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________________ त्रैमाणिकाचार। १०५ शरीर दग्ध किया गया था उन आग्निकी स्थापना इन कुंडोंकी अग्निमें करके उसे पवित्र और पूज्य मानते हैं, न कि सारे संसारकी सभी तरहकी आमको । जिस तरह कि सारे ही संसारके पत्थर पूज्य नहीं हैं और न सभी तरहका जल पूज्य है, परंतु जिस जड़ पत्थर या स्थापनाके पुष्पोंमें परमात्माकी कल्पना कर ली जाती है वही पत्थर या पुष्प पूज्य हैं । अथवा जिस गन्धोदकको जैनी लोग 'निर्मलं निर्मलीकरं? इत्यादि श्लोक पढ़कर मस्तकपर चढ़ाते हैं उसे पूज्य और पवित्र मानते हैं, न कि सारे संसारके पत्थरों, पुष्पों और जलोंको । जब कि हम परमात्माकी कल्पना किये हुए पत्थरों और पुष्पोंको पवित्र और पूज्य मानते हैं और उस पत्थरकी मूर्तिके स्नानोदकको बड़े चावसे मस्तकपर चढ़ाते हैं तब हम नहीं कह सकते कि जिस अग्निमें तीर्थंकर आदिका शरीर दग्ध हुआ था उस अग्मिकी इस अग्निमें स्थापना कर पूजने और पवित्र माननेमें क्या दोष है । अथवा यों समझना चाहिए कि यह सब पूजाविधान अनेक तरहसे किया जाता है । वह सब अर्हत देवका ही पूजन है ॥ ११४ ॥ ११६ ॥ . चतुष्कोणे चतुस्तम्भाः सल्लकीकदलीयुताः। घण्टातोरणमालाढ्या मुक्तादामविभूषिताः ॥ ११७ ॥ चन्द्रोपकयवारैश्च चामरैर्दर्पणैस्तथा । . धूपघटैः करतालैः केतुभिः कलशैर्युताः ॥ ११८ ॥ वेदीके चारों कोनोंपर सल्लकीके पत्ते और केलेके स्तभोंसे युक्त चार स्तंभ खड़े करे । उनको घंटा, तोरण, पुष्पमाला, मोतियोंकी माला आदिसे सजावे । उनके ऊपर चन्दोवा ताने, यवार, तिल, जीरा, गेहूँ आदि मंगल धान्य रक्खे । चँवर, दर्पण, धूपघट, झाँझ, धुजा, कलश ये मांगलिक वस्तु वहाँ पर धरे ॥ ११७ ॥ ११८॥ एवं होमगृहं गत्वा पश्चिमाभिमुखं तदा । उपविश्य क्रियाः कार्या नमस्कारपुरस्सराः ॥ ११९॥ उपर्युक्त रीतिसे तैयार किये गये होमगृहमें जाकर पश्चिमकी तरफ मुख करके बैठे और नमस्कार पूर्वक पूजा करना प्रारंभ करे ॥ ११९॥ तत्रादौ वायुमेघाग्निवास्तुनागाँस्तु पूजयेत् । क्षेत्रपालं गुरुं पितॄन् शेषान्देवान्यथाविधि ॥१२० ॥ जिनेन्द्रसिद्धसूरीश्च पाठकान् साधुसंयुतान् । श्रुतं सम्पूज्य युक्तचाऽत्र पुण्याहवचनं पठेत् ॥ १२१॥ १. इस स्थानमें जिनदेवका मुख जिस दिशामें हो उसे पूर्व दिशा समझें । और देवके सामने अपना मुख . रहता है इस लिए उसे पश्चिम दिशा समझें । पूजाविधिमें सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिए।
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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