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________________ १९८ सोमसेनभट्टारकविरचित जलोदरादिकृयूकाद्यङ्कमप्रेक्ष्यजन्तुकम् । प्रेताद्युच्छिष्टमुत्सृष्टमप्यश्नन्निश्यहो सुखी ॥ २०४ ।। रात्रिमें भोजन करनेसे भोजनके साथ यदि जू खानेमें आ जाय तो वह जलोदर रोग. पैदा कर देता है। यदि मकड़ी खानेमें आ जाय तो शरीरमें कोढ़ हो जाता है । यदि मक्खी खानेमें आ जाय तो वमन हो जाता है । यदि मद्किा खानेमें आ जाय तो मेदाको हानि पहुंचती है। यदि भोजनमें बिच्छू गिर पड़े तो तालुमें बड़ी व्यथा पैदा कर देता है । लकड़ीका टुकड़ा अथवा कांटा भोजनके साथ खा लिया जाय तो गलेमें रोग पैदा करता है । भोजनमें मिला हुआ बाल यदि गलेमें लग जाय तो स्वरमंग हो जाता है। इस तरह अनेक दोष रात्रिमें भोजन करनेसे उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा कई सूक्ष्म जन्तु भोजनमें गिर पड़ते हैं, जो अन्धकारके कारण दिखते नहीं हैं उनको भी खाना पड़ता है । रात्रिके समय पिशाच, राक्षस आदि नीच व्यंतरदेव इधर उधर घूमते रहते हैं, उनका भी भोजनसे स्पर्श हो जाता है । वह भोजन भक्षण करनेके योग्य नहीं रहता है । इस तरहके अनेक दोषोंसे युक्त भोजन भी रात्रिमें भोजन करने वालोंको खाना पड़ता है। तथा जिस चीजका त्याग है वह भी रात्रिमें न दिखनेसे खानेमें आ जाती है । इस प्रकार रात्रिभोजनमें अनेक दोष होते हुए भी, आश्चर्य और खेद है कि, दुर्बुद्धि लोग रात्रिमें भोजन करते हुए अपनेको सुखी मानते हैं ॥ २०४॥ जल-गालन-व्रतके दोष । मुहूर्तयुग्मोर्ध्वमगालनं वा दुर्वाससा गालनमम्बुनो वा । अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपानेऽस्य न तदव्रतेऽWः ॥ २०५ ॥ छने हुए पानीको दो मुहूर्त याने चार घड़ीके बाद न छानना, फटे-टूटे, मैले, पुराने, छोटे छेदवाले कपड़ेसे छानना, छाननेसे बाकी बचे हुए जल ( जीवानी) को जिस जलाशयका वह पानी था उससे दूसरेमें लेजाकर डालना-ये सब जल-गालन-व्रतके दोष हैं। भावार्थ-जिसके जल छान कर पीनेका नियम है वह यदि चार घड़ी के बाद पानी छान कर न पीवे, योग्य छन्नेसे न छाने और जीवानीको उसीके स्थानमें न पहुंचावे तो उसका वह व्रत प्रशंसनीय नहीं है ॥२०५॥ मद्य-त्याग-व्रतके दोष। सन्धानकं त्यजेत्सर्वं दधि तक्रं व्यहोषितम् । काञ्जिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥ २०६ ॥ श्रावकोंको सब तरहका आचार, दो दिन-रातके बादका दही और मठा ( छाछ ), जिसपर सफेद सफेद फूलन आ गई हो अथवा दो दिन-रातसे अधिक हो गई हो ऐसी कांजी नहीं खाना चाहिए। यदि वे इनको न छोड़ेंगे तो उनके मय-त्याग-व्रतमें अतीचार लगेंगे ॥२०६॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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