष्टि श्रावकका लक्षण अष्टमूलगुणाधारो सप्तव्यसनदूरगः । सद्गुरुवचनासक्तः सम्यग्दृष्टिः स उच्यते ॥ ६८ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सोमसेनभट्टारकविरचितजो आठ मूलगूणोंका धारी है, सात व्यसनोंका त्यागी है और सद्गुरुके वचोंमें आसक्त है, वह सम्यकदृष्टि कहा आठ मूलगुणों के नाम । तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्यु पंचक्षीरफलानि च ॥ ६९ ॥ ___ गृहस्थोंको सबसे पहले जिन-आशाका श्रद्धान करते हुए हिंसाको त्यागनेके लिए मद्य, मांस, मधु और पांच क्षीरफलोंका त्याग करना चाहिए । इनका स्वरूप पहले लिख आये हैं ।। ६९ ॥ अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान् स्थूलवधादि वा। __ फलस्थाने स्मरेत् द्यूतं मधुस्थान इहैव च ॥ ७० ॥ भगवत्सोमदेव सूरि, अमृतचंद्र सूरि आदि आचार्य इन ऊपर कहे आठोंको मूलगण कहते हैं। भगवान समन्तभद्राचार्य पांच क्षीरफलों के स्थानमें स्थूल-वधादिके त्यागको अर्थात् पांच अणुव्रतोंका धारण और तीन मकारके त्यागको अष्ट मूलगुण कहते हैं। और भगवजिनसेनाचार्य, समन्तभद्रस्वामीके बताये हुए अष्ट मूलगुणोंमें मधुके स्थानमें जूए के त्यागको अर्थात् पांच अणुव्रतोंके धारण, मद्यके त्याग, मांसके त्याग और जुआ खेलनेके त्यागको अष्ट मूलगुण कहते हैं। तथा-||७०|| मद्यपलमधुनिशाशनपश्चफलीविरतिपञ्चकाप्सनुती। जीवदया जलगालनमिति च कचिदष्टमूलगुणाः ॥ ७१ ॥ ___ किन्हीं किन्हीं ग्रन्थोंमें मद्यविरति', मांसविरति', मधुविरति', रात्रिभोजन विरति', पंच-क्षीरफलोंका त्यागे, पांच आप्तोंर्का नुति, जीवदाँ, और जल छानकर पीना, ये आठ मूलगुण बताये हैं ॥ ७१ ॥ __ आचार्योंके बताये हुए इन • मूलगुणोंमें कोई विरोध नहीं है । सबका उद्देश वही हिंसाके त्यागका है । जबकि गृहस्थोंका चारित्र देश-चारित्र है, और देशके अनेक भाग होते हैं, तब मूलगुणोंमें अनेक भेदोंका जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट-रूप हो जाना आश्चर्यकारक नहीं है । हां, मुनियोंका चारित्र सकल-चारित्र है। उनके बाह्य मूल चारित्रमें कुछ भेद नहीं होता। गिरस्तोंके चारित्रमें अनेक भेद होते हैं। अन्यथा वह देश-चारित्र ही नहीं हो सकता । सबमें उत्तरोत्तर हिंसात्यागकी प्रकर्षता है । वह प्रकर्षता मुनियोंके चारित्रमें अन्त्य दर्जेको पहुंच जाती है । इसलिये आचार्य बचनोंमें कुछ भी विरोध नहीं समझना चाहिए। गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षावतात्मकं चरणम् । पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातम् ॥ ७२ ॥ ... गिरस्तोंका चारित्र तीन प्रकारका है-अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत । ये क्रमसे पांच, तीन और चार भेदरूप हैं !! ७२ ॥ पांच अणुव्रतोंका स्वरूप । प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममृच्छाभ्यः। स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति ॥ ७३ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | २९३ स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील सेवन और स्थूल परिग्रह, इन पांच पापके त्याग करनेको अणुव्रत कहते हैं ।। ७३॥ भाव - हिंसा | स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा कषायवान । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥ ७४ ॥ यह आत्मा जब कषाययुक्त होता है तब प्रथम स्वयं अपने द्वारा अपना ही घात कर लेता है । पश्चात् अन्य प्राणियोंकी हिंसा हो या न हो । भावार्थ—क्रोधादि कषायों के उत्पन्न होनेको हिंसा कहते है । जब यह आत्मा क्रोध करता है तब अपनेही स्वरूपका घात कर लेता है । ऐसी अवस्थामें बाह्य प्राणोंका व्यपरोपण-घात हो या न हो, किन्तु भाव-हिंसा तो हो ही जाती है। इसलिए कषायाका त्याग करना उचित है ॥ ७४ ॥ बाह्य स्थूल हिंसाका त्याग । सङ्कल्पात्कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः ॥ ७५ ॥ संकल्प - पूर्वक मन, वचन, काय, और कृत, कारित, अनुमोदनासे त्रस जीवोंके नहीं मारनेको निपुण पुरुष स्थूल अहिंसाणुव्रत कहते हैं ।। ७५ ।। अहिंसाणुव्रत के पांच अतीचार । छेदनबन्धनपीडनमतिभारारोपणं व्यतीचाराः । आहारवारणाऽपि च स्थूलवधाद्व्युपरतेः पञ्च ॥ ७६ ॥ 'द्विपद अथवा चतुष्पद जीवोंके नाक कान छेदना, उन्हें रस्सी वगैरह से बांधना, उन्हें चाबुक वगैरह से पीटना, उनपर उनकी शक्तिसे अधिक बोझ लादना, और उन्हें खानेको रोटी, पानी, घास वगैरह न देना, ये अहिंसाणुव्रतके पांच अतीचार हैं। अहिंसाणुव्रत पालन करनेवालेको इन पांच अतीचारोंका भी त्याग करना चाहिए ॥ ७६ ॥ सत्याशुव्रतका स्वरूप । स्थूलमलीकं न वदति न परान्नादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ॥ ७७ ॥ स्थूल - मोटी झुंठ न बोलना और न दूसरोंसे बुलवाना, तथा जिसके बोलनेसे किसीके ऊपर विपत्ति आ जावे ऐसी सत्य भी नहीं बोलना, इसे सज्जन पुरुष सत्याणुव्रत कहते हैं ॥ ७७ ॥ सत्याणुत्रतक पांच अतीचार ! परिवाद रहो भ्याख्यापैशुन्यं कूटलेख करणं च । न्यासापहारिताsपि च व्यतिक्रमाः पञ्च सत्यस्य ॥ ७८ ॥ 'मिथ्या उपदेश देना, किसीके गुप्त रहस्यको प्रकट करना, चुगली अथवा निन्दा करना, झूठी बातें लिखना, और “किसीका धरोहर हरना, ये पांच सत्याणुव्रत के अतीचार हैं । सत्याशुवतीको इनका त्याग करना चाहिए ॥ ७८ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ सोमसेनभट्टारकविरचित अचौर्याणुव्रतका स्वरूप । निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् । न हरति यत्र च दत्ते तदकुशचौर्यादुपारमणम् ॥ ७९ ॥ रक्खे हुए, गिरे हुए, भूले हुए, अथवा घरोहररूप रक्खे हुए पर द्रव्यको न तो स्वयं लेना और न औरोंको देना, इसे स्थूल- चौरीसे विरक्त होना- अचौर्यामुक्त कहते हैं ॥ ७९ ॥ अचौर्याणुव्रत के पांच अतीचार | चौरप्रयोग चौरार्थादानविलोपसदृशं सम्मिश्राः । हीनाधिकविनिमानं पञ्चास्तेये व्यतीपाताः ॥ ८० ॥ औरोंको चौरीका उपाय बताना, चौरोंके द्वारा चुराई हुई वस्तुओंको लेना, सरकारी आशाको न मानना - राजकीय टैक्सको चुराना, अधिक मूल्यकी वस्तुमें हीन मूल्यकी वस्तु मिलाकर बेंचना, और नापने तोलने के गज, बाँट, तराजू आदि लेनेके अधिक और देनेके कमती रखना, ये पांच अचौर्याणुत्र के अतीचार हैं। अचौर्याणुव्रतीको इनका त्याग करना चाहिए ॥ ८० ॥ ब्रह्मचर्याणुत्रतका लक्षण | न च परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदार सन्तोषनामापि ॥ ८१ ॥ पापके भयसे न तो खुद परस्त्री के साथ समागम करता है और न दूसरोंको कराता है, सो परदारनिवृत्ति व्रत है । इसका दूसरा नाम स्वदारसंतोष भी है ॥ ८१ ॥ ब्रह्मचर्य व्रत के पांच अतीचार । अन्यविवाह करणानङ्गक्रीडा विटत्वविपुलतृषः । इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचाराः ॥ ८२ ॥ औरोंके पुत्र-पुत्रियोंका विवाह करना, कामभोगके अंगोंको छोड़ भिन्न अंगोंद्वारा कामक्रीड़ा करना, चैकार, भकारादि भंड वचन बोलना, कामसेवनमें अधिक लालसा करना और परिग्रहीत किंवा अपरिग्रहीत व्यभिचारिणी स्त्रियोंके पास गमन करना, ये पांच ब्रह्मचर्याणुत्रतके अतीचार हैं। ब्रह्मचर्याणुत्रतीको इनका त्याग करना चाहिए || ८२ ॥ परिग्रहपरिमाण व्रतका स्वरूप । घनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छा परिमाणनामाऽपि ॥ ८३ ॥ धन, धान्य आदि दश प्रकारके परिग्रहका परिमाण करना कि इतना रक्खेंगे, उससे अधिककी लालसा न करना, परिग्रह - परिमाण है । इसका दूसरा नाम इच्छा-परिमाण भी है ॥ ८३ ॥ परिग्रहपरिमाणव्रत के पांच अतीचार । अतिवाहनातिसंग्रह विस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पञ्च लक्ष्यन्ते ॥ ८४ ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। २९५ narrrrrrrrrr. अतिवाहन-लोभवश मनुष्य अथवा पशुओंको उनकी शक्तिसे अधिक चलाना; अतिसं ग्रह-अमुक धान्योंमें अधिक मुनाफा होगा ऐसा समझ लोभके वशीभूत होकर उनका अधिक संचय करना; विस्मय-जो धान्य या कोई अन्य वस्तु थोड़े मुनाफेसे बेंच दी गई हो अथवा जिसका संग्रह स्वयं न कर सका हो, उस पदार्थको बेंचकर किसी दूसरेने अधिक नफा उठाया हो, उसे देखकर विषाद करना; लोभ-योग्य मुनाफा होनेपर भी और अधिक मुनाफा होनेकी आकांक्षा करना; और अति-भारारोपण-लोभके वशसे शक्तिसे अधिक बोझा लादना; ये पांच परिग्रह-परिमाण व्रतके अतीचार हैं। परिग्रहपरिमाण व्रतीको इनका त्याग करना चाहिए ॥८४॥ छह-अणुव्रत । वधादसत्याञ्चौर्याच्च कामाद्ग्रन्थानिवर्तनम् । पञ्चकाणुनतं रात्रिभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥ ८५ ॥ ऊपर कहे हुए हिंसाविरति, असत्यविरति, चौर्यविरति, अब्रह्मविरति, परिग्रहविरति, ये पांच और छठा रात्रिभोजनत्याग, इस प्रकार छह अणुव्रत होते हैं ॥ ८५ ॥ भावार्थ-रागादि भावों का करना हिंसा है । सभी पापोंमें रागादि भाव होनेके कारण सभी व्रतोंका हिंसाविरतिमें अन्तर्भाव हो जाता है। परंतु केवल हिंसाके त्यागको कह देनेसे मंदबद्धि समझ नहीं सकते। इसलिए उनको समझाने वास्ते झूठ का त्याग करना, चोरीका त्याग करना आदि भेद कर दिये हैं । इसी तरह शायद कोई ऐसा भी समझ लें कि रात्रिभोजनका त्याग अणुव्रतोंमें नहीं है, अतः रात्रिको भोजन करना पाप नहीं है । इससे रात्रि-भोजन-त्याग नामके अणुव्रतको पृथक कहना पड़ा । रात्रि भोजनका हिंसा अन्तर्भाव नहीं हो सकता, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यह कह चुके हैं कि रागभावका नाम हिंसा है और रात्रि भोजन करनेमें राग भाव भी अधिक है। अतः जहां जहां राग है वहां वहां हिंसा है। तथा रात्रिमें बाह्य प्राणियोंका घात भी अधिक होता है । अतः बाह्य हिंसा भी जियादा है। इसलिए द्रव्यहिंसा और भावहिंसा नोकी ही अपेक्षासे रात्रिभोजनका हिसामें अतभाव हो जाता है। रात्रिभोजन करना. झठ बोलना, चौरी करना, मैथुन करना, परिग्रह रखना आदि सभी आत्माके परिणामोंके विघातक होनेसे हिंसा ही हैं। केवल शिष्योंको बोध करानेके लिए भेद-रूपसे कहे जाते हैं। अतः लोग जो तर्क करते हैं कि रात्रिभोजनका हिंसामें अंतर्भाव नहीं हो सकता वह बिलकुल अलीक है । जैसे हिंसाका स्वरूप स्पष्ट समझानेके लिए झूठ बोलना, चौरी करना इत्यादि भेद जुदा जुदा कर दिया है। वैसे ही रात्रिभोजनका हिंसामें अंतर्भाव होनेपर भी कोई २ आचार्य शिष्योंका भ्रम दूर करनेके लिए उसका हिंसासे पृथक् कथन करते हैं। - अह्नो मुखेऽवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजेत् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभोजनम् ॥ ८६ ॥ सूर्योदयके बादकी दो घड़ी और सूर्यास्तके पहलेकी दो घड़ी छोड़कर जो भोजन करते हैं-दो घड़ी दिन चढ़ जानेके बादसे लेकर दो घड़ी दिन बाकी रहे तकके समयमें जो भोजन करता है, रात्रिमें भोजन करनेको महापाप जाननेवाला वह पुरुष पुण्यभोजन करता है ॥ ८६ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सोमसेनभट्टारकविराचैत पांच अणुव्रत पालनेके फल । पञ्चाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकम् । यत्रावधिरष्टगुणा विद्यन्ते कामदा नित्यम् ॥ ८७ ॥ अतीचार रहित पालन की हुई ये पांच अणुव्रतरूपी निधियां स्वर्गलोकको फलती हैं, जहांपर अवधिज्ञान प्राप्त होता है और अच्छे मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥ ८७ ॥ ___ तीन गुणव्रत। दिग्वतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । अनुबृंहणादगुणानामाख्यन्ति गुणवतान्याः ॥ ८८ ॥ दिखत, अनर्थदंड व्रत और भोगोपभोग-परिमाण व्रत, ये तीनों मद्यत्याग आदि आठ मूलगुणोंकी रक्षा करते हैं उनको निर्मल बनाते हैं, इसलिए गणधरादि महापुरुषोंने इन्हें गुणव्रत कहा है ॥ ८८॥ दिग्ब्रतका स्वरूप। दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिन यास्यामि । इति सङ्कल्पो दिखतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्य ॥ ८९॥ सूक्ष्म पापोंकी निवृत्ति के लिए मरणपर्यंत पूर्व आदि दशों दिशाओंमें अमुक परिमाणके बाहर मैं नहीं जाऊंगा, इस तरहके नियम करलेनेको दिग्व्रत कहते हैं ॥ ८९ ॥ मकराकरसरिदटवीगिरिजनपदयोजनानि मर्यादाम् । पाहुर्दिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥ ९० ॥ पूर्व आदि दशों दिशाओंके त्याग करने में प्रसिद्ध २ समुद्र, नदी, अटवी, पर्वत, देश और योजन तककी मर्यादा-सीमा कही है । भावार्थ--अमुक अमुक दिशामें अमुक अमुक समुद्रसे, नदीसे, अटवीसे, पर्वतसे, देशसे या इतने योजनोंसे परे ( आगे) नहीं जाऊंगा, इस तरह पर्वता. दिकों तककी सीमा की जाती है ॥ ९ ॥ दिग्विरति व्रतके पांच अतीचार । ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाताः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् । विस्मरणं दिग्विरतरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ॥ ९१ ॥ अज्ञान अथवा प्रमादवश ऊपरकी सीमाका उल्लंघन करना, नीचेकी सीमाका उल्लंघन करना, तिथंगरूपसे सीमाका उल्लंघन करना, की हुई मर्यादासे कुछ क्षेत्र बढ़ा लेना, और मर्यादा की हुई मीमाका स्मरण न रखना, ये पांच दिग्विरति व्रतके अतीचार है । दिग्विरति व्रतीको इन अतीचारोंका त्याग करना चाहिए ॥ ९१ ॥ ___ अनर्थदण्डविरति व्रतका स्वरूप । अभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थकेभ्यः सपापयोगेभ्यः । .. विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुव्रतधराग्रण्यः ॥ ९२ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैर्णकाचार | २९७ व्रतधारी पुरुषोंमें अग्रेसर गणधरादि देव, दिशाओंकी मर्यादाके भीतर भीतर प्रयोजन-रहित पापके कारणोंसे विरक्त होनेको अनर्थदण्ड- विरति व्रत कहते हैं ।। ९२ ॥ अनर्थदण्डव्रत के पांच भेद । पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च । माहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ।। ९३ ।। प्रयोजनरहित कार्योंको न करनेवाले पुरुष, पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या, इन पांचको अनर्थदण्ड कहते हैं । भावार्थ - इन पांच कामोंको करना अनर्थदण्ड है ॥ ९३ ॥ पापोपदेश | तिर्यक्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम् । कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः ।। ९४ ॥ तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आरंभ, प्रलंभन ( ठगाई) आदि कथाओंके प्रसंग उठाने को पापोपदेश नामा अनर्थदण्ड कहते हैं ॥ ९४ ॥ हिंसा - दान | परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधगृङ्गशृङ्खलादीनाम् । वहतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ।। ९५ । फरसा, तलवार, कुदाली, अमि, आयुध, सींग, शांकल आदि हिंसा के कारणोंके देने को बुद्धिमान पुरुष, हिंसादान नामा अनर्थदण्ड कहते हैं ॥ ९५ ॥ अपध्यान । वधबन्धच्छेदादेर्देषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । अध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ।। ९६ ।। द्वेष तथा रागसे दूसरेकी स्त्री, पुत्र आदिके मरजाने, बँध जाने, कट जाने आदिका चिन्तवनं करनेको जिन-शासनमें कुशल पुरुष अपध्यान नामा अनर्थदण्ड कहते हैं ॥ ९६ ॥ दुःश्रुति । आरम्भसङ्गसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनैः । चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥ ९७ ॥ आरंभ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राम, मद और मदन ( काम ) द्वारा चित्तको मलिन करनेवाले शास्त्रोंका सुनना दुःश्रुति नामा अनर्थदण्ड है ।। ९७ ॥ प्रमादचर्या । क्षितिसलिलदहन पवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम् । सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ।। ९८ ॥ विना प्रयोजन जमीन खोदना, पानी उछालना, अग्नि जलाना, हवा करना, वनस्पती तोड़ना, घूमना और औरों को घुमाना, इन सबको प्रमादचर्या नामा अनर्थदण्ड कहते हैं ॥ ९८ ॥ ३८ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ सोमसेनभट्टारकविरचित अनर्थदण्डके अतीचार। कन्दर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमतिसाधनं पञ्च । असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरतेः ॥ ९९ ॥ हास्यमिश्रित चकारादि वचन बोलना, कायके द्वारा कुचेष्टा करना, वृथा बकवाद करना, बिना प्रयोजन भोगोपभोगकी सामग्री बढ़ाना, और बिना विचारे किसी कार्यको करना, ये पांच अनर्थ दंडविरति व्रतके अतीचार हैं । अनर्थदंडसे विरक्त पुरुषको इनका त्याग करना चाहिए ॥ ९९ ॥ भोगोपभोगपरिमाण व्रत । अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अर्थवतामप्यवधी रागरतीनां तनूकृतये ॥ १० ॥ राग-भावोंको घटानेके लिए परिग्रहपरिमाण व्रतमें परिमाण किये हुए विषयों से भी प्रयोजनभूख पंचेंद्रियों के विषयोंका परिमाण करना भोगोपभोगपरिमाण व्रत है ।। १०० ॥ भोग और उपभोगका लक्षण । भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः। उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पञ्चेन्द्रियो विषयः ॥ १०१॥ भोजन, वस्त्र आदि पंचेन्द्रियसम्बंधी विषय, जो एक वार भोगकर त्याग देने योग्य हैं उन्हें भोग, और जो भोगकर फिर भोगनेमें आते हैं उन्हें उपभोग कहते हैं ॥ १०१ ॥ भोगोपभोगपरिमाण व्रतमें विशेष त्याग। त्रसहतिपरिहारार्थ क्षौद्र पिशितं प्रमादपरिहृतये। मधं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥ १०२ ॥ जिन भगवानकी शरण ग्रहण करनेवाले पुरुषोंको त्रसजीवोंकी हिंसाका परिहार करनेके लिए मधु और मांसका तथा प्रमाद दूर करनेके लिए मद्यका त्याग करना चाहिए ।। १०२ ॥ अल्पफलबहुविधातान्मूलकमाणि शृङ्गबेराणि। नवनीतनिम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् ॥ १०३ ॥ जिनके भक्षण करनेसे जिह्वा इन्द्रियको फल कम मिलता हो और जीवोंका घात अधिक होता हो ऐसे सचित्त अदरख, मूली, गाजर, तथा मक्खन, नीम और केतकीके फूल, इस तरहकी चीजोंका भी त्याग करना चाहिए । भावार्थ-मद्य, मांसादिकोका त्याग यद्यपि अष्ट मूल्यगुणोंके समय हो का था, तथापि फिर यहां भोगोपभोग व्रतमें भी इनका त्याग कराया है। इसलिए यहां इनके त्यागसे अतिचारोंका त्याग समझना चाहिए । अथवा पुनः पुनः त्यागका जो कथन किया जाता है वह व्रतशुद्धि तथा त्याग करनेवालेको स्मृति बनी रहे इसलिए किया जाता है॥ १.३॥ पंच उंदुबर-त्यागका कारण। सूक्ष्माः स्थूलास्तथा जीवाः सन्त्युदुम्बरमध्यगाः। तन्निमित्तं जिनोद्दिष्टं पञ्चोदुम्बरवर्जनम् ॥ १०४॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dafoneचार २९९ 1 पंच उदुंबरोंमें सूक्ष्म स्थावरजीव और स्थूल सजीव बहुत होते हैं। इसलिए इन जीवकी रक्षाके निमित्त श्रोजिनदेवने पंच उदुंबर के त्यागनेका उपदेश दिया है ।। फल-भक्षण- त्याग । १०४ ॥ रससम्पृक्तफलं यो दशति त्रसतनुरसैश्व सम्मिश्रम् । तस्य च मांस निवृत्तिर्विफला खलु भवति पुरुषस्य ॥ जो पुरुष सजीवों के शारीरिक रससे मिले हुए रसीले फलोंको खाता है व्रत व्यर्थ है । भावार्थ - जिन फलों में सजीव हों उन फलोंको नहीं खाना चाहिए ॥ १०५ ॥ छ जलकी मर्यादा | गालितं शुद्धमप्यम्बु सम्मूच्छति मुहूर्ततः । अहोरात्रात्तदुष्णं स्यात्काञ्जिकं दूरवह्निकम् ।। १०६ ॥ छने हुए शुद्ध और किसी पदार्थद्वारा विकृत न किये गये कुए बावड़ीके जलमें दो घड़ीके बाद त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। गर्म किये हुए जलमें एक दिन-रात के बाद - आठ पहरके पीछे त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । और कांजिकमें ठंडे हो जानेके बाद ही जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥ १०६ ॥ तिलतण्डुलतोयं च प्रासुकं भ्रामरीगृहे । १०५ ॥ उसका मांस त्याग न पानीयं मतं तस्मान्मुखशुद्धिर्न जायते ।। १०७ । जिस घर में भिक्षा के लिए जाते हैं और चॉवल धोये हों वह पानी प्रासुक है; योग्य नहीं माना गया है ।। १०७ ।। जल प्राशुक करने की विधि | एलालवङ्गतिलतण्डुलचन्दनार्थः, कर्पूरकुंकुमतमालसुपलबैश्च । सुप्रासुकं भवति खादिरभस्मचूर्णैः पानीयमनिपचितं त्रिफलाकषायैः ।। १०८ ॥ इलायची, लौंग, चंदन, कपूर, केसर, ताडवृक्षके कोमल पत्ते, खैर वृक्षकी लकड़ीकी राख तथा त्रिफला चूर्णसे, तिल चावलोंके धोनेसे और अग्निमें गर्म करनेसे पानी प्रासुक हो जाता है ।। १०८ ।। उसको 'भ्रामरी घर' कहते हैं । ऐसे घर में जिससे तिल परन्तु उससे मुखशुद्धि नहीं होती, इसलिए वह पीने " चम्मद जलणे हे उप्पज्जइ वियलतियं पंचिदियं । संघाने पुण भुत्ते सीइजुए मंसवए अइचारी ॥ १०९ ॥ चमड़े के वर्तनमें भरे हुए पानी, घृत वगैरह में दो-इंद्रिय, तीन-इंद्रिय, चार- इंद्रिय और पांचइंद्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं । इनको तथा संधान- नीबू, आम आदिका आचार खानेसे मांस त्याग व्रतमें दोष आता है ॥ १०९ ॥ 'शिक्षावत के भेद | देशावकाशिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा । वैयावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ ११० ॥ १ नोट - यद्यपि क्रमानुसार यहां इस भोगोपभोगपरिमाण व्रतके और आगेके शेष व्रतोंके भी अतीचार कहने चाहिए थे। परंतु सामान्य संग्रह ग्रन्थ होनेके कारण नहीं कहे हैं । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, और वैयावृत, ये चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं । कालके परिमाणसे प्रतिदिन बड़े बड़े देशोंके कम करनेको देशावकाशिक व्रत कहते हैं ॥ १० ॥ ‘दशावकाशिकव्रतकी मर्यादा । गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावय जनानां च । देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः ॥ १११॥ तपोवृद्ध गणधर दि आचार्य देशावकाशिक व्रतकी सीमा अपना घर, गली, ग्राम, क्षेत्र, नदी, अरण्य और योजन तककी बताते हैं ॥ १११ ॥ सामायिक व्रत । आसमयमुक्ति मुक्तं पञ्चाघानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥ ११२ ॥ - सामायिक करनेवाले बड़े बड़े ऋषीश्वर मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा सब जगह किसी नियत समय पर्यन्त पंच पापोंके त्यागको सामायिक व्रत कहते हैं। इसे ही सामान्यतया पामायिक प्रतिमा समझना चाहिए ॥ ११२ ॥ प्रोषधोपवास । पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः पोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः॥ ११३ ॥ अष्टमी और चतुदर्शी पर्वके दिन, प्रशस्त भावोंसे चार प्रकारके आहारके त्यागको प्रोषधोपवास जानना चाहिए । यही सामान्यतया प्रोषधोपवास नामकी चौथी प्रतिमा है ॥ ११३ ।। वैयावृत्य । दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारापक्रियमगृहाय विभवेन ॥ ११४ ।। सम्यग्दर्शनादि गुणोंके खजाने, द्रव्य-भाव-घर-रहित तपोधन महामुनियोंको, धर्मके निमित्त, प्रत्युपकारकी किसी तरहकी इच्छा न रखते हुए, भारी उत्साह के साथ दान देना वैयावृत्त्य है ॥११४॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संय मनाम् ॥ ११५ ॥ गुणोंमें प्रीति धारण कर, उन संयमी महामुनियों की हर प्रकारकी आपत्तिको दूर करना, उनके चरणोंको दबाना अर्थात् पांव-दाबना, तथा और भी जितनाभर उपकार अपनेसे बन सके करना, वैयावृत्त्य है ॥ ११५॥ दानविधि। नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ॥ ११६ ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | ३०१ आगेत्रे श्लोकमें कहे हुए सात गुण - सहित, शुद्ध भावोंसे कूटने, पीसने, चूल्हा सुलगाने, पनी भरने और बुहारी देनेके आरंभसे रहित महामुनियोंका नवधा भक्ति द्वारा आदर सत्कार करनाआहार देना दान कहा जाता है ॥ ११६ ॥ नौ पुण्य स्थापनमूचैःस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणाम । वाक्कायहृदयैषणशुद्धय इति नवविधं पुण्यम् ॥ ११७ ॥ आहार पानी शुद्ध है, ठहरिये - ठहरिये, इस तरह पड़गाहना, बैठनेको ऊंचा आसन देना, पैर प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मन-वचन-कायकी शुद्धि रखना, और शुद्ध आहार देना, ये नौ पुण्य हैं। इन नौ पुण्यों-पूर्वक अतिथियों को आहार देना चाहिए ।। ११७ ॥ दाताके सात गुण । श्रद्धा भक्तिस्तुष्टिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमा सत्वम् । सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।। ११८ ॥ जिस दातामें श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और धैर्य, ये सात गुण हैं, वह दाता प्रशंसा के योग्य है ॥ ११८ ॥ ग्यारह प्रतिमा ! दंसणवयसमाइयपासहसचित्तराइभत्ते य । बंभारंभपरिग्गहअणुमणुमुद्दिह देशविरदेदे ॥ ११९ ॥ दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्तत्याग प्रतिमा, रात्रिभक्त त्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरंभत्याग प्रतिमा, परिग्रहत्याग प्रतिमा, अनुमतित्याग प्रतिमा, और उद्दिष्टत्याग प्रतिमा, ये ग्यारह प्रतिमाएं हैं, जो देशविरत - पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकों के होती हैं ॥ ११९॥ दर्शन सामायिकमोषधोपवासकाः । प्रोक्ताः प्रागेव मोचेऽथ सचित्तव्रतलक्षणम् ॥ १२० ॥ दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा और प्रोषधोपवास प्रतिमा, इन चार प्रतिमाओंका लक्षण जो पहले कह आये हैं वही है । अब सचित्तत्याग प्रतिमाका लक्षण कहते हैं । भावार्थपहले जो सम्यग्दर्शन और अष्ट मूलगुणों को कह आये हैं उसे दर्शनप्रतिमा समझना चाहिए । निरतिचार पांच व्रतों और सात शीलोंका पालना व्रत प्रतिमा है, जिनका पूर्वमें कथन कर आये हैं । जो सामायिक - शीलका पहले लक्षण कह आये हैं वही संक्षेपसे सामायिक प्रतिमा है । और जो प्रोषघोपवासशील है वही प्रोषधोपवास प्रतिमा है । अब पांचवीं सचित्त-त्याग - प्रतिमा कहते हैं ॥ १२१ ॥ I मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनवीजानि । नामानि योsति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥ १२१ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ . सोमसेनभष्ट्रारकविरचित __ जो कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर (बांसकी कौंपल वा कैर अर्थात् कैर वृक्षका फल), कन्द, पुष्प और बीज नहीं खाता है वह दया मूर्ति इंद्रियोंकी लंपटता-रहित पुरुष, सचित्तत्याग प्रतिमाधारी है ॥ १२१॥ सचित्तत्यागीकी प्रशंसा। येन सचित्रं त्यक्तं दुर्जयजिव्हाऽपि निर्जिता तेन । जीवदया तेन कृता जिनवचनं पालितं तेन ॥ १२२ ॥ जिसने सचित्तका त्याग कर दिया, समझ लो कि, उसने अपनी दुर्जय जिह्वाको भी जीत लिया, जीवदयाका पालन कर लिया और जिन-वचनोंका भी परिपूर्ण पालन कर लिया ॥ १२२ ।। प्रासुक द्रव्यका लक्षण । तत्तं मुक्कं पक्कं अंबिललवणेन मीसियं दव्वं । जे जेतेण य छिण्णं तं दव्वं फासुयं भणियं ॥ १२३ ॥ जो अग्निसे तपाया गया हो, सूर्यकी धूप आदिसे सुखाया गया हो, पका हुआ हो, खटाई-नमक मिला हुआ हो, चाकू आदिसे छिन्न भिन्न किया गया हो वह सब द्रब्य प्रासुक-जीवरहित है।।१२३॥ रात्रि-भुक्ति-त्याग प्रतिमा।.. __ अनं पानं खाधं लेां नानाति यो विभावयोम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ १२४ ॥ . जो रातमें अन्न, पान, खाद्य और लेह्य, इन चार प्रकारके आहारोंको नहीं करता है वह . जीवोंपर दयालु-चित्त रात्रि-भोजन-त्याग नामकी प्रतिमाका धारी है । ।। १२४ ॥ भावार्थ-मूलाचार आदिमें अन्न, पान, खाद्य और स्वाद्य, ये आहारके चार भेद कहे हैं । अतः स्वाद्यमें लेह्यको या लेह्यमें स्वाद्यको अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। इन चारोंका लक्षण यह है । दाल, भात, रोटोको अन्न -अशन कहते हैं। दूध, जल आदिको पेय या पान कहते हैं। पूवे, पूरी, कचोरी, लड्डु आदिको खाद्य कहते हैं। तथा पान, सुपारी, इलायची, अनार, संतरे आदिको स्वाद्य कहते हैं। जैसे: . मौद्गौदनाद्यमशनं क्षीरजलायं मतं जिनैः पेयं । ... ताम्बूलदाडिमा स्वायं खाद्यं त्वपूपाद्यं ॥ रात्रिभोजन-त्यागीकी प्रशंसा। यो निशि भुक्तिं मुश्चति तेनानशनं कृतं च षण्मासम् । संवत्सरस्य मध्ये निर्दिष्टं मुनिवरेणेति ॥ १२५ ॥ जो पुरुष रातमें नहीं खाता है, समझो कि, उसने सालभरमें छह माह उपवास किये, ऐसा मनि लोग कहते हैं ॥ १२५ ॥ रात्रिभुक्त व्रतका दूसरा स्वरूप। मणवयणकायकदिकारिदाणुमोदेहि मेहुणं णवधा । दिवमम्मि जो विवज्जदि गुणम्मि सावओ छहो ॥ १२६ ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। _____ जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना, इन नौ अंगोंके द्वारा दिनमें मैथुन नहीं करता है वह छठी प्रतिमाधारी श्रावक है ।। १२६ ।। ब्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप । पुव्वत्तणवविहाणं पि मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो। इच्छकहादिणिवत्ती सत्तमं बह्मचारी सो ॥ १२७ ॥ जो ऊपर कहे हुए नौ प्रकारसे दिन और रात दोनों समयोंमें भैथुन नहीं करता है, तथा स्त्री-कथा आदिका त्यागी है, वह पूर्ण ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी सातवां श्रावक है ।। १२७ ।। ब्रह्मचारीके भेद। उपनयावलम्बी चादीक्षिता गूढनैष्ठिकाः।। श्रावकाध्ययने प्रोक्ताः पंचधा ब्रह्मचारिणः ॥ १२८ ॥ उपनय ब्रह्मचारी, अवलंब ब्रह्मचारी, अदीक्षित ब्रह्मचारी, गूढ ब्रह्मचारी आर नैष्ठिक ब्रह्मचारी, ऐसे पांच प्रकारके ब्रह्मचारी होते हैं, जो श्रावकाचार पढ़ने के योग्य कहे गए हैं ।। १२८ ॥ ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च सप्तमे। चत्वारो ये क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमाः ॥ १२९ ॥ -- जैसे उपासकाध्ययन नामके सातवें अंगमें क्रियाभेदसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चार जुदे जुदे वर्ण कहे गए हैं, वैसे ही उसी अंगमें क्रियाभेदसे ब्रह्मचारी, गृही, वानप्रस्थ और भिक्षु, ये चार आश्रम कहे गए हैं ।। १२९ ॥ उपनयन ब्रह्मचारीका लक्षण । श्रावकाचारसूत्राणां विचाराभ्यासतत्परः। गृहस्थधर्मशक्तश्वोपनयब्रह्मचारिकः ॥ १३० ॥ जो प्रथम श्रावकाचारके सूत्रोंके विचारने और अभ्यास करनेमें तत्पर रहता है और पश्चात् गृहस्थ-धर्म में प्रविष्ट होता है, वह उपनयन ब्रह्मचारी है। भावार्थ-जो यज्ञोपवीत संस्कारसे संस्कृत होकर गुरुके पास उपासकाध्ययन शास्त्र पढ़ता है और विद्या-समाप्ति-पर्यन्त परिपूर्ण ब्रह्मचारी रहता है-विद्या समाप्त हो जाने के बाद गृहस्थ-धर्मको स्वीकार करता है-विवाहादि कार्य करता है, वह उपनयन ब्रह्मचारी है।। १३० ॥ अवलंबब्रह्मचारीका स्वरूप । स्थित्वा क्षुल्लकरूपेण कृत्वाऽऽभ्यासं सदाऽऽगमे । कुर्याद्विवाहकं सोऽत्रावलम्बब्रह्मचारिकः ॥ १३१ ॥ जो क्षुल्लकका वेष धारणकर आगमका अभ्यास करनेके बाद विवाह करता है वह अवलंब ब्रह्मचारी है ॥३१॥ __ अदीक्षाब्रह्मचारीका लक्षण । विना दीक्षा व्रतासक्तः शास्त्राध्ययनतत्परः । पठित्वोद्वाहं यः कुर्यात्सोऽदीक्षाब्रह्मचारिकः ॥ १३२ ।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सोमसेनभट्टारकविरचित - जो दीक्षा धारण किये बिना ही व्रतोंमें आसक्त होकर शास्त्रोंका अध्ययन करनेमें तत्पर है, और शास्त्र पढ़ चुकनेके बाद विवाह-संस्कार करता है वह अदीक्षा ब्रह्मचारी है ॥ १३२ ।। __गूढ़ ब्रह्मचारीका लक्षण । आ बाल्याच्छास्त्रसत्पीतः पित्रादीनां हठात्पुनः। पठित्वोद्वाहं यः कुर्यात्स गूढब्रह्मचारिकः॥१३३ ॥ जो बालकपनसे ही शास्त्रोंमें प्रीति करता है-शास्त्र का अध्ययन करता है और अध्ययन कर चुकने के बाद पिता आदिके हठसे मजबूर होकर विवाह करता है वह गूढ ब्रह्मचारी है ॥ १३३॥ नैष्ठिक ब्रह्मचारीका लक्षण । यावज्जीवं तु सर्वस्त्रीसङ्गं करोति नो कदा। . नैष्ठिको ब्रह्मचारी स एकवस्त्रपरिग्रहः॥ १३४॥ जो जन्मसे लेकर जीवनपर्यन्त कभी भी स्त्री संग नहीं करता है वह एक वस्त्र पहनकर जन्म बितानेवाला नैष्ठिक ब्रह्मचारी है। भावार्थ-नैष्ठिक ब्रह्मचारीके सिवा बाकीके ब्रह्मचारी जो जो अवस्थाएँ उनके लिए बताई गई हैं उन उन अवस्थाओंमें रहकर शास्त्राध्ययन कर चुकनेके बाद विवाह-संस्कार कर लेते हैं, किन्तु नैष्ठिक ब्रह्मचारी विवाह नहीं करता । यही इन सबोंमें क्रियाभेद है। इसी क्रिया-भेदके कारणसे इनमें भेद है ॥ १३४ ॥ गृहस्थका स्वरूप। सन्ध्याध्ययनपूजादिकमेसु तत्परो महान् । त्यागी भोगी दयालुश्च सद्गृहस्थः प्रकीर्तितः ॥ १३५ ॥ जो सन्ध्या, शास्त्रस्वाध्याय, पूजा आदि छह कोंमें तत्पर है, अनिष्ट वस्तुओंका त्यागी है, इष्ट वस्तुओंका भोगी है और प्राणियोंपर दया करता है वह उत्तम गृहस्थ कहा गया है ॥ १३५॥ वानप्रस्थका लक्षण । प्रतिमैकादशधारी ध्यानाध्ययनतत्परः॥ माकषायाद्विदूरस्थो वानप्रस्थः प्रशस्यते ॥ १३६॥ ___ जो ग्यारहवीं प्रतिमाका धारी है, ध्यान-अध्ययनमें तत्पर है, और क्रोधादि कषायोंसे अत्यन्त दूर है-कषायभाव नहीं करता है, मंद कषायी है, वह वानप्रस्थ प्रशंसनीय है ॥ १३६ ॥ भिक्षुका स्वरूप । सर्वसङ्गपरित्यक्तो धर्मध्यानपरायणः । ध्यानी मौनी तपोनिष्ठः स ज्ञानी भिक्षुरुच्यते ॥ १३७ ॥ जो बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहका त्यागी है, धर्म-ध्यानमें लीन रहता है, मौनव्रत रखता है। तपमें निष्ठ है वह ज्ञानी, भिक्षु-मुनि है ।। १३७ ॥ . आरंभत्याग प्रतिमा । सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखारम्भतो व्युपरतिः । माणातिपातहेतोर्याऽसावारम्भविनिटात्तः॥१३८॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णिकाचार। जो जीवोंकी हिंसाके कारण नौकरी, खेती वगैरह सब तरहके व्यापार आदिसे विरक्त होता है वह आरंभत्याग-प्रतिमा-धारी श्रावक है ॥ १३८ ॥ परिग्रह-त्याग-प्रतिमा। मोत्तूण. वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जदे सेसं.। तत्थ विमुच्छं ण करेदि वियाण सो सावओ णवमो॥ १३९ ॥ जो पहनने ओढ़नेके वस्त्रमात्रको छोड़कर बाकीके सब तरहके परिग्रहोंका त्याग करता है, और जो वस्त्र अपने पास है उनमें भी ममत्वपरिणाम नहीं करता है, वह नवमा परिग्रहत्यागी श्रावक है ॥ १३९ ॥ बाह्य परिग्रहके भेद। ...... क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं दासी दासश्चतुष्पदम्। . . ...... यानं शय्यासनं कुप्यं भाण्डं चति बहिदश ॥१४० ॥ क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, दासी, दास, चतुष्पद (चौपाये ), यान-शय्या-आसन, कुष्य और भांड, ये दश बाह्य परिग्रह हैं ॥ १४० ॥ - अन्तरंग परिग्रह के भेद । मिथ्यात्ववेदहास्यादिषट्कषायचतुष्टयम् । रागद्वेषौ च सङ्गाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुदेश ॥ १४१॥ मिथ्यात्व, वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष, ये चौदह अंतरंग परिग्रह हैं ॥ १४१ ॥ बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजास्तु पापतः सन्ति। पुनरभ्यन्तरसङ्गत्यागी लोकेऽतिदुर्लभी जीवः ॥ १४२॥ . ... पापके उदयसे कई दरिद्री मनुष्य बाह्य परिग्रहसे रहित होते हैं, किंतु अभ्यन्तर परिग्रहका त्यागी जीव लोकमें अत्यंत दुर्लभ है ॥ १४२ ॥ .. .. अनुमति-त्याग प्रतिमा । ..... .. .. पुट्टो वा पुष्टो वा णियगेहपरेहि सगिहकज्जे। अणुमणणं जो ण कुणदि वियाण सो साववो दसमो ॥१४३॥ जो अपने स्त्री पुत्र आदिके पूछनेपर. अथवा न पूछनेपर किसी तरह. भी इस लोकसंबंधी घरके कामों में अपनी राय नहीं देता है उसे अनुमति-त्याग नामका दशवाँ श्रावक समझना चाहिए ॥ १४३ ॥ उद्दिष्ट-त्याग प्रतिमा। एकादशके स्थाने सूत्कृष्टः श्रावको भवेत् द्विविधः। वस्खैकधरः प्रथमः कोपीनपरिग्रहोऽन्यस्तु ॥ १४४ ॥ ग्यारहवें स्थानवर्ती श्रावक उत्कृष्ट श्रावक कहा जाता है, जो दो तरहका है। एक खंडवस्त्र-धारी और दूसरा कौपीन-धारी ॥ १४४ ॥ ३९ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेमभट्टारकविरचितगृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भिक्षाशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः॥१४५॥ जो घरसे निकलकर मुनिवनमें जाकर गुरुके समीप व्रत धारण कर तपश्चरण करता हुआ भिक्षाभोजन करता है और खंडवस्त्रधारी या कौपीनधारी है वह उत्कृष्ट श्रावक है ॥ १४५ ।। अथाशाधरः-स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने । स श्रावकग्रह गत्वा पाणिपास्तदङ्गणे ॥ १४६॥ स्थित्वा भिक्षा धर्मलाभं भणित्वा माथयेद्वा । मौनेन दर्शयित्वाऽङ्ग लाभालाभे समोऽचिरात् ॥ १४७ ॥ निगेत्यान्यगृहं गच्छद्भिक्षोयुक्तश्च केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यात्तद्भुक्त्वा यद्भिक्षित मनाक् ॥ १४८ ।। मार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत्स्वोदरपूरणीम् । लभेत मासु यत्रांभस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥ १४९ ।। पंडितप्रवर आशाधरजी इस विषयमें कुछ विशेष कहते हैं । इस उत्कृष्ट श्रावकके दो भेद हैं। एक क्षुल्लक और दूसरा ऐलक । प्रथम क्षुल्लकके विषय में कहते हैं कि वह बैठकर अपने हाथ में अथवा वर्तनमें भोजन करे । श्रावकके घरपर खाली हाथ जावे । श्रावकके घरके आँगन में खड़ा रह. कर 'धर्म-लाभ हो' ऐसा कहकर भिक्षाकी प्रार्थना करे अथवा मौनपूर्वक दाताको अपना शरीरमात्र दिखाकर भिक्षा मांगे । भिक्षा मिलने तथा न मिलनेपर राग-द्वेष छोड़ समता-भाव धारण करे । वहांसे निकलकर दूसरे घरमे जावे । यदि भिवाके समय किसी श्रावकने अपने घरपर भोजन करनेक प्रार्थना की हो तो जो कुछ उसे पहले किसी घरपर भिक्षा मिली हो, प्रथम उसे खाकर, बाद उसके घरका अन्न-भक्षण करे। यदि किसीने भोजनकी प्रार्थना न की हो तो अपना पेट भरने लायक भिक्षा मांगे । और जिस श्रावकके घरपर प्रासुक जल मिल जाय वहीं बैठकर उस भिक्षाको देख-भालकर खावे ॥ १४६-१४९ ॥ कौपीनोऽसौ रात्रिप्रतिमायोगं करोति नियमेन । लोचं पिच्छं धृत्वा भुङ्क्ते ह्युपविश्य पागिपुटे ॥ १५० ॥ दूसरा ऐलक श्रावक फक्त कौपीन पहने, नियमसे रात्रिमें प्रतिमायोग धारण करे, लौंच करे, पिच्छी रक्खे, और बैठकर पाणिपुटमें भोजन करे ॥ १५ ॥ देशविरतीका विशेष क व्य । वीरचर्या च सूर्यमतिमा त्रैकाल्ययोगनियमश्च । सिद्धान्तरहस्यादावध्ययन नास्ति देशविरतानाम् ॥१५१ ।। देशविरती श्रावकोंको वीरचर्या-भ्रामरी-वृत्तिसे भोजन करने, दिन प्रतिमा, त्रिकालयोगगर्मी में पर्वतके ऊपर, वर्षा में वृक्षके नीचे, शीतकालमें नदी-समुद्रके किनारे अथवा चौहटमें योग धारण करने और सिद्धांतशास्त्र, प्रायश्चित्तशास्त्र आदिका अध्ययन करनेका अधिकार नहीं है॥१५॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवणिकाचार। ی بی سی ای سی سی کی ب پانی میں سی ایم بی wwwww wwwmarwarivir आद्याः स्युः षद् जघन्याः स्युमेध्यमास्तदनु त्रयः। शेषों द्वावुत्तमावुक्ता जैनेषु जिनशासने ॥ १५२॥ इन ग्यारह प्रतिमाओं से पहलेकी छह प्रतिमाएँ जघन्य हैं, उसके बाद की तीन मध्यम है, और बाकीकी दो प्रतिमाएँ जैनोंके जिनोक्त शास्त्र में उत्तम कही गई हैं ॥ १५२ ।। सद्वतानि गुरूक्तानि चेति श्रुत्वोपनीतवान् । गृह्णीयाच यथाशक्ति अमुत्रात्र सुखावहम् ॥ १५३॥ इस तरह वह यज्ञोपवीतधारी श्रावकका बालक, इस लोक और परलोकमें सुखदेनेवाले गुरु. मुखसे सुने हुए उपरोक्त व्रतोंको यथाशक्ति ग्रहण करे ॥ १५३ ॥ वाद्यादिविभयुक्तो गृहं गत्वा स धर्मधीः । ताम्बूलैः स्वजनान् सर्वान्मानयेद्धर्महेतवे ॥ १५४ ॥ इसके बाद वह धर्म-बुद्धि बालक, गाजे-बाजे आदि विभवके साथ घरपर जाकर अपने सारे स्वजनोंका धर्मके हेतु तांबूलद्वारा सत्कार करे ॥ १५४ ॥ यज्ञोपवीतं कथितं मुनीन्द्र, रत्नत्रयं वा व्यवहाररूपम् । त्रिवर्गपुम्भिार्धियते मनोज्ञ, धर्मार्थकामाभिमुखैः सुखाय ॥ १५५ ॥ .इस यज्ञोपवीतको मुनिवरोंने बाह्य रत्नत्रय बताया है । इसलिए धर्म, अर्थ और कामके सन्मुख, तीनों वर्गों के मनुष्योंको सुखके लिए यह परम पवित्र सुन्दर यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए ॥ १५५ ॥ विद्याभ्यासः सदा कार्यः सतां मध्ये सुभूषणम् । सत्पूरुष स्त्वदं मोतं सोमसेनैः शिवाप्तये ॥ १५६ ॥ मनुष्यों को विद्याका अभ्यास हमेशह करना चाहिए । यह विद्या सज्जनोंका भूषण है । इसीका सजन सोमदेवने सबके कल्याणके लिए कथन किया है ॥ १५६ ॥ इत्येवं कथितानि जेनसमये सारवतानि क्षितौ, ये कुर्वन्ति सुधर्मसञ्चितधियो धन्यास्तु ते मानवाः। संस राम्बुधिपारगाः शिवमुखं प्राप्ता इव प्रस्तुता, देवेन्द्रादिमुरैनराधिपगणः श्रीसोमददैः पुनः॥ १५७ ॥ इस प्रकार जिनागमके अनुसार ये उत्तम व्रत कहे गये हैं। इनका जो धार्मिक पुरुष सेवन करते हैं वे धन्यवादके पात्र हैं। वे मानों संसार-समद्रसे पार होकर मोक्षसुखको ही प्राप्त कर चुके हैं, इस तरह इंद्रादि देवों. बड़े बड़े राजाओं तथा सोमदेवद्वारा स्तवन किये जाते हैं ॥ १५७ ॥ इतिश्रीधर्मरसिकशास्त्र त्रिवर्णाचारनिरूपणे भट्टारकश्रीसोमसेनविरांचते व्रतस्वरूपकथनियोनाम दशमोऽध्यायः समाप्तः। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचितग्यारहवाँ अध्याय । वन्दे त्वां जिनवर्द्धमानमनघं धर्मद्रुसद्धीजकं... कर्मारातितमोदिवाकरसमं नानामुणालंकृतम् ।। स्याद्वादोदयपर्वताश्रिततरं सामन्तभद्रं वचः पायानः शिवकाटिराजमाहितं न्यायकपात्रं सदा ॥१॥ धर्म-वृक्षके बीजभूत, कर्म-शत्रुरूप अगाढ़ अन्धकारको नाश करनेके लिए सूर्यके समान, अनेक गुणों से अलंकृत और अघाति-मलरहित. श्रीवर्धमान परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। तथा जो स्याद्वादरूपी उदयाचलपर आरूढ, शिवकोटि महाराजके द्वारा पूज्यपनेको प्राप्त हुए और न्यायका एक अद्भुत पात्र श्रीसमन्तभद्रके वचन सदा हमारी रक्षा करें ॥ १ ॥ जिनसेनमुनि नत्वा वैवाहविधिमुत्सवम् । वक्ष्ये पुराणमार्गेण लौकिकाचारसिद्धये ॥ २॥ मैं श्रीजिनसेनस्वामीको नमस्कार कर, लौकिक आचरणकी प्राप्तिके लिए, पुराणके अनुसार विवाहविधि नामके महोत्सवका कथन करता हूं ॥ २ ॥ विवाह करनेके योग्य कन्या। अन्यगोत्रभवां कन्यामनातङ्क सुलक्षणाम् ।। आयुष्मती गुणाढ्यां च पितृदत्तां वरेद्वरः ॥ ३॥ - जो अन्य गोत्रकी हो-अपने गोत्रकी न हो, किन्तु सजाति हो; रोगरहित हो,उत्तम लक्षणोंवाली हो, दीर्घ आयुवाली हो, विद्या, शील आदि गुणोंसे भरी-पूरी हो और अपने पिताद्वारा दी हुई हो, ऐसी कन्याके साथ 'वर' विवाह करे ॥ ३ ॥ - वरका लक्षण । वरोऽपि गुणवान् श्रेष्ठो दीर्घायुर्व्याधिवर्जितः।। सुकुली तु सदाचारो गृह्यतेऽसौ सुरूपकः ॥४॥ ___ वर भी गुणवान्, श्रेष्ठ, दीर्घ आयुवाला, नीरोग, उत्तम कुलका, सदाचारी और रूपवान होना चाहिए ॥ ४ ॥ वरके गुण । सत्यं शौचं क्षमा त्यागः प्रज्ञौजः करुणा दमः। प्रशमा विनयश्चात गुणाः सत्त्वानुषङ्गिणः ॥ ५॥ सत्य, शौच (निर्लोभता), क्षमा, त्याग, विद्वत्ता, तेज, दयालुता, इंद्रिय-निग्रह, प्रथम और विनय, ये प्राणियोंमें रहनेवाले गुण हैं। इनका भी वरमें होना आवश्यकीय है ॥५॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। Ayurvedanwwww varwww घपुः कान्तिश्च दीप्तिश्च लावण्यं पियवाक्यता । कलाकुशलता चात शरीरान्वयिनो गुणाः ॥ ६ ॥ कुलजा तिवयोविद्याकुटुम्बरूपसम्पदः। चारित्रं पौरुषं चात शरीरान्वायना गुणाः ॥७॥ अच्छा सुडौल दृढ़ शरीर, कान्ति, दीप्ति, सौंदर्य, मधुर वचन; कलाओंमें कुशलता, उत्तम कुल, उत्तम जाति, वय (दीर्घायु), विद्या, परिवार, रूप, सम्पत्ति, चारित्र और पोरुष भनपुंसकता), ये शरीरसंबंधी गुण हैं, जो वरमें होने चाहिए ॥ ६-७ ॥ ............. .. पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चाल्लक्षणमेव च । आयुहीनजनानां च लक्षणैः किं प्रोजनम् ॥ ८ ॥ - सबसे पहले वरकी आयुको परीक्षा करना चाहिए । बाद उसमें गुणों की जांच करना उचित है । क्योंकि आयुहीन मनुष्यों के लक्षणोंसे फिर प्रयोजन ही क्या है ॥ ८॥ ....... ..... तथा विज्ञाय यत्नेन शुभाशुभामति स्थितम् । लक्षणं शुभकन्यायां शुभकन्यां वरेद्वरः ॥ ९॥ इसी तरह वर, कन्याके भी शुभ अशुभ लक्षणों को जानकर, उत्तम कन्याके साथ विवाह करे ॥5॥ अशुभ लक्षणवाली कन्याका फल । मातरं पितरं चापि भ्रातरं देवरं तथा। पतिं विनाशयेनारी लक्षणैः परिवर्जिता ॥ १० ॥ .. लक्षणोंसे रहित कुलक्षणा कन्या माता, पिता, भाई, देवर तथा पतिका नाश करनेवाली होती है ॥ १० ॥ कन्याके परीक्षा करने याग्य चिह्न । हस्तौ पादौ परीक्षेत अङ्गुलीश्च नखांस्तथा । पाणिरेखाश्च जंघे च कटिं नाभिं तथैव च ॥११॥ ऊरुश्चोदरमध्यं च स्तनौ कर्णी भुजावुभौ । वक्षःस्थलं ललाटं च शिरः केशांस्तथैव च ॥ १२ ॥ रोमरानि स्वरं वर्ण ग्रीवां नासादयस्तथा। एतत्सर्व परीक्षेत सामुद्रिक विदार्यकः ॥ १३॥ सामुद्रिक शास्त्रका वेत्ता पुरुष कन्याके दोनों हाथ, दोनों पैर, उंगलियां, नख, हाथोंकी रेखाएं, दोनों घुटने, कटि, नाभि, छाती, उदरका मध्यभाग, स्तन, कान, भुजाएं, वक्षस्थल, ललाट, सिर, केश, रोमावली, स्वर, रंग, गर्दन तथा नाक आदि सारे अंगोंकी परीक्षा करे ॥ ११-१३ ॥ . - कन्याके शुभाशुभ लक्षण।। . ..... पादौ समाङ्गुली स्निग्धौ भूम्यां यदि प्रतिष्ठितौ ।। १ . कोमको चैव रक्तौ च सा कन्या गृहमण्डिनी॥१४॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित - जिस कन्याके पैरोंकी उंगलियां बराबर हों, दोनों पैर स्निग्ध- चिकने हों, जमीन पर रखने से ज्योंका त्यों जिनका आकार खिंच जावे, कोमल हों और रक्तवर्ग हों, व बढ़ानेवाली है ॥ १४ ॥ कन्या घरकी शोभा Ho अंगुष्ठेनातिरक्तेन भतीरं चैव मन्यते । -- अल्पवृत्तः पतिं हन्याद्बहुवृत्तः पतिव्रता ॥ १५ ॥ F जिसके पैर का अंगूठा खूब लाल हो वह अपने पतिको मान्य होती है । यदि अंगूठा थोड़ा गोल हो तो वह पतिका विनाश करती है और बहुत गोल हो तो पतिव्रता होती है ॥ १५ ॥ उन्नतैश्चन्द्रवत्सौख्यं मुसलैश्च तथैव च । सूचितैः पद्मपत्रैश्च पुत्रवत्यः स्त्रियो मताः ॥ १६ ॥ जिसके पैरोंकी उंगलियां चंद्राकार होकर ऊंची उठी हुई हों, वह सुख भोगनेवाली होती है। तथा मूसल जैसी सीधी और कमल जैसी लाल वर्ण हो तो वह पुत्रवती होती है ।। १६ ।। चक्रं पद्मं ध्वजश्छत्रं स्वस्तिकं वद्धमानकम् । यासां पादेषु दृश्यन्ते ज्ञेयास्ता राजयोषितः ॥ १७ ॥ जिनके पैरोंमें चक्र, पद्म, धुजा, छत्र, स्वस्तिक और वर्धमानक, ये चिह्न देखे जायँ, उन्हें राज-रानियां समझनी चाहिए ॥ १७ ॥ यस्याः प्रदेशिनी चापि अङ्गुष्ठादधिका भवेत् । दुष्करं कुरुते नित्यं विधवा वा भविष्यति ॥ १८ ॥ जिसकी प्रदेशिनी — अंगूठेके पासकी उंगली, अंगूठेसे अधिक लंबी हो तो समझना चाहिए कि वह दुष्कर्म करनेवाली है । अथवा वह विधवा होगी ।। १८ ।। यस्याः पादतले रेखा तर्जनीसुप्रकाशिनी । भर्तारं लभते शीघ्रं भर्तुः प्राणमिया भवेत् ॥ १९ ॥ जिसकी पगतली में तर्जनी - अंगूठे के पासकी उंगली के नीचेकी रेखा स्पष्ट दिखती हो तो वह शीघ्र पति प्राप्त करती है । और पतिको प्राणोंसे भी प्यारी होती है ।। ५९ ।। पादेऽपि मध्यमा यस्पाः क्षितिं न स्पृशति यदि । पुरुषावतिक्रम्य सा तृतीये न गच्छति ॥ २० ॥ जिसके पैरकी बीचली उंगली जमीनपर न टिकती हो तो समझना चाहिए कि वह दो पुरुषों को छोड़कर तीसरेके पास नहीं जायगी ।। २० ।। अङ्गुल्यश्वाप्यतिक्रम्य यस्याः पादप्रदेशिनी । कुमारी रमते जारयौवने चैव का कथा ॥ २१ ॥ जिसके पैर के अंगूठे के पासकी उंगली, सारी उंगलियोंसे अधिक लंबी हो तो वह कुमारी ही यारोंके साथ रमण करती है । यौवन अवस्था में वह क्या करेगी इसका तो कहना ही क्या है ॥ २१ ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैवर्णिकाचार | पादे मध्यमिका चैव उन्नता चाधिगच्छति । वामहस्ते धरेज्जारं दक्षिणे तु पतिं पुनः ॥ २२ ॥ जिसके पैरकी बीच की उंगली यदि ऊंची हो तो वह यारको बायें हाथमें और पतिको दाहिने हाथ में धारण करेगी । ऐसा जानना चाहिए ॥ २२ ॥ पादेऽप्यनामिका यस्या महीं न स्पृशति यदि । दुःशीला दुर्भगा चैव तां कन्यां परिवर्जयेत् ॥ २३ ॥ जिसके पैरकी अनामिका - छेवटकी उंगली के पासकी उंगली यदि जमीनपर न टिकती हो तो समझना चाहिए कि वह कन्या व्यभिचारिणी - खोटे स्वभाववाली तथा दुर्भग है। ऐसी कन्याके साथ विवाह नहीं करना चाहिये ॥ २३ ॥ ३९ यस्यास्त्वनामिका -हस्वा तां विदुः कलहमियाम् । भूमि न स्पृशते यस्याः खादते सा पतिद्वयम् ॥ २४ ॥ जिसके पैरकी अनामिका उगली छोटी हो तो उसे कलहकारिणी समझो। और उसकी वह उंगली यदि जमीन पर न टिकती हो तो समझो कि वह कन्या दो पतियोंको स्वायगी ॥ २४ ॥ पादे कनिष्ठिका यस्या भूमिं न स्पृशते यदि । कुमारी रमते जारे यौवने का विचारणा ॥ २५ ॥ जिसके पैर की कनिष्ठा छेवटकी उंगली यदि जमीनपर न टिकती हो तो वह कुँवारी ही यारोंसे रमती है, ऐसा समझो । न मालूम यौवनावस्थामें वह किसका क्या करेगी ॥ २५ ॥ उन्नता पणिदुःशीला महापाणिर्दरिद्रता । रतिक्लिष्टा समपाणिः सुशोभना ॥ २६ ॥ जिसकी पाणि ( पैरों के ऊपरके दोनों तरफके उठे हुए भाग ) ऊंची हो तो बुरे स्वभाववाली अथवा व्यभिचारिणी, मोटी हो तो दरिद्रा, लंबी हो तो अत्यन्त क्लेश भोगनेवाली, और बराबर हो तो अति सुंदर है; ऐसा जानना चाहिए ॥ ६ ॥ अष्टमहिषाकारैर्बन्धन कलहप्रिया । निगूढगुल्फैया नारी सा नारी सुखमेधते ।। २७ ।। जिसका अंगूठा भैंसेके आकार हो तो वह पतिका बंधन करती है और कलहकारिणी है । तथा जिसके गुल्फ भीतरको धँसे हुए हों दिखते न हों तो वह नारी परिपूर्ण सुखी है, ऐसा समझा ॥ २७ ॥ कूर्मपृष्ठ भगं यस्याः कृष्णं स्निग्धं सुशोभनम् । धनधान्यवती चैव पुत्रान् सूते न संशयः ॥ २८ ॥ जिसकी योनि कच्छपकी पीठ ज्यों उठी हुई हो, काली हो, गुद्गुदी हो, देखनेमें मनोहर हो तो वह धन धान्य, और पुत्रवाली है या होगी। इसमें कुछ भी संदेह नहीं, ऐसा समझो ॥ २८ ॥ गम्भीरनाभिर्या नारी सा नारी सुखमेधते । रोमभिः स्वर्णवर्णैश्च निर्वृत्ताविलीयुता ।। २९ ।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित जिसकी नाभि गहरी हों, जिसके शरीरके रोम स्वर्ण जैसे रंगके हों, और जिसके पेटमें त्रिवली हो तो वह नारी या कन्या सुखी है या होगी ॥ २९॥ ३१३ • रक्तजिव्हा सुखा नारी मुसला च धनक्षया । श्वेता च जनयेन्मृत्युं कृष्णा च कलहमिया ॥ ३० ॥ A लाल जीभवाली स्त्री सुखी होती है, मूसलके आकार की जीभवाली धनका क्षय करनेवाली होती है, सफेद जीभवाली पतिकी मृत्यु करनेवाली होती है और काली जीभवाली कलहकारिणी होती है ॥ ३० ॥ श्वेतेन तालुना दासी दुःशीला कृष्णतालुना । हरितेन मह पीडा रक्ततालुः सुशोभना ॥ ३१ ॥ सफेद तालुवाली दासी होती है, काले तालुबाली दुष्ट स्वभाववालो या व्यभिचारिणी होती है, हरे तालुवाली भारी रोगिणी होती है और लाल तालुवाली अच्छे लक्षणोंवाली होती है ॥३१॥ ललाट त्र्यङ्गुलं यस्याः शिरोरोमविवर्जितम् । निर्मलं च समं दीर्घमायुर्लक्ष्मी सुखमदम् ॥ ३२ ॥ जिसका ललाट रोमरहित हो, तीन अंगुल चौड़ा हो, स्वच्छ हो, समान हो, वह कन्या दीर्घायु, सम्पत्तिवाली और भरपूर सूख देनेवाली है ।। ३२ ॥ प्रचण्ड पबला कपालिनी, विवादकर्त्री स्वयमर्थचोरिणी ॥ आक्रन्दिनी सप्तगृह प्रवेशनी, त्येजच्च भार्या दशपुत्रपुत्रिणीम् ॥ ३३ ॥ जो भारी प्रचंडा हो, बलवती हो, जिसका कपाल भारी मोटा हो, विवाद करनेवाली हो, घरमें से वस्तुएँ चुराती हो, जोर जोर से चिल्लानेवाली हो और सात घरमें जाती हो- घर घरमें डोलती - फिरती - हो, ऐसी कन्याको, यदि वह आगे चलकर दश पुत्र-पुत्रीवाली भी क्यों न हो, तौ भी छोड़ देनी चाहिए ॥ ३३ ॥ पिंगाक्षी कूपगल्ला परपुरुषरता श्यामले चोष्ठजिह्वे लम्बोष्ठी लम्बदन्ता मविरलदशना स्थूलजंघोर्ध्वकेशी । गृधाक्षी वृत्तपृष्ठिर्गुरुपृथुजठरा रोमशा सर्वगात्रे - सा कन्या वर्जनीया सुखधनरहिता निन्द्यशीला प्रदिष्टा ॥ ३४ ॥ जिसके नेत्र पीले हों, गालोंपर खड्डे पड़ते हों, परपुरुषों के साथ रमण करती हो, ओठ और जीभ जिसकी काली हो, लंबे ओठोंवाली हों, दांत भी जिसके लंबे हों, दूर-दूर हों, पिण्डी मोटी हो, केश ऊपरको उठे हुए हों, गीध जैसी आंखें हों, जिसकी पीठ गोल- कुबड़ी हो, पेट मोटा और चौड़ा हो, सारे शरीरमें रोमावली हों, ऐसी कन्याका दूरसे ही त्याग करना चाहिए। क्योंकि ऐसी कन्या सुख और धन से रहित निद्य स्वभाववाली कही गई हैं ||३४|| विवाह के योग्य कन्या । इत्थं लक्षणसंयुक्तांग शिवर्जिताम् । वर्णविरुद्धसन्त्यक्तां सुभगां कन्यकां वरेत् ॥ ३५ ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ३१३ जो ऊपर कहे हुए शुभ लक्षणोंसे युक्त हो, पतिकी जन्म-राशिसे जिसकी जन्म राशि छठवीं या आठवीं न पड़ती हो, और जिसका वर्ण पतिके वर्णसे विरुद्ध न हो, ऐसी सुभग कन्याके साथ विवाह करना चाहिए ॥ ३५ ॥ . रूपवती स्वजातीया स्वतो लध्वन्यगोत्रजा। भोक्तुं भोजयितुं योग्या कन्या बहुकुटुम्बिनी ॥ ३६ ॥ जो रूपवती हो, अपनी जातिकी हो, वरसे आयु और शरीर में छोटी हो, दूसरे गोतकी हो, और जिसके कुटुंबमें बहुतसे स्त्री-पुरुष हों, ऐसी कन्या विवाहके योग्य होती है ।। ३६ ।। सुतां पितृष्वसुश्चैव निजमातुलकन्यकाम् । स्वसारं निजभायर्यायाः परिणेता न पापभाक् ॥ ३७॥ भुआकी लड़कीके साथ, मामाकी कन्याके साथ और सालीके साथ विवाह करनेवाला पातकी नहीं है । भावार्थ-जहां जैसा रिवाज हो वहां वैसा करना चाहिए। यह कोई खास नियम वाक्य नहीं है। सोमदेवनीतिमें मामाकी कन्याके साथ विवाह करने में देश और कालकी अपेक्षा बताई है। यथा “देशकालापेक्षो मातुलसम्बन्धः" । अतः जो उक्त संबंध नहीं करते हैं वे आगम वाक्यकी अव. हेलना करनेवाले नहीं हैं । यह वाक्य विधि-वाक्य नहीं है, किन्तु योग्यता-सूचक है । योग्यता सूचक वाक्य नियामक नहीं होते कि ऐसा करना ही चाहिए ॥ ३७ ॥ पुत्री मातृभगिन्याश्च स्वगोत्रजनिताऽपि वा । श्वश्रूस्वसा तथैतासां वरीता पातकी स्मृतः ॥ ३८ ॥ अपनी मौसीकी लड़की, अपने गोतकी लड़की तथा अपनी सासकी बहनके साथ विवाह करनेवाला पातकी माना गया है ॥ ३८ ॥ यस्यास्तु न भवेद्भाता न विज्ञायत वा पिता । नोपयच्छेत तां प्राज्ञः पुत्रिकां धर्मशङ्कया ॥ ३९ ॥ जिस कन्याके भाई अथवा पिता न हो उस कन्यासे धर्मकी हानि होनेकी आशंका होनेके कारण बुद्धिमान पुरुष विवाह न करे ॥ ३९ ॥ स्ववयसोऽधिकां वर्षगन्नतां वा शरीरतः। गुरुपुत्रीं वरेनैव मातृवत्परिकीर्तिता ॥ ४०॥ अपनेसे उमर में बड़ी हो, अपने शरीरसे ऊंची हो तथा गुरुकी पुत्री हो तो इनके साथ विवाह न करे । क्योंकि ये माताके समान मानी गई हैं ॥ ४० ॥ विवाहके पांच अंग। वाग्दानं च प्रदानं च वरणं पाणिपीडनम् । सप्तपदीति पञ्चांगो विवाहः परिकीर्तितः ॥ ४१ ॥ वाग्दान, प्रदान, वरण, पाणिग्रहण और सप्तपदी, ये विवाहके पांच अंग कहे गए हैं ॥ ४१ ॥ ४० Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ सोमसेनभट्टारकविरचित वाग्दानम्-वाग्दान। विवाहमासतः पूर्व वाग्दानं क्रियते बुधैः। कलशेन समायुक्तं सम्पूज्य गणनायकम् ॥ ४२॥ सन्निधौ द्विजदेवानां कन्या मम सुताय ते । त्वयाऽद्य क्रियतामद्य सुरूपा दीयते मया ॥४३॥ पुत्रमित्रसुहृद्रगैः समवेतेन निश्चितम् । कायेन मनसा वाचा सम्पीत्या धर्मद्धये ॥ ४४ ॥ विवाह-महीमेसे पहले वाग्दान करना चाहिए। उस समय कलशकी और गणनायक-आचार्यकी पूजा करना भी जरूरी है । कन्याका पिता वरके पितासे प्रार्थना करे कि मैं आग, देव और द्विजके संनिकट, पुत्र मित्र बंधु बांधवोंकी सम्मतिसे अपनी सुरूपवती गुणवती कन्याको धर्मकी बढ़वारीके निमित्त तुम्हारे पुत्रके लिए मनसे, वचनसे, कायसे प्रीतिपूर्वक देता हूं; जिसे आप स्वीकार कीजिए ॥ ४२--४४ ॥ कन्या ते मम पुत्राय स्वीकृतेयं मयाऽद्य वै । एतेषां सन्निधावेव मम वंशाभिवृद्धये ॥ ४५ ॥ इसके बदलेमें वरका पिता बोले कि मैं आज इन सबके समक्ष अपने वंशकी वृद्धि के निमित्त तुम्हारी कन्याको अपने पुत्रके लिए स्वीकार करता हूं ।। ४५ ॥ सम्बन्धगोत्रमुच्चाये दद्याद्वै कन्यकां पिता। हस्ते पितुर्वरस्याथ ताम्बूलं साक्षतं फलम् ॥ ४६॥ दास्येऽहं तेऽद्य पुत्राय सुरूपां मम कन्यकाम् । आसादय विवाहाथै द्रव्यमांगलिकानि च ॥ ४७॥ स्वीकृता मम पुत्राय मयाऽद्य तव पुत्रिका। सफलं साक्षतं दद्याधथाचारं परस्परम् ॥ ४८ ॥ कन्याका पिता-संबंध ( पितामह आदिके नाम) और गोत्रोंका उच्चारण कर कन्याको देवे और वरके पिताके हाथमें तांबूल, अक्षत और फल देवे । तथा कहे कि मैं आज तुम्हारे पुत्रके लिए अपनी सुन्दर कन्याको देता हूं । आप विवाहके अर्थ मंगल-द्रव्योंको सम्पादन कीजिए। इसके बदलेमें वरका पिता कहे हि मैने आज तुम्हारी कन्या अपने पुत्रके लिए स्वीकार की है । अनंतर लौकिक अथवा जातीय रिवाजके अनुसार आपसमें फल अक्षत पुष्प आदि देवें । इस तरह वाग्दान अर्थात् सगाई की जाती है ॥ ४६-४८ ॥ ___ अथ प्रदान-प्रदानविधि । कन्याया वरणात्पूर्व प्रदानं चैव कारयेत् । सम्पूज्य कन्यकां दद्याद्वस्त्रालङ्कारभूषिताम् ॥ ४९ ।। प्रदानं पट्टकूलादि कर्णकण्ठादिभूषणम्। ... लब्ध्वाऽऽशिषोऽथ विप्रेभ्यस्तेभ्यो दद्यात्फलानि च ॥ ५० ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ३१५ वाग्दानके बाद और विवाह समय होनेवाली वरणविधिसे पहले कन्याकी प्रदानविधि होती है, जो वरके पिताकी ओरसे की जाती है। कलश और आचार्यकी पूजा कर कन्याको वस्त्र-अलं. कार आदिसे विभूषित करे, उसे उत्तम कीमती रेशमी कपड़े, कानोंमें पहनने के दागीने, कंठ में पहननेके दागीने, हाथ पैर शिर आदि स्थानोंमें पहनने योग्य दागीने देवे । अनन्तर ब्राह्मणों के द्वारा दिये हुए आशीर्वादको ग्रहण कर उन्हें (ब्राह्मणोंको ) फल वगैरह देवे। भावार्थ-सगाईके बाद लड़कीके लिए वरके पिताकी ओरसे गहना देनेको प्रदान-विधि कहते हैं ।। ४९-५० ॥ अथ वरणं-वरणविधि । प्रार्थयेद्गुणसम्पूर्णान् मधुपर्केण पूजितः । मदर्थ वृणीध्वं कन्यामिति दत्वा च दक्षिणाम् ।। ५१ ॥ गोत्रोद्भवस्य गोत्रस्य सम्बन्धस्यामुकस्य च । नप्त्रे पौत्राय पुत्राय ह्यमुकाय वराय वै ।। ५२ ॥ कन्याया अपि गोत्रस्य यथापूर्ववदुच्चरेत् । नप्तीमथ च पौत्रीं च पुत्री कन्यां यथाविधि॥ ५३॥ कन्यासमीपमागत्य ब्राह्मणैः सह वै पिता। इत्युक्त्वा भो द्विजा यूयं वृणीध्वं कन्यकामिमाम् ॥ ५४ ॥ प्रत्यूचुः सज्जनाः सव वयं चैनां वृणीमहे । सुप्रयुक्तेति सूक्तं वै जपेयुः सज्जनास्ततः॥ ५५॥ मधुपर्कद्वारा पूजा किया गया वर, व्रती सदाचारी गुणवान् ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा देकर, "मदर्थ कन्यां वृणीध्वं " अर्थात् “ मेरे लिए आप सब लोग मिलकर कन्या स्वीकार करो" ऐसी प्रार्थना करे । बाद कन्याका पिता कन्याके समीप आकर ब्राह्मणों के साथ इस प्रकार गोत्रोच्चारण करे कि मैं, अमुक गोत्रमें उत्पन्न हुए अमुकका प्रपोता, अमुकका पोता, अमुकका पुत्र, अमुक नामवाले वरके लिए अमुककी प्रपोती, अमुककी पोती, अमुककी लड़की, अमुक नामवाली कन्याको देता हूं। हे ब्राह्मणो! आप लोग स्वीकार करो। इसके बदले में वे सब ब्राह्मण लोग कहें कि हम सब इस कन्याको स्वीकार करते हैं। बाद सारे सजन “सुप्रयुक्ता" इत्यादि सुभाषितोंको पढें ॥ ५१-५५ ॥ पाणिपीडन-पाणि-पीड़न-विधि । धर्मे चार्थे च कामे च युक्तेति चरिता त्वया । इयं गृह्णाति पाणिभ्यां पाणीति पाणिपीडनम् ॥ ५६ ॥ धर्म, अर्थ और काम, इन तीन पुरुषार्थोसे युक्त तेरेद्वारा वरण की हुई यह कन्या तेरे हाथोंको अपने हाथोंसे पकड़ती है । इस तरह पाणिपीडन-विधि होती है । भावार्थ-वर-कन्याका हथलेवा जोड़ने (परस्पर हाथ मिलाने ) को पाणिपीडन कहते हैं ॥ ५६ ॥ ... - १ इन अमुक शब्दोंकी जगह वर-कन्याके प्रपितामह आदिका नाम जोड़ लेना चाहिए । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ सोमसेनभट्टारकविरचित अथ सप्तपदी-सप्तपदी-विधि । _अभुक्तामयतीशान्यां वधू सप्तपदानि तु । साऽभुक्ता समयेत्पूर्व दक्षिणं पादमात्मनः ॥ ५७ ॥ अभुक्ता (जिसने भोजन नहीं किया है ) कन्याको ईशान दिशाको ओर सात पैंड ले जाय, और वह कन्या भी प्रथम अपना दाहिना पैर आगे बढ़ाकर सात पैंड जाय । इसे सप्तपदी कहते हैं । भावार्थ-यह संक्षेपसे सप्तपदीका लक्षण है। सप्त पैंड किस तरह ले जाय और किस तरह भनय यह सब प्रयोगविधि आगे कही गई है ॥ ५७ ॥ ___ इति प्रसंगात् पंचांगविवाहः परिकीर्तितः—इस तरह प्रसंग पाकर विवाहके पांच अंग लक्षणरूपसे कहे गए हैं । प्रयोगविधि विस्तारके साथ आगे कहेंगे । विशेषविधि अंकुरारोपण । विवाहस्याथ पूर्वेयुराचार्यों बन्धुसंयुतः । संस्नातो धौतवस्त्राङ्गो गृहयज्ञं प्रकल्पयेत् ।। ५८ ॥ विवाहाह्नस्तु पूर्वाह्ने वरं संस्नाप्य भूषणैः । वस्त्रैश्च भूषयेद्रम्यैर्निशाचूर्णाद्यलंकृतम् ॥५९ ॥ सौभाग्यवनिताभिश्च सह माता वरस्य वा । घटद्वयं स्वयं धृत्वा वाधैर्गच्छे जलाशयम् ॥ ६० ॥ फलगन्धाक्षतैः पुष्पैः सम्पूज्य जलदेवताः । घटान् भृत्वा जलैधृत्वा मूनि गच्छेनिजालयम् ॥ ६१ ॥ तथाऽऽनीतमृत्तिकायां वपेदीजानि मङ्गलैः। घटं संस्थाप्य वेधग्रे शुभद्रव्यैः समर्चयेत् ॥ ६२॥ वेद्यां गृहाधिदेवं संस्थाप्य दीपं प्रज्वालयेत् । साश्मानं वर्तुलं न्यस्येत्तत्पुरस्तन्तुभिर्वृताम् ॥ ६३ ॥ गुडजीरकसामुद्रहरिद्राक्षतपुञ्जकान् । पृथक्पञ्च तथा कन्यागृहेऽप्येष विधिर्भवेत् ॥ ६४ ॥ ___ विवाह-दिनके पहले दिन गृहस्थाचार्य स्नान कर और स्वच्छ धुले हुए कपड़े पहनकर पुरोहितजीके साथ गृहयज्ञ करे । उसी दिन प्रातःकाल वरको हल्दी आदिका उबटन लगाकर और स्नान कराकर वस्त्र-आभूषणोंसे भूषित करे । वरकी माता सौभाग्यवती स्त्रियोंके साथ दो कला अपने हाथमें लेकर जलाशयपर जावे । वहां पर फल, गंध, अक्षत और पुष्पोंसे जलदेवताको पूजा कर दोनों कलशोंको पानीसे भरे और अंकुरारोपणके लिए मिट्टी खोदे। दोनों कलशोंको सिरपर रखकर और मिट्टीको हाथमें लेकर अपने घर आवे । उस मिट्टीमें बीज बोवे और एक कलशका पानी उसमें गेरे । दूसरे कलश को वेदीके अग्रभागमें रखकर उसकी शुभ मंगलद्रब्योरे पूजा करे । वेदीमें कुलदेवताकी स्थापना कर दीपक जोवे । एक पत्थरकी चौकी Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। और पत्थरके चारों तरफ सूत लपेटकर वेदीके अग्रभागमें रक्खे । उस पर गुड, जीरा, नमक, हल्दी और अक्षत, इनके पृथक् पृथक् पांच पुंज रक्खे । यह सब अंकुरारोपण-विधि है । इसी तरहकी विधि कन्याके घर भी की जाय ॥ ५८-६४ ।। __ उस दिन वरका कर्तव्य । वरः स्नानादियुक् पश्चात्स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । होमं विधाय भुञ्जीत पित्राचार्यादिसंयुतः ॥ ६५ ॥ वर स्नान आदि कर स्वस्तिवाचन-पूर्वक गृहयज्ञ करे । अनन्तर पिता आचार्य आदिको साथ लेकर भोजन-पान करे ॥ ६५ ॥ वरका वधूक घरपर गमन । अपरेधुः कृतस्नानो धौतवस्त्रधरो वरः। स्वलंकृतः सितच्छत्रपदातिजातिबान्धवैः ॥ ६६ ॥ वृतो वधगृहं गच्छेद्वाधवैभवर्जितः।। नीयमानो नरैः प्रीत्या तत्रस्थैः कन्यकाश्रितः ॥ ६७ ॥ तण्डुलादिभिराकीर्णे चन्द्रोफ्कादिभूषिते । पवित्रे श्वशुरावासे सज्जनैर्निवसेद्वरः ॥ ६८। गमागमक्रिया सर्वा विधेया वनितादिभिः । देशकुलानुसारेण वृद्धस्त्रीभिर्निरूपिता ॥ ६९ ॥ दूसरे दिन-विवाहके रोज वर स्नान कर, धोये हुए स्वच्छ कपड़े और आभूषण पहनकर सिरपर सफेद छतरी लगाकर, नौकरों और जातीय बांधवोंको साथ लेकर, गाजे-बाजेके ठाठसहित वधू घरपर जावे । कन्या-पक्षके सजन प्रीतिपूर्वक वरको बधाव । अनंतर वर तंदुल आदिस आकीर्ण, चंद्रोपक (चंदोवा) आदिसे सजे हुए श्वसुरके पवित्र घरपर साथवाले सजनोंके साथ बैठ जाय । अनंतर देश-कालके अनुसार बुढ़ी बड़ेरी स्त्रियां जैसा बतावें उस तरह लाने ले जाने आदिकी सारी क्रियाओंको सब स्त्रियां मिलकर संपादन करें ।। ६६-६९ ॥ विवाहभेदाः-विवाहके आठ भेद । ब्राह्मो देवस्तथा चाषेः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः। गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्वाष्टमोऽधमः ॥ ७० ॥ ब्राह्मविवाह, दैवविवाह, आर्षविवाह और प्राजापत्यविवाह, ये चार धर्मविवाह हैं। और असुर विवाह, गांधर्वविवाह, राक्षसविवाह और पैशाचविवाह, ये चार अधर्म्यविवाह हैं । एवं क्विाहके आठ भेद हैं ॥ ७० ॥ ब्राह्म-विवाह । आछाच चाहयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् । आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ॥ ७१ ॥. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ सोमसेनभट्टारकविरचित___ विद्वान् और सदाचारी वरको स्वयं बुलाकर उसको और कन्याको बहुमूल्य आभूषण पहना कर कन्या देनको ब्राह्मविवाह कहते हैं ।। ७१ ॥ दैव-विवाह। यज्ञे तु वितते सम्यक् जिनार्चाकर्म कुर्वते । अलंकृत्य सुतादानं दैवो धर्मः प्रचक्ष्यते ॥७२॥ जिन-पूजारूप महान अनुष्ठानका प्रारंभकर उसकी समाप्ति होनेपर उस जिनार्चा करानेवाले साधर्मीको वस्त्र-आभूषणोंसे विभूषित कर कन्या देनेको दैवविवाह कहते हैं ॥७२॥ . आर्ष-विवाह। एकं वैस्त्रयुगं द्वे वा वरादादाय धर्मतः। कन्यामदानं विधिवदा! धर्मः स उच्यते ॥ ७३ ॥ ____ एक या दो जोड़ी वस्त्र वरसे कन्याको देने के लिए धर्मनिमित्त लेकर विधिपूर्वक कन्या देना आर्षविवाह है ॥ ७३ ॥ प्राजापत्य-विवाह । सहोभौ चरतां धर्ममिति तं चानुभाष्य तु । कन्यापदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः ॥ ७४ ॥ कन्या प्रदानके समय 'तुम दोनों साथ साथ सद्धर्मका आचरण करो' ऐसे वचन कहकर दोनोंको वस्त्राभूषणसे सुसजित कर कन्या देनेको प्राजापत्यविवाह कहते हैं ॥ ७४ ॥ आसुर-विवाह । ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्वा कन्यायै चैव शक्तितः। कन्यादानं यत्क्रियते चासुरो धर्म उच्यते ॥ ७५ ।। कन्याके पिता आदिको कन्याके लिए यथाशक्ति धन देकर कन्या लेना सो आसुरविवाह गान्धर्व-विवाह। स्वच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च । गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः ॥ ७६ ॥ १ स ब्राह्मो विवाहो यत्र वरायालङ्कृत्य कन्या प्रदीयते । २ स दैवो विवाहो यत्र यज्ञार्थमत्विजः कन्याप्रदानमेव दक्षिणा। ३ 'वस्त्रयुगं' के स्थानमें 'गोमिथुनं ' भी पाठ है, जिसका अर्थ एक गाय और एक बैल होता है । वरसे लेकर कन्याको देना या कन्याके साथ साथ एक या दो गोमिथन देना. ये न्याके साथ साथ एक या दो गोमिथुन देना, ये दोनों ही अर्थ स्वीकार किये गए हैं । तदुक्तं-गोमिथुनपुरःसरं कन्यादानादार्षः । ४ विनियोगेन कन्याप्रदानात्प्राजापत्यः । त्वं भव अस्य महाभाग्यस्य सधर्मचारिणीति विनियोगः। ५. पणबंधेन कन्याप्रदानादासुरः । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ३१९ वर और कन्याका अपनी इच्छापूर्वक जो परस्पर आलिंगनादिरूप संयोग है वह गांधर्वविवाह है । यह विवाह माता-पिता और बंधुओंकी बिना साक्षीके कन्या और वरकी अभिलाषासे होता है । अतः यह केवल मैथुन्य-कामभोगके लिए होता है ।। ७६ ॥ राक्षस-विवाह । हत्वा भित्वा च छित्वा च क्रोशन्ती रुदती गृहात् । प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ॥ ७७॥ १. कन्या-पक्षके लोगोंको मारकर उनके अंगोपांगोंको छेदकर, उनके प्राकार (परकोटा), दुर्ग आदिको तोड़-फोडकर 'हा पिता मैं अनाथिनी हरण की जा रही हूं।' इस तरह चिल्लाती हुई और आंसू डाल-डालकर रोती हुई कन्याको जबर्दस्तीसे हरण करना सो सक्षसीववाह है ॥ ७७ ॥ __ पैशाच-विवाह । मुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति । स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचः कथितोऽष्टमः ॥ ७८ ॥ सोई हुई, नशेसे चूर, अपने शीलकी संरक्षासे रहित कन्याके साथ एकान्तमें समागम करना पिशाचविवाहै है । यह विवाह पापका कारण है, और सब विवाहोंसे निंद्य है ॥ ७८ ॥ . कन्यादानं निशीथे चेद्वरायोपोषिताय च । उपोषितः सुतां दद्यात् ब्राह्मादिषु चतुष्वेपि ॥ ७९ ॥ कन्यादानका मुहूर्त रात्रिका हो तो ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य, इन चार धर्म्य विवाहोंमें कन्याका पिता उपवासपूर्वक उपोषित ( जिसने उपवास किया है ऐसे) वरको कन्या-दान दे॥७९॥ अन्यमतम्-मतान्तर । कन्यादानं निशीथे चेद्दिवा भोजनमाचरेत् । पुनः स्नात्वा जन्मन्त्रं पिता कन्यां प्रयच्छतु ॥ ८०॥ - कन्यादानका मुहूर्त रात्रिका हो तो दिनमें भोजन-पान कर ले, फिर स्नान कर मंत्रका जाप करे । पश्चात् कन्याका पिता कन्यादान दे ।। ८० ॥ भुक्त्वा समुद्हेत्कन्यां सावित्रीग्रहणं तथा। गान्धर्वासुरयोरेव विधिरेष उदाहृतः॥ ८१ ॥ ... वर भोजन-पान करके कन्याके साथ विवाह करे और सावित्री ( यज्ञोपवीत ) ग्रहण करे । यह भोजन कर विवाह करनेकी विधि गांधर्वविवाह और असुरविवाहमें ही है; अन्य विवाहोंमें नहीं ।। ८१ ॥ कन्याके बान्धव । पिता पितामहो माता पितृव्यो गोत्रिणो गुरुः। मातामहो मातुलो वा कन्याया बान्धवाःक्रमात ॥ ८२ ॥ १ मातुः पितुर्बन्धूनांचाप्रामाण्यात् परस्परानुरागेणमिथः समवायागांधर्वः । २ कन्यायाः प्रसह्यादानाद्राक्षसः । ३ सुप्तप्रमत्तकन्यादानात्पशाचः । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सोमसेनभट्टारकविरचितपिता, पितामह ( पिताका पिता-आजा किंवा बाबा), भाई, पितृव्य (चाचा), गोत्रज मनुष्य, गुरु, मातामह (माताका पिता) और मामा, ये कन्याके क्रमसे बंधु हैं ।। ८२ ॥ __ कन्याका अधिकार। पित्रादिदात्रभावे तु कन्या कुर्यात्स्वयंवरम् । इत्येवं केचिदाचार्याः पाहुमहति सङ्कटे ॥ ८३ ॥ विवाह करनेवाले पिता, पितामह आदि न हों, तो ऐसी दशा में कन्या स्वयं-अपने आप अपमा विवाह करे। ऐसा कोई कोई आचार्य कहते हैं। यह विधि महासंकटके समय समझना चाहिए ॥ ८३ ॥ अथ विवाहकर्म-विवाह-विधि । कन्यायाः सदनं गच्छेत् मण्डपे तोरणान्विते । कन्याया जननी वेगादागत्य पूजयेदरम् ॥ ८४ ।। कन्यापित्रादिभिदत्ते चोदुम्बरादिवृक्षकैः॥ निर्मिते चासने सम्यक् सुदृष्टयोपरिशेद्वरः॥ ८५ ॥ वर कन्याके घरपर जावे । वहां वह तोरण आदिसे सुसजित मंडपमें कन्याके पिता आदि द्वारा बिछाये हुए और उदुंबर आदि वृक्षकी लकड़ीके बने हुए तखत-पट्टेपर बैठे । पश्चात् कन्याकी माता शीघ्र आकर वरका आव-आदर करे ॥ ८४-८५ ।। वर पूजन । ततः प्रक्षालयेत्पादौ वरस्यायं विधाय च। यज्ञोपवीतं मुद्रादिभूषा एवार्पयेद्वरे ॥८६॥ ___ कन्याका पिता पहले वरके पैर प्रक्षालन कर अर्थ्य चढ़ावे । अनन्तर यज्ञोपवीत मुद्रिका आदि आभूषण उसकी भेंट करे ॥ ८६ ॥ वधू-पूजन। ततः पाचं समादाय कन्यकां सेचयेच्छनैः। अर्घ्यदानं ततो दत्वा कन्यकामपि पूजयेत् ॥ ८७ ॥ वर-पूजाके अनन्तर कन्याकी पूजा करे। वह इस तरह कि वरका चरणोदक लेकर धीरेसे कन्याका अभिषेचन करे-कन्याके पैर धोवे और एक अर्घ्य चढ़ावे ॥ ८७ ॥ अर्घ्य-दान ।। तद्वरोऽपि प्रदत्तार्क्ष्यमञ्जल्याऽऽदाय सादरम् । निरीक्ष्याङ्गुलिरन्धेस्तस्रावयेद्भाजने शनैः ॥ ८८ ॥ वह वर, जो अर्घ्य कन्याका पिता उसके हाथमें देता है उसे भारी आदरके साथ अपनी अंजलीमें लेकर और उसका अच्छी तरह निरीक्षण कर धीरेसे अंगुलियोंके छेदमें होकर पात्रमें क्षेपण करे ॥ ८८॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | आचमन । सन्नालपात्र सम्पूर्ण पूतशीतलवारिणा । तद्वभवेद्य दत्तेन कुर्यादाचमनं ततः ॥ ८९ ॥ इसके बाद वर उत्तम भृंगार ( झारी ) में भरे हुए तथा पहलेकी तरह आदरपूर्वक दिये हुए पवित्र और शीतल जलसे आचमन करे || ८९ ॥ कांस्यतालास्थितं त्यक्तकांस्यपात्रपिधानकम् । प्राशयेन्मधुपर्कार्यं दधि तद्वत्समंत्रकम् ॥ ९० ॥ ४१ अनन्तर ऊपरका ढक्कन हटाकर, काँसेके वर्तनमें रक्खा हुआ दही और शक्कर, मधुपर्ककै लिए, मंत्रपूर्वक, आचमनकी तरह, वरको प्राशन करावे । वह मंत्र यह है: ॥ ९० ॥ मंत्र — ॐ ह्रीं भगवतो महापुरुषस्य पुरुषवरपुण्डरीकम्य परमेण तेजसा व्याप्तलोकस्य लोकोत्तरमङ्गलस्य मङ्गलस्वरूपस्य संस्कृत्य पादावर्थेनाभिजनेनातुकृत्याय उदवसितचत्वरेऽभ्यागतायाभियोगवयोमधुपर्काय समदत्तिसमन्वितायाघ्यस्य पाद्यस्य विधिमाप्ताय दध्यमृतं विश्राण्यते जामात्र अमुष्मै ॐ । इति मन्त्रयेत् । इस मंत्र को पढ़कर दही और शक्करको मंत्रित करे । मंत्र — ॐ नमोऽर्हते भगवते मुख्यमंगलाय प्राप्तामृताय कुमारं दध्यमृतं माशयामि झं वं ह्नः अ सि आ उ सा स्वाहा । इति मधुपकमन्त्रः । त्रिः प्राशयेत् । यह मंत्र पढ़कर तीन वार दही और शक्कर प्राशन करावे । वरको वस्त्रालंकार दान | ३२१ मालाभरणवस्त्राद्यैरलङ्कृत्य वरं ततः । कन्या भ्रात्रे प्रदद्यात्तद्वत्रं तेन धृतं पुरा ॥ ९१ ॥ इस विधिके हो चुकने बाद कन्याका पिता माला, आभूषण, वस्त्र आदिसे वरको अलंकृत करे । वर जो कपड़े पहले पहने रहता है उन्हें उतारकर कन्याके भाईको दे दे ।। ९१ ॥ कन्याको वस्त्रालंकार दान | वरानीतैस्तु सद्वस्त्रैर्भूषणैश्च खगादिभिः । स्नातामभोजनां कन्यां पित। ऽलङ्कारयेत्ततः ।। ९२ ॥ अनन्तर जो स्नानकर चुकी हो और भोजन न किया हो ऐसी उस कन्या को उसका पिता, वरकी ओरसे लाये हुए वस्त्रों, आभूषणों और मालाओंसे अच्छी तरह अलंकृत करे ।। ९२ ।। यज्ञोपवीत ग्रहण | पुनराचमनं कृत्वा ताम्बूलाक्षतचन्दनैः । यज्ञोपवीतवस्त्राणि स्वीकुर्याच्च वरोत्तमः ॥ ९३ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ सोमसेनभट्टारकविरचित- इसके बाद फिर आचमन कर वह वर कन्याके पिता द्वारा दिये हुए तांबूल, चंदन, अक्षत, यज्ञोपवीत और वस्त्र स्वीकार करे ॥ ९३ ॥ ॐ, भूयात्मुपद्मनिधिसम्भवसारवस्त्रं, भूयाच कल्पकुजकल्पितदिव्यवस्खम् ॥ भूयात्सुरेश्वरसमर्पितसारवस्त्रं, भूयान्मयार्पितमिदं च सुखाय वस्त्रम् ॥ ९४ ॥ यह वस्त्र देनेका मंत्र है । इसे पढ़कर वस्त्र प्रदान करे ।। ९४ ॥ कन्याया मातुलस्तस्माद्वरं धृत्वा करेण वै । गृहस्याभ्यन्तरं प्राप्य (?) कन्यामप्यानयेत्ततः॥ ९५ ॥ कन्याका मामा वरको हाथ पकड़कर वेदीके पास लावे । अनन्तर कन्याको भी वहां लावे ॥९५॥ वेदिकाग्रे ततः कुर्यात्स्वस्तिकं स्थण्डिलान्वितम् । पूर्वापरदिशो रम्यं तण्डुलपुञ्जकद्वयम् ॥ ९६॥ वेदीके अग्रभागमें चौकोन चबूतरेका आकार बनाकर उसपर स्वस्तिक खेंचे । पूर्व दिशामें एक और पश्चिम दिशामें एक ऐसे दो चावलोंके पुंज रक्खे ॥ ९६ ॥ वेदी लक्षणम्-वेदीका लक्षण । विस्तारिता हस्तचतुष्टयेन, हस्तोच्छ्रितां मन्दिरवामभागे । स्तम्भश्चतुर्भिः कृतनिर्मितांगां, वेदी विवा प्रवदन्ति सन्तः ॥ ९७ ॥ विवाहमें चार हाथ लंबी, तथा चार ही हाथ चौड़ी और एक हाथ ऊंची एक वेदी घरके बाएं पसवाड़ बनवावे । उसके चारों कोनोंपर चार स्तंभ ( थांभ) खड़े करे ॥ ९७ ॥ अन्यमतं-दुसरा मत । कन्याहस्तैः पञ्चभिः सप्तभिवो, वेदी कुर्यात्कूर्मपृष्ठोन्नताणाम् । रम्ये हर्षे कारयेद्वामभागे, जायापत्योरशिषो वाचयित्वा ॥ ९८ ॥ वधु और वरको आशीर्वाद देकर, अपने रमणीय मकानके बाई ओग, कन्याके हाथसे पांच हाथ अथवा साथ हाथ लंबी चौडी तथा कच्छ की पीठकी तरह उठी हुई एक वेदी बनवावे ॥ ९ ॥ व्रतबन्धे वेदी- उपनयनके समयकी वेदीका स्वरूप। पाक्पश्चिमोर्ध्वग्दषद्कयुक्त मुदीच्ययाम्यान पदानि पञ्च । एवंविधा ज्यातिषरत्ननिर्मिता, बटोः शतायुभवतीह वेदिका ॥ ९९ ॥ उपनयन के समय पूर्व और पश्चिम दिशामें छह पैंड लंबी, दक्षिण और उत्तर तरफ पांच पेंड चौडी एक वेदी होना चाहिए । इस प्रकारकी ज्योतिषशास्त्रके अनुसार बनवाई हुई वेदी बालकको शतायु-दीर्घजीवी करती है ॥ ९९ ॥ अन्यमतं-दूसरा मत । आचार्यस्य पदैः षाभिः पञ्चभिर्वाऽथ सप्तभिः । विस्तृता चतुरस्रा च बटोर्वेदी करोन्नता ॥१०॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | ३२३ उपनयन के समय आचार्यके पैरोंसे छह, पांच अथवा सात पैंड लंबी चौड़ी तथा बालकके हाथसे एक हाथ ऊंची ऐसी चौकोन एक वेदी बनाई जाय ॥ १०० ॥ लम्बा भित्तिर्द्विहस्तां च सुन्नता त्रिंशदंगुला | प्रत्यक् वेद्या विवाहे च विस्तृता द्वादशांगुलम् ॥ १०१ ॥ अष्टाष्टौ प्रकुर्वीत सोपानान्यथ पार्श्वयोः । तदग्रे कलशाकारमिति पूजाविदां मतम् ॥ १०२ ॥ वेदी पश्चिम भाग में एक दिवाल खड़ी करे। जो दो हाथ लंबी, तीस उंगल-सवा हाथ ऊंची और बारह उंगल-एक बिलस्त चौड़ी हो । उस दिवालके दोना और आठ आठ सोपान ( सीढ़ी ) बनवावे | उन दोनों तरफके सोपानोंके सामने कलशों जैसे आकार बनवावे । ऐसा पूजाकारों का मत है ॥ १०१-१०२ ॥ अथ पीठं पीठका प्रमाण । अष्टत्रिंशांगुलं दीर्घमुन्नतं स्यात्गुलम् । अष्टांगुलं च विस्तारं कुर्यादौदुम्बरादिना ॥ १०३ ॥ अड़तीस उंगल लंबा, आठ उंगल चौड़ा और छह उंगल ऊंचा ऊंबर आदिकी लकड़ीका एक पट्टा बनवावे || १०३ ॥ विवाहः स्यादिने यस्मिन्दिवा वा यदि वा निशि । होमस्तत्रैव कर्तव्यो यथानुक्रमणेन तु ॥ १०४ ॥ दिन में अथवा रातमें जिस दिन विवाह हो, उसी दिन, जो जो क्रियाएं करनेकी हैं उन्हें क्रमवार करते हुए होम करे ॥ १०४ ॥ तावद्विवाहो नैव स्याद्यावत्सप्तपदी भवेत् । तस्मात्सप्तपदी कार्याविव हे मुभिः स्मृता ।। १०५ ॥ जबतक सप्तपदी ( भाँवर ) नहीं होती तबतक विवाह हुआ नहीं कहा जाता । इसलिए विवाहमें सप्तपदी अवश्य होना चाहिए। ऐसा मुनियों का कहना है ॥ १० 11 विवाहहोमे प्रक्रान्ते कन्या यदि रजस्वला । त्रिरात्रं दम्पती स्यातां पृथक्शय्यासनाशिनौ ॥ १०६ ॥ विवाहसंबंधी होम शुरु हो जानेपर यदि कन्या रजस्वला हो जाय तो तीन शततक उन दोनों दंपतियों के शय्या, आसन, भोजन सब जुदा जुदा रहना चाहिए । भावार्थ - रजस्वलाके समय कन्याकी ये सब क्रियाएं तेहरवें अध्याय में कही जानेवाली रजस्वला विधिके अनुसार होनी चाहिए ॥ १०६ ॥ agesनि संस्नाता तांस्मन्ननौ यथाविधि । विवाहहोमं कुर्यात्तु कन्यादानादिकं तथा ।। १०७ ॥ . चौथे दिन जब वह कन्या स्नान कर चुके तब उसी अझिमें विधिपूर्वक होम किया जाय । तथा कन्यादान आदि विधि जो रह गई हो वह भी पूर्ण की जाय ।। १०७ ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ सोमसेनभट्टारकविरचितचतुर्थीमध्ये कन्या चेद्भवेयदि रजस्वला । त्रिरात्रमशुचिस्त्वेषा चतुर्थेऽहनि शुद्धयात ॥ १०८ ॥ पूजां न होमं कुर्वीत प्रायश्चितं विधीयते । ......... जिनं सम्पूजयेद्भक्त्या पुन:मो विधीयते ॥ १०९॥ वाग्दान, प्रदान, वरण और पाणिपीड़न, इन चार क्रियाओंमेंसे चौथी पाणिपीड़न क्रियामें अथवा चौथी अर्थात् भीतरकी सातवीं भांवरके पहले यादे कन्या रजस्वला हो जाय तो वह तीन राततक अशुद्ध रहती है और चौथे दिन शुद्ध होती है । तबतक विवाहसंबंधी पूजा और होम न किया जाय, तथा प्रायश्चित्त ग्रहण करें। चौथे दिन शुद्ध हो जानेके बाद भकिभावसे जिनपूजा और होम फिर प्रारंभ किया जाय ॥ १०८-१०९ ॥ • इति प्रसंगाद्वेदिकादि लक्षणम् । अर्थात् इस तरह प्रसंग पाकर वेदीका लक्षण कहा । उभयाः पाश्वेयोः काण्डसंयुक्तं पुञ्जपञ्चकम् । शाल्यादिपञ्चधान्यानां यावारकस्य सनिधौ ॥ ११० ॥ वेदीके दोनों तरफ छिलके सहित शाली आदि पांच धान्यके पांच पांच पुंज ( मुठी) रक्खे ।। ११०॥ पूर्वोक्तराश्य मध्ये च तथे परि सुवस्तुकम् । पटं प्रसाये ते तत्र चानयेदरकन्यके ॥ १११ ॥ पूर्वोक्त दोनों धान्यके ढेरोंके बीचमें एक पर्दा तानकर वहांपर वर और कन्याको लावें ॥ १११॥ पूर्व दक्ताण्डुलराशौ प्रत्यङ्मुखा हि कन्यका । पाङ्मुखः पश्चिमेराशाववनिष्ठति सद्वरः ॥ ११२ ॥ गुवादिसजनैः स्तोत्र पठनीयं जिनस्य वै । मङ्गलाष्टकमित्यादि कल्याणसुखदायकम् ॥ ११३ ॥ कन्याया वदनं पश्येद्वरो वरं च कन्यका । शुभे लग्न सता मध्ये सुखप्रीतिप्रवृद्धये ॥ ११४ ॥ सगुडान् जीरकानास्ये ललाटे चन्दनाक्षतान् । कण्ठे मालां क्षिपेत्तस्याः साऽपि तस्य तदा तथा ॥ ११५ ॥ पूर्व दिशाकी ओरके चावलोंकी राशिपर पश्चिमकी तरफ मुख करके कन्या खड़ी की जाय । और पश्चिम दिशाकी राशिपर पूर्वकी ओर मुखकर वर खड़ा किया जाय । इस तरह दोनोंको खड़ा कर आचार्य आदि सजन पुरुष वर-कन्याको सुखी करनेवाले मंगलाष्टक आदि जिनस्तोत्र पढ़ें । बाद उस पर्देको हटाकर वर कन्याका मुख देखे और कन्या वरका मुख देखे । यह क्रिया शुभलग्नमें सजनोंके बीच सुख और प्रीति बढ़नेके लिए की जाती है । इसके बाद वर कन्याके मुख में जीरा और गुड़ दे, ललाटपर चंदन और अक्षत लगावे और गलेमें माला पहनावे । तथा कन्या भी वरके मुखमें गुड़ और जीरा देवे, ललाटपर चन्दन और अक्षत लगावे । तथा गलेमें माला डाः ।। ११२-११५॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | एतद्गोत्रे प्रजातस्यैवैतन्नाम्नः प्रपौत्रकः । अस्य पौत्रोऽस्य पुत्रञ्चाप्येतदाख्योऽहमित्यथ ॥ ११६ ॥ एतद्गोत्रे प्रजातस्यैवैतनाम्नः प्रपौत्रिकाम् । पौत्रीमस्यास्य पुत्रीमप्येतदाख्यामिमां वृणे ॥ ११७ ॥ इति ब्रूयाच्चतुर्थी च प्रपौत्रादिपदे स्वके । प्रयोज्य वदेत्कन्यावरणे समये वरः ॥ ११८ ॥ स्वपक्षं पूर्वमुक्त्वैवमपरं च वदन्वदेत् । त्वं वृणीष्वेति वा तुभ्यं प्रयच्छामीति मातुलम् ॥ ११९ ॥ दक्षिणं पाणिमेतस्याः ससुवर्णक्षतोदकम् । पित्रा समन्त्रकं दत्तं गृह्णीयात्स प्रयत्नतः ॥ १२० ॥ धर्मेण पालयेत्यादि कन्यापितरि वक्तरि । ३२५ धर्मेण न कामेन पालयामीत्यसौ वदेत् ॥ १२१ ॥ कन्यावरणके समय वर, इस गोत्रमें उत्पन्न हुआ, इसका प्रपोता, इसका पोता, इसका पुत्र इस नामवाला मैं, इस गोत्रमें उत्पन्न हुई, इसकी प्रपोती, इसकी पोती, इसकी पुत्री, इस नामवाली इस कन्याको वरता हूं, इस प्रकार अपने और कन्याके प्रपौत्रादि चारों पदको जोड़कर इस चतुर्थीचारों बातोंका उच्चारण करे | बाद कन्याका पिता 'त्वं वृणीष्व' अर्थात् तुम वरो अथवा 'तुभ्यं प्रयच्छामि' अर्थात तुम्हें यह कन्या देता हूं, इस प्रकार कहें। जब कन्याका पिता ऐसी प्रार्थना करे तब वरके मामा वगैरह वरपक्षके लोग तीन वार इस तरह कहें कि श्रीवत्स गोत्रमें उत्पन्न हुए इसके प्रपोते, इसके पोते, इसके लड़के, देवदत्त नामके इस कुमारके लिए हम सब आपकी कन्या वरते हैं । वर तरफके लोग जब ऐसा कह चुकें तब कन्यापक्षके लोग 'वृणीध्वं वृणीध्वं वृणीध्वं' अर्थात् वरो, वरो, वरो, इस तरह तीन वार कहें । इसके बाद कन्यापक्ष के लोग काश्यप गोत्र में उत्पन्न हुई, इसकी प्रपोती, इसकी पोती, इसकी लड़की, देवदत्ता नामकी इस कन्याको आप वरो, इस तरह तीन वार कहें । इसके बदलेमें वरपक्ष के लोग 'वृणीमहे, वृणीमहे, वृणीमहे,' अर्थात् वरते है, वरते हैं, वरते हैं, इस तरह तीन वार कहें । पश्चात् कन्याका पिता आगे लिखे कन्याप्रदान मंत्रको बोलकर सुवर्ण अक्षत और गंधोद की धारा छोड़ता हुआ कन्याका दाहिना हाथ वरके हाथमें सोंपे। वह वर भी यत्नपूर्वक उसके हाथको अपने हाथसे पकड़े | इसके बाद कन्याका पिता धर्म, अर्थ और कामके साथ साथ तुम इस कन्याका पालन करना ऐसा कहे । इसके बदले में वर धर्म, अर्थ और कामके साथ साथ मैं इस कन्याका पालन करूंगा, ऐसा कहे ।। ११६-१२१ ॥ कन्यावरण मंत्र | ॐ एकेन प्रकाश्येन पूर्वेण पुरुषेण श्रीवत्सेन ऋषिणा प्रतीते श्रीवत्सगोत्रे प्रजाताय तस्य प्रपौत्राय तस्य पौत्राय तस्य पुत्राय देवदत्तनामधेयाय अस्मै कुमाराय भवतः कन्यां वृणीमहे इति वरसम्बन्धिभिस्त्रिः पार्थनीयम् । तदा कन्यासम्बन्धिभिर्वृणीध्वमिति त्रिः प्रतिवक्तव्यम् । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सोमसेनभट्टारकविरचित___ॐ एकेन " इत्यादि मंत्रको वरपक्षके लोग तीन वार बोलें । उसके बदले में कन्यापक्षके लोग 'वृणीध्वं वृणीध्व वृणीध्वं ' इस तरह तीन वार कहें। ततः-ॐ एकेन प्रकाशेन पूर्वेण पुरुषेण काश्यपेन ऋषिणा प्रतीते काश्यपगोत्रे मनातां तस्य प्रपौत्रीं तस्य पौत्रीं तस्य पुत्री देवदत्तानामधेयां इमां कन्यां वृणीध्वं इति कन्यासम्बन्धिभित्रिर्वक्तव्यम्। तदावरसम्बन्धिभिवृणीमहे इति प्रतिवक्तव्यम् । इति कन्यावर मंत्रः। ____इसके बाद 'ॐ एकेन प्रकाश्येन ' इत्यादि मंत्रको कन्या-पक्षके लोग तीन वार उच्चारण करें । इसके उत्तरमें वरपक्षके मनुष्य 'वृणीमहे वृणीमहे वृणीमहे' इसतरह तीन वार बोलें। कन्यादान मंत्र ।-- ततश्च कन्यापिता-ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते वर्द्धमानाय श्रीवलायुरारोग्यसन्तानाभिवर्धनं भवतु । इमां कन्यामस्मै कुमाराय ददामि इवी इवीं क्ष्वी हं सः स्वाहा । इत्यनेन गन्धोदकधारापूर्वकं कन्यामदानं कुर्यात् । ___इसके बाद कन्याका पिता — ॐ नमोऽईते ' इत्यादि मंत्र पढ़कर गन्धोदककी धार छोड़ता हुआ कन्या प्रदान करे। ___ अथ कंकणम्-कंकण-बंध ।. त्रिस्त्रिरावेष्टितं सूत्रं नाभिदन्नेऽनयोः पृथक् । ऊध्वं चाधः समादाय कृत्वा पञ्चगुणं ततः ॥ १२२ ॥ हरिद्राकल्कमालिप्य वलित्वा तत्करेऽपयेत् । . मदनफळमन्यं वा मणिं सर्वेण योजयेत् ॥ १२३ ॥ वायैपन्त्रैः समायुक्तं सौवर्ण राजतं पिता। ताभ्यां तो कंकणं हस्ते बध्नीयातां मिथः क्रमात् ॥ १२४ ॥ वधू और वरके नाभिप्रदेशके पास दोनोंके चारों ओर सतके तीन तीन धागेके दो फेर करे । नीचेकी तीन,धागेकी लरका फेर ऊपरको और ऊपरकी तीन धागेकी लरका फेर नीचेको करे । जो फेर नीचेकी ओर करे उसे पैरोंमें होकर और जो उपरकी ओर करे उसे मस्तकपर होकर निकाल ले पश्चात् उसे पचंगुणा करे । उसे हल्दीमें रंगकर और बटकर तथा उसमें मदनफल या सोने चांदीकी मुद्रिका बांधकर वधू-वरके हाथमें सौंप देवे । बाद मंत्रोच्चारण पूर्वक गाजे. वाजेसहित वधू वरके हाथमें और वर वधूके हाथमें क्रमसे उस कंकणको बांधे । १२२-१२४ ।। अथ मन्त्रः-कंकण-बंधन मंत्र । - ॐ जायापत्योरेतयोर्गृहीतपाण्योरेतस्मात्परमा चतुर्थदिवसादाहोस्विदासप्तमादिज्यापरमस्य पुरुषस्य गुरुणामुपास्तिर्देवतानामर्थेनाऽग्निहोत्रं सत्कारोऽभ्यागतानां ____१ पचगुणीकी हुई एक एक लरमें सूतके धागे छह होते हैं; एवं पांच लरोंमें तीस धागे हो जाते हैं। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । .. विश्राणनं वनीपकानामित्येवं विधातुं प्रतिज्ञायाः सूत्रकंकणं सूत्रव्यपदेशभाक् रजनीसूत्रं मिथो मणिवन्धे प्रणह्यते । कंकणसूत्रबन्धनमन्त्रः । 'ॐ जाया पत्यो ' इत्यादि मंत्र पढ़कर कंकणसूत्र बांधे । वर्धापन विधि | ततश्च कुलवनिता दम्पतीपरस्परहस्त पूर्णाक्षतपुअं मस्तके त्रिवारं क्षेपयेत् । मन्त्राः - ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय स्वाहा । ॐ वहीं सम्यग्ज्ञानाय स्वाहा । ॐ =हीं सम्यक्चारित्राय स्वाहा । इति वर्धापयेत् । जब कन्या के पिता की ओरसे कन्यादान हो चुके, उसके बाद एक सुवासिनी स्त्री आवे । वह वर और कन्याके हाथमें अक्षत द्वेकर परस्पर एक दूसरेके सिरपर तीन वार क्षेपण करावे | <<' ॐ ह्रीं " इत्यादि मंत्र हैं । इनको पढ़ते हुए वर्धापन करावे । सायदुग्वार्द्रपाणिभ्यां वरस्तत्कन्यकाञ्जलिम् । द्विरुन्मृज्य ततस्तत्र द्विः क्षित्वा धवलाक्षतान् ॥ १२५ ॥ साक्षतं स्वाञ्जलिं तत्र कन्या पित्रा निषेचितम् । शान्त्याद्याशीर्भिरेवं तु क्षिपेत्तन्मूर्ध्नि साप्यथ ॥ मूर्ध्नि तण्डुल निक्षेपः स्याद्रत्नत्रयमन्त्रतः । कन्याऽप्येवं द्विरुन्मृज्य मूर्ध्नि क्षेपान्तमाचरेत् ॥ १२६ ॥ ३२७ १२७ ॥ प्रथम वर, अपने दोनों हाथोंसे कन्याकी अंजलिमें दो वार घी और दूध लगाकर दो ही वार अक्षत क्षेपण करे । अनंतर कन्याका पिता वरके हाथमें घी और दूध लगाकर अक्षत क्षेपण करे । अनन्तर वर अंजलिके उन अक्षतोंको शान्ति-मंत्र, आशीर्वाद-मंत्र आदिमंत्रोंको बोलता हुआ रत्नत्रयमंत्रद्वारा कन्याके सिरपर क्षेपण करे। वह कन्या भी वरके द्वारा दिये गये अपनी अंजलिके अक्षतोंको वरके सिरपर क्षेपण करे। इस तरह दोनों परस्पर में तीन तीन बार करें। अनन्तर इसी तरह कन्या भी वरकी अंजलिमें दो वार घी और दूध लगानेको आदि लेकर सिरपर अक्षत निक्षेपण तककी क्रिया करे | भावार्थ — जैसे वर अपने हाथोंसे कन्याकी अंजलि में दो वार घी और दूध लगाकर अक्षत छोड़ता है, अनन्तर कन्या पिताद्वारा अपनी अंजलि में दिये हुए अक्षतोंको शान्ति आदि पाठोंका उच्चारण करता हुआ कन्याके सिरपर क्षेपण करता है, उसी तरह कन्या भी अपने हाथोंसे दो वार वरकी अंजलि में घी और दूध लगाकर दो ही वार अक्षत क्षेपण करे । और अपने पिताद्वारा अपनी अंजलि में दो वार घी और दूध लगाकर क्षेपण किये गये अक्षतोंको शान्ति आदि मंत्रोंका उच्चारण करती हुई रत्नत्रयमंत्रद्वारा वरके सिरपर तीन वार क्षेपण करे । वर भी जो अक्षत कन्या उसकी अंजली में क्षेपण करती हैं उनको कन्याके सिरपर तीन वार क्षेपण करे । इस प्रकार वर्धापन क्रिया करे || १२५-२२७ ॥ विवाहविधि और होम विधि | द्धवखान्वितौ तौ च वीक्ष्य पूर्ण घटद्वयम् । कुण्डात्प्रत्यग्दिश्याग त्यो पविशेतां समासने ।। १२८ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ . सोमसेनभट्टारकविरचितनूतनौदुम्बरे पीठे धौतवस्त्रप्रसारिते। वामदक्षिणयोः प्रत्यक् प्राङ्मुखौ' तौ सुदमती ॥ १२९ ॥ . उपाध्यायस्ततः कुर्याद्धोमं सन्मन्त्रपूर्वकम् । महावाद्यनिनादेन मङ्गलाष्टकपाठतः ॥ १३० ॥ कन्याया दक्षिणं पाणिं सांगुष्ठं सव्यपाणिना। गृहीत्वा चाथ वामस्थां कृत्वाऽन्नाहुती नेत् ।। १३१ ॥ पुरस्ताद्वरवध्वोश्च स्थापनां कुरु पत्रिकी (?) । ततश्च होमकुण्डाग्रे सङ्कल्पः सूरिणोच्यते ॥ १३२ ॥ वधू और वरका वस्त्र बांधे-गठजोड़ा जोड़े। वे दोनों जलसे भरे दो कलश देखें । होमकुंउकी पश्चिम दिशामें नवीन उदंबर वृक्षकी लकडीका बैठनेके लिये एक पीठ-पट्टा बिछावे । उसपर धोया हुआ साफ वस्त्र बिछावे । उस पर आकर वधू और वर बैठे। बाई ओर वर और दाहिनी ओर वधू बैठे। दोनों पूर्व दिशाकी तरफ मुख करें । अनन्तर उपाध्याय मंत्रोच्चारणपूर्वक होम करे । उस समय बाजे बजवावें और मंगलाष्टक पढ़ें । अनंतर भंगूठे सहित कन्याका दाहिना हाथ बायें हाथ से पकड़कर उसे बाई तरफ लेवे और अन्नकी आहूति देवे । अनन्तर वर वधूके आगे अंकुरपात्र (जिसमें अंकुरारोपण किया गया है) की स्थापना करे । अनंतर होमकुडके सामने उपाध्याय संकल्प पढ़े ॥ १२८-१३२ ॥ पूर्वोक्त विधिका क्रम । पुण्याहवाचनां पश्चात्पञ्चमण्डलपूजनम् । नवानां देवतानां च पूजनं च यथाविधि ॥ १३३॥ तथैवाघोरमन्त्रेण होमश्च समिधाहुतिम् । लाजाहुतिं वधृहस्तद्वयेन च वरेण च ॥ १३४ ॥ वरस्य वामपार्वे तु कन्याया उपवेशनम् । शिला स्थाप्या तयोरग्रे मण्डले कोष्टसंयुता ॥ १३५ ॥ शिलाग्रे स्थापिताः सप्त पुजा अक्षतसम्भवाः । एतेषां पुरतोऽत्यर्थ दम्पत्योः स्थापनं मतम् ॥ १३६ ॥ ततो दक्षिणपादस्य योऽगुष्ठो यावरञ्जितः। गृहीतव्यो वरेणैव सप्तकृत्वो मुहुर्मुदा ॥१३७॥ स्थानानां परमाणां च सप्तानां गुणवत्तया। .. सङ्कल्पेन क्रमेणैव स्पष्टव्याः सप्तपुञ्जकाः॥ १३८॥ १ श्लोकमें ' प्रत्यक्प्राङ्मुखौ ' पाठ है, जिसका अर्थ पश्चिम दिशा और पूर्व दिशाको ओर मुख करे, होता है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । शिलायाः स्पर्शनं पश्चात्कर्तव्यं तेन यत्नतः । अग्नेः प्रदक्षिणं कर्म स्पर्शनं तृणजे पुनः ॥ १३९ ॥ पूर्णाहुतिस्ततः काया समन्तादुपवेशनम् । नीराजनावलोके च तथाऽऽकर्णनमाशिषः ॥ १४ ॥ पुण्याहवाचन, पंचमंडल पूजन और नव देवोंका पूजन शास्त्रोक्त विधिके अनुसार क्रमसे करे । तथा अघोर मंत्रद्वारा होम करे और समिधाहुति दे । वर और कन्याके दोनों हाथोंसे लाजाहुति दे । वरकी बाई तरफ कन्याको बैठावे । उन दोनोंके सामनेके मंडलपर एक शिला और पत्थर स्थापित करे । शिलाके ऊपर अक्षतके सात पुंज रक्खे। इनके सामने दंपतीको खड़ा करे । अनंतर वर, मेंदीसे रंगे हुए कन्याके दाहिने अंगूठेको पकड़कर 'ये सात परमस्थान हैं। ऐसा संकल्प कर क्रमसे उन सात पुंजोंको छुवावे । अनंतर शिला स्पर्शन करे, अमिकी प्रदक्षिणा देवे, सुव स्पर्शन करे और पूर्णाहुति देवे । पश्चात् दोनोंको बैठा दे । बैठकर दोनों आरती देखें और आशीर्वाद सुनें। भावार्थ-ऊपरके श्लोकोंमें जो विधि बताई थी उस विधिका यह क्रम है । सो जिस क्रमसे विधि लिखी गई है उसी क्रमसे करे ॥ १३३-१४० ॥ . पुण्याहवाचनका संकल्प। अथ वेदिकादिग्भागे दम्पती उपवेश्य भूमिशुद्धिं विधाय पुण्याहवाचनां पठेत् । मंत्र:-ॐ अद्य भगवतो महापुरुषस्य पुरुषवरपुण्डरीकस्य परमेण तेजसा व्याप्तलो. कालोकोत्तममङ्गलस्य मङ्गलस्वरूपस्य गर्भाधानाद्युपनयनपर्यन्तक्रियासंस्कृतस्या स्य देवदत्तनाम्नः कुमारस्योपनीतिव्रतसमाप्तौ शास्त्रसमभ्यसनसमाप्तौ समावर्तनान्ते ब्रह्मचर्याश्रमेनेतरे गृहस्थाश्रमस्वीकारार्थ अग्निसाक्षिकं देवतासाक्षिकं बन्धुसाक्षिकं ब्राह्मणसाक्षिकं पाणिग्रहणपुरःसरं कलत्रे गृहीते सति अनयोर्दम्पत्योः सर्वपुष्टिसम्पादनार्थ विधीयमानस्य होमकर्मणो नान्दीमुखे पुण्याहवाचनां करिष्ये । इति मन्त्रेण पुण्याहवाचनां कृत्वा साज्यसमिधो होमयेत् । ततो व्रीहिलाजानहोम कुर्यात् । __अनंतर वेदिकाके समीप वधू और वरको बैठाकर भूमिशुद्धि करे और पुण्याहवाचन पढ़े। तथा ' ॐ अद्य भगवतो महापुरुषस्य ' इत्यादि मंत्रद्वारा पुण्याहवाचन करके घृत और समिधाका होम करे । पश्चात् धान्य, लाजा और अन्नका होम करे ।। ---- सप्तपदी-मंत्र । ततः शिलाग्रस्थापितसप्ताक्षतपुजाग्रे करेण कन्यांगुष्ठस्पर्शनम् । मंत्रा-ॐ सज्जातये स्वाहा । ॐ सद्गार्हस्थ्याय स्वाहा । ॐ परमसाम्राज्याय स्वाहा । ॐ परमपारिवाज्याय स्वाहा । ॐ परमसुरेन्द्राय स्वाहा । ॐ परमाहन्त्याय स्वाहा । ॐ परमनिर्वाणाय स्वाहा ।। इति कन्यांगुष्ठेन सप्तपरमस्थानस्पर्शनमन्त्रः । ४२ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० सोमसेनभट्टारकविरचित उक्त विधिके अनन्तर शिलाके ऊपर स्थापित किये हुए अक्षतके पुंजोंको वर अपने हाथ से कन्याका दाहिना अंगुष्ठ पकड़कर स्पर्शन करावे । और 'ॐ सज्जातये स्वाहा' इत्यादि मंत्र पढ़े | यह सप्त परमस्थानों को कन्याके अंगूठे से स्पर्शन करने का मंत्र है ॥ ६ ॥ ततः पश्चात्पूर्णाहुतिं अन्ते पुण्याहं निगद्य प्रदक्षिणां कारयेत् । शांतिधारा पुष्पाञ्जलिप्रणामौ भक्त्या क्षमापना आशिषो भस्मप्रदानम् । तद्यथा ॐ भगवतां महापुरुषाणां तीर्थंकराणां तद्देशानां गणधराणां शेषकेवलिनां पाश्चात्यकेवलिनां भवनवासिनामिद्रा व्यन्तरज्योतिष्का इन्द्राः कल्पाधिपा इन्द्राः सम्भूय सर्वेऽप्यागता अग्निकुंडके चतुरस्रत्रिकोणवर्तुलके वा अग्नीन्द्रस्य मौलेरुद्घृतं दिव्यमग्निं तंत्र प्रणीतेन्द्रादीनां तेषां गार्हपत्याहवनीयौ दक्षिणाग्निरिति नामानि त्रिधा विकल्प्य हि श्रीखण्डदेवदार्वाद्यैस्तरां प्रज्वाल्य तानर्हदादिमूर्तीन् रत्नत्रयरूपान्विचिंत्योत्सवेन महता सम्पूज्य प्रदक्षिणीकृत्य ततो दिव्यं भस्मादाय ललाटे दोः कण्ठे हृदये समालभ्य प्रमोदेरन् तद्वदिदानीं तानग्रीन हुत्वा दिव्यैर्द्रव्यैस्तस्मात्पुण्यं भस्म समाहृतमनयोर्दम्पत्यो ( एताभ्यां दम्पतीभ्यां ) भव्येभ्यः सर्वेभ्यो दीयते ततः श्रेयो विधेयात् । कल्याणं क्रियात् । सर्वाण्यपि भद्राणि प्रदेयात् । सद्धर्मश्रीबलायुरारोग्यैश्वर्याभिदृद्धिरस्तु । भस्मप्रदानमन्त्रोऽयम् । सप्तपदीके अनंतर उपाध्याय पूर्णाहुति देवे । अन्तमें पुण्याहवाचन पढ़े और वर-वधूको अभिकी प्रदक्षिणा करावे । तथा शान्तिधारा, पुष्पांजलि, प्रणाम, क्षमापना आशीर्वाद, भस्मप्रदान आदि क्रियाएं करें । “ ॐ भगवतां महापुरुषाणां तीर्थकराणां " इत्यादि मंत्र पढ़कर कुंडमेंसे भस्म लेकर दंपति को और उपस्थित सब सज्जनों को देवे । यह भस्म प्रदान करनेका मंत्र है । आशीर्वाद । मनोरथाः सन्तु मनोज्ञसम्पदः, सत्कीर्तयः सम्पति सम्भवन्तु वः । व्रजन्तु विघ्न निधनं बलिष्ठा, जिनेश्वर श्रीपदपूजनाद्वः ॥ १४१ ॥ शान्तिः शिरोधृताजिनेश्वरशासनानां, शान्तिर्निरन्तरतपोभरभावितानाम् । शान्तिः- कषायजयजृम्भितवैभवानां, शान्तिः स्वभावमहिमानमुपागतानाम् ॥ १४२ ॥ जीवन्तु संयमसुधारसपानतृप्ता, नन्दन्तु शुद्धसहजोदयसुप्रसन्नाः । सिद्ध्यन्तु सिद्धमुखसङ्गकृताभियोगा, - स्तीत्रास्तपन्तु जगतां त्रितये जिनाज्ञाः ॥ १४३॥ श्री शान्तिरस्तु शिवमस्तु जयोऽस्तु नित्य - मारोग्यमस्तु तव पुष्टिसमृद्धिरस्तु । कल्याणमस्त्वभिमुखस्य च दृद्धिरस्तु दीर्घायुरस्तु कुलगोत्रधनं सदास्तु ॥ १४४ ॥ इत्याशीदनमाचार्येण कार्यम् । इन श्लोकोंको पढ़कर गृहस्थाचार्य आशीर्वाद दे । इन आशीर्वादके श्लोकोंका भाव यह है कि, मनचाही मनोश संपत्ति तुम्हारे होवे । तुम्हारी सुकीर्ति जगतमें फैले । श्री जिनदेवके चरणकमलोंकी पूजाके प्रभावसे तुम्हारे बलवान् से बलवान् विघ्न नाशको प्राप्त होवें । जिनेश्वरदेवके शासनको धारण Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णिकाचार | करनेवालोंमें शान्ति हो । जो निरंतर तपश्चरणकी भावना करते हैं-बड़े बड़े महोपवासादि तप करते हैं उनमें शान्ति हो । कषायों के जीतनेसे जिनका वैभव बढ़ा चढ़ा है उनमें शान्ति हो । संयमरूपी रसास्वादनसे तृप्त पुरुष सदा जीते जागते रहें । शुद्ध और स्वाभाविक उदयसे प्रसन्न पुरुष समृद्धिको प्राप्त होवें । जिन्होंने सिद्धि-सुखकी संगतिमें संकल्प कर लिया है वे सिद्धिको प्राप्त होवें । जिनेंद्रकी आज्ञा तीन जगतमें बेरोकटोक विचरण करे । तुम्हारी शान्ति हो, तुम्हारा शिव हो, तुम्हारी निरंतर जय हो, तुम्हें आरोग्य प्राप्त हो, तुम्हारी पुष्टि-समृद्धि हो, तुम्हारा कल्याण हो, सुखकी वृद्धि हो, तुम दीर्घ आयु होओ, तुम्हारे निरंतर कुल, गोत्र और धन बना रहे || १४१-१४४ ॥ शिरस्यक्षतपुञ्जस्य धारणं शुद्धमानसम् । नमस्कारोऽग्निदेवस्य मूर्ध्ना प्रणमनं परम् ।। १४५ ॥ सभायाः पूजनं वस्त्रैस्ताम्बूलाद्यैर्विशेषतः । सदा गुणवता चापि ध्रुवतारानिरीक्षणम् ॥ १४६ ॥ गृहस्याभ्यन्तरे घण्टाद्वयस्याप्यवलोकनम् । ३३१ तथा बन्धुजनैः सार्धं पयः प्रभृति भोजनम् ॥ १४७ ॥ आशीर्वाद हो चुकने के अनन्तर विवाह - दीक्षामें नियुक्त वे वधू-वर अपने मस्तक पर अक्षत धारण करें, मनको नाना संकल्प-विकल्पोंसे रहित शुद्ध करें । उपाध्यायको नमस्कार करें। अभिदेवको सिर झुकाकर प्रणाम करें। वस्त्र तांबूल आदि द्वारा उपस्थित सभ्यों का सत्कार करें। ध्रुवताराका निरीक्षण करें । घरके भीतर टँगी हुई दो घंटाएं देखें । और बंधुजनोंके साथ साथ दुग्धं आदि भोजन करें ॥ १४५-१४७ ॥ ततः प्रभृति नित्यं च प्रभाते पौष्टिकं मतम् । निशीथे शान्तिहोमेऽह्नि चतुर्थे नागतर्पणम् ।। १४८ ॥ तदग्रे च प्रभाते च गृहमण्डपयोः पृथक् । सम्मार्जनं च कर्तव्यं मृत्स्ना गोमयलेपनम् ॥ १४९ ॥ पौष्टिकहोमान्तरके सकलैः सह बन्धुभिश्युतोष्णीषैः । कार्यं हि पंक्तिभोजनमप्यत एवात्र ताम्बूलम् ॥ १५० ॥ I उस दिनसे लेकर प्रतिदिन प्रातः काल के समय पौष्टिक कर्म करे । रात्रिमें शान्ति होम करे 1चौथे दिन नागतर्पण करे । उसके दूसरे दिन घर और मंडपको झाडू बुहारी लगाकर साफ करावे । मिट्टी और गोबर से लिपवावे । पौष्टिक होम हो चुकनेके पश्चात् सम्पूर्ण बंधुजनोंके साथ साथ वर नंगे सिर पंक्ति-भोजन करे । पश्चात् सबको पान-सुपारी आदि देवे ॥ १४८-१५०॥ विशाले मनोशे समे भूमिभागे, विवाहस्य सन्मण्डपे शोभमाने । बृहत्कर्णिकं चाष्टपत्रं सुपद्मं, सरःसंयुतं वा चतुर्द्वारयुक्तम् ॥ १५१ ॥ चतुर्भिस्तथाऽस्त्रेरुपेतं विशेषाद्वरैः पञ्चचूर्णैर्विरच्यैव साधु । दधन्मण्डयन्पञ्च वा कर्णिकान्तः स्थितः पालिका मूर्ध्नि तस्या विचित्रम् ॥। १५९ ।। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सोमसेनभट्टारकविरचित नवीनं घटं पंचभिश्चारुरत्न,- स्तथा सत्यभिर्धान्यकैः पूर्यमाणम् । सदर्भ सदूर्व पिधानेन युक्तं, विचित्रेण संस्थापयेच्चारु पत्नी ॥ १५३ ॥ विशाल और मनोश समान-भूमि-भागके ऊपर जो संपूर्ण शोभा-संयुक्त विवाह मंडप बनाया जाता है उसपर आठ पांखुरीका एक कमल बनावे । कमलके बीचमें एक बड़ी भारी कर्णिका बनावे । कमलके चारों तरफ पष्करिणी ( तालाब ) का आकार बनावे और उसके चारों तरफ चौकोन चार दरवाजे बनावे । कमलकी पंखुरियों और दरबाजोंके ऊपर पांच तरहके रंग भरे । कणिकाके भीतर पांच मंडल काढ़े। उसपर वधू पांच तरहके रत्नों, सात प्रकारके धान्योसे भरकर तथा दर्भ और दूब रखकर और ढक्कन लगाकर एक नवीन कलश रक्खे ॥ १५१-५३ ॥ दलेष्वष्टसु प्राक्प्रभृत्याव्हयेषु, लिखेदष्टनागान् स्वमंत्रैः प्रसिद्धान् । अलंकृत्य साक्षाबहिर्मण्डलेभ्यः, सदीशानकोणादिषु प्रायशोऽमी ॥ १५४ ॥ घटाः स्थापनीयाश्चतुःसंख्ययाऽतो, मुखेष्वप्यमीषां नवाः पल्लवाश्च । प्रमूनैस्तथा मालया चारुवस्त्रैः, सहादर्शकैः शोभमानान् विशेषात् ॥ १५५ ॥ बहिः पाक्सुपूर्वेभ्य एतेभ्य एव, स्वयं द्वारकेभ्यो गजो लेखनीयः । सुचूर्णै यो वा गजस्तद्वदुक्षा, सपुच्छः सशृङ्गः सलिङ्गः सकर्णः ॥ १५६ ॥ तथा नैर्ऋते कन्यकापित्रभीष्टप्रतापादि गोत्रं तथाऽनर्दिशीह ।। ककुभ्याशुगस्यैव गोत्रं वरस्य, प्रतापादि लेख्यं तथेशानकोणे ॥ १५७ ॥ सदित्येवमेतन्महामण्डलं वेशपूजार्चनायोग सद्रव्यपूर्णम् । अमत्रैस्तथैवांकुराणां शुभानामलंकृत्य चाचार्यसाधूपदेशात् ॥ १५८ ॥ सरागेऽपि सन्ध्याभिधाने हशीह, वरस्यापि वध्वाः शुभे स्नानके वा । दृढं चासनं युज्यते चादरेण, सुमाङ्गल्यवादित्रगीतादिपूर्वम् ॥ १५९ ॥ क्रिया नापितस्यैव तैलावमर्दो, जलस्थानमेताद्ध पश्चाद्विधेयम् । अलंकारशोभा सुवस्त्रैः सुमाल्यै,-स्ततः स्थापनं पीठयुग्मं पृथक् वै ॥ १६० ॥ कमलके पूर्वादि आठों दिशाओंके आठों पत्तोंपर अपने अपने मंत्रोंसे प्रसिद्ध आठ नागों के चित्र खेंचे । मंडलके बाहरके चतुष्कोणकी, ईशानादि चारों विदिशाओंके कोनोंपर चार कलश रक्खे । कलशोंके मुखोंको नवीन पत्तोंसे, पुष्पोंसे, मालाओंसे, वस्त्रोंसे तथा दर्पणोंसे सजावे । चौको. णकी चारों दिशाओंके चारों दरवाजोंपर चूर्णके चार चित्र खेंचे। पूर्व दिशाके द्वारपर हाथीका चित्र, दक्षिण-द्वारपर घोड़ेका चित्र, पश्चिम-द्वारपर पुनः हाथीका चित्र और उत्तर-द्वारपर पूंछ, सींग, लिंग, कर्ण आदिकी स्पष्टतासहित बैल का चित्र खेंचे । नैर्ऋत्य और आग्नेय दिशा तरफके कोणोंपर कन्याके पिताके अभीष्ट प्रताप आदि गोत्र लिखे तथा वायव्य और ईशान दिशामें वरके अभीष्ट प्रताप आदि गोत्र लिखे । वहीं मंडलपर जिनेन्द्र पूजाके योग्य उत्तम उत्तम द्रव्य रक्खे और अंकु. रोंके पात्र और अन्य शुभ वस्तुओंसे गुरूपदेशके अनुसार मंडलको अच्छी तरह सजावे । जब संध्याके । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार ३३३ समय आकाशमें कुछ कुछ लालिमा छा जाय तब वहीं मंडप वर और वधूके स्नान के लिए चूर्णके दो आसन खँचे, उन आसनोंपर दो पट्टे बिछावें । उनपर वधू और वरको बैठाकर क्रिया करें। प्रथम नाई - तैल मर्दन करे । पश्चात् जल स्नान करावे । अनंतर वस्त्र, आभूषण, माला आदिसे दोनों को अलंकृत करें । स्नान के समय सुहासिनियाँ मंगल गीत गावें और बाजे बजानेवाले बाजे बजावें !.. ॥ १५४ - १६० ॥ अथ मंत्र:- गंध अक्षत देनेका मंत्र । ॐ सद्दिव्यगात्रस्य गन्धधारादिक्चक्रं सुगन्धं बोभवीति सुगन्धोऽपि निजेन गन्धेन सुरादयः सर्वे भृशं जायन्ते गन्धिलाः यस्य पुनस्तंतन्यते ह्यनन्तं ज्ञानं दर्शनं वीर्यं सुखं च सोऽयं जिनेन्द्रो भगवान् सर्वज्ञो वीतरागः परा देवता तत्पदोरर्चितप्रार्चितप्रतिलब्धा अमी गन्धा भाले भुजयोः कण्ठे हृत्प्रदेशे त्रिपुण्ड्रादिरूपेण भाक्तिकैः प्रश्रयेण सन्धायन्ते ते भवन्तु सर्वस्मा अपि श्रेयसे लाभे ( भाले ) सन्धारिता अक्षता अप्येवं भवन्तु । इति गन्धाक्षतप्रदानमत्रः । 1 यह गंध अक्षत देनेका मंत्र है । इसे पढ़कर सबको गंध-अक्षत देना चाहिए। गंधको ललाट पर, दोनों भुजाओं पर, गलेपर और हृदय पर लगावें तथा अक्षतको सिरपर धारण करें । ताली बांधने की विधि । रात्रौ ध्रुवतारादर्शनानन्तरे विद्वद्विशिष्टबन्धुजनैश्च सभापूजा । चतुर्थदिने वधूवरयोरपि महास्नानानि च स्त्रपनार्चनाहोमादिकं कृत्वा तालीबन्धनं कुर्यात् । तद्यथा रात्रिको ध्रुवतारा देखनेके बाद विद्वानों और विशिष्ट बंधुजनों के साथ अन्य उपस्थित मंडलीका सत्कार करे | विवाह के चोथे दिन वर और वधूको महास्नान कराकर और जिनाभिषेक, पूजा होम आदि करके तालीबंधन नामका कृत्य करे । वह इस प्रकार है वरेण दत्ता सौवर्णी हरिद्रासूत्रग्रन्थिता । ताली करोतु जायाया अवतंसश्रियं सदा ॥ १६१ ॥ मंत्र: ॐ एतस्याः पाणिगृहीत्यास्तालीं बध्नामि इयं नित्यमवतं लक्ष्मी विदध्यात् । इति कन्याकण्ठे तालीबन्धमन्त्रः । वरके द्वारा दी गई और हलदीसे रंगे हुए धागे में गुंथी- पिरोई गई सोनेकी ताली, इस वधूके मुख्य अलंकारकी शोभा बढ़ावे । “ ॐ एतस्या: पाणिगृहीत्याः " इत्यादि मंत्रको पूर्ण पढ़कर कन्याके गलेमें ताली बांधे । तथा यह क्रिया विवाह के चौथे दिन करे । अनन्तर नीचे लिखा मंत्र पढ़कर आशीर्वाद दे ॥ १६१ ॥ ततः— इन्द्रस्य शच्या सम्बन्धो यथा रत्या स्मरस्य च । सम्बन्धमाला सम्बन्धं दम्पत्योस्तनुतात्तथा ।। १६२ ।। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ सोमसेनभट्टारकविरचित.. मंत्र:-ॐ पुलोमजापल्ल्या सार्ध यथा पाकशासनस्य अमा रोहिण्या देव्या जैवातृकस्यैव यथा कन्दर्पदेवस्य सार्क रत्या देव्या सम्बन्धस्तथा कल्याणसम्माप्तयोवेधूवरयोरनयोः करोतु सम्बन्धं बन्धमाला तनोतु भाग्यं सौभाग्यं च शान्ति काति दीर्घमायुष्यमपत्यानां बहूनां लब्धि चापि दद्यात् । ___ इन दोनों दंपतियोंका संबंध ऐसा हो जैसा इंद्र और शचीका, तथा कामदेवका और रतिका । " ॐ पुलोमजा पत्न्या साधं " इत्यादि मंत्र पढ़कर उपाध्याय वधू और वरको आशीर्वाद देवे।। १६२॥ ___ माला-बंधन मंत्र । ॐ भार्यापत्योरेतयोः परिणति प्राप्तयोस्तुरीये घस्रे नक्तं वेलायां तासपर्यायाश्व तौ सम्बध्येते सम्बन्धमाला अतो लब्धिर्बह्वपत्यानां द्राधीयं आयुश्चापि भूयात् । अनेन कन्यावरयोः कण्ठे मालारोपणम् । इति मालामन्त्रः।। "ॐ भार्यापत्योरेतयोः" इत्यादि ऊपर लिखा मंत्र पढ़कर चौथे दिनकी रात्रिके समय वधू और वरको माला पहनावें। सुहोमावलोकः पुनर्मगलीयं, ससूत्र क्रमाद्धन्धयेत्कण्ठदेशे । स्वसम्बन्धमालापरीवेष्टनं च, सुकर्पूरगोशीर्षयोर्लेपनं च ॥ १६३ ॥ प्रथम होम करे । फिर कन्याके गलेमें वर ताली बांधे । अनन्तर उपाध्याय वर-वधूको माला पहनावे । पश्चात् नियोगी जन दोनोंके कपूर और गोरोचनाका लेप करें ॥ १६३ ॥ वधूभिर्युपात्तापात्राभिराभिः, प्रवेशो वरस्यैव तद्वच्च वध्वाः । शुभे मण्डपे दक्षिणीकृत्य तं वै, प्रदायाशु नागस्य साक्षाद्वलिं च ॥ १६४ ॥ जिन सुहासिनियोंने अर्घपात्र (आरती) हाथमें लिया है वे वर और वधूको मंडपकी प्रदक्षिणा दिलाकर उसके अन्दर ले जावें । वहां पूर्वोक्त कमलके आठ पत्तोंपर खिचे हुए नागोंको बलिप्रदान करें ॥ १६४॥ स्वपितृगोत्रसुचिन्हितमण्डले हयसमीपे वधूमपि दर्शयेत् । स्वपितृगोत्रसुचिन्हितमण्डले वृषसमीपे वरस्य मता स्थितिः ॥ १६५ ॥ ___ नागोंको बलि देते समय दक्षिणद्वारपर खिंचे हुए घोडेके समीप, जहां पर कि कन्याके पिताके गोत्र आदि लिखे रहते हैं वहां कन्याको खड़ी करे । तथा उत्तर द्वारपर खिंचे हुए बैलके समीप, जहां पर कि वरके पिताके गोत्र आदि लिखे रहते हैं वहां वरको खड़ा करे ॥ १६५ ॥ उपाध्यायवाग्भिः समीपे समेत्य, स्वके मंचके चोपविश्यैव साधु । सताम्बूलसत्तण्डुलैः प्रीत एव, च्युतं कंकणं स्थापयेत्सूत्रकं च ॥ १६६ ॥ उपाध्यायके बुलानेपर वर-वधू उसके समीप आवें । आकर अपने अपने आसनोंपर बैठे । वहीं पर तांबूल और तंडुलके साथ कंकण-मोचन विधिके द्वारा खोले हुए कंकण सूत्रको रक्खे ॥१६६॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | समित्समारोपणपूर्वकं तथा, हुताशपूजावसरार्चनं मुदा । गृहीतवीटी च वरो वधूयुतो, विलोकनार्ह स्वपुरं व्रजेत्प्रभोः ॥ १६७ ॥ ततः शेषहोमं कृत्वा पूर्णाहुतिं कुर्यात् । ३३५ ॐ रत्नत्रयार्चनमयोत्तमहोमभूति, युष्माकमावहतु पावनदिव्यभूर्तिम् । षट्खण्डभूमि विजयप्रभवां विभूतिं, त्रैलोक्यराज्यविषयां परमां विभूतिम् ॥ १६८ ॥ इति भस्मप्रदानमन्त्रः । समिधा में अनिकी स्थापना करके उसकी पूजा करे । अनन्तर वर सबका यथायोग्य सत्कार कर और स्वयं पान-बीड़ा लेकर वधूके साथ साथ अपने नगरको जावे | मालाबंधनादिकके अनन्तर होमकी शेष विधिको पूर्ण कर पूर्णाहुति देवे और “ ॐ रत्नश्रयार्चनमयोत्तम " इत्यादि मंत्र - श्लोक पढ़कर भस्म प्रदान करे । इस तरह यह भस्मप्रदानमंत्र है । इस मंत्र का भाव यह है कि यह रत्नत्रयकी पूजामयी उत्तम होमकी विभूति ( भस्म ) तुम्हें पवित्र और दिव्य विभूति देवे, षट्खंडके विजयकी संपत्ति देवे और तीन लोकके राज्यकी उत्कृष्ट अनन्तचतुष्टय स्वरूप लक्ष्मी देवे ॥ १६७-१६८ ॥ सुवर्णप्रदानमंत्र | हिरण्यगर्भस्य हिरण्यतेजसो, हिरण्यवत्सर्वसुखावहस्य | प्रसादतस्तेऽस्तु हिरण्यगर्भता, हिरण्यदानेन सुखी भव त्वम् ॥ १६९ ॥ सुवर्णविश्राणनमेव चाद्य, सुवर्णलाभं च हिरण्यकान्तिम् । स्वर्णार्थसौख्यं परिणायमेत, -द्वधूवराभ्यां नियतं ददातु ॥ १७० ॥ हिरण्यविश्राणनमेव चाद्य, हिरण्यलाभं च हिरण्यकान्तिम् । हिरण्यगर्भोपमपुत्रजातं वधूवराभ्यां नियतं ददातु ॥ १७१ ॥ इतिस्वर्णदानमन्त्रः । हिरण्यगर्भ, हिरण्यकान्ति और हिरण्यके समान सर्व सुखके धारक जिनेन्द्र के प्रसादसे तुम हिरण्यगर्भ होओ और हिरण्यका दान देकर सुखी होओ। आजके इस सुवर्णदानसे वधू और वरको सुवर्णका लाभ हो, उनकी सुवर्णकीसी कान्ति हो और उनको सुखकी प्राप्ति हो । आजका यह सुवर्णदान वधू और वरको हिरण्यलाभ हिरण्यकान्ति और हिरण्यगर्भके सदृश पुत्र प्रदान करे । इस मंत्रको पढ़कर स्वर्णदान दे । यह स्वर्णदान करनेका मंत्र है ॥ १६९-१७१ ॥ तदनन्तरं कंकणमोचनं कृत्वा महाशोभया ग्रामं प्रदक्षिणीकृत्य पयःपाननिधुवनादिकं सुखेन कुर्यात् । स्वग्रामं गच्छेत् । अनन्तर कंकण मोचन करके भारी विभूतिके साथ ग्रामकी प्रदक्षिणा देकर अपने ग्रामको जावे। वहां दुग्धपान, भोजन, संभोगादि क्रियाएं करें । यहांतक विवाहविधि प्रायः पूर्ण हो चुकी । आगे ग्रन्थकार " अथ विशेषः " ऐसा लिखकर परमतके अनुसार उस विषयका कथन करते हैं जिसका जनमत के साथ कोई विरोध नहीं है और प्रायः सर्वसाधारण है । यथा Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ RAAAAAvvvvwww.mayawani Manavaivanamanvisawar सोमसेनभट्टारकविरचितविवाहे दम्पती स्यातां त्रिरात्रं ब्रह्मचारिणौ । अलंकृता वधूश्चैव सहशय्यासनाशिनौ ॥ १७२॥ विवाह हो जानेके बाद वे दंपती तीन दिनतक ब्रह्मचारी रहे-संभोगादि क्रिया न करें । अनंतर साथ सोवें, साथ बैठे और साथ भोजन करें। श्लोकके उत्तरार्धका पाठ ऐसा भी है: अधः शय्यासनौ स्यातामक्षारलवणासिनौ । अर्थात्-भूमिपर ही सोवें और भूमिपर ही बैठें। क्षार और लवणसे रहित भोजन करें ॥१७२॥ वध्वा सहैव कुर्वीत निवासं श्वशुरालये। चतुर्थदिनमत्रैव केचिदेवं वदन्ति हि ॥ १७३ ॥ कोई कोई आचार्य ऐसा कहते हैं कि वर, वधूके साथ साथ चौथे दिन भी सुसरालमें ही निवास करे ॥ १७३ ॥ . आगे " अथ परमतम्मृतिवचनं " ऐसा लिखकर ग्रन्थकार परमंतकी स्मृतिके वाक्य उद्धृत करते हैं। चतुर्थीमध्ये ज्ञायन्ते दोषा यदि वरस्य चेत् । दत्तामपि पुनदधात्पिताऽन्यस्मै विदुर्बुधाः ॥ १७४ ॥ पाणि-पीड़न नामकी चौथी क्रियामें अथवा सप्तपदीसे पहले वरमें जातिच्युतरूप, ईनिजातिरूप या दुराचरणरूप दोष मालूम हो जाय तो वाग्दानमें दी हुई भी कन्याको उसका पिता किसी दूसरे श्रेष्ठ जाति आदि गुणयुक्त वरको देवे, ऐसा बुद्धिमानोंका मत है। सो ही याज्ञवल्क्य स्मृतिमें कहा है दत्तामपि होत्पूर्वाच्छ्रेयांश्चेदर आव्रजेत् । मिताक्षराटीका--यदि पूर्वस्मात् वरात् श्रेयान् विद्याभिजनाधतिशययुक्तो वर आगच्छति, पूर्वस्य च पातकयोगो दुवृत्तत्वं वा तदा दत्तामपि हरेत्। एतच्च सप्तपदात्प्राग्दृष्टव्यं । इसका आशय यह है कि यदि पहले वरसे, जिसके साथ वाग्दान किया गया हो-विद्या, श्रेष्ठकुल-जाति आदि गुणोंसे युक्त दूसरा वर मिल जाय और पहले वरमें जातिच्युत या दुराचरण-रूप दोष हो तो वाग्दानमें दी हुई भी कन्याको पहले वरको न देवे । यह नियम सप्तपदीक पहले समझना। 'दत्ता' 'दत्वा' आदि शब्दोंका अर्थ इस प्रकरणमें टीकाकारोंने वाग्दाने दत्ता या वाचादत्ता किया है । यथा-- दत्वा कन्यां हरन दंड्यो व्ययं दद्याच सोदयं । टीका--कन्यां वाचा दत्वापहरन् द्रब्यानुबंधाद्यनुसारेण राज्ञा दंडनीयः । एतच्च अपहारकारणाभावे । सति तु कारणे 'दत्तामपि हरेत् कन्यां श्रेयांश्चेद्वर आव्रजेत्' इत्यपहारभ्यनज्ञानान दंड्यः । यच्च वाग्दाननिमित्तं वरेण स्वसंबंधिनां वोपचारार्थ धनं व्ययीकृतं तत्सर्व सोदयं सवृद्धिकं कन्यादाता वराय दद्यात् । भावार्थ--कन्याका पिता कन्याका वाग्दान करके विना ही कारण उस वरके साथ अपनी कन्याका व्याह न करे तो राजा उसके पिताको उसकी योग्यतानुसार दंड दे । परंतु ' दत्तामपि हरेत्' इत्यादि लोकके अनुसार न देनेका कारण उपस्थित हो तो दंड न दे । तथा वरका वाग्दानके Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार 1 ३३७ निमित्त अपने कुटुंबियोंका सत्कार करनेमें जो खर्च पड़ा हो वह सब मय वृद्धिके कन्यादाता वरको देवे । अतः इस श्लोकका अर्थ संप्रदायविरुद्ध नहीं है । परंतु जो लोग 'चतुर्थीमध्ये' का अर्थ विवाह हो चुकने के बाद चौथा दिन करते हैं उनका वह अर्थ अवश्य संप्रदाय के विरुद्ध है || १७४ ॥ प्रवरैक्यादिदोषाः स्युः पतिसङ्गादधो यदि । दत्तामपि हरेद्दद्यादन्यस्मा इति केचन ॥ १७५ ॥ अथवा किन्हीं किन्हीं ऋषियोंका ऐसा भी मत है कि यदि पतिसंग - पाणिपीड़न से पहले वरणक्रियामें वर और कन्या के प्रवर ( ऋषिमोत्र ), गोत्र ( वंशपरंपरा ) आदि एक या सदृश हों तो कन्यादाता उस वाग्दत्ता कन्याको उस वरको न देकर किसी भिन्न प्रवर, गोत्र आदि गुणवाले वरको देवे ॥ १७५ ॥ कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेदिति गालवः । कस्मिँश्विदेश इच्छन्ति न तु सर्वत्र केचन ॥ १७६ ॥ कलियुगमें एक धर्मपत्नीके होते हुए दूसरा विवाह न करे, ऐसा गालव ऋषिका उपदेश है । परंतु उनके इस उपदेशको किसी किसी देश में कोई कोई मानते हैं, सब जगह सब लोग नहीं मानते। अथवा किसी किसी देशमें कोई कोई एक धर्मपत्नीके होते हुए भी दूसरा विवाह स्वीकार करते हैं, सब देशों में नहीं । भावार्थ- - ब्राह्मण समाज में भी प्रथम विवाहितांको धर्मपत्नी माना है । उसके होते हुए द्वितीय विवाहिताको रतिवर्धिनी-भोगपत्नी कहा है । प्रथम विवाहिता सवर्णा होना चाहिए, ऐसा मनुका उपदेश है । मनुके उस उपदेश से यह भी झलकता है कि प्रथम सवर्णा के साथ पाणिग्रहण करना ही श्रेष्ठ है और यह प्रथम विवाह ही धर्मविवाह है । उसके होते हुए अन्य विवाह काम्यविवाह है । याज्ञवल्क्यका मत है कि सवर्णा स्त्रीके होते हुए असवर्णा स्त्रीसे धर्मकृत्य न कराये जावें । सवर्णाओंमें भी धर्मकार्यों में प्रथम विवाहिताको नियुक्त करे, मध्यमा या कनिष्ठाको नहीं । इससे यह फलितार्थ निकला कि पहला सजाति कन्या के साथ विवाह करना ही श्रेष्ठ और धर्मविवाह है, द्वितीय नहीं । अतः इसी द्वितीय विवाहका गालव ऋषि निषेध करते हैं । वे दूसरा काम्यविवाह स्वीकार नहीं करते । कोई कोई ब्राह्मण - ऋषि दो विवाहों को भी धर्म्यविवाह स्वीकार करते हैं और तृतीय विवाहका निषेध करते हैं । तब संभव है कि गालव ऋषि द्वितीय विवाहका भी निषेध करते हों। इसमें कोई आश्चर्य नहीं । तथा ब्राह्मण संप्रदाय में कलियुग में कई कृत्योंके करनेका निषेध किया है । जैसे -पतिके मरजानेपर पुत्र न हो तो देवरसे एक पुत्र उत्पन्न करना, अस्वर्णा के साथ विवाह करना आदि । अत १ - प्रथमा धर्मपत्नी स्याद्वितीया रतिवर्धिनी । दृष्टमेव फलं तत्र नादृष्टमुपपद्यते ॥ २-सवर्णा द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि । कामतस्तु प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो वराः ॥ ३- सत्यामन्यां सवर्णायां धर्मकार्ये न कारयेत् । सवर्णासु विधौ धर्म्ये ज्येष्ठया न विनेतरा || ४- ब्रह्मचर्यं समाप्यैकां भार्या यो द्वितीयां तथा । तृतीयां नो वहेद्विप्र इति धर्मकृतो विदुः ॥ ५- विधवायां प्रजोत्पत्तौ देवरस्य नियोजनं । ६ - कन्यानामसवर्णानां विवाहच द्विजन्मभिः । न कर्तव्यः कलौ युगे इति संबधः । ४२ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचितएव निश्चित होता है कि गालव ऋषि एक सजाति धर्मपत्नीके होते हुए कलियुगमें दूसरे विवाहका निषेध करते हैं। परंतु जो लोग इस श्लोकसे. स्त्रियोंका पुनर्विवाह अर्थ निकालते हैं वह विल्कुल अयुक्त है। क्योंकि यह अर्थ स्वयं ब्राह्मण संप्रदायके विरुद्ध पड़ता है ॥ १७६ ॥ वरे देशान्तरं प्राप्ते वर्षत्रीन् सम्पतीक्षते। कन्यान्यस्मै प्रदातव्या वाग्दाने च कृते सति ॥ १७७॥ वाग्दान हो चुका हो अनंतर वर देशांतरको चला गया हो तो तीन वर्ष तक उसके आनेकी प्रतीक्षा करना चाहिए। यदि तीन वर्ष तक वह न आवे तो कन्याको किसी दूसरे वरको दे देना चाहिए । मूल प्रतिमें इस श्लोकके नीचे ' इति परमतस्मृति वचनं' ऐसा टिखा है ।। १७७ ॥ विवाहानन्तरं गच्छेत्सभार्यः स्वस्य मन्दिरम् । यदि ग्रामान्तरे तत्स्यात्तत्र यानेन गम्यते ॥ १७८ ॥ _ विवाह हो जानेके बाद अपनी उस धर्मपत्नीको साथ लेकर अपने घरपर जावे । यदि घर दसरे ग्राममें हो तो किसी सवारीपर चढ़कर जावे ॥ १७८ ॥ घरमें प्रवेश करनेका समय । विवाहमारभ्य वधृप्रवेशो युग्मे दिने षोडशवासरावधि । न चासमाने यदि पञ्चमेऽह्नि शस्तस्तदूर्ध्व न दिवा प्रशस्तः ॥ १७९ ॥ विवाह दिनसे लेकर सोलह दिन तकका वधूका घरमें प्रवेश करनेका समय है। इन सोलह दिनोंमें भी युग्म ( सम) तिथियोंमें घरमें प्रवेश करे । विषम तिथियों में नहीं । विषम तिथियों में सिर्फ पांचवां दिन प्रशस्त है। अतः पांचवां दिन भी घरमें प्रवेश करनेके लिए अच्छा माना गया है। इसके अलावा और कोई विषम दिनोंमें घरमें प्रवेश न करे ॥ १७९ ॥ . वधूप्रवेशनं कार्य पञ्चमे सप्तमेऽपि वा । नवमे वा शुभे वर्षे सुलग्ने शनिनो बले ॥ १८०॥ यदि विवाह-दिनसे लेकर सोलह दिनोंके पहले पहले वधूका प्रवेश कारणवश पतिके घरमें न हो सके तो पांचवें वर्षमें अथवा सातवें वर्षमें अथवा नौवें वर्षमें ज्योतिःशास्त्रोक्त शुभलग्नमें चन्द्रबल होते हुए वधूका प्रथम प्रवेश होना चाहिए । आगे श्लोकमें प्रथम वर्ष भी प्रथम-प्रवेशके लिए अच्छा माना गया है, यह सूचित होता है। कहीं कहीं तृतीय वर्ष भी माना गया है ॥ १४॥ उद्वाहे चतुरष्टषदशदिने शस्तं वधूवेशनं मासे तु द्विचतुःषडष्टदशसु श्रीपञ्चमायुःप्रदम् । वर्षे तु द्विचतुःषडष्टमशुभं पञ्चष्टमुख्या परैः (?) पूर्णः पुण्यमनोरथो विभवदो वध्वाः प्रवेशो भवेत् ॥ १८१ ॥ १ 'पंचाष्टमुख्या परैः' यह पद अशुद्ध मालूम पड़ता है । शायद इसके स्थानमें 'पंचादिमुख्या परे' इस आशयका पाठ हो तो श्लोक नं. १८० के अनुकूल हो जाता है। संग्रह लोकोंमें पुनरुक्तताका विचार नहीं किया जाता। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। wwwwwwwwwwwww ऊपर समदिनों में वधू-प्रवेश प्रशस्त बताया है। वे सम दिन कौन कौनसे हैं यह इस श्लोकद्वारा बताते हैं-सम दिनोंमें विवाह दिनसे लेकर चौथा, छठा, आठवां और दशवां दिन वधूके प्रथमा प्रवेशके लिए शुभ हैं, सम्पत्तिशाली हैं और सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। महीनोंमें दूसरा, चौथा, छठा, आठवां और दशवां शुभ हैं। पांचवां महीना भी आयुप्रद है। तथा वर्षों में दूसरा, चौथा, छठा और आठवां अशुभ हैं ॥ १८१ ॥ देवोत्थापन। समे च दिवसे कुर्याद्देवतोत्थापनं बुधः । षष्ठे च विषमे नेष्टं त्यक्त्वा पञ्चमसप्तमौ ॥ १८२ ।। समदिनोंमें देव उठावे । परंतु समदिनोंमें छठा दिन प्रशस्त नहीं है । तथा पांचवें और सातवें दिनको छोड़कर शेष विषम दिन भी श्रेष्ठ नहीं हैं ॥ १८२ ॥ प्रतिष्ठादिनमारभ्य षोडशाहाच्च मध्यतः । मण्डपोद्वासनं कुर्यादुद्वाहे चेतेशम् (2) ॥ १८३ ॥ प्रतिष्ठादिनसे लेकर सोलह दिनके पहले पहले मंडप उठा देना चाहिए । तथा विवाहमें भी विवाहदिनसे लेकर सोलह दिनके पहले पहले ही उठा देना चाहिए ॥ १८३ ॥ विवाहालथमे पौषे त्वाषाढे चाधिमासके। न च भतुगृहे वासश्चेत्रे तातगृहे तथा ॥ १८४ ॥ __ वधूको विवाहके अनंतर पहले पूषमें, पहले अषाढमें और अधिक मासमें पतिके घरमें निवास नहीं करना चाहिये तथा प्रथम चैत्रमें पिताके घर भी नहीं रहना चाहिए ॥ १८४ ॥ लग्न प्रतिघात । कृते वाग्भिश्च सम्बन्धे पश्चान्मृत्युश्च गोत्रिणाम् । तदा न मङ्गलं कार्य नारीवैधव्यदं ध्रुवम् ॥ १८५॥ वाग्दान हो चुकनेके बाद, यदि अपने किसी गोत्रजकी मृत्यु हो जाय तो आगे कहे जाने. वाले समयके पहले पहले विवाह नहीं करना चाहिए । क्योंकि उस समयके पहले विवाह करनेसे कन्या विधवा हो जाती है। भावार्थ-यद्यपि श्लोकमें सामान्य गोत्रजका ग्रहण है तो भी वर और . वधकी तीसरी-चौथी पीढ़ीतकके मनुष्यका ग्रहण करना चाहिए ॥ १८५ ॥ वरवध्वोः पिता माता पितृव्यश्च सहोदरः । एतेषां मरणे मध्ये विवादः क्रियते न हि ॥ १८६ ॥ वर और वधूके माता, पिता, चाचा और सहोदर भाई इनमेंसे किसीके मी मरजानेपर नीचे लिखे समयके पहले पहले विवाह न करे ॥ १८६ ॥... पितुमातुश्च पल्याश्च वर्षमध तदर्धकम् । सनोभातुश्च तस्यार्धमन्येषां माससम्मतम् ॥ १८७ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचिततदन्ते शान्तिकं कृत्वा यथोक्तविधिना ततः । पुनश्चाद्वाहेऽथ वाग्दानं कृत्वा लग्नं विधीयते ॥ १८८ ॥ पिताके मरजानेपर एक वर्षतक, माताके मरजानेपर छह महीनेतक, पूर्व-पत्नीके मरजाने पर तीन महीने तक, पुत्र और भाईके मरजानेपर डेढ़ मास तक ( "मासार्ध" इस पाठकी अपेक्षा अर्ध महीनेतक ) तथा अन्य सपिंड गोत्रियोंके मरजानेपर एक माहतक विवाह न करे । उक्त अवधि बीत जानेके बाद शान्ति विधानपूर्वक ऊपर बताई हुई विवाह-विधिके अनुसार पुनः वाग्दान करके विवाह लग्न करे ॥ १८७-१८८ ॥ स्नानं सतैलं तिलमिश्रकर्म प्रेतानुयानं करकप्रदानम् । अपूर्वतीर्थामरदर्शनं च विवजयेन्मङ्गलतोऽब्दमेकम् ॥ १८९ ॥ तैल लगाकर स्नान करना, तिल-मिश्र क्रिया करना, मरे हुएके पीछे जाना अर्थात् मृत मनुप्यादिकको जलानेके लिए जाना, तथा पहले जिनका दर्शन नहीं किया ऐसे तीर्थों और देवोंका दर्शन करना, ये कार्य विवाह दिनसे लेकर एक वर्ष तक न करे ॥ १८९ ॥ ऊर्च विवाहात्तनयस्य नैव कार्यों विवाहो दुहितुः समार्धम् । अप्राप्य कन्यां श्वशुरामयं च वधूप्रवेशश्च गृहे न चादौ ॥ १९०॥ पुत्रके विवाहके बाद छह महीने से पहले कन्याका विवाह नहीं करना चाहिए और कन्याको ससुराल भेजे विना वधूका प्रथम-प्रवेश भी घरमें नहीं होना चाहिए। भावार्थ- पुत्र विवाहके बाद छह महीने तक पुत्रीका और पुत्रीके विवाहसे छह महीने पहले पुत्रका विवाह नहीं होना चाहिए ॥ १९० ॥ एकोदरप्रसूतानामेकस्मिन्नेव वत्सरे । न कुर्याचौलकर्माणि विवाहं चेपनायनम् ।। १९१ ॥ एक ही मातासे उत्पन्न अनेक पुत्राका चौलकर्म, उपनयन संस्कार और विवाह एक ही वर्षमें न करे ॥ १९१ ॥ न घुविवाहोर्ध्वमृतुत्रयेऽपि विवाहकार्य दुहितुश्च कुर्यात् । न मण्डनाच्चापि हि मुण्डनं च गोत्रकतायां यदि नाब्दमेकम् ॥१९२॥ पुरुष (पुत्र) विवाहके अनन्तर तीन ऋतु अर्थात् छह महीने के पहले पुत्रीका विवाह न करे । तथा विवाहके पश्चात् चौलकर्म भी न करे। यह नियम गोत्रैकता अर्थात् एक मातासे उत्पन्न पुत्रपत्रियों के लिए है। तथा एक ही वर्ष होता यह छह छह महीनेका नियम समझा जाय. वर्ष हो तो न समझा जाय । सो ही बताते हैं ॥ १९२ ॥ • फाल्गुने चेद्विवाहः स्याच्चैत्रे चैवोपनायनम् । . अब्दभेदाच कुर्वीत नर्तुत्रयविलम्बनम् ॥ १९३ ॥ फाल्गुनमें विवाह हो तो चैत्र महीनेमें वर्षभेद होने के कारण उपनयनसंस्कार और चकारस विवाह भी करें। वर्षभेदमें छह महीने तक विलम्ब करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। भावार्थ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ३४१ एक संवत्सर हो तो एक मातासे उत्पन्न दो पुत्रोंका अथवा दो पुत्रियोंका अथवा पुत्र और पुत्रीका छह महीने पहले पहले विवाह न करे। हां, यदि वर्ष-भेद हो तो छह महीनेके पहले पहले कर सकते हैं। इसी तरह पत्र अथवा पत्रोके विवाह के छह महीने पहले एक संवत्सरमें भी न करे। वर्ष-भेद हो तो कोई हानि नहीं है । ऊपरके श्लोकोंमें पुनहक्तताका विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि ये श्लोक भिन्न भिन्न ऋषियों के बनाये हुए हैं, यहांपर उनका संग्रह किया गया है। अतः पुनरुक्तताका आना स्वाभाविक बात है ॥ १९३ ॥ एकमातृप्रसूतानां पुत्रीणां परिवेदने । दोषः स्यात्सर्ववर्णेषु न दोषो भिन्नमातृषु ॥ १९४ ॥ एक मातासे उत्पन्न पुत्रियों के परिवेदनका सभी वर्गों में दोष माना गया है । परन्तु भिन्नभिन्न माताओंसे उत्पन्न पुत्रियों के परिवेदनमें कोई दोष नहीं है। भावार्थ-बड़ी पुत्रीके विवाहके पहले छोटी पुत्रीका विवाह करनेको परिवेदन कहते हैं। एक मातासे उत्पन्न हुई दो पुत्रियोंमें से छोटी पुत्रीका विवाह पहले करना और बड़ी पुत्रीका बादमें करना दोष है । परन्तु भिन्न भिन्न माताओंसे उत्पन्न हुई दो पुत्रीयोंमेंसे छोटी पुत्रीका विवाह पहले कर दिया जाय और बड़ी पुत्रीका बादमें करे तो कोई दोष नहीं है ॥ १९४ ॥ कन्याका रजोदोष । असंस्कृता तु या कन्या रजसा चत्परिप्लुता । भ्रातरः पितरस्तस्याः पतिता नरकालये ॥ १९५ ॥ विवाह न होनेके पहले यदि कन्या रजस्वला हो जाय तो उसके भाई और माता-पिता नरक को जाते हैं । भावार्थ-बारह वर्षसे ऊपर कन्याओंका रजोधर्मका समय है अतः उनका विवाह बारह वर्ष तक कर देना चाहिए । यद्यपि कोई कोई कन्याएं बारह वर्षसे ऊपर भी रजस्वला होती हैं, परंतु तो भी कितनी ही कन्याएं बारह वर्षमें भी हो जाती हैं अतः इस अवधिके भीतर ही विवाह कर देना चाहिए; क्योंकि विवाह पहले रजस्वला होनेमें उक्त दोष माना गया है ॥ १९५ ॥ पितुहे तु या कन्या रजः पश्येदसंस्कृता । सा कन्या वृषली ज्ञेया तत्पतिवृषलीपतिः॥ १९६ ॥ जो कोई कन्या अपने विवाहसे पहले पहले रजोधर्मसे युक्त हो जाय तो उसको शूद्रा या रजस्वला समझना चाहिए और उसके पतिको भी शूद्राका पति या रजस्वलाका पति समझना, चाहिए ॥१९६॥ अप्रजा दशमे वर्षे स्त्रीपजां द्वादशे त्यजेत् । मृतप्रजां पञ्चदशे सद्यस्त्वाप्रयवादिनीम् ॥ १९७॥ _____प्रथम ऋतुमतीके समयसे लेकर दशवें वर्षतक जिस स्त्रीके सन्तति न हो तो उसके होते हुए दूसरा विवाह करे । तथा जिसके केवल कन्याएं ही होती हों-पुत्र न होते हों तो बारहवें वर्ष बाद उसके होते हुए दूसरा विवाह करे । तथा जिसके संतति तो होती हो पर जीती न हो तो पंद्रह वर्ष बाद दूसरा विवाह करे । और अपुत्रवती अप्रियवादिनीके होते हुए तत्काल दूसरा विवाह करे । अप्रियवादिनीका अर्थ व्यभिचारिणी भी है ॥ १९७॥ . ....... ..... ... Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ सोमसेनभट्टारकविरचित व्याधिता स्त्रीमजा वन्ध्या उन्मत्ता विगतातेवा। ' अदुष्टा लभते स्यागं तीर्थतो न तु धर्मतः ॥ १९८ ॥ व्याधिता-जो वर्षोंसे रोग-प्रसित हो, स्त्रीप्रजा-जिसके केवल कन्याएं पैदा होती हों, वन्ध्याजिसके संतति होती ही न हो, उन्मत्ता-जो नसा करनेवाली हो, विगतातबा-जोरजस्वला न होती हो और अदुष्टा-उत्तम स्वभाववाली हो परंतु जिसके संतति न होती हो, ऐसी स्त्रियां कामभोगके लिए त्याज्य हैं, धर्मकृत्योंके लिए नहीं । भावार्थ-ऐसी स्त्रियों के साथ संयोगादि क्रिया न करें धर्मकृत्य करनेमें कोई हानि नहीं ॥ १९८ ॥ सरूपां सुमनां चैव सुभगामात्मनः प्रियाम् । 'धर्मानुचारिणीं भायां न त्यजेद्गृहसवती ॥ १९९ ॥ जो रूपवती हो, जिसके संतति होती हो, जो भाग्यशालिनी हो, अपनेको प्यारी हो और जो धर्मकृत्योंमें सहचारिणी हो ऐसी उत्तम स्त्रीके होते हुए दूसरा विवाह न करे ॥ १९९ ॥ प्रमदामृतवत्सरादितः पुनरुद्वाहविषिर्यदा भवेत् । विषमे परिवत्सरे शुभः समवर्षे तु मृतिप्रदो भवेत् ॥ २० ॥ स्त्रीके मर जानेपर दूसरा विवाह यदि करना हो तो जिस वर्षमें वह मरी है उस वर्षसे लेकर किसी भी विषम वर्षमें विवाह करना शुभ माना गया है । तथा सम वर्षमें मृत्युप्रद माना गया है। मतान्तरं-दसरा मत । पत्नीवियोगे प्रथमे च वर्षे नो चेद्विवर्षे पुनरुद्हेत्सः । अयुग्ममासे तु शुभमदं स्याच्छ्रीगौतमाद्या मुनयो बदन्ति ॥२०१॥ पत्नीके मर जानेपर प्रथम वर्षमें विवाह करे। यदि प्रथम वर्षमें न कर सके तो दूसरे वर्षमें करे। परन्तु वह विवाह विषम महीने में किया हुआ शुभ करनेवाला होता है, ऐसा गौतमादि मुनि कहते हैं ॥ २०१॥ अपुत्रिणी मृता भार्या तस्य भर्नुर्विवाहकम् । युग्माब्द युग्ममासे वा विवाहाहः शुभो मतः ।। २०२ ॥ पुत्र उत्पन्न न हुआ हो और स्त्री मर गई हो तो उस स्त्रीके पतिका विवाह युग्म वर्ष अथवा युग्म मासमें शुभ माना गया है ॥ २०२॥ प्रजावत्यां तु भार्यायां मृतायां वैश्यविप्रयोः। प्रथमेऽब्दे न कर्तव्यो विवाहोऽशुभदो भवेत् ॥ २०३॥ अगर पुत्रवती स्त्री मर जाय तो ब्राह्मण और वैश्य पहले वर्षमें विवाह न करें । क्योंकि स्त्री-मरणके प्रथम वर्षमें विवाह करना उनके लिए अशुभ होता है ॥ २०३ ॥ __ अथ तृतीय भार्या-तीसरा विवाह । अकृत्वाविवाहं तु तृतीयां यदि चोद्वहेत् । विधवा सा भवेत्कन्या तस्मात्कार्य विचक्षणा ॥ २०४ ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । प्रथम विवाहिता सजाति स्त्री धर्मएत्नी होती है और द्वितीय विवाहिता भोगपत्नी होती है। यह ऊपर कह आये हैं । इन दो स्त्रियोंके होते हुए तीसरा विवाह न करे । कदाचित् तीसरा विवाह करे भी तो अर्क-विवाह किये बिना न करे क्योंकि अर्क-विवाह किये बिना तीसरा विवाह करनेसे वह तृतीय विवाहिता वैधव्य दीक्षाको प्राप्त हो जाती है । अतः विचक्षण पुरुषोंको अर्क-विवाह करके ही तीसरा विवाह करना चाहिए ॥ २०४ ॥ - अर्क-विवाह-विधि। अर्कसान्निध्यमागत्य कुर्यात्स्वस्त्यादिवाचनाम् । अर्कत्याराधनां कृत्वा सूर्य सम्पार्थ्य चोरहेत ॥ २०५॥ अर्क वृक्षके पास आकर स्वस्तिवाचन आदि विधि करे। अनन्तर अर्क वृक्षकी आराधना कर तथा सूर्यसे प्रार्थना कर अर्क वृक्षके साथ विवाह करे ॥ २०५ ॥ - विवाहयुक्तिः कथिता समस्ता संक्षेपतः श्रावकधर्ममार्गात । श्रीब्रह्मसूत्रप्रथितं पुराणमालोक्य भट्टारकसोमसेनः ॥ २०६॥ श्रीब्रह्मसूरि निर्मित पुराणको देखकर मुझ सोमसेन भट्टारकने श्रावकधर्मके अनुकूल यह सम्पूर्ण विवाहविधि संक्षेपसे कही है ॥ २०६ ॥ इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारनिरूपणे भट्टारकसोमसेनविरचित विवाहविधिवर्णनो नाम एकादशोऽध्यायः ॥११॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सोमसेनभट्टारकविरचितबारहवां अध्याय । अथ नत्वा क्रियावन्तं कर्मातीतं जिनेश्वरम् ।। क्रियाविशेषमेतर्हि वच्म्यहं शास्त्रतोऽर्थतः ॥१॥ इसके अनन्तर कर्म रहित और क्रियावान जिनदेवको नमस्कार कर, शास्त्र के अनुसार सार्थक वर्णलाभ आदि क्रियाएं कही जाती हैं ॥ १ ॥ यस्य वर्णः सुवर्णाभो वर्णा येन विवर्णिताः। स कुन्थुनाथनामा च सार्वभौमस्थितोऽर्च्यते ॥ २॥ जिसके शरीरका वर्ण सुवर्ण जैसा पीला है और जिसने ब्राह्मण आदि चार वर्णोंका वर्णन किया है तथा जो छह खंडका स्वामी रह चुका है उस कुन्थुनाथ नामके तीर्थकरका स्तवन किया जाता है ॥ २॥ वर्णलाभ क्रिया। इत्थं विवाहमुचितं समुपाश्रितस्य गार्हस्थ्यमे कमनुतिष्ठत एव पुंसः । स्वीयस्य धर्मगुणसंघविद्धयेऽहं वक्ष्ये विधानत इतो भुवि वर्णलाभम् ॥३॥ ऊपर कहे अनुसार जिसने योग्य विवाह-विधि की है और जो गृहस्थ सम्बन्धी आचरणोंका पालन करता है उस गृहस्थके धर्म, गुण और संघकी वृद्धि के निमित्त अब विधिपूर्वक जगतमें विख्यात वर्ण-लाभ क्रिया कही जाती है ॥ ३ ॥ स ऊढभार्योऽप्यकथीह तावत्पुमान् पितुः सद्मनि चास्वतन्त्रः। गार्हस्थ्यसिद्ध्यर्थमतो ह्यमुष्य विधीयते सम्पति वर्णलाभः ॥ ४॥ यद्यपि वह योग्य कन्याके साथ विवाह कर चुका है तो भी तबतक वह परतंत्र है जबतक कि अपने पिताके घरमें निवास करता है । इसलिए इसके गृहस्थ-धर्मकी सिद्धिके लिए वर्णलाभ नामकी क्रिया कही गई है ॥ ४॥ वर्णलाभ क्रियाका स्वरूप । अनुज्ञया द्रव्यभृतः पितुः प्रभोः सुखं परिमाप्तधनान्नसम्पदः । पृथक्कृतस्यात्र गृहस्य वर्तनं स्वशक्तिभाजोऽकथि वर्णलाभकः ॥५॥ घर-सम्पत्ति के स्वामी अपने पूज्य पिताकी आज्ञाके अनुसार जिसने सुखपूर्वक धन-धान्य सम्पत्ति प्राप्त की है, जो पिताकी आज्ञासे ही जुदा हुआ है और स्वयं सब कार्योंके करनेमें समर्थ हो गया है ऐसे पुरुषके गृहस्थधर्मके आचरणका नाम वर्णलाभ कहा गया है। भावार्थ--पिताकी आशापूर्वक उससे जुदा होकर गृहस्थधर्मका पालन करना वर्णलाभ क्रिया है ॥५॥ विधाय सिद्धमतिमाचनं च क्रमेण कृत्वा परमानुपासकान् । पितास्य पुत्रस्य धनं समर्पयेद्यथर्द्धि साक्षीकृतमुख्यसज्जनः॥६॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ३४५ उस पुरुषका पिता, सिद्ध- प्रतिमा की पूजा कर और श्रावकों का यथायोग्य सत्कार कर मुख्य मुख्य सज्जनोंकी साक्षीपूर्वक अपनी सम्पत्तिका हिस्सा उसे देवे ॥ ६ ॥ धनं ह्युपादाय समस्तमेतत्स्थित्वा गृहे स्वस्य पृथग्यथास्वम् । कार्यस्त्वया दानपुरस्सरोऽङ्ग ! सुखाय साक्षात् गृहिधर्म एव ॥ ७ ॥ यथाऽस्मकाभिः सहधर्ममर्जितं यशोऽमलं स्वस्य धनेन यत्नतः । श्रियेऽथवाऽस्मत्पितृदत्तकेन वै तथा यशो धर्ममुपार्जय त्वकम् ॥ ८ ॥ इत्येवमेतर्ह्यनुशिष्य चैनं नियोजयेदुत्तमवर्णलाभे । स चाप्यनुष्ठातुमिहार्हति स्वं धर्म सदाच । रतयेति पूर्णम् ॥ ९ ॥ इति वर्णलाभः । और इस प्रकार उपदेश दे कि हे पुत्र ! इस अपने हिस्से के धनको लेकर और अपने घर में यथायोग्य अलहदा रहकर साक्षात्सुखके अर्थ दान-पूजापूर्वक गृहस्थधर्मका सेवन करना और जिस तरह हमने हमारे पिताके द्वारा दिये गये धनसे निर्मल कीर्ति और धर्मका यत्नपूर्वक उपार्जन किया है उसी तरह तू भी धर्म और यशका उपार्जन करना । इस तरह पिता अपने पुत्रको योग्य शिक्षा देकर उसे वर्णलाभ नामकी क्रियामें नियुक्त करे । वह पुत्र भी सदाचारसे परिपूर्ण अपने धर्मका अनुष्ठान करे । इस तरह वर्ण-लाभ क्रिया की जाती है ॥७-९॥ कुलचर्याका स्वरूप | पूजा श्रीजिननायकस्य च गुरोः सेवाऽथवा पाठके द्वेधा संयम एव सत्तप इतो दानं चतुर्षा परम् I कर्माण्येव षडत्र तस्य विधिवत्सद्वर्णलाभं शुभं प्राप्तस्यैवमुशन्ति साधुकुलचर्या साधवः सर्वतः ॥ १० ॥ जिनदेवकी पूजा करना, गुरुकी और उपाध्यायकी सेवा करना, प्राणसंयम और इंद्रियसंयमइस तरह दो प्रकारके संयमका पालना, बारह प्रकारके तपश्चरणका करना और चार प्रकारके दान का देना- इन छह कर्मों के विधिपूर्वक करनेको साधुजन प्रशस्त और शुभ वर्णलाभ क्रियाको प्राप्त हुए पुरुषकी कुलचर्या कहते हैं । भावार्थ - देव पूजा आदि छह कमाँके करनेको कुलचर्या या कुलधर्म कहते हैं । यह क्रिया वर्णलाभ क्रियाके बादमें की जाती है ॥ १० ॥ गृहशिता क्रियाका स्वरूप । धर्मे दार्व्यमथोद्वहन् स्वकुलचर्यं प्राप्तवानञ्जसा शास्त्रेण क्रियया विवाहविधिना वृत्त्या च मन्त्रैः शुभैः । स्वीकुर्याद्धि गृहेशितां स्वमनघं चौन्नत्यमेकं नयन् नानाका व्यकृतेन शुद्धयशसा लिप्सुर्यशः सुन्दरम् ॥ ११ ॥ इसके अनन्तर वह कुलचर्याको प्राप्त हुआ गृहस्थ, धर्ममें दृढ़ होता हुआ शास्त्रज्ञान, क्रियाविवाहविधि, वृत्ति, और शुभ मंत्रोंद्वारा तथा उत्तम कविता और शुद्ध यशपूर्वक अपनी एक अद्वि, ४४ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित। तीय निर्दोष उन्नति करता हुआ गृहीशिता अर्थात् घरका स्वामीपन स्वीकार करे । भावार्थ-कुलचर्या नामकी क्रियाके अनन्तर उक्त कथनानुसार घरका स्वामीपन धारण करना गृहीथिता नामकी क्रिया है ॥ ११ ॥ . प्रशान्ति क्रियाका स्वरूप । ... लध्वा सूनुमतोऽनुरूपमुचितं सोऽयं गुणानां गृहं साक्षादात्मभरक्षमं शुभतया देदीप्यमानं सदा। तत्रारोपितसद्गृहस्थपदवीभारः प्रशान्तिप्रियः संसाराङ्गसुभोगनिःस्पृहमतिः स्वाध्यायदीपात्तपः ॥ १२ ॥ इसके अनंतर वह पूर्वोक्त गृहस्थ, अपने सदृश, मुणोंका खजाना, अपने घरका भार धारण करनेमें समर्थ और शुभ चिन्होंसे अलंकृत योग्य पुत्रको अपनी गृहस्थीका भार सौंप दे और आप स्वयं संसारके कारण भोगोंसे निस्पृह चित्त होकर स्वाध्याय और तपश्चरण करता रहे । इसीका नाम प्रशान्ति क्रिया है । भावार्थ-अपनी गृहस्थीका भार तो अपने योग्य पुत्रको सौंप दे और आप स्वयं घरमें रहकर स्वाध्याय और व्रतोपवासादिका अभ्यास करता रहे, सांसारिक भोगोंकी लालसाको भी छोड़ दे। इस तरह शांतिपूर्वक कितना ही काल अपने घरमें ही बितावे । इसीका नाम प्रशान्ति क्रिया है॥ १२ ॥ गृहत्याग क्रिया। गृहाश्रमे स्वं बहुमन्यमानः कृतार्थमेवोधतबुद्धिरास्ते । त्यागे गृहस्यैष विधिः क्रियायाः सिद्धार्थकानां पुरतो विधेयः ॥ १३ ॥ आहूय सर्वानपि सम्मताँश्च तत्साक्षि पुत्राय निवेद्य सर्वम् । गृहे न्यसेच्चापि कुलक्रमोऽयं पाल्यस्त्वयाऽस्मत्कपरोक्षतोऽङ्ग !॥ १४ ॥ त्रिधा कृतं द्रव्यमिहत्थमेतदस्माकमत्यर्थमतो नियोज्यम् । धर्मस्य कार्याय तथांश एको देयो द्वितीयः स्वगृहव्ययाय ॥ १५॥ परस्तृतीयः सहजन्मनां वा समं विभागाय विचारणीयः। पुनः समस्तस्य च संविभागे पुत्रैः समस्त्वं सहसैवमुक्त्वा ॥ १६ ॥ ज्येष्ठः स्वयं सन्ततिमेकरूपामस्माकमप्याददतूपनीय । श्रुतस्य वृत्तेरथवा क्रियाया मन्त्रस्य न्यासाद्विधिविस्वतन्द्रः॥ १७ ॥ कुलस्य चाम्नाय इहानुपाल्यो गुरुश्च देवोऽपि सदार्चनीयः। इत्येवमयं ह्यनुशिष्य पुत्रं ज्येष्ठं त्यजेन्मोहकृतं विकारम् ॥ १८ ॥ दीक्षामुपादातुमतो जनोऽसौ गृहं स्वकीयं स्वयमुत्सृजेच्च । 'कामार्थचित्तं परिहाय धर्मध्यानेन तिष्ठेत्कतिचिदिनानि ॥ १९ ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकाचार। गृहाश्रममें अपनेको कृतार्थ मानता हुआ वह प्रशान्त क्रियाको प्राप्त हुआ गृहस्थ जब घर छोड़ने के लिए उद्यमी होता है तब उसकी यह गृहत्याग नामकी क्रिया की जाती है । इस क्रियाको करनेके पहले उसे सिद्धप्रतिमाकी पूजा करना चाहिए । बाद वह अपनेको सम्मत योग्य पुरुषों को बुलाकर उनकी साक्षी-पूर्वक अपने ज्येष्ठ पुत्र को इस प्रकार शिक्षा दे कि, हे पुत्र ! तुझे हमारे पीछे कुलपरंपरासे चले आये धर्म, क्रिया, संस्कार आदिका योग्य रीतिसे पालन करना चाहिए और हमने जो इस द्रव्यको तीन हिस्सोंमें बांट दिया है उसका इस प्रकार विनियोग करना-एक भाग धर्मकार्यों में खर्च करना, दूसरा भाग कुटुंबके भरण-पोषणमें लगाना और तीसरे भागको अपने भाइयों में बराबर बराबर बांट देना। और हे पुत्र ! तू सबमें बड़ा है, इसलिए हमारी इस सन्ततिका अच्छी तरह पालन करना। तू स्वयं शास्त्रोंको, आजीविकाके साधनोंको, गृहस्थसम्बन्धी क्रियाओंको और (क्रियासम्बन्धी) मंत्रोंको भले प्रकार जाननेवाला है इसीलए कुलपरंपराका अच्छी तरह पालन करना, प्रतिदिन गुरुकी उपासना करना और देव-आप्तकी पूजा करना । इस प्रकार अपने ज्येष्ठ पुत्रको शिक्षा देकर मोहजन्य विकारका अर्थात् घर-कुटुंब आदिमें लगे हुए ममत्वका त्याग करे । और वह गृहस्थ स्वयं दीक्षाधारण करनेके लिए अपने घरको छोडे तथा काम और अर्थकी लालसाको छोड़कर कितनेही दिनों पर्यन्त धर्मध्यानपूर्वक निवास करे। इसीको गृहत्याग क्रिया कहते दीक्षाधारण करनेकी विधि । किञ्चित्समालोक्य सुकारणं तद्वैराग्यभावेन गृहान्निसृत्य । गुरोः समीपं भवतारकस्य व्रजेच्छिवाशाकृतचित्त एकः ॥ २० ॥ नत्वा गुरूं भावविशुद्धबुद्धया प्रयाय दीक्षां जिनमार्गगां सः। पूजां विधायात्र गुरोमुखाच्च कुयोद्वतानि प्रथितानि यानि ॥ २१॥ _कुछ विरागताके कारणोंको देखकर वैराग्यपने को प्राप्त होकर घरसे बाहर निकले और सिर्फ मोक्षकीही वांछा धारण कर संसार-समुद्रसे पार करनेवाले गुरुके पास जाय । वहां जाकर मन, वचन और कायकी विशुद्धिपूर्वक गुरुको नमस्कार करे और जिनेन्द्र भगवान्द्वारा कही गई जिनदीक्षा धारण करे । पश्चात् गुरुकी पूजा करे और उनके मुखसे ब्रताचरणका स्वरूप समझकर उनका पालन करे ॥ २०-२१ ॥ व्रतोंके नाम। महाव्रतानि पश्चैव तथा समितयः शुभाः। गुप्तयस्तिस्र इत्येवं चारित्रं तु त्रयोदश ॥ २२ ॥ पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति इस तरह चारित्र तेरह प्रकारका है ॥ २२ ।। पांच महाव्रतोंके नाम । हिंसासत्यङ्गनासङ्गस्तेयपरिग्रहाच्च्युतः। व्रतानि पञ्चसंख्यानि साक्षान्मोक्षसुखाप्तये ॥ २३ ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सोमसेनभट्टारकविरचित । हिंसा, झूठ, चौरी, मैथुन और परिग्रहसे विरक्त होना व्रत हैं। ये व्रत पांच हैं, जो साक्षात् मोक्ष सुखकी प्राप्तिके कारण हैं ॥ २३ ॥ . पांच समितियोंके नाम । ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपमलमोचनाः ।. पञ्च समितयः प्रोक्ता व्रतानां मलशोधिकाः॥ २४ ॥ ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और उत्सर्गसमिति-इस तरह समिति पांच प्रकारकी कही गई है, जो व्रतोंमें लगे हुए दोषोंको दूर करनेवाली है अर्थात् व्रतोंका रक्षण करनेवाली हैं ॥ २४ ॥ पांचों समितियों का जुदा जुदा लक्षण । युगान्तरदृष्टितोऽग्रे गच्छेदीर्यापथे प्रभुः। भाषा विचाये वक्तव्या वस्तु ग्राह्यं निरीक्ष्य च ॥ २५ ॥ प्रासुका भुज्यते भुक्तिर्निर्जन्तौ मुच्यते मलः। समितयश्च पञ्चैता यतीनां व्रतशुद्धये ॥२६॥ सामनेकी चार हाथ जमीनको देखकर चलनेको ईर्यासमिति, विचारकर हित-मित बोलनेको भाषासमिति, देख-शोधकर वस्तुके रखने और उठानेको आदान-निक्षेपसमिति, प्रासुक आहार ग्रहण करनेको भिक्षा या एषणासमिति और जीव-जन्तु-रहित स्थानमें मल-मूत्र करनेको उत्सर्गसमिति कहते हैं। ये पांचों समितियां मुनियोंके व्रतोंको शुद्ध करनेके लिए हैं ॥ २५-२६ ॥ गुप्ति और तपोंके भेद । यत्नेन परिरक्षेत मनोवाक्कायगुप्तयः । द्वादशधा तपः मोक्तं कर्मशत्रुविनाशकम् ॥ २७ ॥ अनशनावमोदर्य तृतीयं वस्तुसंख्यकम् । रसत्यागं पृथक्शय्यासनं भवति पञ्चमम् ॥ २८ ॥ कायक्लेशं भवेत्षष्ठं षोढा बाह्यतपः स्मृतम् । विनयः प्रायश्चित्ताख्यं वैयाकृत्यं तृतीयकम् ॥ २९ ॥ कायोत्सर्ग तथा ध्यानं षष्ठं स्वाध्यायनामकम् । अभ्यन्तरमिति ज्ञेयमेवं द्वादशधा तपः ॥ ३० ॥ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति-इस तरह गुप्तिके तीन भेद हैं। मुनियों को इन तीन गुप्तियोंका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिए । तप बारह प्रकारका है, जो कर्मरूपी शत्रुओंको जड़मूलसे नष्ट करनेवाला है । इसके दो भेद हैं-एक बाह्य तप और दूसरा आभ्यन्तर तप । पहला अनशन, दूसरा अवमोदर्य, तीसरा व्रतपरिसख्यान, चौथा रसत्याग, पांचवां विविक्तशय्यासन भौर छठा कायक्लेश-इस तरह बाह्म तप छह प्रकारका है । विनय, प्रायश्चित्त, वैयावृत्य, कायोत्सर्ग, ध्यान और स्वाध्याय-ऐसे । छह प्रकारका आभ्यन्तर तप है । दोनों मिलकर बारह प्रकारके हैं ।। २७-३०॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणिकाचार | बाईस परीषों के नाम । वृद्धयर्थं तपसां साध्याः क्षुधादिकपरीषहाः । क्षुदशीतोष्णदंशाश्च रत्यरतिश्च नग्नता ॥ ३१ ॥ नारी चर्या निषद्या च शय्याक्रोशवधास्तथा । याञ्चालाभतृणस्पशा मलरोगाविति द्वयम् || ३२ ॥ सत्कारश्च पुरस्कारः प्रज्ञाज्ञानमदर्शनम् । एते द्वाविंशतिज्ञेयाः परीषहा अघच्छिदः ॥ ३३ ॥ तपश्वरणकी वृद्धिके लिए पापों का नाश करनेवाली बाईस क्षुधादि परोषहोंको सहन करना चाहिए | क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, अरति, नग्नता, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, तृणस्पर्श, मल, रोग, सत्कार- पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शनये उनके नाम हैं ॥ ३१-३३ ॥ ३४९ मुनियोंके अठाईस मूलगुणोंके नाम । अष्टाविंशतिसंख्याता मूलगुणाश्च योगिनः । व्रतसमितीन्द्रियनिरोधाः पृथक् ते पञ्चपञ्चधा ॥ ३४ ॥ षडावश्यकका लोचोऽदन्तवणमचेलता । स्थितिभोजनं भूशय्या अस्नानमेकभोजनम् || ३५ ॥ मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण होते हैं । वे ये हैं - पांच महाव्रत, पांच समिति, पांचों इन्द्रियोंका निरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, अदन्तवन, अचेलकत्व, स्थितिभोजन, भूशयन, अस्नान और एकभक्त ॥ ३४-३५ ॥ छह आवश्यक क्रियाओं के नाम । सामायिकं तनूत्सर्गः स्तवनं वन्दनास्तुतिः । प्रतिक्रमश्च स्वाध्यायः षडावश्यकमुच्यते ।। ३६ ।। सामायिक, कायोत्सर्ग, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण और स्वाध्याय - ये छह आवश्यक क्रियाएं हैं ॥ ३६ ॥ उत्तम क्षमा आदि दशधर्म । सर्वैः सह क्षमा कार्या दुर्जनैः सज्जनैरपि । मृदुत्वं सर्वजीवेषु मार्दवं कृपयान्वितम् ||३७|| -कपटो न हि कर्तव्यः शत्रुमित्रजनादिषु । दयाहेतुवचो वाच्यं सत्यरूपं यथार्थकम् ॥ ३८ ॥ देवपूजादिकार्यार्थं विधेयं शौचमुत्तमम् । पञ्चेन्द्रियनिरोधो यो दयाधर्मस्तु संयमः || ३९ ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित । द्वादशभेदभिन्नं हि शरीरशोषकं तपः। विद्यादिदानं पात्रेभ्यो दत्तं चेत्याग उच्यते ॥४०॥ बाह्यान्तर्भेदसंयुक्तं परिग्रहं परित्यजेत् । सर्वस्त्री जननीतुल्या ब्रह्मचर्य भवेदिति ॥ ४१ ॥ दशलक्षणधर्मोऽयं मुनीनां मुक्तिदायकः। निश्चयव्यवहाराभ्यां द्विविधोऽपि जिनागमे ॥ ४२॥ सजनों और दुर्जनोंपर क्षमा करना, सम्पूर्ण जीवोंपर कृपापूर्वक कोमल परिणाम रखना, शत्रु, मित्र आदिके साथ कपट न करना, सत्यरूप दयाका कारण यथार्थ बचन बोलना, देवकी पूजा आदिके निमित्त उत्तम शुद्धि करना, पांच इंद्रियोंको विषयोंसे रोकना और जीवोंपर दया करना, शरीरको कृश करनेवाला बारह प्रकारका तपश्चरण करना, पात्रोंको विद्या आदि दान देना, बाह्य-आभ्यंतर रग्रहका त्याग करना और सम्पूर्ण स्त्रियोंको माताके तुल्य समझना सो क्रमसे क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य-इस प्रकार दशलक्षण धर्म है, जो जिनागममें निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है। तथा वह दोनों ही प्रकारका धर्म मुनियों को मुक्ति देनेवाला है ।। ३७-४२ ॥ पांच आचारोंके नाम और स्वरूप । सम्यक्त्वं निर्मलं यत्र दर्शनाचार उच्यते । द्वादशाङ्गश्रुताभ्यासो ज्ञानाचारः प्रकीर्तितः॥४३॥ सुनिमलं तपो यत्र तपआचार एव सः।.. तपस्सु क्रियते शक्तिर्वीर्याचार इति स्मृतः॥४४॥ चारित्रं निर्मलं यत्र चारित्राचार उत्तमः। पञ्चाचार इति प्रोक्तो मुनीनां नायकैः परः॥ ४५ ॥ अतीचार-रहिन सम्यक्त्त्वका पालन करना दर्शनाचार कहा जाता है, द्वादशागका अभ्यास करना ज्ञानाचार कहा गया है, निर्मल तप करना तपाचार माना गया है, तपश्चरण करनेमें जो शक्ति है उसे वीर्याचार कहते हैं और निर्मल चारित्रका आचरण करना चारित्राचार है-यह मुनियोका पंचाचार है, जो गणघर देवोंद्वारा कहा गया है ॥ ४३-४५ ॥ आचार्योंके छत्तीस गुण ।। द्वादशधा तपोभेदा आवश्यकाः परे हि षट् । पश्चाचारा दशधर्मास्तिस्रः शुद्धाश्च गुप्तयः ॥ ४६॥ आचायाणां गुणाः प्रोक्ताः षट्त्रिंशच्छिवदायकाः। द्वात्रिंशदन्तरायाः स्युर्मुनीनां भोजने मताः॥४७॥ बारह तप, छह आवश्यक, पांच आचार, दशधर्म और तीन गुप्ति-ये आचार्योंके मोक्ष-सुखके देनेवाले छत्तीस गुण हैं। तथा मुनियों के भोजनके बत्तीस अन्तराय माने गये हैं ॥ ४६-४७ ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। यति-भोजनके अन्तराय । मौनत्यागे शिरस्ताडे मार्गे हि पतितं स्वयम् । मांसामेध्यास्थिरक्तादिसंस्पृष्टे शवदर्शने ॥ ४८ ।। ग्रामदाहे महायुद्धे शुना दष्टे त्विदं पथि । सचित्तोदे करे क्षिप्ते शङ्कायां मलमूत्रयोः ॥ ४९ ।। शोणितमांसचर्मास्थिरोमविद्पूयमूत्रके। दलने कुट्टने छर्दिीपप्रध्वंसदर्शने ॥ ५० ॥ ओतौ स्पृष्टे च नग्नस्त्रीदर्शने मृतजन्तुके । अस्पृश्यस्य ध्वनौ मृत्युवाद्ये दुष्टविरोदने ।। ५१ ॥ कर्कशाक्रन्ददुःशब्दे शुनकस्य ध्वनौ श्रुते।। हस्तमुक्ते व्रते भग्ने भाजने पतितेऽथवा ॥ ५२ ॥ पादयोश्च गते मध्ये मार्जारमूषकादिके । अस्थ्यादिमलमिश्राने सचित्तवस्तुभोजने ॥५३ ॥ आर्तरौद्रादिदुर्ध्याने कामचेष्टोऽवऽपि च ।। उपविष्टे पदग्लानात्पतने स्वस्य मूर्च्छया ॥ ५४॥ हस्ताच्च्युते तथा ग्रासेऽवतिनः स्पर्शने सति । इदं मांसेति सङ्कल्पेऽन्तरायाश्च मुनेः परे ॥ ५५॥ मस्तकमें किसी तरहका आघात पहुंचनेसे मौन छोड़ देनेपर, आप स्वयं मार्गमें गिर पड़नेपर, मांस, अपवित्र वस्तु, हड्डी, खून आदिका स्पर्श होजानेपर, मरा मुर्दा देखलेनेपर, ग्रामदाह होनेपर, बड़े भारी युद्धके होनेपर, मार्गमें चलते समय कुत्तेके काट खानेपर, सचित्त पानीसे हाथ धोकर भोजन परोसनेपर, आहारग्रहण करते समय मलमूत्रकी बाधा आ उपस्थित होनेपर, रक्त, मांस, चमडा, हड्डी, बाल, विष्टा, पीप और मूत्रके देखनेपर, जिस घरमें भोजन कर रहे हों वहां पर दलने और कूटनेकी आवाज आनेपर, वमन देखने पर, दीपकको बुझता हुआ देखनेपर, बिल्लीका स्पर्श होजानेपर, नंगी स्त्रीके देखनेपर, मरे हुए प्राणीके देखनेपर, अस्पय जातिके प्राणीकी आवाज सुन लेनेपर, मरे मुर्दे के बाजे बजनेकी आवाज आनेपर, बुरी तरहसे रोनेकी आवाज आनेपर, अत्यंत कठोर अश्रुपूर्ण रुदनकी आवाज आनेपर, कुत्तेकी चिल्लाहट सुननेपर, हाथकी अंजलीके छूट जाने पर, व्रतभंग हो जानेपर,पात्रके गिर पड़नेपर, पैरों के बीच में होकर बिल्ली चूहे आदिके निकल जाने पर, हड्डी आदि अपवित्र वस्तुओंसे मिला हुआ भोजन होनेपर, सचित्त-अप्राशुक वस्तुके खा लेनेपर, आर्त्त-ध्यान रौद्र-ध्यान आदिके हो जानेपर, कामचेष्टाके उत्पन्न हो जानेपर, पैरोंमें कमजोरी होनेके कारण बैठ जानेपर, मूर्छा खाकर गिरपड़नेपर, हायमेंसे ग्रास गिर पड़नेपर, अनती मनुष्यका स्पर्श होनेपर और यह मांस है इस तरहकी कल्पना शेजानेपर मुनिके भोजनमें असराय हो जाते हैं। भावार्थ-ये मुनिके भोजनके अन्तराय हैं । ४८-५५ ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सोमसेनभट्टारकविरचित । मतान्तरम् - दूसरे अन्तराय । विण्मूत्राजिनरक्तमांसमंदिरापूयास्थिवान्तीक्षणादस्पृश्यान्त्यजभाषणश्रवणतास्वग्रामदाहेक्षणात् । प्रत्याख्याननिषेवणात्परिहरेद्रव्यो व्रती भोजने - प्याहारं मृतजन्तुकेशकलितं जैनागमोक्तक्रमम् ।। ५६ ।। विष्ठा, मूत्र, चमड़ा, खून, मांस, मदिरा, पीप, हड्डी और वमनके देखनेपर, अछूत जातिके मनुष्य की आवाज सुनलेने पर अपने ग्राम में आग लग जानेपर, त्यक्त वस्तुके खा लेनेपर और भोजन में मरे हुए प्राणी और केश निकल आनेपर, व्रती पुरुष आहार छोड़ दे - इस तरह की विधि जैनागम में बताई है ॥ ५६ ॥ अन्यत् —–मूलाचारोक्त अन्तराय । कागा मेज्जा छद्दी रोहण रुहिरं च अंसुपादं च । जहू हेठा परिसं जण्हूवरिवदिक्कमो चेव ॥ ५७ ॥ चरते हुए या खड़े हुए पर जो कौआ, बगुला, श्येन आदि जानवर वीठ कर देते हैं उसे काकान्तकहते हैं । विष्टा, मूत्र आदि अपवित्र चीजोंकर पैरोंसे लिपट जाना अमेध्यान्तराय है ! यदि अपनेको वमन होजाय तो छर्दि नामका अन्तराय है । यदि कोई अपनेको रोक ले तो रोधन नामका अन्ऩराय है। यदि अपने या परायेके खून दीख पड़े तो रुधिर नामका अन्तराय है । च शब्द से पीप आदिको भी समझना चाहिए । अपनेको या अपने समीपवर्ती दूसरेको कष्टके मारे आँसू आजांय तो वह अश्रुपात नामका अन्तराय है । जंघाके नीचे स्पर्श होना जान्वधो नामका अन्तराय है । जंघा के ऊपर स्पर्श होना जानुव्यतिक्रम नामका अन्तराय है । तथा — ॥ ५७ ॥ णाहि अहोणिग्गमणं पच्चक्खिदसेवणा य जंतुवहो । कागादिपिंडहरणं पाणीदो पिंडपडणं च ॥ ५८ ॥ नाभिके नीचे तक सिर करके यदि गृहस्थके घर के दरवाजेमें होकर घरमें जाना पड़े तो नाभ्यत्रो - निर्गमन नामका अन्तराय हैं । त्यागकी हुई वस्तु यदि सेवन- खाने में आजाय तो प्रत्याख्यातसेवन नामका अन्तराय है । अपने या दूसरेके सामने यदि जीववध किया जा रहा हो तो जीववध नामका अन्तराय है। कौआ आदि जानवर आहारको चौंचसे उठाकर लेजांय तो कागादिपिंडहरण नामका अन्तराय है । भोजन करते हुएके हाथमेंसे यदि ग्रास गिर पड़े तो पिंडपतन नामका अन्तराय है । तथा — ॥ ५८ ॥ पाणीये जंतुवहे मंसादिदंसणे य उवसग्गे । पादतैरपंचिंदिय संपादो भायणाणं च ।। ५९ ।। भोजन करते हुएके हाथमें आकर यदि कोई जीव मर जाय तो पाणिजन्तुवध नामका अन्तराय है । यदि मरे हुए पंचेन्द्रिय जीवका शरीर-मांस आदि देखनेमें आजाय तो मांसादि दर्शन १" पांतरम्मि जीवो " ऐसा भी पाठ हैं । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ afrat ३५३ नामका अन्तराय है । यदि किसीके द्वारा कोई तरहका उपसर्ग हो जाय तो उपसर्ग नामका अन्तराय है । यदि मुनिके पैरों के बीच में होकर कोई पंचेन्द्रिय जीव निकल जाय तो पंचेन्द्रियगमन का अन्तराय है । यदि परोसनेवालेके हाथसे छूटकर वर्तन नीचे गिर पड़े तो भाजमसम्पात नामका अन्तराय है । तथा ।। ५९ ।। उच्चारं परसवणं अभोजगिहपवेसणं तहा पडणं । उववेसणं सदसो भूमीसंफास णिवणं ॥ ६० ॥ यदि अपनेको टट्टीकी या मूत्रकी बाधा हो जाय तो उच्चार और प्रस्रवण नामके अन्तराय हैं । यदि आहार के लिए पर्यटन करते समय मुनिका चंडाल आदिके घर में प्रवेश हो जाय तो अभोजनगृहप्रवेश नामका अन्तराय है । यदि मूर्च्छा आदिके कारण मुनि गिर पड़े तो पतन नामका अन्तराय है । यदि भोजन करते समय बैठ जाय तो उपवेशन नामका अन्तराय है । यदि चर्या के समय कुता आदि जानवर अपनेको काट खाय तो सदंश नामका अन्तराय है । भोजनके समय सिद्धभक्ति कर चुकने पर हाथसे भूमिका स्पर्श हो जाय तो भूमिस्पर्श नामका अन्तराय है । खकार आदि थूकना निष्ठीवन नामका अन्तराय है । तथा ॥ ६० ॥ उदरकिमि णिग्गमणं अदत्तगहणं पहार गामदाहो य । पादेण किंचिगहणं करेण किंचि वा भूमीदो ॥ ६१ ॥ उदरसे यदि कृमि निकल आवे तो कुमिनिर्गमन नामका अन्तराय है । यदि विना दिया हुआ ग्रहण करले तो अदत्तग्रहण नामका अन्तराय है । अपने या परके ऊपर तलवार आदिका प्रहार हो तो प्रहार नामका अन्तराय है । यदि ग्राम जल रहा हो तो ग्रामदाह नामका अन्तराय है । पैरसे किसी चीजका उठामा पाद नामका अन्तराय है और हाथसे भूमिपरसे कुछ उठामा इस्तनामका अन्तराय है । ये ऊपर कहे हुए भोजन के बत्तीस अन्तराय हैं ।। ६१ ॥ चौदह मल । णहरोमजंतु अत्थिकणकुंडयपूयरुहिर मंसचम्माणि । बीयफलकंदमूला छिण्णमला चोइसा होंति ।। ६२ ॥ नख, रोम, जन्तु ( प्राणिरहित शरीर ), हड्डी, तुष, कुण्ड ( चावल ) आदिका भीतरी सूक्ष्म अवयव, पीप, चर्म, रुधिर, मांस, बीज, फल, कंद और मूल-ये आठ प्रकारकी पिंडशुद्धिसे जुदें चौदह मल हैं ॥ ६२॥ इत्येवं मिलित्वा सर्वे षट्चत्वारिंशदात्मकाः । अन्तराया मुने रम्याः सर्वजीवदयावहाः || ६३ || इस तरह बत्तीस और चौदह मिलाकर कुल छयालीस मुनिके भोजनके अन्तराय हैं, जो मुनिको सम्पूर्ण जीवों पर दयाभाव करानेवाले हैं ।। ६३ ।। अन्तराया मता येषां न सन्ति तपस्विनः । ज्ञेया भ्रष्टा दयातीताः श्वभ्रावासनिवासिनः ॥ ६४ ॥ जो मुनि इन अन्तरायोंको नहीं पालते वे भ्रष्ट मुनि हैं, करुणाभावसे रहित हैं और नरकगामी हैं ॥ ६४ ॥ ४५ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ सोमसेनभट्टारकविरचित येषां न सन्ति मूढानामन्तराया दुरात्मनाम् । क धर्मः क दया तेषां क पावित्र्यं क शुद्धता ॥ ६५ ॥ जो महामूढ़ दुरात्मा मुनि इन अन्तरायोंको नहीं पालते उनके धर्म कहां ? दया कहां ? आभ्यन्तर पवित्रता कहां और बाह्य शुद्धि कहां ? भावार्थ-जो अन्तरायोंको नहीं पालते उनके न धर्म है, न दया है और न बाह्य और आभ्यन्तर पवित्रता है । ६५ ।। शौचलो भवेद्धर्मः सर्वजीवदया प्रदः । पवित्रत्वदाभ्यां तु मोक्षमार्गः प्रवर्तते ॥ ६६ ॥ जिसका मूल कारण शौच है वही धर्म सम्पूर्ण जीवोंपर दयाभाव करानेवाला है; क्योंकि पवित्रता और दयासे ही मोक्षमार्ग प्रवर्तता है ॥ ६६ ॥ न योग्य भोजन | यथालब्धं तु मध्याह्ने प्रास्रुकं निर्मलं परम् । भोक्तव्यं भोजनं देहधारणाय न भुक्तये ।। ६७ ॥ मध्याह के समय, प्रासुक और शुद्ध जैसा मिले वैसा ( चिकना या चूपड़ा, गर्म या ठंडा आदि) भोजन मुनियों को अपनी शरीर-स्थितिके लिए करना चाहिए, न कि भोजनके लिए (स्वाद आदिके निमित्त ) ॥ ६७ ॥ मनोवचनकायश्च कृतकारितसम्मतैः । नवधा दोषसंयुक्तं भोक्तुं योग्यं न सन्मुनेः ॥ ६८ ॥ मन, वचन और काय, प्रत्येकके कृत कारित और अनुमोदना - इस तरह नव प्रकार के दोषों से युक्त भोजन मुनिके ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ ६८ ॥ मध्याह्नसमये योगे कृत्वा सामयिकं मुदा । पूर्वस्य तु जिनं नत्वा ह्याहारार्थं ब्रच्छनैः ॥ ६९ ॥ पिच्छं कमण्डलुं वामहस्ते स्कन्धे तु दक्षिणम् । हस्तं निधाय संदृष्टया स व्रजेच्छ्रावकालयम् ॥ ७० ॥ स्वा गृहाङ्गणे तस्य तिष्ठेच्च मुनिरुत्तमः । नमस्कार पदान् पंच नववारं जपेच्छुचिः ॥ ७१ ॥ माध्यान्ह समयसम्बन्धी सामायिक क्रियाको करके पूर्व दिशाकी ओर जिनदेव या जिन चैत्यालयको नमस्कार करके आहार के लिए धीरे धीरे गमन करे । पिच्छी और कमंडलुको बायें हाथमें ले ले और दाहिने हाथको कंधेपर रख ले। फिर धीरे धीरे ईर्यापथ-शुद्धिपूर्वक श्रावक के घरपर जावे । वहां श्रावकके पड़ गाह लेनेके बाद उसके घर के आँगनमें जाकर खड़ा होवे और नौ वार पंचनमस्कारका जाप करे ।। ६९-७१॥ भिक्षा देनेकी विधि | तं दृष्ट्वा शीघ्रतो भक्त्या प्रतिगृह्णाति भाक्तिकः । मासुकेन जलेनाङ्घ्री प्रक्षाल्य परिपूजयेत् ॥ ७२ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ३५५ - मुनिको देखकर भक्त श्रावक भक्तिपूर्वक उन्हें पडगाहे। बाद प्रामुक जलसे उनके चरणोंका प्रक्षालन कर उनकी पूजा करे । भावार्थ-नवधा भाक्ति करे ॥ ७२॥ . . षट्चत्वारिंशदोषैश्व रहितं पासुकं वरम् । गृहीयानोजनं गात्रधारणं तपसेऽपि च ॥ ७३ ॥ छयालीस दोषोंसे रहित प्रासुक और अच्छा आहार, शरीर स्थिति और तपश्चरणके निमित्त ग्रहण करे ॥ ७३ ॥ दोषान् संक्षेपतो वक्ष्ये यथाम्नार्य गुरोमुखात् । दाता स्वर्ग बजेद्रोक्ता शिवसौख्याभिलाषुकः ।।७४ ॥ गुरुके मुखसे सने हुए दोषोंको संक्षेपमें शास्त्रानुकूल कहता हूं। जिन्हें समझकर मोक्षसुखके चाहनेवाला भोक्ता और दाता स्वर्ग और क्रमसे मोक्षको जाते हैं ॥ ७४ ॥ - छयालीस दोषोंके नाम। उद्देशं साधिकं पूति मिश्रं पाभृतिकं बलिम् । न्यस्तं प्रादुष्कृतं क्रीतं मामित्यं परिवर्तनम् ॥ ७५ ॥ निषिद्धाभिहितोद्भिमा आच्छाद्यं मालरोहणम् ।। धात्रीभृत्यनिमित्तं च वन्याजीवनकं तथा ॥ ७६ ॥ क्रोधो लोभः स्तुतिपूर्व स्तुतिपश्चाच्च वैद्यकम् । .. मानं माया तथा विद्या मंत्रंचूर्ण वशीकरम् ॥ ७७॥ शङ्कापिहितसंक्षिप्ता निक्षिप्तस्राविको तथा । .. परिणतसाधारणदायकलिप्तमिश्रकाः ॥ ७८ ॥ . : अङ्गारधूमसंयोज्या अप्रमाणास्तथा त्विमे । षट्चत्वारिंशदोषास्तु ोषणाशुद्धिघातकाः ॥ ७९ ॥ १ उद्देश, २ साधिक, ३ पूति, ४ मिश्र, ५ प्राभृतिक, ६ बलि, ७ न्यस्त, ८ प्रादुष्कृत, ९ क्रीत, १० प्रामित्य, ११ परिवर्तन, १२ निषिद्ध, १३ अभिहित, १४ उद्भिन्न, १५ आछाद्य, १६,मालारोहण, १७ धात्री, १८ भृत्य, १९ निमित्त, २० वनीपक, २१ जीवनक, २२ क्रोध, २३ लोभ, २४ पूर्वस्तुति, २५ पश्चात्स्तुति, २६ वैद्यक, २७ मान, २८ माया, २९ विद्या, ३• मंत्र ३१ चूर्ण, ३२ वशीकरण, ३३ शंका, ३४ पिहित, ३५ संक्षिप्त, ३६ निक्षिप्त, ३७ स्राविक, ३८ अपरिणत, ३९ साधारण, ४० दायक, ४१ लिप्त, ४२ मिश्रक, ४३ अंगार, ४४ धूम, ४५ संयोज्य और ४६ अप्रमाण ये छयालीस दोष हैं जो एषणाशुद्धिके घातक हैं ॥ ७५-७९॥ औदशिक दोष । नागादिदेवपापण्डिदानाद्यर्थं च यत्कृतम् । अनं तदेव न ग्राह्यं यत उद्देशदोषभाक् ॥ ८० ॥ .. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ सोमसेनभट्टारकविरचित नाग, यक्ष आदि देवोंको, जैनधर्भसे बहिर्भूत पाषंडोंको, तथा दीन-पुरुषों को देनेके उद्देश से बनाये हुए आहारको औद्देशिक आहार कहते हैं। ऐसा आहार मुनीश्वरों को ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ८० ॥ 11. साधिक दोष | संयताँश्च बहून् दृष्ट्वा भोज्यं यदधिकं खलु । क्रियते सोऽधिको नाम दोषो धीमद्भिरुच्यते ॥ ८१ ॥ मुनियोंको आते देखकर उन्हें आहार देनेके लिए अपने लिए बनते हुए दाल भात आदि भोजन में और दाल-भात छोड़ देना इसको बुद्धिमान् साधिक या अध्यधि दोष कहते हैं । भावार्थ - जिस पात्र में अपने लिए दाल-भात पक रहे हों या जल गर्म हो रहा हो सीमें, मुनियोंको आते देखकर उन्हें आहार देने के लिए दालमें दाल, चांवलों में चांवल और पानीमें पानी और छोड़ देना साधिक दोष है ॥ ८१ ॥ पूति दोष । रन्धन्यां प्रवराहारं पूतित्वं साधुहेतुकम् । मार्जनं लेपनं चेति पञ्चधा पूतिदोषकः ॥ ८२ ॥ इस रसोईघर में या वर्तनमें भोजन बनाकर पहले साधुओं को दूंगा, पश्चात् औरोंको दूंगा इसे पूति दोष कहते है । भावार्थ - इस श्लोक में जो पांच प्रकारका पूतिदोष गिनाया है वह बराबर समझ में नहीं आया । अन्य ग्रन्थोंमें पूति दोषका कथन इस प्रकार है । जो आहार प्रासुक होते हुए भी उसका अप्रासुक-सचित्तता के साथ संबंध हो तो वह पूति दोषसे संयुक्त माना गया है। उसके पांच भेद हैं-घनी, उदूखल (ऊखल), दव ( कच्छीं ), भाजन और गंध । इस रसोईघर में भोजन बनाकर पहले मुनियोंको दूंगा पश्चात् औरोंको दूंगा, यह रंघनी नामका पूतिदोष है । इस ऊखल में कूटकर जबतक ऋषियोंको न दे लूंगा तब तक औरोंको भी न दूंगा, यह ऊखल नामका पूतिदोष है । इसी तरह दव, भाजन और गंध दोषोंको समझना चाहिए । यद्यपि इस उद्देशमें भोजन प्रासुक है, परंतु वह अप्रासुकताका संबंध लिए हुए है अतः दोष है ॥ ८२ ॥ मिश्र दोष । मुनीनां दानमुद्दिश्य पाषण्डिभिरमार्जनैः । सागारैरशनं याद्धे स मिश्रो दोष उच्यते ॥ ८३ ॥ ** जिस आहारमें पाखंडियों और गृहस्थों के साथ साथ मुनियों को देने का उद्देश किया जाय वह प्रासुक बना हुआ आहार भी मिश्रदोषसे संयुक्त है ॥ ८३ ॥ प्राकृतिक दोष । कालहीनं हि यद्दानं दीयते सानुरागतः । काळातिक्रमतः सोऽयं दोषः प्राभृतिको यतः ॥ ८४ ॥ जिस समय या जिस दिन दान देना निश्चित किया जाय उससे पहले या पीछे दान देना प्राभृतिक दोष है। भावार्थ- प्राकृतिक दोष के दो भेद हैं-एक बादर और दूसरा सूक्ष्म । पुनः प्रत्येक के दो भेद हैं- कालानि और कालवृद्धि । बिन, पक्ष, मास और वर्ष में होनाधिकता कर Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। .. देना बादर प्राभृतिक दोष है । जैसे-शुक्ल अष्टमीको दान देनेका निश्चय कर शुक्ल पंचमीको दे देना, यह दिवसहानि है और शुक्ल पंचमीको दान देनेका निश्चय कर शुक्ल अष्टमीको देना यह दिवसवृद्धि है। चैत्रके शुक्लपक्षमें देनेका निश्चयकर उसके कृष्णपक्षमें देना यह पक्षहानि और चैत्रके कृष्णपक्षमें देनेका निश्चय कर उसके शुक्लपक्षमें देना यह पक्षवृद्धि । चैत्रमासमें देनेका निश्चय कर फाल्गुनमें देना यह मासहानि और फाल्गुनमें देनेका निश्चयकर चैत्रमें देना यह मासवृद्धि है। तथा आगेके वर्षमें देनेका निश्चयकर इसी वर्ष दे देना यह वर्षहानि और इसी वर्ष देनेका निश्चयकर आगेके वर्षमें देना यह वर्षवृद्धि है । तथा भोजनके समयोंमें हीनाधिकता करना सूक्ष्मप्राभतिक दोष है। जैसे-दोपहरको दान देनेका निश्चयकर सुबह ही देदेना अथवा शामका निश्चयकर दोपहरको देना यह समयहानि और सुबह देनेका निश्चयकर दोपहरको देना अथवा दोपहरका निश्चयकर शामको देना यह समयवृद्धि । इस तरह कालकी हानि-वृद्धि कर आहार देना प्राभृतिक दोष है। ऐसा करनेमें दाताको श्लेश होता है, बहुतसे जीवोंका विघात होता है और प्रचुर आरंभ करना पड़ता है; इसलिए यह दोष माना गया है॥८४॥ बलि दोष । संयतानां प्रभूतानां गमनार्थ विशेषतः। कृत्वा पूजादिकं चान्नं दीयते बलिदोषभाक् ॥ ८५ ॥ संयत हमारे घरपर जावें इस अभिप्रायसे यक्षादि देवोंकी पूजा करके बाकी बचा हुआ आहार देना बलिदोष है ।। ८५ ॥ ___ न्यस्त दोष। सत्पात्रभाजनादन्नं स्थापित चान्यभाजने । न्यस्तदोषोऽयमुद्दिष्टः सद्भिरागमपारगैः॥ ८६ ॥ । जिस पात्रमें भोजन बनाया गया हो उसमेंसे निकालकर दूसरे पात्रमें रखकर अपने ही घरमें या दूसरेके घरमें ले जाकर रख देनेको आगमके पारंगत पुरुष न्यस्त दोष कहते हैं। भावार्थ-इस तरहका भोजन मुनीश्वरोंको नहीं लेना चाहिए। क्योंकि आहार देनेवाला दाता ऐसी क्रिया दूसरेके भयसे करता है, अतः उसमें विरोधादि दोष देखे जाते हैं । ८६ ॥ . प्रादुष्कार दोष। .... ........ आहारभाजनादीनामन्यस्माच्च प्रदेशतः। अन्यत्र नयनं दीपपज्वालनमतोऽपि च ॥ ८७ ॥ प्रादुष्किको मतो दोषो वर्जनीयः शुभार्थिभिः । भोजनके वर्तनोंको एक स्थानसे उठाकर दूसरी जगह लेजाकर रखना प्रादुम्कार दोष है, तथा दीपक जलाना भी प्रादुष्कार दोष है । शुभ चाहनेवाले पुरुषों को इस दोषका त्याग करना चाहिए । भावार्थ-प्रादुष्कार दोषके दो भेद हैं-एक संक्रमण और दूसरा प्रकाश । संयतोंको घरपर आते देखकर भोजनके पात्रोंको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाना संक्रम दोष है। तथा भस्मआदिसे वर्तनोंको मांजना, दीपक जलाना वर्तनोंको फैलाकर रखना आदि प्रकाश नामका दोष है ॥ ८७॥.. . Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ सोमसेनभट्टारकविरचित ... क्रीत-दोष। । स्वान्यद्रव्येण यद्भोज्यं संगृहीतं यदा भवेत् ।। ८८॥ विद्यामन्त्रेण वा दत्तं तत्क्रीतं दोष इत्यसौ । ... अपने और परके द्रव्यसे अथवा विद्या और मंत्र द्वारा लाई हुई भोजन-सामग्रीसे तैयार किया हुआ आहार क्रीत दोषकर संयुक्त है । भावार्थ-क्रीत दोषके दो भेद हैं-एक द्रव्यत्रीत और दूसरा भावक्रीत । मुनियोंको चर्यामार्ग द्वारा आते देखकर अपने अथवा परके गाय, बैल आदि सचित्त पदार्थोंको अथवा सुवर्ण आदि अचित्त द्रव्योंको बेचकर भोजन सामग्री लाना और उसका भोजन तैयारकर मुनीश्वरोंको देना द्रव्यकोत दोष है । तथा अपनी या परकी प्रज्ञप्ति आदि विद्याएं या चेटिका आदि मंत्र देकर भोजन सामग्री लाना और उसका भोजन बनाकर मुनीश्वरोंको देना भावक्रीत दोष है। ऐसा करनेसे दाताका मुनियोंपर करुणाभाव झलकता है, भक्तिभाव नहीं; अतः मुनिश्वरोंको क्रोतदोषसंयुक्त आहार नहीं लेना चाहिए । ८८॥ . प्रामित्य दोष । स्वकीयं परकीयं चेद्रव्यं यच्चेतनेतरत् ॥ ८९॥ दत्वाऽन्नानयनं पात्रे पामित्यं दोष एव सः । अपने या परके चेतन अथवा अचेतन द्रव्य गिरवी रखकर दाल चांवल आदि चीजे उधार लाना और उनका भोजन तैयार कर मुनियों को देना प्रामित्य दोष है। भावार्थ-मुनियोंको चर्यामार्गमें प्रविष्ट देखकर दाता दूसरेके घरपर जाकर भक्तिपूर्वक याचना करे कि मैं तुम्हारे दाल चांवल आदि जितने ले जाऊंगा उनसे कुछ अधिक या उतनेके उतने वापिस दे जाऊंगा, तुम मुझे ये ये चीजें देओ-ऐसा कहकर भोजन सामग्री लाना और उसका आहार बनाकर देना ऋणसहित प्रामित्य दोष है। तथा चेतन-अचेतन द्रव्यको गिरवी रखकर भी भोजन-सामग्री लाना ऋणदोष है। ऐसा करनेसे दाताको क्लेश और परिश्रम उठाना पड़ता है; अतः. मुनियोंको ऋणदोषसंयुक्त आहार नहीं लेना चाहिए ॥ ८९ ॥ परिवर्तन दोष । स्वान्नं दत्वाऽन्यगेहाद्वा यदानीयोत्तमं शुभम् ॥ ९ ॥ अन्नं ह्यादीयतेऽत्यर्थ परिवर्तनमुच्यते । अपना हलका अन्न देकर दूसरेके घरसे बढ़िया अन्न लाकर मुनियोंको देना परिवर्तन दोष है । भावार्थ-मेरे ब्रीही तुम लेलो और मुझे शाल्योदन देओ अथवा तुम मेरी यह चीज ले लो और तुम मुझे यह दे दो, मैं साधुओं को दूंगा-ऐसा कहकर मुनियों के लिए आहार लाना परिवर्तन दोष है। ऐसा करनेसे दाताको क्लेश होता है; अतः मुनियोंको परिवर्तन दोषसंयुक्त आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए ॥ ९ ॥ निषिद्ध दोष। मध्ये केनापि गृहिणा निषिद्ध भोजनादिकम् ॥ ९१ ॥ दातव्यं न मुनिभ्यश्च तथापि खलु गृह्यते। . स निद्धि महादोषः परिपाट्या प्रकीर्तितः ॥ ९२ ॥ . Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । • आहार देते हुएको बीचमें ही कोई रोक दे तो वह आहार मुनियोंको नहीं देना चाहिए। निषेध करनेपर भी य द कोई दे तो वह आहार निषिद्धनामक महादोषसे संयुक्त माना गया है। भावार्थ-निषिद्ध आहारके व्यक्तेश्वर, अव्यक्तेश्वर, व्यक्ताव्यक्तेश्वर, व्यक्तानीश्वर, अव्यक्तानीश्वर, व्यक्ताव्यक्तानीश्वर-ऐसे छह भेद हैं। आहार देते हुएकोइनमेंसे कोई रोक दे तो वह आहारः निषिद्ध दोष कर संयुक्त है, ऐसा आहार मुनीश्वरों को नहीं लेना चाहिए; क्योंकि इसमें विरोधादिक दोष देखे जाते हैं ॥ ९१-९२ ॥ अभिहित दोष। . . . यस्मात्कस्माद्विना पंक्त्या गृहादष्टमतः परम् । आनीतं गृह्यते चानं तदेवाभिहितं मतम् ॥ ९३ ॥ पंक्ति स्वरूप तीन अथवा सात घरोंको छोड़कर जिस किसी घरसे आया हुआ भोजन अथवा पंक्तिरूप घरों में भी अष्टमादि घरोंसे आया हुआ भोजन अभिहित दोषयुक्त माना गया है। भावार्थजिस समय आहार ले रहे हों उस समय कोई दूसरा पुरुष भी अपने घरसे आहार लाकर भक्तिभावसे दे ती जिस घरमें आहार ले रहे हों उस घरसे पंक्तिरूप तीन अथवा सात घर तकका आया हुआ आहार मुनि ले सकते हैं इसमें कोई दोष नहीं है; परंतु पंक्तिरूप तीन या सात घरोंको छोड़कर अष्टमादि घरसे आया हुआ या विना ही पंक्तिके किसी भी घरसे आया हुआ अन्न अभिहित दोषसंयुक्त है। ऐसा अन्न मुनियोंको ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ९३ ॥ - उद्भिन्न दोष। घृतादिभोजनं सारं मुद्रितं कर्दमादिना । उद्भिद्य दीयते दोष उद्भिन्नः परिपठ्यते ॥ ९४ ॥ मिटी. लाख आदिसे वर्तनका मुख मूंद दिया गया हो ऐसे वर्तनमेंसे उसपरकी मिट्टी लाख आदिको हटाकर घृत, गुड़, शक्कर आदि सार वस्तु निकाल कर देना उद्भिन्न दोष है ॥ ९४॥ . आच्छाद्य दोष । संयतान् परमान् दृष्ट्वा राजचोरादिभीतितः। दानं ददाति स प्रोक्तो दोष आच्छाधनामर्कः॥ ९५ ॥ राजा, चौर आदिके भयसे संयतोंको आहार देना आच्छाद्य नामका दोष है। भावार्थ--जब संयतोंको भिक्षाजन्यश्रम देखकर राजा या राजासदृश कोई तेजस्वी अथवा चौरादि गृहस्थोंको या तो तुम आये हुए मुनिगणको आहार दो नहीं तो हम तुम्हारा धन-माल छीन लेंगे या लूट लेंगे अथवा शहरसे बाहर निकाल देंगे, इस तरह डराकर आहार दिलावें तब आहार देना सो यह आच्छे. द्यनामक दोष है ।। ९५ ॥ मालारोहण दोष। निःश्रेण्यादिकमारुह्य द्वितीयगृहभूमितः । आदाय दीयते ह्यनं तन्मालारोहणं मतम् ॥ ९६ ॥ १ श्लोकका पाठान्तर ऐसा भी है:. नृपादीनां भयं श्रुत्वा मुनीनां हृतमौनतः । गुप्तवृत्या तु यह दोष आच्छाद्यनामकः । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित निसैनी आदिपर चढ़कर घरके दूसरे तीसरे मंजिल परसे लाकर आहार देना मालारोहण दोष है। भावार्थ-आहार स्थानसे उपरकी मंजिलपर सीढ़ी निसैनी आदिपर चढ़कर वहांते आहार लाकर देना मालारोहण दोष है । इसमें आहार दाताका गिर पड़ना आदि अपाय देखा जाता है; इसलिए यह दोष है। इस तरह सोलह उद्गम दोष कहे । आगे सोलह उत्पादन दोषोंको कहते हैं ॥ ९६॥ धात्री दोष। मजनं मण्डनं चैव क्षीरपानादिकारकं । क्रीडनं तनुमा स्वाप विधिर्यः क्रियते ध्रुवं ॥ ९७ ॥ गृहिणीमेव चोद्दिश्य यदुत्पादितमन्नकम् । .. तद्धात्रीदोष इत्येष कीर्तनीयो मनीषिभिः ॥ ९८॥ . घरकी स्त्रियोंके करने योग्य बालकोंको स्नान कराना, आभूषण पहनाना, दुग्ध पिलाना, खेल खिलाना, सुलाना-इस तरहकी पांच क्रिया स्वयं करके या इन पांचोंका उपदेश देकर आहार लेना सो धात्री दोष है । भावार्थ-स्नानादि पांच प्रकारके धात्रीकौद्वारा आहार लेना धात्री दोष है ॥ ९७-९८ ॥ . भृत्य दोष। स्वपरग्रामदेशादेरादेशं च निवेद्य च । गृह्णाति किञ्चिदाहारं दोषस्तभृत्यसंज्ञकः॥ ९९ ॥ अपने ग्राम और देशके समाचार दूसरे ग्राम और दूसरे देशको ले जाकर आहार ग्रहण करना सो भृत्य या दूत नामका दोष है । भावार्थ-कोई साधु नाव आदि द्वारा जलमार्ग होकर या स्थलमार्ग होकर या आकाश मार्ग होकर परग्राम या परदेशको जा रहा हो, उसे जाते देख कोई गृहस्थ यह कहे कि, हे भट्टारक ! मेरा एक संदेशा लेते जाना । उसके उस संदेशेको ले जाकर वह मुनि उसे कहे जिसके पास वह संदेश भेजा गया है । संदेशा सुनकर वह परग्राम या परदेश निवासी पुरुष परम संतुष्ट हुआ उस साधुको आहार दे और वह साधु उसके उस दिये हुए आहारको ले तो वह आहार दूत दोषसे युक्त माना गया है । अतः दूत कर्मद्वारा आहार उत्पन्न कर मुनियोंको नहीं लेना चाहिए । क्योंकि दूतकर्म द्वारा आहार लेनेसे जिनशासनमें मलिनता आती है ॥१९॥ . निमित्त दोष । .. व्यञ्जनाङ्गस्वरच्छिन्नभौमान्तरिक्षलक्षणम् । स्वप्नं चेत्यष्टनिमित्तं करोति तन्निमित्तकम् ॥ १० ॥ व्यंजन, अंग, स्वर, छेद, भौम, अंतरिक्ष, लक्षण और स्वप्न-इन आठ निमित्तोंद्वारा आहार उत्पन्न कर ग्रहण करना निमित्त दोष है । भावार्थ-तिल, मसा आदि व्यंजन कहे जाते हैं । शरीरके हाथ-पैर आदि अवयवोंको अंग कहते हैं । स्वर नाम आवाजका है । खड्ग आदिके पावको छेद कहते हैं। भमिका फट जाना भौमनिमित्त है । सूर्य-चंद्रमा आदिके उदय और अस्तको अंतरिक्ष कहते हैं। नंदिकावर्त, पद्म, चक्र आदि लक्षण माने गये हैं । स्वप्नमें हाथीपर चढ़ना, विमानमें बैठना, महिष (सा) पर चढ़ना आदिका देखना स्वप्न है। इन भाठ निमित्तोंको देखकर दूसरेके शुभाशुभ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार હે बताकर आहार लेना निमित्त दोष माना गया है । यह दोष इसलिए है कि ऐसा करनेमें रसास्वादन, दीनता आदि दोष पाये जाते हैं ॥ १०० ॥ वनीपक-दोष । पाषंडिकृपणादीनामतिथीनां तु दानतः । पुण्यं भवेदिति प्रोच्य अद्याद्ववनीपकम् ॥ १०१ ॥ पाषंडी, कृपण आदि अतिथियोंको दान देनेसे पुण्य होता है ऐसा दान-दाताको कह कर आहार लेना वनीपक-दोष है । भावार्थ-किसी दाताने पूछा कि महाराज ! कुत्तोंको रोटी डालने से; अन्धे, लूले, लंगड़े आदि दुःखी जीवोंको भोजन करानेसें, मधुमासादि भक्षण करनेवाले ब्राह्मणोंको तथा दीक्षाद्वारा उपजीवी पाषंडियों को आहार देनेते तथा कौवोंको खिलानेसे पुण्य होता है या नहीं ? उत्तर में वे साधु कहें कि होता है । इसका नाम वनीपक-दोष । तात्पर्य यह है कि दानपतिके अनुकूल वचन कहकर आहार लेना वनीपक-दोष है; क्योंकि ऐसा क कर आहार लेनेसे साधुओं में दीनता झलकती है ॥ १०१ ॥ जीवनक - दोष | जातिं कुलं तपः शिल्पकर्म निर्दिश्य चात्मनः । जीवनं कुरुतेऽत्यर्थ दोषो जीवनसञ्ज्ञकः ॥ १०२ ॥ अपनी जातिशुद्धि, कुलशुद्धि, तपश्वरण और शिल्पकर्मका निर्देश कर आजीविका करनाआहार ग्रहण करना जीवनक नामका दोष है । ऐसा करने में वीर्य निगूहन - शक्ति छिपाना, दीनता आदि दोष देखे जाते हैं; इसलिए यह दोष हैं १०२ ॥ क्रोधदोष और लोभदोष । क्रोधं कृत्वाऽशनं ग्राह्यं क्रोधदोषस्ततो मतः । चिल्लोभं प्रदर्शयति लोभदोषः स कथ्यते ॥ १०३ ॥ क्रोध करके अपने लिए भिक्षा उत्पन्न करना क्रोधदोष है । तथा लोभ दिखाकर भिक्षा उत्पन्न करना लोभदोष है ॥ १०३ ॥ पूर्वस्तुति और पश्चात्स्तुति दोष । त्वमिन्द्र चन्द्र इत्युक्त्वा मुक्तेनं स्तुतिदोषभाक् । पूर्व स्तुयात्पश्चात्स्तुतिपश्चान्मलो मतः ।। १०४ ॥ तुम बड़े इंद्र हो, चन्द्र हो इत्यादि प्रथम स्तुतिकर पश्चात् आहार ग्रहण करना पूर्वस्तुति - दोष है । तथा प्रथम आहार लेकर पश्चात्स्तुति करना पश्चात्स्तुति दोष है । भावार्थ- दातासे दान ग्रहण करनेके पहले ही कहना कि तुम बड़े भारी दान-दाता हो, तुम यशोधर हो, तुम्हारी कीर्ति जगतमें चारों ओर सुनाई दे रही है सो यह पूर्वस्तुतिदोष है । तुम पहले भारी दान-दाता थे, अब तुम दान देना कैसे भूल गये - इस तरह संबोधित करके भी आहार लेना पूर्वस्तुतिदोष है । तथा दान लेकर पश्चात् गुणगान करना कि तुम जगतमें विख्यात हो, भारी दानपति हो, तुम्हारा यश हमने सुन रखा है सो पश्चात् स्तुतिदोष है । ऐसा करना नग्माचार्य के कर्तव्य में दोप है। तथा इससे कृपणता मालूम पड़ती है; अतएव ये दोनों दोष हैं ॥ १०४ ॥ ४६ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित वैद्य, मान और मायादोष। कृत्वा भेषजमत्यन्नं वैद्यदोषः स उच्यते । आत्मपूजादिकं लोकान् प्रतिपाद्यातियत्नतः ॥ १०५॥ उदरं पूरयत्येव मानदोषो विधीयते । मायां कृत्वाऽन्नमादत्ते मायादोषा प्रकीर्तितः॥ १०६॥ बालचिकित्सा, तनुचिकित्सा, रसायन चिकित्सा, विषचिकित्सा, भूतचिकित्सा आदि आठ. प्रकारके शास्त्रोंद्वारा औषधोपचार करके आहार ग्रहण करना वैद्यदोष है । जनसमूहके प्रति अपनी पूजा-प्रतिष्ठा आदिका कथन कर आहार ग्रहण करना मानदोष है। भावार्थ-गर्व करके अपने लिए भिक्षा उत्पन्न करना मान-दोष है । तथा मायाचार करके आहार लेना मायादोष कहा गया विद्यादोष और मंत्रदोष। कृत्वा विद्याचमत्कारं योऽत्ति विद्याख्यदोषकः । मंत्रयन्त्रादिकं कृत्वा योऽत्ति वै मन्त्रदोषकः ॥ १०७ ॥ विद्याका चमत्कार दिखाकर जो आहार ग्रहण करना है वह विद्या नामका दोष है। तथा आहारप्रद व्यन्तरादि देवोंको मंत्र यंत्र आदिद्वारा वशकर जो आहार ग्रहण करना है वह मंत्रदोष है।।१०७॥ चूर्णदोष और वशीकरण दोष । दत्वा चूर्णादिकं योऽत्ति चूर्णदोषः स इष्यते । वशीकरणकं कृत्वा वशीकरणदोषकः ॥ १०८ ॥ नेत्रांजन आदि देकर जो आहार ग्रहण करता है वह चूर्णदोषवाला है। तथा जो वशीभूत नहीं उनको वशमै करना वशीकरण-दोष है। यहांतक, सोलह उत्पादन दोष कहे । आगे दश एषणा दोषोंका कथन करते हैं ॥ १०८ ॥ शंका-दोष और पिहित-दोष। . . , अस्मदर्थं कृतं चान्नं न वा शङ्काख्यदोषकः।। सचित्तेनावृतं योति पिहितो दोष उच्यते ॥१०९ ॥ यह आहार मेरे भक्षण करने योग्य है अथवा नहीं यह शंका नामका दोष है। तथा जो सचित्त कमल पत्रादिसे ढके हुए आहारको ग्रहण करता है वह पिहित दोषयुक्त आहार करता है ॥ १०९॥ ..... . संक्षिप्त-दोष। स्निग्धेन या स्वहस्तेन देयं वा भाजनेन वा । संक्षिप्तदोषो निर्दिष्टो वर्जनीयो मनीषिभिः ॥ ११० ॥ घी, तेल आदिसे चिकने हाथोंसे अथवा कच्छी आदि वर्तनसे भोजन परोसना, सो संक्षिप्त दोष है। ऐसे दोषका मुनियोंको त्याग करना चाहिए । इसमें संमूर्च्छनादि सूक्ष्म-दोष हैं; अतएव यह दोष है ॥ ११०॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णिकाचार। निक्षिप्त-दोष । सचित्तवारिभियदि मसिच्यानं तु दीयते । निक्षिप्तदोष इत्युक्तः सर्वथागमवर्जितः ॥ १११ ॥ अप्रासुक जल, पृथिवी, अग्नि आदि पर रक्खा हुआ अन्न देना निक्षिप्त-दोष है। ऐसा आहार लेना आगममें सर्वथा वर्जनीय बताया है ।। १११॥....:::: .. सावित-दोष ।। घृततक्रादिकं चैव स्रवत्येवानकं बहु । तदनं गृह्यतेऽत्यर्थं स्रावितो दोष उच्यते ॥ ११२ ॥ __ अत्यन्त झरता हुआ पतला तक्र (मठा-छाछ ), घृत आदि भोजन लेना, सो स्रावित-दोष है; क्योंकि ऐसा अन्न हाथमें ठहर नहीं सकता । अतः वह हाथमेंसे नीचे जमीन पर गिर पड़ता है, जिससे जीवोंकी हिंसा होनेकी संभावना है। अतः ऐसा स्रावित आहार मुनियों को नहीं लेना चाहिए ॥ १२ ॥ अपरिणत-दोप। त्रिफलादिरजोभिश्च रसैश्चैव रसायनैः । गृह्णात्यपरिणतं वै दोषोऽपरिणतः स्मृतः ॥११३ ॥ ___ त्रिफला आदि चूर्णोद्वारा जिसका रस, वर्ण, गंध और स्वाद नहीं बदला है ऐसा जल ग्रहण करना अपरिणत दोष है । भावार्थ-तिल प्रक्षालित जल, चांवल धोया हुआ जल, तपाकर ठंडा किया गया ऐसा गर्म जल, चने धोया हुआ जल आर तुष प्रक्षालित जल जिसके खास रंग, गंध और स्वाद नहीं बदल पाए ह, तथा हरीतकी चूर्ण आदिके गलनेसे भी जिसके वर्ण, गंध और रस नहीं बदले हैं वह सब अपरिणत है। ऐसा जल मुनियों को नहीं पीना चाहिए ॥ ११३ ॥ - साधारण-दोष। गीतनृत्यादिकं मार्गे कुर्वन्नानीय चान्नकम् । गृहे यद्दीयते दोषः स साधारणसञ्जकः ॥ ११४ ॥ मार्गमें गीत गाते हुए, नृत्य आदि करते हुए आहार लाकर घरपर देना साधारण नामका दोष है ।। ११४ ।। ...... दायक-दोष । ...... रोगी नपुंसकः कुष्टी उच्चार मूत्रलिप्तकः। गर्भिणी ऋतुमत्येव स्त्री ददात्यन्नमुत्तमम् ॥ ११५ ॥ आशौचाचारसंकीनः स दोषो दायकस्य वै । रोगी, नपुंसक, कोढी, टट्टी-पेशाब करके आया हुआ, गर्भिणी स्त्री और रजस्वला स्त्रीके हाथका : प्रासुक भी आहार ग्रहण करना सो अशौचाचारयुक्त दायक-दोष है। ऐसे दाताओंके हाथका आहार नहीं लेना चाहिए । इनके अलावा इन दाताओंके हाथका भोजन भी नहीं लेना चाहिएजो प्रसूति हो, मद्य--पान किए हुए हो, मुर्दा जलाकर आया हो अथवा मृतक-सूतकवाला हो, Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३६४ सोमसेनभट्टारकविरचित वातादिसे उपहत हो, नन अर्थात् शरीरपर दुपट्टा आदि ओढ़े हुए न हो, बेहोश होकर उठा हो, वमन करके आया हो, जिसके खून चुचाता हो, जो वेश्या-दासी हो, आर्थिका हो, पंचश्रमणिका हो, तैल मालिश करनेवाली हो, अत्यंत बालक हो, अत्यंत वृद्ध हो, भोजन करती हुई हो, अंधी हो, भीत आदिके ओटमें खड़ी हो, बिलकुल पासमें बैठी हो, अपनेसे ऊंचे स्थान में बैठी हो, जो अभि जला रही हो, अनि फूंक रही हो, भस्मसे अनि बुझा रही हो, लीप रही हो, स्नान कर रही हो, स्तनपान करते बालकको छोड़कर आई हो, तथा जो जातिच्युत हो । तात्पर्य- ऐसी स्त्री या पुरुष के हाथका आहार लेना दायक - दोष है ॥ ११५ ॥ लिप्त दोष । अमासुकेन लिप्तेन हस्तेनैव विशेषतः ।। ११६ ॥ भाजनेन ददात्यन्नं लिप्तदोषः स कीर्तितः । अप्रासुक जल आदि से गीले हाथोंसे आहार देना तथा अप्रासुक चीजोंसे लिप्त वर्तन में रखकर आहार देना लिप्त दोष कहा गया है ।। ११६ ॥ मिश्र-दोष । आमपात्रादिके पात्रे सचित्तेनाई मिश्रितम् ॥ ११७ ॥ ददात्याहारकं भक्त्या मिश्रदोषः प्रकीर्तितः । सचित्त मिट्टी के वर्तन में रखकर तथा सचित्त जलादिकसे मिश्रित आहार देना मिश्र-दोष है । भावार्थ-सचित्त मिट्टी, सचित्त जव, गेहूं आदि बीज, सचित्त पत्ते, पुष्प, फल आदि तथा जिंदे या मृत द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंसे मिला हुआ आहार मिश्र आहार कहलाता है ॥ ११७ ॥ अंगार- दोष | गृध्या यो मूच्छितं ह्यन्नं भुङ्क्ते चाङ्गारदोषकः ।। ११८ ॥ सुध-बुध न रखकर अत्यंत लंपटता के साथ आहार करना अंगार-दोष है ॥ ११८ ॥ धूम - दोष और संयोजन - दोष | भोज्याला दातारं निन्दन्नत्ति स धूमकः । शीतमुष्णेन संयुक्तं दोषः संयोजनाः स्मृतः ॥ ११९ ॥ मनोभिलषित आहार न मिलनेपर दाताकी निंदा करते हुए आहार ग्रहण करना धूम-दोष है । तथा गर्म आहारसे ठंडा आहार और ठंडेसे गर्म आहार मिलाना संयोजना-दोष है ॥ ११९ ॥ प्रमाण-दोष 1 प्रमाणतोऽन्नमत्यात्त दोषश्चैषोऽप्रमाणकः । इत्येवं कथिता दोषाः षट्चत्वारिंशदुक्तितः ॥ १२० ॥ प्रमाणसे अधिक आहार करना अप्रमाण-दोष है । भावार्थ - उदरके चार भाग करना, दो भागोंको आहारसे भरना, एकको जलसे भरना और चौथे भागको खाली रखना प्रमाणभूत आहार है । इस प्रमाणसे अधिक आहार ग्रहण करना अप्रमाण-दोष है । इस तरह यहांतक छ्यालीस दोष क कथन किया ॥ १२० ॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. - त्रैवर्णिकाचार । - इत्येवं कथितो धर्मो मुनीनां मुक्तिसाधकः । संक्षेपतो मया ग्रन्थे वर्णाचारमसङ्गतः ॥ १२१ ॥ इस तरह मैंने वर्णाचारके प्रसंगको पाकर इस ग्रंथमें संक्षेपसे मुक्तिके साधक मुनिधर्मका वर्णन किया ॥ १२१ ॥ आदौ श्रीवर्णलाभः सुखकरकुलचर्या गृहाधीशता च । सर्वेभ्यश्च प्रशान्तिर्मनसि कृतगृहत्यागता वा सुदीक्षा ॥ अध्यायेऽस्मिन्गरिष्ठाः शिवसुखफस्दा वर्णिता धर्मभेदा । ये कुर्वन्तीह भव्याः सुरनरपतिभिस्ते लभन्ते सुपूजाम् ॥ १२२ ॥ इस बारहवें अध्यायमें मोक्ष-सुखरूप फल देनेवाली धर्मका भेद-स्वरूप वर्णलाभ, कुलचो, गृहीशिता, प्रधान्ति, गृहत्याग और दीक्षा-इन क्रियाओंका वर्णन किया जो भव्य इन क्रियाओं को करता है वह इन्द्र और राजाओंके द्वारा पूजा जाता है ॥ १२२ ॥ धर्मोपदेशं प्रवदन्ति सन्तो धन्यास्तु ते ये सुचरन्ति भव्याः। पूज्याः मुरैर्भूपतिभिश्च नित्यं तेषां गुणान् वाञ्छति सोमसेनः॥ १२३॥ ___सजन पुरुष धर्मोपदेश करते हैं। वे पुरुष धन्य हैं जो उस उपदेशका आचरण करते हैं। तथा वे देवों और राजाओं द्वारा पूजे जाते हैं । उनके उन सद्गुणोंकी सोमसेनसूरि वाञ्छा करता है ॥ १२३ ॥ इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारनिरूपणे भट्टारकश्री सोमसेन विरचिते वर्णलाभादिपञ्चक्रियावर्णनो नाम द्वादशोऽध्यायः समाप्तः ॥ १२ ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित'तेरहवां अध्याय । .. . वन्दे तं शान्तिनाथं शिवसुखविधिदं सेवितं भव्यलोकै- .. रादौ चक्रेण राज्यं सकलभरतजं साधितं येन पुण्यात् । 'पश्चादीक्षा समादाय तु कलिलमलं छिन्नकं ध्यानचक्रः शुद्धज्ञानेन भव्याः सुसमवसरणे बोधिता मोक्षहेतोः ॥१॥ .. मैं अन्धका भव्यजीवों कर सेवनीय मोक्ष-सुखको प्रदान करनेवाले उन शान्तिनाथ तीर्थकरको नमस्कार करता हूं, जिन्होंने पूर्व भवोंमें उपार्जित पुण्यके उदयसे सबसे प्रथम चक्र-रत्नके य साधन किया । पाश्चात् दक्षिा धारण कर ध्यानचक्र के द्वारा घातियाकर्मरूप पाप-मलको छिन्नभिन्न किया । अनन्तर शुद्ध केवलज्ञान प्राप्तकर उसके द्वारा समवशरणमें मोक्ष-मुखके अर्थ भव्य जीवोंको संबोधित किया। :: : ............... कर्मकलंकषिमुक्तं मुक्तिश्रीवल्लभं गुणैर्युक्तम् । " . . .. सिद्धं नत्वा वक्ष्ये द्विधा स्फुटं मूतकाध्यायम् ॥२॥ कर्म-कलंकसे रहित, मुक्ति-लक्ष्मीके बल्लभ, सम्यग्दर्शनादि गुगोंसे युक्त सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार कर मृतक-सूतक और जनन सूतकको प्रतिपादन करनेवाले तेरहवें अध्यायका प्रारंभ करता क्षत्रियवैश्यविप्राणां मूतकाचरणं विना।. . देवपूजादिकं कार्य न स्यान्मोक्षपदायकम् ॥३॥. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य दोनों तरहके सूतकका पालन करें। क्योंकि सूतक दूर किये बिना उनके किये हुए देवपूजादि कार्य मोक्ष-प्रदायक नहीं होते ॥ ३ ॥ सुतकके भेद। मृतकं स्याच्चतुर्भेदमातवं सौतिकं तथा । ..मात सत्संगजं चेति तत्रातवं निगयते ॥४॥ र सूतकके चार भेदं हैं-एक आर्तव-सूतक, दूसरा प्रसूति-सूतक, तीसरा मरण-स्तक और चौथा इन तीनोंके स्पर्शजन्य सूतक । उनमेंसे प्रथम आर्तव सूतकको कहते हैं ।। ४ ॥ - आर्तव-सूतकके भेद । रजः पुष्पं ऋतुश्चेति नामान्यस्यैव लोकतः। द्विविधं तत्तु नारीणां प्रकृतं विकृतं भवेत् ॥ ५ ॥ . स्त्रियों के रजोधर्मको आर्तव-सूतक कहते हैं। उसके रज, पुष्प और ऋतु-ये नाम लोकमें प्रसिद्ध हैं। यह आर्तव-सतक दो तरहका है-एक प्रकृत और दसरा विकृत ॥५॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..., त्रैवर्णिकाचार ।..... प्रकृत और विकृत सूतकके लक्षण । प्रकृतं जायते स्त्रीणां मासे मासे स्वभावतः । अकाले द्रव्यरोगााद्रेकात्तु विकृतं मतम् ॥६॥ स्त्रियोंके जो स्वभावसे ही महीने-महीने में रजस्राव होता है उसे प्राकृत रज कहते हैं। और जो असमयमें द्रव्य, रोग और आदि शब्दसे राग-इन तीनोंके उद्रेकसे जो रक्तस्राव होता है उसे विकृत रज कहते हैं। भावार्थ-कितनीही स्त्रियां एक माह पहले भी रजस्वला हो जाती हैं, उसमें द्रव्य, राग और रोग ऐसे तीन कारण हैं । इन तीनों कारणोंसे रजस्राव होनेको विकृत रजस्राव कहते हैं। इन तीन कारणजन्य रजकी संज्ञा रक्त है, रज नहीं । इन तीन कारणजन्य विकृत रजके तीम भेद हो. जाते हैं-रोगज, रागज और द्रव्यज । संतति उत्पन्न होनेके पहले मजाके बढ़ जानेसे जो स्त्रियोंके रक्त बहने लगता है वह रोगज रज है। पित्त आदि दोषोंकी विषमतासे जो पुनः पुनः रक्त बहता है वह रागज रज है। और जो. धातुओंकी विषमतासे उत्पन्न होता है वह द्रव्यज रज है। तथा महीने बाद जो रजस्नाव होता है वह कालज है और प्राकृत है.॥६॥ अकाले यदि चेत् स्त्रीणां तद्रजो नैव दुष्यति । पञ्चाशद्वषादृध्वं तु अकाल इति भाषितः ॥७॥ स्त्रियोंके जो अकालमें रजस्राव होता है। उससे वे दूषित (अशुद्ध) नहीं है या वह रज इपित रज नहीं है । पचास वर्षसे ऊपरका काल भी अकाल कहा गया है ।। ७ ॥. ..... रजसो दर्शनात्स्त्रीणामशौचं दिवसत्रयम् । ...... .... ... ... ... . .... .:.;. कालजे चाद्धरात्राचेत्पूर्व तत्कस्यचिन्मतम् ॥ ८॥ रात्रावेव समुत्पन्ने मृते रजसि प्रतके। पूर्वमेव दिनं ग्राह्यं यावनोदेति वै रविः ॥ ९ ॥ रात्रेः कुर्यात्रिभागं तु द्वौ भागा पूर्ववासरे। ... ऋतौ मूते मृते चैव ज्ञेयोऽन्त्यांशः परेऽहनि ॥१०॥ रजोदर्शनके समयसे लेकर तीन दिन तक स्त्रियां अशुद्ध रहती हैं-वे चौथे दिन गृहकार्योंके योग्य होती है। आधी रातसे पहले यदि स्त्री रजस्वला हो, या कोई मर जाय, या प्रसूति हो तो उस रातको पहले दिनमें ही गिनना चाहिए। अथवा तीनों कार्य रात्रिमें किसी भी समय हो, जब तक सूर्य न उगे तबतक उस सारी रातको पहले दिनमें ही शुमार करना चाहिए। अथवा सत्रिके तीन भाग करे । उनमेंसे पहले के दो भागों में ये तीनों कार्य हों तो उन दोनों भागोंको प्रहले दिनमें और भन्तके तीसरे भागको आगेके दिनमें गिनना चाहिए। इस तरह इस विषयमें तीन मत हैं ॥१०॥ ऋतुकाले व्यतीते तु. यदि नारी. रजस्वला ।. ... ... ... तत्र स्नानन शुद्धिः स्यादृष्टादशदिनात्पुरा ॥ ११ ॥ ऋतुकालके बीत जानेपर अठारह दिनसे पहले यदि कोई स्त्री रजस्वला हो जाय तो. वह सिर्फ स्नान कर लेनेपर शुद्ध है; उसे पुनः तीन दिन तक आशौच पालमेकी आवश्यकता नहीं ॥ ११ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ · सोमसेनभट्टारकविरचित दूसरा मत । दिनाच्चेत् षोडशादर्वाङ्नारी या चातियौवना । पुना रजस्वलाऽपि स्याच्छुद्धिः स्नानेन केचन ॥ १२ ॥ जो कोई अत्यन्त यौवन स्त्री सोलह दिनोंसे पहले पुनः रजखला हो जाती है उसकी स्नान मात्र से शुद्धि होती है । भावार्थ- रजस्वला होकर सोलह दिन पहले यदि फिर रजस्वला हो जाय तो पुनः 'तीन दिन तक आशौच धारण करनेकी आवश्यता नहीं वह सिर्फ स्नान करलेनेसे ही शुद्ध मानी गई है, ऐसा दूसरा मत है ॥ १२ ॥ उसे रजस्वलायाः पुनरेव चेद्रजः प्राग्दृश्यतेऽष्टादशवासराच्छुचिः । अष्टादशाहे यदि चेदिनद्वयादेकोनविंशे त्रिदिनात्ततः परम् ॥ १३ ॥ यदि किसी रजस्वला स्त्रीके अठारह दिनसे पहले पुनः रजोदर्शन हो जाय तो वह शुद्ध है। परन्तु यदि वह अठारहवें दिन रजस्वला हो तो वह दो दिन से शुद्ध होती है-दो दिन बीत जानेपर स्नानकर पवित्र होती है | और यदि उन्नीसवें आदि दिनोंमें रजस्वला हो तो तीन दिन से शुद्ध होती है ॥ १३ ॥ रंजोयुताष्टादशवासरे पुनः प्रायेण या यौवनशालिनी वधूः । त्र्यहेण सा शुद्ध्यति दैवपित्र्ययो रजोनियुक्ताशुचिरार्तवे सति ॥ १४ ॥ जो भर-यौवन स्त्री अठारहवें दिन पुनः रजस्वला होती है वह यद्यपि दो दिन आशौच धारण कर शुद्ध हो जाती हैं, तो भी दैवकर्म और पित्र्यकर्मके योग्य वह तीसरे दिन होती है । क्योंकि रजस्राव होते हुए वह रजोयुक्त है; अतः अशुचि-अशुद्ध है ॥ १४ ॥ रजस्वला यदि स्नाता पुनरेव रजस्वला । अष्टादशदिनादवगशुचित्वं न निगद्यते ॥ १५ ॥ यदि कोई स्त्री चतुर्थ स्नानकर अठारह दिनसे पहले पुनः रजस्वला हो जाय तो वह अपवित्र नहीं कही जाती । यह तीसरा ही मत है ॥ १५ ॥ रजस्वलाका आचरण । काले ऋतुमती नारी कुशासने स्वपेत्सती । एकांतस्थानके स्वस्था जनस्पर्शनवर्जिता ॥ १६ ॥ मयुक्ताऽथवा देवधर्मवार्ताविवर्जिता । • मालतीमाधवीवल्लीकुन्दादिलतिकाकरा ।। १७ ।। रक्षेच्छीलं दिनत्रयं चैकभक्तं विगोरसम् । अञ्जनाभ्यङ्गस्त्रग्गन्धलेपनमण्डनो ज्झिता ।। १८ ।। देवं गुरुं नृपं स्वस्य रूपं च दर्पणेऽपि वा । न पश्येत्कुलदेवं च नैव भाषेत तैः समम् ॥ १९ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aurwwwwwwwwwwww www .maavw. त्रैवर्णिकाचार। वृक्षमूले स्वपेनैव खट्वाशय्यासने दिने । मन्त्रपञ्चनमस्कारं जिनस्मृति स्मरेद्हृदि ॥ २० ॥ अअलावश्नीयात्पर्णपात्रे ताने च पैत्तले । भुक्तं चेत्कांस्यजे पात्रे तत्तु शुद्ध्यति वह्निना ॥ २१ ॥. नियत समयमें ऋतुमती हुई स्त्री डाभके आसनपर सोवे, निर्जन एकान्त स्थानमें रहे, किसी स्त्री-पुरुष आदिको न छूवे, मौन-युक्त रहे, देव-धर्मसंबंधी चर्चा न करे; मालती, माधवी, कुंद आदिकी बेल हायमें रक्खे; शीलकी पूरी पूरी रक्षा करे, तीन दिनतक एक बार भोजन करे, गोरसदूध, दही, घी न खावे; आंखोंमें अंजन ( कज्जल)न आंजे, शरीरमें तैलकी मालिश और गंधलेपन न करे, पुष्पमाला न पहने, शृंगार न करे, देवको गुरुको और राजाको न देखे, दर्पणमें अपमा रूप न निरखे, कुल-देवताका दर्शन न करे; उनसे, भाषण भी न करे, वृक्षक नाचे म सोवे, पलंगपर म सोवे, दिनमें भी न सोवे, पंचनमस्कारमंत्रका हृदयमें स्मरण करती रहे ( मुखसे उच्चारण न करे), हथेलीमें या पत्तलमें या तांबे-पीतलकी थालीमें भोजन करे; कांसेकी थालीमें भोजन न करे, यदि कर ले तो वह थाली अमिपर तपानेसे शुद्ध होती है ॥ १६-२१ ॥ । रजस्वलाकी शुद्धि। . चतुर्थे दिवसे स्नायात्मातोसर्गतः पुरा।. .. पूर्वाहे घटिकाषद्कं गोसर्ग इति भाषितः॥ २२ ॥ .. चौथे दिन प्रातःकाल ही गोसर्गसे पहले स्नान करे । प्रातःकालके छह घड़ी कालको गोसर्मकाल कहते हैं अर्थात् सूर्योदयसे तीन घड़ी पहलेके और तीन घड़ी पीछेके कालको गोसर्ग-काल कहते हैं। यह समय गायोंको चरनेके लिए जंगलमें छोड़नेका है अतः इसे गोसर्ग-काल कहते शुद्धा भर्तुश्चतुर्थेऽहि भोजने रन्धनेऽपि वा। देवपूजागुरूपास्तिहोमसेवासु पञ्चमे ॥ २३ ॥ वह रजस्वला स्त्री चौथे दिन स्नान करलेनेपर भोजन-पान बनाने योग्य शुद्ध हो जाती है, पर देवपूजा, गुरुकी उपासना और होम-सेवाके योग्य पांचवें दिन होती है ॥ २३ ॥ उदक्ये यदि सलापं कुर्वाते उभयोस्तयोः। ... ' अतिमात्रमधं तस्मादय सम्भाषणादिकम् ॥ २४॥.. दो रजस्वला स्त्रियां यदि परस्परमें बातचीत करें तो भारी पाप लगता है। इसलिए रजस्वलाएं परस्पर बातचीत न करें ॥ २४ ॥ संलापे तु तयोः शुद्धिं कुर्यादेकोपवासतः। तद्वयात्सहसंवासे तत्रयात्पंक्तिभोजने ॥ २५॥ अगर दो रजस्वला स्त्रियां मिलकर परस्पर बातचीत करें तो उसका प्रायश्चित्त एक एक उपवास है-एक एक उपवास करनेसे वे उस पापसे उन्मुक्त होती हैं। यदि दोनों एक साथ में Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित। तो दो उपवाससे और एक पंक्तिमें बैठकर भोजन करें तो तीन उपवाससे शुद्ध होती हैं। यह प्रायश्चित्त सजाति रजस्वलाओंके विषयमें समझना चाहिए; क्योंकि विजातियोंके विषयमें आगे कहते है। दो सजाति स्त्रियोंके परस्पर स्पर्श करनेका प्रायश्चित्त इस प्रकार है पुप्फवदी पुप्फवदीए सजादिए जदि छिवंति अण्णोष्णं । दोण्हाणं पि विसोही पहाणं खवणं च गंधुदयं ॥ १ ॥ ' अर्थात् एक पुष्पवती दूसरी सजाति पुष्पवतीसे छू जाय तो दोनों की शुद्धि स्नान करना, उपवास करना और गंधोदक लेना है ॥ २५ ॥ ऋतुमत्योविजात्योस्तु संलापादि भवेद्यदि । तदाधिकायाः शुद्धिः मागुक्तादेकाधिकाद्भवेत् ॥ २६ ॥ . भिन्न भिन्न जाति (वर्ण) की रजस्वला स्त्रियां यदि परस्पर बातचीत करें, एक साथ बैठे-उठे, और एक पंक्तिमें भोजन करें तो ऊंची जातिवालीकी शुद्धि ऊपर कहे हुए प्रायश्चित्तसे एक अधिक उपवाससे होती है। भावार्थ-रजस्वला ब्राह्मणी रजस्वला क्षत्रियाणीसे या रजस्वला क्षत्रियाणी रजस्वला वैश्यासे या रजस्वला वैश्या रजस्वला शूद्रासे बातचीत करें तो ब्राह्मणी, क्षत्रियाणी और बनियानीकी शुद्धि दो उपवास करनेसे होती है । एक साथ रहने की शुद्धि तीन उपवाससे और पक्तिभोजन करनेकी शुद्धि चार उपवाससे होती है ॥ २६ ॥ अन्यस्यास्तु विशुद्धिः स्यात्पूर्वोक्तादानतोऽपि वा । यदि समं तयोर्गोत्रं तदा शुद्धिस्तु पूर्ववत् ॥ २७ ॥ परंतु हीन जातिकी स्त्रीकी विशुद्धि एक, दो, तीन उपवाससे और दान देनेसे होती है। और यदि दोनों रजस्वलाओंका गोत्र एक हो तो उनकी शुद्धि पूर्ववत्-एक, दो और तीन उपवास करनेसे होती है। भावार्थ-ऊंची जातिकी और नीची जातिकी रजस्वलाएं परस्परमें छू जाय तो ऊंची जातिकी स्त्रीके लिए उपरके श्लोक में प्रायश्चित्त बताया गया है। इस श्लोकके पूर्वार्धमें नीची जातिकी स्त्रीके लिए और उत्तरार्धमें समान गोत्रवालियोंके लिए प्रायश्चित्त बताया गया है। वर्णक्रमसे परस्पर छनेका प्रायश्चित्त इस प्रकार है बंभणखत्तियमहिला रयस्सलाओ छिवंति अण्णोण्णं । तो पढमढकिरिच्छं पादकिरिच्छं परा चरइ ॥२॥ रजस्वला ब्राह्मणी और रजस्वला क्षत्रियाणी यदि परस्पर छू जांय तो ब्राह्मणी दो उपवास करे भौर क्षत्राणी एक उपवास करे। बभणवणिमहिलाओ रयस्सलाओ छिवंति अण्णोण्णं । तो पादणं पढमा पादकिरिच्छं परा चरइ ॥ ३ ॥ रजस्वला ब्राह्मणी और रजस्वला वैश्या यदि परस्परमें छू जाय तो ब्राह्मणी तीन उपवास करे और वैश्या एक उपवास करे। १ पुष्पवती पुष्पवत्या सजात्या यदि स्पृशति अन्योन्यं । द्वयोरपि विशुद्धिः स्नानं क्षमणं च गन्धोदकं ।। २ ब्राह्मणक्षत्रियमहिले रजःस्वले स्पृशतः अन्योन्यं । तदा प्रथमा अर्धकृच्छ्रे पादकृच्छं परा चरति ॥ ब्राह्मणवाणिग्महिले रजस्वले स्पृशतः अन्योन्यं । तदा पादोनं प्रथमा पादकृच्छू परा चरति ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकांचार । बंभर्णसुद्दत्थीओ रयस्सलाओ छिवंति अण्णोष्णं । पढमा सव्वकिरिच्छं चरेश इदरा च दाणादि ॥ ३ ॥ रजस्वला ब्राह्मणी और रजस्वला शूद्राणी यदि परस्पर में छू जांय तो ब्राह्मणी चार उपवास करे और शूद्राणी दान आदि दे । खंसियवाणमहिलाओ रयस्सलाओ छिवंति अण्णोष्णं । तो पढमद्धकिरिच्छं पादकिरिच्छं परा चरइ || ४ || • रजस्वला क्षत्राणी और रजस्वला बनियाइन यदि परस्परमें छू जांय तो क्षत्राणी दो उपवास करे और बनियाइन एक उपवास करे । खत्तिय सुद्दित्थीओ रयस्सलाओ छिवांत अण्णोष्णं तो पाहूणं पढमा पाइकिरिच्छं परा चरइ ॥ ५ ॥ ३७१ रजस्वला क्षत्राणी और रजस्वला शूद्रा यदि परस्पर में छू जांय तो क्षत्रियाणी तीन उपवास करे और शूद्रा एक उपवास करे । वाणियसुद्दित्थी ओ रयस्सलाओ छिबंति अण्णोष्णं । तो खवणतिगं पढमा चरई परा खमणमेगं तु ॥ ६ ॥ रजस्वला वैश्या और रजस्वला शूद्रा यदि परस्परमें छू जांय तो वैश्या तीन उपवास करे और शूद्रा एक उपवास करे ॥ २७ ॥ सूतकं प्रेतकं वाऽघमन्त्यस्पर्शनमेव वा । मध्ये रजसि जातं चेत्स्नात्वा भुञ्जीत पुष्पिणी ॥ २८ ॥ रजस्वला होते हुए भी जननाशौच या मरणाशौच हो जाय अथवा चांडाल आदि नीच जातिका स्पर्श हो जाय तो वह रजस्वला स्नान करके भोजन करे ॥ २८ ॥ आर्तवं भुक्तिकाले चेदन्नं त्यक्त्वाऽऽस्यगं च तत् । स्नात्वा भुञ्जीत शङ्का चेत्परं स्नानेन शुद्ध्यति ॥ २९ ॥ मध्ये स्नानं तु कार्य चेतद्भवेदुद्धतैर्जलैः । नावगाहनमेतस्यास्तडागादौ जले तदा ॥ ३० ॥ भोजन करते समय यदि रजस्वला हो जाय तो मुखके ग्रासको उसी समय थूक दे और स्नान कर भोजन करे । रजस्वला होनेकी आशंका हो जाय तो भी स्नान करनेसे शुद्ध होती है । बीचमें ही स्नान करना हो तो कुआ, बावड़ी, तालाब आदि ने जल पृथक लेकर स्नान करे। उस समय यह रजस्वला तालाब वगैरह में स्नान न करे ।। २९-३० ॥ १ ब्राह्मणशूद्रस्त्रियौ रजः स्वले स्पृशतः अन्योन्यं । प्रथमा सर्वकृच्छ्रं चरति इतरा च दानादिकं ॥ २ क्षत्रियवणिग्म हिले रजः स्वले स्पृशतः अन्योन्यं । तर्हि प्रथमा अर्धकृच्छ्रं पादकृच्छ्रं परा चरति ।। ३ क्षत्रिय शूद्रस्त्रियौ रजः स्वले स्पृशतः अन्योन्यं । तदा पादोनं प्रथमा पादकृच्छ्रं परा चरति ॥ ४ वणिग्छूद्रस्त्रियौ रजः स्वले स्पृशतः अन्योन्यं । तदा क्षमणत्रिकं प्रथमा चरति परा क्षमणमेकं तु ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमभट्टारकविरचित । सूतके प्रेतकाशौचे पुष्पं चेत् सिञ्चयेज्जलम् शिरस्यमृतमन्त्रेण पूतं द्विजकरच्युतम् ॥ ३१ ॥ जननाशौच या मरणाशौचके होते हुए स्त्री ( प्रथम ) रजस्वला हो जाय तो उसके मस्तक पर पुरोहितजी के हाथसे जल सिंचन करावे ॥ ३१ ॥ ३७२ कुर्याद्दानं च पात्राय मध्यमाय यथोचितम् । कुर्यादेकत्र भुक्त्यादि पुष्पिणी तत्र तत्र च ॥ ३२ ॥ अनन्तर मध्यमपात्रोंको यथोचित दान दे और वह रजस्वला पूर्ववत् एक ही स्थान में भोजन आदि करे । भावार्थ-साधारण रजस्वलाके लिए जो विधि बताई गई है उसीके अनुसार यह प्रथम रजस्वला हुई स्त्री भी अपना वर्ताव करे ॥ ३२ ॥ अज्ञानाद्वत्र पुष्पे स्पृष्टं यद्यत्तया तदा । हस्तादर्वाक् स्थितं चापि तत्सर्वं दूषितं भवेत् ॥ ३३ ॥ जिस स्त्रीको रजस्वलापनका ज्ञान न हो ऐसी हालत में वह जिन जिन चीजोंका स्पर्श करे बे चीजें तथा उसके पास रक्खी हुई एक हाथ दूर तककी अन्य सब चीजें भी दूषित हो जाती हैं ॥ ३३ ॥ अज्ञानाज्ज्ञानतो वापि तत्पाणिदत्त भोजनम् । अन्यद्वा योऽत्ति नाश्नीयादसावेकद्विवासरम् ॥ ३४ ॥ अज्ञानवश किंवा मिथ्याज्ञान या जानबूझकर भी यदि कोई उस रजस्वलाके हाथका दिया हुआ भोजन अथवा और कोई चीज खा ले तो वह एक दिन या दो दिन भोजन न करे अर्थात् एक या दो उपवास करे ॥ ३४ ॥ यामादर्वाक्तदभ्यर्णे पल्यङ्कासनवस्त्रके । कुड्यादिसंयुते पंक्त्यासने स्नायात्सचेलकम् || ३५ ॥ रजस्वलाके समीप पलंग, दरी, वस्त्र वगैरह एक प्रहरसे भी कम समय तक रखे रह जांय तो वे सब अशुद्ध हो जाते हैं । तथा जिस दीवाल आदिसे चिपटकर रजस्वला बैटी हो उसी दिवालसे उसी लाइन में जो कोई टिककर बैठे तो वह अपने सब वस्त्र धोवे और स्नान करे || ३५ ॥ रजस्युपरते तस्य क्षालनं स्नानमेव च । रजः प्रवर्तते यावत्तावदाशौचमेव हि ।। ३६ ।। जब रज बंद हो जाय तब वह अपने पासकी सब चीजोंको घो डाले और स्नान कर ले; क्योंकि जबतक रजःप्रवाह शुरू रहता है तबतक अशौच- अपवित्रता बनी रहती है ॥ ३६ ॥ ऋतुमत्या कृता यत्र भुक्तिः सुप्तिः स्थितिश्विरम् । निषद्या च तदुद्देशं मृज्याद्विगों मयैर्जलैः ॥ ३७ ॥ ऋतुमती स्त्री तीन दिन तक जिस स्थान में सोवे, बैठे-उठे और भोजन करे उस स्थानको गोबर और पानी से दो वार लीपे । भावार्थ - ऊपर यह कह आये हैं कि रजस्वला स्त्री तीन दिन तक एक स्थान में सोन', बैठना, उठना, खाना, पीना आदि कार्य करे। वह जिस स्थान में तीन दिन तक ये कार्य करें उस स्थानको गोबर और पानीसे दो बार लीप डालना चाहिए ॥ ३७ ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. वर्णिकाचार । .. वया सह तद्धालस्तु यष्टः स्नानेनः शुद्ध्यति ।। तां स्पृशन् स्तनपायी वा मोक्षणेनैव शुद्ध्यति ॥ ३८॥ रजस्वला स्त्रीके साथ रहनेवाला उसका सोलह वर्ष तकका बालक स्नान करनेसे शुद्ध होता है परंतु स्तन-पान करनेवाला मंत्रित जलके छींटे डालनेसे ही शुद्ध हो जाता है ॥ ३८ ॥ .. .. . तद्भुक्तपात्रे भुजानोऽनमथाबादसंस्कृते । ... उपवासद्वयं कुर्यात्सचेलस्नानपूकम् ॥ ३९ ॥ रजस्वला स्त्री जिस वर्तनमें भोजन करे उस वर्तनको आंचमें अंगाये (पर्म किये) विना उसमें यदि कोई भोजन करले तो अपने वदनपरके सब कपड़े धोवे और स्नान तथा दो उपवास करे ॥३९॥ यदि स्पृशति तत्पात्रं तद्वस्त्रं तत्पदेशकम् । तदा स्नात्वा जपेदष्टशतकृत्वोऽपराजितम् ॥ ४० ॥ जो कोई भी रजस्वलाका पात्र, उसका वस्त्र तथा उसके रहने का स्थान छू ले तो वह उसी वक्त स्नान कर एक सौ आठ वार णमोकार मंत्र जपे ॥ ४० ॥ अनुक्तं यद्यदत्रेव तज्ज्ञेयं लोकवर्तनात् । मूतकं प्रेतकाशौचं मिश्रं वाथ निरूप्यते ॥ ४१॥ रजस्वलाके सम्बंध जो कुछ न कहा गया हो उसे लोकव्यवहारसे जान लेना । अब जननाशौच, मरणाशौच और मिश्र-अशौचका निरूपण करते हैं ॥ ४१॥ . . . . जातकं मृतकं चेति सूतकं द्विविध स्मृतम् ।.. सावः पातः प्रमूतिश्च त्रिविध जातकस्य च ॥४२॥ . सूतक दो तरहका होता है जातक और मृतक । जातकके तीन भेद हैं स्राव, पत और प्रसूति ॥ ४२ ॥ मासत्रये चतुर्थे च गर्भस्य स्राव उच्यते । पातः स्यात्पञ्चमे षष्ठे प्रमूतिः सप्तमादिषु ॥ ४३ ॥ गर्भाधानके अनन्तर यदि तीसरे और चौथे महीनेमें वह गर्भ स्त्रीके पेटसे च्युत होकर बाहर आजाय तो उसे स्राव कहते हैं, पांचवें और छठे मासमें यह कार्य हो तो उसे पांत कहते हैं, तथा सातवें आदि महीनोंमें हो तो प्रसूति कहते हैं ॥ ४३ ॥ गर्भस्रावका सतक। .. माससंख्यादिनं मातुः स्रावे सूतकमिष्यते । स्नानेनैव तु शुद्ध्यन्ति सपिंडाश्चैव वै पिता ॥४४॥.. नावमें जितने महीनेका स्राव हो उतने दिन तकका सतक माताके लिए कहा गया है । तथा अन्य सपिंड-गोत्रके बंधुओं तथा पिताके लिए कोई सूतक नहीं है, वे सिर्फ स्नान करें ॥ ४४ ॥ - गर्भपातका सूतक । पाते मातुर्यथामासं तावदेव दिनं भवेत् । सूतकं तु सपिण्डानां पितुश्चैकदिनं भवेत् ॥ ४५ ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनमारकविरचित । . पातमें भी जितने महीनेका पात हो उतने दिनों तकका सूतक माताके लिए है, तथा अन्य भाई-बंधुओं और पिताके लिए एक दिनका सतक है । गर्भपात सूतकके अनन्तर सब लोग लान करें ॥ ४५ ॥ प्रसूति-सूतक। प्रसूतौ चैव निर्दोष दशाह सूतकं भवेत् । - क्षत्रस्य द्वादशाहं सच्छूद्रस्य पक्षमात्रकम् ॥ ४६॥ निर्दोष प्रसूति-बालकोत्पत्तिका दश दिनका सतक है परंतु क्षत्रियोंको बारह दिनका और प्रधस्त शूद्रोंको पंद्रह दिनका है । इतना विशेष समझना कि राजाके लिए सूतक नहीं है ।। ४६ ॥ त्रिदिनं यत्र विप्राणां वैश्यानां स्याच्चतुर्दिनम् । क्षत्रियाणां पञ्चदिनं शूद्राणां च दिनाष्टकम् ।। ४७ ॥ ब्राह्मणों को जहां तीन दिनका सुतक हो वहां वैश्यों को चार दिनका, क्षत्रियों को पांच दिनका और शूद्रोंको आट दिनका है । भावार्थ----आगे जहां सूतक विधान कहा जायगा वहां वह सब दश दिनके क्रमानुसार कहा जायगा उसमें यह व्यवस्था लगा लेनी चाहिए ॥ ४७ __ मरणाशौच। नाभिच्छेदनतः पूर्व जीवन् यातो मृतो यदि । मातुः पूर्णमतोऽन्येषां पितुश्च त्रिदिनं समम् ।। ४८ ॥ जीता उत्पन्न हुआ बालक, नाभिनालके छेदनसे पहले ही मर जाय तो उसका सूतक माताके लिए पूर्ण दश दिनका है । तथा बालकके पिता, भाई और अन्य चौथी पीढ़ी तकके सपिंडोंके लिए तीन दिनका है ॥ ४८ ॥ मृतस्य प्रसवे चैव नाभिच्छेदनतः परम् । मातुः पितुश्च सर्वेषां जातीनां पूर्णस्तकम् ॥ ४९ ॥ __मरा हुआ ही बालक उत्पन्न हो या नाभिनालके छेदनेके पश्चात् मरणको प्राप्त हो तो उसके माता, पिता और सपिंड बांधवोंको पूरे दश दिनका सूतक है ॥ ४९ ॥ अनतीतदशाहस्य बालस्य मरणे सति । पित्रोदशाहमाशौचं तदपैति च मूतकात् ।। ५० ॥ दश दिन न होने पावे उसके पहले ही यदि बालक मर जाय तो सबको उन्हीं दश दिनोंतकका सतक है । भावार्थ-ऊपरके श्लोकमें नाभिनाल छेदनेके बाद मरणको प्राप्त हुए. बालकका सूतक सब बांधवोंके लिए दश दिनका कहा गया है, उसके भी बाद यदि बालक मरणको प्राप्त हो तो उसका सुतक और भी अधिक होगा इस संदेहको दूर करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि दश दिनोंसे पहले पहले कभी भी मरे हुए बालकका सूतक दशवें दिनतक ही रहता है, दशवें दिनसे ऊपर नहीं ॥ ५० ॥ दशाहस्यांत्यदिवसे मृतादूर्ध्व दिनद्वयम् । अघं ततः प्रभाते तु दिवसत्रितयं पुनः ॥ ५१ ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ३७५ इस श्लोकका भाव बराबर समझमें नहीं आया है । पर तौभी ऐसा मालूम पड़ता है कि दश दिन बालक मरे तो दो दिनका सूतक, और दशवें दिनकी रात बीतकर सूर्योदयके पहले पहले मरे तो तीन दिनका सूतक है । यह श्लोक ब्रह्मसूरि त्रिवर्णाचार में भी है। वहां इससे आगे एक श्लोक और है, जो दशवें दिन के बाद ग्यारवें आदि दिनोंमें मरे हुए बालकका सूतक माता-पिताके लिए दश दिनका करार देता है । अतः हमारी समझसे यह अर्थ उपयुक्त मालूम पड़ता है ॥ ५१ ॥ नाम्नः प्राक् प्रस्थिते बाले कर्तव्यं स्नानमेव च । तिलोदकं तदूर्ध्वं तु तत्पिण्डश्च व्रतात्परम् ॥ ५२ ॥ नामकरण से पहले बालक मरे तो स्नान करना चाहिए। नामकरण बाद मरे तो स्नान करें और तिलोदक देवें । तथा उपनयन संस्कारके बाद मरे तो स्नान करें, तिलोदक दें और पिंड दें ॥ ५२ ॥ संस्कारः स्यान्निखननं नाम्नः प्राक् बालकस्य तु । तदूर्ध्वमशनादर्वाग्भवेत्तदहनं च वा ।। ५३ ।। नामकरणसे पहले मरे हुए बालकका शरीर-संस्कार खनन अर्थात् जमीनमें गाड़ना है । नामकरण के बाद और अशनक्रियासे पहले मरे हुएका खनन अथवा दहन है । भावार्थ- नामकरणके पहले मरे तो जमीनमें गाढ़ें । तथा नामकरणके बाद और अशनक्रिया से पहले मरे तो उसे जमीन में गाड़ें या जलावें ॥ ५३ ॥ निखनने विधातव्ये संस्थितं बालकं तदा । भूषितं कृत्वा निक्षिपेत्काष्ठवदभुवि ।। ५४ । मरे हुए बालकको जमीन में गाड़ना हो तो उसे वस्त्र पहनाकर गढ़ा खोदकर उसमें लकड़ी की तरह लंबा सुला दें || ५४ ॥ दन्तादुपरि बालस्य दहनं संस्कृतिर्भवेत् । तयोरन्यतरं वाऽऽहुर्नामोपनयनान्तरे ।। ५५ ।। 1 दांत उग आने बाद बालक मरणको प्राप्त हो तो उसका दहन संस्कार करें। अथवा नामकरण और उपनयनसे पहले मरे हुए बालकका संस्कार खनन और दहन इन दोनों में से एक करें । यद्यपि विकल्पमें यह बात कही गई है तो भी इसका निर्वाह इस तरह करना चाहिए कि तीसरे वर्ष जो चूलाकर्म होता है उस चूलाकर्मसे पहले और नामकरणके बाद अर्थात् कुछ कम दो वर्ष तक तो जमीनमें ही गाड़ें, पश्चात् तीन वर्ष पूर्ण न हों तबतक जमीन में गाड़ें या जलावें- दोनोंमेंसे एक करें | तीन वर्षके बाद जमीनमें न गाड़ें किन्तु जलावें ॥ ५५ ॥ जातदन्तशिशोर्नाशे पित्रोर्भ्रातुर्दशाहकम् । प्रत्यासन्नसपिण्डानामेकरात्रमघं भवेत् ।। ५६ ।। -अप्रत्यासन्नबन्धूनां स्नानमेव तदोदितम् । आचतुर्थात्समासन्ना अनासन्नास्ततः परे ।। ५७ ॥ स्त्रपने भूषणे वाहे दहने चापि संस्थितम् । संस्पृशेयुः समासन्ना न त्वनासन्नबान्धवाः ।। ५८ ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित । दांत उगे हुए बालकके मरणका सूतक माता पिता और भाइयोंके लिए दश दिन तकका और प्रत्यासन्न ( निकटवर्ती ) बांधवों के लिए एक दिनका है। तथा जो बंधु अप्रत्यासन्न हैं-निकटवर्ती नहीं हैं वे सिर्फ स्नान करें। चार पीढ़ी तक के बंधुओं को प्रत्यासन्न बंधु कहते हैं। मृत बालकको स्नान कराते समय, वस्त्र पहनाते समय श्मशानको ले जाते समय और जलाते समय आसन्न बंधुही उसका स्पर्श करें, अप्रत्यासन्नबंधु स्पर्श न करें ॥ ५६-५८ ॥ ३७६ कृतचौलस्य बालस्य पितुर्भ्रातुश्च पूर्ववत् । आसन्नेतरबन्धूनां पञ्चाकाहमिष्यते ।। ५९ ।। चौल-संस्कार किये हुए बालकके मरणका सूतक माता, पिता और भाइयोंको दश दिन तकका आसन्न बंधुओं को पांच दिन तकका और अनास्न्न बंधुओं को एक दिनका है ॥ ५९ ॥ मरणे चोपनीतस्य पित्रादीनां तु पूर्ववत् । आसन्नबांधवानां च तथैवाशौचमिष्यते ॥ ६० ॥ पञ्चमानां तु षड्रात्रं षष्ठानां तु चतुर्दिनम् । सप्तमानां त्रिरात्रं स्यात्तदूर्ध्वं न (तु) प्लवं मतम् ॥ ६१ ॥ उपनयन संस्कार किये हुए बालकके मरणका सूतक माता, पिता और भाइयोंको दश दिनका है और चौथी पीढ़ी तक के आसन्न बांधवोंकोभी दश दिनका है, तथा पांचवीं पीढ़ीवालों को छह दिनका, छठीवालोंको चार दिनका और सातवीं वालोंको तीन दिनका है। तथा सातवीं पीढ़ी से ऊपर के गोत्रज बांधव सिर्फ स्नान करें ॥ ६०-६१ ॥ जननाशौच । जननेऽप्येवमेवायं मात्रादीनां तु मृतकम् । तदा नार्धं पितुर्भ्रातुर्नाभिकर्तनतः पुरा ॥ ६२ ॥ पिता दद्यात्तदा स्वर्णताम्बूलवसनादिकम् । अशुचिनस्तु नैव स्युर्जनास्तत्र परिग्रहे ॥ ६३ तदात्व एव दानस्यानुपपत्तिर्भवेद्यदि । तदहः सर्वमप्यत्र दानयोग्यमिति स्मृतम् ।। ६४ ।। जननाशौच में भी माता आदिको इसी तरहका सूतक है अर्थात् माता, पिता, भाई और आसन्न बंधुओंको दश दिनका, पांचवीं पीढ़ीवालोंो छह दिनका, सातवीं वालोंको तीन दिनका है; परंतु बालक उत्पन्न होनेपर नाभिकर्तनसे पहले पहले पिता और भाईको सूतक नहीं है इसलिए उस समय बालकका पिता और भाई सोना, तांबूल, वस्त्र आदिका दान देवें । उस दान के लेनेवाले भी अशुचि -सूतकी नहीं होते । यदि बालक उत्पन्न होनेके अनन्तर ही पिताके लिए सूतक मॉन लिया जाय या उस दानके लेनेवालोंको अशुचि मान लिया जाय तो दान देनेकी रिवाज ही नहीं बनेगी । इसलिए बालकोत्पत्तिका वह सारा ही दिन दान देने योग्य है । ६२-६४ ॥ तदा पुम्प्रसवे मातुर्दशाहमनिरीक्षणम् । अयं विंशतिरात्रं स्यादनधिकारलक्षणम् ।। ६५ ।। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। wriwwwwwwwmarawaiamarpawora स्त्रीसूतौ तु तथैव स्यादनिरीक्षणलक्षणम् । पश्चादनधिकाराचं स्यात्रिंशदिवसं भवेत् ॥६६॥ पुत्र-जन्ममें दश दिन तकका माताको अनिरीक्षण सूतक है अर्थात् दश दिनतक प्रतिका कोई मुखावलोकन न करें। तथा वीस दिनतकका उसे अनधिकार सूतक है अर्थात् प्रसूति दिनसे वीस दिनतक वह घरके कोई कार्य न करे । इसी तरह पुत्री-जन्ममें दश दिनका अनिरीक्षण सूतक और तीस दिनतकका अनधिकार सूतक है ॥ ६५-६६ ॥ .. तया सहैकवासादिसंसर्गे पितुरप्यघम् । अनिरीक्षणमसंसर्गे त्वस्पृश्याचं मनाग्भवेत् ॥ ६७ ।। ____ यदि बालकका पिता प्रसूतिके साथ एक स्थानमें रहना.आदि संसर्ग करे तो उसको भौ अनिरीक्षण सूतक है अर्थात् दश दिन तक उसका भी कोई मुख न देखें । यदि वह प्रसूतिके साथ तो रहे पर उसका स्पर्श वगैरह न करे तो उसे अस्पृश्य स्तक है अर्थात् दश दिन तक उसका कोई.स्पर्शन करे ॥ ६७ ॥ मृतकं मृतकेनैव सूतकं सूतकेन च । शावेन शुद्धयते सूतिः शावं सूत्या न शुद्धयति ॥ ६८ ॥ मृतक सूतककी मृतक सूतकसे, जातक सूत्रककी जातक सूतकसे और जातक सूतककी मृतक सूतकसे शुद्धि हो जाती है; परंतु मृतक सुतककी जातक सूतकसे शुद्धि नहीं होती। भावार्थ-एक मृतक सूतकके बाद दूसरा मृतक सतक और एक जातक सूतकके बाद दूसरा, जातक सूतक आ उपस्थित हो तो पहले सतककी समाप्ति के दिन ही दूसरा सूतक पूर्ण हो जाता है तथा मतक सतकके बाद प्रसूति सूतक हुआ हो तो मृतक सतककी पूर्णताके दिन जातक सूतक भी पूर्ण हो जाता है, परन्तु प्रसूति सूतकके बाद मृतक सूतक हुआ हो तो प्रसूति सूतककी पूर्णताके दिन मृतक सूतक पूर्ण नहीं होता ॥ ६८॥ अथ देशांतरलक्षणं-देशान्तरका लक्षण । -:, महानद्यन्तरे यत्र गिरिर्वा व्यवधायकः । वाचो यत्र विभिद्यन्ते तद्देशान्तरमुच्यते ॥ ६९ ॥ त्रिंशद्योजनदूरं वा प्रत्येकं देशभेदतः। .... प्रोक्तं मुनिभिराशौचं सपिण्डानामिदं भवेत् ॥ ७० ॥ जहांफर बोली बदलते हुए महानदी बीचमें पड़ती हो या बोली बदलते हुए ही पर्वत बीच में पड़ता हो वह देशान्तर है अथवा तीस योजनसे ऊपरके देशको भी देशान्तर कहते हैं। अगर कोई सपिंड (चौथी पीढीतकके) बांधव देशान्तरमें निवास करते हैं तो उनको यह सतक देश-भेदकी अपेक्षासे प्राप्त होता है। भावार्थ-चौथी पीढ़ीतकके सपिंड देशान्तरों में हो तो उन्हीं की देशभेदसे सूतक लगता है, पुत्रको नहीं ॥ ६९-७० ॥ पितरौं चेन्मृतौ स्यातां दूरस्थोऽपि हि पुत्रकः। श्रुत्वा तदिनमारभ्य पुत्राणां दशरात्रकम् ।।७१ ॥ 7 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविचित । LAAAAAAAAWAN माता और पिता मरणको प्राप्त हो गये हों और पुत्र देशान्तरमें रहता हो तो वह जिस दिन उनकी मृत्युका संवाद सुने उस दिनसे लेकर दश दिन तकका सूतक पाले ॥ ७१ ॥ . पल्या अपि तथाशौचं भवेदेव विनिश्चितम् । पन्याशौचं भवेद्भतुरित्येवं मुनिरब्रवीत् ॥ ७२ ॥ दूरस्था निधनं भर्तुर्दशाहाच्छूयते बहिः । भार्या कुर्यादघं पूर्ण पन्या अपि पतिस्तथा ॥ ७३ ॥ पत्नीको पतिके मरणका और पतिको पत्नीके मरणका सूतक भी दश दश दिनका है। तथा पत्नी दूर रहती हो वह अपने पतिका मरण दश दिन बाद सुने एवं पति दूर रहता हो वह अपनी पत्नीका मरण दश दिन बाद सुने तो दोनों, जिस दिन मृत्युका संवाद सुनें उस दिनसे लेकर दश दश दिन तकका सूतक पालें ॥ ७२-७३ ॥ मातापित्रोर्यथाशौचं दशाहं क्रियते सुतैः। ... अनेकेऽब्देऽपि दम्पत्योस्तथैव स्यात्परस्परम् ॥ ७४ ।। अनेक वर्षों बाद भी माता-पिताका मरण सुनने पर जैसे पुत्र दश दिनतकका सूतक पालता है वैसे ही पति-पत्नीको भी परस्परमें दश दश दिनका सूतक पालना चाहिए ॥ ७४ ॥ पितुर्दशाहमध्ये चेन्माता यदि मृता सदा । दहेन्मन्त्रामिना प्रेतं न कुर्यादुदकक्रियाम् ॥ ७५ ॥ पैतृकादूर्ध्वमेव स्यान्मात्राशौचं तु पक्षिणी। . विधायोदकधारादि कुयोन्मातुः क्रियां ततः॥ ७६ ।। पिताकी मृत्युके दश दिनों में ही यदि माताका मरण हो जाय तो उसके मृतक शरीरका तो मंत्रामिसे दहन करे परन्तु उसकी उदकक्रिया न करे । पिताके दश दिनोंके पश्चात् माताका पक्षिणी (डेढ़ दिनका) आशौच आता है उस समय उदकक्रिया आदि करके पश्चात् माताकी सब क्रियाएं करे ॥ ७५-७६ ॥ मातुर्दशाहमध्ये तु मृतः स्याद्यदि वै पिता । चितुर्मरणमारभ्य दशाहं शावकं भवेत् ॥ ७७ ॥ माताकी मृत्युके दश दिनोंमें ही यदि पिताका मरण हो जाय तो पिताकी मृत्युके दिनसे लेकर दश दिन तक उसके मरणका अशौच रहता है। भावार्थ-"मृतकं मृतकेनैव" इस श्लोकके अनु. सार जैसे पिताकी मृत्युके दश दिनोमें माताका मरण हो जानेपर माताका मरणाशीच पिताके दश. दिनों में ही समाप्त हो जाता है वैसे ही उसी श्लोकके अनुसार माताकी मृत्युके दश दिनोंमें पिताका मरण हो जानेपर पिताका मरणाशौच भी माताके दश दिनोंमें ही समाप्त हो जाना चाहिए । परंतु यहां यह नियम नहीं है। "मातुर्दशाहमध्ये” इत्यादि श्लोक " मृतकं मृतके नैव " इत्यादि श्लोकके विषयको बाधा पहुंचाता है। इसका कारण यह "कि समत्वे गुरुणा लघु बाध्यते लघुना गुरु न बाध्यते" अर्थात् समान सूतक में गुरु सूतकद्वारा लघुमूतक बाधित हो जाता है परंतु लघद्वारा गुरुबाधित नहीं Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmmmmmmm वैवर्णिकाचार। होता । अतएव पिताका पूर्ववर्ती आशौच तो माताके पश्चात् होनेवाले भशौचको बाधित कर देता है परंतु माताका पूर्ववर्ती आशौच पिताके पश्चात् होनेवाले आशौचको बाधित नहीं करता । यही कारण है कि पिताकै भाशौचकी समाप्तिके दिन माताका आशौच समास होजाता है परंतु माता भाखौचके दिन बाद होनेवाग भी पिताका अशौच उस दिन. समाप्त नहीं होता ॥७७॥ एकमेव पितुश्वायं कुर्यादेशे दशाहनि । । ततो वै मातृकं श्राद्धं कुर्यादाधादि षोडश ॥ ७८॥ ___ऐसे समयमें पिताकी मृत्युके दशवें दिन प्रथम पिताका एक श्राद्ध करे। उसके बाद माता के प्रथम श्राद्धसे लेकर सोलह श्राद्ध करे । अनंतर पिताके सब श्राद्ध करे ॥ ७८ ॥ एकस्मिन्नेव काले चेन्मरणं श्रूयते तयोः। दूरगोऽप्याचरेत्पुत्रो ह्याशौचमुभयोः समम् ॥ ७९ ॥ ___ यदि पुत्र, माता और पिता दोनोंका मरण एक ही दिन सुने तो दूर देश रहते हुए भी वह दोनोंका बराबर अशौच पालन करे ॥७९॥ दूरदेशं गते वार्ता दूरतः श्रूयते न चेत् । यदि पूर्ववयस्कस्य यावत्स्यादष्टविंशतिः ॥ ८॥ तथा मध्यवयस्कस्य ह्यब्दाः पञ्चदशैव तत् ।। तथाऽपूर्ववयस्कस्य स्याद् द्वादशवत्सरम् ॥ ८१ ॥ अत ऊर्ध्व प्रेतकर्म कार्य तस्य विधानतः। श्रादं कृत्वा षडब्दं तु प्रायश्चित्तं स्वशक्तितः ॥ ८२॥ प्रेतकार्ये कृते तस्य यदि चेत्पुनरागतः। घृतकुम्भेन संस्नाप्य सर्वोषधिभिरप्यथ ॥ ८३॥ संस्कारान् सकलान् कृत्वा मौजीबन्धनमाचरेत् । पूर्वपल्या सहैवास्य विवाहः कार्य एव हि ॥ ८४ ॥ अपने कुटुंबका कोई व्यक्ति देशान्तरको चला जाय और उसका कोई समाचार न आवे तो ऐसी दशामें वह पूर्व वय ( तरुण अवस्थाकी पूर्व अवस्था )का हो तो अहाईस वर्ष तक, मध्यम क्यका हो तो पंद्रह वर्षतक और अपूर्व वय (मध्यम वयके बादकी अवस्था) का हो तो बारह वर्षतक उसके आनेकी राह देखी जाय । अनन्तर विधि-पूर्वक उसकी प्रेतक्रिया करनी चाहिए । उसका श्राद्ध कर छह वर्षतकका अपनी शक्तिके अनुसार प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए और यदि प्रेत कार्य करनेपर वह आजाय तो उसका सर्वौषधि रससे और घृतसे अभिषेक करें, उसके सब जातकर्म संस्कार करें, नवीन यज्ञोपवीत संस्कार करें और यदि उसका पहले विवाह हुआ हो और वह पूर्व पत्नी जीती हो तो उसीके साथ पुनः विवाह-कार्य किया जाय ।। ८०-८४ ।। शुद्धिके दिन रोगीकी स्नानविधि । आतुरे तु समुत्पन्ने दशवारमनातुरः। स्नात्वा स्नात्वा स्पृशेदेनमातुरः शुद्धिमाप्नुयात् ॥ ८५ ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. wwwanmun सोमसेनभट्टारकवि चित। ४५.yorittner घरका कोई मनुष्य बीमार हो या वह और किसी रोगसे ग्रसित हो अतः सूतक शुद्धि के दिन वह , स्लान न कर सकता हो तो दूसरा नोरोग मनुष्य स्नान कर उसका स्पर्श करे फिर स्नान कर स्पर्श करे, एवं दशवार मान कर करके उसका. स्पर्श करे ऐसा करनेसे यह रोगी मनुष्य शुद्ध हो जाता है || ८५|| .. ज्वर-प्रसित रजस्वलाकी शुद्धि। ज्वराभिभूता वा नारी रजसा चेत्परिटता। कथं तस्या भवेच्छौचं शुद्धिः स्यात्केन कर्मणा ॥ ८६ ॥....... ... चतुर्थेऽहनि सम्पाते स्पृशेदन्या तु तां स्त्रियम्। स्नात्वा चैव पुनस्तां वै स्पृशेत् स्नात्वा पुनः पुनः ॥ ८७ ॥ दशद्वादशकृत्वा वा ह्याचमेच्च पुनः पुनः। अन्त्ये च वाससां त्यागं स्माता शुद्धा भवेत्तु सा ॥८८॥ कोई ज्वरसे पीड़ित स्त्री रजस्वला हो जाय तो उसकी शुद्धि कैसे हो ? कैसी क्रिया करनेसे वह शुद्ध हो सकती है ? यह एक भारी कठिन समस्या है अतः इसका उपाय यह है कि चौथे दिन दूसरी स्त्री स्नानकर उस रजस्वलाका स्पर्श करे, फिर स्नान कर स्पर्श करे, फिर स्नान कर स्पर्श करे, इस तरह दश-बारह बार स्नान कर स्पर्श करे, और प्रत्येक स्नानमें आचमन करे । अन्त में वह स्पर्श करनेवाली मी अपने कपड़े भी उतार दे और उस रजस्वलाके कपड़े भी उतार दे और स्नान करले । ऐसा करनेसे ज्वर-पीड़ित रजस्वला शुद्ध होजाती है ॥ ८६-८८ ॥ रजस्वला-मरण। पंचभिः स्नापयित्वा तु गव्यैः प्रेता रजस्वला । वस्त्रान्तरकृतां कृत्वा तां दहेद्विधिपूर्वकम् ॥ ८९॥ रजस्वला स्त्री मर जाय तो उसे पंच गव्यसे स्नान कराकर और दूसरे वस्त्र पहनाकर विधिपूर्वक उसका दहन करे ॥ ८९ ॥ - . प्रसूति-मरण । .. . मंतिकायां मृतायां तु कथं कुर्वन्ति याज्ञिकाः। कुम्भे सलिलमादाय पंचगव्यं तथैव च ॥ ९ ॥ ......पुण्याहवाचनैमन्त्र सिक्त्वा शुद्धिं लभेत्तु सा । ... तेनापि स्नापयित्वा तु दाहं कुर्याद्यथाविधि ॥ ९१॥ प्रसूति स्त्री मर जाय तो याज्ञिक पुरुष कैसा करें ? इसकी विधि यह है कि एक कलशमें जल और पंच गव्य भरकर पुण्याहवाचन मंत्रोंद्वारा उसका अभिषेक करें । ऐसा करनेसे प्रसूति शुद्धिको प्राप्त होती है । अनन्तर विधिपूर्वक उसके शवका दाह करें ॥ ९०-९१ ॥ - अन्य-विधि । दशाहाभ्यन्तरे चैव म्रियते चेत्प्रसूतिका। कथं तस्मा भवेच्छुद्धिर्दाहकर्म कथं भवेत् ॥ ९२ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवार्णकाचार। शूर्पण स्नापयेद्गही दशवारं ततो जलैः। पञ्चपल्लवसंकल्पैः पञ्चगव्यैः कुशोदकैः ॥ ९३ ॥.... ....... कारयित्वा ततः स्नानमभिषिञ्चेत्कुशोदकैः । दाहयित्वा विधानेन मन्त्रवास्पैतृमेधिकम् ॥ ९४॥ प्रसूति स्त्री दश दिनके भीतर भीतर यदि मर जाय तो उसकी शुद्धि कैसे हो और कैसे उसकी दाह-क्रिया की जाय ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि गृहस्थ पुरुष उस मृत प्रसूताको सूप में जल भर भरकर दश स्नान करावे । अनन्तर शुद्ध (केवल) जलसे, पांच पत्तोंके जलसे, पंचगव्यसे और कुशोदकसे क्रमसे स्नान कराकर पुनः कुशोदकसे उसका अभिषेक करे । पश्चात् उसकी विधिपूर्वक दाहक्रिया करे ।। ९२-९४ ।। गर्भिणी-मरण । प्रवक्ष्यामि क्रमेणैव शौचं हि गृहमेधिनाम् । गर्भिण्यां तु मृतायां तु कथं कुर्वन्ति मानवाः ॥ ९५ ॥ गर्भिण्यां मरणे प्राप्ते षण्मासाभ्यन्तरे यदि। . . सहैव दहनं कुर्याद्गर्भच्छेदं न कारयेत् ॥ ९६ ॥ प्रेता स्मशानं नीत्वाथ भर्ता पुत्रः पितापि वा। छेदयेदृर्ष षण्मासाज्येष्ठभ्रातापि वोदरम् ॥ ९७ ॥ नाभेरधो वामभागे गभेच्छेदो विधीयते । ततः पुण्याहमन्त्रेण सेचयेद्वालकान्विताम् ॥ ९८ ॥ जीवन्तं बालक नीत्वा पोषणाय प्रदापयेत् । उदरं चात्रणं कृत्वा पृषदाज्येन पूरयेत् ॥ ९९ ॥ मृगस्मकुशगन्धोदैः पंचगव्यैः सुमन्त्रितैः ।। स्नापयित्वा पिधायान्यद्वस्त्रं तच्चाथ तां दहेत ॥ १० ॥ .. गृहस्थोंकी शुद्धि क्रमसे कहेंगे। गर्भिणी स्त्री मर जाय तो दाह-विधि कैसे की जाय ? प्रथम इसी प्रश्नका उत्तर देते हैं कि गर्भवती स्त्री गर्भके छह महीनोंके पहले पहले मर जाय तो उसका गर्भ-सहित ही दहन करें, गर्भच्छेद न करें। यदि गर्भ छह महीमोंसे ऊपरका हो तो उस मृत गर्भिणीको स्मशानमें ले जायें, वहां लेजाकर उसका पति या पत्र या पिता या बड़ा भाई इनमें से कोई उसके नाभिसे नीचे के बायें भागकी तरफके उदरको चीरकर बच्चे को बाहर निकालें। अनन्तर पुण्याहवाचन मंत्रद्वारा बालकसहित उसका अभिषेचन करें। यदि बालक जीता हो तो उसे पालन-पोषण के लिए दे देवें । उदरके छेदमें दही-घृत भरकर मूंद दें । अनन्तर मंत्रित किये हुए मृत्तिका, भस्म, दर्भ और चंदनमिश्रित जलसे और पंचगव्यसे स्नान कराकर दूसरे वस्त्र पहनाकर उसकी दाहक्रिया करें ।। ९५-१०० ॥ मृते पत्यौ दशाहे स्त्री सूयते च रजस्वला । भूत्वा शुद्धा यथाकालं स्नात्वा चाभरणं त्यजेत् ॥ १०१॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सोमसेनमट्टारकविरचित __ पति मरनेपर दश दिन यदि स्त्री प्रसूति हो जाय या रजस्वला हो जाय तो वह अपने नियत समयपर शुद्ध होकर और स्नानकर वस्त्राभरणोंका त्याग करे : यहांतक स्त्रियों के विषयमें विचार किया। आगे दुर्मरण आदिका विचार करते हैं ॥ २०१॥ .. दुर्मरण। विद्युत्तोयामिचाण्डालसर्पपाशद्विजादपि । वृक्षव्याघ्रपशुभ्यश्च मरणं पापंकमणाम् ॥ १०२ ॥ __ विजली, जल, अमि, चांडाल, सर्प, व्याध, पक्षी, वृक्ष, व्याघ्र, तथा अन्य पशु इत्यादिके द्वारा पापियोंका मरण होता है ॥ १०२ ॥ आत्मानं घातयेद्यस्तु विषशस्त्राग्निना यदि । स्वेच्छया मृत्युमाप्नोति स याति नरकं ध्रुवम् ॥ १०३ ॥ देशकालभयाद्वापि संस्कर्तुं नैव शक्यते । नृपाद्याज्ञां समादाय कर्तव्या प्रेतसत्क्रिया ॥ १०४॥ वर्षादूर्ध्वं भवेत्तस्य पायाश्चत्तं विधानतः। शान्तिकादिविधिं कृत्वा पोषधादिकसत्तपः॥ १०५॥ मृतस्यानिच्छया सद्यः कर्तव्या प्रेतसत्क्रिया । मायश्चित्तविधि कृत्वा नैव कुर्यान्मृतस्य तु ॥ १०६ ॥ शस्त्रादिना हते सप्तदिनादाक् मृतो यदि। भवेदुमेरणं प्राहुरित्येवं पूर्वसूरयः ॥ १०७॥ ___ जो विष, शस्त्र, अमि आदिके द्वारा आत्मघात कर स्वेच्छासे मरणको प्राप्त होता है वह सीधा नरकको जाता है। ऐसे मनुष्यका देश और कालके भयसे दाह-संस्कार नहीं कर सकते हो तो राजा आदिकी आज्ञा लेकर उसकी दाहक्रिया करना चाहिए । एक वर्ष बाद शांतिविधि करके उसका विधिपूर्वक उपवास आदि प्रायश्चित्त ग्रहण करे। यदि वह अपनी अनिच्छासे विषादि द्वारा मरणको प्राप्त हुआ हो तो उसका दाह-संस्कार तत्काल करे । उसके इस अनिच्छा मरणका प्राय श्चित्त नहीं भी ले । शस्त्र आदिका प्रहार होनेपर सात दिनके पहले यदि उसका मरण हो जाय तो वह दुर्मरण है, ऐसा पूर्वीचार्य कहते हैं ॥ १३०-१०७ ॥ ___ अथ पुत्रीप्रसंगः-कन्यामरणका आशौच । कन्यानां मरण चौलात्माग्बन्धोः स्नानमिष्यते । व्रतात्मागघमेकाहं विवाहात्माग्दिनत्रयम् ॥ १०८॥ ऊढानां मरणे पित्रोराशौचं पक्षिणी मतम् । ज्ञातीनां त्वाप्लवो भतुः पूर्ण पक्षस्य चोदितम् ॥ १०९॥ चौल-संस्कारसे पहले कन्याका मरण हो तो बंधुओंको सिर्फ स्नान कहा है-वे स्नानकर लेनेसे ही शुद्ध हो जाते है । व्रतबंधसे पहले मरण हो तो एक दिनका सूतक मनावें और विवाहसे , Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ३८३ पहले मरण हो तो तीन दिनका सूतक धारण करें । विवाहिताका पतिके घरपर मरण हो तो उसके माता-पिता पक्षिणी आशौच मनावें । बंधुवर्ग स्नान करें। तथा उसके पति पक्षवाले पूर्ण दश दिनका सूतक पालें ॥ १०८-१०९॥ पक्षिणीलक्षण-पक्षिणी आदिका लक्षण । द्विदिवा रात्रिरेका च पक्षिणीत्यभिधीयते। अहोरात्रमिति प्रोक्तं नैशिकीत्यभिधीयते ॥११० ॥ आसायमहरेव स्यात्सधस्तत्काल उच्यते । एवं विचार्य निर्णीतमाशौचे तु मनीषिभिः ॥ १११ ॥ दो दिन और एक रातको पक्षिणी कहते हैं। एक दिन और एक रातको नैशिकी-रात्रि कहते हैं । सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्ततकके कालको दिन कहते हैं और सद्य तत्कालको कहते हैं। इस तरह इस आशौच प्रकरणमें मनीषियों (बुद्धिमानों) ने कालका निर्णय किया है ॥११० १११॥ ममूतास्वथवा तासु मृतासु पितृसद्मनि । मात्रादीनां त्रिरात्रं स्यात्तत्पक्षस्यैकवासरम् ॥ ११२॥ पिताके घर पर प्रसूति हो या मरणको प्राप्त हो तो उसके मातापिता तीन रातका और उनके बंधुवर्ग एक दिनका आशौच पालें ॥ ११२ ॥ पुत्रीके लिए आशौच । पुत्रीगृहेऽथवान्यत्र अमृतौ पितरौ यदि । दशाहाभ्यन्तरे पुत्र्यास्त्रिरात्रं शावसूतकम् ॥ ११३ ।। पुत्रीके घरपर या अन्यत्र उसके माता-पिता मरणको प्राप्त हों तो दश दिनके भीतर भीतर जब कभी मालूम हो तभी उसके लिए तीन रातका मृतक सूतक है ॥ ११३ ॥ स्वसुर्गृहे मृतो भ्राता भ्रातुर्वाथ गृहे स्वसा । आशौचं त्रिदिनं तत्र पक्षिण्यौ वा परत्र तु ॥ ११४ ॥ बहनके घरपर भाई या भाई के घरपर बहन मरणको प्राप्त हो तो दोनोंके लिए तीन तीन दिनका सूतक है और यदि इनका कहीं अन्यत्र मरण हो तो दोनोंक लिए एक एक पक्षिणी (एक दिन, एक रात और एक दिन एवं डेढ़ दिनका) सूतक है ॥ ११४॥ - भगिनीसूतकं चैव भ्रातुश्चैवाथ सूतकम् । नैव स्याद्भातृपल्याश्च तथा च भगिनीपतेः ॥ ११५ ॥ भगिनीका सूतक प्रातपत्नीको और भाईका सूतक भगिनीपतीको नहीं है । भावार्थ-ननदका सूतक उसकी भाबीको और सालेका सूतक उसके बहनोईको नहीं लगता। किन्तु-॥११५॥ परस्परं श्रुते मृत्यौ स्वस्वभावोस्तदा तयोः।। पल्याः पत्युभवेत्स्नानं कुटुम्बिनामपि स्मृतम् ॥ ११६ ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित । भ्रातृपत्नी भाबी अपनी ननँदका और भगिनीपति- बहनोई अपने सालेका जिस समय मरण सुनें उस समय वे स्नान अवश्य करें तथा कुटुंबके लोग भी स्नान करें ॥ ११६ ॥ मातामहो मातुलथ म्रियते वाथ तत्त्रियः । दौहित्र भागिनेय पित्रो म्रियते स्वसा ॥। ११७ ।। स्वगृहे त्र्यहमाशौचं परत्र स्यात् पक्षिणी । श्रुतं वहिर्दशाहाच्चेत्स्नानेनैव च शुद्ध्यति ॥। ११८॥ ३८४ मातामह-माताका पिता, मातुल- माताका भाई, उनकी स्त्रियां, दोहिता-पुत्रीका लड़का, भागनेय-बहनका लड़का और माता-पिताकी बहिनें, ये सब अपने घरपर मरें तो तीन दिनका आशौच है और अपने घर अन्यत्र मरें तो पक्षिणी आशौच है। तथा दश दिन बाद इनका मरण सुनें तो स्नान मात्रसे शुद्धि है। भावार्थ- नाना और नानी, मामा और मामी, दोहिता और भानजा तथा मौसी और भुआका अपने घरपर मरनेका तीन दिन आशौच है और अन्यत्र मरनेका पक्षिणी आशौच है । तथा दशदिन से ऊपर मरण सुने तो स्नानमात्रसे शुद्धि है ॥ ११७-११८ ॥ व्याधितस्य कदर्यस्य ऋणग्रस्तस्य सर्वदा । क्रियाहीनस्य मूर्खस्य स्त्रीजितस्य विशेषतः ॥ ११९ ॥ व्यसनासक्तचित्तस्य पराधीनस्य नित्यशः । श्राद्धत्यागविहीनस्य षण्ढपापण्डपापिनाम् ॥ १२० ॥ पतितस्य च दुष्टस्य भस्मान्तं सूतकं भवेत् । यदि दग्धं शरीरं चेत्सुतकं तु दिनत्रयम् ॥ १२१ ॥ महारोगसे पीड़ित, कदर्य (कंजूस), कर्जदार, आचरणहीन, मूर्ख, स्त्रीके वशीभूत, व्यसनी, पराधीन, श्राद्धत्यागी, दान न देनेवाला, नपुंसक, पाषंडी, पापी, जातिच्युत और दुष्ट, इनके मरणका सूतक, भस्मान्त - जबतक शरीर दग्ध न हो तब तक है। यदि इनके शरीरका दग्ध स्वयं करे तो तीन दिनका सूतक है | भावार्थ- व्याधित, कदर्य, ऋणग्रस्त आदि ये शब्द साधारण हैं; अतः साधारण अवस्था में भी इनका प्रयोग देखा जाता है और विशेष विशेष अवस्थाओं में भी इन्हींका प्रयोग होता है । ऐसी दशा में जिन्हें आगम-वाक्यका श्रद्धान नहीं, जो सूतक जैसे विषयोंको मानना ही नहीं चाहते वे इन शब्दोंको मामूली से मामूली हालतोंपर घटित करने लग जाते हैं अतः बुद्धिमानोंका कर्तव्य है कि वे इन शब्दोंकी योजना खास खास स्थलोंमें करें ॥ ११९-१२१ ॥ व्रतिनां दीक्षितानां च याज्ञिकब्रह्मचारिणाम् । नैवाशौचं भवेत्तेषां पितुश्च मरणं विना ॥ १२२ ॥ व्रती, दीक्षित, याज्ञिक और ब्रह्मचारी, इनको पिता मरणको छोड़कर सूतक नहीं है ॥ १२२ ॥ श्रोत्रियाचार्यशिष्यषिशास्त्राध्यायाश्च वै गुरुः । मित्रं धर्मी सहाध्यायी मरणे स्नानमादिशेत् ॥ १२३ ॥ श्रोत्रिय, आचार्य, शिष्य, ऋषि, शास्त्र - पाठक, गुरु, मित्र, साधर्मी और सहाध्यायी ( साथ पढ़नेवाला) इनकी मृत्यु होनेपर स्नान करना चाहिए ॥ १२३ ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ३८५ समारब्धेषु वा यज्ञमहन्यासादिकर्मसु । बहुद्रव्यविनाशे तु सद्यः शौचं विधीयते ॥ १२४ ॥ यज्ञ, महान्यास जैसे बड़े बड़े धार्मिक प्रभावनाके कार्योंका समारंभ कर दिया हो और अपने प्रचुर द्रव्यका विनाश होता हो, ऐसी दशामें किसी कुटुंबीका मरण हो जाय तो सद्य-तत्काल शुद्धि कही गई है । भावार्थ-ऐसी दशामें स्नान मात्र कर लेनेपर शुद्ध है ॥ १२४ ॥ संन्यासविधिना धीमान् मृतश्चेद्धार्मिकस्तदा । ब्रह्मचारी गृहस्थश्च देहसंस्कार इष्यते ॥ १२५ ॥ कायमाने गृहाद्वाह्ये शवं प्रक्षाल्य नूतनैः । वसनैर्गन्धपुष्पाबैरलंकुर्याद्यथोचितम् ॥ १२६ ॥ अथ संस्कृतये तस्य लौकिकाग्निं यथाविधि । आदाय प्रयते देशे कुयोदौपासनानलम् ॥ १२७ ॥ ___ कोई बुद्धिमान् धर्मात्मा ब्रह्मचारी और गृहस्थ यदि सन्यास-विधिसे मरण को प्राप्त हो तो उसके देहका संस्कार इस तरह कहा गया है कि उसके मृतशरीरको घरसे बाहर लावें, वहां उसका जलसे प्रक्षालन करें और नवीन वस्त्रोंसे तथा गन्ध, पुष्प आदिसे यथोचित अलंकृत करें । अननर जहां उसके शरीरका संस्कार करना हो वहां संस्कारके लिए विधिपूर्वक लौकिक अमि (चूल्हेकी अग्नि ) को औपासन अग्नि बनावें ॥ १२५-१२७॥ विद्वद्विशिष्टपुरुषशवसंस्करणाय वै । एष औपासनोऽग्निः स्यादन्येषां लौकिको भवेत ॥ १२८ ॥ विशेष बुद्धिमान् पुरषोंके शवसंस्कारके लिए यह औपासन अमि काममें लेनी चाहिए, और सर्वसाधारणके लिए लौकिक अग्नि ॥ १२८॥ कन्याया विधवायाश्च सन्तापाग्निरिहेष्यते । अन्पासां वनितानां स्यादन्वग्निरिह कर्मणि ॥ १२९ ।। कन्या और विधवाके शरीर-संस्कारार्थ संतापानि कही गई है और अन्य स्त्रियों के लिए अन्वग्नि ॥ १२९॥ लौकिक अग्निका ग्रहण और उसका लक्षण । . द्विजातिव्यतिरिक्तानां सर्वेषां लौकिको भवेत् । गृहे पाकादिकार्यार्थ प्रयुक्तो लौकिकोऽनलः ॥ १३० ॥ द्विजन्मोंको (जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ हो उनको) छोड़कर अन्य सबके शव-संस्कार के लिए लौकिक अग्नि मानी गई है । घरमें भोजन बनानेके लिए जो चूल्हेकी अग्नि होती है उसे लौकिक अमि कहते हैं ॥ १३ ॥ - औपासन-अग्निका लक्षण । योग्यप्रदेशे संस्थाप्य द्रव्यस्तैः शास्त्रचोदितैः । हुत्वा संस्कृत्य बाह्याग्निरौपासन इति स्मृतः ॥ १३१ ।। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित AMAnnnnnnnnnnnrpm, योग्य स्थानमें लौकिक अमिको रखकर उसमें शास्त्रोंमें बताये हुए द्रव्योंका हवनकर संस्कार करना सो औपासन अमि है । भावाथ-कुंडमें अथवा मिट्टीके चौकोन चबूतरेपर लौकिक अमिको स्थापन करें, उसमें शास्त्रों में बताये हुए द्रव्योंका हवन करें। ऐसा करनेसे लौकिक अनि औपासन अग्नि हो जाती है ॥ १३१ ॥ संतापामि । दभैंर्दभैरिति पञ्चकृत्वः सन्तापयेत्ततः । काष्ठौधैर्बोधितो वन्हिः सन्तापाग्निरितीरितः ॥ १३२ ।। प्रथम अग्निको पांच वार दर्भ डाल डालकर संतापित करे, अनन्तर उसे लकड़ियोंमें लगाकर प्रज्वलित करे; इसीको संतापानि कहते हैं ॥ १३२ ॥ ' अन्वमि। चुल्यामग्निं समुज्वाल्य न्यस्य स्थाली तदृवर्तः। तत्र स्थितैः करीषायैर्बोधितोऽन्वग्निरिष्यते ॥ १३३ ॥ चूल्हेमें अग्नि जलाकर, उसे किसी पात्र में रखकर ऊपरसे कंडे आदि रखकर जलाना अन्वग्नि है। भावार्थ-चुल्हेकी अग्निको मिट्टीकी हांडि या अन्य किसी वर्तनमें रखकर उसके ऊपर कंडे जलाना सो अन्वमि है ॥ १३३ ॥ . तत्तच्छरीरसंस्कारे यस्तु योग्य इतीष्यते । अग्निं तमेव काष्ठाद्यैरुखायां प्रतिबोधयेत् ॥ १३४ ॥ जिन जिन शरीरोंके संस्कारमें जो जो अमि योग्य कही गई है उसी उसी अग्मिको हांडिमें काष्ठ आदिसे प्रज्वलित करे ॥ १३४ ।। वोढारश्चाथ चत्वारः कल्पनीयाः सजातयः । त एव योज्या भूषायां वाहे दाहे शवस्य हि ॥ १३५ ॥ मृतक शरीरको उठाकर ले जानेवाले चार सजाति पुरुष होना चाहिए। वे ही चारों उस मृतक-शरीरको स्नान करावे, आभूषण पहनावें, उठाकर ले जावें और चितामें रख कर जला ॥ १३५ ॥ शोभमाने विमाने च शाययित्वा शवं दृढम् । मुखाद्यङ्ग समाच्छाद्य वस्त्रैः स्रग्भिस्तदूर्ध्वतः ॥ १३६ ।। ....... ... तादमान तद्विमानं समाधृत्य शनैामाभिमस्तकः। वोढारस्ते नयेयुस्तं नयेदेक उखानलम् ॥ १३७ ॥ विमानस्य पुरोदेशे गच्छेयुज्ञातयस्ततः। शवानुगमनं कुयुः शेषाः सर्वे स्त्रियोऽपि च ॥ १३८ ॥ एक अच्छा विमान (ठठरी) बनाकर उसमें शवको मजबूतीके साथ सुलावें । उस के मुख आदि सब अंगको वस्त्रसे ढके । ऊपर पुष्पमालाएं लपेटें । चार जने उस विमानको धीरेसे उठाकर कंधेपर Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णिकाचार। रखकर ले जावें, शवका मस्तक ग्रामकी तरफ रक्खें। एक मनुष्य उखानल लेकर (हांडिमें भमि रखकर ) चले। कुटुंबीजन विमानके आगे चलें । अन्य सब लोग और स्त्रियां भी विमानके पीछे पीले गमन करें ॥ १३६ --१३८॥ विमानमवरोह्याथ मार्गस्यार्धे निवेश्य च । विवृत्य तन्मुखं स्वीयो मुहुस्तोयैस्तु सिञ्चयेत् ॥ १३९ ॥ प्रमादपरिहारार्थ परीक्ष्यैवं प्रयत्नतः। स्मशानाभिमुखं पश्चानीत्वा तत्रावरोह्य च ॥ १४० ॥ ततः संस्थितमुद्धृत्य चितायां पूर्वदिङ्मुखम् । उपवेश्योत्तरास्यं वा मुखरन्ध्रेषु सप्तसु ॥ १४१ ॥ सुवर्णेनोद्धृतं सर्पिदेधि च स्पर्शयेत्ततः। अक्षताँश्च तिलाँश्चापि मस्तके प्रक्षिपदनु ॥ १४२ ॥ भाधी दूर चले जानेपर विमानको कंधेपरसे उतारकर नीचे रक्खें। वहां उसका कोई आत्मीर पुरुष उसके मुखपरका वस्त्र हटाकर मुख में थोड़ासा पानी सींचे । अनन्तर सावधानीके साथ देख-भालकर. विमान उठावें । इस समय मृतकका सिर स्मशानकी ओर करें । वहां उसे लेजाकर नीचे उतारें, विमानमें स्थित उस शवको उठाकर चितामें बैठावें, पूर्व दिशाकी और या उसर दिशाकी ओर उसका मुख करें । दोनों आंखें, नासिकाके दोनों विवर और मुख एवं सात छेदोंमें सुवर्णकी सलाई उठाकर घृत और दहीका स्पर्श करावें । अनन्तर उसके मस्तकपर अक्षत और तिल क्षे॥१३९.१४२॥ एकवारं जलं सव्यधारया पातयेत्ततः । द्विवारमपसव्येन सनालकलशात् स्वकः ॥ १४३ ॥ ततोऽति सर्वबन्धूनां पर्ययास्तु त्रयो मताः। .. पूर्वान्त्यौ सव्यवृत्त्यैव मध्यमस्त्वपसव्यतः ॥ १४४ ॥ मुक्तकेशाः कनिष्ठा ये प्रलम्बितकरद्वयाः। पर्ययद्वितयं कुर्युस्तृतीयं वृद्धपूर्वकाः ॥ १४५ ॥ इसके बाद वही आत्मीय बंधु, नालदार कलश (भंगार-झारी)से एक बार बायें हाथसे जासींचे और दो बार दाहिने हाथसे साँचे। फिर उपस्थित सब बंधओंका तीन पर्यय (पार्टी) बनाया जाय । पहली पार्टी और तीसरी पार्टीके बंधु बायें हाथ से और दूसरी पार्टीवाले दाहिने हाथसे जलधारा दें। पहली पार्टी छोटे छोटे बालकोंकी बनावे, वे अपने सिरके बाल खुले रक्खें। दूसरी पार्टी मध्यम वयवालोंकी बनावे, ये अपने दोनों हाथ लंबे लटकाकर रक्खें तथा तीसरी पार्टी वृद्धपुरुषों की बनावे ॥ १४३-१४५ ॥ ततः प्रदक्षिणीकुर्याच्चितापावें परिस्तरम् । खादिरैरिन्धनैरन्यैरथवा हस्तविस्तृतम् ।। १४६ ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौमसेनभट्टारकविरचितबाद सब मिलकर उसके प्रदक्षिणा दें तथा वही चिताके पास खेर या अन्य लकडियोंका एक हाथ लंबा एक परिस्तर (स्थंडिल-चबूतरासा) बनावें ॥ १४६ ॥ उखावहिं समुद्दोप्य सकृदाज्यं प्रयोज्य च । पर्युक्ष्य निक्षिपेत्पश्चाच्छनैस्तत्र परिस्तरे ॥ १४७॥ ततः समन्तात्तस्योर्ध्व निदध्यात्काष्ठसञ्चयम् । सर्वतोऽग्निं समुज्वाल्य संप्लुष्यात्तत्कलेवरम् ॥ १४८ ॥ ___ अनन्तर उखामिको प्रज्वलित करे, उसमें एक वार घृतकी आहूति दे और चारों तरफ जल सिंचन करे । बाद उस अग्निको उठाकर परिस्तरपर क्षेपण करे, उसके ऊपर लकडियां रक्खे, अनन्तर चिताके चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर उस शवकों दग्ध करे ॥ १४७-१४८ ।। चिता रचने भादिक मंत्र । मंत्र-ॐ हीं हः काष्ठसञ्चयं करोमि स्वाहा । इस मंत्रको पढ़कर चिता बनावे । मंत्र-ॐ हीं हौं झौं असि आ उ सा काष्ठे शवं स्थापयामि स्वाहा । इति मंत्रेण पञ्चामृतरभिषिञ्च्य तत्पुत्रादयो वा त्रिःमदक्षिणां कृत्वा काष्ठे शवं स्थापयेयुः । इस मंत्रको पढ़कर शवका पांच अमृतोंसे अभिषेक करे । उसके पुत्रादि उसके तीन प्रदक्षिगा देकर उसे चितामें स्थापित करें। मंत्र-ॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं अग्निसन्धुक्षणं करोमि स्वाहा । अनेनाग्निं सन्धुक्ष्य सपिरादिना प्रसिञ्च्य प्रज्वाल्य जलाशयं गत्वा स्नानं कुर्यात् । इस मंत्रका उच्चारण कर अग्नि जलावें, घृत आदिकी आहुति दें, चितामें अमि लगावें । अनन्तर जलाशयपर जाकर स्नान करें । अथोदकान्तमायान्तु सर्वे ते ज्ञातिभिः सह । वोढारस्तत्र का च यान्तु कृत्वा प्रदक्षिणम् ॥ १४९ ॥ अनन्तर वे सब जातीय बांधवोंके साथ साथ जलाशयके समीप जावें । परन्तु उनमेंसे विमान उठानेवाले और संस्कारकर्ता उस चिताकी प्रदक्षिणा देकर जावें ॥ १४९ ॥ तिथिवारक्षयोगेषु दुष्टेषु मरणं यदि । मृतस्योत्थापनं चैव दीर्घकालादभूयदि ॥ १५० ॥ तदोषपरिहारार्थ कर्ता कृत्वा प्रदक्षिणम् । प्रांजलिः प्रार्थ्य गृहीयात्सायश्चित्तं विपश्चित्तः ॥ १५१ ॥ यथ शक्ति जिनज्या च महायन्त्रस्य पूजनम् । शान्तिहोमयुतो जाप्यो महामन्त्रस्य तस्य वै ॥ १५२ ॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ३८९ आहारस्य प्रदानं च धार्मिकाणां शतस्य वा । तदधस्याथवा पंचविंशतेः प्रविधीयते ॥ १५३ ॥ तीर्थस्थानानि वन्यानि नव वा सप्त पंच वा। दुष्टतिथ्यादिमरणे प्रायश्चित्तमिदं भवेत् ॥ १५४ ॥ दुष्ट तिथि, वार, नक्षत्र और योगमें यदि किसीका मरण हो जाय और मृतक पुरुषको मरणके बाद बहुत देरसे जलानेके लिए ले जाय तो उस दोषके परिहारके लिए कर्ता हाथ जोड़ प्रदक्षिणा देकर विद्वानोंसे प्रार्थना करे और प्रायश्चित्त ले । यथाशक्ति जिनभगवान की पूजा करे, महायंत्रकी पूजा करे, शान्तिविधान और होम करे, महामंत्र का जाप्य दे । सौ, पचास, किंवा पच्चीस धर्मास्माओंको आहार दान दे । नौ, सात या पांच तीर्थोकी वंदना करे । यह दुष्ट तिथि आदिमें मरनेका प्रायश्चित्त है ॥ १५०-१५४ ॥ अतिदुर्भिक्षशस्त्राग्निजलयात्रादिना मृते । प्रायश्चित्तं तु पुत्रादेस्तदानीमिदमिष्यते ॥ १५५ ॥ महायन्त्र समाराध्य शान्तिहोमो विधाय च । अष्टोत्तरसहस्रेण घटैरष्टशतेन वा ॥ १५६ ॥ जिनस्य स्नपनं कार्य पूजा च महती तदा । दश तीथानि वन्द्यानि नव वा सप्त पञ्च वा ॥ १५७ ॥ गोदानं क्षेत्रदानं च तीर्थस्य विदुषामपि । पञ्चानां मिथुनानां तु अन्नदानं सधर्मिणाम् ॥ १५८ ॥ अब्दादाग्विधायैवं पूजनीयो जिनोत्तमः। - एवं कृते तु बन्धूनां स दोष उपशाम्यति ॥ १५९ ॥ अत्यंत दुर्भिक्ष, शस्त्र, अग्नि, जलयात्रा आदिके संबंधसे मरण हो तो उस समय उस मृतकके पुत्र आदि के लिए यह प्रायश्चित्त है । महायंत्रकी आराधना करे, शान्तिपाठ पढ़े, होम करे, एक हजार आठ या एक सौ आठ कलशोंसे जिनदेवका अभिषेक करे, उनकी अष्ट द्रव्योंसे पूजा कर, दश, नौ सात किंवा पांच तीयोंकी वंदना करे । तीर्थोंको तथा विद्वानोंको गोदान दे, क्षेत्रदान दे और पांच सधी स्त्री-पुरुषके जोड़ेको आहार-दान दे । मरणसमयसे लेकर एक वर्षसे पहले पहले तक उक्त विधि करना चाहिए । ऐसा करनेपर बंधुओंके उक्त दोषको शान्ति होती विद्वद्विशिष्टपुरुषैः प्रायश्चित्तमिदं तदा । वक्तव्यं प्रकटं कृत्वा ग्राह्यं का यथावलम् ॥ १६० ॥ __ उस समय विद्वान पुरुष उक्त प्रायश्चित्त प्रकट कर कहें और कर्त्ता यथाशक्ति उस प्रायश्चित्तको ग्रहण करे ॥ १६० ॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० सोमसेनभट्टारकविरचित क्षौर-विधि। ततः कपालदहने जाते की च दाहकः।। शातयश्च यथायोग्यं विदध्युर्वपनं तदा ॥ १६१ ॥ मातुः पितुः पितृव्यस्य मातुलस्याग्रजस्य च । श्वशुराचार्ययोरेषां पत्नीनां च पितृष्वसुः ॥ १६२ ॥ मातृष्वसुभगिन्याश्च ज्येष्ठाया मरणे सति । दृष्टे तदानीं वपनं श्रुते प्रामासतो भवेत् ॥ १६३ ॥ मातरं पितरं ज्येष्ठमाचार्य श्वशुरं विना । न कार्य वपनं त्वन्यमृतौ गर्भवता तदा ॥ १६४ ॥ कपालका दहन हो जानेपर कर्ता, दाहक और अन्य बांधव यथायोग्य क्षौरकर्म-मुंडन करावें। माता, पिता, पितृव्य (चाचा) मामा, बड़ा भाई, श्वशुर, गृहस्थाचार्य, इन सबकी धर्म-पत्नियां, पिताकी बहिन-भुआ,माताकी बहिन-मौसी और अपनी बड़ी बहिन इनमें से कोई भी मरे तो क्षौरकर्म करावे । इनमेंसे किसीके मरणके समय वहीं हो तो उसी समय क्षौरकर्म करावे । अगर. 'विदेशमें हो तो मरण दिनसे लेकर एक माह पहले मरण सुने तो जब सुने तभी करावे । एक माहसे ऊपर मरण सुने तो माता, पिता, बड़ा भाई गृहस्थाचार्य और श्वशुर इन को छोड़कर अन्यका मरण होने. पर क्षौरकर्म न करावे ॥ १६१-१६४ ॥ ___ स्नान-विधि । ततोऽवगाह्य सलिले कटिदघ्ने सचेलकम् । निमज्योत्थाय वाराँस्त्रीन् स्नानं कुर्याद्यथाविधि ॥ १६५ ॥ जलानिर्गत्य तत्तीरे वस्त्रं निष्पीड्य तत्पुनः । धृत्वाऽऽचम्य ततः प्राणायाम कुर्यात्समन्त्रकम् ॥ १६६ ॥ अनन्तर कटिपर्यंत पानीमें तीन वार डुबकी लगाकर यथाविधि वस्त्रसहित स्नान करें । पश्चात् जलसे बाहर निकलकर उसकी तीरपर वस्त्रोंको निचोड़कर और अच्छी जगहपर रखकर आचमन करें और मंत्रपर्वक प्राणायाम करें ।। १६५-१६६ ॥ शिलास्थापन और ग्रामप्रवेश । ततो मृतस्य तस्यास्य रत्नत्रयसमाश्रयम् । देहं विनष्टं सन्न्याससमाधिमृतिसाधनम् ॥ १६७ ॥ उत्कृष्टपरलोकस्य संप्राप्तेरपि कारणम। मत्वेति धर्मवात्सल्याद्वन्धुवात्सल्यतोऽपि च ॥ १६८॥ तदेहप्रतिबिम्बार्थं मण्डपे तद्विनाऽपि वा । स्थापयेदेकमश्मानं तीरे पिण्डादिदत्तये ॥ १६९ ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार। ३९१ पिण्डं तिलोदकं चापि कर्ता दद्याच्छिलाग्रतः। सर्वेपि बन्धवो दधुः स्नातास्तत्र तिळोदकम् ॥ १७० ॥ . ततोऽपि स्नानमाचार्य निमज्जनसमन्वितम् ।। ततः कनिष्ठं कृत्वाऽग्रे सर्वे ग्रामं प्रयान्नु वै ॥ १७१ ॥ अनन्तर इस मृतक पुरुषका रत्नत्रयका आश्रय, सन्यासमरण और समाधिमरणका साधन तथा परमोत्कृष्ट परलोककी प्राप्तिका कारण शरीर नष्ट होगया ऐसा मान कर धर्मवात्सल्यसे और बंधुत्वके वात्सल्यसे भी उसके शरीरके प्रतिबिंबके लिए अर्थात् यह उसके शरीरकी स्मृतिका चिन्ह है ऐसा समझकर जलाशयकी तीरपर मंडपमें या विना ही मंडपके पिंडदानके लिए एक पत्थरकी स्थापना करे । उस शिलाके अग्रभागमें कर्ता पिंड और तिलोदक दे और अन्य सब बंधु भी स्नान कर तिलोदक देवें । अनन्तर सबके सब डुबकी लगाकर स्नान करें। पश्चात् एक छोटे बालकको आगे कर सब प्रामकी ओर प्रयाण करें ॥१६७-१७१॥ द्वितीय दिनसे लेकर दश दिनतकके कृत्य । परेघुरपि पूर्वाह्ने योषितो ज्ञातयोऽपि वा । गत्वा स्मशानं तत्रानौ विदध्युः क्षीरसेचनम् ॥ १७२ ।। तृतीये दिवसे कुर्यादग्निनिर्वापनं प्रगे। अस्थिसञ्चयनं तुर्ये पञ्चमे वदिनिर्मितिम् ॥ १७३ ॥ तत्र पुष्पांजलि षष्ठे सप्तमे बलिकर्म च । वृक्षस्य स्थापनं पश्चान्नवमे भस्मसंस्कृतिम् ।। १७४ ॥ दशमे तु गृहामत्रवासःशुद्धिं विधाय च । स्नात्वा च स्नापयित्वा च दाहक भोजयेद् गृहे ॥ १७५ ॥ एवं दशाहपयेन्तमेतत्कर्म विधीयते । पिण्डं तिलोदकं चापि कर्ता दद्यात्तदाऽन्वहम् ॥ १७६ ॥ दूसरे दिन सुबहके समय, स्त्रियां या मृतकके बंधुओंमेंसे कोई पुरुष स्मशानमें जाकर उस अनिमें दूध सींचें । तीसरे दिन सुबह अमि बुझावें । चौथे दिन अस्थिसंचय (नाखून आदि इकडे) करें। पांचवें दिन वहां एक वेदी (चबूतरा ) बनावें । छठे दिन उसपर पुष्पांजली क्षेपण करें। मातवें दिन बलि (सीझा हुआ धान्य) चढ़ावें । आठवें दिन वृक्षकी स्थापना करें । दशवें दिन घर, वर्तन, कपड़े आदिकी शुद्धि करें । अनन्तर स्वयं स्नान करके व औरोंको कराके दाहकोंको भपने घरपर भोजन करावें । इस तरह दश दिनतक यह विधान करें। संस्कारकर्ता उस समय प्रतिदिन पिंड और तिलोदक देवे ॥ १७२-१७६ ॥ पिण्डप्रदानतः पूर्वमन्ते च स्नानमिष्यते । पिण्डः कपित्थमात्रश्च स च शाल्यन्धसा कृतः॥ १७७ ।। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anamam ३९२ सोमसेनभट्टारकविरचिततत्पाकश्च बहिः कार्यस्तत्पात्रं च शिलापि च । कर्तुः संव्यानकं चापि बहिः स्थाप्यानि गोपिते ॥ १७८ ॥ पिंड देनेके पहले और पीछे स्नान करे । केंथकी बराबर, चावलोंका पिंड बनावे । चावलोंको घरसे बाहर पकावे, घरमें न पकावे । चांवल, पकानेका पात्र, पत्थर और अपने पहननेओढ़नेके दोनों वस्त्र, इन सबको वह पिंडदाता पहले ही घरसे बाहर किसी गुप्त स्थानमें रखदे, घरमेंसे न मंगवावे । भावार्थ--जिस समय पिंड बनानेके लिए पिंडदाता स्नान करे वह उसके पहले उक्त चीजोंको घरसे बाहर किसी गुप्तस्थानमें लेजाकर रखदे। अनन्तर स्नान कर उन चीजोंको वहांसे ले आवे किसीके हाथ न मंगवावे ।। १७७-१७८ ॥ प्रेतदीक्षा। कर्तुः प्रेतादिपर्यन्तं न देवादिगृहाश्रमः । नाधीत्यध्यापनादीनि न ताम्बूलं न चन्दनम् ॥ १७९ ॥ न खट्वाशयनं चापि न सदस्युपवेशनम् । न क्षौरं न द्विभुक्तिश्च न क्षीरघृतसेवनम् ॥ १८० ॥ न देशान्तरयानं च नोत्सत्रागारभोजनम् । न योषासेवनं चापि नाभ्यङ्गस्नानमेव च ॥ १८१॥ न मृष्टभक्ष्यसेवा च नाक्षादिक्रीडनं तथा । नोष्णीषधारणं चैषा मेतदीक्षा भवेदिह ॥ १८२ ॥ मृतकक्रिया करनेवाला मरणदिनसे लेकर शुद्धिदिनपर्यंत देवपूजा आदि गृहस्थके षट्कर्म न करे, अध्ययन-अध्यापन न करे, तांबूल (पान-बीड़ा) न चाबे, तिलक न करे, पलंगपर न सोव, सभा-गोष्टीमें न बैठे, क्षौरकर्म न करावे, दो वार भोजन न करे, (एकवार भोजन करे )। दूध घी न खावे, अन्य देश-ग्रामको न जावे, ज्योनारमें न जीमें (फूटपार्टी आदिमें शामिल न होवे), स्त्रीसेवन न करे, तैलकी मालिश कर स्नान न करे, मिष्टान्न भक्षण न करे, पांसे आदिसे न खेले, चौपड़ सतरंज आदिके खेल न खेले और शिरपर पगड़ो साफा व टोपी वगैरह न हगावे । यह सब प्रेतदीक्षा है ॥ १७९-१८२ ॥ यावन्न क्रियते शेषक्रिया तावदिदं व्रतम् । आचार्य कर्तुरेकस्य ज्ञातीनां त्वादशाहतः॥ १८३ ॥ जब तक बारहवें दिनकी शेषक्रिया न करले तब तक दाहकर्ता उक्त व्रतों का पालन करे । तथा अन्य कुटुंबी जन दशवें दिन तक इन व्रतोंको पालें ॥ १८३ ॥ कर्ताका निर्णय । कता पुत्रश्च पौत्रश्च प्रपौत्रः सहजोथवा । तत्सन्तानः सपिण्डानां सन्तानो वा भवेदिह ॥ १८४ ॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णिकाचार। सर्वेषामप्यभावे तु भर्ता भार्या परस्परम् । तत्राप्यन्यतराभावे भवेदेकः सजातिकः ॥ १८५ ॥ उपनीतिविहीनोऽपि भवेत्को कथञ्चन । स चाचार्योक्तमन्त्रान्ते स्वाहाकारं प्रयोजयेत् ॥ १८६ ॥ मृतकक्रियाका कर्ता सबसे पहले पुत्र है । पुत्रके अभाव में पोता, पोतेके अभावमें भाई, भाईके अभावमें उसके लड़के, उनके भी अभावमें सपिंडों ( जिनको दश दिन तकका सूतक लगता है ऐसे चौथी पीढ़ी तकके सगोत्री बांधवों) की संतान है । इन सभीका अभाव हो तो पति-पत्नी परस्पर एक दूसरेके संस्कारकर्ता हो सकते है। इनका भी अभाव हो अर्थात् पुरुषके पत्नी न हो और स्त्रीके पति न हो तो उनकी जातिका कोई एक पुरुष हो सकता है । जिसका उपनयन संस्कार नहीं हुआ हो वह भी कथंचित् कर्ता हो सकता है, परंतु सजाति होना चाहिए। वह जब आचार्य मंत्रोच्चारण करे उसके अंतमें सिर्फ 'स्वाहा' शब्दका प्रयोग करे-मंत्रोच्चारण न करे ॥ १८४ ८६ ॥ शेषक्रियाका लक्षण और उसके करनेका समय । प्रेतकाघस्य पाश्चात्यक्रिया शेषक्रिया भवेत् । तस्याप्यघस्य संशुद्धिर्दशमे दिवसे भवेत् ॥ १८७ ।। तदैव पिण्डपाषाणमुद्धृत्य सलिले क्षिपेत् । तवं द्वादशाहं तु भवेच्छेषक्रियाक्रमः॥ १८८ ।। मरणाशौचकी सबसे अंतिम क्रियाको शेषक्रिया कहते हैं। उस आशौचकी शुद्धि भी दशवै दिन होजाती है-दश दिनसे ऊपर मरणाशौच नहीं रहता । जलाशयके तीरपर पिंड देनेके लिए जो पाषाण ( शिला) स्थापित किया जाता है उसे उसी दिन (दशवें दिन ही) पानी में फेंक दे । अनन्तर बारहवें दिन शेष क्रियाक्रम करे ॥१८७-१८८॥ अस्थिसंचय। तदाऽस्थिसञ्चयश्चापि कुजवारे निषिध्यते । तथैव मन्दवारे च भागेवादित्ययोरपि ॥ १८९॥ अस्थीनि तानि स्थाप्यानि पर्वतादिशिलाबिले। प्रकृत्यवधिांतोामथवा पौरुषावटे ॥ १९० ॥ उस समय मृतककी अस्थियों ( हड्डियों) का संचय भी करना चाहिए। मंगलवार, शनिवार, शुक्रवार और रविवारको अस्थिसंचय न करे, किन्तु सोमवार, बुधवार और वृहस्पतिवारको करे । उन अस्थियोंको लाकर पर्वत आदिकी शिलाके नीचे या जमीनमें पुरुषप्रमाण पांच हाथ या साढे. तीन हाथ गहरा गढ़ा खोदकर उसमें रक्खे ॥ १८९-१९० ॥ ग्यारहवें दिनकी क्रिया। एकादशेऽह्नि दहनभूषावहनकारकान् । . इति षट्पुरुषान् स्नानभोजनैः परितर्पयेत् ॥ १९१ ॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकबिरचित ग्यारहवें दिन, एक दहन करनेवालेको, एक वस्त्राभूषण पहनानेवालेको और चार कंघेपर उठाकर ले जानेवालोंको एवं छह पुरुषोंको स्नान कराकर भोजनसे तृप्त करे ॥ १९९ ॥ बारहवें दिन का कर्तव्य । ३९४ द्वादशे दिवसे श्रीमज्जिन पूजापुरस्सरम् । मुनीनां बान्धवानां च श्राद्धं कुर्यात्समाहितः ।। १९२ ॥ श्रद्धयाऽन्नप्रदानं तु सद्भ्यः श्राद्धमितीष्यते । मासे मासे भवेच्छ्राद्धं तद्दिने वत्सरावधि ।। १९३ ॥ अत ऊर्ध्वं भवेदब्दश्राद्धं तु प्रतिवत्सरम् । आद्वादशाब्दमेवैतत्क्रियते प्रेतगोचरम् ॥ १९४ ॥ बारहवें दिन जिनभगवान् की पूजा करे, मुनियोंका और बांधवोंका श्राद्ध करे- उन्हें आहार दान दे । साध जनोंके लिए श्रद्धापूर्वक आहार दान देनेको श्राद्ध कहते हैं । यह श्राद्ध एक वर्षपर्यंत मृतक तिथिके रोज प्रति माह करे । इसे मासिक श्राद्ध कहते हैं । अनन्तर बारह वर्ष तक प्रतिवर्ष श्राद्ध करे ( इसे वार्षिक श्राद्ध कहते हैं ) ॥। १९२-१९४ ॥ मृतबिंबकी स्थापना | सुप्रसिद्धे मृते पुंसि सन्यासध्यानयोगतः । तद्विम्बं स्थापयेत् पुण्यमदेशे मण्डपादिके ।। १९५ ॥ सन्यास विधिसे या ध्यान समाधिसे कोई प्रसिद्ध पुरुष मरे तो पुण्य स्थान में मंडप वगैरहं बनवाकर उसमें उसके प्रतिबिंब ( चरणपादुका वगैरह ) की स्थापना करे ॥ १९५ ॥ वैधव्य - दीक्षा | मृते भर्तरि तज्जाया द्वादशाह्नि जलाशये । स्नात्वा वधूभ्यः पञ्चभ्यस्तत्र दद्यादुपायनम् ॥ १९६ ॥ भक्ष्यभोज्यफलैर्गन्धवस्त्रपुष्पपर्णैस्तथा । ताम्बूलैरवतंसैश्च तदा कल्प्यमुपायनम् ॥ १९७ ॥ विधवायास्ततो नार्या जिनदीक्षासमाश्रयः । श्रेयानुत स्विद्वैधव्यदीक्षा वा गृह्यते तदा ।। १९८ ।। पतिका परलोकवास हो जानेपर उसकी स्त्री बारहवें दिन जलाशयपर स्नानकर पांच स्त्रियों को उपायन-भेंट दे । उत्तम भोजन, फल, गंध, वस्त्र, पुष्प, नकद रुपया-पैसा, तांबूल अवतंस वगैरह देना उपायन है । इसके अनन्तर यदि वह विधवा स्त्री जिन - दीक्षा - आर्यिका या क्षुल्लिकाके व्रत ग्रहण करे तो सबसे उत्तम है, अथवा नहीं तो वैधव्य - दीक्षा ग्रहण करे ॥ १९६-१९८॥ वैधव्य अवस्थाके कर्तव्य | तत्र वैधव्यदीक्षायां देशव्रतपरिग्रहः । कण्ठसूत्रपरित्यागः कर्णभूषणवर्जनम् ॥ १९९ ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार | शेषभूषानिवृत्तिश्च वस्त्रखण्डान्तरीयकम् । उत्तरीयेण वस्त्रेण मस्तकाच्छादनं तथा ॥ २०० ॥ खट्वाशय्याञ्जनालेपहारिद्रप्लववर्जनम् । शोकाक्रन्दनिवृत्तिश्व विकथानां विवर्जनम् || २०१ ॥ प्रातः स्नानं तथा नित्यं जोषमाचमनं तथा । प्राणायाम स्तर्पणार्घप्रदानं च यथोचितम् ॥ २०२ ॥ त्रिसन्ध्यं देवतास्तोत्रं जपः शास्त्रश्रुतिः स्मृतिः । भावना चानुप्रेक्षाणां तथात्मप्रतिभावना ॥ २०३॥ पात्रदानं यथाशक्ति चैकभक्तमगृद्धितः । ताम्बूलवर्जनं चैव सर्वमेतद्विधीयते ॥ २०४ ॥ यदि वर्तते श्राद्धं तद्दिने तर्पण जपः पूर्वोक्तविधिना सर्व कार्य मन्त्रादिसंयुतम् ॥ २०५ ॥ ३९५ उस वैधव्यदीक्षा में वह स्त्री देशव्रत ग्रहण करे, गलेमें पहननेके मंगल-सूत्रका त्याग करे, कानोंमें कोई तरह के आभूषण न पहने, बाकीके और और गहने भी न पहने, शरीरपर प और ओढ़ने के दो वस्त्र रक्खे, पलंगपर न सोवे, आंखों में काजल न आंजे, हल्दी वगैरहका उबटनकर स्नान न करे, शोकपूर्ण रुदन न करे, विकथाओंका त्याग करे, निरंतर प्रातःकाल स्मान कैरे, आचमन, प्राणायाम, और तर्पण करे, अर्ध्य चढ़ावे, सुबह, दोपहर और शामको स्तोत्रोंका पाठ करे, जाप दे, शास्त्र सुने, उनका चितवन करे, बारह भावना भावे, आत्मभावना भावे, यथाशक्ति पात्रदान दे, लोलुपता-रहित एक वार भोजन करे, तांबूल-पान बीड़ा न चात्रे तथा जिस दिन श्राद्ध हो उस दिन पूर्वोक्तविधि के अनुसार मंत्रपूर्वक तर्पण करे और जाप दे ॥ १९९ - २०५॥ उपसंहार | इत्येवं कथितं चतुर्विधियुतं सागारिणां सूतकं पातः स्राव इतः प्रसुतिमरणे शौचाय मुक्त्यर्थिनाम् । श्राद्धपूर्वकमन्नदानकरणं श्राद्धं तथा निर्मलं कुर्वन्ति नरास्त एव गुणिनः श्रीसोमसेनैः स्तुताः ॥ २०६ ॥ एवं मुक्ति चाहनेवाले गृहस्थोंकी शुद्धि के निमित्त पात, स्राव, प्रसूति और मरण ऐसे चार 'प्रकारके सूतकका कथन किया, तथा प्रसंग पाकर साथ साथमें श्रद्धापूर्वक आहारदान देनारूप निर्मल श्राद्धका भी कथन किया । जो भव्य पुरुष इन चारों तरहके सूतकों का पालन करते हैं और श्राद्ध करते हैं वे बड़े सद्गुणी हैं और श्रीसोमसेन के द्वारा प्रशंसा किये जानेके पात्र हैं ॥ २०६ ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ सोमसेनभट्टारकविरचितधर्मः सूर्यसमो दयादिनकरो मिथ्यातमोनाशको नानाजन्मसमूहदुःखनिचयस्यापां निधेः शोपकः । सद्व्याब्जविकासकः कुगलिकध्वाक्षादिविध्वंसकः पायात्सर्वजनाँस्त्रिलोकमहितः श्रीवीतरागास्यगः ॥ २०७॥ धर्मरूपी सूर्य दयारूपी दिनको उत्पन्न करनेवाला है, मिथ्या-तमका विनाशक है, नाना जन्मोंमें उपार्जित पाप-समूहरूपी समुद्रका शोषण करनेवाला है, भव्य-कमलोंको प्रफुल्लित करने याला है, चारों गतिरूप कौओंका विध्वंस करनेवाला है-ऐसा तीन लोककर पूज्य और वीतराग सर्वज्ञके मुखकमलसे निकला हुआ धर्म-सूर्य सब प्राणियोंकी पापोंसे रक्षा करे ॥ २०७ ॥ देवेन्द्रवृन्दसुमुखैः परिसेव्यपादोमोक्षस्य सौख्यकथकः परमात्मरूपः । संसारवारिधितटोद्धतसौख्यभारो। दद्यात्स वो जिनपतिः शिवसौख्यधाम ॥ २०८ ॥ देव और उनके स्वामी जिनके पैर पूजते हैं, जो मोक्षके सुखका उपाय बताते हैं, स्वयं परमात्मरूप हैं और संसाररूपी समुद्र के किनारेपर अभंतसुखको लादेनेवाले हैं-ऐसे श्रीजिनदेव आपको मोक्षसुखका स्थान देवें ॥ २०८॥ . . धर्मप्रभावेण भवन्ति सम्पदो मोक्षस्य सौख्यानि भवन्ति धर्मतः। जीवन्ति धर्माद्रणमूर्ध्नि मानवास्तस्मात्सदा साधय धर्मसाधनम् ।। २०९॥ धर्मके प्रभावसे अनुपम संपत्तियां प्राप्त होती हैं, मोक्ष सुख मिलता है और रणाङ्गणमें मनुष्य जीवित रहते हैं । इसलिए हे भन्य-मनुष्यो ! सदा धर्म-साधन करो॥ २०९॥ विमलधर्मबलेन सुवस्तुकं सकलजीवहितं सुखदायकम् । परममोक्षपदं भवनाशनं भवति राज्यपदं सुरसेवितम् ॥ २१० ॥ धर्मके बलसे संपूर्णजीवोंका हित करनेवाली सुख-सामग्री प्राप्त होती है, देवसमूह कर सेवनीय राज्यपद प्राप्त होता है और 'संसारका नाश करनेवाला मोक्ष-पद मिलता है ॥ २१० ॥ धर्मः पाणिहितं करोति सततं धर्मो जनैगृह्यतां .. धर्मेण प्रभवन्ति राज्यविभवा धर्माय तस्मै नमः । धर्मान्नश्यति पापसन्ततिकुलं धर्मस्य सौख्यं फलं धर्मे देहि मनः प्रभौ दृषकरे भो धर्म मां रक्षय ॥ २११ ।। धर्म सब प्राणियोंका हित करता है, भव्यजन प्रति-दिन धर्म सेवन करें । धर्मसे राज्य विभूलि प्रकट होती है, उस धर्मके लिए नमस्कार है। धर्मसे पापोंको संतति नष्ट होती है, धर्मका मुख्य फल सुख है, पुण्य संपादन कराने में समर्थ धर्म में मन लगाओ। हे धर्म ! मेरी रक्षा कर ॥ २११॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रैवर्णिकाचार । ३९७ . संसारार्णवतारणाय सततं धर्मो जिनर्भाषितो धर्मो जीवसमूहरक्षणतया जायेत भव्यात्मनाम् । धर्माद्राज्यपदं परत्र लभते स्वर्गोऽपि धर्माद्भवे द्धर्म भो भन जीव मोक्षपददं जैनं सदा निर्मलम् ॥ २१२ ॥ हे जीव ! तू सदा मोक्षपदप्रदान करनेवाले निर्मल जैनधर्मको सेवन कर; क्योंकि जिन भगवान कर कहा हुआ धर्म संसार-समुद्रसे तारनेवाला है। जीवसमूहकी रक्षा करनेसे भव्य जीवोंको ही यह धर्म प्राप्त होता है ! धर्मसे इस भव में राज्यपद और परभव में स्वर्गमी प्राप्त होता है ।।२१२॥ ग्रन्थकारकी प्रशस्ति । श्रीमूलसङ्घ वरपुष्काराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः । तस्यात्र पट्टे मुनिसोमसेनो भट्टारकोऽभूद्विदुषां वरेण्यः॥ २१३ ॥ श्रीमूलसंघमें पुष्कर नामका गच्छ है । उसमें एक गुणभद्र नामके आचार्य हो गये हैं। उनके पट्टपर विद्वानोंमें श्रेष्ठ यह मुनि सोमसेन भट्टारक हुआ है ॥ २१३ ॥ धर्मार्थकामाय कृतं सुशास्त्रं श्रीसोमसेनेन शिवार्थिनापि । गृहस्थधर्मेषु सदा रता ये कुर्वन्तु तेऽभ्यासमहो सुभव्याः ॥ २१४ ॥ मोक्षप्राप्तिके अभिलाषी होते हुए भी मुझ सोमसेनने धर्म, अर्थ और काम-इन तीन पुरुषार्थोकी सिद्धि के निमित्त इस उत्तम शास्त्रकी रचना को है; इसलिए जो भव्य सदा गृहस्थ-धर्ममें अनुरक्त हैं वे इसका अभ्यास करें ॥ २१४ ॥ छन्दांसि जानामि न काव्यचातुरी शब्दार्थशास्त्राणि न नाटकादिकम् । तथापि शास्त्रं रचितं मया हि यद्धास्यं न कुयाद्विबुधोत्तमोऽत्र मे ॥ २१५॥ मैं न छंदशास्त्र जानता हूं, न मेरेमें काव्य करनेकी चतुरता है, व्याकरणशास्त्र, अर्थशास्त्र और नाटकशास्त्र भी मैं नहीं जानता, तो भी मैने इस शास्त्रकी रचना की है, इसलिए बुद्धिमान् मेरी हँसी न करें ॥ २१५ ।। यद्यस्ति शास्त्रे मम शब्दषणं भव्योत्तमाः शोधयतां ? सुबुद्धिकाः। कुर्वन्तु धर्माय कृता महीतले धात्रा सुबुद्ध्यात्र परोपकारिणः ॥ २१६॥ यदि मेरे इस शास्त्रमें व्याकरण संबंधी आदि दूषण हो तो उत्तम बुद्धि के धारक भव्योत्तम धर्मदृष्टिसे उसे शुद्ध करें। क्योंकि विधाता (कर्म) ने पृथिवी-तलपर परोपकारियों की रचना ही इसीलिए की है ( कि वे औरोंपर उपकार करें)। ॥ २१६ ॥ अब्दे तत्त्व (सर्तुचन्द्रकलिते श्रीविक्रमादित्यजे मासे कार्तिकनामनीह धवले पक्षे शरत्सम्भवे । वारे भास्वति सिद्धनामनि तथा योगे सुपूर्णातिथौ नक्षत्रेऽश्विनि नाम्नि धर्मरसिको ग्रन्थश्च पूर्णीकृतः ॥ २१७ ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमसेनभट्टारकविरचित विक्रम संवत् १६६७ के कार्तिक महीनेकी शुक्लपक्षकी पूर्णिमा तिथि, रविवार, सिद्ध योग और अश्विनी नक्षत्र में यह धर्मरसिक नामका त्रैवर्णिकाचार शास्त्र पूर्ण किया जाता है ॥ २१७ ॥ .. श्लोका येऽत्र पुरातना विलिखिता अस्माभिरन्वर्थतस्ते दीपा इव सत्सु काव्यरचनामुद्दीपयन्ते परम् । नानाशास्त्रमतान्तरं यदि नवं प्रायोऽकरिष्यं त्वहं क्वाशाऽमाऽस्य महो तदेति सुधियः केचित्पयोगंवदाः ॥ २१८ ॥ इस शास्त्रमें हमने प्रकरणानुसार ज्योंके त्यों प्राचीन प्रसिद्ध श्लोक लिखे है । वे श्लोक सजन पुरुषोंके समक्ष दीपकके समान स्वयं प्रकाशमान हैं, जो काव्य-रचनाको उत्कृष्टताके साथ उद्दपिन करते हैं। यद्यपि मैंने अनेक शास्त्र और मतोंसे सार लेकर इस नवीन शास्त्रकी रचना की है, उनके सामने इसका प्रकाश पड़ेगा यह आशा नहीं, तो भी कितने ही बुद्धिमान् नवीन नवीन प्रयोगोंको पसंद करते हैं अतः उनका चित्त इससे अवश्य अनुरंजित होगा ॥ २१८ ॥ श्लोकानां यत्र संख्याऽस्ति शतानि सप्तविंशतिः । तद्धर्मरसिकं शास्त्रं वक्तः श्रोतुः सुखमदम् ॥ २१९ ॥ जिसमें श्लोकोंकी संख्या दो हजार सात सौ २७०० है वह धर्मरसिक नामका शास्त्र वक्ता और श्रोताओंको सुख प्रदान करे ॥ २१९ ॥ १९७६ फाल्गुन-१९८० फाल्गुन । इति श्रीधर्मरसिकशास्त्रे त्रिवर्णाचारमरूपणे भट्टारकश्रीसोमसेनविरचिते सूतकशुद्धिकथनीयो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥ S समाप्तोऽयं त्रैवर्णिकाचारः। । Page #440 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