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सोमसेनभट्टारकविरचित
गुरु आदिके देने योग्य आशीर्वाद । श्रावकानां मुनीन्द्रा ये धर्मवृद्धि ददत्यहो । अन्येषां प्राकृतानां च धमेलाभमतः परम् ।। ८७॥ आर्यिकास्तद्वदेवात्र पुण्यवृद्धिं च वर्णिनः। दर्शनविशुद्धिं प्रायः कचिदेतन्मन्तान्तरम् ॥ ८८ ॥ श्राद्धाः परस्परं कुर्युरिच्छाकारं स्वभावत ।
जुहारुरिति लोकेऽस्मिन्नमस्कारं स्वसजनाः ॥ ८९ ॥ जो लोग मुनिश्वरोंको आकर “ नमोऽस्तु" करे उसके बदलेमें वे महामुनीश्वर श्रावकोंको तो “ धर्मवृद्धिरस्तु” अर्थात् सद्धर्मकी वृद्धि हो ऐसा कहे । जैनधर्मसे बाह्य अजैनोंको “ धर्मलाभोऽस्तु " अर्थात् तुम्हें सद्धर्मकी प्राप्ति हो ऐसा कहे । आर्यिकाएंभी श्रावकों और अजैनों को ऐसाही कहे । तथा ब्रह्मचारी “ पुण्यवद्धिरस्तु ” पुण्यकी वृद्धि हो ऐसा कहे अथवा “ दर्शनविशुद्धिरस्तु" तुम्हारे दर्शनकी विशुद्धि होवे ऐसा कहे, ऐसा किन्हीं किन्हींका मत हैं । श्रावकगण पस्परमें एक दूसरेसे इच्छाकार करें तथा इस लोकव्यहारमें सज्जनवर्ग जुहारु इस तरहका नमस्कार करें ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ ८९॥
व्यावहारिक पचति । योग्यायोग्यं नरं दृष्ट्वा कुर्वीत विनयादिकम् । ...
विद्यातपोगुणैः श्रेष्ठो लघुश्चापि गुरुर्मतः ॥ ९० ॥ योग्य और अयोग्य मनुष्योंको देखकर विनय वगैरह करना चाहिए। तथा जो पुरुष विद्या तप और गुणोंमें श्रेष्ठ है वह अवस्थामें छोटा है तो भी बड़ा माना जाता है ॥ ९० ॥
रोगिणो दुःखितान् जीवान् जैनधर्मसमाश्रितान् ।
सम्भाष्य वचनैर्मुष्टैः समाधानं समाचरेत् ॥ ९१ ॥ रोगी तथा दुःखी ऐसे जैन धर्मावलंबी मनुष्योंका हितकर मीठे वचनोंसे सम्बोधन कर उनका यथेष्ट समाधान करे ॥ ९१ ॥
मूर्खान् मूढांश्च गर्विष्ठान् जिनधर्मविवर्जितान् ।
कुवादिवादिनोऽत्यर्थं त्यजेन्मौनपरायणः ॥ ९२ ॥ जो मूर्ख हों, मूढ हों, घमंडी हों, व्यर्थ वितंडा करनेवाले हों और जैन धर्मसे बाह्य हों ऐसे लोगोंसे विशेष बातचीत न करे, किन्तु मौन धारण कर ले ॥ ९२ ॥