________________
सोमसेनमहात
छत्राकार, चक्राकार, अर्धचन्द्राकर, विकार, समस्तम्भाकार तक सिंहसनाकार ये छह तिलक लगानेके भेद हैं। ६४॥
छत्रत्रयमिति स्कृत्वा आतपत्रमुदाहृतम् ।। धर्मचक्रमिति स्मृत्वा चक्राकारं च कारयेत् ।। ६५ ।। पाण्डशिलेति संस्मृत्य अर्धचन्द्र विनिर्मितम् । रत्नत्रयमिति शात्वा त्रिदण्डं तिलकं स्थितम् ॥ ६६ ॥ मानस्तम्भाकृति कार्य मानस्तम्माभिधानकम् । सिंहासनं जिनेन्द्रस्व संस्मृत्य सिंहविष्टरम् ॥ ६७ ॥
छत्र-त्रय ऐसा मानकर छत्राकार, धर्मचक्र ऐसा समझकर चक्राकार, पाण्डुकशिला ऐसा मानकर अर्धचन्द्राकार, रत्नत्रय ऐसा समझकर त्रिशूलाकार, मानस्तम्म ऐसा मानकर मानस्तम्भाकार और जिन भगवानके सिंहासनका स्मरण कर सिंहासनाकार तिलक लगावे ॥६५॥६७॥
तिलक करनेके स्थान।
आतपत्रार्धचन्द्रे वा यदा भाले धृते तदा ।
वक्षसि भुजयोः कण्ठे त्रिशूलाकृतिमादिशेत् ॥ ६८ ॥ जब ललाट पर छत्राकार अथवा अर्थचंद्राकार तिलकलगावे तब छाती पर, दोनों भुजाओं पर और कण्ठमें त्रिशलाकार तिलक करे ॥ ६८॥
भाले स्तम्मै लथा पीठं भुजादौ स्वस्तिकं तदा। त्रिदण्डमथवा चक्रं तदाकृति तथा भवेत् ॥ ६९॥
जब ललाट पर स्तम्भाकार अथवा सिंहासनाकार तिलक लगावे तब भुजा छाती, कंठ इन स्थानोंमें स्वस्तिकाकार त्रिशूलाकार, और चक्राकार तिलक लगावे ॥ ६९ ॥
सर्वाङ्गलेपनं प्रोक्तं सर्वेषु तिलकेषु वा ।
तदुपरि त्रिशूलाद्यानाकारान्परिचिन्तयेत् ॥ ७० ॥ सभी तरहके तिलकोंमेंसे कोईसा तिलक करना झे तो सम्पूर्ण शरीरभुजा आदि स्थानों में गन्ध-लेपन करे । बथा उस लपेनके ऊपर त्रिमूलकासदि तिलक करे ॥ ७० ॥