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________________ सोमसेनभट्टारकविरचित पुरुषोंको विरोध मालूम पड़ता है, तथापि कुछ विरोध नहीं है। प्रथम कथनका अभिप्राय समझलेना चाहिए कि यह निषेध किस अभिप्रायसे है और यह विधान किस अभिप्राय-अपेक्षासे है ? श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने रत्नकरंडके इसी श्लोककी टीकामें स्पष्ट कर दिया है । यदि केवल उसीका पूर्ण विचारके साथ मनन किया जाय तो सब तरहकी शंकाओंका उत्तर थोड़ेमें मिल जाता है। वे लिखते है कि वरकी इच्छासे शासन-देवोंकी उपासना करना देवमूढता है। परंतु शासनदेवोंको शासनदेव मानकर-उनको सद्धर्मके भक्त मानकर उनका सत्कार करना देवमूढता नहीं है । आचार्य महाराजके इस कथनसे किसी भी शंकाका उत्तर बाकी नहीं रह जाता है। इसीसे सबका समाधान हो जाता है। कितने ही लोग श्रीप्रमाचंद्रके इस कथनको स्वामी समन्तभद्राचार्यके विरुद्ध बतलाते हैं। हम उनसे पूछते हैं कि इसमें विरुद्धता ही क्या है ? वे कहेंगे कि श्रीसमन्तभद्राचार्य देवोंके पूजनेका निषेध करते हैं और श्रीप्रभाचंद्राचार्य उसका विधान करते हैं। इसका समाधान यह है कि स्वामी समंतभद्राचार्य वरकी इच्छासे रागद्वेषसे मलीन अर्थात् मिथ्यादृष्टि देवोंके पूजनेका निषेध करते हैं । उसका प्रभाचंद्राचार्य भी निषेध करते हैं । रहा शासनदेवोंको शासनदेव मानकर उनके सत्कारका विधान; सो इसका तो समन्तभद्राचार्य भी निषेध नहीं करते । क्योंकि उन्होंने श्लोकमें 'वरोपलिप्सया' और 'आशावान् ' ये दो पद दिये हैं। जिससे मालूम पड़ता है कि स्वामिसंमतभद्राचार्य शासनदेवोंके सत्कारका निषेध नहीं करते। हां यदि वरकी इच्छासे शासन-देवोंका सत्कार किया जाय तो कदाचित् देव-मूढताका दोष आ सकता है। अतः इस विषयमें श्रीसमंतभद्राचार्य और श्रीप्रभाचंद्राचार्यका मत परस्पर विरुद्ध नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि शासन-देवोंका सत्कार अन्य ऋषिप्रणीत ग्रन्थोंमें नहीं पाया जाता और इसका नया ही जिकर श्रीप्रभाचंद्राचार्यने किया होता, तो कदाचित् कह सकते थे कि श्रीसमंतभद्राचार्य और श्रीप्रभाचंद्राचार्यका मत परस्पर विरुद्ध है । श्रीसोमदेवसूरिप्रणीत यशस्तिलक-चंपू, श्रीदेवसेनसूरिप्रणीत प्राकृत भावसंग्रह, वसुनंदि. सिद्धान्तचक्रवर्तिप्रणीत उपासकाध्ययन, प्रतिष्ठासार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि ऋषिप्रणीत बड़े बड़े ग्रन्थों में उनके सत्कारका उल्लेख है । शासनदेव जिनभक्त होते हैं। जो जिनभक्त होते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं । शासन-देव जिनभक्त हैं, इसका उल्लेख समंतभद्राचार्यसे भी पूर्ववर्ती ऋषिप्रणीत ग्रन्थोंमें पाया जाता है। हरिवंशपुराणमें तो शासनदेवोंसे बड़ी बड़ी प्रार्थनाएं की गई हैं। भैरव-पद्मावतीकल्प, ज्वालामालिनीकल्प, सिद्धचक्रकल्प आदि अनेक ऋषिप्रणीत मंत्रशास्त्र हैं, जिनसे भी शासन-देवोंका सत्कार सिद्ध होता है । अस्तु, शासन-देवोंके सत्कारकी जैसी विधि आगममें बताई गई है तदनुसार करना देवमूढ़ता नहीं है । और न समंतभद्राचार्य तथा प्रभाचंद्राचार्यके वचनोंमें परस्पर विरोध ही है। पाखंडिमूढ़ता। सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेया पाखण्डिमूढता ॥ ३२ ॥ . जो नाना प्रकार के परिग्रह रखते हैं, अनेक तरहके आरंभ करते हैं, हिंसासे परिपूर्ण हैं, और संसारके चक्करमें-मोह-फाँसमें फंसे हुए हैं, उन पाखंडियोंको संसारसमुद्रसे पार करनेवाले गुरु मान उनका सत्कार करना पाखंडिमूढ़ता है । भावार्थ-जो अपने धर्मोपदेशके द्वारा भव्य जीवोंको संसार-समुद्रसे पार करनेवाला है और जो स्वयं संसार-समुद्रसे पार होनेवाला है, वह स्वपरका कल्याण
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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