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________________ त्रैवर्णिकाचार। करनेवाला गुरु हो सकता है । इसके विपरीत जो स्वयं अनेक प्रकारके कुकृत्य करता है, सांसारिक चक्रों में खूब गोता लगा रहा है, इंद्रियोंके विषयोंमें हराबोर हो रहा है, जिसके वचन पूर्वापर विरोधको लिये हुए हैं, जो जीवोंको मिथ्या उपदेश देकर कुमार्गकी ओर खेंचे ले जा रहा है, वह गुरु नहीं है-वह वास्तवमें पत्थरकी नौका है । जो स्वयं पानीमें डूबती और दूसरोंको भी डूबो देती है । ऐसे पत्थरकी नौकासे समद्र पार करना कटिन ही नहीं. वल्कि महा कठिन है। अतः ऐसे पुरुषोंके लुभानेवाले वचनोंसे मोहित होकर सख चाहनेवाले प्राणियोंको अपनी आत्माको उनके वाग्जालम न फँसाना चाहिए ॥ ३२ ॥ -आठ मद । ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धिं तपो तपुः। अष्टावाश्रित्य मानित्वं श्रीयते तन्मदाष्टकम् ॥ ३३॥ ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बलें, ऋद्धि, तपश्चरण, और शरीर, इन आठोंको गर्व करनाघमंड करना, आठ मद हैं ॥ ३३ ॥ छह अनायतन। कुदेवस्तस्य भक्तश्च कुशास्त्रं तस्य पाठकः। कुगुरुस्तस्य शिष्यश्च षण्णां सङ्गं परित्यजेत् ॥ ३४ ॥ कुदेव और कुदेवभक्त, कुशास्त्र और कुशास्त्र-पाठक-भक्त, तथा कुगुरु और कुगुरुभक्त, ये छह अनायतन हैं। इन छहोंके साथ संगति नहीं करना चाहिए । भावार्थ-धर्मके आलम्बनाको आयतन कहते हैं। सच्चा देव, सच्चा गुरु और सच्चा शास्त्र, ये तीन तथा तीन इनके भक्त, इस. तर, ये छह धर्मके आलम्बन हैं । इनसे विपरीत जो ऊपर श्लोकमें बताये हैं वे धर्मके आलंबन नहीं हैं । अतः उन्हें अनायतन कहते हैं। इन छहोंकी संगति करनेसे धर्म-सम्यक्त्व मलिन होता है । अतः सम्यग्दृष्टियोंको इन छहोंकी संमति नहीं करना चाहिए ॥ ३४ ॥ शंकादि आठ दोष। शङ्काऽऽकांक्षा जुगुप्सा च प्रौढ्यमनुपगृहनम् । अस्थितीकरणं चाप्यवात्सल्यं चाप्रभावना ॥ ३५ ॥ एतेऽष्टौ मिलिता दोषास्त्याज्याः सम्यक्त्वधारिभिः । सदैव गुरुशास्त्राणां भक्तिः कार्या निरन्तरम् ॥ ३६ ॥ शंका-निर्दोष जिनमतमें खाँमुखाँ शंका करना; आकांक्षा-अच्छे अच्छे विषयभोगोंकी चाहना करना; जुगुप्सा-धर्मात्माओंसे ग्लानि करना, मूढदृष्टि-कुमार्गमें तथा कुमार्गमें रहनेवाले पुरु षोंमें सहमत रहना, उनकी प्रशंसा करना-सराहना करना; अनुपगूहन-निर्दोष परम पवित्र संपूर्ण जीवोंके हित करनेवाले जिनमार्गकी निंदा करना; अस्थितीकरण-धर्ममें आसक्त पुरुषोंको धर्ममें झूठे दोष दिखादिखाकर धर्मसे चिगाना; अवात्सल्य-धर्मके धारी श्रद्धानी पुरुषोंसे द्वेष करना, उनकी झूठी निंदाकर लोगोंको भड़काना; और अप्रभावना-जैनधर्मकी प्रतिष्ठा न करनाउसकी झूठी निंदा फैलाना; ये सम्यक्त्वके आठ दोष हैं। सम्यग्दृष्टिको इन आठ दोषोंका त्याग करना चाहिए, और हमेशह सच्चे देव, गुरु, शास्त्रकी भक्ति करना चाहिए ॥ ३५-३६ ॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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