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________________ त्रैवर्णिकाचार । २८३ अर्थात् कालशुद्धि, अनिशुद्धि, भस्मशुद्धि, मृत्तिकाशुद्धि, गोमयशुद्धि, जलशुद्धि', शानशुद्धि और निर्विचिकित्सत्वशुद्धिके भेदसे लौकिक शुचिता-पवित्रता आठ प्रकारकी है । यद्यपि गोमय शरीरसे उत्पन्न होता है, तथापि वह लोकमें पवित्र माना गया है । यथाः शरीरजा अपि गोमय-गोरोचना-दंतिदन्त-चमरीबाल-मृगनाभि-खङ्गिविषाण-मयूर. पिच्छ-सर्पमाणि-शुक्ति-मुक्ताफलादयो लोकेषु शुचित्वमुपागताः। -चारित्रसार । ___ इसका आशय यह है कि, प्राणियोंके शरीरसे उत्पन्न होते हुए भी गोमय, गोरोचना, हाथीके दांत, चमरी गायके बाल, कस्तूरी, गेंडेके सींग, मयूरपंखको पिच्छि, सर्पके मस्तककी मणि, सीप, मोती आदि वस्तुएं लोकमें शुचिता-पवित्रताको प्राप्त हुई हैं। आदि शब्दसे शंख, रेशम आदि भी समझना चाहिये। . इससे यह फलितार्थ निकला कि, लोग गोमय और गोमूत्रको पवित्र मानकर देवता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं, यह लोकमूढ़ता है । उससे भूमि-शुद्धि करना आदि लोकमूढ़ता नहीं है । जैसी लोकमें चंद्रसूर्यकी पूजा की जाती है वैसी पूजा करना लोकमूढ़ता है । पर जिनप्रतिष्ठा आदिके समय उनका सत्कार करना लोकमूढ़ता नहीं है । यहां अभिप्रायका भेद है । सर्वसाधारण अग्निको देवमानकर नमस्कारादि करना लोकमूढ़ता है। परंतु जिनयज्ञ-संबंधी आहिताग्नि आदि तीन तरहकी अमिकी पूजा करना, उसकी भस्मको शिरपर चढ़ाना, नमस्कार करना लोकमूढ़ता नहीं है । इसी तरह सर्वसाधारण पर्वतोंकी पूजा करना लोकमूढ़ता है। परंतु सम्मेदशिखर, गिरनार, शत्रुजय, तारंगा आदि पर्वतोंकी पूजा करना लोकमूढ़ता नहीं है । यज्ञोपवीत संस्कारके समय बोधि (बड़) वृक्षकी पूजा, चैत्यवृक्षकी पूजा, जिन-मंदिरकी भूमिकी पूजा करना आदि भी लोकमूढ़ता नहीं है । सर्वसाधारण अग्नि, वृक्ष, पर्वत आदि पूज्य क्यों नहीं और विशेष विशेष कोई कोई पूज्य क्यों हैं ? इसका उत्तर यह है कि जिनसे जिनभगवानका संबंध है वे पूज्य हैं; अन्य नहीं। अस्तु, लोकमूढताकी संभवता-असंभवताका विचार बुद्धिमानोंको स्वयं कर लेना चाहिए। देवमूढ़ता। बरोपलिप्सयाऽऽशावान् रागद्वेषमलीमसाः। देवता यदुपासीत देवतामूद्रमुच्यते ॥ ३१॥ वरकी इच्छासे आशावान् होकर राग-द्वेषसे महामलीन कुदेवोंकी उपासना-भक्ति करनेको देव. मूढ़ता कहते हैं ॥ ३१ ॥ भावार्थ-मुझे अपने वांच्छित इष्ट फलकी प्राप्ति हो, ऐसी इसलोक-संबंधी फलकी इच्छा कर रागद्वेषसे मलीन देवोंकी उपासना करनेको स्वामिसमन्तभद्राचार्य देवमूढता बतलाते हैं । वह अक्षरशः ठीक है । इसमें कोई भी तरहकी बाधा नहीं है। परंतु विचार यह है कि ऋषिप्रणीत हमारे बड़े बड़े पूजाशास्त्रों, स्नानशास्त्रों, प्रतिष्ठापाठ आदिमें सर्वत्र शासनदेवोंका पूजन पाया जाता है । पूजनका क्रम इस विषयके सभी शास्त्रोंमें वैसा ही है, जैसा इस शास्त्रके चतुर्थ अध्यायमें बताया गया है। फर्क है तो सिर्फ इतना ही कि,किसीमें विस्तारको लिये हुए और किसीमें संक्षेपताको लिये हुए वर्णन किया गया है । तब यह विचार उपस्थित होता है कि शास्त्रोंमें यह परस्पर विरोध कैसा ? परंवं पक्षपातको छोड़कर विचार किया जावे तो, यद्यपि यह निर्विचार
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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